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द्रव्यानुयोग-(१) भेदों में भी विभक्त किया गया है। यह विभाजन एक तकनीक है जिससे इन भेदों को विविध प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है। इन जीवों के चौदह भेद भी किए जाते हैं, जो प्रसिद्ध हैं। इन चौदह भेदों में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय इन सात भेदों के पर्याप्तक एवं अपर्याप्तकों की गणना की जाती है। जीवों के भेदों की गणना करते-करते इनके ५६३ भेद तक किए गए हैं।
इन समस्त संसारी जीवों को २४ दण्डकों में भी विभक्त किया गया है। ये चौबीस दण्डक जीवों की २४ वर्गणाओं के द्योतक है। वर्गणा का अर्थ यहाँ समूह (Group) है। विभिन्न समान विशेषताओं के आधार पर ये जीव इन वर्गणाओं एवं दण्डकों में विभक्त होते हैं। इन दण्डकों का आगम में एक निश्चित क्रम है जिसके अनुसार नैरयिकों का एक दण्डक है, दस भवनपति देवों के दस दण्डक (२-११) हैं, पांच स्थावरों के पाँच (१२-१६), तीन विकलेन्द्रियों के तीन (१७-१९) तथा तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का एक दण्डक (२०) है। मनुष्यों का एक दण्डक (२१) है। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के एक एक कर तीन दण्डक (२२-२४) हैं। इस प्रकार चार गति के जीव चौबीस दण्डकों में विभक्त होते हैं।
इन चौबीस ही दण्डकों के जीव भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी हैं, अनन्तरोपपन्नक भी हैं और परम्परोपपन्नक भी हैं, गतिसमापन्नक भी हैं और अगतिसमापन्नक भी हैं, प्रथमसमयोपपन्नक भी हैं और अप्रथमसमयोपपन्नक भी हैं, आहारक भी हैं और अनाहारक भी हैं, पर्याप्तक भी हैं और अपर्याप्तक भी हैं, परीत संसारी भी हैं और अपरीतसंसारी भी हैं, सुलभ-बोधिक भी हैं और दुर्लभ बोधिक भी हैं।
प्रज्ञापनासूत्र में संसारसमापन्नक जीवों की प्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गई है-एकेन्द्रिय संसार समापन्नक जीव प्रज्ञापना से लेकर पंचेन्द्रिय संसार समापन्नक जीव प्रज्ञापना तक। उसमें फिर इन पांच प्रकारों के विभिन्न भेदोपभेदों का विस्तृण निरूपण है जो सब इस अध्ययन में समाविष्ट है। इन भेदोपभेदों से विविध प्रकार की विशिष्ट जानकारी होती है जैसे-पृथ्वीकाय के श्लक्ष्ण आदि भेद तथा काली मिट्टी आदि प्रदेश, बादर आदि अप्काय के ओस, हिम आदि भेद, बादर तेजस्काय के अंगार, ज्वाला आदि भेद, बादर वायुकाय के पूर्वी वायु आदि तथा झंझावात आदि भेद, प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पति काय के वृक्ष, गुच्छ, गुल्म आदि १२ भेद तथा फिर इनके उपभेद, साधारण शरीर बादर वनस्पतिकाय के अवक, पनक, शैवाल आदि भेद। पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के विविध जीव जातियों का जो परिचय इस अध्ययन में दिया गया है वह वैज्ञानिक दृष्टि से भी शोध का विषय है। वनस्पति के भेदों एवं उनके विभिन्न नामों की लम्बी सूची गिनाई गई है जो वनस्पतिविशेषज्ञों एवं आयुर्वेद चिकित्सकों के लिए उपयोगी प्रतीत होती है। बहुत से आगमिक नामों को आधुनिक प्रचलित नामों से जोड़ने की भी आवश्यकता है।
निगोद के जीवों का समावेश भी एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय के जीवों में होता है। निगोद दो प्रकार के कहे गए हैं-निगोद एवं निगोद-जीव। ये दोनों ही सूक्ष्म एवं बादर के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। सूक्ष्म एवं बादर पुनः पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक भेदों में विभक्त होते हैं। संख्या की दृष्टि से ये सभी अनन्त हैं।
इस अध्ययन में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवों के विविध प्रकारों एवं नामों का भी उल्लेख हुआ है।
पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि सात नरक पृथ्वियों के आधार पर नैरयिक सात प्रकार के होते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव जलचर, स्थलचर और खेचर के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। फिर इनके भी अनेक भेदोपभ# द हैं। जलचरों में मच्छ, कच्छप, ग्राह, मगर एवं सुसुमार ये पांच भेद प्रमुख हैं। स्थलचर जीव चतुष्पद एवं परिसर्प के भेद से दो प्रकार के हैं। चतुष्पद जीव एक खुर, दो खुर, गण्डीपद एवं सनखपद के आधार पर चार प्रकार के हैं। एक खुर में-अश्व, गधा जैसे, दो खुर में-गाय, भैंस, जैसे, गण्डीपद में ऊँट, हाथी, गेंडा जैसे तथा सनखपद में-सिंह, व्याघ्र जैसे जानवरों की गणना की जाती है। परिसर्प जीव दो प्रकार के हैं उर से चलने वाले उरपरिसर्प तथा भुजा से चलने वाले भुजपरिसर्प। उरपरिसर्प में फन वाले एवं बिना फन वाले सर्प, अजगर, आसालिक और महोरग की गणना होती है। सपों के विभिन्न प्रकारों का आगम में उल्लेख सर्प-जिज्ञासुओं के लिए महत्व का विषय है। भुजपरिसर्प नकुल, गोह, सरट आदि विभिन्न प्रकार के होते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव सम्मूर्छिम भी होते हैं तथा गर्भज भी होते हैं। सम्मूर्छिम जीव नपुंसक होते हैं तथा गर्भज जीव स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। भुजपरिसर्प और उरपरिसर्प जीव अंडज, पोतज और सम्मूर्छिम के भेद से भी तीन प्रकार के निरूपित हैं।
खेचर पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गपक्षी और विततपक्षी। इनमें से समुद्गपक्षी और विततपक्षी मनुष्य-क्षेत्र में नहीं होते, मनुष्यक्षेत्र के बाहर द्वीप-समुद्रों में होते हैं। पक्षी तीन प्रकार के माने गए हैं-अंडज, पोतज और सम्मूर्छिम।
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-सम्मूर्छिम और गर्भज। सम्मूर्छिम मनुष्य असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि एवं सभी प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त नहीं होते हैं। ये अन्तर्मुहूर्त की आयु भोग कर मर जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के चौदह स्थान माने गए हैं जिनमें गर्भज मनुष्य के उच्चार, प्रसवण (पेशाब), कफ आदि सम्मिलित हैं। गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैं-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपक। एकोरुक, आभासिक, वैषाणिक आदि २८ अन्तर्दीपक हैं। पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक्वर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्रों में उत्पन्न होने से अकर्मभूमिज मनुष्य ३० प्रकार के हैं। कर्मभूमियां १५ हैं-पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह। इनमें उत्पन्न कर्मभूमिज मनुष्य संक्षेप में दो प्रकार के हैं-१. आर्य और २. म्लेच्छ। प्रज्ञापना सूत्र में शक, यवन, किरात, शबर आदि अनेक प्रकार के म्लेच्छों का उल्लेख है।
आर्यों को दो भागों में विभक्त किया गया है-१. ऋद्धि प्राप्त आर्य और २. ऋद्धि अप्राप्त आर्य। ऋद्धि प्राप्त अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और विद्याधर के भेद से छह प्रकार के प्रतिपादित हैं। ऋद्धि अप्राप्त आर्य क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, शिल्प, भाषा, ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आधार पर नौ प्रकार के निरूपित हैं। मगध आदि साढ़े पच्चीस (२५.५) देश आर्य क्षेत्र कहे गए हैं। इसी प्रकार छह जातिया, छह कुल, कुछ कर्म और