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जीव अध्ययन : आमुख षड्द्रव्यों में जीव द्रव्य प्रमुख है। आगम में इसके विविध लक्षण प्रदत्त हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है के जो चेतनामय होता है वह जीव है, जिसमें ज्ञान एवं दर्शन उपयोग होता है वह जीव है, जिसे सुख-दुःख का अनुभव होता है वह जीव है। जीव ही कर्मों से बद्ध रहा है और वही इनसे मुक्त होता है। जीव का जब अजीव कर्म पुद्गलों से सम्बन्ध होता है तो वह विभिन्न गतियों में भ्रमण करता रहता है तथा जब वह इनसे रहित हो जाता है तो उसका यह भ्रमण समाप्त हो जाता है, फिर उसे सिद्ध जीव कहा जाता है।
इस प्रकार जीव दो प्रकार के कहे जा सकते हैं १. संसार समापन्नक और २. असंसारसमापन्नक। जो संसार की चार गतियों में भ्रमणशील है वह जीव संसार समापन्नक है तथा जो इस भव भ्रमण से विरत होकर सिद्ध बन गया है वह असंसारसमापन्नक कहलाता है। जो भवसिद्धिक जीव हैं वे मुक्ति प्राप्ति के पूर्व ही असंसारसमापन्नक जीवों की श्रेणी में आ जाते हैं तथा जो अभवसिद्धिक हैं वे सदैव संसारसमापन्नक ही बने रहते हैं। सभी भवसिद्धिक जीवों में सिद्ध होने की योग्यता होती है, वे सिद्ध बन सकते हैं तथापि भवसिद्धिक जीवों से यह लोक रहित नहीं होता। जयन्ती के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने यह बात कही है।
जीव अनन्त हैं, वे नये उत्पन्न नहीं होते तथा पहले के नष्ट नहीं होते। उनमें घटत या बढ़त नहीं होती। संख्या की दृष्टि से वे अनन्त हैं और अनन्त ही रहते हैं। नैरयिक जीवों में घटत-बढ़त हो सकती है, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों में घटत-बढ़त हो सकती है किन्तु सम्पूर्ण जीवों की दृष्टि से वे घटतेबढ़ते नहीं है, अवस्थित रहते हैं। इस अवस्थिति में अनन्त सिद्ध एवं अनन्त संसारी जीव सम्मिलित हैं। यद्यपि अनन्त जीवों के सिद्ध हो जाने पर भी अनन्त संसारी जीव विद्यमान रहते हैं, उनका कभी अन्त नहीं होता।
असंसारसमापन्नक सिद्ध जीवों को निराबाध शाश्वत सुख प्राप्त है, वह सुख मनुष्यों और देवों को भी प्राप्त नहीं है। औपपातिक सूत्र में सिद्धों के अनुपम सुख का वर्णन हुआ है। ये सिद्ध दो प्रकार के हैं-अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध। जिन्हें सिद्ध हुए अभी प्रथम समय भी व्यतीत नहीं हुआ है वे अनन्तरसिद्ध हैं तथा जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम समय व्यतीत हो गया है वे परम्पर सिद्ध कहलाते हैं। सिद्धों के तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध, तीर्थङ्करसिद्ध, अतीर्थङ्करसिद्ध आदि जो पन्द्रह भेद हैं वे अनन्तरसिद्ध की अपेक्षा से हैं। अप्रथमसमय सिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, यावत् संख्यात समय सिद्ध, असंख्यातसमय सिद्ध और अनन्तसमय सिद्ध आदि भेद परम्परसिद्ध की अपेक्षा से हैं।
प्रस्तुत अध्ययन में समवायांगसूत्र के अनुसार सिद्धों के इकत्तीस गुणों का भी उल्लेख हुआ है, जो आठ कर्मों के क्षय से प्रकट होते हैं। आठ कर्मों के क्षय से अनन्तज्ञान, अनन्तददर्शन, अनन्तसुख, क्षायिक सम्यक्त्व आदि आठ गुणों का प्रकट होना भी बताया गया है। इन्हीं आठ गुणों के विस्तार में वे इकत्तीस गुण प्रतिपादित हैं। अनन्तज्ञान आदि गुणों से युक्त और अनन्त सुख से सम्पन्न ये सिद्ध पुनः किसी गति में अवतरित नहीं होते हैं। ये लोक कल्याण के लिए भी पुनः देहधारण नहीं करते हैं। सभी सिद्ध जीव लोक के अग्रभाग में अवस्थित रहते हैं। इनकी अपनी अवगाहना भी होती है किन्तु एक सिद्ध की अवगाहना से दूसरे सिद्ध के आत्म प्रदेशों की अवगाहना प्रभावित नहीं होती। जिस प्रकार रेडियो एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों की तरंगें एक स्थान पर अवगाहित होकर भी भिन्न-भिन्न ही रहती हैं इसी प्रकार प्रत्येक सिद्ध की अवगाहना भिन्न भिन्न होती है। एक अन्तर यह अवश्य है कि रेडियो एवं दूरदर्शन की तरंगें जहां पौद्गलिक होने से मूर्त हैं वहाँ सिद्धों के आत्मप्रदेश अमूर्त हैं। इसलिए उनके परस्पर अवगाढ़ होने में कोई बाधा नहीं है। ___ असंसारसमापन्नक या सिद्ध जीव जहाँ अशरीरी, अकायिक, अयोगी और निरिन्द्रिय होते हैं। वहाँ संसारसमापन्नक या संसारी जीव सशरीरी, सकायिक, सयोगी और सेन्द्रिय होते हैं। ... संसारी जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार गतियों तथा चौरासी लाख जीवयोनियों में जन्म लेते रहते हैं। इनके विविध प्रकार से भेद किए जाते हैं। दो प्रमुख भेद हैं-त्रस और स्थावर। स्थितिशील को स्थावर तथा गति करने में सक्षम जीवों को त्रस कहते हैं।
समस्त संसारी जीवों को स्त्री, पुरुष और नपुंसक इन तीन भेदों में भी विभक्त किया जाता है। स्त्रियां भी तीन प्रकार की होती हैं-तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ, मनुष्यस्त्रियां और देवस्त्रियां। तिर्यक्योनिक स्त्रियां जलचर, स्थलचर और खेचर के भेद से तीन प्रकार की होती हैं। फिर इनके भी भेदोपभेद होते हैं। मनुष्य स्त्रियां कर्मभूमि, अकर्मभूमि एवं अन्तर्वीप में होने से तीन प्रकार की होती हैं। देव स्त्रियां चार प्रकार की होती हैं-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक। पुरुष भी स्त्रियों की भांति तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देव के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। तिर्यक्योनिकस्त्रियों, मनुष्यस्त्रियों और देवस्त्रियों की भांति तिर्यक्योनिक पुरुष, मनुष्य पुरुष और देव पुरुषों के वे ही तीन, तीन एवं चार भेद होते हैं। नपुंसक भी तीन प्रकार के कहे गए हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक और मनुष्ययोनिक। नरक गति के सारे नैरयिक नपुंसक होते हैं जबकि देवगति का कोई भी देव नपुंसक नहीं होता। तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय पूर्णतः नपुंसक होते हैं किन्तु पंचेन्द्रियों में भी नपुंसक पाए जाते हैं। मनुष्य स्त्री व पुरुष की तरह नपुंसक भी होते हैं। इनके भी विभिन्न भेदोपभेदों का निरूपण इस अध्ययन में हुआ है।
नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव के भेद से संसारी जीव चार प्रकार के हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के आधार पर ये पांच प्रकार के हैं। पृथ्वीकाय आदि षट्कायों के आधार पर ये छह प्रकार के हैं। कुछ आधारों पर इन जीवों को सात, आठ, नौ एवं दस
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