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जीव अध्ययन
- १०३ कुछ शिल्प आर्य माने जाते हैं। अर्द्धमागधी भाषा में बोलने वाले और ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वालों को भाषार्य कहा गया है। इसी के साथ ब्राह्मी लिपि में अठारह प्रकार के लेख का विधान किया गया है। ___ आभिनिबोधिक आदि पांच ज्ञानों के आधार पर पांच ज्ञानार्य निरूपित हैं। दर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-१. सराग दर्शनार्य और २. वीतराग दर्शनार्य। निसर्गरुचि, उपदेशरुचि आदि सम्यक्त्व की दस रुचियों से सम्पन्न आर्यों को दस प्रकार का सरागार्य माना गया है। वीतराग दर्शनार्य दो प्रकार का प्रतिपादित है-१. उपशान्त कषाय और २. क्षीण कषाय। इनके भी तात्विक दृष्टि से अनेक भेदोपभेदों का निरूपण है। चारित्रार्य भी दर्शनार्य की भांति सराग चारित्रार्य और वीतराग चारित्रार्य भेदों में विभक्त हैं।
देव चार प्रकार के होते हैं-१. भवनवासी २. वाणव्यन्तर ३. ज्योतिष्क और ४. वैमानिक। भवनवासी के असुरकुमार, नागकुमार आदि दस भेद हैं। वाणव्यन्तर के किन्नर, किंपुरुष आदि आठ प्रकार हैं। ज्योतिष्क देव चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारों के भेद से पांच प्रकार के हैं। वैमानिक देव कल्पोपन्न और कल्पातीत के भेद से दो प्रकार के हैं। कल्पोपन्न देव सौधर्म, ईशान आदि के भेद से १२ प्रकार के होते हैं। कल्पातीत देव दो प्रकार के होते हैं-ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरौपपातिक। ग्रैवेयक देवों के नौ भेद हैं। अनुत्तरौपपातिक देवों के विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध -ये पांच भेद हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद तो सभी जीवों के समान देवों में भी लागु होते हैं।
जीवद्रव्य के इस अध्ययन में जीव से सम्बद्ध अनेक दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक बिन्दुओं पर विचार हुआ है। प्रमुख बिन्दु इस प्रकार हैं(१) उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम वाला जीव आत्मभाव से जीवभाव (चैतन्य) को प्रकट करता है। वह पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान
और चार दर्शन की अनन्त पर्यायों को प्राप्त करता हुआ उत्थान आदि से जीव भाव को प्रकट करता है। (२) द्रव्य की अपेक्षा जीव अतीत अनन्त शाश्वत काल में था, वर्तमान शाश्वत काल में है और अनन्त शाश्वत भविष्यकाल में रहेगा। अर्थात्
जीव कभी नष्ट नहीं होता। जीव को कोई अजीव रूप में परिणत भी नहीं कर सकता। इसी प्रकार अजीव को भी कोई जीव रूप में परिणत
नहीं कर सकता। (३) जीव को जैसी देह मिलती है वह उसके अनुरूप ही आत्म-प्रदेशों का संकोच एवं विस्तार कर लेता है। इस दृष्टि से हाथी एवं कुंथु का जीव
समान है। इसे जैनदर्शन में जीव का देह परिमाणत्व कहा जाता है। इसके लिए दीपक के छोटे-बड़े कमरे में रखने पर प्रकाश के संकोच एवं
विस्तार का उदाहरण दिया जाता है। (४) कूर्म, कूर्मावली, गोह, गोह पंक्ति आदि के दो, तीन या संख्यात टुकड़े किए जाएं तो उनके बीच का भाग जीव प्रदेशों से स्पृष्ट होता है किन्तु
हाथ, पैर या शस्त्र आदि का प्रयोग करके उन जीव प्रदेशों को कोई पीड़ा नहीं पहुँचा सकता, न ही उन्हें भंग कर सकता है, क्योंकि जीव
प्रदेशों पर शस्त्रादि का प्रभाव नहीं पड़ता। (५) ओदन, कुल्माष एवं सुरा में पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से वनस्पति जीव के शरीर हैं तथा जब ये ओदनादि द्रव्य शस्त्रातीत यावत् अग्नि
परिणमित हो जाते हैं तब वे अग्नि के शरीर वाले कहे जाते हैं। सुरा में जो तरल द्रव्य है, वह पूर्वभाव प्रज्ञापना से अप्कायिक जीवों का शरीर है तथा शस्त्रातीत यावत् अग्नि परिणामित होने पर अग्निकाय शरीर कहा जाता है। लोहा, ताम्बा, शीशा आदि द्रव्य पूर्वभाव की प्रज्ञापना से पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर हैं तथा शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित होने पर अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जाते हैं। हड्डी, चमड़ा, रोम, सींग, खुर और नख ये सब पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा त्रसजीवों के शरीर हैं किन्तु बाद में शस्त्रातीत यावत् अग्नि परिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जाते हैं। अंगारे, राख, भूसा और गोबर ये पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर कहे जा सकते हैं किन्तु शस्त्रातीत
यावत् अग्निकाय परिणामित होने पर अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जाते हैं। (६) विभिन्न अपेक्षाओं से जीवों को सादि-सान्त, सादि-अनन्त, अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त भी कहा जा सकता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र में
भगवान् ने बताया है कि नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति एवं आगति की अपेक्षा सादि-सान्त हैं। सिद्ध जीव गति की अपेक्षा से
सादि-अनन्त हैं। लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव अनादि-सान्त हैं और संसार की अपेक्षा से अभवसिद्धिक जीव अनादि-अनन्त हैं। (७) बौद्ध दर्शन में जहां आत्मा (चेतना) के अर्थ में पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ जैन दर्शन में भगवती सूत्र को छोड़कर सर्वत्र आत्मा
(जीव) एवं पुद्गल शब्द का भिन्न अर्थ में प्रतिपादन हुआ है। मात्र भगवती सूत्र के आठवें शतक में जीव को पुद्गली एवं पुद्गल दोनों कहा है। जीव पौद्गलिक इन्द्रियों की अपेक्षा पुद्गली कहा जाता है तथा जीव की अपेक्षा पुद्गल। सिद्धजीव निरन्द्रिय होने से पुद्गल तो हैं किन्तु
पुद्गली नहीं हैं। (८) जीव चैतन्यरूप है तथा चैतन्य भी निश्चित रूप से जीव है। नैरयिक जीव होता है किन्तु जीव नैरयिक ही हो यह आवश्यक नहीं। इसी प्रकार
प्राण धारण करने वाला जीव होता है किन्तु जीव प्राण धारण करे ही यह आवश्यक नहीं है। इस प्रकार की दार्शनिक एवं अनेकान्तिक शैली
में भी विभिन्न तथ्यों को स्पष्ट किया गया है। (९) ज्ञान एवं दर्शन नियमतः आत्मा हैं तथा आत्मा भी नियमतः ज्ञान-दर्शन रूप है।