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८. आरामाइ वा, उज्जाणाइवा, ... ९. वणाइ वा, वणसंडाइ वा, १०. वावीइ वा, पुक्खरणीइ वा, ११. सराइ वा, सरपंतीइवा, १२. अगडाइवा, तलागाइ वा, १३. दहाइ वा,णदीइ वा, १४. पुढवीइ वा, उदहीइ वा, १५. वातखंधाइवा, उवासंतराइ वा, १६. वलयाइ वा, विग्गहाइ वा, १७. दीवाइवा,समुद्दाइ वा, १८. वेलाइ वा, वेइयाइवा, .
१९. दाराइ वा, तोरणाइ वा, २०-४३. णेरइयाइ वा, णेरइयावासाइ वा जाव
वेमाणियाइ वा, वेमाणियावासाइ वा, ४४. कप्पाइ वा, कप्पविमाणावासाइवा, ४५. वासाइ वा, वासधरपव्वयाइ वा, ४६. कूडाइवा, कूडागाराइ वा, . ४७. विजयाइ वा, रायहाणीइ वा, जीवाइ या अजीवाइ या पवुच्चइ।
-ठाणं अ.२, उ.४,सु. १०६ (२) ३. छायाईणं जीवाजीव रूव परूवणं
१. छायाइवा, आतवाइवा, २. दोसिणाइवा, अंधकाराइवा, ३. ओमाणाइ वा, उम्माणाइ वा, ४. अइयाणगिहाइवा, उज्जाणगिहाइवा, ५. अवलिंबाइ वा, सणिप्पवायाइ वा, जीवाइ या अजीवाइ
या पवुच्चइ। -ठाणं अ.२., उ.४, सु.१०६(३) ४. जीवाजीव दव्वेसु जीवाणं परिभोगापरिभोगत्त परूवणं
द्रव्यानुयोग-(१) ८. आराम और उद्यान, ९. वन और वन खंड, १०. वापी और पुष्करिणी ११. सर और सरपंक्ति, १२. अगड (कूप) और तालाब, १३. द्रह और नदी, १४. पृथ्वी और उदधि, १५. वातस्कन्ध और अवकाशान्तर, १६. वलय और विग्रह, १७. द्वीप और समुद्र, १८. वेला और वेदिका,
१९. द्वार और तोरण, २०.४३. नैरयिक और नैरयिकावास यावत्,
वैमानिक और वैमानिकावास, ४४. कल्प और कल्पविमानावास, ४५. वर्ष और वर्षधर पर्वत, ४६. कूट और कूटागार, ४७. विजय और राजधानी ये सभी जीव और अजीव कहे
जाते हैं।
३. छायादिकों का जीव-अजीव रूप प्ररूपण
१. छाया और आतप, २. ज्योत्स्ना और अन्धकार, ३. अवमान और उन्मान, ४. अतियानगृह और उद्यानगृह, ५. अवलिम्ब और सनिप्रपात, ये सभी जीव और अजीव कहे
जाते हैं।
प. अह भंते ! पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले,
पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणे, पुढविकाए जाव वणस्सइकाए, धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाये जीवे. असरीरपडिबद्धे, परमाणुपोग्गले सेलेसिं पडिवन्नए अणगारे सव्वे य बायरबोंदिधरा कलेवरा, एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य जीवाणं परिभोगत्ताए
हव्वमागच्छंति? उ. गोयमा ! पाणाइवाए जाव सव्वे य बायर
बोंदिधराकलेवरा एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य अत्थेगइया जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अत्थेगइया जीवाणं परिभोगत्ताए नो हव्वमागच्छति।
४. जीव-अजीव द्रव्यों में जीवों के परिभोग अपरिभोगत्व का
प्ररूपणप्र. भंते ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य, प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शन शल्य विरमण, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीर प्रतिबद्ध जीव, परमाणु पुद्गल शैलेशी अवस्था प्रतिपन्न अनगार और सभी स्थूलकाय धारक कलेवर, ये सब जो जीव द्रव्य अजीव द्रव्य रूप दोनों प्रकार के हैं क्या वे जीवों के
परिभोग में आते हैं? उ. गौतम ! प्राणातिपात से सर्वस्थूलकायधारक कलेवर पर्यन्त जो
जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य रूप हैं, इनमें से कई तो जीवों के परिभोग में आते हैं और कई जीवों के परिभोग में नहीं आते हैं।