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जीवाऽजीव अध्ययन : आमुख
यद्यपि पारमार्थिक दृष्टि से जीव और अजीव एकदम पृथक् द्रव्य हैं, तथापि व्यवहारतः ये एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं। जीव और पुद्गल (अजीव) का सम्बन्ध न हो तो शरीर आदि की प्राप्ति ही न हो; और हमें संसार में चेतन प्राणी दृष्टिगोचर ही न हो। जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं, स्निग्धता से प्रतिबद्ध हैं तथा गाढ होकर रह रहे हैं। भोजन की आवश्यकता शरीर को होती है या जीव को ? यदि इस प्रश्न का समाधान सोचा जाय तो ज्ञात हो जाएगा कि जीव और पुद्गल एक दूसरे से कितने सम्बद्ध हैं।
यह एक प्रश्न होता है कि जीव और अजीव में से पहले कौन उत्पन्न हुआ? इस प्रश्न का उत्तर व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र में मुर्गी एवं अण्डे के दृष्टान्त से दिया गया है। जिस प्रकार मुर्गी अण्डे से पूर्व भी रहती है और अण्डा मुर्गी से पूर्व भी रहता है इसी प्रकार जीव-अजीव दोनों एक-दूसरे से पूर्व भी हैं और पश्चात भी है। जीव और अजीव शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का क्रम मानना त्रुटिपूर्ण है।
कभी-कभी जीव और अजीव का कथन अपेक्षा दृष्टि से किया जाता है। ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट आदि। ये यद्यपि पौद्गलिक होने से अजीव हैं तथापि इनमें मनुष्य आदि जीव निवास करते हैं इसलिए इन्हें इस अपेक्षा से स्थानांग सूत्र में जीव भी कहा गया है। बिना जीव के ग्राम, नगर आदि नहीं हो सकते। वन, वनखण्ड आदि में वनस्पति एवं अन्य तिर्यञ्च जीव निवास करते हैं इसलिए इन्हें भी एक अपेक्षा से जीव कहा गया है। इसी प्रकार द्वीप, समुद्र, पृथ्वी आदि भी एक अपेक्षा से अजीव हैं तो दूसरी अपेक्षा से जीव हैं। .
जैनदर्शन छाया, अंधकार आदि को पौद्गलिक होने से अजीव प्रतिपादित करता है किन्तु स्थानांग सूत्र में इन्हें भी किसी अपेक्षा से जीव कहा गया
काल भी एक द्रव्य माना गया है किन्तु कुछ आचार्य इसे पृथक् द्रव्य नहीं मानते हैं। जीव एवं अजीव द्रव्यों के पर्याय परिणमन में यह काल निमित्त बनता है इसलिए इसे जीव एवं अजीव दोनों कहा गया है। स्थानाङ्ग सूत्र में इसीलिए समय, आवलिका, आनाप्राण, स्तोक, क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि जीव एवं अजीव दोनों प्रतिपादित किए गए हैं। इस अध्ययन में काल गणना को दर्शाने वाले संवत्सर, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अवांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक आदि अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो अपने विशिष्ट अर्थ रखते हैं।
प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त जो अठारह पाप हैं, वे जीव भी हैं और अजीव भी हैं। . पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय जीव भी हैं और (अचित्त होने पर) अजीव भी हैं। इस प्रकार अनेक पदार्थ जीव एवं अजीव दोनों हैं किन्तु इनमें से कुछ पदार्थ जीव के परिभोग में आते हैं तथा कुछ नहीं आते हैं।
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