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१. दव्वओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाई, २.खेत्तओ णं लोगप्पमाणमेत्ते, ३. कालओ णं न कयाइ नासि जाव निच्चे, ४. भावओ णं वण्णमंते जाव फासमंते,
द्रव्यानुयोग-(१) १. द्रव्य की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्य रूप है। २. क्षेत्र की अपेक्षा लोक प्रमाण मात्र है। ३. काल की अपेक्षा कभी नहीं था ऐसा नहीं है यावत्
नित्य है। ४. भाव की अपेक्षा वह वर्ण वाला यावत् स्पर्श वाला
५. गुण की अपेक्षा ग्रहण गुण वाला है।
५. गुणओ णं गहणगुणे।
-विया. स. २, उ.१०,सु.२-६ ८. चत्तारि अस्थिकाय दव्वा पएसग्गं पडुच्च तुल्ला
चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा
८. चार अस्तिकाय द्रव्य प्रदेशाग्र की अपेक्षा तुल्य
चार (द्रव्य) प्रदेशाग्र (प्रदेश-समूह) की अपेक्षा तुल्य कहे गये हैं, यथा१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. लोकाकाश, ४. एक जीव।
९. धर्मास्तिकायादिकों के मध्य-प्रदेशों की संख्या का प्ररूपण
प्र. भंते ! धर्मास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे गये हैं? उ. गौतम ! धर्मास्तिकाय के मध्य-प्रदेश आठ कहे गये हैं। प्र. भंते ! अधर्मास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे गये हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्ववत् आठ कहे गये हैं। प्र. भंते ! आकांशास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे गये
१. धम्मत्थिकाए, २. अधम्मत्थिकाए, ३. लोगागासे, ४. एगजीवे।
-ठाणं.अ.४, उ.३, सु.३३४/१ ९. धम्मत्थिकायाईणं मज्झपएससंखा परूवणं
प. कइ णं भंते! धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता? उ. गोयमा! अट्ठ धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता। प. कइ णं भंते! अधम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता? उ. गोयमा! एवं चेव। . प. कइ णं भंते! आगासत्थिकायस्स मज्झपएसा
पण्णत्ता? उ. गोयमा! एवं चेव। प. कइ णं भंते! जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णता? उ. गोयमा! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता।२
-विया. स. २५, उ.४, सु. २४६-२४९ १०. जीवत्थिकायमज्झपएसाणं आगासत्थिकायपदेसोगाहण
परूवणंप. एए णं भंते! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा कइसु __ आगासपएसेसु ओगाहंति? | उ. गोयमा! जहन्नेणं एकसि वा, दोहिं वा, तीहिं वा,
चउहिं वा, पंचहिं वा, छहिं वा, उक्कोसेणं अट्ठसु, नो चेव णं सत्तसु।
-विया. स. २५, उ.४, सु. २५० ११. दिटुंतपुव्वं धम्माइसु पडिपुन पएसेहिं अत्थिकायत्त परूवणं
उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्ववत् आठ कहे गये हैं। प्र. भंते ! जीवास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे गये हैं ? उ. गौतम ! जीवास्तिकाय के मध्य-प्रदेश आठ कहे गये हैं।
१०.जीवास्तिकाय के मध्य प्रदेशों का आकाशास्तिकाय के प्रदेशो
में अवगाहन प्ररूपणप्र. भंते ! जीवास्तिकाय के ये आठ मध्य-प्रदेश कितने
आकाशप्रदेशों में अवगाहित हो सकते हैं? उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो, तीन, चार, पांच या छह
तथा उत्कृष्ट आठ आकाशप्रदेशों में अवगाहित हो सकते हैं, किन्तु सात प्रदेशों में अवगाहित नहीं होते हैं।
प. एगे भंते! धम्मऽस्थिकाय-पदेसे "धम्मऽत्थिकाए" त्ति
वत्तव्वं सिया? उ. गोयमा! नो इणढे समढे,
११. दृष्टांतपूर्वक धर्मादिकों में परिपूर्ण प्रदेशों से अस्तिकायत्व का
प्ररूपणप्र. भंते ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को ___“धर्मास्तिकाय" कहा जा सकता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात्-धर्मास्तिकाय के
एक प्रदेश की धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता।)
१. ठाणं. अ. ५, उ. ३, सु. ४४१ २. ठाणं अ.८ सु. ६२६