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द्रव्यानुयोग-(१) ५. अस्तिकायों के अजीव अरूपी प्रकार
चार अस्तिकाय अजीव कहे गये हैं, यथा१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४. पुद्गलास्तिकाय। चार अस्तिकाय अरूपी कहे गये हैं, यथा१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४. जीवास्तिकाय।
५. अस्थिकायाणं अजीव-अरूवि पगारा
चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पण्णत्ता, तं जहा१. धम्मत्थिकाए, २. अधम्मत्थिकाए, ३. आगासत्थिकाए, ४. पोग्गलत्थिकाए। चत्तारि अस्थिकाया अरूविकाया पण्णत्ता,तं जहा१. धम्मत्थिकाए, ३. अधम्मत्थिकाए, ३. आगासत्थिकाए, ४. जीवत्थिकाए।
-ठाणं. अ४,उ.१.सु.२५२ ६. पंचत्थिकायाणं गरुयत्त-लहुयत्त परूवणंप. धम्मत्थिकाए णं भंते! किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए?
- अगरुयलहुए? उ. गोयमा! णो गरुए, णो लहुए, णो गरुयलहुए,
अगरुयलहुए। अधम्मत्थिकाये वि जाव जीवत्थिकाये वि एवं चेव।
६. पंचास्तिकायों का गुरुत्व-लघुत्व का प्ररूपणप्र. भंते ! धर्मास्तिकाय क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु है या
अगुरुलघु है? उ. गौतम ! धर्मास्तिकाय न गुरु है, न लघु है, न गुरु लघु है किन्तु अगुरुलघु है। अधर्मास्तिकाय से जीवास्तिकाय पर्यन्त भी इसी प्रकार
जानना चाहिए। प्र. भंते ! पुद्गलास्तिकाय क्या गुरु है, लघु है, गुरुलघु है या
अगुरुलघु है? उ. गौतम ! पुद्गलास्तिकाय न गुरु है, न लघु है, किन्तु
गुरुलघु है और अगुरुलघु भी है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"पुद्गलास्तिकाय न गुरु है, न लघु है, किन्तु गुरुलघु है
और अगुरुलघु भी है।" उ. गौतम ! गुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय गुरु
नहीं है, लघु नहीं है, अगुरुलघु नहीं है किन्तु गुरुलघु है। अगुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा-पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु-लघु नहीं है, किन्तु अगुरु-लघु है।
प. पोग्गलत्थिकाए णं भंते! किं गरुए, लहुए, गरुय
लहुए, अगरुय-लहुए? उ. गोयमा! णो गरुए, णो लहुए, गरुय-लहुए वि,
अगरुय-लहुए वि। प. से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ
पोग्गलत्थिकाए णो गरुए, णो लहुए, गरुय-लहुए वि,
अगरुय-लहुए वि? उ. गोयमा! गरुय-लहुयदव्वाइं पडुच्च-नो गरुए, नो
लहुए, गरुय-लहुए, नो अगरुय-लहुए, अगरुयलहुयदव्वाई पडुच्चनो गरुए, नो लहुए, नो गरुय-लहुए, अगरुय-लहुए।
. -विया.स.१, उ.९,सु.७-८ सव्वदव्या सव्वपदेसा सव्वपज्जवा जहा पोग्गलथिकाओ।
-विया. स.१, ३.९, सु.१५ ७. पंचण्हमत्थिकायाणं दव्वाइं पडुच्च वण्णाइ परूवणंप. धम्मत्थिकाए णं भंते! कइ वण्णे, कइ गंधे, कइ रसे,
कइ फासे पण्णत्ते? उ. गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे,
अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे, से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा१. दव्वओ, २. खेत्तओ, ३. कालओ, . ४. भावओ, ५. गुणओ, १. दव्वओ धम्मत्थिकाए एगे दव्वे,
सर्वद्रव्य, सर्वप्रदेश और सर्वपर्याय पुदगलास्तिकाय के समान समझना चाहिए।
७. पंचास्तिकायों का द्रव्यादि की अपेक्षा वर्णादि का प्ररूपणप्र. भंते ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने
रस और कितने स्पर्श कहे गए हैं? उ. गौतम ! धर्मास्तिकाय वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित
और स्पर्शरहित है, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक द्रव्य है। संक्षेप में वह पाँच प्रकार का कहा गया है-यथा१.द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, ४. भाव से, ५.गुण से। १. द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय एक द्रव्य रूप है,
१. विया. स.७, उ. १०, सु.८,