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[अस्तिकाय अध्ययन
२. अत्थिकाय-अज्झयणं
- २. अस्तिकाय-अध्ययन
सूत्र
सूत्र
१. अत्थिकाय भेया
प. कइ णं भंते! अस्थिकाया पण्णता ? उ. गोयमा! पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा
१. धम्मत्थिकाए, २. अधम्मत्थिकाए, ३. आगासस्थिकाए, ४. जीवत्थिकाए, ५. पोग्गलत्थिकाए।
-विया.स.२,उ.१०,सु.१
१. अस्तिकायों के भेद. प्र. भंते ! अस्तिकाय कितने कहे गए हैं? उ. गौतम ! अस्तिकाय पांच कहे गए हैं, यथा
१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४. जीवास्तिकाय, ५. पुद्गलास्तिकाय।
२. पंचऽस्थिकायाणं-पवत्ति
प. धम्मऽत्थिकाए णं भंते! जीवाणं किं पवत्तइ ? उ. गोयमा! धम्मऽस्थिकाए णं जीवाणं आगमण - गमण
- भासुम्मेस-मणजोग - वइजोग - कायजोगा,
आगमण - गमण
उ. गौतम ! धर्मास्तिका
जे यावऽण्णे तहप्पगारा चलाभावा सव्वे ते धम्मऽत्थिकाए पवत्तंति,
गइलक्खणे णं धम्मऽत्थिकाए। प. अधम्मऽस्थिकाए णं भंते! जीवाणं किं पवत्तइ ? उ. गोयमा! अधम्मऽस्थिकाए णं जीवाणं ठाण-निसीयण
तुयट्टण-मणस्स य एगत्तीभावकरणया, जे यावऽण्णे तहप्पगारा, थिराभावा सव्वे ते अधम्मऽस्थिकाए पवत्तंति,
ठाणलक्खणे णं अधम्मऽस्थिकाए। प. आगासत्थिकाए णं भंते! जीवाणं अजीवाण य किं
पवत्तइ? उ. गोयमा! आगासस्थिकाए णं जीवदव्वाणं, अजीव
दव्वाण य भायणभूए, एगेण वि से पुण्णे, दोहि वि पुण्णे, सयं पि माएज्जा।
२. पंचास्तिकायों की प्रवृत्ति
प्र. भंते ! धर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है? उ. गौतम ! धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, भाषा,
उन्मेष (पलक झपकना), मनोयोग, वचनयोग और ____काययोग प्रवृत्त होते हैं।
ये और इस प्रकार के जितने भी चल (गमनशील) भाव हैं वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं।
धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है। प्र. भंते ! अधर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? उ. गौतम - अधर्मास्तिकाय से जीवों के स्थान (स्थित होना),
निषीदन (बैठना), त्वग्वर्तन (करवट लेना) और मन को एकाग्र करना। ये तथा इस प्रकार के जितने भी स्थिर भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं।
अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थिति रूप है। प्र. भंते ! आकाशास्तिकाय से जीवों और अजीवों की क्या
प्रवृत्ति होती है? उ. गौतम ! आकाशास्तिकाय, जीवद्रव्यों और अजीवद्रव्यों
का भाजन (आश्रय) रूप है। क्योंकि एक परमाणु या दो परमाणुओं से व्याप्त आकाशप्रदेश में सौ परमाणु भी समा सकते हैं। सौ करोड़ परमाणुओं से व्याप्त आकाश प्रदेश में एक हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं।
आकाशास्तिकाय का लक्षण अवगाहना रूप है। प्र. भंते ! जीवास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है? उ. गौतम ! जीवास्तिकाय के द्वारा जीव अनन्त
आभिनिबोधिक ज्ञान की पर्यायों के अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों के, अनन्त अवधिज्ञान की पर्यायों के, अनन्त मनःपर्यवज्ञान की पर्यायों के, अनन्त केवलज्ञान की पर्यायों के, . अनन्त मति अज्ञान की पर्यायों के, अनन्त श्रुतअज्ञान की पर्यायों के,
कोडिसएण वि पुण्णे, कोडिसहस्सं पि माएज्जा।
अवगाहणालक्खणे णं आगासऽस्थिकाए, प. जीवऽस्थिकाए णं भंते! जीवाणं किं पवत्तइ? उ. गोयमा! जीवऽस्थिकाएणं जीवे अणंताणं
आभिणिबोहिय नाण-पज्जवाणं अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं, अणंताणं ओहिनाणपज्ज-वाणं, अणंताणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं, अणंताणं केवलनाणपज्जवाणं, अणंताणं मइअण्णाण पज्जवाणं, अणंताणं सुयअण्णाण पज्जवाणं,
१. (क) सम. सम. ५, सु.८, (ख) विया. स.७, उ. १०,सु. १-८