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एवं जीवा, अजीवा, बंधे, मोक्खे, पुण्णे, पावे, आसवे, संवरे, वेयणा, णिज्जरा, अरिहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, नरगा, णेरइया, तिरिक्खजोणिया,तिरिक्खजोणिणीओ माया, पिया, रिसओ, देवा, देवलोया, सिद्धि, परिणिव्वाणे, परिणिव्वुया। अस्थि १ पाणाइवाए जाव १८ मिच्छादसणसल्ले
अत्थि १ पाणाइवायवेरमणे जाव १८ मिच्छादसण-सल्लविवेगे सव्वं अत्थिभावं अत्थित्ति वयइ,
सव्वं णत्थिभावंणस्थित्ति वयइ, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, फुसइ पुण्णपावे पच्चायति जीवा, सफले कल्लाणपावए। धम्ममाइक्खइ-इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चं, अणुत्तरे, केवलिए, संसुद्धे, पडिपुण्णे, णेयाउए सल्लकत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे, णिव्वाणमग्गे, णिज्जाणमग्गे, अवितहमविसंदिद्ध, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे।
द्रव्यानुयोग-(१) इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, तिर्यञ्चयोनिनी, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, परिनिर्वाण (कर्मक्षय), परिनिर्वृत्त (कर्मक्षय करने वाला) है। १. प्राणातिपात यावत् १८ मिथ्यादर्शन शल्य ये अठारह पाप स्थान हैं। १. प्राणातिपातविरमण-(हिंसा से विरत) यावत् १८ मिथ्यादर्शनशल्यविवेक ये पाप त्याग के अठारह स्थान हैं। सभी अस्तिभाव-(अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा) अस्तित्व रूप कहे जाते हैं। सभी नास्तिभाव-नास्तित्त्व रूप कहे जाते हैं। अच्छी तरह आचरित कर्म अच्छे फल देने वाले होते हैं। दुश्चीर्ण-पापमय कर्म अशुभ फल देने वाले हैं। जीव पुण्य पाप कर्मों का बंध करता है। (संसारी) जीव जन्म मरण करते हैं। शुभ और अशुभ कर्म निष्फल नहीं होते हैं। प्रकारान्तर से भगवान् धर्म का प्रतिपादन करते हैं-यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर (सर्वोत्तम) है, अद्वितीय है, अत्यन्त शुद्ध है, परिपूर्ण है, न्यायसंगत है, माया आदि शल्यों (कांटों) का निवारक है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, निर्वाण का मार्ग है, निर्याण का मार्ग है, यथार्थ है, पूर्वापर विरोध से रहित तथा सब दुःखों को सर्वथा क्षीण करने का मार्ग है। इस निर्ग्रन्थ धर्म में स्थित सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं परिनिवृत्त होते हैं और सर्वदुःखों का अंत करते हैं। जिनके एक मनुष्य-भव धारण करना शेष रहा है, ऐसे भदन्त निर्ग्रन्थ श्रमण पूर्व कर्मों के बाकी रहने से किन्हीं देवलोकों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। वे देवलोक महर्द्धिक यावत् अत्यन्त सुखमय दुरंगतिक-(मोक्ष गति से युक्त) एवं चिरस्थितिक लम्बी स्थिति वाले हैं। " वहाँ देवरूप में उत्पन्न वे जीव महान् ऋद्धिसम्पन्न यावत् महान् द्युतिसम्पन्न महान बलसम्पन्न महान यशस्वी अत्यन्त सखी तथा दीर्घ आयुष्ययुक्त होते हैं।
इयट्ठिया जीवा सिझंति, बुज्झति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। एकच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, महिड्ढिएसु जाव महासुक्खेसु दूरंगइएसु चिरट्ठिइएसु।
ते णं तत्थ देवा भवंति महिड्ढिया जाव महज्जुइया, महब्बला, महायसा, महासुखा चिरट्ठिइया।
हारविराइयवच्छा जाव पभासेमाणा कप्पोवगा, गइकल्लाणा, आगमेसिभद्दा जाव पडिरूवा।
-उव.सु.५६
उनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होते हैं यावत् दसों दिशाओं को प्रभासित करते हैं। वे कल्पोपपन्न देव वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र-कल्याण तथा निर्वाण रूप अवस्था को प्राप्त करने वाले होते हैं यावत् असाधारण रूपवान् होते हैं।