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( १२ - १०. अत्थित्त नत्थित्तपरिणमन परूवणंप. से नूणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते
परिणमइ? उ. हंता,गोयमा ! परिणमइ।
प. जंतं भंते ! अत्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते
परिणमइ,तं किं पयोगसा वीससा?
उ. गोयमा ! पयोगसा वि तं, वीससा वि तं।
प. जहा ते भंते ! अत्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ, तहा ते नत्थित्तं
नत्थित्ते परिणमइ?
जहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ?
द्रव्यानुयोग-(१) १०. अस्तित्व नास्तित्व के परिणमन का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व
नास्तित्व में परिणत होता है? उ. हां, गौतम ! (अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और
नास्तित्व नास्तित्व में) परिणत होता है। प्र. भंते ! जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व
नास्तित्व में परिणत होता है, तो क्या वह प्रयोग (जीव की क्रिया) से परिणत होता है या विश्रसा (स्वभाव) से परिणत
होता है? उ. गौतम ! वह प्रयोग से भी परिणत होता है और स्वभाव से भी
परिणत होता है। प्र. भंते ! जैसे (आपके मत से) अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता
है क्या उसी प्रकार आपके मत से नास्तित्व नास्तित्व में भी परिणत होता है? जैसे आपके मत से नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है तो क्या उसी प्रकार आपके मत से अस्तित्व अस्तित्व में परिणत
होता है? उ. हां गौतम ! जैसे मेरे मत से अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता
है, उसी प्रकार मेरे मत से नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। जैसे मेरे मत से नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार मेरे मत से अस्तित्व अस्तित्व में भी परिणत होता है। प्र. भंते ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है ? उ. गौतम ! जैसे-परिणत होते हैं दो आलापक कहे हैं उसी प्रकार
यहां गमनीय पद के साथ भी मेरे मत से अस्तित्व में गमनीय
है पर्यन्त दो आलापक कहने चाहिए। प्र. भंते ! जैसे आपके मत में वहां (स्वात्मा में) गमनीय है, उसी
प्रकार (परात्मा में) गमनीय है, जैसे आपके मत में इह (परात्मा में) गमनीय है, उसी प्रकार
यहां (स्वात्मा में) भी गमनीय है? उ. हां, गौतम ! जैसे मेरे मत में यहां (स्वात्मा में) गमनीय है उसी
प्रकार (परात्मा) में भी गमनीय है, जैसे परात्मा में गमनीय है उसी प्रकार यहां स्वात्मा में भी गमनीय है।
उ. हंता, गोयमा !जहा मे अस्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा मे
नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ। जहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमई, तहा मे अत्थित्तं
अस्थित्ते परिणमइ। प. से नूणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं? उ. गोयमा ! जहा परिणमइ दो आलावगा तहा गमणिज्जेण
वि दो आलावगा भाणियव्या जाव तहा मे अत्थित्तं
अत्थित्ते गमणिज्ज। प. जहा ते भंते ! एत्थं गमणिज्जंतहा ते इहंगमणिज्जं?
जहा ते इह गमणिज्जंतहा ते एत्यं गमणिज्ज?
उ. हंता, गोयमा ! जहा मे एत्थं गमणिज्जं तहा ते इहं गमणिज्ज,जहा ते इहं गमणिज्जंतहा ते एत्थं गमणिज्ज।
-विया. स. १,उ.३,सु.७(१-५)
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११. छसु दव्येसु दव्वट्ठ पएसट्टयाएहि य कडजुम्माइ परूवणं
दव्वट्ठविवक्खाप. धम्मत्थिकाए णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मे, तेयोए,
दावरजुम्मे, कलियोए? उ. गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेओए , नो दावरजुम्मे
कलियोए। एवं अधम्मऽस्थिकाए वि, एवं आगासत्थिकाए वि,
११. षद्रव्यों में द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा कृतयुग्मादि का
प्ररूपणद्रव्य की अपेक्षाप्र. भंते ! धर्मास्तिकाय क्या द्रव्यार्थ से कृतयुग्म है, त्र्योज है,
द्वापरयुग्म है और कल्योज है? उ. गौतम ! धर्मास्तिकाय द्रव्यार्थ से कृतयुग्म नहीं है, त्र्योज नहीं
है और द्वापर युग्म भी नहीं है, किन्तु कल्योज है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के विषय में समझना चाहिए। इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के विषय में भी कहना चाहिए।