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द्रव्यानुयोग-(१) २०.अरूपी अजीव द्रव्यों के भेद
१-३ धर्मास्तिकाय, उसका देश और प्रदेश, ४-६ अधर्मास्तिकाय, उसका देश और प्रदेश, ७-९ आकाशास्तिकाय, उसका देश और प्रदेश ये नौ और एक १०.अद्धासमए (काल) ये दस अरूपी अजीव के भेद हैं।
२०. अरूवी-अजीव दव्वाणं भेया
धम्मत्थिकाए तद्देसे, तप्पएसे य आहिए। अधम्मे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए। आगासे तस्स देसे य,तप्पएसे य आहिए। अद्धासमए चेव, अरूवी दसहा भवे॥
-उत्त.अ.३६,गा.५-६ अरूवी अजीव दव्वाणं पमाण परूवणंधम्माधम्मे य दो चेव, लोगमेत्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए॥ धम्माधम्मागासा, तिन्नि वि एएअणाइया। अपज्जवसिया चेव, सव्वद्धं तु वियाहिया॥ समए विसंतई पप्प, एवमेवं वियाहिए। आएसं पप्प साईए सप्पज्जवसिए विय॥
-उत्त.अ.३६,गा.७-९ २१.स्ववी अजीव दव्वस्स भेया
खंधा य खंध देसा य, तप्पएसा तहेव य। परमाणुओ य बोद्धव्वा, रूविणो य चउब्विहा ॥२
-उत्त.अ.३६, गा.१० २२. रूवी दव्वाणं अवैवी आकासदव्वेणं सह फुसण ओगाहण
परूवणंप. कंबलसाडएणं भंते ! आवेढिय परिवेढिए समाणे जावइयं
ओवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठइ विरल्लिए वि य णं समाणे तावइयं चेव ओवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठइ ?
अरूपी अजीव द्रव्यों का प्रमाण प्ररूपणधर्म और अधर्म, ये दोनों लोक प्रमाण कहे गए हैं। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल (समय क्षेत्र) मनुष्य क्षेत्र में ही है। धर्म, अधर्म और आकाश, वे तीनों द्रव्य अनादि अनन्त और सर्वकाल व्यापी (नित्य) कहे गए हैं। काल भी प्रवाह की अपेक्षा से इसी प्रकार (अनादि-अनन्त) है।
आदेश (एक-एक समय की अपेक्षा) से सादि और सान्त है। २१.रूपी-अजीव द्रव्य के भेद
रूपी अजीव द्रव्य चार प्रकार का जानना चाहिए। १. स्कन्ध, २.स्कन्ध देश,३.स्कन्ध प्रदेश,४. परमाणु।
२२. मूर्त रूपी द्रव्यों का अरूपी आकाश द्रव्य के साथ स्पर्शन और
अवगाहन का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ (लपेटा हुआ,
खूब लपेटा हुआ) कम्बल रूप (चादर या साड़ी) जितने अवकाशान्तर (आकाश प्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है, क्या (वह) फैलाया हुआ भी उतने ही अवकाशान्तर (आकशि
प्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है? उ. हाँ. गौतम! आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ कम्बलशाटक जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है, वह फैलाये जाने पर भी उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है।
प्र. भंते ! क्या ऊपर उठी हुई स्थूणा (ठंठ) जितने क्षेत्र को
अवगाहन करके रहती है क्या तिरछी लम्बी की हुई भी वह
उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है? उ. हाँ, गौतम ! ऊपर (ऊँची) उठी हुई स्थूणा जितने क्षेत्र को
अवगाहन करके रहती है उतने ही तिरछे आदि क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है।
उ. हंता, गोयमा ! कंबलसाडए णं आवेढिय परिवेढिए
समाणे जावइयं ओवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठइ विरल्लिए . वि य णं समाणे तावइयं चेव ओवासंतरं फुसित्ता णं
चिट्ठ।। प. थूणा णं भंते ! उड्ढे ऊसिया समाणी जावइयं खेत्तं
ओगाहित्ता णं चिट्ठइ तिरियं पि य णं आयया समाणी तावइयं चेव खेत्तं ओगाहित्ता णं चिट्ठइ ? उ. हंता, गोयमा ! थूणा णं उड्ढं ऊसिया समाणी जावइयं
खेत्तं ओगाहित्ताणं चिट्ठइ, तिरियं पियणं आयया समाणी तावइयं चेव खेत्तं ओगाहित्ता णं चिट्ठइ।
-पण्ण.प.१५सु.१000-900१ २३. समयादीणं अच्छेज्जाइ परूवणंतओ अच्छेज्जा पण्णत्ता,तं जहा
१.समये,२.पएसे, ३. परमाणु। एवं-अभेज्जा, अडज्झा, अगिज्झा, अणद्धा, अमज्झा,
अपएसा, अविभाइमा। -ठाणं.अ.३, उ.२,सु.१७३ १. (क)पण्ण.प.१ सु.५ (ख) जीवा. पडि.१ सु.४
(घ) पण्ण.प.५सु.500 (ङ) अणु. सु. ४०१
२३.समयादिकों का अच्छेद्यादि प्ररूपण
तीन अछेद्य (छेदन के अयोग्य) कहे गये हैं। यथा१.समय, २. प्रदेश, ३. परमाणु। इसी प्रकार ये तीनों अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य, अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य हैं।
रूपी अजीव द्रव्य (पुद्गल) का विस्तृत वर्णन पुद्गल विभाग में देखें।
-पण्ण.प.५ सु. ५०२ (ख) अणु.सु. ४०२ (ग) जीवा. पडि.१, सु.५