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१. द्रव्य अध्ययन : आमुख
तत्वार्थसूत्र में द्रव्य का लक्षण “गुणपर्यायवद् द्रव्यम्" (अ. ५ सू. ३७) देकर द्रव्य को गुण एवं पर्याययुक्त बतलाया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा (१.१.३०) की स्वोपज्ञवृत्ति में “द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छति इति द्रव्यं ध्रौव्यलक्षणम्" कथन के द्वारा विभिन्न पर्यायों को प्राप्त होने वाले ध्रौव्य स्वभावी को द्रव्य कहा है। उत्तराध्ययन सूत्र में गुणों के आश्रय को द्रव्य कहा है।
गुण तथा पर्याय के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों में मतभेद रहा है। सिद्धसेन, हरिभद्र, हेमचन्द्र, यशोविजय आदि जैन दार्शनिक गुण एवं पर्याय में अभेदता स्वीकार करते हैं, जबकि विद्यानन्द आदि कुछ दिगम्बर दार्शनिक तथा वादि देवसूरि आदि श्वेताम्बर दार्शनिक इनमें भेद प्रतिपादित करते हैं। देवसूरि के अनुसार गुण द्रव्य के सहभावी होते हैं तथा पर्यायों क्रमभावी होती हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में यह अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि गुण केवल द्रव्य के आश्रित होते हैं जबकि पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित होती हैं। द्रव्यपर्याय एवं गुणपर्याय शब्दों का प्रयोग जैन साहित्य में हुआ है। अनुयोगद्वार सूत्र एवं भगवती सूत्र में भी द्रव्य एवं पर्याय की भिन्नता का बोध होता है। ___ द्रव्य छह हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल (अद्धासमय)। यह इनका पूर्वानुपूर्वी क्रम है। पश्चानुपूर्वी क्रम इसके विपरीत होता है जिसके अनुसार काल की गणना सबसे पहले तथा धर्मास्तिकाय की गणना सबके अन्त में होती है। धर्मास्तिकाय द्रव्य गति में हेतु बनता है, अधर्मास्तिकाय स्थिति में हेतु बनता है, आकाश समस्त द्रव्यों को स्थान देने के कारण उनका आश्रय है। काल का लक्षण वर्तना है। जीव का लक्षण उपयोग है। विस्तार से कहें तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य भी जीव के लक्षण हैं। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त द्रव्य पुद्गल है।शब्द, अंधकार, प्रकाश, छाया, प्रभा और आतप भी पौद्गलिक हैं। ___ संख्या की दृष्टि से धर्म, अधर्म एवं आकाश द्रव्य एक-एक है जबकि पुद्गल एवं काल अनन्त हैं। प्रदेश की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, एवं जीव असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है। उसमें से लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है। पुद्गल संख्यात, असंख्यात एवं अनन्तप्रदेशी है जबकि काल अप्रदेशी है। ये छहों द्रव्य अपने ही स्वभाव में परिणमन करते हैं। कोई द्रव्य दूसरे के रूप में परिवर्तित नहीं होता। इसलिए धर्मास्तिकाय सदैव धर्मास्तिकाय बना रहता है। अधर्मास्तिकाय सदैव अधर्मास्तिकाय बना रहता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्य भी अपने स्वरूप में सदैव बने रहते हैं।
इस अध्ययन में अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार छहों द्रव्यों के भेद-प्रभेदों का अविशेषित एवं विशेषित नामों के आधार पर भी वर्णन किया गया है जिसमें जीव द्रव्य का विस्तार से वर्णन हुआ है। अविशेषित शब्द का अर्थ है भेद रहित, सामान्य आदि। विशेषित शब्द का अर्थ है-भेद युक्त, विशेष आदि। किसी द्रव्य का संग्रहनय से अविशेषित (सामान्य) कथन होता है जबकि व्यवहार नय से उसके विशेषित (भेदों) का वर्णन किया जाता है, यथा-जीव द्रव्य को अविशेषित मानने पर नारक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव ये चार विशेषित नाम होते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय को अविशेषित मानकर उनके भेदों का वर्णन इस अध्ययन में नहीं हुआ जबकि पुद्गलास्तिकाय को अविशेषित मानकर उसके परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध से अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध पर्यन्त विशेषित नामों का संकेत किया गया है।
छह द्रव्यों में द्रव्यार्थ एवं प्रदेशार्थ की अपेक्षा से कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज का भी इस अध्ययन में विचार हुआ है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय द्रव्यार्थ से कल्योज है। जीवास्तिकाय एवं काल द्रव्यार्थ से कृतयुग्म हैं, जबकि पुद्गलास्तिकाय द्रव्यार्थ से कदाचित् कृतयुग्म है, कदाचित् त्र्योज है, कदाचित् द्वापरयुग्म है तथा कदाचित् कल्योज है। प्रदेशार्थ की अपेक्षा सभी द्रव्य कृतयुग्म हैं। इन द्रव्यों की अवगाढ़ता के प्रसंग में प्रतिपादित किया गया है-धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्य असंख्यात प्रदेशावगाढ़ है तथा उसमें भी कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं। ___धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेश स्वयं अपने अन्य प्रदेशों से तथा अन्य द्रव्यों के प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। इस अध्ययन में यह विचार हुआ है कि एक द्रव्य का कोई प्रदेश अन्य द्रव्यों के (या अपने अन्य) कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार छहों द्रव्यों के परस्पर प्रदेशावगाढ़ पर विस्तृत विचार हुआ है।
समस्त द्रव्यों को दो भागों में विभक्त किया जाता है-जीव और अजीव । इनमें जीवास्तिकाय को छोड़कर पांच द्रव्य अजीव हैं। अजीव भी दो प्रकार के हैं-रूपी और अरूपी। रूपी अजीय में पुद्गलास्तिकाय का समावेश होता है जबकि अरूपी अजीव में धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल की गणना होती है। धर्म और अधर्म द्रव्य लोक प्रमाण हैं। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल (व्यवहार काल) मनुष्य क्षेत्र अर्थात् अढाई द्वीप में ही है। जीव एवं पुद्गल लोक में पाए जाते हैं।
क्षेत्र एवं दिशा के आधार पर इन षड्द्रव्यों के अल्प-बहुत्व का भी अध्ययन में वर्णन हुआ है जो विचारणीय है।अन्य अल्प-बहुत्वों की द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से विचारणा हुई है। द्रव्य (संख्या) की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय ये तीनों तुल्य हैं तथा सबसे अल्प हैं, अद्धासमय सबसे अधिक है। प्रदेश की अपेक्षा धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय तुल्य हैं एवं सबसे अल्प हैं तथा आकाशास्तिकाय सबसे अधिक है।