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द्रव्यानुयोग-(१))
दवाणुओगो
द्रव्यानुयोग
सूत्र
१. मंगलाचरण
सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं च भावओ। अथ धम्मगई तच्चं,अणुसद्धिं सुणेह मे ॥
-उत्तरा. अ.२०, गाथा १ २. जीवाजीव-णाणमाहपं
जीवाजीव-विभत्तिं,सुणेह मे एग-मणाइओ। जंजाणिऊण समणे, सम्मं जयइ संजमे॥
-उत्तरा. अ.३६,गाथा १ सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं। उभयं पिजाणइ सोच्चा,जं सेयं तं समायरे॥१॥
जो जीवे विण याणइ,अजीवे विण याणइ। जीवा-ऽजीवे अयाणतो, कहं सोणाहिइ संजमं?॥२॥
जो जीवे वि वियाणइ, अजीवे वि वियाणइ। जीवा-ऽजीवे वियाणतो, सो हुणाहिइ संजमं॥३॥
जया जीवे अजीवे य, दो वि एए वियाणइ। तया गई बहुविह, सव्वजीवाण जाणइ ॥४॥ जया गई बहुविह, सव्वजीवाण जाणइ। तया पुण्णं च पावंच, बंधं मोक्खं पि जाणइ ॥५॥ जया पुण्णं च पावंच,बंधं मोक्खं पिजाणइ। तया निव्विंदए भोए,जे दिव्बे जे यमाणुसे ॥६॥
१. मंगलाचरणसिद्धों और संयतों को भावपूर्वक नमस्कार करके मैं अर्थ (मोक्ष)
और धर्म का बोध कराने वाली तथ्यपूर्ण शिक्षा का प्रतिपादन करता हूं, उसे मुझ से सुनो। २. जीवाजीव के ज्ञान का माहात्म्य
अब जीव और अजीव के विभाग को तुम एकाग्रमन होकर मुझ से सुनो, जिसे जानकर श्रमण सम्यक् प्रकार से संयम में यलशील होता है। व्यक्ति सुनकर ही कल्याण को और पाप को जानता है। दोनों (पुण्य-पाप) को सुनकर ही जानता है अतएव जो कल्याण रूप हो उसी का आचरण करना चाहिए। जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, जीव और अजीव दोनों को नहीं जानने वाला वह (साधक) संयम को कैसे जानेगा? जो जीवों को भी विशेष रूप से जानता है, अजीवों को भी विशेष रूप से जानता है। जीव और अजीव दोनों को विशेष रूप से जानने वाला ही संयम को जान सकेगा। जब साधक जीव और अजीव दोनों को विशेष रूप से जान लेता है, तब वह समस्त जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है। जब साधक सर्व जीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है, तब वह पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। जब (मनुष्य) पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को जान लेता है, तब जो भी देव सम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी भोग हैं, उनसे विरक्त हो जाता है। जब साधक दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है, तब आभ्यंतर और बाह्य संयोग का परित्याग कर देता है। जब साधक आभ्यंतर और बाह्य संयोगों का त्याग कर देता है, तब वह मुण्ड होकर अनगार धर्म में प्रव्रजित हो जाता है। जब साधक मुण्डित होकर अनगार वृत्ति में प्रव्रजित हो जाता है, तब उत्कृष्ट संवररूप अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है। जब साधक उत्कृष्ट-संवर रूप अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है, तब अबोधि रूप पाप द्वारा संचित किए हुए कर्मरज़ को आत्मा से झाड़ देता है अर्थात् पृथक् कर देता है। जब साधक अबोधि रूप पाप द्वारा संचित कर्मरज को झाड़ देता है तब केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। जब साधक केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब वह जिन और केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता है। जब साधक जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता है तब योगों का निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
जया निव्विंदए भोए,जे दिव्वे जे य माणुसे। तया जहइ संजोगं, सऽभिंतरबाहिरं ॥७॥ जया जहइ संजोगं, सब्मिंतरबाहिरं। तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं ॥८॥ जया मुंडे भवित्ताणं, पब्बइए अणगारियं। तया संवरमुक्कट्ठ, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥९॥ जया संवरमुक्कटुं,धम्म फासे अणुत्तरं। तया धुणइ कम्मरयं,अबोहि-कलुसं कडं ॥१०॥
जया धुणइ कम्मरयं, अबोहि-कलुसं कडं। तया सव्वत्तगंणाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ॥११॥ जया सव्वत्तगंणाणं, दंसणं चाभिगच्छइ। तया लोगमलोगंच, जिणो जाणइ केवली ॥१२॥ जया लोगमलोगं च, जिणोजाणइ केवली। तयाजोगे निलंभित्ता, सेलेसिंपडिवज्जइ ॥१३॥