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॥अर्हम् ॥
दवाणुओगो
द्रव्यानुयोग : आमुख
जिसमें द्रव्यों एवं उनकी अवस्थाओं की विभिन्न दृष्टिकोणों से व्याख्या की जाती है, उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में अनुयोग शब्द का प्रयोग व्याख्या के अर्थ में ही किया है, ऐसा उनके वृत्तिकार मल्लधारी हेमचन्द्र के कथन 'अनुयोगस्तु व्याख्यानम्' से विदित होता है। व्याख्या की भी विधि होती है। अनुयोगद्वारसूत्र में इस विधि का प्रतिपादन है। फल, सम्बन्ध, मंगल, समुदायार्थ आदि के अतिरिक्त उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय द्वारों से व्याख्या की जाती है। उपक्रम के आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार ये छह भेद हैं। निक्षेप तीन प्रकार का है-ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और सूत्रालापक निष्पन्न सूत्र एवं नियुक्ति के भेद से अनुगम दो प्रकार का होता है तथा नय के नैगम, संग्रह आदि सात भेद हैं। इनके अतिरिक्त व्याख्या में निरुक्त, क्रम एवं प्रयोजन का भी समावेश होता है।
प्रस्तुत अनुयोग का वैशिष्ट्य है-जैनागमों में द्रव्य सम्बन्धी समस्त सामग्री का विषयक्रम से व्यवस्थापन। यह व्यवस्थापन भी एक प्रकार की व्याख्या ही है क्योंकि इसका कोई फल है, प्रयोजन है, सम्बन्ध है तथा यह भी उपक्रम, निक्षेप आदि से सम्पन्न है। इस व्याख्या में प्राचीन शास्त्रीय पद्धति का अनुसरण न करते हुए आधुनिक युग के पाठकों के अनुकूल पद्धति को अपनाया गया है। ___ द्रव्यानुयोग में प्रमुखरूपेण षड्द्रव्यों एवं उनकी अवस्थाओं से सम्बद्ध स्थितियों का विवेचन होता है। षड्द्रव्य हैं-१. धर्म, २. अधर्म, ३. आकाश, ४. काल, ५. पुद्गल और ६.जीव। इनमें प्रथम पाँच द्रव्यों के लिए एक अजीव संज्ञा दी जाती है क्योंकि ये सब अजीव हैं। इस प्रकार प्रधानतः दो द्रव्य हैंजीव और अजीव। इन द्रव्यों तथा इनके पारस्परिक सम्बन्ध से क्या घटित होता है, यह सम्पूर्ण द्रव्यानुयोग का प्रतिपाद्य है। जीव एवं अजीव के सम्बन्ध से ही पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध तत्त्व घटित होते हैं तथा जब जीव कर्म (अजीव) से मुक्त होता है या मुक्त होने का प्रयास करता है तो संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व घटित होते हैं। ___ जो जीव और अजीव इन दो तत्त्वों या द्रव्यों को भली भांति जान लेता है वह पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष तत्त्वों को भी जान लेता है। जो इन समस्त तत्त्वों को जानता है और उन पर श्रद्धा करता है वही सम्यक् आचरण कर पाता है। इसीलिए दशवकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो जीव एवं अजीव इन दो तत्त्वों को जानता है वही संयम को जानता है। जो जीव एवं अजीव को जानता है वही सब जीवों की बहुविध गति को जानता है तथा वही पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को जानकर भोगों से विरत होता है। वही प्रव्रजित होकर अनगार बनता है तथा उत्कृष्ट संवर धर्म का आराधन करता है जिससे नवीन कर्मों का बन्ध मंद पड़ जाता है। वही साधक फिर पूर्वबद्ध कर्मों को धुनकर उन्हें नष्ट कर देता है और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।
जीव एवं अजीव द्रव्यों को जानने का यही सबसे बड़ा फल है कि इनको जानने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आगम में इन द्रव्यों का प्ररूपण, द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव इन चार दृष्टियों से किया गया है।
द्रव्यानुयोग के स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार द्रव्यानुयोग, मातृकानुयोग आदि दस प्रकार हैं। ये सब द्रव्य का ही विभिन्न प्रकार से विवेचन करते हैं। श्रमण भगवान महावीर ने विभिन्न परिषदों में अर्द्धमागधी भाषा में इन द्रव्यों का विवेचन किया है। उनके द्वारा अर्थरूप में प्रतिपादित वाणी को ही गणधरों ने सूत्र रूप में गूंथा है। उसी का प्राप्त अंश भिन्न भिन्न सूत्रों से संकलित/वर्गीकृत करके इस अनुयोग में प्रस्तुत किया जाएगा। इस अनुयोग का नाम द्रव्यानुयोग है अतः इसी नाम के अध्ययन से इसका उपक्रम किया गया है।