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इंद्रधनु-इंद्रधनुष
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इन्द्रिनिग्रह इंद्रधनु-इंद्रधनुष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्रायन - संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार की सात रंगों से बना हुआ, एक अर्धवृत्त जो लता, जिसका लाल फल देखने में तो वर्षा-काल में सूर्य की विरुद्ध दिशा की ओर अति सुन्दर किन्तु खाने में प्रति कटु, लगता आकाश पर छाये हुये बादलों में दिखाई है इनारू, एक औषधि विशेष, इँदोरन देता है, यह बादलों या वाष्प कणों पर (दे०)। सूर्य-प्रकाश के प्रतिबिम्ब का फल है।
इन्द्रायुध-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वन, "हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष छवि
इन्द्रधनुष । होति "-वि०।
इन्द्रासन- ज्ञा, पु. यो० (सं० ) इन्द्र का इंद्र-नील-संज्ञा, पु० यौ० (सं० इंद =
सिंहासन, इन्द्र का श्रासन, ऐरावत हाथी। बादल + नील ) नीलम रत, नीलमणि ।
वि० राजसिंहापन, सिंहासन, शाहीतहत ।
इन्द्रिय-( इन्द्री)-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वह इंद्रनीलक-पन्नग, मरकत, पन्ना। इंद्रप्रस्थ-संज्ञा, पु० (सं० ) एक नगर जिसे
शक्ति जिससे बाहरी विषयों का ज्ञान प्राप्त
होता है, शरीर के वे अवयव जिनके द्वारा पांडवों ने खांडव वन जला कर बसाया था, हरिप्रस्थ, शक्रप्रस्थ ( वर्तमान-दिल्ली
यह शक्ति बाहिरी विषयों का ज्ञान प्राप्त यद्यपि यह यमुना के वामतट पर है और
करती है. पदार्थो के रूप, रस, गंध, स्पर्श, इन्द्रप्रस्थ दक्षिण तट पर था)।
आदि के अनुभव में सहायक होने वाले इन्द्रपुरी-संज्ञा, पु० (सं० ) स्वर्ग का
पाँच अंग-चक्षु ( अाँख ) श्रोत्र ( कान ) नगर, अमरावती।
रखना ( जीभ ) नासिका ( नाक ) और इंद्रयव-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) इन्द्रजव,
त्वचा ( शरीर के ऊपर का चर्म ) इन्हें ज्ञानेकुडा नाम की औषधि, इसे इन्द्रफल भी
न्द्रिय कहते हैं । वे अंग या अवयव जिनसे कहते हैं।
भिन्न भिन्न प्रकार के बाहिरी कार्य किये इन्द्रलोक-संज्ञा, पु० यौ० ( स० ) स्वर्ग,
जाते हैं, ये भी पाँच हैं-वाणी, हाथ, पैर, देव-लोक, सुरलोक ।
गुदा. उपस्थ, इन्हें कर्मेद्रियाँ कहते हैं, लिंगेइन्द्रवंशा-संज्ञा, पु० या० (सं० ) १२
न्द्रिय, अंतरेंद्रिय-या मन, बुद्धि, चित्त वणे का एक वृत्त ।
और अहंकार, पाँच की संख्या। इन्द्रवज्रा-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार
इन्द्रियगण-संज्ञा, पु० या० (सं० ) इंद्रियों
का समूह । का वर्णिक वृत्त, जिसमें दो तगण, एक
इन्द्रिय-गोचर-वि० (सं० ) इन्द्रियों का जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं
विषय, ज्ञान-गम्य, बोधगम्य । " स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जागो गः "-।
| इन्द्रिय-ग्राह्य-वि० यौ० (सं०) शब्द, रस, इन्द्रवधू-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बीर
रूप, गंध, आदि विषय, इन्द्रियों के विषय । बहूटी, भृगकीट। इन्द्र-सुत-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) जयंत,
इन्द्रिजित-वि० (सं० ) इन्द्रियों को
जीत लेने वाला, जो विषयासक्त न हो, अर्जुन, सुग्रीव ।
जितेंद्रिय । इन्द्राणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इन्द्र की इन्द्रियदाष-संज्ञा, पु० यो० ( सं० ) कामापत्नी, शची, बड़ी इलायची, इन्द्रायन, दि दोष, कामुकता, लंपटता, । दुर्गादेवी, वाम नेत्र की पुतली ।
इन्द्रियनिग्रह-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्रानुज-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) विःणु, । इन्द्रियों के वेग को रोकना, इन्द्रियों को नारायण, हरि, श्रीकृष्ण ।
| अपने वश में करना।
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