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चंदी
वकालत चंदी-संज्ञा, पु० (सं० ) एक जाति जो वंशावतंश---वि• यौ० (सं०) वंश-विभूषण, राजाओं का यशोगान करती थी (प्राचीन) वंश-श्रेष्ठ, कुलोत्तम । भाट, बंदी, कैदी । " बोले वंदी बचन- वंशावली- संज्ञा, स्त्री० (सं०) किसी वंश के वर''-रामा० । " वंदे वरदे वंदी विन पुरुषों की पूर्वोत्तर कम-बद्ध सूची। यज्ञो विनीतवत् "-वाल्मी० । वंशी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बाँसुरी, मुरली, चंदीगृह-संज्ञा, पु. यो० ( सं० ) कैदखाना, मुँह से फेंक कर बजाने का बाँस का बाजा, जेलखाना, कारागृह।
बंसी (दे०) । "बाजी कहैं बाजी तब बाजी चंदीजन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) भाट, कहैं कहाँ बाजी, बाजी कहैं बाजी वंसी चंदी। ' तब वंदी जन जनक बुलाये"- साँवरे सुघर की ".- स्फु० । संज्ञा, स्त्री० रामा।
(दे०) बंसी, मछली मारने का काँटा ।। धंद्य-वि० (सं०) स्तुत्य, पूजनीय, पूज्य, । वंशीधर----संक्षा, पु. (सं.) श्री कृष्ण । वंदनीय । "वेद-विवुध-बुध-वृंद-वंद्य वृंदारक " वंशीधर हू को बेधि कीन्हें इन चेरे हैं" वंदित"-रसाल ।
-रमाल । वंश संज्ञा, पु० (सं०) बाँस रीढ़ की हड़ी. वंशीय--वि० (सं०) कुटुंछ में उत्पन, बाँसा या नाक के ऊपर की हड़ी, बाँसुरी, कुटुम्बी, वंश-सम्बन्धी। कुल, कुटुंब, बाहु श्रादि की लम्बी हड़ी वंशीवट-- संज्ञ; पु. (सं०) वृंदावन का एक बंश (दे०) । " वंश-सुभाव उतर तेहि बरगद का पेड़ जिसके तले श्री कृष्ण जी दीन्हा "- रामा० ।
बहुधा बाँसुरी बजाते थे।
वंश्य---वि० (सं०) श्रेष्ठ-कुलोत्पन्न, कुलीन, वंशकपूर-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० वंश
। कुलवान, सुवंश में उत्पन्न । कसूर ) वंशलोचन (ौर०)।
वक-- संज्ञा, पु० (स०) बक (दे०) बगला वंशज-संज्ञा, पु. (सं०) बाँस का चावल,
पक्षी, अगस्त का वृन्द और फूल, एक दैत्य वंशलोचन, संतति, संतान ।
जिसे कृष्ण ने मारा था (भा०), एक राक्षस घंशतिलक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुलका जिसे भीम ने मारा था, (महाभा०)। शिरोमणि, एक छंद (पि.)।
वक ध्यान---संज्ञा, पु० यो० (सं०) बगले सा वंशधर- संज्ञा, पु. (सं०) कुल में उत्पन्न, ध्यान, झूठा ध्यान, छल-पूर्ण ध्यान । "तहाँ संतति, कुल की प्रतिष्ठा रखने वाला, संतान, बैठि वक-ध्यान लगावा"-- रामा०।। वंशज ।
वकयंत्र--संज्ञा, पु. (सं०) अर्क उतरने का वंशलोचन-संज्ञा, पु. (अ०) वंसलोचन । एक यंत्र विशेष। "सितोपला पोड़शिक स्यादष्टौ स्यावश- वकवत्ति- संज्ञः, स्त्री० यौ० (सं०) बगले की लोचनः "--भा० प्र०
सी कार्रवाई, वोखा देकर कार्य-सिद्धि की वंशलोचना-चंगरोचना- संज्ञा, स्त्री० (सं०) घात से रहने की वृत्ति । संज्ञा, पु० यौ० वंश-लोचन।
(सं०) धूर्त, छली। " हैतुकान् वकवृत्तीन् च वंशशर्करा-मंज्ञा, स्त्री० (सं०) वंशलोचन । वचनमाग्रेणार्चयेत् ''---मनु० । वंशस्थ-संज्ञा, पु० (सं०) ज, त, ज, र वकालत---संज्ञा, स्त्री० (१०) दूसरे की ओर (गण ) से युक्त १२ वर्गों का एक वर्णिक से उसके अनुकूल बात या विवाद करना, वृत्त (पि०) । " जतौ तु वंशस्थमुदीरितं! वकील का काम, दौल्य. मुकदमें में किसी बरौ"।
पक्ष के समर्थनार्थ बहस करना, दुत-कर्म ।
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