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हड्डा ।
विशेष ।
घररहना १५६२
घर्गक्षेत्र वररहना-वा. (दे०) विजयी या नयवंत जिनका अस्त्र पाश है, जलेश, पानी के होना।
स्वामी, बरुन (दे०)। “वरुण, कुबेर इन्द्र, वररुचि-संज्ञा, पु. (सं०) एक विख्यात यम, काला"-नामा० । वरुना का पेड़, विद्वान वैयाकरणी और कवि (विक्रम-सभा सूर्य, पानी, नेपचून ग्रह ( अं.)। के रत्नों में से एक ।)।
वरुण-पाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) फाँसी. वरल-संज्ञा, पु० (दे०) विरनी, वर्ग, फंदा, वरुण का प्रस्त्र, वरुणास्त्र ।
वरुणानी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वरुण की वरवर्णिनी-संज्ञा, स्त्री० (स.) रूपवती और स्त्री। गुणवती उत्तमा स्त्री
वरुणालय-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वरुण का वरह-संज्ञा, पु० (दे०) पत्ता पत्नी, पत्र ।।
। घर, समुद्र, सिंधु, सागर, बरुनालय (दे०) । वरही-बरही* - संज्ञा, पु० दे० (सं० वरुत्थ-संज्ञा, पु० (सं०) समूह, यूथः दल । वर्हिन् ) मोर, मयूर, बहीं।
वरुत्थी- संज्ञा, खी० (सं०) सेना, चमू , घरा---संज्ञा, स्त्री० (सं०) वकुची, एक औषधि | मौज ।
वरूथ-संज्ञा, पु० (सं०) समूह, यूथ, दल, वराक-संज्ञा, सो० (सं०) बेधारा, दुखिया ।
सेना । "रथ बरुयन को गनै"-राम । वराट, धराटक-संज्ञा, पु(सं०) बड़ी वरूथिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सेना, चमू ,
कौड़ी, दीर्घ कपर्दिका । स्त्री० वराटिका। वगटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं.) कौड़ी, वरे--अव्य (दे०) समीप, निकट, हेतु, वास्ते,
कपर्दिका। वरानना--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सुंदर स्त्री। " सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम बरानने"।
| वरेची--संज्ञा, स्रो० (दे०) अंकोलवृक्ष । वराह-संज्ञा, पु. (सं०) धाराह (दे०)।
वरेपी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) एक गहने का शूकर, विष्णु का शूकर अवतार, विष्णु. १८ नाम, बर्षी, बरेखी (दे०)।। द्वीपों में से एक द्वीप, एक विद्वान ।
वरोरू-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) श्रेष्ठ जंघा वराहक्रांता-संज्ञा, स्त्री. (०) एक कंद |
वाली स्त्री। वाराही (औष०) लजाल (दे०), लज्जावंती धरोह--संज्ञा, स्त्री० (सं०) बरोह (दे०) लज्जालु, बाराहीकंद।।
बरगद की जटा, सोर। वराह-मिहिर-संज्ञा, पु. (सं०) वृहद् वरोहक-संज्ञा, पु० (दे०) अलगंध औषधि । वाराही संहितादि के कर्ता एक ज्योतिषा- वर्ग-एक जाति की अनेक वस्तुओं का समूह, चार्य जो विक्रमादित्य की सभा के : रत्नों | कोटि, श्रेणी, जाति, समूह, एक सामान्य में थे।
धर्म वाली वस्तुओं का समूह, एक ही स्थान वरिष्ट---वि० (सं०) पूजनीय, श्रेष्ठ, उत्तम, से उच्चरित या समान स्थानीय स्पर्श व्यंजनपूज्य।
समूह. अध्याय, प्रकरण, परिच्छेद, किसी वरु, बरु-अव्य० (दे०) जो, यदि, भले ही, अंक या राशि का उसी से घात या गुणनपक्षांतर में, बहक (दे०) । " वरु मराल । फल (गणि) ऐसा चतुर्भुज क्षेत्र जिसकी मानस तजै" - रामा।
चारों भुजायें समान और कोण सम कोण वरुण-संज्ञा, पु. (सं०) देव-रक्षक, दस्यु- हों (रेखा०)। नाशक जल के अधिपति एक वैदिक देवता, ! वर्गक्षेत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह चतुर्भुज
लिये।
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