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विकसित १५७१
विक्रयी (द०)। स० रूप-विकसाना,विकसावना, खिलने में लगाना । अ० क्रि० (दे०)विकासना, प्रे० रूप-विकसवाना। खिलना, प्रकट होना, प्रफुल्लित होना । विकसित - वि० (सं०) प्रफुल्लित, प्रस्फुटित, विकिर- संज्ञा, पु. (सं०) चिड़िया, पक्षी।
खिला या फूला हुआ, विकचित । विकीर्ण --- वि० (सं०) फैलाया या छितराया विकस्वर--संज्ञा, पु० (सं०) एक अर्थालंकार | हुआ, बिवेरा हुश्रा, विख्यात, प्रसिद्ध । जिसमें किसी विशेष बात की पुष्टि सामान्य विकंठ----संज्ञा, पु० (सं०) बैकुंठ, स्वर्ग लोक, बात से की जावे (१० पी०) । वि. ऊँचा, स्त्री विकंठा। तेज़, बड़े जोर का। " विकस्वर-स्वरैः ".--- विकृत--वि० (सं०) कुरूप, भद्दा, बिगड़ा नैष ।
हुआ, किसी प्रकार के विकार से युक्त, विकार--संज्ञा, पु० (सं०) वास्तविक रूप रंग अस्वाभाविक । यौ० विकृतानन-कुरूप ।
का बदल या बिगड़ जाना, दोष, अवगुण, विकृति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) विकृत रूप, बुराई, वासना. प्रवृत्ति, मनोवेग या परिणाम. विकार, खराबी, बिगाड़, रोग, व्याधि, उलट-फेर, रूपान्तर, परिवर्तन, विकृति । बीमारी, परिणाम, विकार युक्त (विकार पाइ नर तन रतन सों, नर न रत होय पाने पर) मूल प्रकृति का रूप (सांख्य), विकार मैं "-कं० वि० ।
परिवर्तन, मन का क्षोभ, मूल धातु से विकारी-वि० (सं० विकारिन् ) रूपान्तर | बिगड़ कर बना शब्द-रूप (व्या०), २३
या विकार वाला, 'अवगुणी, दोषी, जिसमें वर्णो के छंद (पि.)। परिवर्तन या विकार हुआ हो, क्रोधादि | विकृष्ट-वि० (सं०) आकृष्ट, खींचा हुआ। मनोविकारों वाला, वह शब्द जिसमें लिंग, विक्रम-ज्ञा, पु० (सं०) पौरुष, पराक्रम, वचन, कारकादि से रूप-विकार हो (व्या०)। शूरता, गति, बल, शक्ति, सामर्थ्य, विष्णु । विकाश---संज्ञा, पु० (सं०) प्रकाश, फैलाव, | वि० -- श्रेष्ठ, उत्तम, बढ़िया। प्रसार, विस्तार, एक अर्थालंकार जिसमें विक्रमाजीत- संज्ञा, पु० दे० (सं० विक्रमाकिसी वस्तु का उन्नति, वृद्धि, प्रवर्धन, दित्य ) विक्रमादित्य राजा, विकरमाजीत स्वाधार छोड़े बिना ही अत्यंत विकसित (दे०)। होना कहा जावे (काव्य०), विकास। विक्रमादित्य--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वर्तमान विकास-संज्ञा, पु० (सं०) खिलना, प्रस्फुटन, विक्रमीय संवत के प्रवर्तक, उज्जैन के एक फूलना, प्रसार, फैलाव, विस्तार, भिन्न रूपान्तर प्रतापी राजा, इनके सम्बन्ध में बहुत सी के साथ किसी वस्तु का उत्पन्न होकर क्रमशः | कहानियाँ हैं। उन्नत होना या बढ़ना, एक नवीन सिद्धान्त विक्रमान्द --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विक्रमा. जो सृष्टि और उसके सब पदार्थों को एक दित्य का चलाया हुया उनके नाम का ही मूल तत्व से निकल कर उत्तरोत्तर उन्नत सम्बत्, विक्रमसम्वत् , विक्रमीय संवत् । होता हुआ मानता है (पाश्चात्य) । " नहिं विक्रमी-संज्ञा, पु० (सं० विकमिन्) पराक्रमी पराग नहिं मधुर मधु, नहि विकास यहि विक्रमवाला, विष्णु । वि.-विक्रम का, काल" । संज्ञा, पु८ विकासन । वि० - विक्रम-संबंधी, विक्रमीय (सं०)। विकासनीय, विकासित। विक्रय-संज्ञा, पु० (सं०) बिक्री, बेचना । विकासना*-स० क्रि० दे० ( सं० विकास ) यौ० क्रय-विक्रय । प्रगट करना, बढ़ाना, निकालना, प्रस्फुटित विक्रयी-संज्ञा, पु. (सं०) बेचने वाला, करना, फुलाना, विकास करना या खिलाना, । विक्रेता।
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