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स्वभावज
स्वभावज - वि० ( सं० ) प्राकृतिक स्वाभाविक, सहज, स्वभाव से उत्पन्न, स्वभाव का।
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स्वभावतः - अव्य० (सं० स्वभावतस् ) निर्गतः स्वभाव से, वस्तुतः, प्रकृति प्रभाव से, सहज ही, स्वभावतया । स्वभावसिद्ध - वि० यौ० (सं०) स्वाभाविक, प्राकृतिक, प्रकृति-विद्ध, सहज ही, स्वभावतः सिद्ध | स्वभावांति--संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) एक थर्थालंकार जिसमें किसी वस्तु या विषय के यथावत प्राकृतिक स्वरूप का या अवस्था नुसार उसकी जाति का वर्णन हो ( अ० पी० ) ।
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स्वभू-संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा, विष्णु, । वि० आपसे श्राप होने वाला, स्वयंभू । स्वयं - अव्य० सं० स्वयम् ) स्वतः, आप, खुद, आप से आप खुद ब खुद । स्वयं दूत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नायिका के प्रति अपनी वासना प्रगट करने में दूत का काम आप ही करने वाला नायक (सा० ) ।
स्वयंती - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) स्वतः दूती का कार्य (स्ववासना - प्रकाशन) करने वाली परकीया नायिका | स्वयंप्रकाश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो
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ही आप प्रकाशित हो, जैसे सूर्य, परमेश्वर, परब्रह्म, परमात्मा, खुदरोशन । स्वयंभू - संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा, विष्णु, शिव, काल, कामदेव, स्वायंभुव मनु कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूः " - श्रुति वि० - जो आपसे श्राप पैदा हुआ हो, स्वभू । स्वयंवर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुछ उपस्थित व्यक्तियों में से कन्या का अपना पति थाप ही चुनना, वह स्थान जहाँ कन्या स्वपति चुने "सीय स्वयंबर देखिय जाई
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रामा० ।
स्वयंवर झा, पु० यौ० ( सं०) स्वयंवर |
स्वरभंग
स्वयंवरा - संज्ञा, पु० यौ० सं०) वर्या, पतिवरा इच्छानुसार अपना पति चुनने वाली कन्या या स्त्री ।
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स्वयंसिद्ध - वि० यौ० ( सं० ) वह बात जिसकी सिद्धि के हेतु प्रमाण या तर्क अनावश्यक हो, स्वतःद्धि ।
स्वयं सेवक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वेच्छासेवक, स्वेच्छादास, स्वेच्छा से पुरस्कार के बिना ही किसी कार्य में योग देने वाला | स्त्री० स्वयंसेविका । स्वयमेव क्रि० वि० यौ० (सं० ) स्वतः, पी. स्वयं ही खुद ही ।
स्वर -संज्ञा, पु० (सं० ) बैकुण्ठ, स्वर्ग, आकाश, परलोक ।
स्वर - संज्ञा, पु० (सं० ) जीवधारी के गले से या किसी बाजे या पदार्थ पर श्राघात पड़ने से उत्पन्न, कोमलता, उदात्तता-नुदा त्तता तथा तिव्रतादि गुण वाला शब्द, एक निश्चित रूप वाली वह ध्वनि जिसके
रोहावरोह का अनुमान सहन में सुनते ही हो. सुर (दे०), ऐसे स्वर क्रम से सात हैं:- १ षड्ज । २ ऋषभ । ३ गाँधार । ४ मध्यम । ५ पंचम । ६ धैवत । ७ निषाद ( सा, रे, ग, म, प ध नी ) । मुहा०स्वर उतारना - स्वर धोमा ( मंद ) या नीचा करना | स्वर बढ़ाना - स्वर को ऊँचा करना, व्याकरण में वे वर्ण जो स्वतन्त्रता पूर्वक आपसे थाप उच्चरित हों और व्यंजनों के उच्चारण में सहायक होते हैं, श्रा) इ ई उ ऊ ऋ ऌ ए (ऐ)
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थोथौ संस्कृत में ह और हिंदी में ११ लृ सहित) हैं, वेद में शब्दों का उतारचढ़ाव संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वर) अंतरिक्ष,
थाकाश ।
स्वरग―संज्ञा, पु० दे० (स्वर्ग) स्वर्ग, बैकुण्ठ, सरग (दे० ) ।
स्वरभंग - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कंठ- स्वर के बैठ जाने का एक रोक
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