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व्यालू
ब्रजमंडल व्यालू-संज्ञा, स्त्री० पु० दे० (सं० वेला ) | व्योम-संज्ञा, पु० (सं० व्योमन) गगन, रात्रि का भोजन, विद्यारी।
आकाश, नभ, प्रासमान, बादल, पानी। व्यावहारिक-वि० (सं०) बरताव या " ज्वलन्मगि व्योम सदा सनातनम "।व्यवहार का, व्यवहार-संबंधी, व्यवहार | किरात.। शास्त्र संबंधी।
व्योमचर, व्योमचारी-संज्ञा, पु. (सं० व्यावृत्त-वि० (सं०) खंडित, निवृत्त, व्योमचारिन् ) देवता, चंद्रमा, सूर्य, पक्षी, मनोनीत, निषिद्ध । “अथ स विषय तारागण मेघ, वायु, बिजली, विमान, व्यावृत्तात्मा०" रघु०।।
वायुयान । ''कांतंवपुव्योमचरं प्रपेदे"-रघु० । व्यासंग-संज्ञा, पु. (सं० । अत्यधिक प्राक्ति व्योमयान--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आकाश या मनोयोग ।
में उड़ने वाला यान विमान, वायुयान, व्यास--संज्ञा, पु० (सं.) पराशर के पुत्र कृष्ण- हवाईजहाज़।
द्वैपायन, इन्होंने महाभारत, भागवत, १८ व्रत-संज्ञा, पु. (सं०) गमन, जाना या पुराण और वेदान्तादि की रचना की। चलना. समूह, वृन्द, श्रीकृष्ण का लीलाजिससे वेद-व्याय कहाये इन्होंने वेदों क्षेत्र, मथुरा के आस-पास का देश, बिरिज का संग्रह संपादन और विभाग किया। (प्रा.) । "एती व्रज-वाला मृगछाला कहाँ रामायणादि के कथावाचक, वह सीधी पावैगी'.-- स्फुट। रेखा जो वृत्त गोले के केन्द्र से नाकर | वजन - संज्ञा, पु० सं०) चलना, जाना । परिधि पर समाप्त हो, फैलाव, विस्तार । ___ "व्रजन तिन पदैकेन यथा एकेन गच्छति" "अष्टादशपुराणानि व्यानस्य वचन द्वियं' --- --भा०।
व्रजचंद्र- संज्ञा, पु० यौ० (सं.) श्रीकृष्ण, व्यासार्द्ध-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) व्यास का ब्रजचंद। श्राधा, अर्ध-व्यास ।
व्रजनाथ -संज्ञा, पु० यौ० (सं) श्रीकृष्णजी, व्याहत - वि० (सं.) व्यर्थ, निषिद्ध ।।
व्रज-नाय । “एहो ब्रजनाथ करी थल की व्याहार-संज्ञा, पु० (६०) वाक्य ।
न बेड़े की''--स्फु०। व्याहृति-संज्ञा, स्त्रो० (सं०! उक्ति, कथन,
| व्रजपतिज्ञा , पु. यौ० (सं०) व्रजाधिभूः, र्भुवः, स्वः, इन तीनों का समुदाय या
पति, व्रजाधिप, श्रीकृष्ण जी । मंत्र।
व्रजभाषा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) व्रजमंडल व्युत्क्रम--संज्ञा, पु. (सं०) व्यतिक्रम, (मथुरा-आगरादि) की बोली या भाषा, क्रम-रहित, उलटा-पुलटा।
उत्तर भारत के प्रायः सभी बड़े बड़े व्युत्पत्ति-सज्ञा. स्त्री. (सं०) किसी पदार्थ
कवियों ने ( ४ या ५ सौ वर्ष से ) इसी का मूल, उत्पत्ति स्थान, उद्गम, शब्द का
में रचनायें की हैं जिनमें सूर, बिहारी, वह मूल रूप जि पसे वह बना हो, किसी केशवादि प्रसिद्ध हैं । “व्रजभाष बरनी शास्त्र का अच्छा ज्ञान ।
कबिन, निज निज बुद्धि-विलास "-वि० व्युत्पन्न- वि० (सं.) जो किसी शास्त्र का शत। अच्छा ज्ञाता या अभ्यासी हो।
व्रजभूप, प्रजभूपति-संज्ञा, पु० यौ० व्यह-संज्ञा, पु. (२०) जमाव, समूह, (सं०) श्रीकृष्ण । “ लखि ब्रज भूप-रूप निर्माण, बनावट, रचना, शरीर, सेना, युद्ध अलख, अरूप ब्रह्म"-उ० श०। में रचा गया सैन्यविन्यास या विशिष्ट व्रजमंडल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रज और स्थापन । जैसे-चक्र-व्यूह ।
| उसके पास-पास का प्रान्त या प्रदेश ।
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