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११५३ तल, नीचे का भाग जिस पर कोई वस्तु (स्त्री० पेचिका), जूं, उल्लू पक्षी, बादल, ठहरे । स्त्री. अल्पा० -दी।
पतंग। पेई -संज्ञा, स्त्री० (दे०) पिटारी, पेटी। पेचकश-पेंचकश-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) पेउसरी, पेउसी-संज्ञा, स्त्री० द० (सं० | कीलों के जड़ने या उखाड़ने का यन्त्र, पीयूष) इंदर (प्रान्तो० ) एक तरह का पक- (बढ़ई, लोहार), शीशी या बोतल के काक वान, पेवत (ग्रा० ) व्यायी गाय-भैंस निकालने का घुमावदार यन्त्र । के दूध की पनीर।
| पेच-ताब- संज्ञा, पु० (फ़ा) मन के भीतर पेखक * --संज्ञा, पु० ० (सं० प्रेक्षक ) ही रहने वाला क्रोध । दर्शक, देखने वाला, स्वांग बनाने वाला, पेचदार-वि० (फ़ा०) पंचोला, जिसमें पेंच क्रीड़ा या खेल-तमाशा करने वाला। या कल हो। पेखना *-स० कि० दे० (सं० प्रेक्षण) पेचवान- संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) बड़ा हुक्का, देखना, स्वाँग बनाना, क्रीड़ा या खेल- या उसकी बड़ी लम्बी लचीली सटक। तमाशा करना । 'जग पेखन तुम देखन- पेचा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पेचक ) उल्लू हारे”-रामा०। स० कि० पेखाना, पक्षी । स्त्री० पेची।। प्रे० रूप पेखवाना।
पेचिश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) प्रामापेखनिया-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पेखना )
तीसार, मरोड़, आँव के दस्तों की बीमारी स्वांग करने वाला, बहुरूपिया, दर्शक।
या पीड़ा। पेखवैया-संज्ञा, पु० दे० (हि० पेखना - वैया |
... पेचीदा-वि० (फा०) पेंचदार, कठिन,
चक्करदार, जटिल, टेढ़ा-मेढ़ा। संज्ञा, स्त्री. -प्रत्य०) देखने वाला, देखवैया, प्रेक्षक ।
पेचीदगी। पेखित-वि० दे० (सं० प्रेषित) भेजा हुआ। पेचीला-वि० (फ़ा०) पेंचदार, पेंचीदा। पेखिय- क्रि० दे० ( हि० पेखना ) देखिये। पेज-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पेटा ) रबड़ी पेच-पेंच-संज्ञा, पु० (फा०) चक्कर, घुमाव, बसौंधी प्रान्ती०) । संज्ञा, पु० (अं०) पृष्ट, झंझट, बखेड़ा, उलझन, झगड़ा, चालाकी,
सका। धूर्तता, पगड़ी की लपेट, कल, मशीन, पेट-संज्ञा, पु. (सं० पेट थैला) उदर, यन्त्र, मशीन का पुरज़ा, श्राधी दूर तक | जठर, देह में भोजन पचने का थैला। 'रहिलकीर या चक्करदार काँटा या कील, | मन कहते पेट सों, क्यों न हुआ तू पीठ" स्क्रू (अं०) उड़ती हुई पतंगों की डोरियों की -रहीम । मुहा०-पेट पाना - पेट परस्पर की उलझन, कुश्ती में दूसरे के पहाड़ने चलना, अतीसार होना। पेट काटनाकी युक्ति, तदवीर, तरकीब, टोपी या पगड़ी बचत के लिए कम खाना । पेट का धंधा के आगे लगाने का सिरपंच (श्राभूषण), -जीविका का उपाय या काम । पेट का गोशपेंच ( कर्णभूषण ) । यौ० दांव-पंच ।। (में ) पानी ना पचना--रह न सकना, मुहा० --पेंच घुमाना-किसी के विचार गुप्त बात प्रगट कर देना। पेट का हलका बदलने की युक्ति करना। पंच की बात- | -पोछे स्वभाव या क्षुद्र प्रकृति का। गूढ़ या मर्म की बात । वि० पंचदार, पेट का पानी न हिलना-बेकार बैठा पेंचोदा, पंचीला।
रहना, हिलना-डुलना नहीं। पेट का पेचक- संज्ञा, खी० (फा०) बटे तागे की काला (मेला)-धोखा देने वाला, कपटी, लच्छी या गुच्छी, गोली । संज्ञा, पु० (सं०)। नीच हृदय वाला । पेट की आग-मुख ।
भा० श. को०-१४५
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