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जहर
जाँघ
ज़हर-संज्ञा, स्त्री० ( अ० जह) विष, गरल । कौश्रा जो किसी जहाज के छूटते समय उस मुहा०---ज़हर उगलना --मर्म-भेदी या पर बैठ जाता है और जहाज़ के बहुत दूर कटुबात कहना । ज़हर का धूर पोना- समुद्र में निकल जाने पर और कहीं शरण किसी अनुचित बात को देखकर क्रोध को | न पाकर उड़ उड़ कर फिर उसी जहाज़ मन ही मन दबा रखना। ज़हर का पर आता है । ऐसा मनुष्य जिसे एक को बुझाया हुआ -- बहुत अधिक उपद्रवी या । छोड़कर दूसरा ठिकाना न हो। " जैसे दुष्ट, अप्रिय बात या काम । जहर करना काग जहाज को सूझत और न ठौर"। या कर देना--बहुत अधिक अप्रिय या जहान-संज्ञा, पु. ( फा० ) ससार, जगत । असह्य कर देना । जहर होना - हानिकर जहानक- संज्ञा, पु० (दे०) लोक "मूरख जो होना । जहर लगना-बहुत अप्रिय जान धनवान हो मानै सकल जहान"-स्फु० । पड़ना। वि० घातक, मार डालने वाला।। जहालत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) अज्ञान । मुहा०---जहर में बुझाया-विषैला।। | जहिया-क्रि० वि० दे० (सं० यद् ) ज़हर वाद संज्ञा, पु० दे० (फा०) एक भयंकर
जिस समय जब, जहाँ । " भुजबल विश्व और विषैला फोड़ा।
जितव तुम जहिया --रामा। ज़हर माहरा--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( फा० । जही -अव्य० दे० ( सं० यत्र ) जहाँ ही, जहर -- मुहरा ) सर्प विष नाशक एक काला
जिस स्थान पर। अव्य० (दे०) ज्योंही । पत्थर, हरे रंग की एक विषघ्न वस्तु ।
" जहीं बारुणी की करी रंचक रुचि द्विजजहरीला - वि० ( अ० जहर -+-ईला प्रत्य० )
राज"-. रामा। जिसमें जहर हो, विषैला।
ज़हीन वि० (अ०) बुद्धिमान, समझदार ।
जहेज-संज्ञा, पु० दे० (अ.) विवाह में जहल्लक्षणा--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० )
कन्या-पक्ष द्वारा बर को दी गई संपत्ति, जहत्स्वार्था ।
दहेज । जहाँ-क्रि० वि० दे० (सं० यत्र) जिस स्थान
जन्हु - संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु, एक ऋषि पर, जिस जगह । “ जहाँ सुमति तहँ संपति
जिन्होंने गंगा को पी लिया था और फिर नाना ''-रामा० । मुहा०-जहां का
काम से निकाल दिया था, इसी से गंगा तहाँ---जिस जगह पर हो उसी जगह पर,
का नाम जान्हवी पड़ा। इधर उधर या अस्तव्यस्त । जहां-तहाँ
जन्हुकन्या-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गंगा जी, इधर-उधर. सब जगह, सब स्थानों पर ।
जन्हुसुता, जन्हुतनया, जान्हवी । जहाँगारी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) हाथ का एक | जांगडा-संज्ञा, पु० (दे०) भाट, बंदी। जड़ाऊ गहना या चूड़ी।
जार- संज्ञा, पु० दे० (हि. जान या जांघ). जहाँपनाह -- संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) संसार | शरीर का बल, बूता !
का रक्षक ( बादशाहों का संबोधन )। जांगल-संज्ञा. पु० (सं०) तीतर, मांस, ऊपर जहाज----संज्ञा, पु. ( अ.) समुद्र में चलने देश । वि०-जंगल संबंधी, जंगली। वाली बड़ी नाव, पोत : मुहा०—जहाज जांगलू - वि० दे० (फा० जंगल ) गँवार, का कोया या काग-जहाजी कौत्रा, जो अन्यत्र न जा सके वहीं फंसा रहे। जाँघ-संज्ञा, स्त्री० (सं० जाँघ = पिंडली) जहाज़ी- वि० (अ.) जहाज से संबंध रखने जंघा, घुटने और कमर के बीच का अंग,
वाला । यौ०-जहाजी कौया-वह ऊरू । भा० श. को०-११
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