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जीभ ७३४
जील जीम--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जिह्वा) मुँह जियत । " जीयत धरहु तपसी दोऊ में रहने वाली लम्ने, चिपटे मांस-पिंड की | भाई"-रामा० । वह इन्द्रिय जिससे रस या स्वाद का अनु- जीयदान-संज्ञा, पु० यौ० (सं० जीवनदान) भव और शब्दों का उच्चारण हो, ज़बान, प्राणदान, जीवनदान, प्राण रक्षा । '. जीय. रसना, जिह्वा । 'अब कस कहब जीभ
दान सम नहिं जग दाना '- स्फु० । कर दूजी"- रामा०। मुहा०-जीभ जीर-संज्ञा, पु० दे० (सं०) जीरा, फूल का चलना - भिन्न भिन्न वस्तुओं का स्वाद जीरा, केलर, खड्ग, तलवार । * --संज्ञा, लेने के लिये जीभ का हिलना, डोलना, पु० दे० (फा. जिरह ) जिरह, कवच | चटोरेपन की इच्छा होना। जीभ गिरना * वि० दे० (सं० जीण ) जीर्ण, पुराना।
-स्वादिष्ट भोजन को लालायित होना । जीरक- संज्ञा, पु. (२०) जीरा, जीर (दे०)। जीभ निकालना-जीभ खींचना, जीभ लशुन जीरक सेंधव गंधक" वै०जी० । उखाड़ लेना | जीभ पकड़ना-बोलने
जीरणा* -- वि० (दे०) जीर्ण. जीरन (दे०)। न देना, बोलने से रोकना। जीभ बंद
जीरा - संज्ञा, पु० दे० (सं. जीरक ) दो करना-बोलना बन्द करना, चुप रहना।
हाथ ऊँचा एक पौधा जिसके सुगंधित छोटे जीभ हिलाना-मुँह से कुछ बोलना :
फूलों के गुच्छों को सुखा कर मसाले के छोटी जीभ-गलमुंडी। जीभ रोकना
काम में लाते हैं। इसके दो मुख्य भेद हैं -कुपथ्य या कुल्लित भाषण न करना।
सफेद और स्याह, जीरे के आकार के छोटे (किसी को) जोभ के नीचे जाम
महीन लंबे बीज, फूलों का केसर। होना-किसी का अपनी कही हुई बात
जीरी संज्ञा, पु० दे० (हि. जीरा ) एक को बदल जाना। दो जोभ हाना-जीभ
प्रकार का अगहनीधान जो बरसों रह सकता के आकार की कोई वस्तु, जैसे निब।
है काली जीरी ( औष० )। जीभी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जीभ ) धातु
जीर्ण-वि० (सं०) बुढ़ापे से जर्जर, टूटाकी एक पतली धनुषाकार वस्तु जिससे जीभ
फूटा और पुराना, जीरन, जीन (दे०)। छील कर साफ़ करते हैं, निब, छोटी जीभ,
संज्ञा, स्त्री० जीर्णता । यो०-जीर्ण-शीर्ण गलशुंडी।
---- फटा-पुराना, पेट में अच्छी तरह पचा जोमना-स० क्रि० दे० (सं० जेमन ) भोजन
हुधा, (विलो. अजीर्ण) । " का ति लाहु करना, जैवरा (दे०)।
जीन धनु तोरे''-रामा० । जीमार--वि० (दे०) घातक, मारने वाला। जीमृत-संज्ञा, पु. (सं०) बादल, इन्द्र, सूर्य,
जीर्णज्वर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बारह
दिन से अधिक का ज्वर, पुराना बुखार, पर्वत, शाल्मली द्वीप का एक वर्ष, एक दंडक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण
" जीर्णज्वरं कफकृतं".... वै० जी० । और ग्यारह रगण होते हैं। यह प्रचित के !
जीर्णता- संज्ञा, स्त्री. (सं०) बुढ़ापा, बुढ़ाई, अन्तर्गत है।
पुरानापना, " पश्चाजीर्णातां याति" - जीमूतवाहन- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र ।।
माघ । जीयो-संज्ञा, पु० (दे०) जी, जीव, हृदय । | जीणे।द्धार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) फटी, जीयट-संज्ञा, पु० (दे०) जीवट ।
पुरानी या टूटी-फूटी वस्तुओं का फिर से जीयत-जीयति *-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सुधार, पुनः संस्कार, मरम्मत । जीना ) जीवन, जीवित, जीता हुआ, जिप्रत, जील-संक्षा, स्त्री० (दे०) धीमा, स्थिर ।
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