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कलवार
४२३
कला
कलवार-संज्ञा, पु० दे० (सं०-कल्यपाल) शरीर की ७ विशेष झिल्लियाँ (श्रायु०) एक शराब बनाने वा, बेंचने वाली जाति, किसी कार्य के करने में कौशल, फ्रन, हुनर, कलार, शुण्डी, कलाल ।
काम-शास्त्र की ६४ कलायें, मानव देह के कलविंक-संज्ञा, पु० (सं) चटक, गौरैय्या आध्यात्मिक १६ विभाग, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, पक्षी, तरबूज़, सफ़ेद चँवर।
५ कर्मेन्द्रियाँ, ५ प्राण, १ मन, बुद्धि, सूद, कलश, (कलस, कलसा)- संज्ञा, पु० जिह्वा । स्त्री का रज, विभूति, शोभा, तेज, सं० (दे०) घड़ा, गगरा, मंदिर चैत्यादि छटा, प्रभा, कौतुक, खेल, लीला, छल, का शिखर, मन्दिरों-मकानों आदि के ऊपर धोखा, ढङ्ग, युक्ति, नटों की एक कसरत के कँगूरे। संज्ञा, स्त्री० ( अव्य० ) कलशी | जिसमें खिलाड़ी सिर नीचे कर उलटता है, (कलसी, कलसिया) गगरी, गागरि, गग- करतब, ढेकली, यंत्र, पेंच, एक वर्णवृत्त । रिया, घइलिया, घैला (दे०)।
६४ कलायें -१ गीत-( स्वरग, पदग, कलहंतरिता-कलहांतरिता-संज्ञा, स्त्री० लयग, अवधानग) २ वाद्य-३ नृत्यदे० ( सं० कलह + अंतरित + आ ) वह (नाट्य या अभिनय, अनाव्य या नृत्त) नायिका जो अपने नायक या पति का अप- ४ आलेख्य-(चित्रकला)-(इसके ६ मान करके पछताती है।
अंग हैं-रूप, प्रमाण, भाव, सौंदर्य, कलहंस-संज्ञा, पु० (सं० ) हंस, राजहंस, ।
सादृश्य, चित्रण वैचित्र्य और रङ्ग-संनिवेश, श्रेष्ठ राजा, परमात्मा, एक वर्णवृत्त, ब्रह्म,
५ विशेषकच्छेद्य-( तिलक के साँचे क्षत्रियों की एक शाखा ।
बनाना) ६ तंडुल-कुसुमावलि-विकार कलह-संज्ञा, पु० (सं० ) विवाद, म्यान,
---पुष्प-चावलों से विविध प्रकार के साँचे रास्ता, झगड़ा । वि. कलही। यौ० कलह-प्रिय-संज्ञा, पु. (सं०) नारद ।
भूषणादि बनाना, ७ पुष्पास्तरण-पुष्पवि० लड़ाका, झगड़ालू , लड़ाई-पसन्द ।
शय्यादि रचना ८ दशनवसनाङ्गराग" कुटिल कलह-प्रिय इच्छाचारी "
सँवारना, ६ मणिभूमिका-कर्म-फर्श
सजाना. १०शयनरचना-पाचक शय्या रामा० । कलहकारी--वि० (सं०) झगड़ा करने वाला । स्त्री० कलहप्रिया, कलह
बनाना, ११ उदकवाद्य - जलतरङ्ग कारिणी।
बजाना, १२ उदक घात-पानी से चोट कलहारा*-वि० दे० (सं० कलहकार ) पहुँचाना, १३ चित्र योग-रूप बदलना, लड़ाका, झगड़ालू । स्त्री० कलहारी
१४ माल्य-ग्रन्थ-विकल्प-विविध प्रकार कर्कशा।
के हार बनाना, १५ शेखरक पीड़ योजन कलही-वि० दे० (सं० ) लड़ाका । स्त्री० -पुष्पकृत शिर-शृंगार, २६ नेपथ्य-प्रयोग कलहिनी।
-देशकालानुसारवस्त्रादि धारण १७ कला-वि० (फ़ा० ) बड़ा, दीर्घाकार । कर्णपत्रभंग-हाथी-दाँत और शंख से कला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अंश, भाग, गहने श्रादि बनाना, १८ गन्ध-युक्तिचन्द्रमा का १६ वाँ भाग, सूर्य का १२ वाँ सुगंधियों का बनाना, १६ अलङ्कार-योगभाग, अग्निमंडल के दस भागों में से एक, । ( संयोग्य-असंयोग्य ) श्राभूषण बनाना, एक समय-विभाग जो ३० काष्ठा का होता २० ऐन्द्रजाल-बाज़ीगरी, २१ कौचुहै, राशि के ३० वें अंश का ६० वाँ भाग, मार योग-सुन्दरता की कला, २२ हस्तवृत्त का १८०० वाँ भाग, राशि-चक्र के एक लाघव-२३ पाक विद्या (कला)-- अंश का ६० वाँ भाग, मात्रा (पिङ्ग०)भषय-क्रिया, भोजन-कला, २४ पानस
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