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चांद्रमास
चाचा चांद्रमास-संज्ञा पु० यौ० (सं०) उतना चाकचक-वि० (तु० चाक+चक अनु०) काल जितना चंद्रमा को पृथ्वी की एक | चारों ओर से सुरक्षित, दृढ़, मज़बूत । परिक्रमा करने में लगता है। पूर्णिमा से चकाचक (दे०)। पूर्णिमा या अमावस्या से अमावस्या तक चाकचक्य -- संज्ञा, स्त्री. ( सं०) चमक, समय।
दमक, उज्ज्वलता, शोभा। चांद्रायण-संज्ञा, पु. (सं० ) महीने भर चाकना-स० क्रि० (हि० चाक ) सीमा का एक कठिन व्रत जिसमें चंद्रमा के घटने बाँधने के लिये किसी वस्तु को रेखा से बढ़ने के अनुसार श्राहार घटाना बढ़ाना । चारों ओर घेरना, हद खींचना, खलियान पड़ता है, एक मात्रिक छंद।
में अनाज की राशि पर मिट्टी या राख से चाँप*-संज्ञा स्त्री० (हि. चपना ) दब जाने छाप लगाना जिसमें यदि अनाज निकाला का भाव, दबाव, रेलपेल, धक्का, बलवान जाय तो मालूम हो जाय, पहचान के लिये की प्रेरणा, बंदूक के कुंदे और नली का । किसी वस्तु पर चिन्ह डालना। जोड़। * संज्ञा, पु. (हिं. चंपा) चंपा चाकर-संज्ञा पु० (फ़ा० ) दास, भृत्य, का फूल।
सेवक, नौकर : स्त्री. चाकरानी। संज्ञा चाँपना-सं० क्रि० दे० (सं चपन) दबाना। स्त्री. चाकरी-" जाकी जैसी चाकरी" " चरण कमल चाँपत विधि नाना " यो० नौकर-चाकर। -रामा०।
चाकसू- संज्ञा पु० दे० (सं० चाक्षुष ) वनचाय चाय-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) व्यर्थ की कुलथी, निर्मली। बकवाद, बक बक, झक झक, चिड़ियों का | चाकी संज्ञा स्त्री० (दे० ) चक्की। संज्ञा,
स्त्री० दे० (सं० चक्र ) बिजली, वज्र ।। चा-संज्ञा स्त्री० (दे०) पौधा विशेष उसकी चाकू-संज्ञा पु० (तु.) छुरी, चक्कू (ग्रा०)। पत्ती, चाय ।
चाक्रायण - संज्ञा पु० (सं० ) चक्र ऋषि के चाइ, चाउ* -- संज्ञा पु० (दे०) चाव। वंशज ( छन्दो० उप०)। "कर कंकन को पारसी, को देखत है। चातुष-वि० (सं०) आँख सम्बंधी, जिस चाई"-वृन्द।
का बोध नेत्रों से हो, चतुर्ग्राह्य, छठे मनु । चाउर-संज्ञा पु० (दे० ) चावल । “ देन यौ०-चानुष-प्रत्यक्ष, नेत्रों से देखा
को चारि न चाउर मेरे"-नरो। हुआ, (न्या० प्रमाण)। चाक-संज्ञा पु० दे० (सं० चक्र ) एक कील चाख-संज्ञा पु० (दे० ) नीलकंठ पक्षी। पर घूमता हुआ पत्थर का गोल टुकड़ा जिस 'चारा चाख बाम दिसि लेई'-रामा० । पर मिट्टी का लोंदा रख कुम्हार बरतन चाखना-स० क्रि० दे० चखना। बनाता है, कुलालचक्र, पहिया, चरखी, चाचर-चाचरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गराड़ी, घिरनी, थापा जिससे खलियान चर्च री ) चाँचर, होली में गाने का गीत । की राशि पर छापा लगाते हैं, मंडलाकार | चचरी राग, होली के खेल-तमाशे, धमार, रेखा, चाका (दे०) चाको (व.)। उपद्रव, हलचल, हल्ला-गुल्ला। संज्ञा पु० (फा० ) दरार, चीड़, काटना । | चाचरी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० चचरी) वि. ( तु० चाक) दृढ़, मज़बूत , पुष्ट । योग की एक मुद्रा। यौ०-चाक-चौबंद-हृष्ट-पुष्ट, चुस्त, चाना-संज्ञा, पु० दे० (सं० तात ) काका चालाक, फुरतीला, तत्पर ।
| (ग्रा०) पितृव्य, बाप का भाई। स्त्री० चाची।
चहचहाना।
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