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कोंछियाना ४६७
कोकनी बोली में लेना । संज्ञा, पु० कोंछ (सं० कुक्षि ) (दे० ) कटहल के गूदेदार पके हुए बीज अंचल, अोली (दे०)।
कोष, आँख का ढेला । "..'कोए राते कोंछियाना–स० कि० (हि० कोंछ) साड़ी | बसन भगोहे भेष रखियाँ"-देव०। का वह भाग जो ऊपर से पहिनने में पेट कोइ-सर्व० (दे० ) कोई, कोय (ब्र०) के नीचे खोंसा जाता है। स० क्रि० यौ० कोइ-कोइ। (स्त्रियों के ) अंचल के कोने में कोई चीज़ | कोइरी-संज्ञा, पु. ( हि. कोयर ) सागभर कर कमर में खोंस लेना। मुहा० - तरकारी श्रादि बोने और बेचने वाली जाति, कोंभरना-गर्भाधान के बाद ५ वें काछी ( दे० )। या ७ वें मास में एक संस्कार, जिसमें
कोइलिया-कोइली-संज्ञा, स्त्री. (दे०)
कोकिल ( सं० )। कोइल, कोयल, स्त्री की कोंछ में चावल और गुड़ तथा मिष्ठान्नादि भरे जाते हैं।
कैलिया (७०) केली (दे०)।
कोइली-संज्ञा, स्त्री० (हि० कोयल ) एक कोंढा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० कुंडल ) किसी वस्तु के अटकाने के लिए छल्ला या कड़ा |
विशेष प्रकार का श्राम पर पड़ा काला और
सुगंधित दाग़, आम की गुठली, कोकिला, ( धातु का ) । स्त्री० अल्प -कोंढ़ी। |
कोयल। वि० कोंढा, कोंढहा—कोंढ़ेदार, जैसे.
कोई-सर्व० वि० दे० (सं० कोऽपि ) ऐसा कोंदा रुपया।
एक जो अज्ञात हो, ( मनुष्य या पदार्थ ), कोंथना--अ० क्रि० ( दे० ) . थना,
न जाने कौन एक। गूंथना।
मु०---कोई न कोई-एक नहीं तो दूसरा, कोपर-- संज्ञा, पु० (हि० कोंपल ) छोटा
यह न सही तो वह, बहुतों में से चाहे जो अधपका या डाल का पका प्राम।
एक, अविशेष व्यक्ति या वस्तु, एक भी, कोपल-कोपर-कोप --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०
( व्यक्ति ) । क्रि० वि० लगभग, क़रीब । कोमल, कुपल्लव ) नई और मुलायम पत्ती,
कोउ-( कोऊ ) --सर्व० (दे०) कोई। अंकुर, कल्ला, कनखा ( दे०)। "अजया ।
_ "कोउ इकपाव भक्ति जिमि मोरी।" रामा । गज मस्तक चढ़ी निरभय कोंपल खाय'
कोउक-सर्व० (दे० काउ-+-एक ) कोई -कबी०।
एक, कतिपय, कुछ। कोवर *--वि० दे० (सं० कोमल ) मृदुल,
कोक-संज्ञा, पु० (सं०) चकवा, चक्रवाक नर्म, मुलायम ।
(सं० ), सुरख़ाब, विष्णु, मेंढक । " कोककोहड़ा- संज्ञा, पु० (दे० ) कुम्हड़ा, कुष्मांड
सोक-प्रदपंकज द्रोही"-रामा० । (सं० )। संज्ञा, स्त्री० कोहँडौरी-(हि. |
कोकई-वि० (तु. कोक ) गुलाबी की कोहड़ा + बरी ) कुम्हड़े या पेठे की बरी।
झलक वाला नीला रंग, कौडियाला। को-सर्व० दे० (सं० कः) कौन, प्रत्य.
| कोक-कला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) रति (हि.) कर्म, सम्प्रदान, और सम्बन्ध कारक
या संभोग-विद्या। की विभक्ति, कौं (७०) । "को कहि सकत | कोकटेव-संज्ञा. प. (सं० ) रति-शाम के बड़ेन की"-वि०।
रचयिता एक पंडित। कोग्रा-कोवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कोशा, कोकनद-संज्ञा, पु० (सं०) लाल कमल हि० कोसा ) रेशम के कीड़े का घर, कुसि- या कुमुद। यारी, टसर नामक एक रेशम का कीड़ा, कोकनी-संज्ञा, पु. (तु. कोक = आसमानी) महुए का पका फल, कोलैंदा, गालैंदा एक रंग । वि० (दे०) छोटा, घटिया । भा० श० को०-६३
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