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उद्विग्न
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उनतालिस उद्विग्न-वि० (सं०) उद्वेगयुक्त, श्राकुल, व्यग्र। यहाँ केवल कुछ समय के लिये मँगनी के उद्विग्नता--संज्ञा, स्त्री. ( सं० उत् + वि + तौर पर व्यवहार में जाना, मँगनी, उद्धार,
त+ता ) आकुलता, व्यग्रता, घबराहट । छुटकारा । यौ० उद्विग्नमना-वि० ( सं० ) व्यग्रचित्त, उधारक-वि० दे० (सं० उद्धारक ) उद्धार घबराया हुआ।
करने वाला। उद्वेग --संज्ञा, पु० (सं०) मन की पाकुलता, | उधारन:-वि० (दे० ) मुक्त करने या घबराहट, मनोवेग, चिन्ता, आवेश, जोश, छुड़ाने वाला । “सूर पतित तुम पतितझोंक, चित्त की तीव्र वृत्ति, संचारी भावों में उधारन गहौ बिरद की लाज"--सू० । से एक।
उधारना-स० कि० (दे० ) उद्धार करना उद्वेगी-वि० (सं० ) उद्विग्न, उत्कंठित. (सं० उद्धरण) मुक्त करना, छुड़ाना, उबारना।
घबडाने वाला भावनायक जोशीला उधारी-वि० दे० (सं० उद्घारिन् ) उद्धार उघड़ना - अ० क्रि० दे० (सं० उद्धरण ) ___ करने वाला। स्त्री० उधारिनि (उद्घारिणी)। सिले हुए का खुलना, जमा या लगा न रहना, उधेड़ना-स० कि० दे. (सं० उद्धरण ) खुलना, उखड़ना, उजड़ना, उचड़ना।
पर्त या तह को अलग करना, उचाड़ना, उधम--संज्ञा, पु० (दे०) ऊधम, उपद्रव ।
टांका खोलना, सिलाई खोलना, छितराना, उधर-क्रि० वि० दे० (सं० उत्तर या ऊ
बिखराना, भंग करना, सुलझाना, उधेरना पु० हि० == वह --धर---प्रत्य० ) उस भोर, (दे०) । " जरासंध को जोर उधर्यो उस तरफ़, दूसरी ओर, वा लँग ( दे०)। फारि कियो है फाँको"- सूर० । उधरना-स. क्रि० दे० (सं० उद्धरण ) | उधेड़ बुन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उधेड़ना+ मुक्त होना, उधड़ना, उखड़ना, निकल जाना।
बुनना) सोच-विचार. उहा-पोह, युक्ति स० क्रि० उद्धार या मुक्त करना । अ० कि० बाँधना, उलझन को सुलझाना।। उद्धार पाना, उखड़ना । “ सूरदास भगवंत
| उनंत-वि० दे० (सं. अवनते ) झुका भजन की सरन गहे उधरे" "तुम मीन हुश्रा, अवनत । मुरझाना । “भई उनंत प्रेम ह्र वेदन को उधरो जू"- राम ।
कै साखा".--१०। उधराना-अ. क्रि० दे० ( स० उद्धरण )
उन-सर्व० (दे० ) उस का बहुवचन । हवा के कारण छितराना, तितर बितर होना,
उन इस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० एकोन
विंशति ) उन्नीस, वनइस (दे०) ऊधम मचाना, उन्मत्त होना, बिखरना। वि०
उनका-संज्ञा, पु० (अ.) एक कल्पित (दे०) उधरा-मुक्त, छूटा, उखड़ा हुआ।
पक्षी जिसे आज तक किसी ने नहीं देखा। उधार-संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्धार) उद्धार,
सर्व० दे० ( हि० उन + का-प्रत्य०) मुक्ति, ऋण, कर्ज़ । "झूठा मीठे बचन कहि,
सम्बन्ध कारक में । स्त्री. उनकी, व० . ऋण उधार लै जाय ''-- गि
उनके आदि। म०-उधार खाये बैठना--किसी भारी, उनचास वि० दे० (सं० एकोन पंचाशत् ) श्रासरे पर दिन काटते रहना, उधार लिये चालीप और नौ, ४६ । संज्ञा, पु० (दे०) रहना । उधार खाना और भुस में | उन्चास की संख्या । वन्चास ( दे.) आग लगाना-ऋण का प्रति दिन बढ़ना उनतालिस - वि० (दे० ) उन्तालीस (सं. और धीरे-धीरे बढ़ कर बहुत होना, या एकोनचत्वारिंशत् ) ३० और १ । संज्ञा, पु०नाशकारक होना। प्रत्येक समय तैयार तीस और नौ की संख्या, एक कम चालीस रहना, किसी की कुछ चीज़ का दूसरे के | का अदद, ३६ । वन्तालिस (दे.)।
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