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कंपास ३८०
कक्का कंपास--संज्ञा, पु. (प्र०) दिक्-सूचक ककड़ी-ककरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्कटी) यंत्र, परकार ।
| भूमि पर फैलने वाली एक बेल जिसके फल कंपित-वि० (सं० ) काँपता हुअा, चंचल, लम्बे, पतले होते तथा खाये जाते हैं । भयतीत ।
ककना (ककनी-स्त्री०)-संज्ञा, पु० (दे०) कंप-(कैंप)—संज्ञा, पु. ( अ. कैप) कंकण, कंगन, कँगना।। छावनी, फ़ौज का स्थान ।
ककनू-संज्ञा, पु० (दे० ) एक पक्षी जिसके कंबल-संज्ञा, पु० (सं० ) ऊन का बना गाने से उसके घोसले में आग लग जाती हुधा श्रोदने का कपड़ा, एक बरसाती है और वह जल मरता है। " ककनू पंखि कीड़ा, कमला, कमरा । यौ० गल-कंबल- जइस सर साजा"--प० । गाय-बैल के गरदन के नीचे लटकता ककरंजा-संज्ञा, पु० (दे० ) बैजनी रंग । हुश्रा माँस।
ककरोंदा-संज्ञा, ३० (दे०) एक वनस्पति (स्त्री० अल्प कमली)। कामरी (दे०) का पौधा, औषधि । कंबु-कंबुक-संज्ञा पु० (सं० ) शंख, घोंघा, ककहरा-संज्ञा, पु० दे० ( क-न-क-+-+राहाथी, " उर मनिमाल कंबुकल ग्रीवा" प्रत्य० ) क से ह तक वर्णमाला । रामा०।
ककही-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कंघी, लाल कंबोज-संज्ञा, पु० (सं० ) अफ़ग़ानिस्तान कपास का एक भेद, चौबगला। के एक भाग का प्राचीन नाम जो गाँधार | ककुद-संज्ञा, पु. (सं० ) बैल के कंधे का के पास था।
कूबड़, डिल्ला, राज-चिन्ह, एक पर्वत, शिखा! कँवल-संज्ञा, पु० (दे०) कमल (सं०) ककुत्स्थ- संज्ञा, पु० (सं०) इच्वाकु नरेश यौ० संज्ञा, पु० (दे० )कँवलगट्टा--कमल के पौत्र, पुरंजय इन्होंने देव-प्रार्थना मान के बीज (कमलगटा)।
इंद्र को वृषभ बना उसी पर चढ़ राक्षसों से कंस-संज्ञा, पु० (सं०) काँसा, प्याला, युद्ध किया अतः ककुत्स्थ कहलाये इनके कटोरा, सुराही, मँजीरा, झाँझ, काँसे का वंशवाले काकुत्स्थ कहलाते हैं।। पात्र, ( बरतन) मथुरा-नरेश उग्रसेन का ककुम--संज्ञा, पु. ( सं० ) अर्जुन का पेड़, पुत्र तथा श्री कृष्ण का मामा जिसे श्रीकृष्ण एक राग, एक प्रकार का छंद, दिशा, वीणा ने मारा था।
के ऊपरी टेढ़ा भाग! " ककुभ कूजित थे कंसकार-संज्ञा, पु० (सं.) ब्राह्मण के कल नाद से "-प्रि० प्र० ।
औरस और वेश्या से उत्पन्न जाति, कसेरा, ककुभा--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दिशा। बर्तन बेचने वाला।
ककोड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) खेखसा। कसताल-संज्ञा, पु० (सं०) झाँझ, मँजीरा । ककोरना-- स० कि० (दे० ) खरोंचना, कंसारि-संज्ञा, पु० (सं०) कंस का शत्रु, खोदना, उखाड़ना, खखोलना। श्रीकृष्ण ।
ककड़-संज्ञा, पु. (दे०) कर्कट (सं० ) कई - वि० दे० (सं० कति, प्रा० कइ ) एक सूखी या सेंकी सुरती का भुरभुराचूर जिसे
से अधिक, अनेक, कतिपय, केतिक, किते, छोटी चिलम में पीते हैं, खत्रियों की एक (०) यौ० कइयक- दे० (हि. जाति। कई +-एक) कितेक (व्र०) कई एक। कका–संज्ञा, पु० (दे० ) केकय (सं० ) ककई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कंघी, ककही। केकय देश । संज्ञा, पु० (सं०) नगाड़ा, संज्ञा, पु. (दे०) करवा।
दुन्दुभी । संज्ञा, पु० (दे० ) काका, चाचा।
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