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निवेदन
इस नामानुक्रमणिकाको देखकर एक विद्वान्ने तो इसको 'महाभारतका कल्पवृक्ष' बतलाया था। इसमें यथासाध्य पूरे नाम देनेका प्रयत्न किया गया है। इसकी रचनामें सम्मान्य पं० श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री, पं० रामाधारजी शास्त्री आदि महानुभावोंने बड़ा परिश्रम किया है। इसके लिये हम उनके कृतज्ञ हैं । इसकी भूमिका प्रसिद्ध दार्शनिक तथा साहित्यिक विद्वान् आदरणीय डा० श्रीवासुदेवशरणजी अग्रवाल एम्० ए, डी० लिट् महोदयने लिख देनेकी कृपा की है। अतः उनके भी हम हृदयसे कृतज्ञ हैं। महाभारतके अनुसन्धानकर्ता विद्वानोंको तथा कौन कथा किस प्रसङ्गमें कहाँ है, यह जाननेकी इच्छावालोंको इससे विशेष सुविधा होगी। महाभारतके प्रेमी पाठकगण इससे लाभ उठावें-यह निवेदन है।
प्रकाशक
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भूमिका महाभारतकी शतसाहस्री संहिता भारतीय ज्ञान, स्थान जानना चाहिये । इस महान् ग्रन्थमें धर्म, अर्थ, चर्म और संस्कृतिकी अक्षय्य निधि है । भगवान् कृष्ण- काम और मोक्ष-इस प्रकार कहे गये हैं कि वे एक
पाचन व्यासने कुरु-पाण्डवोंके चरितको निमित्त बनाकर दूसरेसे संतुलित रहें और परस्पर सहायक हों। यह जिस भारताख्यानकी रचना की थी, वही नाना शास्त्रोंके महाभारत ऐसा ग्रन्थ है, जिसे श्रेष्ठ धर्मशास्त्र, परम अर्थसमुच्चयसे महाभारत के रूपमें इस समय उपलब्ध है, शास्त्र, अग्रणी कामशास्त्र और उत्तम मोक्षशास्त्र मानकर उनजैसा मार्कण्डेयपुराणमें कहा है--
उन अर्थों का दोहन किया जा सकता है । वेदव्यासके इस भगवन् भारताख्यानं व्यासेनोक्तं महात्मना।
वाङ्मयमें चारो आश्रमोंके धोका वर्णन पाया जाता है, पूर्णमस्तमलैः शुभैर्नानाशास्त्रसमुच्चयैः ॥
जिसके द्वारा उनके शिष्ट सदाचार और उनकी दृढ़ जातिशुद्धिसमायुक्तं साधशब्दोपशोभितम्। सामाजिक स्थितिका साधन किया जा सकता है । व्यासपूर्वपक्षोक्तिसिद्धान्तपरिनिष्ठासमन्वितम् ॥ का चिन्तनकर्म अत्यन्त उदार था। उससे यह महाशास्त्र त्रिदशानां यथा विष्णुद्धिपदां ब्राह्मणो यथा । भरा हुआ है । इसमें विरोधकी कहीं सम्भावना नहीं है। भूषणानां च सर्वेषां यथा चूडामणिर्वरः॥ यथाऽऽयुधानां कुलिशमिन्द्रियाणां यथा मनः ।
व्यासके वाक्योंकी यह महती जलधारा वैदिक ज्ञानतथेह सर्वशास्त्राणां महाभारतमत्तमम ॥ विज्ञानरूपी पर्वतोंके ऊँचे शिखरोंसे बहकर आयी है और अत्रार्थश्चैव धर्मश्च कामो मोक्षश्च वर्ण्यते। इसने समस्त त्रिलोकीमें रजोगुणसे उत्पन्न दोगोंका परस्परानुवन्धाश्च सानुबन्धाश्च ते पृथक् ॥ प्रक्षालन किया है । इसके प्रभावशाली प्रवचनके सामने धर्मशास्त्रमिदं श्रेष्ठमर्थशास्त्रमिदं परम्। कुतर्करूप वृक्ष नहीं ठहर पाते । भगवान् वेदव्यासने कामशास्त्रमिदं चायं मोक्षशास्त्रं तथोत्तमम् ॥ चतुगश्रमधर्माणामाचारस्थितिसाधनम्
इतिहास-पुराणकी पाँचवीं संहिताके रूपमें वेदोंका ही
। प्रेक्तमेतन्महाभाग वेदव्यासेन धीमता ॥
एक महागम्भीर सरोवर महाभारतके रूपमें विरचित किया तथा तात कृतं होतद् व्यासेनोदारकर्मणा । है, कुरु-पाण्डवोंकी विस्तीर्ण कथाका जल इसमें भरा यथा व्याप्तं महाशास्त्रं विरोधैर्नाभिभूयते ॥ है । उस खच्छ जलमें वैदिक और लौकिक आख्यानोंके व्यासवाक्यजलौघेन कुतर्कतरुहारिणा।
अनेक शतदल और सहस्रदल कमल खिले हैं। इसकी वेदशैलावतीर्णन नीरजस्का मही कृता ॥
सुन्दर शब्दावली उस जलमें क्रीडा करनेवाले हंसोंकी कलशब्दमहाहंसं महाख्यानपराम्बुजम् । कथाविस्तीर्णसलिलं काणं वेदमहाह्रदम् ॥
मधुर ध्वनि है । ऐसा यह बह्वर्थशाली एवं श्रुतियोंसे
( १ । २-११ ) विस्तार प्राप्त हुआ महाभारतशास्त्र है । अर्थात् इस महाभारतमें अनेक ऐसे शास्त्र संग्रहीत वेदनिधि द्वैपायन कृष्णने महाभारतके द्वारा अपना हैं, जो सब दोपोंसे रहित हैं और जिनका तेज शुभ्र लोकपावन रूप प्रकट किया है । व्यासकी महिमाका है। इसके जन्मका स्रोत शुद्ध है एवं इसमें लोक और पूरा वर्णन दुष्कर है । भगवान् विष्णु एक ऐसे महान् वेदके असंख्य उदात्त शब्द यथास्थान पिरोये गये हैं। कल्पवृक्षके समान हैं, धर्म जिसकी जड़ है, वेद इसमें पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके क्रमसे सिद्धान्तोंकी जिसका तना है, पुराण जिसकी शाखाएँ हैं, यज्ञ जिसके प्रतिष्ठा की गयी है। देवोंमें जैसे महासामर्थ्यवान् पुष्प हैं और मोक्ष जिसका फल है । ऐसे उन नारायणके भगवान् नारायण हैं, मनुष्योंमें जैसे तास्त्री ब्राह्मण हैं, एक अंशसे ही श्रीकृष्ण द्वैपायनका जन्म हुआ है। आभूषणोंमें जैसे चूड़ामणि शोभाशालिनी होती है, निस्संदेह महाभारत अत्यन्त महिमाशाली शास्त्र आयुधोंमें जैसे वज्र दुर्धर्ष है और सब इन्द्रियोंमें महिमाशाली है। वह भारतकी पुरातन राष्ट्रिय संहिता है। प्राचीन जैसे मन है, वैसे ही सब शास्त्रोंके ऊपर महाभारतका ऋषियों के ज्ञानचक्षुओंमें जिस अर्थका आविर्भाव हुआ था,
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वही महाभारतमें पाया जाता है । इस प्रकारके महनीय वह उतना ही गम्भीर अर्थ महाभारतमें ढूँद पानेमें ग्रन्थका व्यवस्थित प्रकाशन समाज और राष्ट्रकी महती सफल होगा । राष्ट्रीय अभ्युत्थानके इस क्षणमें, जब सब सेवा माननी चाहिये । इस दृष्टि से गीताप्रेसद्वारा ओरसे भारतीय संस्कृतिके पुनः उत्थान, व्याख्या और प्रकाशित हिंदी-अनुवादसहित मूल महाभारतका नूतन प्रचारका आन्दोलन सशक्त बन रहा है, इस बातकी संस्करण सार्वजनिक अभिनन्दनके योग्य है। नितान्त आवश्यकता है कि महाभारतसम्बन्धी सब
प्रकाशकोंने इस संस्करणके अन्तमें व्यक्तिनाम प्रकारके साहित्यका अधिकाधिक प्रकाशन हो और और स्थाननामोंकी एक अनुक्रमणिका प्रकाशित की विशेषतः ऐसे साहित्यका, जिससे महाभारतके पाण्डित्यहै, जिसमें उस-उस व्यक्ति या स्थानका संक्षिप्त परिचय पूर्ण अनुशीलनको नयी दिशा और प्रोत्साहन प्राप्त हो भी दिया गया है। प्रत्येक नामके आगे पर्व, अध्याय सके । इस दृष्टिसे गीताप्रेसके अभिनव महाभारत
और श्लोकका संकेत देते हुए महाभारतमें उसके प्रकाशन और इस नामानुक्रमणीकी इलाघा करते हुए हम उल्लेखों का पूरा पता दिया गया है। हिंदी अथवा यह आशा करते हैं कि महाभारतकी प्राचीन व्याख्याओंकिसी अन्य भारतीय भाषामें महाभारतके विषयमें इस के प्रकाशनको और
के प्रकाशनकी ओर भी ध्यान दिया जायगा । देवबोध, प्रकारकी उपयोगी अनुक्रमणी पहले नहीं छपी थी।
ही विमलबोध, सर्वज्ञनारायण, अर्जुनमिश्र, रत्नगर्भ, नीलकण्ठ चार सौ पृष्ठोंकी यह बड़ी सूची महाभारत
- और वादिराज आदि आचार्योंने महाभारतविषयक जो सम्बन्धी शोधकार्य करनेवालोंके लिये कल्पलताका टीकात्मक विवेचन किया है, उसका उचित मुद्रण काम देगी । अंग्रेजी भापाके माध्यमसे डेन्मार्क देशके होना चाहिये । अभी कोई ऐसा एक केन्द्र नहीं है, जो विद्वान् श्री डॉ० सोरेन्सेनने १९०२ ई० में ऍन इस ज्ञानराशिका प्रकाशन करे । अवश्य ही संस्कृतके इण्डेक्स टू दी नेम्स ऑव दी महाभारत? इस नामसे वद्धेमान नवजागरणमें इस प्रकारके प्रकाशन युगकी एक बड़े ग्रन्थका निर्माण किया था, जो १९०४ में आवश्यकताकी पूर्ति करेंगे । महाभारतकी बहुत-सी लंदनसे प्रकाशित हुआ । इसमें लगभग आठ सौ शब्दावली उस युगकी देन है, जो आजसे कई सहस्र पृष्ठोंमें महाभारतमें आये हुए समस्त स्थान-नाम और वर्ष पूर्व विद्यमान था। उस समय अनेक आचार्योने मनुष्य-नार्मोका बहुत ही सुन्दर विवरण पाया जाता है दर्शन और अध्यात्मके अनेक दृष्टिकोण रखे थेऔर यह ग्रन्थ भारतीय विद्याके शोधकर्ताओंके लिये जैसे कालवाद, खभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, आज भी कामधेनु के समान है। जैसा स्वाभाविक था. भूतवाद और योनिवाद आदि । महाभारतके ओजायमान इस नामानुक्रमणीके निर्माणमें कुछ अंशतक उस बहुत प्रवाहमें अनेक स्थलोपर, विशेषतः शान्तिपर्वमें इन महाभारतकोशकी शैलीका आश्रय लिया गया है। दार्शनिक मतों या दृष्टियोंका उल्लेख आया है- जैसे सोरेन्सेनका ग्रन्थ इस समय सर्वथा दुर्लभ और दुष्प्राप्य मा
मङ्कि ऋषिके दिष्टिवाद या नियतिवादका अत्यन्त प्रौढ़ हो गया है और उसका मूल्य भी साधारण पहुँचके विचर
मल्य भी माघार विवेचन शान्तिपर्वके अध्याय १७७ में उपलब्ध है, बाहर है । इसलिये भी गीताप्रेसका यह सुलभ प्रकाशन
जिसे महाभारतमें मङ्किगीता कहा गया है। ये आचार्य विशेष स्वागतके योग्य है।
मङ्कि वही हैं, जिन्हें श्रमणपरम्परामें 'मङ्खलिगोसाल'
कहा जाता है, और जो कर्मापवाद-सिद्धान्तका या जैसा ऊपर कहा गया है, महाभारत एक आकर परुपकारके विरोधमें दैववादका प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थ है। उसमें भारतीय भूगोल, इतिहास, संस्कृति, थे गाथाशास्त्र, आख्यान, लोकधर्म, दर्शन और अध्यात्मकी अतुलित सामग्री भरी हुई है । इस ग्रन्थका जो जितना शुद्धं हि देवमेवेदं हठे नैवास्ति पौरुषम् । पारायण करेगा, वह उतना ही लाभान्वित हो सकेगा। अर्थात् केवल दैव ही बलवान् है; कितनी भी हठ जिसके मानसचक्षुओंमें जितनी देखनेकी शक्ति होगी, करो, पुरुषार्थ काम नहीं देता—इस प्रकार महाभारतमें
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( ६ )
मङ्किगीताके रूपमें नियतिवादका जो विवेचन है, वह बौद्ध और जैन-ग्रन्थोंमें उल्लिखित मङ्खलिगोसाल के सिद्धान्तोंसे भी अधिक विस्तृत जानकारी प्रदान करता है । महाभारतकी इस प्राचीन सामग्रीका जो शान्ति पर्वके कितने ही अध्यायोंमें उपनिबद्ध है, अभीतक कोई सुन्दर विवेचन नहीं हुआ । प्राचीन कालमें मॠिषिके नियतिवाद और बृहस्पतिके लोकायत दर्शन या प्रत्यक्षवादका — जिसे विदुरनीतिके अनुसार तादात्विक दृष्टि भी कहते थे – बहुत प्रचार था । ययाति और धृतराष्ट्र-जैसे राजर्षियोंको महाभारत में ही नियतिवादी कहा गया है । इसी प्रकार महात्मा विदुर और भगवान् श्रीकृष्ण प्रज्ञावादी दर्शनके, जिसे 'बुद्धियोग' भी कहा गया है, प्रतिपादनकर्ता थे । महाभारतकी यह सामग्री उसकी भंडार- कोठरियों में छिपे हुए ज्ञान रत्न हैं । आशा है कालान्तर में इनका वित्रेचन करनेवाले ग्रन्थोंकी रचना होगी। नाग्द-राजनीति, कणिक-नीति, विदुर-नीति आदि प्रकरण राजशास्त्र एवं लोकके व्यावहारिक नीतिशास्त्रके अद्भुत ग्रन्थ हैं । इसी प्रकार महर्षि सनत्सुजातद्वारा कथित सनत्सुजातीय नामक अध्यात्मप्रकरण महाभारतका अत्यन्त उज्ज्वल और मूल्यवान् रत्न है, जो किसी वैदिक चरण में विकसित अध्यात्मशास्त्रका ही अवशिष्ट रूप है और जिसमें वैदिक निगद या बाह्य शब्दोंकी अपेक्षा वेदके गूढ़ अध्यात्मरहस्यका आत्मसात् करनेपर ही अधिक बल दिया गया है । इन सबसे अधिक प्रभाखर श्रीमद्भगवद्गीता प्रसिद्ध ही है, जिसके ज्ञानमय आलोक का वस्तुत: वारापार नहीं है । महाभारतका अनुशीलन उस सर्वेक्षण के समान है, जिसमें मणिरत्न, सुवर्ण आदिकी खानोंके लिये भूमिको शोधा जाता है ।
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जिनके ज्ञान नेत्रोंमें इस प्रकारका अञ्जन लगा हो, उन्हें महाभारत में क्या कुछ देखनेको न मिलेगा ? जिन्हें धर्म और संस्कृतिके मणिरत्नोंकी पहचान हो, उनके लिये जो निधि महाभारत में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है । इस प्रकारके अतिविशिष्ट ग्रन्थका स्मरण करके हृदय गद्गद हो जाता है । जैसा वायुपुराण के कर्ता कहा है
'भगवान् व्यासने वेदोंके समुद्रको अपनी बुद्धिरूपी मथानीसे मथकर ऐसे महाभारतरूपी चन्द्रमाको जन्म दिया, जिसके प्रकाश से यह सारा लोक प्रकाशित है'.
--
मति मन्थानमाविध्य येनासौ श्रुतिसागरात् । प्रकाशं जनितो लोके महाभारतचन्द्रमाः ॥ वायु० १ | ४४-४५ )
भारतीय लोकमानस व्यासके प्रति अपनी बढ़ी दुई कृतज्ञताको प्रकट करने के लिये इससे अच्छे और कौन-से शब्द प्राप्त कर सकता था ? जैसा आचार्य दण्डीने बुद्धिवादियोंकी ओरसे व्यासको श्रद्धाञ्ज अर्पित करते हुए लिखा है – महामुनि व्यासने महाभारतके रूपमें जो विद्या इस राष्ट्रको समर्पित की, वह मानवरूपी मर्त्य यन्त्रों में चैतन्य-मन्त्र फूँकनेका साधन है
मर्त्ययन्त्रयेषु चैतन्यं महाभारतविद्यया । अर्पयामास तत्पूर्वं यस्तस्मै मुनये नमः ॥ ( अवन्तिसुन्दरीकथा श्लोक ४ ) भगवान् व्यासके रूपमें उस महासागरकी जय हो, जिससे महाभारतरूपी अमृतका जन्म हुआ ।
काशी विश्वविद्यालय,
फाल्गुन शुक्ला ९० सं० २०१५ } वासुदेवशरण अग्रवाल
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श्रीहरिः
महाभारतकी नामानुक्रमणिका संक्षिप्त परिचयसहित
अंश
अक्षयवट
१७७ । १२)। परशुरामजीको भीष्मके साथ युद्ध करने के अंश-कश्यपके द्वारा अदितिके गर्भसे उत्पन्न बारह आदित्यों
लिये कहना (उद्योग० १७८ । १५)। भीष्मके साथ मेंसे एक (आदि० ६५। १५)। ये अर्जुनके जन्मोत्सवमें युद्धमें परशुरामजीका सारथ्य करना ( उद्योग० १७९ । पधारे थे (आदि० १२३ । ६६) । खाण्डव-वन-दाहके
९)। बाणशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीके पास आये हुए युद्धमें इन्द्रकी ओरसे युद्धके लिये इनका आगमन ऋषियोंमें एक ये भी थे (अनु० २६ । ८)। (आदि० २२६ । ३५) । इनके द्वारा स्कन्दको पाँच अकृतश्रम-वानप्रस्थ-धर्मका पालन करनेवाले एक मुनि पार्षद प्रदान किये गये (शल्य० ४५ । ३४)। शान्तिपर्वके (शान्ति० २४४ । १७)। २०८ वें अध्यायमें तथा अनुशासनपर्वके ८६ और १५१ अकर-यदुवंशान्तर्गत सात्वतवंशीय श्वफल्कके पुत्र, जिन्हें वें अध्यायोंमें भी इनका नाम आया है ।
दानपति भी कहते हैं । ये वृष्णिवीरोंके सेनापति थे अंशावतरणपर्व-आदिपर्वके अध्याय ५९ से ६४ तकके (आदि० २२० । २९)।(इनकी माताका नाम गान्दिनी' विषयका नाम ।
और पत्नीका नाम सुतनु' था, वह आहुककी पुत्री थीअंशुमाली-सूर्यका एक नाम ( सभा० ११ । १८)।
पुराणान्तरसे ) द्रौपदीके स्वयंवरमें इनका आगमन अंशुमान् (१) सगरके पौत्र तथा असमञ्जसके पुत्र । इनके
(आदि. १८५। १८)।सुभद्राहरणके समय रैवतक
पर्वतपर होनेवाले उत्सबमें ये भी थे (आदि० २१८1१०)। प्रयत्नसे यज्ञकी पूर्ति (अनु० १०७ । ६१) । इनपर महात्मा कपिलकी कृपा (अनु० १०७ । ५६-५८)।
सुभद्राके लिये श्रीकृष्णके साथ दहेज लेकर गये थे इनका राज्याभिषेक (अनु. १०७ । ६४)। इनका अपने
(आदि० २२० । २९)। ये उपप्लव्य नगरमें अभिमन्युके
विवाहके अवसरपर आये थे (विराट० ७२ । २२)। पुत्र दिलीपको राज्य देकर स्वर्गगमन (अनु० १०७ । ६६)। (२) द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे हुए एक राजाका
अक्रूर और आहुकमें बड़ा वैर था और ये दोनों श्रीकृष्ण
को अपने विरोधीका पक्षपाती समझकर उनसे मन-ही-मन नाम ( आदि० १८५ । ११)। (३) एक विश्वेदेवका नाम (अनु० ९१ । ३२)।(४) भोजराज अंशुमान्,
असंतुष्ट रहते थे । इससे श्रीकृष्णको बड़ी चिन्ता थी जो द्रोणाचार्यद्वारा मारे गये थे। इनकी चर्चा कर्णपर्व
(शान्ति० ८१ । ९-११) । सभापर्वके ४, वनपर्वअध्याय ६ श्लोक १४ में आयी है।
के१८, ५१; मौसलपर्वके ६ तथा स्वर्गारोहणपर्वके ५ वें
अध्यायोंमें भी इनका नाम आया है। ये विश्वेदेवों में मिल अकम्पन-सत्ययुगका एक राजा । नारदजीके साथ उसका
गये थे। संवाद (द्रोण. ५२ । २६ )। नारदजीके उपदेशसे उसका शोकरहित होना (द्रोण. ५४ । ५२, शान्ति.
अक्रोधन-पूरुवंशी अयुतनायीके पुत्र । इनकी माता थी २५६ । ७ से २५८ अ० तक)।
पृथुश्रवाकी पुत्री कामा । इनकी पत्नी थी कलिङ्गराजकुमारी
करम्भा । इनके पुत्रका नाम 'देवातिथि' था (आदि. अकर्कर-एक नागका नाम (आदि० ३५ । १६)।
९५ । २१)। अकृपार-इन्द्रद्युम्न सरोवरमें रहनेवाला एक चिरजीवी कच्छप (वन० १९९ । ८) । इसने इन्द्रद्युम्नकी लुप्त कीर्तिका
अक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ५८)। भूमिपर प्रसार किया था।
अक्षप्रपतन-आनर्त देशके अन्तर्गत एक स्थान, जहाँ श्रीअकृतव्रण-परशुरामजीके प्रिय शिष्य और सखा । इनके
कृष्णने गोपति और तालकेतु नामक असुरोंको मारा था
(सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ८२४)। द्वारा युधिष्ठिरसे परशुरामोपाख्यानका वर्णन (वन० ११५ से ११७ अ०तक)। इनका श्रीकृष्णके हस्तिनापुर जाते समय
अक्षमाला ( अरुन्धती )-बसिष्ठकी पत्नी ( उद्योग. मार्गमें उनसे भेंट करना ( उद्योग०८३।६४ के बाद)। ११७ । ११)। (देखिये अरुन्धती) होत्रवाहनको परशुरामजीके आगमनकी सूचना देना और अक्षयवट-गयाके अन्तर्गत एक त्रिभुवनविख्यात तीर्थ । अम्बाका परिचय पछना ( उद्योग०१७६।११-४३)। (वन०८४॥ ८३,९५। १४)।( कहते हैं,यहाँ अक्षयअम्बाको भीष्मसे ही बदला लेनेकी सलाह देना (उद्योग वटवृक्ष है, जिसका प्रलयकालमें क्षय नहीं होता।) म. ना०१
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अक्षर
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( २ )
अक्षर-अक्षर पुरुष ( भीष्म० ३९ । १६ ) । अक्षीण - महर्षि विश्वामित्र के पुत्रोंमेंसे एक (अनु० ४ । ५० ) । अक्षौहिणी - परिगणित संख्यावाले रथों, घोड़ों, हाथियों और पैदलोंसे युक्त चतुरङ्गिणी सेनाका नाम ( विशेष परिचय देखिये आदि० २ । २२ से २६ तक ) । अगस्त्य - मित्रावरुण के पुत्र एक ब्रह्मर्षि, जिन्हें 'कुम्भज' भी कहते हैं (शान्ति० ३४२ । ५१ ) । इन्होंने यज्ञविघ्नकारी पशुओं पर आक्रमण करके उन्हें मार भगाया था (आदि० ११७ | १४ ) । इनके द्वारा अग्निवेशको धनुर्वेद की शिक्षा प्रात हुई थी ( आदि० १३८ । ९ ) । इनका पितरोंके उद्धारार्थ विवाह करनेका विचार ( वन० ९६ । १९ ) । इन्होंने अपनी पत्नी बनाने की इच्छासे अपने ही द्वारा रची गयी एक दिव्य स्त्रीको तपस्वी विदर्भराजके यहाँ उनकी पुत्रीरूपसे दे दिया था ( वन० ९६ । २१ ) । विदर्भराजकुमारी लोपामुद्रासे इनका विवाह ( वन० ९७।७)। इनकी गङ्गाद्वारमें पत्नी सहित तपस्या (वन० ९७ । ११ ) । लोपामुद्रासे प्रेरित होकर इनका धन-संग्रहके लिये प्रस्थान ( वन० ९७ । २५ ) । इनका श्रुतर्वा ब्रघ्नश्व तथा त्रसदस्युसे धन माँगना ( वन० ९८ । ४, ९, १५ ) । इनके द्वारा वातापिका भक्षण ( वन० ९९ । ६ ) । इनकी इवलसे धनकी याचना ( वन० ९९ | १२ ) । इनका लोपामुद्रा के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करना ( वन० ९९ । २५ ) । देवताओं द्वारा इनकी स्तुति ( वन० १०३ । १५ – १८ ) । इनका विन्ध्यपर्वतको बढ़ने से रोकना ( वन० १०४ ॥ १२-१३ ) । इनके द्वारा समुद्रका शोषण ( वन० १०५ । ३-६ ) । इनसे राक्षस मणिमान् तथा कुबेरको शाप प्राप्त होना ( वन० १६१ । ६० - ६२ ) । इनका इन्द्रसे नहुपके पतनका वृत्तान्त सुनाना ( उद्योग० अध्याय १७ ) । इनके द्वारा वानप्रस्थाश्रमका पालन ( शान्ति० २४४ ॥ १६) । इनके शाप से नहुषका पतन (शान्ति० ३४२ । ५१) । कमलोंकी चोरी हो जानेपर इनका सारगर्भित प्रवचन ( अनु० ९४ । ९-१३ ) | नहुप के अत्याचारके विषय में भृगुजीसे इनका वार्तालाप (अनु० ९९ । १६-२१ ) । नहुपके द्वारा इनका रथमें जोता जाना ( अनु० १०० । १८-१९ ) । वायुद्वारा इनके प्रभावका वर्णन इनके क्रोधसे दग्ध होकर दानवोंका अन्तरिक्षसे गिरना ( अनु० ११५ । १ - १३ ) । अगस्त्यजीके द्वारा द्वादशवार्षिक यज्ञका अनुष्ठान और उसमें इनकी तपस्याका अद्भुत प्रभाव ( आश्व० अ० ९२ ) ।
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अगस्त्यतीर्थ-दक्षिण समुद्र के समीपवर्ती तीर्थं । पाँच नारीतीर्थों में एक ( आदि० २१५ । ३ ) । यहाँ तीर्थयात्रा के अवसरपर अर्जुनका आगमन और ब्राह्मणके शापसे ग्राह
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अग्नि
बनकर रहनेवाली अप्सरा ( वर्गाकी सखी) का अर्जुनद्वारा उद्धार ( आदि ० २१६ | २१ ) | ( वन० ८८ । १३ तथा ११८ । ४ ) में भी इस तीर्थका नाम आया है । अगस्त्यपर्वत - (१) मद्रास प्रान्तके तिनेवली जिलेका अगस्त्यकूट नामक पर्वत, जो ताम्रपर्णी नदीका उद्गमस्थान है ( - हिंदी महाभारतका परिशिष्ट पृष्ठ १ ) | ( २ ) किसीकिसीके मतमें यह कालंजर पर्वतका उपपर्वत है |
अगस्त्यवट - हिमालय के पासका एक पुण्यक्षेत्र । तीर्थयात्राके अवसरपर यहाँ अर्जुनका आगमन हुआ था ( आदि ० २१४ । २ ) ।
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अगस्त्यसरोवर ( आगस्त्यत्तर ) - पूर्वोक्त अगस्त्यतीर्थंका ही नाम अगस्त्य सरोवर है ( वन० ८२ । ४४ ) तथा (वन ० ८८ । १३) । विशेष परिचय के लिये देखिये अगस्त्यतीर्थ । अगस्त्याश्रम - ( १ ) पञ्चवटीके पासका एक पुण्यक्षेत्र, जो नासिक से २४ मील दक्षिणपूर्व की ओर है। इसे आजकल 'अगस्तिपुरी' कहते हैं ( वन० ८७ । २०६ ९६ । १ ) (२) प्रयागके अन्तर्गत एक तीर्थविशेष अगस्त्याश्रम' है । महाभारत, वनपर्वमें इसीका वर्णन जान पड़ता है । यहीं लोमशके साथ युधिष्ठिर पधारे थे ( वन ० ८७ ।२०; ९६ । १ ) । अग्नि पाँच महाभूतोंमेंसे एक तथा उसके अभिमानी देवता । ये भगवान् के मुख से उत्पन्न हैं । भृगुपत्नी पुलोमाके सम्बन्धमें इनका निर्णय देना ( वन० ५ । ३१-३४) । महर्षि भृगु ने इनको सर्वभक्षी होने का शाप दिया (बन० ६ । १४ ) । झूठी गवाही देने तथा सत्य बात न बोलनेपर सात पीढ़ियोंतक के नाश होने के सम्बन्धमें इनका वचन ( वन० ७ । ३-४ ) । भृगुके शापसे कुपित होकर इनका अन्तर्धान होना एवं ब्रह्माजीका इनको आश्वासन देना ( वन० ७ । १२-२५) । राजा श्वेतकिके द्वादशवर्षीय यश निरन्तर घृतपान करने से इनको अजीर्णताका रोग होना ( वन० २२२ । ६७ ) । अपने अजीर्णको मिटाने के लिये इनकी ब्रह्माजीसे प्रार्थना ( वन० २२२ । ६९ ) । खाण्डववन जलाने के लिये इनको ब्रह्माका आदेश ( वन० २२२ । ७७ ) । खाण्डववनको जलाने के कार्य में श्रीकृष्ण और अर्जुनसे प्रार्थना करनेके लिये इनको ब्रह्माजीकी प्रेरणा ( वन० २२३ । १० ) । खाण्डववनको दग्ध करने में सहायता के लिये इनकी श्रीकृष्ण और अर्जुनसे प्रार्थना ( वन० २२२ । १० ) । गाण्डीव धनुष, चक्र एवं दिव्यरथके लिये इनकी वरुणसे प्रार्थना ( वन० २२४ । ४ ) । इन्होंने अर्जुनको गाण्डीव धनुष, अक्षय तरकम तथा दिव्य रथ प्रदान किये और श्रीकृष्णको सुदर्शनचक्र दिया ( आदि० २२४ | १४ ) । इनके द्वारा खाण्डववनका
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अग्नि
( ३ )
दाह ( आदि ० २२४ । ३४-३७ ) । मन्दपालद्वारा इनकी स्तुति (आदि० २२८ । २३ ) । शार्ङ्गकोद्वारा इनकी स्तुति ( आदि ० २३१ में ) । इनके द्वारा सहदेव के विरुद्ध राजा नीलकी सहायता तथा सहदेवसैनिकोंका जलना ( सभा० ३१ । २३-२४ ) । माहिष्मतीनरेश नीलकी पुत्री सुदर्शनाकी ओर इनका आकृष्ट होना ( सभा० ३१ । २७ ) । इनका ब्राह्मणरूपसे जाकर सुदर्शना के प्रति कामभाव प्रकट करना और राजा नीलद्वारा इनपर शासन ( सभा० ३१ । ३१ ) । नीलद्वारा इनको अपनी कन्या सुदर्शनाका दान ( सभा० ३१ । ३३ ) । राजा नीलपर अमिकी कृपा । राजाको वर माँगने के लिये प्रेरित करना । राजाका अमिदेवसे अपनी सेनाके लिये अभयदान माँगना ( वन० ३१ । ३४-३५ ) । माहिष्मतीकी स्त्रियों को अग्निदेवका वरदान ( वन० ३१ । ३८ ) । सहदेवद्वारा अग्निदेवकी स्तुति ( सभा० ३१ । ४१-४९ ) । अग्निदेवकी आज्ञा से नीलद्वारा सहदेवका सत्कार ( सभा० ३१ । ५८-५९ ) । इन्होंने बाणासुरकी राजधानीकी रक्षा की ( सभा० ३८ | २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । दमयन्ती- स्वयंवर में राजा नलको वर प्रदान किया ( वन० ५७ । ३६३) । ये कबूतर बनकर राजा उशीनर - की गोदमें छिपे ( वन० १३० । २४ और १९७ । ३)। इन्होंने राजा उशीनरको अपना परिचय तथा वर दिया ( वन० १९७ । २५ - २८ ) । महर्षि अङ्गिराको अपना प्रथम पुत्र स्वीकार किया ( वन० २१७ । १८)। सहनामक अग्निसे अद्भुत नामक मिकी उत्पत्ति (वन० २२२ । १ ) । सप्तर्षियोंकी पनि पर मोहित होकर ये वनमें चले गये ( वन० २२४ । ३३ - ३८ ) । इन्होंने स्कन्दकी रक्षा की ( वन० २२६ । २९ ) । सीताजीकी शुद्धिका समर्थन किया (वन० २९१ । २८ ) । अर्जुनने अस्त्रप्राप्ति के लिये अग्निदेवका आश्रय लिया था ( विराट० ४५ । ४० ) । इन्द्रकी खोज के लिये बृहस्पति के साथ अग्निका संवाद (उद्योग ० १५ | २८ से ३४ तक ) । उन्होंने बृहस्पतिको इन्द्रका पता बताया ( उद्योग ० १६ । १२) । ब्रह्माजीके रोषसे प्रकट हुए, अग्निदेवके द्वारा चराचर जगत्का दाह ( द्रोण० ५२ । ४१ ) । स्कन्दको पार्षद प्रदान किया ( शल्य० ४५ । ३३ ) । कार्तवीर्य अर्जुन से भिक्षा माँगकर उसकी सहायता से अग्निने ग्राम, वन एवं पर्वतोंके साथ आपव मुनिका आश्रम भी जलाया ( शान्ति० ४९ । ३८ से ४१ तक ) । ब्रह्माके कहने से इन्द्रकी ब्रह्महत्याका एक चतुर्थांश स्वीकार किया ( शान्ति० २८२ । ३५ ) । इन्होंने मेढकों, हाथियों और तोतोंको शाप दिया (अनु० ८५ | २८, ३६,४० ) । देवताओंको आश्वासन दिया ( अनु० ८५ । ५० 2 ) । गङ्गाजीके गर्भ में शिवजीका वीर्य स्थापित किया ( अनु०
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अग्निशिरतीर्थ
१२६ । २९-३४;
८५ । ५६ ) | प्रजापतियोंको अपनी संतान माना ( अनु० ८५ । ११८ ) । कार्तिकेयको बकरा दिया ( अनु० ८६ । २४ ) |तिरों और देवोंके अजीर्ण-निवारणका उपाय बतलाया ( अनु० ९२ । १० ) । इन्द्रादि देवताओंके समक्ष धर्मके रहस्यका वर्णन किया ( अनु० १२७ । १-५ ) । वे इन्द्रका संदेश लेकर मरुत्त के पास गये ( आश्व० ९ १४-१५ ) । इन्होंने मरुत्तका उत्तर इन्द्रको सुनाया ( आश्व० ९ । २२ - २३ ) । ब्राहाबलकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन किया ( आश्व० ९ । ३१-३७ ) । कुण्डलोंका अपहरण हो जानेपर नागलोक में गये हुए उत्तङ्कको अवरूपधारी अग्निदेवने सहायता दी, नागोंको क्षुब्ध करके कुण्डल लौटानेको विवश कर दिया ( आश्व० ५८ । ४१ – १५ तथा आदि० ३ । १५१-१५४ ) | इन्होंने महाप्रस्थान के समय अर्जुनसे गाण्डीव धनुष वापस लिया ( महाप्रस्थान ० १ । ३५-४३ ) ।
अद्मिकन्यापुर- अग्निपुरतीर्थ में स्नान करनेसे मिलनेवाला पुण्यलोक ( किसी-किसीके मतमें यह भी एक तीर्थ है ) ( अनु० २५ । ४३ ) ।
अग्नितीर्थ- सरस्वती के तटका एक प्रसिद्ध तीर्थ, जिसमें अग्निदेव शमी के गर्भ में छिपे थे ( वन० ८३ । १३८ ), ( शल्य० ४७ । १९ - २१ )। अग्निधारातीर्थ - एक पवित्र तीर्थका नाम । ( कोई-कोई इस तीर्थको गौतमवन के समीप बताते हैं ) ( वन ० ८४ । १४६ ) ।
अग्निपुर - एक तीर्थका नाम ( किन्हीं के मतमें इन्दौर राज्यमें नर्मदा के दक्षिणतटपर स्थित महेश्वर नामक स्थान ) ( अनु० २५ । ४३ ) ।
अग्निमान् - अग्निविशेष ( सूतिकागृहको अनिका अग्निहोत्रकी असे स्पर्श हो जानेपर प्रायश्चित्तके लिये अष्टाकपाल पुरोडाशकी आहुति इसी अग्निमें दी जाती है । ) ( वन० २२१ । ३१ )।
अग्निवेश-ये अनिके पुत्र थे, इन्होंने भरद्वाजसे आग्नेयास्त्र प्राप्त किया था । ये द्रोणाचार्य एवं द्रुपद के अस्त्रविद्यागुरु थे ( आदि० १२९ । ३९-४० ) । अगस्त्यद्वारा इनको धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त हुई थी ( आदि० १३८ । ९ ) । अग्निवेश्य - (१) अनिवेशका ही दूसरा नाम अग्निवेश्य है । युधिष्ठिरका आदर करनेवाले ब्रह्मर्षियोंमें इनका भी नाम आया है ( वन० २६ । २३ ) | ( २ ) भारतका एक प्राचीन जनपद ( भीष्म० ५० । ५२ ) । अग्निशिरतीर्थ-यमुना तटवर्ती तीर्थविशेष, जहाँ संजयपुत्र सहदेवने यज्ञ किया था ( वन० ९० | ५-७ ) ।
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अग्नीषोम
अङ्गिरा
वाले एक ऋषि
अङ्गार-(१
अग्नीषोम-(१) अग्नि और सोम नामक देवता, जो एक मनुके पुत्र अङ्ग, जो अन्तर्धामाके पिता थे (अनु० साथ रहकर हविष्य ग्रहण करते हैं (सभा० ७ । २१)। १४७ । २३)। (७) 'अङ्ग नामसे प्रसिद्ध अङ्गराज, (२) अग्नि और सोमके लिये दी जानेवाली आहुति जिनके साथ पृथ्वी स्पर्धा रखती थी (अनु० १५३ । २)। ( अनु० ९७ । १०)। (३) मनु (या भानु) नामक अङ्गद-(१) वानरराज वालीके पुत्र (वन० ८२।२८)।
अग्निकी तीसरी पत्नी निशाके गर्भसे उत्पन्न अग्नि और वालकी पत्नी तारा इनकी माता थी (वन० २८० । सोम नामक दो पुत्र, ये दोनों अग्निस्वरूप हैं (वन.
१८)। इनका सीताजीकी खोजसे लौटकर मधुवनके फल २२१ । १५)।
खाना (वन० २८२ । २७-२८)। श्रीरामका इन्हें दूत अग्निप्वात्त-सात पितरोंमें एक (सभा० ११ । ४५-४६)।
बनाकर रावणके दरबारमें भेजना (वन०२८३ । ५४)। अग्रणी-भानु या मनुकी तीसरी पत्नी निशाके गर्भसे उत्पन्न
लङ्कामें जाकर रावणको श्रीरामका संदेश सुनाना (वन० पाँचवाँ पुत्र । मनुष्य जिनके द्वारा सब भूतोंको अन्नका
२८४ । १०-१६) । अङ्गदका इन्द्रजितके साथ घोर युद्ध अग्रभाग अर्पण करते हैं, वे 'अग्रणी' नामक अग्नि हैं
इनका (वन० २८८।१४-१९)। अङ्गदका साथियोंसहित (वन० २२१ । १५, २२)।
आगे बढ़कर रावण और उसकी सेनापर आक्रमण (वन. अग्रयायी-राजा धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक, इसका दूसरा
२९० । ३-४)। श्रीरामके द्वारा किष्किन्धाके युवराजपदपर नाम अनुयायी' भी है (आदि० ११६ । ११)।
इनका अभिषेक (वन० २९११५९)। (२)कौरवपक्षका अग्रह-चातुर्मास्य यज्ञोंमें नित्यविहित आग्नेय आदि आठ
एक वीर योद्धा, जो बारहवें दिनके युद्ध में उत्तमौजासे लड़ा हविष्योंके उद्भवस्थान अग्रह' नामक अग्नि, ये भानु या
था (द्रोण. २५ । ३८-३९)। (३) एक आभूषणमनुकी ‘सुप्रजा' और 'बृहद्भासा' नामक पत्नियोंके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले छः पुत्रों से पाँचवें हैं (वन० २२१ ।
का नाम, जो बाँहमें पहना जाता है। ५-१४)।
__ अङ्गमलज-भारतवर्षका एक जनपद (भीष्म० ९ । ५०)। अघमर्षण-वानप्रस्थ धर्मका पालन करनेवाले एक ऋषि
जनपद (भीष्म० ९।६०)।(२) (शान्ति० २४४ । १६)।
एक प्राचीन राजा, जो मान्धातासे पराजित हुआ था अङ्ग-(१) एक प्राचीन जनपदका नाम । दुर्योधनने कर्णको ।
(शान्ति० २९ । ८८)। अङ्गदेशके राज्यपर अभिषिक्त किया (आदि. १३५। ३८)। (बिहारप्रान्तमें भागलपुर और मुंगेर जिलेके आस- अङ्गारक-(१) सौवीर देशका एक राजकुमार, जो पासका प्रदेश, जिसकी राजधानी चम्पापुरी थी। कहीं-कहीं
जयद्रथका अनुगामी था (वन० २६५। १०)।(२) इसका विस्तार वैद्यनाथधामसे लेकर भुवनेश्वरतक लिखा मङ्गल' नामक ग्रह, जो ब्रह्माजीकी सभामें नित्य उपस्थित है-हिन्दी शब्दसागर)। कर्ण यहींका राजा बनाया गया था। होते हैं (सभा० ११ । २९)। (३ तीर्थयात्राके अवसरपर अर्जुनका यहाँ आगमन हुआ था नामोंमेंसे एक (वन० ३ । १०)। ( आदि० २१४ । ९-१०)। (२) अङ्गदेशीय क्षत्रिय अङ्गारपर्ण-(१) एक गन्धर्व, जो अर्जुनसे पराजित होकर अथवा प्रजावर्ग । अङ्गदेशवासियोंने राजसूययज्ञके अवसर- उनका मित्र बन गया। इसकी पत्नीका नाम 'कुम्भीनसी' था, पर युधिष्ठिरको भेंट अर्पण किया था (सभा० ५२ ।
(आदि० १६९१०)। (देखिये चित्ररथ) (२) गङ्गातटवर्ती १६) । अङ्गदेशीय योद्धा श्रीकृष्णद्वारा पराजित हुए
एक वन, जो गन्धर्वराज अङ्गारपर्णके अधिकारमें था। थे (द्रोण० ११ । १५ ) । अङ्गदेशवासियोंपर परशुरामजीकी विजय (द्रोण०७०। १२)। अङ्गों- अङ्गावह-एक वृष्णिवंशी महारथी वीर, जो युधिष्ठिरके पर कर्णकी विजय ( कर्ण० ८ ।
राजसूययज्ञमें श्रीबलरामजी आदिके साथ आया था सोलहवें दिनके युद्धर्म अर्जुनपर चाढ़ई की थी (सभा० ३४ । १६)। ( कर्ण० १७ । १२ ) । अङ्गदेशीय वीरोका अडिरा-ब्रह्माजीके छः मानस पुत्रोंमेंसे एक ( आदि. धृष्टद्युम्न एवं पाञ्चाल-सेनापर आक्रमण (कर्ण० २२ । ६५।१०)ये ब्रह्माजीके सभासद् है ( सभा० ।।। २)। (३) अङ्ग-देशनिवासी म्लेच्छोंका एक सरदार,
१९)। इन्हींके पुत्र बृहस्पतिका देवताओंने पौरोहित्यके जो महाभारत-युद्धके बारहवें दिन भीमसेनद्वारा हाथीसहित
पदपर वरण किया था (आदि. ७६ । ६) । इनकी मारा गया था (द्रोण. २६ । १४-१७) । (४)
ब्रह्माजीके वीर्य एवं अङ्गारसे उत्पत्तिका वर्णन (अनु० अङ्गराज (म्लेच्छ-सरदार), यह भीमसेनद्वारा मारे गये 'अङ्ग' (अङ्गाधिपति म्लेच्छ ) से भिन्न था; यह सोलहवें
८५ । १०५-१०६)। इनसे बृहस्पति, उतथ्य और संवर्त दिनके युद्ध में नकुलद्वारा मारा गया (कर्ण०२२ । १८)।
नामक तीन पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई (आदि. ६६ । ५)। (५)अङ्गराज बृहद्रथ, जिनकी कथा षोडश राजकीयो- इन्होंने सूर्यदेवकी रक्षा की है (वन० ९२ । ६)। ये पाख्यानमें आयी है (शान्ति. २९ । ३१)। (६) अलकनन्दा नामक गङ्गाके तटपर नित्य स्वाध्याय, जप
कणका विजय
कण०८।१९) । अङदेशीय
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अचल
अञ्जन
आदि करते हैं (वन० १४२ । ६ ) । अग्निदेवने किन्हींका मत है कि ये महाराज दशरथके पिता ही थे ।) अङ्गिराको अपना प्रथम पुत्र स्वीकार किया (वन० (५) अजन्मा ( भीष्म० २८ । ६)। (६) सूर्य २१७ । ८-१८)। इनकी पत्नी सुभासे होनेवाली संतति- (वन०३।१६)। (७)शिव (आश्व०८।२१) बृहत्कीर्ति आदि पुत्र और भानुमती आदि कन्याओंका (८) ब्रह्मा (अनु० १५३ । १७)। (९) विष्णु वर्णन (वन० २१८।१-८)। इन्हें इन्द्रदेवतासे वर- (अनु. १४९ । ६९)। (१०) श्रीकृष्ण ( उद्योग की प्राप्ति हुई ( उद्योग० १८ । ५-७)। इन्होंने द्रोणा- ७०।८; शान्ति० ३४२ । ७४)। (११) बीज चार्यके पास आकर उनसे युद्ध बंद करनेको कहा था (शान्ति० ३३७ । ४)। (१२) छाग या बकरा (द्रोण० १९० । ३४-४०)। गौतमके पूछनेपर तीर्थोका (शान्ति० ३३७ । ३)। महत्त्व बताया ( अनु० २५ । ७-७१)। अगस्त्यजीके अजक-वृषपर्वा दानवका छोटा भाई, जो शाल्वरूपमें उत्पन्न समक्ष स्वयं कमलोंकी चोरी न करनेके विषयमें शपथ हुआ था ( आदि. ६५ । २४ तथा ६७ । १६)। करना ( अनु० ९४ । २०)। इनके द्वारा भीष्मजीसे
अजगर-एक विशालकाय सर्प, जो पूर्वजन्ममें नहुष था और अनशनवतकी महिमाका वर्णन (अनु० १०६ । ११-१६)। अगस्त्यके शापसे सर्प होकर नीचे गिरा था। इसीने धर्मके रहस्यका वर्णन ( अनु० १२७ । ८) । समुद्रके
भीमसेनको पकड़ा था (वन० १७८ । २८, १७९ । १०जलका पान (अनु. १५३ । ३)। अग्निको शाप २४) । उसका युधिष्ठिरके साथ संवाद (वन० १८० (अनु० १५३ । ८)। इन्होंने राजा अविक्षित्का यज्ञ
तथा १८१ अ०)। कराया (आश्व० ४ । २२)।
अजनाभ-एक पर्वतका नाम ( अनु० १६५ । ३२)। अचल-(१) कौरवपक्षका रथी वीर, जो गान्धारराज सुबलका
अजमीढ़-(१) महाराज सुहोत्रके द्वारा ऐवाकीके गर्भसे पुत्र और शकुनिका भाई था ( उद्योग० १६८।१)। यह युधिष्ठिरका राजसूययज्ञ देखनेके लिये गया था ।
उत्पन्न, सोमवंशीय क्षत्रिय, इनके भाइयोंका नाम सुमीढ़
और पुरुमीढ़ था. इनके धूमिनी', 'नीली' तथा 'केशिनी' ३४।७)। इसका अपने भाई वृषकके साथ ही अर्जुनद्वारा वध हुआ (द्रोण. ३० । ११) । व्यासजीने एक रातके
नामकी तीन रानियाँ थीं, जिनमें धूमिनीके गर्भसे (ऋक्ष',
नीलीके गर्भसे दुष्यन्त और परमेष्ठी तथा केशिनीके 'जलु', लिये जिन मृतात्माओंको जीवित अवस्थामें बुलाया था,
'वजन' तथा 'रूपिण' नामके तीन पुत्र हुए थे । (आदि० उनमें यह भी था (आश्रम०३२।१२)। (२) स्कन्दका
९४ । ३०-३२ तथा अनु० ४ । २) । (२) एक एक पार्षद (शल्य०४५/७४) । (३) विष्णुसहस्रनाममें
सोमवंशी क्षत्रिय राज', जो सोमवंशी विकुण्ठन तथा आया हुआ भगवान्का एक नाम (अनु० १४९।९२)।
दशाहकुलकी कन्या सुदेवाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे; इनकी अचला-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६। १४)।
कैकेयी, गान्धारी, विशाला तथा ऋक्षा नामवाली चार अच्युत-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम (भीष्म०२५।२१)।। स्त्रियाँ थीं, जिनसे एक सौ चौबीस पुत्र हुए थे (आदि. (अपनी महिमा या स्वरूपसे अथवा धर्मसे कभी च्युत न ९५ । ३५-३७)। होनेके कारण भगवान्को 'अच्युत' कहते हैं । इस यौगिक अजवक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५ । ७५)। अर्थमें यह नाम युधिष्ठिर आदिके लिये भी विशेषरूपसे
अजविन्द-सुवीरोंके वंशमें उत्पन्न एक कुलाङ्गार राजा प्रयुक्त हुआ है।)
(उद्योग०७४ । १४)। अच्युतस्थल-वर्णसंकरजातीय अन्त्यजोंका वासस्थान एक
- अजातशत्रु-युधिष्ठिर (भीष्म० ८५। १९ तथा सभा० प्राचीन ग्राम (वन० १२९ । ९)।
१३ । ९)। अच्युतायु-कौरवपक्षीय एक वीर, श्रुतायुका भाई,
अजेय-एक प्राचीन राजा (आदि० १ । २३४)। अच्युतायु और श्रुतायु-दोनोंका अर्जुनद्वारा वध हुआ (द्रोण० ९३ । ७-२४)।
अजैकपात्-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक । ब्रह्माजीके पौत्र एवं स्थाणुअज-(१) इक्ष्वाकुवंशी नरेश, महाराज दशरथके पिता
के पुत्र (आदि० ६६ । १-३)। ये सुवर्णके रक्षक हैं
(उद्योग० ११४ । ४) ग्यारह रुद्रोंमें इनके नाम अनेक (वन० २७४ । ६)। (२) प्राचीन ऋषियोंका एक समुदाय, इन्हें स्वाध्यायद्वारा स्वर्गप्राप्ति हुई (शान्ति०२६।
स्थलोंपर आये हैं। यथा-(शान्ति० २०८ । १९)। ७)। (३) महाराज जह्नके पुत्र, बलाकावके पिता अजोदर-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६०)। (शान्ति० ४९ । ३)। (४)एक राजा जिन्होंने जीवनमें अञ्जन-(१) एक पर्वतका नाम (सभा० ७८ । १५)। कभी मांस नहीं खाया (अनु०११५। ६६)। (किन्हीं- (२) सुप्रतीकके वंशमें उत्पन्न पातालवासी 'अञ्जन'नामक
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अञ्जनपर्वा
अत्रि
हाथी ( उद्योग० ९९ । १५)। (३) घटोत्कचके साथी अतिबल-(१) वायुद्वारा स्कन्दको दिया गया एक पार्षद राक्षसकी सवारीमें आया हुआ अञ्जन' नामक दिग्गज (शल्य. ४५ । ४४)। (२) एक नीतिशास्त्रका ज्ञाता (भीष्म० ६४ । ५७ तथा द्रोण० ११२ । ३३)। नरेश, जो राज्य पाकर इन्द्रियोंका गुलाम हो गया था । अञ्जनपर्वा-घटोत्कचका पुत्र ( उद्योग० १९४ । २०)। इसके पिताका नाम अनङ्ग था (शान्ति० ५९ । ९२)।
अश्वत्थामाद्वारा इसका वध (द्रोण० १५६ । ८९-९०)। अतिबाह-एक गन्धर्व, जो कश्यपकी पत्नी प्राधाका पुत्र अञ्जलिकावेध-गजराजको वशमें करनेकी एक विद्या, इसे था। उसके तीन भाई और है---हाहा, हूहू तथा तुम्बुरु भीमसेन जानते थे (द्रोण. २६ । २३)।
(आदि० ६५ । ५१)। अञ्जलिकाश्रम-एक तीर्थ, इसमें शाकका भोजन करते हए अतिभीम-तिप' नामधारी पाञ्चजन्य अग्निके पुत्र । पंद्रह
चीरवस्त्र धारणकर कुछ काल निवास करनेसे कन्याकुमारी उत्तरदेवों अथवा अग्निविनायकोंमेसे एक (वन. तीर्थ के दस बार सेवनका फल प्राप्त होता है (अनु० २२० । ११)। २५ । ५२)।
अतियम-वरुणद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों से एक । अटवी शिखर-एक जनपदका नाम (भीष्म०९।४८)। इसके दूसरे साथीका नाम यम था (शल्य० ४५।४५)। अठिद-दक्षिण दिशाका एक जनपद (भीष्म०९।६४)। अतिरथ-पूरवंशी राजा मतिनारके तृतीय पुत्र । इनके अन्य
तीन भाइयोंके नाम-तंसु, महान् और द्रुह्यु अणी-शूलके अग्रभागका नाम । इसको अपने शरीरके
(आदि० ९४ । १४)। भीतर लिये हुए ही विचरनेके कारण माण्डव्य ऋषि
अतिलोमा-एक असुर, जो भगवान् श्रीकृष्णद्वारा मारा गया 'अणीमाण्डव्य' कहलाने लगे ( आदि० १०७ । ८)।
था (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षि० पृष्ठ ८२५ अणीमाण्डव्य-महर्षि माण्डव्य तथा इनकी तपस्या
प्रथम कालम) | (आदि० १०६ । २-३ )। इनका 'अणीमाण्डव्य' नाम
अतिवर्चा-हिमवान्द्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों से होनेका कारण ( आदि० १०७ । ८)। निरपराध होनेपर भी इनको शूलीपर चढ़ाये जानेका दण्ड मिला
एक । इसके दूसरे साथीका नाम सुवर्चा था (शल्य.
४५। ४६)। (आदि० ६३ । ९२ तथा आदि० १०६ । १२)। शूल
अति--विन्ध्याचलद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पापाणयोधी के अग्रभागपर इनकी तपस्या (आदि. १०६ । १५)।
पार्षदों से एक । इसके दूसरे साथी का नाम उच्छङ्ग था इनकी दयनीय दशासे संतप्त एवं तपस्यासे प्रभावित हो पक्षीरूपधारी महर्षियोंका इनके समीप आगमन
(शल्य०४५। ४९-५०)। ( आदि० १०६।१६)। फतिंगोंके पुच्छभागमें सींक अतिषण्ड-बलरामजीके अनन्त नागका रूप धारण करके हुसेड़नेके फलस्वरूप ही आपको शूलीपर चढ़ाये जानेका
परम धाम पधारते समय उनका स्वागत करने के लिये आये दण्ड मिला है। इस प्रकार धर्मराजद्वारा इनको सम्बोधन हुए बहुत-से नागोमस एक (मोसल० ४ । १६) । ( आदि० १०७ । ११)। ब्राह्मणवधकी अत्यधिक अतिस्थिर-मेरु पर्वतद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों से भयङ्करताका इनके द्वारा प्रतिपादन ( आदि० एक । दूसरेका नाम 'स्थिर' था (शल्य ०४५ । ४८)। १०७ । १५) । धर्मराजको शूद्रयोनिमें जन्म लेनेका इनके अत्रि-एक ब्रह्मर्षि, जो ब्रह्माजीके मानस पुत्र थे ( आदि० द्वारा अभिशाप (आदि. १०७ । १६, ६३।९६)। ६५। १० तथा शान्ति के १६६, २०७, २०८ अध्याय)।
चौदह वर्षकी आयुतक किये हुए अशुभ कर्मोंका फल ये ब्रह्माजीके सात पुत्रोंएवं सात ब्रह्माओंमेंसे एक हैं। इनके किसीको नहीं प्राप्त होगा' इस प्रकार इनकी घोषणा
वंशमें प्राचीनवर्हि उत्पन्न हुए थे, जो दस प्रचेताओंके ( आदि० १०७ । १७)। श्रीकृष्णके हस्तिनापुर जाते पिता थे । अत्रिके दो औरस पुत्र कहे गये हैं...वीर्यवान् समय मार्गमें उनसे जो ऋषि मिले थे, उनमें अणीमाण्डव्य राजा गेम और भगवान् अर्यमा (शान्ति० २०८ । भी थे ( देखिये उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दाक्षिणात्य
३-.)। ये इक्कीस प्रजापतियों से एक हैं (शान्ति. पाठ)। इनका विदेहराज जनकसे तृष्णाका त्याग करने के
३३४ । ३५)। चित्रशिखण्डी' कहे जानेवाले सात ऋषियोंविषयमें प्रश्न करना (शान्ति. २७६ । ३)। शिव
मेंसे भी एक है (शान्ति० ३३५ । २७)। सम्पूर्ण लोकोंमहिमाके विषयमें युधिष्ठिरको अपना अनुभव बताना की उत्पत्ति और प्रतिष्ठाके आधारभूत आठ प्रकृति' कहे ( अनु० १८ । ४६-५१३)।
जानेवाले मरीचि आदि प्रजापतियोंमें भी इनकी गणना की अणुह-एक प्राचीन राजाका नाम ( आदि० । २३२)। गयी है (शान्ति० ३४० । ३४-३६) । इनकी पत्नीका
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( ७ )
नाम अनसूया था ( अनु० १४ । ९५ ) । पराशरका राक्षस-यज्ञ बंद कराने के लिये इनका आगमन (आदि० १८० । ८ ) । महाराज पृथुके यज्ञमें इनका गौतमसे संवाद ( वन० १८५ | १५ – २३ ) । पृथुद्वारा इन्हें धनकी प्राप्ति (वन० १८५ । ३४-३६ ) । अत्रिके शरीरसे विभिन्न अग्नियोंका प्रादुर्भाव ( वन० २२२ । २७ - २९)। द्रोणाचार्य के पास आकर उनसे युद्ध बंद करने को कहना ( द्रोण० १९० । ३५-४० ) । इन्होंने सोमके राजसूय यज्ञमें होताका कार्य किया था ( शल्य० ४३ | ४७ ) । ये देवताओं की प्रार्थनासे दिन में सूर्य होकर तपे और रात में चन्द्रमा बनकर प्रकाशित हुए । इनके तेजसे असुर दग्ध हो गये । इन्होंने सूर्य को तेजस्वी बनाया ( अनु० १५६ । ९ - १४ ) | उत्तर दिशाका आश्रय लेकर उन्नति करनेवाले महर्षियोंमें इनका नाम आया है ( अनु० १६५ | ४४ ) । इनके धर्मात्मा पुत्र दुर्वासा पश्चिम दिशामें रहकर अभ्युदयशील होते हैं (अनु० १६५ । ४३ ) । इन्होंने अपने वंशज निमिको श्राद्ध के विषय में उपदेश दिया था । ( अनु० ९१ । २० - ४४ ) । वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष बताना (अनु० ९३ | ४३ के बाद ) । इनका अरुन्धतीसे अपनी दुर्बलताका कारण बताना (अनु० ९३ । ६२ ) । यातुधानोसे नामका निर्वचन – अर्थ बताना ( अनु० ९३ । ८२) । मृणालकी चोरी नहीं की— इस विषय में शपथ खाना (अनु० ९३ । ११३ ) | ( २ ) शुक्राचार्यके पुत्र । भयानक कर्मकर्ता (आदि० ६५ । ३७) । ( ३ ) भगवान् शिवका एक नाम (अनु० १७ । ३८ ) । अभार्या (अनसूया ) ये अत्रिकी ब्रह्मवादिनी पत्नी थीं । एक बार पतिसे रुष्ट हो उनसे अलग होकर ये तीन सौ वर्षांतक तपस्यामें संलग्न रहीं । उस समय भगवान् शङ्करने प्रसन्न होकर इन्हें पुत्र-प्राप्तिका वरदान दिया था ( अनु० १४ । ९५–९८ ) ।
अथर्वा - ( १ ) एक मुनि, जो छन्द (वेद )के गायक थे ( उद्योग ० ४३ । ५० ) । ये ही अथर्वा अङ्गिरा के नामसे प्रसिद्ध हैं । इन्होंने ही जलमें छिपे हुए सहनामक अग्निका पता लगाया (वन० २२२ । ८ ) । अनिका अथर्वाको अग्निरूपसे प्रकाशित हो देवताओंके लिये हविष्य पहुँचानेका आदेश देना । ( वन० २२२ । ९) । अनि के प्राकट्य के लिये देवताओंका अथर्वाकी शरण में आना और इनकी पूजा करना (वन० २२२ । १८ ) । अथवा समुद्रको मथकर अग्निका दर्शन एवं सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि करना ( वन० २२२।१९)। (२) अथर्ववेद । ( ३ ) भगवान् शिव - का एक नाम अथर्वशीर्ष (अनु० १७ । ९१ ) । अदिति - दक्षकी पुत्री, कश्यपकी पत्नी तथा द्वादश आदित्यों
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अद्रिका
की माता (आदि० ६५ । ११ – १६ ) | नरकासुरद्वारा इनके कुण्डलका अपहरण । सत्यभामाजीको इनका वरदान । भगवान् श्रीकृष्णद्वारा इनको दिव्य कुण्डल एवं बहुमूल्य रत्नोंकी भेंट ( उद्योग० ४८ । ८० तथा सभा० ३८ ॥ २९ के बाद ) । मैनाकपर्वत के कुक्षिभाग में स्थित विनशन तीर्थ के भीतर देवी अदितिने पुत्र प्रातिके निमित्त साध्य देवताओं के उद्देश्यसे अन्न ( ब्रह्मौदन ) तैयार किया था ( वन० १३५ । ३) | इन्होंने पूरे एक सहस्र वर्षोंतक भगवान् विष्णु (वामन) को गर्भमें धारण किया था ( वन० २७२ | ६२ ) | अदिति के गर्भ से भगवान् विष्णुके सात बार प्रकट होनेकी चर्चा (शान्ति० ४३ । ६)। देवताओंकी विजयके उद्देश्यसे अन्न तैयार करनेवाली अदितिको बुधका शाप मृत अण्डकी उत्पत्ति तथा उसीसे प्रकट होने के कारण श्राद्धदेवकी मार्तण्ड नामसे प्रसिद्धि ( शान्ति ० ३४२ । ५६ ) । देवी अदितिने एक पैरपर खड़ी रहकर पुत्र के लिये घोर तपस्या की, जिससे भगवान् विष्णु उनके गर्भ में आये (अनु० ८३ । २५-२६ ) । अदृश्यन्ती-महर्षि वसिष्ठकी पुत्रवधू, शक्तिकी पत्नी, पराशरकी माता । वसिष्ठजीको इनके गर्भस्थ बालकके मुख से वेदाध्ययन करनेका शब्द सुनायी देना, उनके पूछनेपर वंशोच्छेदके भय से चिन्तित हुए वसिष्ठको इनका अपने गर्भ में स्थित हुए शक्तिके पुत्रकी सूचना देना ( आदि ० १७६ । ११–१५) । कल्मात्रपादके भयसे भीत हुई अदृश्यन्तीको वसिष्ठका आश्वासन ( आदि० १७६ । २३ )। इनके गर्भसे पराशरका जन्म ( आदि०१७७ । १) । इनके आदर्श पतिप्रेमकी चर्चा (उद्योग ० ११७ । ११ ) ।
अद्भुत - ( १ ) एक अनि जो सह नामक अनिके पुत्र हैं; इनकी मातका नाम मुदिता है; ये सम्पूर्ण भूतोंके अधिपति, आत्मा और भुवनभर्ता हैं; ये ही महाभूतपति, ऐश्वर्यसम्पन्न, सर्वत्र विचरनेवाले तथा 'गृहपति' नामसे जगत्को पवित्र करनेवाले हैं; इनके पुत्रका नाम भरत है ( वन० २२२ । १-६ ) | अद्भुतकी पत्नीका नाम 'प्रिया' और उसके गर्भ से उत्पन्न होनेवाले उनके औरस पुत्रका नाम 'विभूरसि' है (वन० २२२ । २६ ) | ( २ ) भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ | १०८ ) ।
अद्रि - एक राजा, जो विष्वगश्व के पुत्र और युवनाश्वके पिता थे ( वन० २०२ । ३)।
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अद्विका-एक अप्सरा, जो ब्रह्माजी के शाप से मछली होकर यमुनाजीमें रहती थी ( आदि० ६३ । ५८ ८ ) । बाजके द्वारा गिराये गये उपरिचर वसुके वीर्यका इसके द्वारा ग्रहण ( आदि० ६३ । ५९-६० ) । इसके पेटसे
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अधर्म
अनश्वा
'सत्यवती' नामक कन्या एवं 'मत्स्य' नामक पुत्रकी धरणीधरोंमें एक हैं (अनु० १५० । ६१)। भगवान् उत्पत्ति (आदि०६३ । ६१-६२)। दो संतानोंको अनन्तका ब्रह्माजीके आदेशसे अकेले ही इस सारी पृथ्वीको उत्पन्न करके इसका शापसे मुक्त होना (आदि०६३। धारण करना ( आदि० ३६ । २४ ) । ब्रह्माजीने अनन्त ६४-६६)। अर्जुनके जन्मके समय अन्य अप्सराओंके ( शेषनाग) के लिये गरुडको सहायक बना दिया (आदि. साथ अद्रिका भी स्वर्गसे आयी थी (आदि० १२२ । ६१)। ३६ । २५) । पश्चिम दिशामें नागराज अनन्तके निवासअधर्म-समस्त प्राणियोंका विनाश करनेवाला पाप ( पापका स्थानकी चर्चा (उद्योग० ११० । १८)। भगवान्
अभिमानी पुरुष ) और उसकी उत्पत्तिका कारण अनन्त (बलराम) का रसातल प्रवेश (स्वर्गा० ५ । २३)। (आदि० ६६ । ५३)।अधर्मकी पत्नीका नाम निति (२) भगवान् सूर्यका नाम (वन०३ । २४) । (३) है, इसके तीन 'नैऋत' नामवाले राक्षस पुत्र हैं-भय, भगवान् श्रीकृष्णका नाम ( उद्योग० ७० । १४)। महाभय और मृत्यु (आदि० ६६ । ५४-५५)। अधर्मके (४) स्कन्दके एक सेनापति (शल्य० ४५ । ५७)। ही अंशसे सम्पत्तिके पुत्र दर्पका प्रादुर्भाव हुआ (शान्ति० (५) भगवान् विष्णुका नाम ( अनु० १४९ । ८३)। ९० । २७)।
(६) भगवान् शिवका नाम (अनु. १७ । १३५)। अधिरथ-एक सूत, कर्णका पालक पिता ( आदि० अनन्तविजय-युधिष्ठिरके शङ्खका नाम ( भीष्म० २५ ।
११० । २३, १३६ । १-४)। यह राजा धृतराष्ट्रका १६; शल्य०६१। ७१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। मित्र था और इसकी पत्नीका नाम राधा था. वह अनुपम अनन्ता-महाराज परुके पत्र जनमेजयकी पत्नी, मधुवंशकी सुन्दरी थी, राधाके कोई संतान नहीं थी, वह पुत्र
कन्या । इनके गर्भसे जनमेजयद्वारा प्राचिन्वान्का जन्म प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्नशील रहती थी (वन० ३०९ । हुआ था (आदि० ९५। १२)। १-३) । अधिरथको कर्णकी प्राप्ति ( वन० ३०९। अनरकतीर्थ-एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे दुर्गति दूर होती
है तथा जहाँ नारायण आदिके साथ ब्रह्मा नित्य निवास अधिराज्य-भारतवर्षका एक जनपद (कुछ लोग इसे ।
करते हैं (वन०८३ । १६८)। वर्तमान रीवाँ राज्य मानते हैं ) ( भीष्म० ९ । ४४)। अनरण्य-इक्ष्वाकुवंशके एक प्राचीन नरेश (आदि० १ । अधृष्या-एक नदी (भीष्म० ९ । २४)।
२३६)। इन्होंने मांसभक्षणका निषेध किया (अनु. अधोक्षज-श्रीकृष्णका एक नाम, इस नामकी व्युत्पत्ति ११५। ५९)। ये सायं और प्रातःकाल स्मरण करनेयोग्य
( उद्योग० ७० । १०; अनु० १४ । ६९) । भगवान् राजर्षियों से एक हैं ( अनु० १६५ । ५९)। विष्णुका एक नाम (अनु० १४९ । ५७)। अनल-(१) आट वसुओं से एक, जो शाण्डिलीके पुत्र हैं अधशिरा-एक दिव्य महर्षि, जिन्होंने श्रीकृष्णके हस्तिनापुर (आदि०६६ । २०)।(२) गरुडकी प्रमुख संतानों से जाते समय मागमें उनसे भेंट की थी (उद्योग०८३ । ६४ एक (उद्योग० १०१ । ९)। के बाद दाक्षिणात्य पाठ)।
अनला-(१) सुरभिकन्या रोहिणीकी पुत्री। इससे पिण्डाकार अनघ-(१) एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें
____फल देनेवाले सात प्रकारके वृक्षों तथा शुकी नामवाली
फल देनेवाले सात प्र आया था (आदि० १२२ । ५५)। (२) एक राजा कन्याका प्रादुर्भाव हुआ ( आदि० ६६ । ६७-६९)। (सभा० ८ । २१)। (३) एक देश या जनपद (२) नागमाता सुरसाकी पुत्री, जो वनस्पतियों, वृक्षों (सभा ३०। ९)।(४) स्कन्दका एक नाम (वन० __ और लतागुल्मोंकी जननी हुई (आदि० ६६ । ७० २३२ । ५)। (५) गरुड़की संतानोंमेंसे एक ( उद्योग० के आगे दाक्षिणात्य पाठ)। १०१ । १२)। (६) भगवान् शिवका एक नाम
अनवद्या-कश्यपकी पत्नी तथा दक्षकी कन्या प्राधाकी सात ( अनु० १७ । ३८) । (७) भगवान् विष्णुका एक
पत्रियों से एक ( आदि० ६५ । ४५)। यह नाम (अनु० १४९ । २९)।
वर्यकी अप्सरा थी, जो अर्जुनके जन्मकालमें अन्य अन-प्रजापति कर्दमका पुत्र, जो प्रजारक्षक, साधु तथा अप्सराओंके साथ नृत्यके लिये आयी थी (आदि० १२२ । दण्डनीतिमें निपुण था । इसके पुत्र का नाम अतिबल था। (शान्ति० ५९ । ९१-९२)।
अनश्या-महाराज कुरुके पौत्र तथा विदूरके पुत्र । मधुवंशअनझा-एक नदी (भीष्म० ९ । ३५)।
की कन्या सम्पिया इनकी माता थी। इन्होंने मगधराजअनन्त-(१) कद्रूके ज्येष्ठ पुत्र भगवान् अनन्त (शेषनाग) कुमारी अमृताके गर्भसे परिक्षित्को जन्म दिया ( आदि. (भादि० ६५।४१)। भगवान् अनन्त ( शेषनाग ) सात ९५ । ३९-४१)।
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अनादि
अनुविन्द
अनादि-भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४१ । ११४)। अविज्ञातगति नामक दो पुत्र हैं (आदि० ६६ । १७अनाधृष्टि-(१) रौद्राश्वद्वारा मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे २५) । (२) गरुडकी मुख्य-मुख्य संतानोंमें एक उत्पन्न ऋचेयु' अथवा 'अन्वग्भानु' का नाम 'अनाधृष्टि'
(उद्योग. १०१।९)। (३) भगवान् शिवका एक था (आदि. ९४ । ८-१२)। (२)सात यादव
नाम ( अनु०१७।१००)। (४) भगवान् विष्णुका महारथियों से एक (सभा०१४।५८)। ये उपप्लव्य एक नाम ( अनु० १४९ । ३८)। नगरमें अभिमन्युके विवाहके अवसरपर उसकी माता अनीकविदारण-सिंधुराज जयद्रथका भाई (वन० २६५ । सुभद्राके साथ पधारे थे (विराट०७२ । २२)। कुरुक्षेत्र- १२)। अर्जुनद्वारा वध (वन० २७१ । २७)। में श्रीकृष्ण और अर्जुनको घेरकर चलनेवाले अनेक वीरों में अनील-प्रमुख नागों से एक ( आदि० ३५ । ७)। एक अनाधृष्टि भी थे ( उद्योग० १५५ । ६७)। ये ही अनु-महाराज ययातिके द्वारा शर्मिष्ठासे उत्पन्न तीन पुत्रों से वृद्धक्षेमके पुत्र थे, जिनकी चर्चा धृतराष्ट्रने की है एक मझले (आदि० ७५ । ३३-३५)। अपनी युवा(द्रोण. १० ।५५)। इन्हींका वृष्णिवंशी वार्धक्षेमि' वस्था न देने के कारण इनको पिताद्वारा जराग्रस्त होने, नामसे उल्लेख हुआ है, जिन्हें कृपाचार्यने द्रोणपर आक्रमण अग्निहोत्र-त्यागी बनने तथा युवा होते ही इनकी संतानोंके
करनेसे रोका था (द्रोण० २५ । ५१-५२)। मरनेका अभिशाप ( आदि० ८४ । २५-२६)। अनालम्ब-एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे पुरुषमेध यज्ञका अनुकर्मा-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३२)। फल प्राप्त होता है ( अनु० २५ । ३२-३३)।
अनुक्रमणिकापर्व-आदिपर्वका एक अवान्तरपर्व,पहला अध्याय।
_ अनुगीतापर्व-आश्वमेधिकपर्वके सोलहवें अध्यायसे ९२ तकअनिकेत-कुबेरकी सभामें उनकी सेवाके लिये सदा उपस्थित
का एक पर्व । रहनेवाले यक्षोंमेंसे एक (सभा० १० । १८)।
_ अनुगोप्ता-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३७)। अनिमिष-(१) गरुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग.
अनुचक्र-प्रजापति त्वष्टाद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों१०१।१०)। (२) भगवान् शिवका एक नाम मेंसे एक । इसका दूसरा साथी चक्र था (शल्य. ४५ । (अनु० १७ । ४१)। (३) भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४९ । ३६)।
अनुदात्त (स्वर)-(१) पाञ्चजन्य अमिद्वारा अपनी दोनों अनिरुद्ध-(१)भगवान् श्रीकृष्णके पौत्र एवं प्रद्युम्नके पुत्र (आदि.
भुजाओंसे उत्पन्न किये गये प्राकृत और वैकृत भेदोंवाला १८५ । १७)। अनिरुद्धका प्रच्छन्नरूपसे बाणपुत्री उषाके ।
'अनुदात्त' नामक स्वर ( वन० २२० । ५-८)। साथ पहुँचकर उसके साथ आनन्दपूर्वक रहना । बाणासुर
(२) पाञ्चजन्यद्वारा पितरोंके लिये उत्पन्न किये गये पाँच का अनिरुद्धको कैद करके कष्ट देना । नारदजीके मुखसे
पुत्रोंमेंसे एक, इसकी उत्पत्ति प्राणके अंशसे हुई थी अनिरुद्धको बाणासुरके यहाँ बंदी हो कष्टमें पड़ा हुआ सुनकर
(वन०२२० । ८-१०)। श्रीकृष्णका बाणनगरपर आक्रमण, अनिरुद्धका उद्धार तथा
अनुबूत-वह जूआजो कौरवों और पाण्डवोंने वनवासकी उषाके साथ द्वारका-आगमन आदि ( सभा० ३८ अध्याय
बाजी लगाकर दूसरी बार खेला था ( सभा० ७६ । दा० पाठ श्रीकृष्णचरित्रके अन्तर्गत)। अर्जुनसे धनुर्वेदकी
१०-२४)। शिक्षा लेते समय ये युधिष्ठिरकी सभामें साम्ब आदिके साथ
अनुद्यतपर्व-सभापर्वके अन्तर्गत अध्याय ७४ से ८१ विराजमान होते थे (सभा० ४ । ३३-३६) । अनिरुद्धकी विष्णरूपता तथा इनके द्वारा ब्रह्माजीकी उत्पत्ति तकका भाम । ( भीष्म० ६५ । ७१; शान्ति० ३४०।३०-३१)। अनुपावृत्त-एक भारतीय जनपदका नाम (भीष्म०९ । ४८)। अनिरुद्ध (विष्णु) के नाभि-कमलसे ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव अनुमति-एक कलासे रहित अर्थात् चतुर्दशीयुक्त पूर्णिमाकी (शान्ति० ३४१ । १५-१७)। (२) वृष्णिवंशी क्षत्रिय, अधिष्ठात्री देवी ( शल्य० ७५ । १३)। जो प्रद्युम्नपुत्रसे भिन्न था। इन दोनोंका द्रौपदीके स्वयंवरमें अनुयायी-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक ( आदि० ६७ । आगमन हुआ था ( आदि० १४५ । १७-२०)। १०२)। इसीका दूसरा नाम 'अग्रयायी' है (आदि० ११६ । (३) मांसभक्षणका त्याग करनेवाला एक राजा (अनु. ११)। भीमसेनके द्वारा मारे जाते समय इसके अनुयायी' ११५ । ६०)। (४) भगवान् विष्णुका एक नाम नामका ही उल्लेख हुआ है (द्रोण० १५७।१७-२०)। (अनु० १४९ । ३३)।
___ अनुविन्द-(१) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक (आदि० अनिल- (१)आठ वसुओं से एक । इनके पिता धर्म और ६७ । ९४)। घोषयात्राके समय दुर्योधनके साथ गन्धर्वोमाता श्वासा हैं। इनकी पत्नीका नाम शिवा है और मनोजव एवं द्वारा यह भी बंदी बनाया गया था (वन० २४२। ८)।
म. ना०२
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अनुशासनपर्व
अम्धक
भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १२७ । ६६)। २४-२६) । (२) इक्ष्वाकुवंशी महाराज ककुत्स्थके (२) अवन्तीके राजकुमार । विन्दके भाई । ये दोनों भाई पुत्र ( वन० २०२ । २)। प्रतापी सहदेवद्वारा दक्षिण-विजयके समय पराजित हुए थे अन्तक-चौदह यमोंमेंसे एक । ये पितरोंकी ओरसे पृथ्वी( सभा० ३१ । १०)। इन दोनों बन्धुओंका एक दोहनके समय दोग्धा थे (द्रोण. ६९ । २६)। अक्षौहिणी सेनासहित दुर्योधनकी सहायतामें जाना
अन्तचार-एक प्राचीन भारतीय जनपद (भीष्म (उद्योग. १९ । २४.२५)। प्रथम दिनके संग्राममें
९।६८)। कुन्तिभोजके साथ इनका द्वन्द्व युद्ध (भीष्म० ४५ ।
अन्तर्गिरि-हिमालयकी भीतरी शृङ्खलाका एक जनपद ७२-७५ ) । अर्जुनपुत्र इरावान्द्वारा पराजित होना
(भीष्म० ९ । ४९) । अर्जुनद्वारा इसपर विजय (भीष्म० ८३ । १८-२२) भीमसेन और अर्जुनके साथ युद्ध (भीष्मः ११३-११४ अध्यायोंमें )। चेकितानके
(सभा० २७ । ३)। साथ युद्ध (द्रोण०१४ । ४८) । विराटके साथ युद्ध अन्तर्धान-कुबेरका एक अस्त्र (वन० ४१ । ३८)। (द्रोण. २५ । २०-२१, ९६ । ४-६ ) । अन्तर्धामा-मनुवंशी अङ्गके पुत्र और हविर्धामाके पिता अर्जुनद्वारा इसका वध (द्रोण० ३९९ । २७-२९)। (अनु० १४७ । २३)। (३) केकयराजकुमार । कौरव-पक्षका योद्धा । सात्यकि- अन्तर्याग-कान-नेत्र आदि दस होताओंद्वारा साध्य द्वारा वध (कर्ण० १३ । २१)।
आध्यात्मिक यज्ञ ( आश्व० अ० २१ से २७ तक )। अनुशासनपर्व-महाभारतका एक प्रमुख पर्व । अन्तर्वृत्ति-स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाली आन्तरिक वृत्ति अनुष्णा-एक नदीका नाम ( भीष्म० ९ । २४)। (अनु० १४४ । ४-१७ तथा २९-४०)। अनुहाद-हिरण्यकशिपुका तीसरा पुत्र (आदि०६५।१४)अन्तवास-एक प्राचीन देश ( सभा० ५१।१७)। यही शिशुपालपुत्र धृष्टकेतुके रूपमें पैदा हुआ था अन्ध-(१) एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ । (आदि० ६७ । ७)।
१६)। (२) एक अन्ध हिंसक जीव, जिसने समस्त
प्राणियों के विनाशका वरदान प्राप्त किया था और इसीलिये अनूचाना-एक अप्सरा, जिसने अन्य अप्सराओंके साथ
जिसे ब्रह्माजीने अन्धा बना दिया था। इसे मारकर व्याध आकर अर्जुनके जन्मके अवसरपर नृत्य किया था
स्वर्गलोकका अधिकारी हुआ था (कर्ण० ६९।४१-४५)। ( आदि० १२२ । ६१)।
अन्धक-(१) यदुकुलमें उत्पन्न अन्धकसे प्रचलित अनूदर-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक ( आदि० ६७ । ९९;
कुलपरम्परामें जन्म लेनेवाले क्षत्रिय । इनके द्वारा अर्जुन११६ । ८)।
का सत्कार ( आदि० २१७ । १८-१९)। (२) एक अनूप-एक प्राचीन जनपद (सभा० ५१ । २४) । राजा, जिसके पास पाण्डवपक्षकी ओरसे युद्धमें सहायताके (किसी-किसीके मतमें नीमाड़के लगभग नर्मदा-तटवर्ती लिये निमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग० ४ । १२)। प्रदेश, दक्षिण मालवा ही अनूप देश है (हिंदीमहाभारत
(३) एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे पुरुषमेध यज्ञके परिशिष्ट पृष्ठ ५)।
फलकी प्राप्ति बतायी गयी है (अनु० २५ । ३२-३३)। अनूपक-अनूपदेशके निवासी योद्धा (भीष्म० ५०। ४७)। (४) एक असुर, जो भगवान् शङ्करद्वारा मारा गया अनूपपति-समुद्रतटवतीं अनूपदेशका राजा कार्तवीर्य था ( अनु० १४ । २१४-२१५)। (वन० ११६ । १९)।
अन्धकार-क्रौञ्चद्वीपका एक पर्वत (भीष्म० १२ । १८)। अनूपराज-अनूपदेशके राजा ( सभा० ४ । २०)। अन्धकारक-क्रौञ्चद्वीपका एक जनपद (भीष्म० १२ । २२)। ( कुछ व्याख्याकार 'अनूपराजो दुर्धर्षः' इस वाक्यांशका अन्ध्र-(१) दक्षिण भारतका एक जनपद (भीष्म अर्थ 'अनूपराज दुर्धर्ष' करते हैं अर्थात् अनूपराजका नाम ९।४९)। (२) अन्ध्रदेशवासी योद्धा (द्रोण०४।८)। (दुर्धर्ष' मानते हैं और दूसरे लोग 'दुर्धर्ष पदको अन्धक ( या आन्ध्रक)-(१) अन्ध्रदेशके राजा, जो अनूपराजका विशेषण समझते हैं। )
युधिष्ठिरकी मयनिर्मित सभामें बैठते थे (सभा० ४ । २४)। अनेना-(१) पुरूरवाके पुत्र राजा 'आयु'के द्वारा स्वर्भानु- ये युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें आये थे (सभा० ३४।११)।
कुमारीके गर्भसे उत्पन्न पाँचवाँ पुत्र । इसके अन्य चार (२) अन्ध्रदेशवासी मनुष्य अथवा योद्धा । पाण्ड्यनरेशभाई ये-नहुष, वृद्धशर्मा, रजि तथा गय (आदि०७५/ ने महाभारत-युद्धमें इन्हें परास्त किया था ( कर्ण.
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अन्यगोचरी
( ११ )
अभिमन्यु
२०।१०-११)। श्रीकृष्णने अर्जुनको अन्ध्र, पुलिन्द आदि भगवान्ने ऋक् साम आदि श्रुतियोंके संग्रहका आदेश देशोंके योद्धाओंको मारनेका उत्साह दिलाया (कर्ण० दिया (शान्ति० ३४९।४०-४१)। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें ७३।१९-२१)। (३) जातिविशेष । दक्षिणभारतीय इनके द्वारा वेदोंका विभाग हुआ, जिससे प्रसन्न होकर आन्ध्र-पुलिन्द आदि जातियोंको म्लेच्छ' कहा गया है भगवान्ने उन्हें सभी मन्वन्तरोंमें धर्मप्रवर्तक होनेका (शान्ति० २०७। ४२)।
आशीर्वाद दिया तथा भविष्यमें वशिष्ठवंशी पराशरके अन्यगोचरी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६।२७)। ज्ञानवान्, तपोबलसम्पन्न पुत्ररूपमें अवतीर्ण होनेकी बात अन्वम्भान-मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे उत्पन्न रौद्रावके पत्र ।
बतायी (शान्ति• ३४९।४२-५९)। इनके दो नाम और मिलते हैं-ऋचेयु तथा अनाधृष्टि अप्सुजाता-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६।४)। (आदि० ९४ । ८-१२)।
अप्सुहोम्य-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें अपरकाशि-भारतवर्षका एक जनपद (भीष्म० ९।४२)। विराजमान होते थे ( सभा० ॥१२)। अपरकुन्ति-भारतवर्षका एक जनपद (भीष्म० ९।४३)। अबल-पाञ्चजन्यद्वारा उत्पन्न किये गये पंद्रह उत्तरदेवों अपरनन्दा-एक नदी, जिसका दर्शन अर्जुनने किया था (विनायकों) मेंसे एक (वन० २२०।११)। (आदि० २१४।६-७)। युधिष्ठिरने भी इसकी यात्रा की अबन्धमायाद-कदम्बी न होनेपर भी उत्तराधिकारी पुत्र (वन० ११०१)। दैववंश ऋषिवंशके साथ कीर्तनीय (आदि.१९३२)।(छः प्रकारके पुत्र अबन्धुदायाद' पुण्य नदियोंमें अपरनन्दा'का भी नाम आया है
कहलाते हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं-१. 'दत्त' (अनु० १६५।२८)।
(जिसे माता-पिताने स्वयं समर्पित कर दिया हो)। २. अपरम्लेच्छ-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९।६५)। क्रीत (जिसे धन आदि देकर खरीद लिया गया हो)। अपरवल्लव-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९।६२)।
३. 'कृत्रिम' (जो स्वयं मैं आपका पुत्र हूँ—यों कहकर अपरसेक-एक मध्य भारतीय जनपद ( सभा० ३१।९)।
समीप आया हो)। ४. सहोद ( जो कन्या-अवस्थामें ही
गर्भवती होकर ब्याही गयी हो, उसके गर्भसे उत्पन्न )। अपराजित-(१) एक कश्यपवंशी नाग (आदि० ३५।१३;
५. शातिरेता' (अपने कुलका पुत्र )। ६. हीन जातिकी उद्योग० १०३ । १५) । (२) एक क्षत्रिय राजा ।
स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न । ये कुटुम्बी न होनेपर भी सम्पत्तिके कालेय नामक आठ दैत्योंमेंसे एकके अंशसे उत्पन्न (आदि० ६७ । ४९)। इन्हें पाण्डवोंकी ओरसे रण
अधिकारी होते हैं। अतः इन्हें 'अबन्धुदायाद' कहते हैं । निमन्त्रण प्राप्त हुआ ( उद्योग० ११२१)। (३) कौरव अभय-(१) धृतराष्ट्रका एक पुत्र (आदि० ६७१०४; धृतराष्ट्रका एक पुत्र (आदि० ६७।१०१)। भीमसेन- ११६॥१२ )। भीमसेनद्वारा इसका वध द्वारा इसका वध (भीष्म० ८८ । २१.२२)।
(द्रोण०१२७१६२)। (२) एक प्राचीन भारतीय जनपद, (४) कुरु-पौत्र जनमेजय कुमार धृतराष्ट्र के कण्डिक आदि नौ जिसपर भीमसेनने विजय प्राप्त की (सभा० ३०१९)। पुत्रों से एक ( आदि० ९४।५०-५९)। (५) ग्यारह अभिजित्-(१) दिनका आठवाँ मुहूर्त । मुहूर्तविशेष । रुद्रोंमेंसे एक (शान्ति० २०८।२०)। (आदिपर्वके ६६ इसमें युधिष्ठिरका जन्म ( आदि० १२२ । ६)। वें अध्याय में जो ग्यारह रुद्रोंके नाम मिलते हैं, वे शान्ति- (२) रोहिणीकी छोटी बहिन । एक नक्षत्र (वन. पर्ववाले नामोंसे अधिकांश भिन्न हैं, उनमें अपराजित' नहीं है।) २३०।८)। अभिजित् नक्षत्रके योगमें मधु और घृत (६) भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४९।८९)। दान करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति ( अनु० ६४ । २७ ) । अपरान्त-एक प्राचीन जनपद । दक्षिण भारतका वह प्रदेश अभिभू-काशिराज के पुत्र । पाण्डवपक्षके योद्धा (१)(उद्योग०
जो पश्चिम समुद्र के किनारेपर है । यह प्रदेश पश्चिमी घाटके १५१ । ६३)। इनके वसुदानके पुत्रद्वारा मारे जानेकी पश्चिमी समुद्रके तटपर है ( भीष्म० ९।४७)। शूर्पारक- चर्चा (कर्ण० ६ । २३-२४)। इनके घोड़ोंका वर्णन क्षेत्रका दूसरा नाम (शान्ति० ४९।६७)।
(द्रोण० २३ । २६-२७)। अपान्तरतमा-श्रीनारायणके भो' शब्दके उच्चारणसे प्रकट अभिमन्यु-अर्जुनके द्वारा सुभद्राके गर्भसे उत्पन्न
हुए एक महात्मा पुरुष । भगवान्की वाक या सरस्वतीसे एक वीर राजकुमार ( आदि० ६३ । १२१% प्रादुर्भूत होनेके कारण इनका नाम सारस्वत हुआ । ये ही २२० । ६५)। ये चन्द्रमाके पुत्र वर्चा' के अवतार ये अपान्तरतमाके नामसे विख्यात हुए (शान्ति० ३४९।३८- (आदि.१७ )। सोलह वर्षतक ही इनका इस ३९)। ये त्रिकालज्ञ थे। इन्हें वेदोंकी व्याख्याके लिये भूतलपर रहनेका कारण (आदि० ६७ । ११३-१२५)।
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બમિમલ્લુ
( १२ )
अभिमन्यु
इनका 'अभिमन्यु' नाम होनेका कारण ( आदि. २२० । ६७) । अर्जुनसे इनका समस्त अस्त्र-विद्याओंका अध्ययन ( आदि० २२० । ७२ )। मातासहित अभिमन्युका मामा श्रीकृष्णके साथ वनसे द्वारकाको जाना (वन० २२। ४७)। प्रद्युम्नद्वारा अभिमन्युकी अस्त्रशिक्षा (वन. १८३ । २८)। अभिमन्युद्वारा द्रौपदीकुमारोंका गदा और दाल-तलवारके दाँव-पेंच सिखाना (वन० १८३ । २९)।मातासहित अभिमन्युका उपप्लव्य नगरमें आगमन (विराट. ७२ । २२)। उत्तराके साथ अभिमन्युका विवाह (विराट० ७२ । ३५)। संजयद्वारा इनके पराक्रम और इन्द्रियसंयमका वर्णन (उद्योग. ५०।१३) । प्रथम दिनके युद्धमें कोसलराज बृहलके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म०४५। १४-१७)। भीष्मके साथ भयंकर संग्राम करके उनके ध्वजको काट देना (भीष्म०४७।९-२५)। भीष्मके साथ जूझते हुए श्वेतकी सहायतामें इनका आना (भीष्म० ४८ । १०१)। धृष्टद्युम्नद्वारा निर्मित क्रौञ्चव्यूहमें स्थान-ग्रहण ( भीष्म० ५० । ५.)। भीष्मपर चढ़ाई करते हुए अर्जुनकी सहायता करना ( भीष्म ५२ । ३०; ६० । २३-२५ ) । दूसरे दिनके संग्राममें लक्ष्मणके साथ युद्ध ( भीष्म ५५ । ८-१३)। अर्जुनद्वारा निर्मित अर्धचन्द्रव्यूहमें स्थान-ग्रहण (भीष्म० ५६ । १६)। गान्धारोके साथ युद्ध करना (भीष्म० ५८ । ७) । इनका अद्भुत पराक्रम (भीष्म०६।। -१)। शल्यपर आक्रमण तथा हाथीसहित मगधराज (जयत्सेन) का वध (भीष्म०६२ । १३-१८) तथा (कर्ण०७३।२४-२५)। भीमसेनकी सहायता (भीष्म० ६३, ६५, ६९ तथा ९४ अध्याय) । लक्ष्मणके साथ युद्ध और उसे पराजित करना ( भीष्म० ७३ । ३१-३७) । कैकयराजकुमारोंका। अभिमन्युको आगे करके शत्रुसेनापर आक्रमण (भीष्म० ७७ । ५८-६१)। विकर्णपर विजय (भीष्म० ७८ । २१ )। विकर्णपर विजय (भीष्म० ७९ । ३०-३५)। इनके द्वारा चित्रसेन, विकर्ण और दुर्मर्षणकी पराजय (भीष्म ८४ । ४०-४२)। धृष्टद्युम्नके शृङ्गाटकव्यूहमें स्थान ग्रहण ( भीष्म० ८७ । २१)। भगदत्तके साथ युद्ध ( भीष्म० ९५ । ४.)। अम्बष्ठकी पराजय ( भीष्म० ९६ । ३९-४०)। अलम्बुषके साथ घोर युद्ध (भीष्म १०० अध्यायमें)। इनके द्वारा अलम्भुषकी पराजय ( भीष्म० १०१। २८-२९)। चित्रसेनकी पराजय (भीष्म० १०४।२९)। सुदक्षिणके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११० । १५)। सुदक्षिणके साथ द्वन्द्वयुद्ध (१११ । १५-२१)।
दुर्योधनके साथ युद्ध ( भीष्म० ११६ । १-८)। बृहलके साथ युद्ध ( भीष्म० ११६ । ३०-३६)। भीष्मपर धावा (भीष्म ११८ । ४०) । अर्जुनकी रक्षाके लिये युद्ध करना (भीष्म० ११९।२१)। धृतराष्ट्र द्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०। ४७-५२)। पौरवके साथ युद्ध करके उनकी चुटिया पकड़कर पटकना ( द्रोण. १४ । ५०-६० )। जयद्रथ के साथ युद्ध ( द्रोण० १४ । ६४-७४ ) । शल्यके साथ युद्ध (द्रोण० १४१ ७८-८२)। इनके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । ३३)। इनके वधका संक्षिप्त वर्णन (द्रोण० ३३ । १९-२८)। चक्रव्यूहसे बाहर निकलनेकी असमर्थता प्रकट करना (द्रोण० ३५ । १८-१९) । व्यूहभेदनकी प्रतिज्ञा (द्रोण. ३५ । २४-२८)। चक्रव्यूहमें प्रवेश और कौरवोंकी चतुरङ्गिणी सेनाका संहार (द्रोण० ३६ । १५-४६)। इनके द्वारा अश्मकपुत्रका वध (द्रोण. ३७ । २२-२३ ) । राजा शल्यको मूञ्छित करना (द्रोण०३७ । ३४)।इनके द्वारा शल्यके भाईका वध (द्रोण० ३८ । ५-७) । इनके भयसे कौरव-सेनाका पलायन (द्रोण. ३८ । २३-२४)। द्रोणाचार्यद्वारा अभिमन्युके पराक्रमकी प्रशंसा (द्रोण० ३९ अध्याय)। दुःशासनको फटकारते हुए उसे मूर्च्छित कर देना (द्रोण० ४० । २-१४)। इनके द्वारा कर्णकी पराजय (द्रोण० १० । ३५-३६) । अभिमन्युद्वारा कर्णके भाईका वध, कौरव-सेनाका संहार तथा भगाया जाना (द्रोण. ११ अध्याय)। वृषसेनकी पराजय (द्रोण. ४४ । ५)। वसातीयका वध (द्रोण० ४४ । १०)। सत्यश्रवाका वध (द्रोण०४५ । ३) । शल्यपुत्र रुक्मरथका वध (द्रोण० ४५ । १३)। इनके प्रहारसे पीड़ित दुर्योधनका पलायन (द्रोण० ४५ । ३०) । इनके द्वारा दुर्योधन कुमार लक्ष्मणका वध (द्रोण०४६ । १२-१७)। इनके द्वारा क्राथपुत्रका वध (द्रोण. ४६ । २५-२७)। अभिमन्युका घोर युद्ध, उनके द्वारा वृन्दारकका वध तथा अश्वत्थामा, कर्ण और बृहद्बल आदिके साथ युद्ध (द्रोण. ४७ । १-२१)। इनके द्वारा कोसलनरेश बृहदलका वध (द्रोण० ४७ । २२)। इनका कर्णके साथ युद्ध और उसके छः मन्त्रियोंका वध (द्रोण. १८।१-६) । इनके द्वारा मगधराजके पुत्र अश्वकेतुका बध (द्रोण. ४८।७)। इनके द्वारा मार्तिकायतकनरेश भोजका वध (द्रोण०४८ । ८)। इनके द्वारा शल्यकी पराजय (द्रोण० ४८ । १४-१५)। इनके द्वारा शत्रुञ्जय, चन्द्रकेतु, मेघवेग, सुवर्चा और सूर्यभासका वध (द्रोण. १८ । १५-१६) अभिमन्युका शकुनिको घायल करना
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पर्व
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( १३ )
( द्रोण० ४८ । १६-१७) । सुबलपुत्र कालकेयको मारना ( द्रोण० ४९ । ७ ।। दुःशासन कुमार की गदा प्रहारसे अभिमन्युका प्राणत्याग द्रोण० ४९ । १३-१४ ) । इन्हें योगी, तपस्वी, मुनियोंके अक्षयलोककी प्राप्ति ( द्रोण ० ७१ । १२ - १६ ) । अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित्का जन्म आश्व० ६९ अध्याय ) । अभिमन्युवधका वृत्तान्त वसुदेवने श्रीकृष्णके मुखसे सुना ( आश्व० ६१ । १५-४२ ) । अभिमन्युका सोमपुत्र वर्चारूपसे सोममें प्रवेश ( स्वर्गा० ५। १८-२० ) । महाभारतमें आये हुए अभिमन्युके नाम --- आर्जुनि, सौभद्रः कार्पिण, अर्जुनात्मज, अर्जुनावर, फाल्गुनि तथा
शक्रात्मजात्मज ।
अभिमन्युवधपर्व - द्रोणपर्वका एक अवान्तरपर्व (अध्याय ३३ से ७१ तक ) अभिषेचनीय- जिसमें पूजनीय पुरुषका अभिषेक - अर्ध्य देकर सम्मान किया जाता है, उस कर्मका नाम ‘अभिषेचनीय' है। यह राजसूय यज्ञका अङ्गभूत सोमयाग - विशेष है ( सभा ० ३६ । १ ) ।
अभिष्यन्त - महाराज कुरुके द्वारा वाहिनी के गर्भ से उत्पन्न । इनके अन्य भाई अश्ववान्, चैत्ररथ, मुनि और जनमेजय । ये अश्ववान्से छोटे और चैत्ररथसे बड़े थे ( आदि ० ९४ । ५०-५१ ) ।
अभिसारी - एक प्राचीन नगरी, जिसपर दिग्विजयके समय अर्जुनने विजय पायी ( सभा० २७ । १९ ) । अभीति-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । २७ ) । अभीरू - छठे कालकेयके अंशसे उत्पन्न एक राजर्षि ( आदि० ६७ । ५३ ) ।
अभीषाह - ( १ ) एक प्राचीन जनपद ( भीष्म० १८ । १२ ) । ( २ ) अभीषाह जनपदके निवासी योद्धा ( भीष्म० ९३ । २ ) ।
अभीसार- एक प्राचीन भारतीय जनपद ( भीष्म० ९। ९४ )।
अमध्य-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम ( शान्ति ० ३४२ । ९० ) ।
अमरपर्वत - एक प्राचीन स्थान, जिसे नकुलने जीता था ( सभा० ३२ । ११ ) ।
अमरहद - एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ( वन० ८३ । १०६ ) । अमरावती - देवराज इन्द्रकी पुरी, जहाँ अर्जुन गये थे ( धन० ४२ । ४२६ उद्योग ० १०३ । १ ) । अमावसु- पुरूरवाद्वारा उर्वशीके गर्भ से उत्पन्न एक राजा ( आदि० ७५ | २४ ) ।
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अम्बरीष
अमाहठ - धृतराष्ट्र नागके कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था (आदि० ५७ । १६ )। अमितध्वज - एक दानव ( शान्ति० २२७ । ५० ) । अमिताशना - स्कन्धकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ७ ) । अमितौजा - एक भयंकर पराक्रमी पाञ्चाल क्षत्रिय, जो केतुमान् नामक असुरके अंशसे प्रकट हुआ था ( आदि० ६७ । १२ ) । पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रणनिमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग ० ४ । १२ ) । पाण्डवपक्षके महारथी वीरोंमें इनकी गणना ( उद्योग ० ७१ । ११) ।
अमूर्तरया - एक प्राचीन नरेश, जिसके पुत्र राजा गय हुए ( वन० ९५ । १७ ) । इन्हें पूरुसे खनकी प्राप्ति हुई ( शान्ति० १६६ । ७५ ) ।
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अमृता - मगधदेशकी राजकुमारी, जो अनश्वाकी पत्नी और रक्षित की माता थी ( आदि० ९५ । ४१ I अमोघ - ( १ ) बृहस्पतिकुलमें उत्पन्न एक अग्नि ( वन० २२० | २४ ) । (२) भद्रवट यात्रा के समय शंकरजीके दाहिने भागमें चलनेवाला एक यक्ष ( वन० २३१ । ३५ ) । ( ३ ) स्कन्दका एक नाम ( वन० २३२ । ५ ) । ( ४ ) भगवान् शिवका एक नाम ( अनु० १७ । ११४ ) | ( ५ ) भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । २५ ) ।
अमोघा - स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । २१ ) । अम्बरीष - ( १ ) एक प्राचीन नरेश, जो सूर्यवंशी राजा नाभागके पुत्र थे और जिन्होंने यमुनातटपर यज्ञ किया था ( आदि० १ | २२७; भीष्म० ९ । ६ तथा वन० १२९ । २ ) । दुर्वासाद्वारा अम्बरीषके प्रभावका स्मरण ( वन० २५३ । ३३ ) । संजयको समझाते हुए नारदजीद्वारा इनके चरित्रका कथन ( द्रोण ० ६४ अध्याय ) । अम्री अधिकार में पूर्वकालमें यह पृथ्वी थीइसकी चर्चा (शान्ति० ८ । ३३-३४ ) । इनके यज्ञका वर्णन (शान्ति० २९ | १०० - १०४ ) । अपने सेनापति सुदेवकी अपनेसे उत्कृष्ट गति देखकर उसके विषय में इनका इन्द्रसे प्रश्न करना ( शान्ति० ९८ । ६-११ ) । रणयज्ञके विषय में इन्द्रसे प्रश्न ( शान्ति० ९८ । १४ ) । इनके द्वारा ब्राह्मणको ग्यारह अर्बुद गो-दान ( शान्ति ० २३४ । २३ ) । अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होने पर इनका शपथ खाना ( अनु० ९४ । २९ ) । मांस भक्षणनिषेधसे परावर सरका ज्ञान तथा सर्वभूतात्मताकी प्राप्ति ( अनु० ११५ । ५८-५९ ) । इनके द्वारा ब्राह्मणको राज्य-दान ( अनु० १३७ । ८ ) । जिनके नाम प्रातः सायं कीर्तन करनेयोग्य हैं, उन राजाओं में इनकी भी गणना
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अम्बष्ठ
अम्भोहरू
(अनु० १६५।५३)। इनकी आध्यात्मिक स्वराज्य-गाथा वहाँ मरनेवालेको नारदजीकी कृपासे परम उत्तम लोक ( आश्व० ३१ । ७-१२)। (२) एक नाग, जो प्राप्त होते हैं (वन० ८३ । ८१)। बलरामजीके रसातल-प्रवेशके समय स्वागतार्थ आया था अम्बालिका काशिराजकी पुत्री, विचित्रवीर्यकी द्वितीय (मौसल. ४ । १६)।
पत्नी ( आदि. ९५ । ५१ )। इनकी माताका नाम अम्बष्ठ-(१) एक प्राचीन देश, जिसे नकुलने जीता था कौसल्या' था । इनके गर्भसे व्यासद्वारा पाण्डुकी (सभा० ३२। ७ ) । (सिन्धदेशके उत्तरका एक उत्पत्ति (आदि. १०५ । २१)। व्यासके भयंकररूपसे प्रजातन्त्र राज्य । यूनानी लेखकोंने उसे 'अम्बस्तई' वा घबराकर पाण्डुवर्णकी-सी हो जानेके कारण इनके गर्भसे 'अम्बस्तनोई' लिखा है--हिंदी महाभारत परिशिष्ट पाण्डुवर्णके ही पुत्रका जन्म होना ( आदि० १०५ । पृष्ठ ७ ) । ( २ ) कौरवपक्षका एक राजा, जो १८)। पाण्डुके निधनपर इनकी मूर्छा ( आदि. अम्बष्ठ देशका अधिपति एवं 'श्रुतायु' नामसे प्रसिद्ध १२६ । २४ )। था, अभिमन्युद्वारा पराजित हुआ था (भीष्म० ९६ । अम्बिका-(१) काशिराजकी पुत्री, विचित्रवीर्यकी पत्नी ३९-४०)। अर्जुनके साथ युद्ध और उनके द्वारा उसका
और धृतराष्ट्रकी माता । अम्बिकाकी माताका नाम वध (द्रोण. ९३ । ६०-६९)। (३) पाण्डवपक्षका
कौसल्या' (आदि. ९५। ५१)। विचित्रवीर्य के साथ एक योद्धा, जो अम्बष्ठजातिका था । इसने कौरवपक्षीय
अम्बिका अम्बालिकाका पाणिग्रहण ( आदि० १०२ । चेदिराजके साथ युद्ध करके उसे धराशायी किया था
६५)। वंशरक्षाके हेतु इन दोनों बहिनोंको व्यासद्वारा (द्रोण. २५ । ४९-५०)।
पुत्रोत्पादनके लिये सत्यवतीका आदेश (आदि०१०४ । अम्बा-काशिराजकी ज्येष्ठ पुत्री (आदि० १०२ । ६०)।
५१ से १०५। १५ तक)। व्यासजीके द्वारा इनके गर्भसे भीष्मद्वारा विचित्रवीर्यके लिये इसका अपहरण (आदि.
धृतराष्ट्रका जन्म (आदि० १०५। १३)। व्यासजीके १०२। ५७ तथा सभा० ४१ । २३)। शाल्वके प्रति
भयानक रूपसे भयभीत होकर आँखें बंद करनेके कारण अपनी अनुरक्ति दिखाकर उनके साथ अपने विवाहके लिये
इनके पुत्रका जन्मान्ध होना (आदि० १०५ । १०)। इसकी भीष्मसे प्रार्थना (आदि० १०२। ६१-६२)।
सत्यवतीद्वारा इनको पुनः व्यासके साथ समागमके लिये भीष्मद्वारा इसको शाल्वके समीप जानेकी अनुमति दी
आज्ञा और इनका अस्वीकार (आदि० १०५ । २३)। गयी (आदि० १०२ । ६४)। अम्बाका शाल्वके प्रति
इनके द्वारा अपनी दासीको छलपूर्वक व्यासजीके पास अनुराग दिखाकर उनके पास जानेके लिये भीष्मसे आज्ञा
भेजना और उस दासीके गर्भसे विदुरका जन्म (आदि० माँगना ( उद्योग. १७४ । ५-१०)। शाल्वराजसे
१०५ । २८)। पाण्डुका दोनों माताओंको अपने बाहबलअपनी धर्मपत्नी बनानेके लिये उसका अनुरोध (उद्योग
से जीते हुए धनकी भेंट अर्पण करना ( आदि० ११३ । १७५ । ११-१८)। शाल्वसे परित्यक्त होनेपर भीष्मसे
.)। सत्यवतीके साथ इन दोनों बहिनोंका तपोवनमें बदला लेनेका विचार (उद्योग० १७५। २६-३५)।
जाकर प्राणविसर्जन (आदि० १२७ । १३)। (२) एक शेखावत्य मुनिके आश्रममें जाकर उनसे अपना दुःख
अप्सरा, जो अर्जुनके जन्म के अवसरपर नृत्य करने आयी थी
(आदि. १२२ । ६२)।(३) एक देवी, स्कन्दमाता सुनाना ( उद्योग० १७५ । ३८-४४ )। तापसोंके समझानेपर भी तपस्या करनेका ही अपना निश्चय बतलाना
पार्वती, इनके नामस्मरणसे पापका नाश होता है (अनु० ( उद्योग. १७६ । १२-१४)। परशुरामजीसे भीष्मको
१५. । २८-२९)। मार डालनेका अनुरोध करना ( उद्योग. १७७ । ३५- अम्बुमती-एक नदी एवं उत्तम तीर्थ (वन०८३ । ५६ )। ४२, १७८ । ५-७)। भीष्मके वधके लिये अम्बाकी अम्बवाहिनी-एक नदी, जिसका जल तटवर्ती मनुष्य कठोर तपस्या ( उद्योग० १८६ । १९-२९)। गङ्गाद्वारा पीते हैं ( भीष्म० ९।२७) । यह प्रातः-सायं स्मरण नदी होनेके शापसे वत्स देशमें नदी होना ( उद्योग करने योग्य नदी है ( अनु० १६५ । २०)। १८६ । ३१-५०)। दूसरे जन्ममें तपस्या करके महादेवजी- अम्बुवीच-मगधनरेशोंमेंसे एक । इनके मन्त्रीका नाम से उसकी वर-प्राप्ति (उद्योग. १८७।१-१५)। महाकर्णि' था (आदि० २०३ । १७-१९)। चिताकी आगमें प्रवेश ( उद्योग० १८७ । १९)। अम्बोपाख्यान-उद्योगपर्वका अन्तिम अवान्तर पर्व, जो द्रुपदके यहाँ कन्यारूपमें जन्म और शिखण्डी' नाम अध्याय १७३ से १९६ तक है। पड़ना (उद्योग० १८८ । ७-१९)।
अम्भोरुह-महर्षि विश्वामित्रके पुत्रों से एक ( अनु० अम्बाजन्म-एक तीर्थ, जिसका सम्बन्ध नारदजीसे है । ५९)।
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अयःशङ्क
अरुण
अयःशङ्क-एक महादैत्य, जो केकयदेशके एक राजकुमारके अरिषुनेमा-कश्यपपुत्र 'अरिष्टनेमि' नामक मुनि (वन०
रूपमें उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७।१०)। १८४ । ८)। अयाशिरा-कश्यप-पत्नी दनुके पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० अरिष्टनेमि-(१) विनताके छः पुत्रोमैसे एक । इनके ६५। २३) । यही केकयदेशके एक राजकुमारके रूपमें
अन्य भाइयोंके नाम ये हैं–ताय, गरुड, अरुण, आरुणि, उत्पन्न हुआ (आदि० ६७।१०)।
वारुणि (आदि. ६५। ४०) । परपुरञ्जयका इनके अयति-राजा नहुषके पुत्र । ययातिके भाई ( आदि. आश्रमपर जाना (वन० १८४।८)। इनके द्वारा ७५ । ३०)।
ब्राह्मणोंके महत्त्वका वर्णन (वन. १८४ । १७-२२)। अयवाह-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९।४५)। राजा सगरको मोक्षविषयक उपदेश ( शान्ति. अयतनायी-एक पुरुवंशीय क्षत्रिय, जो राजा महाभौमके २८८ । ५-४६)। (२) महर्षि कश्यपका दूसरा नाम पुत्र थे। उनकी माताका नाम 'सुयज्ञा', पत्नीका नाम (शान्ति०२०८1८)।(३) यमराजकी सभामें बैठने'कामा' तथा पुत्रका नाम अक्रोधन' था । अयुत ( दस
वाले एक राजा (सभा०८।९) । (४) विराटहजार ) पुरुषमेध यज्ञोका अनुष्ठान करनेसे इनका नाम
नगरमें अज्ञातवासके समय सहदेवका कल्पित नाम 'अयुतनायी' हुआ ( आदि० ९५।१९-२१)।
(विराट. १०।५)। (५) भगवान् श्रीकृष्णका एक अयोध्या-सुप्रसिद्ध अयोध्यापुरी, जो इक्ष्वाकुवंशी राजाओं
नाम ( उद्योग. ७१। ५)। की राजधानी थी और जहाँ मुनिवर वसिष्ठजी राजा कल्माष- अरिप्रसेन-कौरवपक्षका एक राजा (शल्य० ६ । ३)। पादके यहाँ पधारे थे । (आदि० १७६ । ३५-३६) अरि-गन्धर्वराज हंसकी माता ( आदि० ६७ । ८३)। अयोध्याके धर्मज्ञ नरेश महाबली दीघयज्ञको भीमसेनने
अरिह-(१) एक सोमवंशी क्षत्रिय, जो पूरुवंशीय अवाचीनकोमलतापूर्ण बर्तावसे वशमें कर लिया था (सभा.
द्वारा उसकी पत्नी विदर्भराजकुमारी मर्यादाके गर्भसे उत्पन्न ३० । २)। भगवान् श्रीराम सीताजीसे विवाह करके अपनो पुरी अयोध्यामें आये (सभा०३८ । २९ के बाद पृष्ठ
हुआ था। इसकी पत्नी अङ्गराजकुमारीके गर्भसे महाभौम
नामक पुत्र हुआ (आदि० ९५। १८-१९)।(२) ७९४ दाक्षि० पाठ)। वनपर्वके ६० । २४६६ । २१)
एक सोमवंशीय राजा, जो देवातिथिके द्वारा विदेहराज७० । १८, ७१ । २४, ७४ । १७ ९९ । ४१)
कुमारी मर्यादाके गर्भसे उत्पन्न हुआ था। यह मर्यादा १४८ । १५,१५२ । ३, २०२।१९२९१ । ६० में तथा
अवाचीनकी पत्नीसे भिन्न थी। इस अरिहकी पत्नी अङ्गउद्योगपर्वके ११५। १८ में भी अयोध्याका नाम आया है।
राजकुमारी सुदेवा थी और इसके पुत्रका नाम ऋक्ष' अयोबाहु ( अयोभुज )-राजा धृतराष्ट्रका एक पुत्र
था (आदि० ९५ । २३-२४)। ( आदि० ६७ । ९८)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १५७ । १९)।
अरुज-राक्षसोंका दल ( वन० २८५ । २)। अरट्ट-एक देश, जहाँके योद्धाओंको साथ ले द्रोणके मारे ।
अरुण-(१) विनताके पुत्र, पिताका नाम कश्यप । सूर्यके जानेपर कृतवर्मा भागा था (द्रोण. १९३ । १३)।
सारथि । इनकी उत्पत्तिका प्रसंग, इनका अपनी माताको अरण्यपर्व-वनपर्वका एक अवान्तरपर्व (अध्याय १ से
शाप देना और उस शापसे छूटनेका उपाय भी बताना अध्याय १० तक)
(आदि०१६ । १६-२३)। इनका सूर्यके क्रोधजनित अरन्तुक-कुरुक्षेत्रकी एक सीमाका निर्धारण करनेवाला
तीव्र तेजकी शान्तिके लिये उनके रथपर स्थित अरन्तुक नामक द्वारपाल (वन०८३ । ५२)। कुबेर
होना ( आदि. २४ । १५-२० ) । इनके द्वारा सम्बन्धी यह तीर्थ सरस्वती नदीमें स्थित है । यहाँ स्नान करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है (शल्य.
कुपित हुए सूर्यका सारथ्य ( आदि. १६ । २२
२३)। इनका श्येनीके गर्भसे सम्पाती और जटायको ५३ । २४)।
जन्म देना ( आदि० ६६ । ७०)। इनके द्वारा अरालि-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु.
स्कन्दको अपने पुत्र ताम्रचूडका दान (शल्य.४६।
५१ तथा अनु० ८६।२२)। (२) प्राचीन ऋषियोंका अरिमेजय-एक वृष्णिवंशी योद्धा (द्रोण०११ । २८)। एक समुदाय, जिन्हें स्वाध्यायद्वारा स्वर्गकी प्राप्ति अरिष्ट-एक वृषभरूपधारी असुर, जिसे पशुओंके हितकी हुई (शान्ति० २६ । ७)। ( ३ ) अरुण नामक कामनासे भगवान् श्रीकृष्णने मारा था (समा० ३८१२९ एक नाग, जो परमधाम पधारनेके समय बलरामजीके के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ८.)।
स्वागतमें आया था ( मौसल० ४।१५)।
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अरुणा
अर्जुन
अरुणा-(१) एक अप्सरा, जो कश्यप-पत्नी प्राधाके गर्भसे अर्जुन-(१) ये नरस्वरूप हैं ( आदि० १।१)। इनको उत्पन्न हुई थी ( आदि० ६५ । ५० )। (२) धर्ममय विशाल वृक्षका तना कहा गया है ( आदि० 'अरुणा' नामवाली एक नदी, जो सरस्वती नदीमें १।११०)।ये पाण्डुके क्षेत्रज पुत्र हैं। इन्द्रके द्वारा मिली है ( वन० ८३ । १५)।
कुन्तीके गर्भसे इनकी उत्पत्ति हुई है ( आदि० ६३ । अरुणासंगम-अरुणा और सरस्वतीके संगमका पवित्र ११६)। ये इन्द्रके अंशसे प्रकट हुए हैं ( आदि० ६७ । तीर्थ ( शल्य० ४३ । ३०-४३)।
१११)। फाल्गुन मास तथा दोनों फाल्गुनीके संधिकालमें अरुन्धती ( अक्षमाला )-(१) महर्षि वसिष्ठकी। इनकी उत्पत्ति हुई, इसीसे इनका नाम 'फाल्गुन' हुआ पत्नी (आदि. १९८ । ६ तथा उद्योग०११७।११)। (आदि. १२२ । ३५ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। वसिष्ठजीके चरित्रपर संदेह करनेके कारण इनकी कान्तिमें __ आकाशवाणीद्वारा इनकी जन्मकालमें प्रशंसा (आदि० मलिनता (आदि. २३२ । २७-२९ )। ये ब्रह्माजीकी १२२ । ३८-४६ ) । इनके जन्मोत्सवपर समस्त सभामें विराजमान होती हैं (सभा० ११।१०)। देवताओं, गन्धर्वो, आदित्यों, रुद्रों, वसुओं, नागों तथा अरुन्धतीसहित वसिष्ठने उज्जानक सरोवरके तटपर तपस्या- ऋषियोंका शुभागमन और प्रमुख अप्सराओद्वारा नृत्य-गान द्वारा शान्ति प्राप्त की (वन० १३०।१७)। अरुन्धती- ( आदि० १२२ । ५०-७४ ) । शतशृङ्गनिवासी की तपस्या और पतिसेवाके प्रभावसे स्वाहा उनका रूप ऋषियोंद्वारा इनका नामकरण-संस्कार (आदि० १२३ । धारण न कर सकी (वन० २२५ । १४-१५)। सप्तर्षियोंने २० )। वसुदेवके पुरोहित काश्यपके द्वारा इनके केवल देवी अरुन्धतीको छोड़कर अन्य छः मुनिपत्नियोंको उपनयनादि-संस्कार । राजर्षि शुकसे इनके द्वारा धनुर्वेदका अपने यहासे निकाल दिया था (वन० २२६ । ८)। अध्ययन । (आदि० १२३।३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। शिवजी द्वारा इनके तपकी परीक्षा और इन्हें वरदान इनके द्वारा द्रौपदीके गर्भसे श्रुतकीर्तिका जन्म ( आदि. (शल्य० ४८ । ३८-५४)। वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष ९५ । ७५ ) । सुभद्राके गर्भसे अभिमन्युकी उत्पत्ति बताना (अनु० ९३ । ४५)। यातुधानीसे अपने नामका (आदि० ९५ । ७८)। कृपाचार्यसे इन ( पाण्डवों) का निर्वचन कहना ( अनु० ९३ । ९६)। मृणालकी चोरीके __ अध्ययन (आदि०१२९ ॥ २३)। अर्जुन आदिका द्रोणाचार्यकी विषयमें इनका शपथ खाना ( ९३ । १२७.१२८ )। शिष्यतामें अध्ययन ( आदि० १३१ । ४) । अर्जुनद्वारा अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु०
गुरुके अभीष्ट कार्यको सिद्ध करनेकी प्रतिज्ञा (आदि०१३१॥ ९४ । ३८)। इनके द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन ( अनु० ७) । आचार्यका अर्जुनको हृदयसे लगाकर उनके १३० । ३-११)। देवताओंद्वारा अरुन्धतीकी प्रशंसा तथा प्रति हार्दिक स्नेह प्रकट करना । इनकी अध्ययननिष्ठा ब्रह्माजीका उन्हें वर देना (अनु० १३० । १२-१३)। तथा सर्वाधिक योग्यता (आदि० १३१ । १३-१४)। इनसे अरुन्धतीवट-एक तीर्थ, इसके समीपवर्ती सामुद्रक तीर्थमें कर्णकी स्पर्धा ( आदि० १३१ । १२)। अर्जुन अनुपम स्नान और तीन रात ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक उपवास करनेसे प्रतिभाशाली हैं--ऐसी द्रोणाचार्यकी धारणा (आदि० १३१ । अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है (वन० ८४ । ४१)।
१५)। ये अपनी गुरुभक्ति तथा अस्त्रोंके अभ्यासकी लगनके अरूपा-दक्षकन्या प्राधाकी एक पुत्री (आदि०६५।४६)
कारण गुरुके विशेष प्रिय हुए ( आदि० १३१ । २०)।
इनके द्वारा रात्रिमें धनुर्विद्याका अभ्यास ( आदि० १३१ । अर्क-(१) दिवके पुत्र अर्क, जो विवस्वान्के ही स्वरूप हैं
२५)। इनको अद्वितीय धनुर्धर बनानेके लिये द्रोणाचार्यका ( आदि. १ । ४२ )। (२) एक प्राचीन राजा
आश्वासन (आदि० १३३ । २७)। एकलव्यकी धनुर्विद्यासे (आदि. १। २३६ )। (३) एक दानवराज, जो
इनकी चिन्ता और द्रोणसे इनका उलाहना (आदि० १३१ । राजर्षि ऋषिकरूपसे उत्पन्न हुआ था ( आदि.
४८-४९) । समस्त युद्ध-विद्याओंमें इनकी कुशलता ६७ । ३२-३३ )।
(आदि. १३१ । ६३)।ये सर्वश्रेष्ठ अस्त्राभ्यासी और अर्कज-बलीह-कुलका एक राजा ( उद्योग० ७४ । १४ )।
गुरुभक्त थे ( आदि. १३१ । ६४ )। द्रोणाचार्यद्वारा अर्कपर्ण-कश्यप-पत्नी 'मुनि'के गर्भसे उत्पन्न एक इनकी लक्ष्यवेधके विषयमें परीक्षा तथा इनके द्वारा देवगन्धर्व ( आदि० ६५।४३)।
गीधके मस्तकका छेदन ( आदि० १३२ । १-९)। अर्घाभिहरणपर्व-सभापर्वके एक अवान्तर पर्वका नाम द्रोणाचार्यपर आक्रमण करनेवाले ग्राहका इनके द्वारा (अध्याय ३६ से ३९ तक)।
वध ( आदि० १३२ । १७ ) । द्रोणाचार्यद्वारा अर्चिष्मत्-पितरोंका एक गण (शान्ति० २६९ । १५)। प्रसन्न होकर इनको 'ब्रहाशिर' नामक अस्त्रका दान अर्चिष्मती-महर्षि अङ्गिराकी चौथी पुत्री (वन० २१०।६)। ( आदि० १३२ । १८)। रङ्गभूमिमें इनके अद्भुत
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अर्जुन
( १७ )
अर्जुन
अस्त्रकौशल (आदि० १३४॥१८-२५)। रङ्गभूमिमें कर्णको ( आदि० १८९ । १०-२२ ) । द्रौपदीके विषयमें इनकी इनकी फटकार ( आदि. १३५ । १८) । कर्णसे लड़नेके युधिष्ठिरसे बातचीत ( आदि० १९० । ८-१० )। लिये रङ्गभूमिमें इनका उद्यत होना (आदि० १३५ । २१)। द्रौपदीके साथ इन (पाण्डवों) का विधिपूर्वक विवाह इनके द्वारा मन्त्रियोंसहित द्रुपदकी पराजय और उन्हें (आदि० १९७ । १३ )। ब्राह्मणके गोधनकी रक्षाके लिये बंदी बनाकर द्रोणाचार्यको सौंपना ( आदि० १३७।६३)। इनका आयुधागारमें प्रवेश और वनवास ( आदि. इनका द्रुपदकी 'अहिच्छत्रा' नगरीको जीतकर उसे २१२ । १९-३५)। हरिद्वारमें उलूपीद्वारा इनका नागद्रोणाचार्यको गुरुदक्षिणाके रूपमें देना ( आदि० १३७।। लोकमै आकर्षण ( आदि० २१३ । १३)। इनके द्वारा ७७)। ब्रह्माशिर' नामक अस्त्रकी परम्परा तथा उसके उलूपीके गर्भसे इरावान् का जन्म ( आदि० २१३ । ३६ उपयोगका नियम बतलाकर द्रोणाचार्यका अर्जनको के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । इनका मणिपूर जाकर विरोधी होनेपर अपने साथ भी लड़नेके लिये वचनबद्ध चित्राङ्गदासे विवाह ( आदि० २१४ । १५-२६ )। इनके करना ( आदि. १३८ । ९-१५)। इनके द्वारा यवनराजा द्वारा चित्राङ्गदाके गर्भसे बभ्रुवाहनका जन्म ( आदि० सौवीरनरेश विपुल और सुमित्रके वध आदि पराक्रमका २१४ । २७ )। इनका दक्षिणके तीथ में जाना और वर्गा धृतराष्ट्रद्वारा चिन्तन ( आदि. १३८ । २०-२३)। आदि अप्सराओंका ग्राह-योनिसे उद्धार करना ( आदि० हिडिम्बके साथ युद्ध होते समय भीमसेनकी सहायताके २१५ एवं २१६ अध्यायोंमें । पुनः मणिपुरमें आकर लिये इनका उद्यत होना (आदि० १५३ ॥ १८-१९)। इनके द्वारा चित्राङ्गदाको आश्वासन और राजसूय यज्ञमें द्रौपदीको इन्हें समर्पित करनेके लिये द्रुपदका संकल्प आनेका आदेश ( आदि. २१६ । २३-३१) । इनका तथा लाक्षागृहमें इनकी मृत्यु होनेका समाचार सुनकर गोकर्णतीर्थकी ओर जाना ( आदि० २१६ । ३४)। प्रभासद्रुपदका शोक ( आदि. १६६ । ५६ के बाद दाक्षिणात्य क्षेत्रमें इनसे श्रीकृष्णकी भेंट ( आदि० २१७ । ३-४)। पाठ, पृष्ठ ४९३) । चित्ररथ गन्धर्वको इनकी फटकार रैवतक पर्वतपर इनका रातभर श्रीकृष्णके साथ विश्राम
और इनके द्वारा गङ्गा आदि नदियोंकी महिमा ( आदि. ( आदि० २१७ । ८)। श्रीकृष्णके साथ इनका द्वारका१६९।१६-२४)। युद्ध में इनके द्वारा चित्ररथपर आग्नेयास्त्र- गमन ( आदि० २१७।१५)। सुभद्राहरण के विषय में इनके का प्रहार और उसकी मूर्छा ( आदि. १६९ । ३१-३३)। लिये श्रीकृष्णकी सम्मति (आदि० २१८ । २१-२३)। चित्ररथको इनका जीवन-दान ( आदि० १६९ । ३७)। सुभद्रासे विवाहके लिये इनको युधिष्ठिरकी सम्मति चित्ररथके साथ इनकी मित्रता ( आदि० १६९।३८-५८)। (आदि. २१८ । २५ )। इनके द्वारा सुभद्राका चित्ररथसे इन्हें चाक्षुषी विद्या एवं दिव्य अश्वोंकी प्राप्ति हरण ( आदि० २१९ । ७)। इनसे युद्ध करनेके लिये ( आदि० १६९ । ४३-४६)। इनपर चित्ररत्रके वृष्णिवंशियोंकी तैय री ( आदि० २१९ । १६-१९)। आक्रमणका कारण ( आदि० १६९ । ६०)। चित्ररथपर सुभद्रासे इनका विधिपूर्वक विवाह ( आदि० २२० । १३)। इनकी विजयका कारण ( आदि० १६९ । ७१)। किसी पुष्करतीर्थमें इनके द्वारा वनवासके शेष समयक' यापन श्रोत्रिय ब्राह्मणका पुरोहित रूपमें वरण करने के लिये इनको (आदि० २२० । १४) । सुभद्राको गोपीवेशमें सजाकर चित्ररथकी सलाह ( आदि. १६९ । ७४) । चित्ररथ- उसे द्रौपदीके पास इनका भेजना (आदि० २२० । १९)। को इनके द्वारा आगोयास्त्रका दान ( आदि. १८२ । श्रीकृष्णके साथ इनका यमुनामें जलविहार ( आदि. ३ ) । पाञ्चाल-यात्राके समय मार्गमें अर्जुन आदि २२१ । १४-२०)। खाण्डववनको जलानेके लिये इनसे पाण्डवोंसे व्यासजीकी भेंट ( आदि० १८४ । २)। ब्राहाणरूपधारी अग्निकी प्रार्थना (आदि. २२२ । ५द्रुपदनगरमें अर्जुन आदि पाण्डवोंका भातासहित एक ११)। इनका अग्निदेवसे दिव्य धनुष और रथ आदि कुम्भकारके घरमें ठहरना (आदि० १८४ । ६ )। द्रौपदीके माँगना ( आदि. २२३ । १५-२१)। अग्निका इनको खयंवरमें इन्हें लक्ष्यवेधके लिये उद्यत देखकर इनके गाण्डीव धनुष, अक्षय तरकस एवं दिव्य रथ देना सम्बन्धमे ब्राह्मणों के ऊहापोह ( आदि. १८७१२-१६)। (आदि. २२४ । ६-१४)। खाण्डव दाहके समय इन्द्र स्वयंवरमें इनका लक्ष्यवेध और द्रौपदीका इनके गलेमें आदि देवताओंके साथ इनका भयानक युद्ध (आदि. जयमाला डालना ( आदि. १८७ । २१-८७ के बाद २२६ अ०में ) । इनके द्वारा तक्षक नागकी पत्नीका दाक्षिणात्य पाठ ) । स्वयंवर में आये हुए राजाओंके साथ वध (आदि० २२६ । ६-८)। अश्वसेन (नाग) को ब्राह्मणवेशमें युद्ध करते समय श्रीकृष्णद्वारा बलरामजीको इनका शाप (आदि० २२६ । ११)। इनसे इन्द्र आदि इनका परिचय देना ( आदि. १८८ । २०)। स्वयंवरमें देवताओंकी पराजय तथा इन्द्रका स्वर्गको लौटना (आदि. कर्णसे इनका युद्ध और इनके द्वारा उसकी पराजय २२६ । १३-२३)। भयासुरको इनका अभयदान
म. ना०३
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अर्जुन
अर्जुन
(आदि० २२७ । ४४) । इन्द्रद्वारा इन्हें समस्त दिव्यास्त्र ३-११)। अर्जुनके सत्कार के लिये इन्द्रका चित्रसेनद्वारा प्रदान करने का आश्वासन (आदि. २३३ । १०-१२)। उर्वशीको संदेश एवं आदेश (वन० ४५ अ०में)। अर्जुन और मयासुरकी बातचीत (सभा १ ।२-८)। उर्वशीका कामपीड़ित होकर अर्जुनके पास जाना और मयासुरद्वारा इनको देवदत्त नामक शङ्खकी भेंट (सभा० अपने आनेका कारण बताना (वन०४६ । २२-३५)। ३। २१)। जरासंधको जीतनेके विषयमें युधिष्ठिरको अर्जुनका उर्वशीका प्रस्ताव सुनकर दोनों हाथोंसे आंख उत्लाह दिलानेके लिये वीरोचित उद्गार (सभा०१६ । ७- बंद कर लेना और इसकी ओर देखनेका कारण बताते १७) । श्रीकृष्ण और भीमसेनके साथ अर्जुनकी मगध- हुए उसे पूरुवंशकी जननी' कहना, साथ ही उसे अपने यात्रा ( सभा० २० अ०में )। इनका दिग्विजयके लिये कुन्ती, माद्री और शचीका स्थान देना (वन० लिये प्रस्थान (सभा० २५ । ७)। इनके द्वारा कुलिन्द ४६ । ३६-४७)। उनके अस्वीकार करनेपर उर्वशीका आदि देशोंपर विजय तथा भगदत्तकी पराजय (सभा. इन्हें शाप देकर लौट आना ( वन० ४६ अ०में)। २६ अ०में )। अन्तगिरि, उलू कपुर, मोदापुर आदि अर्जुनको इन्द्रका आश्वासन (वन०४६ । ५५-५९)। देशोंपर इनकी विजय ( सभा० २७ अमें )। इनकी युधिष्ठिरकी रक्षाके लिये महर्षि लोमशसे प्रार्थना किम्पुरुष, हाटक तथा उत्तर कुरुपर विजय प्राप्त करके
(वन० ४७ । ३२-३३)। इन्द्रलोकसे लौटकर इनका इनका इन्द्रप्रस्थ लौटना (सभा० २८ अमें)। राज- गन्धमादन पर्वतपर भाइयोंसे मिलना (वन० १६५ । सूसके बाद अर्जुनका द्रुपदको कुछ दूर पहुँचाना (सभा०४)। इनके द्वारा अपनी तपस्या-यात्रा और पाशुपतास्त्रकी ५५ । ४८)। कर्ण और उसके अनुगामियोंको तथा समस्त प्राप्तिका वर्णन (वन. १६७ अ०में )। इनका इन्द्रविपक्षियोंको मारने के लिये अर्जुनकी प्रतिज्ञा (सभा० लोकमें प्राप्त हुई अस्त्रशिक्षा आदिका वृत्तान्त बताना ७७ । ३२-३६) । वनयात्राके समय अर्जुनका बालू ( वन० १६८ अमें ) । निवातकवचों के साथ उड़ाते हुए जाने का रहस्य (सभा०८०।५-१५)। अपने युद्धका वर्णन ( वन० १६९ असे १७२ इनके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन (वन० १२ । ११-४३)।। अ० तक )। अपने द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोमों और इनके द्वारा द्रौपदीको आश्वासन (वन० १२ । १३३)।। कालकेयोंके वधका वृत्तान्त बताना ( वन. १७३ इनका वनमें साथ गये हुए प्रजावर्गको आश्वासन (वन. अ०में ) । इनका भाइयोंको दिव्यास्त्रोंका प्रयोग २३ । १३-१४ ) । द्वैतवनमें निवास करने के लिये युधिष्ठिर- दिखानेके लिये उद्यत होना ( वन. १७५ । ७)। को इनकी सलाह (वन० २४ । ५-११)। तपके लिये गन्धर्वोके हाथसे कौरवोंको छुड़ाने के लिये अर्जुनकी प्रतिज्ञा प्रस्थान और इन्द्रकीलपर इनकी इन्द्रसे भेंट, बातचीत ( वन० २४३ । २१)। अर्जुनका गन्धर्वोसे दुर्योधनको तथा इन्हें इन्द्रका वरदान (वन० ३७ । ३७-५८)। छोड़ने के लिये कहना और न छोड़नेपर उनके ऊपर इनकी चार मासतक उग्र तपस्या (वन०३८ । २२-२७)। बाण बरसाना (वन० २४४ । १२-२१)। इनके द्वारा इनके द्वारा मूक दानवका वध ( ३९ । ७-१६)। चित्रसेन गन्धर्वकी पराजय ( वन० २४५। १-२६)। किरातरूपधारी भगवान् शङ्करके साथ इनका युद्ध ___ जयद्रथ के अनुगामी पाँच सौ पर्वतीय महारथियोंका संहार ( वन० ३९ । ३२-६४ )। इनके द्वारा शिवजीकी (वन० २७१।८)। सौवीरदेशके बारह राजकुमारोंका स्तुति (वन० ३९ । ७४-८२)। इनकी पाशुपतास्त्रके
वध ( वन० २७१ । २७)। शिबि, इक्ष्वाकु, त्रिगत लिये महादेवजीकी प्रार्थना ( बन० ४०।८)। और सिन्धुदेशके क्षत्रियोंका विनाश ( वन० २७१ । इन्हें पाशुपतास्त्रकी प्राप्ति ( वन० ४०।२१)। इन्हें २८) । द्वैतवनमें पानी लानेके लिये जाना और सरोवरपर यमद्वारा दण्डास्त्रकी प्राप्ति ( वन० ४१ । २५-२६)। मूञ्छित होना (वन० ३१२ । २२-३२)। अर्जुनका वरुणद्वारा पाश-अस्त्रकी प्राप्ति (वन० ४१ । ३१-३२)। युधिष्ठिरको अज्ञातवासके लिये कुछ उपयोगी राज्यों के कुबेरद्वारा अन्तर्धानास्त्रकी प्राप्ति (वन० ४१।४१)। नाम बताना ( विराट० १ । १२-१३) । विराटनगरमें इन्द्रका इन्हें स्वर्गमें चलनेका आदेश (वन० ४१ । ४३. 'बृहन्नला' नामसे रहनेकी बात बताना (विराट०२।२५४४)। अर्जनके चिन्तन करनेपर मातलिद्वारा इन्द्रके
२७)। नपुंसक वेघमें राजा विराट के पास जाना और उनसे रथका आनयन और उसपर बैठकर इनका स्वर्गलोकके
अपने यहाँ रखनेके लिये प्रार्थना करना ( विराट लिये प्रस्थान (वन० ४२ । १०-३१) । स्वर्गलोकमें
११।२-९)। बृहन्नलारूपमें इनका द्रौपदीसे अपना पहुँचनेपर इनका महान् स्वागत तथा इन्द्रसभामें पहुंचकर
मनोगत दुःख प्रकट करना (विराट. २४ । २३-२५)। इनका इन्द्रदेवसे मिलना (वन० ४३ । ८-१५)। अपने आप (बृहन्नला ) को सारथि बनानेके लिये द्रौपदीइन्द्रभवनमें इन्हें अस्त्र और संगीतकी शिक्षा (वन०४४।। द्वारा इनका उत्तरको कहलाना (विराट०३६ । १०-१३)।
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अर्जुन
अर्जुन
उत्तरका सारथि बनकर युद्धके लिये प्रस्थान ( विराट ३७ । २७) । भयभीत होकर भागते हुए उत्तरको दौड़कर पकड़ना ( विराट. ३८ । ४०)। उत्तरको समझा-बुझाकर अपना सारथि बनाकर रथपर चढ़ाना (विराट० ३८ । ४६-५१)। शमीवृक्षसे अस्त्र उतारने- के लिये उत्तरको आदेश देना (विराट० ४० । ३)। उत्तरको पाण्डवोंके दिव्यायुधोंका परिचय देना ( विराट. ४३ अमें )। उत्तरकुमारसे अपने भाइयोंका परिचय देना तथा अपने दस नामोंकी पृथक-पृथक व्याख्या करना ( विराट. ४४ । १३-२२ ) । उत्तरसे अपनी नपुंसकताका कारण बताना ( विराट० ४५ । १३ के बाद दाक्षिणात्य पाठ १५ तक)। अपने अस्त्रोंका स्मरण करना
और आनेपर उनसे वार्तालाप (विराट०४५। २७-२८)। इनका शङ्ख बजाना और डरे हुए उत्तरको धीरज देना ( विराट० ४६ । ८-२३ ) । बाणोंद्वारा आचार्य द्रोणको प्रणाम करना और युद्ध की आज्ञा माँगना ( विराट० ५३ । ७ ) । कौरवसेनापर आक्रमण करके विराटकी गौओंको लौटा लेना (विराट. ५३ । २४-२५)। कर्णपर आक्रमण ( विराट० ५४ । ४-५) । इनके द्वारा। विकर्णकी पराजय ( विराट० ५४ । ९-१० ) । राजा । शत्रुतपका वध (विराट. ५४ । ११-१३)। कर्णके भाई संग्रामजित्का वध (विराट. ५४ । १८)। कर्णकी पराजय ( विराट० ५४ । १९-३६ ) । कौरवसेनाका संहार करके उसे खदेड़ देना (विराट ५५। १-३८)। उत्तरको कौरववीरोंका परिचय देकर कृपाचार्यके पास जाना (विराट० ५५ । ४१-६०)। कृपाचार्यको रथहीन और घायल करना (विराट० ५७ । ३६-३८)। द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और उन्हें घायल करना ( विराट ५८ अमें ) । अश्वत्थामाके साथ युद्ध और उनके बाणोंको समाप्त कर देना (विराट० ५९ । १-१५)। कर्णके साथ पुनः युद्ध और उसे घायल करके खदेड़ना (विराट. ६० अ० में )। उत्तरके हतोत्साह होनेपर उसे आश्वासन देकर भीष्मके पास जाना और उनका ध्वज काट गिराना (विराट०६१।१३-३५)। दुःशासनको घायल करना (विराट. ६३।४.)। विकर्णको स्थसे नीचे गिराना ( विराट. ६१ । ४२ )। दुःसह और विविंशतिको घायल करना (विराट०६१। ४५) । रणभूमिमें रक्तकी नदी प्रकट कर देना (विराट० ६२।१७-२१)। समस्त कौरव महारथियोंको पराजित करना (विराट० ६३ । १-१४)। भीष्मके साथ अद्भुत युद्ध और उन्हें घायल करके युद्धसे विमुख करना (विराट० ६४ अ० में)। पुनः उनके द्वारा विकर्णकी पराजय (विराट० ६५ । १०)। दुर्योधनकी
पराजय (विराट० ६५ । १३)। सम्मोहनास्त्रके द्वारा इनका सभी कौरव महारथियोंको मोहित कर देना (विराट० ६६ । ८-११)। युद्ध बंद होनेपर इनके द्वारा भीष्म आदि श्रेष्ठ पुरुषोंका अभिवादन एवं सम्मान (विराट०६६ । २५-२६)। दुर्योधनके मुकुटका खण्डन (विराट० ६६ । २७)। उत्तरसे अपना रहस्य न खोलने के लिये कहना (विराट० ६७ । ९.१०)। उत्तराको कौरव महारथियोंके वस्त्र देना (विराट ६९ । १६)। विराटको युधिष्ठिरका परिचय देना ( विराट. ७०। ९-२८)। अन्य चारों पाण्डवों और द्रौपदीका परिचय देना (विराट० ७१ । ३-१० )। उत्तरद्वारा अर्जनके पराक्रमका वर्णन (विराट०७१ । १९--२१)। उत्तराको पुत्रवधूके रूपमें स्वीकार करना (विराट. ७२।७)। युद्ध न करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको ही सहायकरूपमें स्वीकार करना ( उद्योग. ७ । २१)। हस्तिनापुरको लौटते हुए संजयसे कौरवोंको संदेश देना (उद्योग० ३२ अध्यायके आदिमें दाक्षिणात्य पाठ)। संजयद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (उद्योग० ५० । २६-२८)। कौरवोंसे संधिके विषयमें श्रीकृष्णके समक्ष अपने विचार प्रकट करना (उद्योग०७८ अ० में)। आधा राज्य लेकर ही संधि स्वीकार करनेके लिये श्रीकृष्णसे कहना (उद्योग० ८३ । ५१-५३)। इनके द्वारा धृष्टद्युम्नको प्रधान सेनापति बनानेका प्रस्ताव (उद्योग० १५१ । १९-२५)। युद्धके लिये कही गयी श्रीकृष्णकी बातोंका समर्थन ( उद्योग. १५४ । २५-२६) अपने पराक्रमका वर्णन करके रुक्मीकी सहायताको अस्वीकार करना ( उद्योग. १५८ । २७-३५)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर ( उद्योग० १६२ । ३७-४४)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर ( उद्योग० १६३ । ३-२३)। युधिष्ठिरके पूछनेपर त्रिलोकीको पलक मारते नष्ट करनेकी अपनी शक्ति बताना (उद्योग० १९४ । १०-११)। युधिष्ठिरकी आज्ञासे इनके द्वारा अपनी सेनाका वज्रव्यूहनिर्माण (भीष्म. १९। ७)। श्रीकृष्णकी कृपासे विजय होती है। ऐसा कहकर युधिष्ठिरको आश्वासन ( भीष्म० २० । ७-१७)। इनके द्वारा दुर्गादेवीका स्तवन और वरप्राप्ति (भीष्म० २३ । ४-१९)। इनका श्रीकृष्णसे दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहना ( भीष्म० २५ । २१)। स्वजनोंको देखकर मोहग्रस्त हो युद्धसे खेद, धर्म-नाशका भय और दोष प्रकट करते हुए धनुष त्यागकर बैठ जाना (भीष्म० २५ । २६-४७)। किंकर्तव्यविमूढ़ होकर श्रीकृष्णसे अपने कर्तव्यके विषयमें शिक्षा देनेके लिये प्रार्थना करते हुए युद्ध न करनेका निश्चय करके बैठ
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( २० )
जाना ( भीष्म० २६ । ४-९ ) । अर्जुनका भगवान् से गीताके उपदेश मुनना ( भीष्म० २६ । ११ से ४२ अ० तक ) । अर्जुनका भगवान् से स्थितप्रज्ञ पुरुषके लक्षण पूछना ( भीष्म० २६ ५४ ) । ज्ञान और कर्मकी श्रेष्ठता के विषय में अर्जुनकी शङ्का ( भीष्म० २७ । १-२ ) । बलात्कारसे पाप कराने में हेतु क्या है, इस विषय में इनका प्रश्न ( भीष्म० २७ । ३६ ) । भगवान् श्रीकृष्णका जन्म आधुनिक मानकर अर्जुनका संदेह करना ( भीष्म० २८ । ४ ) | संन्यास और निष्काम कर्मयोगकी श्रेष्ठताके विषय प्रश्न ( भीष्म० २९ । १ ) | योगभ्रष्ट पुरुषकी गति के सम्बन्ध में अर्जुनका प्रश्न और संशय-निवारण के लिये भगवान् से प्रार्थना ( भीष्म० ३० । ३७ - ३९ ) । ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादिके विषयमें इनके सात प्रश्न ( भीष्म० ३२ । १-२ ) । अर्जुनद्वारा भगवान्की स्तुति और उनके प्रभावका वर्णन करते हुए उनकी विभूतियों को जाननेकी इच्छा प्रकट करना तथा भगवच्चिन्तनके विषय सात प्रश्न करके योगशक्ति और विभूतियों को विस्तारसे कहने के लिये प्रार्थना करना ( भीष्म० ३४ । १२- १८ ) । अपने मोहकी निवृत्ति मानते हुए अर्जुनद्वारा भगववचनोंकी प्रशंसा एवं विश्वरूप देखनेकी इच्छा प्रकट करके उस रूपका दर्शन करानेके लिये भगवान् से प्रार्थना ( भीष्म ०३५ । १-४ ) । अर्जुनका भगवान् के विश्वरूपका दर्शन और स्तुति करना ( भीष्म० ३५ । १५-३१ ) । भयभीत अर्जुनद्वारा भगवान्की स्तुति और चतुर्भुजरूपका दर्शन करानेके लिये प्रार्थना ( ३५ । ३५-४६ ) | साकार - निराकार के उपासकों में कौन श्रेष्ठ है, यह जानने के लिये अर्जुनका प्रश्न (भीष्म० ३६ । १) । गुणातीत पुरुष के विषय में अर्जुनके तीन प्रश्न ( भीष्म० ३८ । २१ ) | शास्त्रविधिको त्यागकर श्रद्धासे पूजन करनेवाले पुरुषों की निष्ठा के विषय में इनका प्रश्न ( भीष्म० ४१ । (१) । संन्यास और त्यागका तत्त्व जाननेके लिये अर्जुनका प्रश्न ( भीष्म० ४२ | १ ) | अर्जुन और श्रीकृष्ण के प्रभावका कथन ( भीष्म ०४२।७८) । कवच उतारकर पैदल ही कौरवसेनाकी ओर जाते हुए युधिष्ठिरसे उधर जानेका कारण पूछना ( भीष्म ०४३ । १६ ) । प्रथम दिन के युद्ध में इनका भीष्म के साथ द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ४५। ८-११ ) । भीष्म के साथ घोर युद्ध (भीष्म० ५२ अ०में) । दूसरे दिन के युद्धमें अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए कौरबसेनाको खदेड़ देना (भीष्म० ५५ । १७३५ ) । भीष्मको मारनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको रोककर उनसे कर्तव्य पालन के लिये प्रतिज्ञा करना ( भीष्म ० ५९ । १०१-१०३) । इनके द्वारा कौरवसेनाकी पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाति ( भीष्म ०५९।१११ - १३२ ) । भीष्म के साथ द्वैरथ युद्ध (भीष्म ०६०।२५ - २९) | भीष्म के साथ
अर्जुन
घमासान युद्ध ( भीष्म० ७१ अ० में ) । अश्वत्थामाके साथ युद्ध ( भीष्म० ७३ । ३ - १६) । इनके द्वारा त्रिगर्तराज सुशर्माकी पराजय और कौरव सेना में भगदड़ ( भीष्म० ८२ । १ ) | इनका अद्भुत पराक्रम (भीष्म० ८५१ - ८ ) । इनके द्वारा रथसेनाका संहार (भीम० ८९ । ३५-३८) । इरावान् के वधसे इनके दुःखपूर्ण उद्वार ( भीष्म० ९६ । २ - १२) | दुर्योधन के प्रति भीष्मद्वारा इनके पराक्रमका वर्णन (भीष्म० ९८ ।४१५) । द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ युद्ध ( भीष्म० १०२ । ६-२३) । इनके द्वारा त्रिगर्तोकी पराजय (भीष्भ० १०४ । ४८ ) । श्रीकृष्ण के चेतावनी देनेवर भीम के साथ युद्ध ( भी०म० १०६ । ४२ - ५४ ) । भीष्मको मारने के लिये उद्यत श्रीकृष्ण से कर्तव्यपालन के लिये प्रतिज्ञा करना (भीम ० १०६ । ७०-७५) । भीष्मवध के लिये उद्यत न होना (भीष्म० १०७ । ९१-९५ के बाइक ) | श्रीकृष्ण के समझानेपर भीष्मवधके लिये उद्यत होना (भीष्म० १०७ १०३ - १०६) । भीष्मara लिये शिखण्डीको प्रोत्साहन देना (भीष्म० १०८।५२६० इनके भयसे पीड़ित होकर कौरवसेनाका पलायन ( भीष्म० १०९/१३-१४ ) । दुःशासनके साथ इनका द्वन्द्रयुद्ध ( भीष्म० ११० । २८ - ४६ १११ । ५७-५८ ) । इनका अद्भुत पुरुषार्थ ( भीष्म० ११४ अ० में ) । भगदत्तके साथ अर्जुनका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ११६ | ५६ - ६० ) । भीष्म के साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११६ । ६२ - ७८ ) । भीष्मके साथ घोर युद्ध और उन्हें मूर्छित करना (भीम० ११७ । ३५६४) । दुःशासन के साथ युद्ध ( भीष्म० ११७ १२ - १९ ) । शिखण्डीको आगे करके भीष्मपर आक्रमण ( भीष्म० ११८ ॥ ३७-५४) । भीष्मको रथसे गिराना (भीष्म० ११९।८७ ) । वाणशय्या पर सोये हुए भीष्मको तीन बाण मारकर तकिया देना ( भीष्म० १२० । ४५) । दिव्यास्त्रद्वारा भीष्म के मुखमें शीतल जलकी धारा गिराना ( भीष्म० १२१ । २४-२५ ) । धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन ( होण० १० । १५२८) । नरस्वरूपमें इनकी महिमाका वर्णन (द्रोण० ११ । ४१४२ ) । द्रोणाचार्यद्वारा पकड़े जानेके भयसे भीत युधिष्ठिरको आश्वासन (द्रोण० १३ । ७ - १४) । द्रोणाचार्य के साथ युद्ध और उनकी सेनाको पराजित करना (द्रोण० १६ । ४३(५१ ) | युधिष्ठिरकी रक्षाका भार सत्यजित् को सौंपना (द्रोण० १७ । ४४) । संशतकोंके साथ युद्ध और सुधन्वाका वध ( द्रोण० १८ | २२ तथा १९ अ० में ) । इनके द्वारा संशप्तकोंका वध ( द्रोण० २७ । १८ - २६ ) । सुशर्मा के भाईका वध और सुशर्मा की पराजय (द्रोण० २८ । ८-१० ) । भगदत्त के साथ युद्ध ( द्रोण० २८ । १४-३० से २९ अ० तक ) । श्रीकृष्ण से वैष्णवास्त्र का रहस्य पूछना (द्रोण० २९ । २१-२४ ) | इनके द्वारा भगदत्तके हाथी सुप्रतीकका वध (द्रोण० २९ । ४३) । अर्जुनके द्वारा भगदत्तका व
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अर्जुन
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अर्जुन
(द्रोण० २९ । ४७-५०)। वृपक और अचलका वध (द्रोण ३०।११ ) । इनका शकुनिकी मायाका नाश करते हुए उसे परास्त करना ( द्रोण० ३० । १५-२८) । कर्ण के साथ युद्ध (होण०३२।५२-६२)। इनके द्वारा कर्णके तीन भाइयोंका वध (द्रोण०३२। ६०-६१)। अभिमन्युकी मृत्युपर विलाप (द्रोण० ७२ । १९-६५)। भाइयोंपर क्रोध प्रकट करना (द्रोण ० ७२ । ७६-८३) । युधिष्ठिरके मुखसे अभिमन्युवधका वृत्तान्त सुनकर मूर्छित होना (द्रोण ०७३ । १६-१७)। जयद्रथवधकी प्रतिज्ञा करना (द्रोण०७३।२०-४९)। श्रीकृष्णसे जयद्रथवधके विषयमें वीरोचित वचन कहना (द्रोण०७६ अ. में)। श्रीकृष्णसे पुत्रवधू उत्तरासहित सुभद्राको समझानेके लिये कहना (द्रोण०७७१९-१०)। इनके द्वारा शहरजी- का निशोथ पूजन (द्रोण०७९॥ १-४)। (अर्जुनका स्वप्न-) खप्नमें श्रीकृष्णका आना और उनकी सम्मतिसे उनके साथ शिवजीके पास जाकर प्रणाम करना (द्रोण०८०।२-४९)। इनके द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति ( द्रोण ८०। ५५६४)। भगवान् शिवसे दिव्यास्त्रकी याचना (द्रोण००१३) पाशुपतास्त्र की प्राप्ति और श्रीकृष्णसहित शिविरको लौटना (स्वप्नकी समाप्ति) (द्रोण० ८१।२१-२४) । पाण्डवसभाम अपना खप्न सुनाना(द्रोण०८४।६) श्रीकृष्ण और सालकिके साथ रणयात्रा (द्रोण०८४ । २१)। सात्यकिको युधिष्ठिरको रक्षाकाभार सौंपना (द्रोण०८४।२७-३४)। युद्धके आरम्भमें इनके द्वारा शङ्खनाद (द्रोण० ८८ । २०)। दुर्मर्पणकी गजसेनाका संहार (दंण० ८९ अ० में)। इनका दुःशासन के साथ युद्ध और उसका पलायन (द्रोण० ९० अमें )। इनके द्वारा द्रोणाचार्यका सम्मान (द्रोण० ९१।३-६)। द्रोणाचार्य के साथ युद्ध और उन्हें छोड़कर आगे बढ़ना (द्रोण० ९१।११-३२, ९२ । ६-१४)। कृतवर्मा के साथ युद्ध (दोण ० ९२ । १६-२६)। श्रुतायुधके साथ युद्ध (द्रोण० ९२ । ३५-४३)। काम्बोजराज सुदक्षिणके साथ युद्ध और उसका वध (द्रोण० ९२ । ६१७१)। श्रुतायु और अच्युतायुके साथ इनका युद्ध
और उन दोनोंका वध (द्रोण.९३।७-२४)। इनके द्वारा नियुतायु और दीर्घायुका वध (द्रोण०९३ । २९) । म्लेच्छसेनाका संहार (द्रोण० ९३ । ३१-५९)। श्रुतायु और अम्बष्ठके साथ युद्ध और अम्बष्ठका वध (द्रोण०९३॥ ६०६९) । विन्द-अनुविन्दका वध (द्रोण० ९९ । २५.२९)। संग्रामक्षेत्रमें इनका सरोवर प्रकट करना(द्रोण०९९ ॥५९)। रणक्षेत्रमें बाणमय ग्रहका निर्माण (द्रोण० ९९ । ६२)। श्रीकृष्णके प्रोत्साहन देनेपर दुर्योधनको मारनेके लिये उद्यत होना (द्रोण. १०२।१९-२१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ) दुर्योधनके साथ युद्ध और उसे परास्त करना (द्रोण० १०३। २१-३२ ) । इनका कौरव महारथियों के साथ घोर युद्ध
(द्रोण० १०४ अ०में )। इनके ध्वजका वर्णन (द्रोण०१०५। ८-९) । इनका नौ महारथियोंके साथ युद्ध (द्रोण० १०५। ३३-३८)। कर्ण और अश्वत्थामाको खदेड़ना(द्रोण०१३९ । ११२-१२१)। सात्यकिको देखकर अर्जुनकी चिन्ता (द्रोण०१४१।२६-३७)। श्रीकृष्णकी प्रेरणासे भूरेश्रवाकी दाहिनी भुजा काटना (द्रोण० १४२ । ७२) । भूरिश्रवाको उत्तर देना (द्रोण. १४३ ॥१६-३२)। इनका सात कौरव महारथियों के साथ युद्ध (द्रोण०१४५ अ०में)। इनके द्वारा कर्णकी पराजय(द्रोण० १४५। ८३)। कौरवसेनाका भीषण संहार (द्रोण १४६ अ० में )। इनके द्वारा जयद्रथका सिर काटकर उसे बाणद्वारा उसके पिता वृद्धक्षत्रकी गोदमें डालना (द्रोण० १४६। १२२-१२७) । कृपाचार्य और अश्वत्थामाको युद्ध में पराजित करना(द्रोण०१४७१९")। कृपाचार्यके मूञ्छित होनेपर विलाप करना (द्रोण० १३७।१३-२७) । भीमसेनको कटुवचन सुनानेके कारण कर्णको फटकारना (द्रोण०१४८ । ८-२२)। कर्णपुत्र वृषसेनके वधकी प्रतिज्ञा करना (द्रोण०१४८ । १९-२०)। कर्णके साथ युद्ध करके उसे पराजित करना(द्रोण०१५९।६२६४) । द्रोणाचार्य के साथ युद्ध और कौरवसेनाको खदेड़ना (द्रोण० १६१ अ०में)। इनके द्वारा राक्षसराज अलम्बुषकी पराजय(द्रोण०१६७ । ४७)। शकुनि और उलूककी पराजय (द्रोण० १७१। ३८-४०) । कर्णके पराक्रमसे भयभीत हुए
युधिष्ठिरसे प्रेरित हो इनका श्रीकृष्णसे अपना कर्तव्य पूछना (दोण. १७३ । २९-३४)। घटोत्कचको कर्णके साथ युद्ध करने के लिये आदेश देना(द्रोण० १७३। ६०-६२)। घटोत्कचवधसे प्रसन्न हुए श्रीकृष्णसे उनकी प्रसन्नताका कारण पूछना (द्रोण० १८०। ६-१०)। जरासंध आदिके वधके विषयमें श्रीकृष्णसे प्रश्न करना (द्रोण० १८१।१)। उभयपक्षके सैनिकोंको सो जाने के लिये आदेश देना (होण. १८४ । २६-२८)। द्रोणाचार्यके साथ घोर युद्ध करना(द्रोण०१८८१२४-५३)। श्रीकृष्णसे सात्यकिकी प्रशंसा करना (द्रोण०१९१ । ४८-५३)। अश्वत्थामाके क्रोध और गुरुहत्याके भीषण परिणामका वर्णन करना (द्रोण०१९६ । २६-५३)। नारायणास्त्र, गौ और ब्राह्मणके सामने गाण्डीव रख देनेकी बात कहना (द्रोण० १९९ । ५३)। व्यासजीसे अपने आगे-आगे चलनेवाले त्रिशूलधारी पुरुषके विषयमें प्रश्न करना (द्रोण० २०२ | ४-८)। युधिष्ठिरके
आदेशसे अर्धचन्द्रव्यूह बनाकर कर्णके साथ युद्ध करनेके लिये प्रस्थान (कर्ण० ११ । २८)। अश्वत्थामाके साथ घोर युद्ध और उसे परास्त करना (कर्ण०१६ असे १७ अ० तक)। इनके द्वारा हाथीसहित दण्डधारका वध (कर्ण० १८।१३)। इनके द्वारा हाथीसहित दण्डका वध (कर्ण० १८ । १९)। संशप्तकोंका भीषण संहार (कर्ण० १९ । २-२६) ।
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( २२ )
अर्जुन
सुशर्माके छः भाइयों ( सत्यसेन, चन्द्रदेव, मित्रदेव. अश्वत्थामाके साथ युद्ध ( शल्य० १४ अमें )। श्रतंजय, सौश्रति और मित्रवर्मा) का वध(कर्ण०२७ । १२- श्रीकृष्णके समक्ष दुर्योधनके दुराग्रहकी निन्दा (शल्य. २५)। कौरवसेनाकासंहार ( कर्ण०३० । १५-३६)। २४ । १६-५०)। कौरवोंकी रथसेनाका संहार ( शल्य. युधिष्ठिरके आदेशसे कर्णपर आक्रमण ( कर्ण० ४६ ।३७)। २५। १-१४)। दुर्योधनको मारनेके विषयमें श्रीकृष्णसे इनके द्वारा संशप्तकों का संहार (कर्ण० ४७ अ०में)। वार्तालाप ( शल्य० २७ । १३-२७) । सत्यकर्मा, सुशर्माके साथ युद्ध और दस हजार संशप्तकोंका वध सत्येषु और पैंतालीस पुत्रोंसहित सुशर्माका वध ( शल्य. (कर्ण० ५३ अमें)। संशतकोंका संहार और सुदक्षिणके २७ । ३८-४८)। श्रीकृष्णसे भीमसेन और दुर्योधनके भाईका वध (कर्ण० ५६।१००-११७)। अश्वत्थामाके साथ बलाबलके विषयमें पूछना (शल्य. ५८ ॥२)। भीमसेनको युद्ध और उसे परास्त करना (कर्ण० ५६ । १२१-१४२)।
अपनी जाँघ ठोंककर संकेत करना (शल्य० ५८ । २१)। श्रीकृष्णसे युधिष्ठिरको देखनेके लिये उनके पास चलनेका युद्ध के पश्चात् इनके रथका दग्ध होना (शल्य० ६२ । आग्रह ( कर्ण० ५८ ॥३-७)। धृष्टद्युम्नको अश्वत्थामा- १३ ) । श्रीकृष्णसे अपने रथके दग्ध होनेका कारण के चंगुलसे छुड़ाना और अश्वत्थामाको पराजित करना पूछना (शल्य० ६२ । १६-१७) । अश्वत्थामासे भीमसेन(कर्ण० ५९ । ५४-६१)। इनके द्वारा अश्वत्थामाकी __ की रक्षाके लिये श्रीकृष्णके साथ जाना ( सौप्तिक. पराजय ( कर्ण. ६४ । ३१-३२ )। श्रीकृष्णके साथ १३ । ६)। अश्वत्थामाका अस्त्र-शान्त करनेके लिये युधिष्ठिरके पास जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करना ब्रह्मास्त्रका प्रयोग ( शल्य० १४ । ५-६) । व्यासजीको (कर्ण०६५। १७)। अबतक कर्णके न मारे जानेका देखकर अपना अस्त्र लौटा लेना (सौप्तिक० १५। २-४) कारण युधिष्ठिरसे बतलाते हुए उसके वधकी प्रतिज्ञा गान्धारीके शापके भयसे श्रीकृष्णके पीछे छिपना (स्त्री. करना (कर्ण०६७ अमें ) । युधिष्ठिरका वध करने- १५।३१)। धनकी महत्ता दिखाते हुए राजधर्म पालनके को उद्यत होना (कर्ण० ६९ । ९-१५)। श्रीकृष्णसे । लिये युधिष्ठिरको समझाना ( शान्ति. ८ अ.में) अपनी प्रतिज्ञा पूर्तिका उपाय पूछना ( कर्ण० ६९ । ६७-- युधिष्ठिरको समझाते हुए गृहस्थधर्मके पालनपर जोर देना ७५)। 'तू' शब्द कहकर युधिष्ठिरको कटुवचन सुनाना ( शान्ति० ११ अमें) । युधिष्ठिरसे इनके द्वारा (कर्ण०७० । २-२१)। युधिष्ठिरका अपमान करनेके राधधर्मकी महत्ताका वर्णन करना (शान्ति० १५ कारण आत्महत्याके लिये तलवार खींचना ( कर्ण० अ०में)। राजा जनक और उनकी रानीका दृष्टान्त ७०।२३)। युधिष्ठिरसे क्षमायाचना(कर्ण०७०।३८-३९)। देकर युधिष्ठिरको संन्यास लेनेसे रोकना (शान्ति० १८ युधिष्ठिरसे कर्ण वधकी प्रतिज्ञा करना (कर्ण० ७०। अमें ) । युधिष्ठिरसे क्षत्रिय-धर्मकी प्रशंसा करना ४०-४१ )। युधिष्ठिरके चरणोंमें प्रणिपात और कर्ण- (शान्ति० २२ अ०में)। युधिष्ठिरका शोक दूर करनेके वधकी प्रतिज्ञा करना ( कर्ण०७१ । ३५-३०)। कर्ण- लिये श्रीकृष्णसे प्रार्थना करना (शान्ति० २९ । २-३)। वधके लिये मार्गमें जाते समय चिन्तामग्न होना (कर्ण अर्जुनको युधिष्ठिरका शत्रुओं तथा दुष्टोंके दमनका कार्य ७२ । १६.१७ )। श्रीकृष्णसे इनके वीरोचित उद्गार । सौंपना (शान्ति० ४१ । १३)। युधिष्ठिरका इन्हें रहने के (कर्ण० ७४ अ०में ) । इनके द्वारा कौरवसेनाका लिये दुःसासनका भवन देना (शान्ति० ४४ । ८-९)। भीषण संहार (कणे. ७७ । ५-२०)। श्रीकृष्णसे कर्ण- युधिष्ठिरके पूछनेपर त्रिवर्गमें अर्थकी प्रधानता बताना के पास चलनेके लिये कहना ( कर्ण० ७९ । ७-१२)। ( शान्ति० १६७। ११-२०)। श्रीकृष्णसे उनके नामोंकी इनके द्वारा कौरवसेनाका विध्वंस (कर्ण० ७९१७१-९० व्युत्पत्ति पूछना ( शान्ति० ३४१ । ५-७)। श्रीकृष्णसे से ८० अ० तक; ८१ । ५-२०) । कौरवोंको पुनः गीताका ज्ञान पूछना (आश्व०१६ । ५-७)। ललकारते हुए वृषसेनका वध ( कर्ण० ८५ । ३७)। श्रीकृष्णसे परब्रह्मके स्वरूपके विषयमें प्रश्न करना युद्धके लिये इनका कर्णके सम्मुख उपस्थित होना ( कर्ण (आश्व० ३५ । १)। श्रीकृष्णके प्रति इनके प्रशंसा८६ । २३)। कर्णवधके लिये श्रीकृष्णसे वार्तालाप सूचक वचन ( आश्व० ५२ । ६-२४) । श्रीकृष्णकी
० ८७ । १०५-११७ )। कर्णके साथ इनका द्वारका-यात्राके लिये युधिष्ठिरसे आज्ञा माँगना ( आश्व० द्वैरथ युद्ध (कर्ण० ८९ अ०से ९० अ० तक)। इनके ५२। ४२-४३)। व्यासजीके समझानेसे पुत्रशोकसे निवृत्त द्वारा राजकुमार सभापतिका वध (कर्ण० ८९ । ६४)। होकर संतोष-लाभ करना (आश्व० ६२। १८)। धन कर्णके सर्पमुख बाणसे इनके किरीटका गिरना ( कर्ण० लानेके विषयमें पाँचों भाइयोंमें बातचीत; और भाइयों के ९०। ३३) । इनके द्वारा कर्णका वध (कर्ण० ९१।५०)। साथ जाकर इनका हिमालयसे मरुत्तका धन ले आना रथसेनाका विध्वंस (कर्ण. ९३ । ४२-४६ )। ( आश्व० ६३ अ०से ६५ अ० तक)। अर्जुनकी
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( २३ )
अर्धकीलतीर्थ
अश्वरक्षाके लिये नियुक्ति ( आश्व० ७२ । १६ )। (मौसल० ७ । २८-३१)। अर्जुनका श्रीकृष्णपत्नियों सेनासहित अर्जुनका अश्वकी रक्षाके लिये उसके पीछे पीछे तथा द्वारकावासियोंको लेकर इन्द्रप्रस्थकी ओर प्रस्थान पैदल ही जाना (आश्व० ७३ । ७-८) । अर्जुनके द्वारा (मौसल०७ ॥३२)मार्गमें लुटेरोंका आक्रमण और अर्जुन त्रिगतीकी पराजय, सूर्यवर्माकी हार, केतुवर्माका वध, धृत
आदिका उनसे स्त्रियोंकी रक्षा करनेमें असमर्थ होना । वर्माका घायल होना आदि (आश्व०७४ अ.में)। प्राग्ज्यो
शेष व्यक्तियोंको लेकर जाना | मार्तिकावतमें कृतवर्माके तिषपुरमें भगदत्तके पुत्र बज्रदत्तकी पराजय तथा उसके
पुत्रको सरस्वतीके तटपर सात्यकिके पुत्रको उन प्रदेशीका
राजा बनाना और वज्रको इन्द्रप्रस्थ अभिषिक्त करना हाथीका विनाश (आश्व०७६।१७-१९)। अर्जुनका सैन्धवों
(मौसल०७ । ५१-७२)। अर्जुनका व्यासजीसे बीती बातें के साथ युद्ध और दुःशलाके अनुरोधसे उसकी समाप्ति
बताना और व्यासजीका उन्हें आश्वासन देते हुए पाण्डवों(आश्व० ७७-७८ अ० )। अर्जुन और बभ्रुवाहनका युद्ध को महाप्रस्थानके लिये प्रेरित करना ( मौसल० ८ तथा अर्जुनकी मृत्यु (आश्व०७९ अमें)। उलूपीके प्रयत्नसे अमें) अर्जुनका भाइयोसहित महाप्रस्थान और मार्गमें संजीवनी मणिके द्वारा अर्जुनका पुनर्जीवन ( आश्व० ८० अग्निदेव और भाइयोंके कहनेसे गाण्डीव धनुषको जलअमें )। उलूपीसे उसके और चित्राङ्गदाके युद्धस्थलमें में डाल देना ( महाप्रा० १ । १-४२ ) । मार्गमें आनेका कारण पूछना (आश्व०८१। में)। अर्जुनकीपराजय
अर्जुनका गिरना और युधिष्ठिरका उनके गिरनेका कारण का रहस्य तथा उलूपी और चित्राङ्गदासे विदा लेकर उनका
बताना ( महाप्रा० २ । १४-२२)। अर्जुनका भगवान् पुनः अश्वके पीछे जाना (आश्व० ८१ अमें)। अर्जुनद्वारा
श्रीकृष्णके पार्षदरूपसे दर्शन (स्वर्गा० ४ । ४)। मगधराज मेवसंधिकी पराजय (आश्व० ८२ अ०में)। शकुनि- महाभारतमें आये हुए अर्जुनके नाम-ऐन्द्रि, भारत, पुत्रकी पराजय, शकुनिकी स्त्रीके अनुरोधसे अर्जुनका युद्ध
भीमानुज, भीमसेनानुज, बीभत्सु, बृहन्नला, शाखामृगबंद कर देना (आश्व०८४ अमें)। श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे
ध्वज, शक्रज, शक्रनन्दन, शक्रसूनु, शक्रात्मज, शक्रसुत.
श्वेताश्व, श्वेतहय, श्वेतवाह, श्वेतवाहन, देवेन्द्रतनय, अर्जुनका संदेश कहना ( आश्व० ८६।९-२१)। अर्जुनके
धनंजय, गाण्डीवभृत्, गाण्डीवधन्वा, गाण्डीवधारी, विषयमें श्रीकृष्ण-युधिष्ठिरकी बातचीत, अर्जुनके दूत तथा
गाण्डीवी, गुडाकेश, इन्द्ररूप, इन्द्रसुत, इन्द्रात्मज) अर्जुनका हस्तिनापुरमें आना (आश्व० ८७ । १-२२)। इन्द्रावरज, जय, जिष्णु, कपिध्वज, कपिकेतन, कपिप्रवर, धृतराष्ट्रकै श्राद्ध और दानके लिये धन माँगनेपर अर्जुनकी कपिवरध्वज, कौन्तेय, कौरव, कौरवश्रेष्ठ, कौरव्य, सहमति तथा भीमसेनके अस्वीकार करनेपर अर्जुनका उन्हें कौरवेय, किरीटभृत्, किरीटमाली, किरीटवान्, किरीटी, समझाना (आश्रम० ११-१२ अ०)। यादवोसहित कृष्ण, कृष्णसारथि, कुन्तीपुत्र, महेन्द्रसूनु, महेन्द्रात्मज) इनका वनमें जाकर धृतराष्ट्र और माता कुन्ती आदिके। नर, पाकशासनि-पाण्डव, पाण्डवेय, पाण्डुनन्दन पार्थ, पौरव, दर्शन करना तथा व्यासजीके द्वारा मृत व्यक्तियोका फाल्गुन, प्रभञ्जनसुतानुज, सव्यसाची सुरसूनु, तापत्य:त्रिदशेआवाहन होनेपर उन सबसे मिलना हस्तिनापुरको लौटना श्वरात्मज, वानरध्वज, वानरकेतन, वानरकेतु, वानरवयंकेतन, तथा धृतराष्ट्र आदिके दग्ध होनेके समाचारसे दुखी होना
वासवज, वासवनन्दनावासवात्मज, वासवि, विजय आदि । और उनके श्राद्ध आदि करना (आश्रम०२३-३९ अजुनकी पत्नियोके नाम-द्रौपदी, उलूपी, चित्राङ्गदा अ०तक)। अर्जुन का दारुकके साथ द्वारका जाना
और सुभद्रा। श्रीकृष्णपत्नियोंसे मिलना और उन्हें धीरज बँधाकर
इनके पुत्रोके नाम क्रमशः-श्रुतिकीर्ति, इरावान्, बभ्रुवाहन
और अभिमन्यु। वसुदेवके पास जाना ( मौसल. ५ अमें ) ।
(२) हैहयराज कार्तवीर्य, यमसभाके एक सदस्य (सभा० अर्जुनसे मिलकर वसुदेवका विलाप करना और उनके
। ११)। ( विशेष देखिये कार्तवीर्य) (३) लिये कहे गये श्रीकृष्णका संदेश सुनाना (मौसल.६ अ०में ) । 'अब पाण्डवोंके भी परलोकगमनका
- यमसभामें बैठनेवाले एक राजा (सभा० ८ । १७)। समय आ गया है, हम यहाँके लोगोंको इन्द्रप्रस्थ अर्जुनक-एक व्याध, इसका गौतमी, सर्प, मृत्य और जायगे'-ऐसा वसुदेवसे कहकर अर्जुनका दारुक तथा कालक साथ सवाद ( अनु० १।२१-६८)। मन्त्रियोंको यात्राकी तैयारीके लिये आदेश देना तथा अर्जुनवनवासपर्व-आदिपर्वका अवान्तर पर्व अध्याय रातमें श्रीकृष्णभवनमें ठहरना (मौसल०७।१-१४) २१२ से २१७ तक। वसुदेवका परलोकवास और अर्जुनद्वारा उनका दाह-संस्कार अर्जुनाभिगमनपर्व-वनपर्वका अवान्तर पर्व, अध्याय एवं वृष्णिवंशी कुमारोद्वाराजलदान (मौसल०७। १५- १२ से ३७ तक। ५७) । अर्जुनका यादव-विनाशस्थलमें जाकर छोटे-बड़ेके अर्थ-धर्मद्वारा श्रीदेवीसे उत्पन्न (शान्ति० ५९ । १३२ )। क्रमसे सबका दाह करना, फिर श्रीकृष्ण-बलरामके शरीरों- अर्धकीलतीर्थ-दर्भामुनिके द्वारा प्रकट किया हुआ एक का अनुसंधान कराकर उनका भी दाह-संस्कार करना तीर्थ (वन० ८३ । १५३)।
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अवुक
(
२४ )
अवन्ती
अर्बुक-एक देश, जिसे सहदेवने जीता था ( सभा० ३१ । ४७; २५ । ६१-६२ )। कुन्तिभोजके साथ युद्ध १४)।
(द्रोण. ९६ । १८-२०)। भीमसेनके साथ युद्ध अर्बुद-(१) गिरिवजनिवासी एक नाग (सभा० २१ ।
(द्रोण. १०६ । १६-१७)। भीमसेनके साथ मायामय ९)। (२) आबू पर्वत (वन० ८२ । ५५)। युद्ध और उनसे परास्त होकर भागना (द्रोण० ५०८ । अर्यमा-बारह आदित्योंमें एक, माता अदिति और पिता
१३-४२)। इसका दूसरा नाम शालकटकट' था। यह कश्यप हैं ( आदि. ६५ । १५, शान्ति० २०८ ।
घटोत्कचद्वारा मारा गया (द्रोण० १०९ । २२-३१)। (२) कौरवपक्षका एक श्रेष्ठ राजा, जो सात्यकिद्वारा मारा
गया (द्रोण. १४० । १८)। (३) एक राक्षसराज, अर्वावसु-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें
जो अर्जुनसे पराजित हो युद्धका मैदान छोड़कर भाग गया विराजते थे (सभा०४।१०)। अर्वावसुकी तपस्या
(द्रोण० १६७ । ३७-४७)। (४) एक राक्षस, द्वारा परावसुकी ब्रह्महत्याके पापसे मुक्ति । अर्वावसुद्वारा
जटासुरका पुत्र; इसका दुर्योधनसे युद्ध के लिये आज्ञा माँगना सूर्यसम्बन्धी रहस्यमय वेदमन्त्रका अनुष्ठान तथा इससे
(द्रोण० १७४ । ६-८)। घटोत्कचके हाथसे युद्ध में संतुष्ट हुए सूर्यदेवताका अर्वावसुको मनोवाञ्छित वरदान
मारा जाना (द्रोण० १७४ । ३७-३८)। (वन० १३८ अ० मे)। हस्तिनापुर जाते समय मार्गमें इनका श्रीकृष्णसे भेंट करना ( उद्योग० ८३ । ६४ के
अलम्बुषा-एक अप्सरा, जो महर्षि कश्यप और प्राधाकी बाद दाक्षि० पाठ)। उपरिचरके यज्ञमें इनका सदस्यता
पुत्री थी (आदि० ६५ । ४९)। इसने अर्जुनके ग्रहण (शान्ति. ३३६ । ७)। ब्रह्मतेजसे सम्पन्न,
जन्मोत्सवपर अन्य अप्सराओंके साथ आकर नृत्य किया लोकस्रष्टा तथा रुद्र आदिके समान प्रभावशाली ऋषियोंमें
(आदि० १२२ । ६.)। इसने महर्षि दधीचको इनकी गणना (अनु. १५० । ३०-३२)।
मोहित किया (शल्य० ५१ । ७-८)। अलकनन्दा-देवलोककी गङ्गा। गङ्गाजी जब देवलोकमें अलर्क-(१) काशी और करूपके अधिपति । ये बड़े विचरण करती हैं, तब हनका नाम अलकनन्दा होता है
सत्यप्रतिज्ञ थे (बन० २५ । १३)। ये यमराजकी सभाके और जब पितृलोकमें बहती हैं, तब ये वैतरणी कहलाती
एक सदस्य हैं (सभा०८।१८)। इन्होंने राज्य और हैं तथा इस लोकमें आकर इनका नाम गङ्गा होता है
धनको त्यागकर धर्मका आश्रय लिया, मांस भक्षणका (आदि० १६९ । २२)। गढ़वाल जिलेकी अलकनन्दा
निषेध किया ( अनु० ११५। ६४)। अपनी इन्द्रियोंपर नामवाली नदी--जो विष्णुगङ्गा (धवलगङ्गा या धौली)
विजय पानेका प्रयत्न और इन्द्रियोंद्वारा उत्तर (आश्व० और सरस्वती नामक छोटी नदियोंकी संयुक्त धारासे बनी
३०। ५-२५)। ध्यानयोगद्वारा इन्हें परमसिद्धिकी है । यह गङ्गाकी सहायक नदी है ( हिंदी महाभारत
प्राप्ति ( आश्व. ३० । २८-२९ ) । (२) एक परिशिष्ट पृष्ट ६)।
भयंकर कीट, जिसने कर्णकी जाँघमें काटा था (शान्ति.
३। १३)। अलका-कुबेरकी नगरी और पुष्करिणी ( आदि० ८५ । ९; सभा० १०।८)।
अलाताक्षी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६।८)। अलम्बतीर्थ-एक दिव्य तीर्थ, जहाँ गरुड़जी कच्छप और
अलायुध-एक राक्षम, जो बकासुरका भाई और कौरवहाथीको लेकर गये ( आदि० ३९ । ३९ )।
पक्षका योद्धा था (द्रोण० ९५ । ४६, १७६ । ६)।
इसका घटोत्कचके साथ युद्ध (द्रोण०९६ । २७-२८)। अलम्बुष-(१) कौरवपक्षका योद्धा एक महारथी राक्षसराज,
भीमसेन के साथ युद्ध करने के लि। इसका दुर्योधनसे आज्ञा जो राक्षस ऋष्यशृङ्गका पुत्र था ( उद्योग० १६७ । ३३;
माँगना (द्रोण. १७६। ६-१०)। भीमसेनके साथ द्रोण. १०६ । १६ ) । प्रथम दिनके युद्ध में
घोर युद्ध (द्रोण ० १७७ अ०में ) । घटोत्कचद्वारा घटोत्कचके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म०४५। ४२-४५)।
वध (द्रोण० १७८ । ३१)। सात्यकिद्वारा इसकी पराजय (भीष्म० ८२ । ४४-४५)। इरावान्के साथ युद्ध और इसके द्वारा उनका वध
अलोलुप-धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि० ६७ । १०३ )। (भीष्म० ९० । ५६-७६)। अभिमन्युके साथ युद्ध भीमसेनद्वारा इसका वध (कर्ण० ८४ । ६)। और द्रौपदीपुत्रोंकी पराजय (भीष्म०१००।३१-५४)। अवगाह-एक वृष्णिवंशी योद्धा (द्रोण० ११ । २७)। अभिमन्युद्वारा इसका पराजित होना (भीम. १०१। अवन्ती-(अवन्ति) भारतका एक जनपद--मालवप्रदेश २८-२९)। सात्यकिके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० १११।। तथा उसकी राजधानी उज्जयिनी । (यह स्थान शिप्रा नदीके १-६) । घटोत्कचके साथ युद्ध (द्रोण.१४।४६- तटपर है और सात मोक्षदायिनी पुरियोंमेंसे एक है)(सभा०
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अवभृथ
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( २५ )
३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ८०२; भीष्म० ९ । ४३ ) ।
अवभृथ - ज्ञान्त-स्नान ( सभा० ४५ । ४० ) । अवसान - एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ जानेसे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है ( वन० ८२ । १२८ ) ।
अवाकीर्ण- सरस्वती तटवर्ती एक तीर्थ ( शल्य० ४१ । १-३० ) ।
अवाचीन - पूरुवंशीय राजा जयत्सेन के द्वारा विदर्भकुमारी सुश्रवाके गर्भ से उत्पन्न एक राजा इनके द्वारा विदर्भराजकुमारी मर्यादा के गर्भसे ‘अरिह' की उत्पत्ति हुई (आदि० ९५ । १७-१८ ) ।
अविकम्पन - एक प्राचीन नरेश, जिन्हें ज्येष्ठ मुनिसे सात्वत धर्मकी प्राप्ति हुई ( शान्ति० ३४८ । ४७ )। अविक्षित् - ( १ ) एक सम्राट्, महाराज मरुत्तके पिता ( द्रोण० ५५ । ३७ ) | ये अङ्गिराके यजमान थे । इनके अनुपम गुणोंका वर्णन ( आश्व० ४।१७-२२ ) । ( २ ) कुरुके उनकी पत्नी वाहिनी के गर्भ से उत्पन्न पाँच पुत्रोंमें जो अश्ववान् थे, उन्हींका दूसरा नाम अविक्षित् भी था (आदि० ९४ । ५०-५२ ) । अविज्ञातगति - 'अनिल' नामक वसुके द्वारा शिवाके गर्भ से उत्पन्न पुत्र इसके भाईका नाम 'मनोज' था ( आदि० ६६ । २५ ) ।
अविन्ध्य - एक बुद्धिमान् वृद्ध एवं श्रेष्ठ राक्षस, जिसने सीताजीको आश्वासन देनेके लिये अशोकवाटिकामें त्रिजटाको भेजा था ( वन० २८० | ५६-५७ ) | इसका सीताजीको मारने के लिये उद्यत हुए रावणको समझाकर रोकना ( वन० २८९ । २८-३२ ) । लङ्का - विजय के पश्चात् सीताजीको लेकर श्रीरामके पास आना ( वन० २९१ । ६-७ ) । अविमुक्त-वाराणसीका मध्यभाग - अविमुक्त क्षेत्रः यहाँ प्राणोत्सर्ग करनेवालेको मोक्ष प्राप्त होता है ( वन० ८४ । ७८-७९ ) । अव्यय-वृतराष्ट्र-कुलमें उत्पन्न हुआ एक सर्प, जो जनमेजय
के नागयज्ञमें दग्ध हुआ था ( आदि० ५७ । १६ ) । अशनि - एक दिव्य महर्षि, जिन्होंने श्रीकृष्णके हस्तिनापुर जाते समय मार्ग में उनसे भेंट की थी ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) ।
अशोक - ( १ ) भीमसेनका सारथि । इसका कलिङ्गराज
श्रुतायु के साथ युद्ध करते समय रथहीन भीमके पास रथ पहुँचाना ( भीष्म० ५४ । ७०-७१) । (२) एक क्षत्रिय राजा, जो अश्वनाम विख्यात असुरके अंशसे प्रकट हुआ था
अश्वतीर्थ
( आदि० ६७ । १४ ) । यही कलिंगराज चित्राङ्गदकी कन्या के स्वयंवर में गया था ( शान्ति ० ४ । ७ ) । अशोकतीर्थ - शूर्पारक क्षेत्रके अन्तर्गत एक तीर्थ ( वन० ८८ । १३ ) । अशोकवनिका-लङ्कापुरीकी सुप्रसिद्ध अशोकवाटिका, जहाँ सीताजी रखी गयी थीं ( वन० २८० । ४१-४२ ) । अश्मक - ( १ ) महाराज कल्माषपादके क्षेत्रज पुत्र । महर्षि वसिष्ठ के द्वारा कल्माषपादकी पत्नी मदयन्तीके गर्भ से इनकी उत्पत्ति हुई ( आदि० १७६ । ४७ ) । इनका अमक नाम होनेका कारण ( आदि० १७६ | ४६ ) । इनके द्वारा 'पौदन्य' नगरका निर्माण ( आदि० १७६ । ४७ )। ( २ ) ( गोदावरी और माहिष्मती के बीचका ) एक देश ( भीष्म० ९ । ४४ ) | ( ३ ) अश्मक देशका राजा, पाण्डव पक्षका योद्धा, जो कर्णद्वारा जीता और बाँधा गया था ( कर्ण ० ) । सम्भवतः इसीने राजा युधिष्ठिरको बछड़ेसहित दस हजार दुधारू गौएँ दी थीं ( सभा० ५१ दाक्षिणात्य पाठ ) | ( ४ ) एक ऋषिका नाम ( शान्ति ० ४७ । ५)।
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अश्मकी - यादव वंश में उत्पन्न एक राजकुमारी, प्राचिन्वान्की स्त्री । इसके गर्भसे संजात नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई ( आदि ० ९५ । १३ ) । अश्मकदायाद ( अश्मकपुत्र ) - एक कौरवपक्षीय योद्धा, जो अभिमन्युद्वारा मारा गया था ( द्रोण० ३७ । २२-२३ ) ।
अश्मपृष्ठ - गया में स्थित प्रेतशिला तीर्थ । यहाँ पिण्ड देनेसे ब्रह्महत्या दूर होती है (अनु० २९ । ४२ ) । अश्मा - एक प्राचीन मुनि । प्रारब्धकी प्रबलता बताते हुए इनका जनकके प्रश्नका उत्तर देना ( शान्ति० २८ । ५-५७ ) ।
अश्व- कश्यपपत्नी दनुके पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६५ । २४)।
अश्वकेतु - गान्धारराजका पुत्र जो कौरवपक्षका योद्धा था और अभिमन्युद्वारा मारा गया था ( द्रोण० ४८ । ७ )। अश्वग्रीव - कश्यपपत्नी दनुके पुत्रोंमेंसे एक ( आदैि० ६५ । २४ ) ।
अश्वतर - ( १ ) एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १० ) । ( २ ) अश्वतर नागसे उपलक्षित प्रयोगका एक तीर्थ ( वन० ८५ । ७६ ) ।
अश्वतीर्थ - एक प्राचीन तीर्थ, जो कन्नौज के पास गङ्गाके टपर स्थित है ( ० ९५ । ३ ) । इसके प्राकट्यका वर्णन ( अनु०
४ । १७ ३ । १७ ) ।
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अश्वत्थामा
( २६ )
अश्वत्थामा
अश्वत्थामा-(१) कृपीके गर्भसे उत्पन्न द्रोणाचार्यका पुत्र इसका कर्णको मारनेके लिये उद्यत होना (द्रोण० १५५ । (आदि. ६३ । १०७, १२९ । ४७ )। इसका ३-९) । अर्जुनसे युद्ध करनेके लिये उद्यत दुर्योधनको जन्म शिव, यम, काम तथा क्रोधके सम्मिलित अंशसे रोकना (द्रोण. १५९ । ८४-८५) । दुर्योधनको हुआ था (आदि. ६७ । ७२)। इसका अश्वत्थामा उपालम्भपूर्ण आश्वासन (द्रोण० १६० । २-१७ ) । नाम होनेका कारण (आदि० १२९ । ४८-४९) । इसका धृष्टद्युम्नके साथ युद्धमें सेनासहित उसे पराजित करना आटेके पानीको दूध समझकर पीना और प्रसन्न होना (द्रोण. १६०।४१-५३)। इसके द्वारा घटोत्कचकी ( आदि. १३० । ५४ )। कौरवराजकुमारोंके साथ पराजय (द्रोण. १६६ । १८) । दुर्योधनसे कौरव इसका भी अपने पितासे अध्ययन (आदि. १३१ सेनाके भागनेका कारण पूछना (द्रोण. १९३१२९-३२)। अध्याय ) । युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें इसका पदार्पण
कृपाचार्यसे अपने पिताके वधका समाचार सुनकर कुपित (सभा० ३४ । ८)। कर्ण और दुर्योधनको फटकारते
होना (द्रोण. १९३ । ६८-७०)। इसका दुर्योधनके हुए इसका अर्जुनके विषयमें अपना उद्गार प्रकट करना समक्ष क्रोधपूर्ण उद्गार और नारायणास्त्रको प्रकट करना (विराट. ५० अध्याय)। अर्जुनके साथ युद्ध और (द्रोण० १९४ अध्याय ) । दुर्योधनको अपनी प्रतिज्ञा चाणोंने खाली हो जानेपर इसका उनके समक्ष नीचा सुनाना ( द्रोण. १९९ । ५-७ )। इसके द्वारा देखना (विराट० ५९ । १-१५)। दुर्योधनसे दस नारायणास्त्रका प्रयोग (द्रोण० १९९ । १५)। पुनः दिनमें पाण्डवसेनाको नष्ट करनेकी शक्तिका कथन नारायणास्त्र प्रकट करनेमें अश्वत्थामाका अपनी असमर्थता (उद्योग० १९३ । १९)। प्रथम दिनके युद्धमें इसका दिखाना ( द्रोण• २०० । २७-२९ ) । धृष्टद्युम्नको शिखण्डीके साथ द्वन्द्व युद्ध (भीष्म. १५।४६-४८)। परास्त करना (द्रोण० २०० । ४३-४४)। इसके द्वारा दूसरे दिनके युद्ध में शल्य और कृपके साथ रहकर इसका मालवनरेश सुदर्शनका वध (द्रोण० २०० । ८३)। धृष्टद्यम्न और अभिमन्युसे युद्ध करना (भीष्म० ५५।। इसके द्वारा पौरव वृद्धक्षत्रका वध (दोण. २००। ८४)। २-७)। अर्जुन के साथ जूझना (भीष्म०७३ । ६-१६)। इसके द्वारा चेदिदेशके युवराजका वध (द्रोण० २०० । इसके द्वारा शिखण्डीकी पराजय (भीष्म० ८२।३४-३८)।। ८५)। भीमसेन के साथ घोर युद्ध और उनको पराजित अनूप नरेश नीलकी पराजय (भीष्म०९४४३५-३६)। करना (द्रोण. २००। ८७-१२८)। इसके द्वारा सात्यकिके प्रहारसे इसका मूर्छित होना ( भीष्म.१०१।
आग्नेयास्त्रका प्रयोग ( द्रोण. २०१। १६-१७ )। ४६-४७ ) । विराट और द्रुपदके साथ इन्द-युद्ध
श्रीकृष्ण और अर्जुनको आग्नेयास्त्रसे मुक्त देखकर सब (भीष्म० ११०।१६) । विराट और द्रुपदके साथ कुछ मिथ्या कहते हुए उसका युद्धस्थलसे भागना द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म० १११ । २२-२७) । सात्यकिके (द्रोण. २०१ । ४५-४७)। मार्गमें व्यासजीसे भेट साथ द्वन्दू-युद्ध (भीष्म० ११६ । ९-१२)। प्रति- और उनसे श्रीकृष्ण तथा अर्जुनपर आग्नेयास्त्रका प्रभाव विन्ध्य के साथ युद्ध (द्रोण. २५ । २९-३१)। इसके
न होनेका कारण पूछना (द्रोण. २०१। ५०-५५)। द्वारा राजा नीलका वध (द्रोण० ३१ । २५-२५ )।
कर्णको सेनापति बनानेकी सलाह देना (कर्ण०१०। इसका अभिमन्युको घायल करना (द्रोण. ३७ । २४- १२-१७) । भीमसेनके साथ घोर युद्ध और मूछित ३१)। इसके ध्वजका वर्णन (द्रोण० १०५।१०-११)। होना (कर्ण० १५ अध्याय )। अर्जुनके साथ घोर अर्जुनके बाणोंसे व्याकुल होकर अश्वत्थामाका भागना
युद्ध और पराजित होना (कर्ण० अ०१६से १७ अ०तक)। (द्रोण. १३९ । १२१-१२३)। अर्जुनके साथ युद्ध पाण्ड्यनरेश मलयध्वजका वध (कर्ण० २० । ४६)। (द्रोण. १४५ अध्याय) । अर्जुनके साथ युद्ध और
पाण्डव महारथियोंको परास्त करके युधिष्ठिरको भगा देना इसकी पराजय (द्रोण० १४७ । ११)। इसके द्वारा ।
(कर्ण० ५५ अध्याय ) । अर्जुनके साथ युद्ध में पराजित अंजनपर्वाका वध (द्रोण० १५६ । ८९-९० ) । इसके होना (कर्ण० ५६ । १२१-१४२ )। धृष्टद्युम्न के वधकी द्वारा सुरथ, शत्रुजय, बलानीक, जयानीक और जयाश्व- प्रतिज्ञा करना (कर्ण०५७ । ७-१०)। धृष्टद्युम्नको परास्त का वध (द्रोण० १५६ । १८०-१८१)। इसके द्वारा करके उसे जीते-जी खींचना (कर्ण० ५९ । ३९-५३)। राजा श्रुताहका वध (द्रोण. १५६ । १८२)। इसके
अर्जुनद्वारा पराजित होना ( कर्ण० ५९ । ६०-६१ )। द्वारा हेममाली, पृषध्र और चन्द्रसेनका वध (द्रोण. अर्जुनद्वारा पराजित होना (कर्ण० ६४ । ३१-३२)। १५६ । १८३)। इसके द्वारा कुन्तिभोजके दस पुत्रोंका पाण्डवोंके साथ संधि करनेके लिये दुर्योधनसे अनुरोध वध (द्रोण० १५६ । १८३)। घटोत्कचके साथ युद्ध में (कर्ण० ८८ । २१-२९)। दुर्योधनके पूछनेपर सेनापतिके उसे पराजित करना (द्रोण. १५६ । १४४-101)। लिये शल्यका नाम प्रस्तावित करना (शल्य०६।१९
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अश्वत्थामा
( २७ )
अश्वशिरा
२१)। अर्जुनके साथ युद्ध (शल्य. १४ अध्याय)। सत्तम, द्रौणि, द्रौणायनि, द्रोणपुत्र, द्रोणसू नु, गुरुपुत्र, इसके द्वारा पाञ्चाल-महारथी सुरथका वध (शल्य० गुरुसुत, भारताचार्यपुत्र । १४ । ४३)। द्वैपायन सरोवरपर जाकर दुर्योधनके सामने (२) मालवनरेश इन्द्रवर्माका हाथी, जो भीमसेनद्वारा सोमकोंके वधकी प्रतिज्ञा करना (शल्य. ३० । १९- मारा गया था (द्रोण० १९० । १५)। २२)। सेनासहित युधिष्ठिरके वहाँ पहुँचनेपर हट जाना अश्वनदी-कुन्तिभोज देशकी एक नदी, जो चर्मण्वतीमें (शल्य. ३० । ६३)। दुर्योधनकी अवस्थापर विषाद मिली है। इसीमें कुन्तीने शिशु कर्णको पिटारीमें बंद करके करना (शल्य० ६५ । १३-२०)। पाञ्चालोंके वधकी छोड़ा था (वन० ३०८ । २२)। प्रतिज्ञा करना (शल्य० ६५।३४-३७ )। सेनापति-पदपर अश्वपति-(१) कश्यपपत्नी दनुके पुत्रों से एक (आदि० अभिषिक्त हो दुर्योधनको हृदयसे लगाकर युद्ध के लिये ६५।२१)। (२)मद्रदेशके राजा । संतान प्राप्ति के लिये प्रस्थित होना (शल्य. ६५ । १४)। उल्लूका कौवोपर
___ इनकी तपस्या और सावित्रीकी आराधना (वन०२९३ । आक्रमण देखकर इसके मनमें कर संकल्पका उदय होना
१-८ )। इनकी सावित्री देवीसे घर-याचना (वन. (सौप्तिक० १ । ४५-५६)। कृतवर्मा और कृपाचार्यसे
२९३ । १४)। इन्हें सावित्री नामकी कन्या प्राप्त हुई सलाह लेना (सौप्तिक० ।। ५९-६९) । कृतवर्मा
(वन० २९३ । २३)। इनका सावित्रीको स्वयं वर खोजनेके और कृपाचार्यको अपना क्रूरतापूर्ण निश्चय बताना (सौप्तिक०
लिये भेजना (वन० २९३ । ३३)। नारदजीसे सत्यवान्के ३ अध्याय ) । कृपाचार्यके समझानेपर उन्हें उत्तर देना
गुण-दोषके विषयमें प्रश्न (वन० २९४ । १४)।राजषि (सौप्तिक० ४।२२-३४)। कृपाचार्यके समझानेपर उन्हें
द्युमत्सेनसे सावित्रीको पुत्रवधू बनानेके लिये प्रार्थना उत्तर देना (सौप्तिक० ५। १८-२९)। कृपाचार्य और
(बन० २९५ । १०-१२) । इन्हें मालवीके गर्भसे सौ कृतवर्माको अपना निश्चय बताना ( सौप्तिक० ५ । ३४
पुत्रोंकी प्राप्ति (वन० २९९ । १३)। ३७ ) । पाण्डवोंके शिबिरद्वारपर एक अद्भुत पुरुषसे युद्ध और शस्त्रोंके अभावमें चिन्तित होकर भगवान्
अश्ववन्ध-घोड़ोंको वशमें करनेवाला सवार (विराट० ३।३)। शिवकी शरण लेना (सौप्तिक० ६ अध्याय ) । इसके अश्वमेध-प्राचीन देश । इस देशके राजाका नाम रोचमान द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति (सौप्तिक० । २-१२)। मा. जिसे दिग्विजयके समय भीमसेनने बलपूर्वक जीत इसके सामने अग्निवेदी और भूतगणोंका प्राकट्य ( सौप्तिक लिया था (सभा० २९।८)। ७ । १३-१५)। इसके द्वारा भगवान् शिवको आत्म- अश्वमेधदत्त-शतानीककी पत्नी विदेहराजकुमारीके गर्भसे समर्पण ( सौप्तिक० ७ । ५२) । भगवान् शिवद्वारा उत्पन्न पुत्र (आदि० ९५।८६)। इसे खड्गकी प्राप्ति ( सौप्तिक० ७ । ६६) । इसके द्वारा अश्वमेधपर्व-आश्वमेधिकपर्वका एक अवान्तरपर्व (१--१५ रातमें सोये हुए पाञ्चालों, सोमकों और द्रौपदी-पुत्रोंका संहार ( सौप्तिक० ८ । १७-१३२)। दुर्योधनकी दशा अश्वरथा-गन्धमादनपर्वतके नीचे आर्टिषेणके आश्रमके पास देखकर विलाप करना ( सौप्तिक० ९ । १९-४६ )। बहनेवाली एक नदी (वन० १६०।२१)। दुर्योधनको पाञ्चालों और द्रौपदी-पुत्रोंके मारे जानेकी अश्ववती-तीनों समय स्मरण करनेयोग्य नदियों से एक खबर सुनाना (सौप्तिक. ९ । ४८-५२)। श्रीकृष्णका (अनु० १६५।२५)। इसके द्वारा अपनेसे सुदर्शनचक्र माँगनेकी चर्चा करना भश्ववान-भरतवंशी महाराज कुरुके प्रथम पुत्र । इनकी (सौप्तिक. १२ अध्याय ) । पाण्डवोंके वधके लिये
माताका नाम वाहिनी' था । इनका दूसरा नाम 'अविक्षित्' ऐषीकास्त्रका प्रयोग (सौप्तिक. १३ । १९-२२)।
था। इनके परीक्षित्, शबलाश्व, आदिराज, विराज, व्यासजीसे अपना अस्त्र लौटाने में अपनी असमर्थता बताना
शाल्मलि, उच्चैःश्रवाः भयङ्कर तथा जितारि नामके आठ (सौप्तिक० १५। १३-१८)। व्यासजीके कहनेसे अपनी मणि अलग रखकर पाण्डवोंके गर्भपर अस्त्र छोड़ना
पुत्र थे (आदि० ९४।५०-५३)। (सौप्तिक० १५ । २८-३५)। अपने अस्त्रको उत्तराके अश्वशङ्कु-कश्यपपत्नी दनुके पुत्रों से एक (आदि०६७।१०)। गर्भपर गिरनेका संकल्प करना (सौप्तिक० १६ । ६-७)। अश्वशिरःस्थान-एक पवित्र स्थान, स्वप्नमें शिवजीके पास श्रीकृष्णसे अभिशप्त हो पाण्डवोंको मणि देकर अश्वत्थामा
___ जाते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन यहाँ गये थे (द्रोण०८०।३२)। का वनको प्रस्थान (सौप्तिक. १६ । २०)। धृतराष्ट्रसे मिलकर इसका व्यासाश्रमकी ओर जाना (स्त्री०११।२। अश्वशिरा-(१)कश्यपपत्नी दनुके पुत्रोंमेंसे एक (आदि. महाभारतमें आये हुए अश्वत्थामाके नाम-आचार्य- ६५।२३)। (२)नरनारायणाश्रमके पास वैहायसकुण्डपर नन्दन, आचार्यपुत्र, भाचार्यसुत, आचार्यतनय, आचार्य- वेदपाठी भगवान् हयग्रीव (शान्ति. १२७।३)।
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अश्वसेन
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अश्वसेन -तक्षक नागका पुत्र ( आदि ० २२६ । ९ ) । खाण्डववन-दाह के समय इसकी माताका अर्जुनद्वारा वध ( आदि० २२६१८ ) । इन्द्रद्वारा इसकी रक्षा (आदि० २२६।९ ) । अर्जुनद्वारा इसे आश्रयहीनताका शाप (आदि ० २२६ । ११ ) । कर्णद्वारा छोड़े गये सर्पमुख वाणमें प्रविष्ट होकर इसका अर्जुनके किरीटको दग्ध करना ( कर्ण ० ९० ३३ ) । कर्णद्वारा अस्वीकार किये जानेपर इसका अर्जुनपर आक्रमण ( कर्ण० ९०११० ) | श्रीकृष्णद्वारा परिचय पाकर अर्जुनद्वारा इसका वध ( कर्ण० ९० / ५४ ) ।
( २८ )
अश्वहृदय - घोड़ोंका हर्ष एवं उत्साह बढ़ानेवाला एक मन्त्र ( द्रोण० १६।१८ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । अभ्वातक- एक देश ( भीम० ५१।१५ ) । अश्विनीकुमार - नासत्य और दस नामक दो भाई, जो देवताओंके अन्तर्गत हैं | त्वष्टाकी पुत्री संज्ञाने अश्विनीरूप धारण करके भगवान् सूर्य के अंशसे अन्तरिक्ष में इन्हें उत्पन्न किया । ये संज्ञाकी नाकसे निकले हैं ( आदि० ६६ । ३५; अनु० १५० १७-१८ ) । ये ब्रह्मा आदि अन्य देवताओंके क्रमसे स्वयं भी अण्डसे उत्पन्न हुए ( आदि ० (१३४) । आयोदधौम्य के शिष्य उपमन्युके द्वारा इनकी स्तुति ( आदि० ३१५७-६८ ) । इनके द्वारा उपमन्युको वरदान (आदि० ३७३ ) । इन्होंने माद्रीके गर्भ से नकुल और सहदेवको उत्पन्न किया (आदि०९५।६३) । ये देवताओंके साथ विमानपर बैठकर द्रौपदीका स्वयंवर देखने आये थे ( आदि० १८६६ ) | खाण्डववन- दाहके समय श्रीकृष्ण-अर्जुनसे युद्ध के लिये आये हुए देवताओं में ये भी थे (आदि० २२६।३३ ) । इन्होंने सुकन्यासे अपनेको पतिरूपमें वरण करनेका आग्रह करके उसके सतीत्वकी परीक्षा ली (बन० १२३|१० ) । अपनेको देवताओंका श्रेष्ठ वैद्य बताया ( वन० १२३|१२ ) । इनके द्वारा च्यवनको यौवनदान तथा सुकन्याद्वारा पतिकी पहचान ( वन० १२३/१३ - २१ ) । च्यवन मुनिके प्रभाव से इनका शर्याति यज्ञमें सोमपान (वन०अ० १२४से अ०१२५ | १०) | इन अश्विनीकुमारोंने मान्धाताको पिताके पेटसे बाहर निकाला (द्रोण० ६२४ ) । इनके द्वारा स्कन्दको वर्धन और नन्दन नामक दो पार्षद प्रदान ( शल्य० ४५|३८) । इन्हें घीकी आहुति तथा उसके दानसे अधिक प्रसन्नता होती है (अनु०६५/७ ) । आश्विनमासमें ब्राह्मणको घी दान करनेवाले पुरुषको अश्विनीकुमार रूप देते हैं ( अनु०६५/१० ) । इक्कीस तथा उन्तीस दिनोंपर एक समय भोजन करनेवालोंको अश्विनीकुमारोंके लोककी प्राप्ति होती है (अनु० १०७ । ९५, १२६ ) । कीर्तनीय नामोंमें नाम-निर्देश ( अनु० १५०/८१ ) ।
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अष्टवसु
अश्विनीकुमारतीर्थ - जिसमें स्नान करनेमे रूपकी प्राप्ति होती है ( वन० ८३।१७ ) । अश्विनीतीर्थ - यहाँ स्नान करनेसे मनुष्य रूपवान होता है (अनु० २५|२१ ) ।
अटक - एक प्राचीन राजर्षि ( आदि० ८६ । ५ ) । ये राजा ययाति के दौहित्र थे (आदि० ८९ । १३) । अष्टक और राजा ययातिका संवाद ( आदि० अ० ८८ से९२ अ० ) । ययातिकी पुत्री माधवीके गर्भ से विश्वामित्रद्वारा इनकी उत्पत्ति हुई थी ( उद्योग० ११९ । १८ ) । इनके द्वारा ययातिको अपने पुण्यफलका दान (उद्योग ० १२२।१३-१४) । ययाति एवं शिवि आदि राजाओं के साथ इनका स्वर्गगमन ( उद्योग० ९३ । १६ के बाद दा० पाठ) । स्वर्ग जाते समय इनके द्वारा शिविकी श्रेष्ठता विषयमें ययातिसे प्रश्न ( उद्योग ० ९३ । १७ ) । देवर्षि नारदद्वारा इनके स्वर्गसे प्रथम गिरनेका वर्णन ( वन० १९८ । ४-५ ) । इन्हें महाराज प्रतर्दनद्वारा खङ्गकी प्राप्ति ( शान्ति० १६६ ॥ ८० ) । अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर इनका शपथ ( अनु० ९४ | ३६ ) | प्रातः सायं स्मरण करने योग्य तथा पापनाशक राजाओंमें अष्टककी भी गणना ( अनु० १६५ | ५६ ) ।
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अष्टजिह्न - स्कन्द के सैनिकोंमेंसे एक ( शल्य० ४५ | ६२) । अष्टवसु - गणदेवता । धर्मद्वारा दक्षकी विभिन्न कन्याओं से उत्पन्न | इनकी संख्या आठ है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-ध, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभास ( आदि० ६६ । १७ - २० ) । पुराणों में इनके नामों के सम्बन्धमें मतभेद पाया जाता है। जैसे विष्णुपुराणके अनुसार आप ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभास (विष्णु० १ । १५ ) । भागवत के अनुसारद्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोप, वसु और विभावसु (भागवत ६ । ६ ) हरिवंशके अनुसार आफ घर, ध्रुव, सोम, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभास ( १/३ ) | इससे परस्पर कोई विरोध नहीं समझना चाहिये; क्योंकि एक व्यक्तिके अनेक नाम हो सकते हैं और विभिन्न स्थानोंमें उसे अलग-अलग नामोंसे कहा जा सकता है। इन सबका विशेष परिचय उन-उन नामोंमें देखना चाहिये । गङ्गाके गर्भ से शान्तनुद्वारा इन सबका जन्म ( आदि० ९८ । १२ ) वसिष्ठके द्वारा इन सबको मनुष्ययोनिमें जन्म लेनेका शाप ( आदि ० ९९ । ३२ ) । प्रार्थना करनेपर 'द्यो' के अतिरिक्त इन सबको यथाशीघ्र शापसे मुक्त होनेका वसिष्ठजीद्वारा आश्वासन ( आदि० ९९ । ३८-३९ ) । इनके द्वारा परशुरामजी से युद्ध करते समय भीष्मको प्रखापास्त्रका दान ( उद्योग० १८३ । ११ - १३ ) । मृत्युके लिये
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अष्टविवाह
( २९ )
अहल्याहद
ParAmAnnnnn
विचार करते हुए भीष्मके विचारका समर्थन ( भीष्म० उपदेश दिया (सभा० ७८ । १५)। आदित्यतीर्थकी ११९ । ३७)।
महिमाके प्रसङ्गमें इनके चरित्रका वर्णन (शल्य० ५० अविवाह-ब्राह्म, दैव, आप, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व,
अध्याय)। जैगीपव्य मुनिसे समताके विषयमें इनका राक्षस तथा पैशाच -ये आट विवाह (आदि० ७३।८-९)। प्रश्न (शान्ति० २२९ । ५)। नारदजीके सृष्टिविषयक
प्रश्नका उत्तर (शान्ति० २७५ । ४-३९) । शिवमहिमाअष्टाकपाल-आठ कपालोंद्वारा संस्कारपूर्वक तैयार किया।
के विषयमें इनका युधिष्ठिरसे अपना अनुभव बताना हुआ पुरोडाश ( शान्ति० २२१ । २४ )।
(अनु० १८ । १७-१८)। अष्टावक्र-महर्षि कहोडके द्वारा उद्दालककुमारी सुजाताके
असितध्वज-कश्यप और विनताके एक पुत्र, जो अर्जुनके गर्भसे उत्पन्न एक मुनि । पिताके अध्ययनमें बालकका।
जन्मोत्सवमे पधारे थे (आदि० १२२ । ७३)। दोष निकालना (वन० १३२ । ८-१०)। इनका राजा जनकके यज्ञमें जाना (वन० १३२ । २३)। द्वारपाल. असितपर्वत-आनर्मदेशमें नर्मदाके तटपर स्थित एक पर्वत से वार्तालाप ( वन० १३३ । ५-१६)। राजा जनकमे (वन० ८९ । ११)। प्रश्नोत्तर (वन० १३३ । २०-३०)। बंदीके साथ असिता-एक अप्सरा, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें आयी थी शास्त्रार्थ करके उसे हराना (वन०१३४ । ३-२१)। समङ्गामें (आदि० १२२ । ६३)। स्नान करनेसे इनके अङ्गीका सीधा होना (वन० १३४॥३९) असिपत्रवन-एक नरक, जिसके मायामयस्वरूपका युधिष्ठिरमहर्षि वदान्यसे उनकी कन्या माँगना (अनु०१९।११)। को दर्शन कराया गया था (स्वर्गारोहण० २ । २३)। वदान्यके कहनेसे इनका उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान यमलोकका असिपत्र नामक वन (शान्ति० ३२१। ३२)। ( अनु० १९ । २७)। कुबेरके भवनमें विश्राम (अनु० ..
असिलोमा-कश्यपपत्नी दनुके पुत्रोमेंसे एक(आदि०६५।२३) १९। ४०-४१)। नारी-रूपधारिणी उत्तर दिशाके साथ संवाद (अनु० १९ । ७३ से २१ । ११ तक)। असुरा-कश्यप और प्राधाकी आठ पुत्रियमिसे एक (आदि. वदान्य ऋषिसे अपना सब समाचार कहना ( अनु० ६५ । ४१)। २१ । १५-१६) । वदान्यकी कन्या सुप्रभाके साथ इनका अस्ताचल-पश्चिम दिशाका एक पर्वत (उद्योग० ११०।६)। विवाह ( अनु० २१ । १८)।
अस्ति-मगधनरेश जरासंधकी पुत्री । कंसकी पत्नी । सहदेवअष्टावक्रतीर्थ-इसमें तर्पण करके बारह दिनीतक निराहार की बहिन । इसकी दूसरी बहिनका नाम 'प्राप्ति' था । वह
रहनेसे नरमेधयज्ञका फल मिलता है (अनु० २५ । ४१)। भी कंसकी ही पन्नो थी ( सभा० १४ । २९-३२)। असमक्षा-सगर और शैव्यासे उत्पन्न एक इक्ष्वाकुवंशो अहंयाति-पुरुवंशी राजा संयाति तथा रानी वराङ्गीके पुत्र ।
राजा, जो प्रजाके बालकोंको सरयू नदीमें फेंक देता था। इनके द्वारा भानुमतीके गर्भसे सार्वभौम नामक पुत्रकी प्रजाकी आर्त पुकारसे पिघलकर सगरने मन्त्रीद्वारा उत्पत्ति हुई ( आदि० ९५ । १४-१५)। असमञ्जाको निकलवा दिया (वन० १०७। ४३; शान्ति.
अह-धर्मपुत्र । आठ वसुओंमेंसे एक । इसको माताका नाम ५७ । ७-९)।
'रता' है (आदि० ६६ । १७-२०)। असिनी-भारतवर्षके पंजाब प्रान्तको एक नदी, चन्द्रभागा
अहः ( या अहन् )-एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे सूर्यया चिनाव (भीष्म० ९।२३)।
लोककी प्राप्ति होती है (वन० ८३ । १००)। असित-(१) एक राजा (द्रोण. ६२ । ११; शान्ति. २९ । ८८)। (२) एक ऋषि (शान्ति.
अहर-कश्यप और दनुके पुत्रों से एक (आदि०६५।२५)। ४७ । ७)।
अहल्या-महर्षि गौतमकी पत्नी । इनका उत्तङ्कसे गुरुदक्षिणाअसितदेवल-एक प्रसिद्ध ऋषि । महाभारतमें अनेक स्थलों के रूपमें सौदासकी रानीके कुण्डल माँगना ( आश्व० पर इनका नाम आया है। इन्होंने पितरोंको पंद्रह लाख ५६ । २९) । गौतम ऋपिसे उत्तङ्कके कल्याणके लिये श्लोकवाला महाभारत सुनाया था (आदि० १ । १०७)। कहना (भाश्व० ५६ । ३४ ) । इन्द्रद्वारा इनकी धर्षणा इन्होंने जनमेजयके सर्पसत्रमें सदस्यता ग्रहण की थी (शान्ति०३४२ । २३)। (आदि० ५३ । ८) । राजा युधिष्ठिरके अभिषेककालमें अहल्याहद-महर्षि गौतमके तपोवनमें अहल्याद नामक व्यास और नारदजी आदिके साथ ये भी उपस्थित थे तीर्थमें स्नान करनेमे मनुष्यको परमगति प्राप्त होती है (सभा० ५३ । १०)। इन्होंने अञ्जनपर्वतपर युधिष्ठिरको (वन० ८४ । १०९)।
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अहिच्छत्र
(
३० )
आदित्य
अहिच्छत्र-उत्तर पाञ्चालवर्ती राज्य । यह द्रोणाचार्यके आद्धिक-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु.
अधिकारमें था । इसे आचार्य द्रोणने अर्जुनद्वारा द्रुपदको ४ । ५४ )। पराजित करके प्राप्त किया था (आदि० १३७ । ७३-७६)। आजगर-अजगर वृत्तिसे रहनेवाले एक मुनि, जिनके साथ अहिच्छत्रा-एक प्राचीन नगरी, जो अहिच्छत्र राज्यकी प्रह्लादका संवाद हुआ था (शान्ति० १७९ । २)। राजधानी थी । अर्जुनने द्रुपदको जीतकर इसे गुरुदक्षिणा- आजगरपर्व वनपर्वका एक अवान्तरपर्व ( १७६ से १८१ में द्रोणाचार्यको दिया था (आदि० १३७ । ७३-७७)। अध्याय तक )। अहिता-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी ( भीष्म०९।२१)। आजगरव्रत-आजगर मुनिद्वारा आचरित अवधूत धर्म
-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक । ये सुवर्णके रक्षक हैं (शान्ति० १७९। १८-३६)। (उद्योग० ११४ । ४)। ग्यारह रुद्रोंमें इनके नाम अनेक आजगव-महाराज मान्धाताका धनुष (वन० १२६ । ३३. स्थलोपर आये हैं जैसे (शान्ति० २०८ । १९-२०)। ३४ )। महाराज पृथुका धनुष (द्रोण० ६९ । १३ ) अहोवीर्य-वानप्रस्थ धर्मका पालन करनेवाले एक मुनि अर्जुनके गाण्डीव धनुषका नामान्तर (द्रोण० १४५ । (शान्ति० १४४ । १७)।
९४)। आ
आजमीढ़-अजमीढ़वंशमें उत्पन्न होनेवाले, कौरव-पाण्डव आकर्ष-आकर्ष' नामक देश तथा वहाँके निवासी ( सभा० ( आदि० १७२ । ५० के बाद दाक्षिणात्य पाठ )। ३५ । ११)।
आजानेय-घोड़ोंकी एक उत्तम जाति (वन० २७० । आकाशजननी-परकोटेमें बने हुए छोटे-छोटे छिद्र, जिसके । १०)। रास्ते तोपोसे गोलियाँ छोडी जाती हैं (शान्ति० ६९। आञ्जनककुल-गजराजोंकी सेनाका नाम । सात्यकिद्वारा
वर्णन (द्रोण. ११२ । १७-१८)। आकृति-सुराष्ट्र देशका राजा । कौशिकाचार्य सहदेवद्वारा आटवीपुरी-एक प्राचीन नगर, जिसे माद्रीकुमार सहदेवने इनकी पराजय ( सभा० ३१ ॥६१)।
जीता था (सभा० ३१ । ७२)। आकृतीपुत्र-आकृती' नामवाली माताका पुत्र सनिपर्वा । आडम्बर-धाताद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदों से एक पाण्डव-पक्षीय योद्धा, जो भगदत्तके द्वारा मारा गया (शल्य. ४५। ३९)। (द्रोण० २७ । ५०-५२)।
आतक-कौरव्यकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके आक्रोश-महोत्थ देशका राजा, जिसे नकुलने जीता था सर्पसत्रमें जला था ( भादि. ५७ । १३)। (सभा० ३२ । ५-६)।
आत्मा-(१) दिवः पुत्र आदि विवस्वान्के पुत्रों या स्वआग्निवेश्य-एक प्राचीन महर्षि, जिन्होंने बृहस्पतिसे कवच रूपोंमेंसे एक ( आदि० ।। ४२) (२) नित्य, अवितथा उसे बाँधनेकी विद्या ( मन्त्रयुक्त विधि) प्राप्त की, नाशी, एक, शुद्ध-बुद्ध आत्मा एवं परमात्मा(भीष्म०२६ । जो धनुर्वेदके आचार्य और द्रोणाचार्यके गुरु थे (द्रोण. ११-३०)। ९४ । ६७-६८)।
आत्रेय-(१) एक प्राचीन ऋषि, जो जनमेजयके सर्पसत्रआग्रायण-भानु (मनु ) नामक अग्निके चौथे पुत्र के सदस्य थे ( आदि ५१ ) (२) महर्षि (वन० २२१ ।१३)।
वामदेवका शिष्य ( वन. १९२ । ४६) । (३) आग्रेय-एक गणतन्त्र राज्य, जिसे कर्णने जीता था ( वन० भारतवर्षका एक जनपद ( भीष्म ९ । ६८ )। • २५४ । १९-२१)।
(४) एक परम प्राचीन महर्षि । इनके द्वारा शिष्योंको आङ्गरिष्ठ-प्राचीन नरेश । अपने द्वारा मोहवश पाप हो जाने- निर्गुण ब्रह्मका उपदेश दिया गया ( अनु० १३७ । के कारण उसके प्रायश्चित्तके विषय में कामन्दक मुनिसे राजाका प्रश्न (शान्ति० १२३ १३-१४)।
आत्रेयी-एक नदी (सभा० ९ । २२)। आङ्गिरसी एक ब्राह्मणकी पतिव्रता पत्नी । राक्षसभावापन्न
आथर्वण-एक मुनि । स्वप्नमें श्रीकृष्णसहित शिवजीके पास कल्माषपादद्वारा इसके पतिका भक्षण । इसके द्वारा कल्मा- जाते हुए अर्जुन इनके स्थानपर गये थे (द्रोण०००। षपादको पत्नी-समागम करते ही मृत्यु होने एवं वशिष्ठ- ३२)। द्वारा पुत्र प्राप्त होनेका शाप ( आदि. १८१ । १६. आदित्य-(१) इनकी संख्या बारह है । इनके पिताका २२)।
नाम कश्यप और माताका नाम अदिति है। इनमें इन्द्र
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आदित्यकेतु
आरुणि
सबसे बड़े और विष्णु ( वामन ) सबसे छोटे हैं ( आदि. ३२ । ९-१० ) । समुद्रतटवर्ती गृहोद्यान तथा सिन्धुके ६६ ॥ ३६)। (२) एक विश्वेदेव ( अनु. ९१। उस पार ( आभीर देशमें ) निवास करनेवाली आभीर ३६)।
जातिके लोग । ये लोग युधिष्ठिरके यहाँ भेंट लेकर आये आदित्यकेतु-धृतराष्ट्र के पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ ।
थे (सभा० ५१। ११-१३)। मार्कण्डेयजीका कहना १०२)। भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म० ८८ । २८)।
है कि कलियुगमें आभीर, शक आदि म्लेच्छगण भारतवर्षके आदित्यतीर्थ-सरस्वतीतटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ (शल्य.
विभिन्न भागोंके राजा होंगे ( वन० १८८ । ३५-३६)।
शूर आभीरगण द्रोणनिर्मित गरुडव्यूहमें ग्रीवाके स्थानमें ४९ । १७) । इसकी विशेष महिमा ( शल्य.
खड़े किये गये थे (द्रोण. २० । ६)। शूद्रों और अध्याय ५०)।
आभीरोंसे द्वेष होनेके कारण विनशनतीर्थमें सरस्वती नदी आदित्यपर्वत-हिमालयका एक शिखर, शिवजीका निवास
अदृश्य हो गयी थी ( शल्य० ३७ । १-२ )। स्थान (शान्ति० ३२७ । २२)।
आभीर पहले क्षत्रिय थे। परशुरामजीके भयसे पर्वतोंकी आदिपर्व-महाभारतका पहला पर्व ।
गुफाओंमें छिप गये और अपने कर्म छोड़ बैठे; अतः उनकी आदिराज-पूरुवंशीय महाराज कुरुके पौत्र तथा अविक्षित्के
संतानें शूद्रत्वको प्राप्त हुई (आश्व० २९ । १६)। पुत्र ( आदि० ९४ । ५२ )।
इन्हीं आभीरोने द्वारकावासिनी स्त्रियोंको साथ लेकर जाते आदिष्ठी-जिन्हें गुरुने नियत वर्षातक ब्रह्मचर्यवत पालनका
___ हुए अर्जुनपर डाका डाला था (मौसल०७।४७-६३)। आदेश दिया हो ( अनु० २२ । १७)।
(२) आभीर देश ( भीष्म० ९ । ४७-६७)। आद्यकठ-एक प्राचीन ऋषिः जो राजा उपरिचरके यज्ञके आमरथ-भारतवर्षका एक जनपद ( भीष्म० ९ । ५४ )। एक सदस्य थे ( शान्ति० ३३६ । ९)।
आयाति-नहुपके पुत्र । ययातिके भ्राता ( आदि. आनन्द-स्कन्दक, एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६५)।
७५ । ३०)। आनर्त-एक प्राचीन देश, जिसे अर्जुनने जीता था ( सभा० आयु-(१) पुरूरवाके द्वारा उर्वशीके गर्भसे उत्पन्न एक
राजा, जिन्होंने स्वर्भानवीके गर्भसे नहुप आदिको जन्म आनुशासनिकपर्व-महाभारतका एक पर्व ।
दिया ( आदि० ७५ । २४ )। इन्हें पुरूरवासे खङ्गकी आन्ध्र-दक्षिणका एक देश, जिसे सहदेवने दूतोंद्वारा ही वशमें प्राप्ति (शान्ति० १६६ । ७४)। इन्होंने तपोबलसे ही कर लिया था ( सभा०३१।७१)।
समाजमें प्रतिष्ठा प्राप्त की ( शान्ति२९६ । १५)। आपगा-नदी एवं तीर्थ, जहाँ एक ब्राह्मणको भोजन करानेसे इनके द्वारा मांस भक्षणका निषेध (अनु० ११५ । ५९)। कोटि ब्राह्मणों को भोजन करानेका फल प्राप्त होता है (२)एक मण्डुकराज, जो सुन्दरी सुशोभनाका पिता (वन० ८३ । ६८)।
था । इसने इश्वाकुवंशी राजा परीक्षित्को अपनी कन्या आपद्धर्मपर्व-शान्तिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
अर्पित की थी (वन० १९२ । ३२-३५)। मण्डूकोको ५३१ से १७३ तक)।
मारनेका आदेश रोकनेके लिये इसकी राजासे आपव- (१) वसिष्ठ मुनिका नामान्तर ( आदि.
प्रार्थना ( वन० १९२ । २७)। इसके द्वारा अपनी
कन्याको शाप (वन. १९२ । ३५)। ९९ । ५)। (२) एक प्राचीन ऋषि । अग्निके साथ आकर कार्तवीर्यद्वारा अपने आश्रमके जलाये जानेपर आयोदधौम्य-एक प्रसिद्ध ऋषि । इनके आरुणि, इनका राजाको शाप देना (शान्ति० ४९। ४२-४३)।
उपमन्यु तथा वेद नामके तीन प्रसिद्ध शिष्य थे
(आदि. ३।२१)। हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णसे आपस्तम्ब-एक प्रसिद्ध ऋषि । इनके द्वारा राजा द्युमत्सेनको
मार्गमें इनका मिलना ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद आश्वासन (वन० २९८ । १८)।
दाक्षिणात्य पाठ)। आपूरण-एक प्रमुख नाग, कश्यपका वंशज (आदि०३५। पारणेयपर्व-वनपर्वका एक अवान्तरपर्व (अध्याय ३११ से ६; उद्योग० १०३ । १०)।
३१५ तक)। आप्त-एक प्रमुख नाग, कश्यपका वंशज (आदि० ३५। आरालिक-मतवाले हाथियोंको वशमें करनेवाला गजशिक्षक 5 उद्योग० १०३ ॥१२)
(विराट० २।९)। आभीर-(१) सिन्धु और सरस्वती-तटवर्ती आभीर गण- आरुणि-(१) आयोदधौम्य ऋषिके शिष्य । पाञ्चालदेशतन्त्रके निवासी, जिन्हें नकुलने जीता था (सभा निवासी । इनकी गुरुभक्ति, इनको गुरुका आशीर्वाद तथा
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आरुषी
( ३२ )
आस्तीक
इनका उद्दालक नामसे प्रसिद्ध होना ( आदि० आर्टिषेण-आश्रम-एक तीर्थ, यहाँ स्नान करनेवालेको सब ३ । २२-३२)।(२) धृतराष्ट्र नागके कुलमें उत्पन्न पापोंसे छुटकारा मिल जाता है ( अनु० २५ । २५)। एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था ( आदि० आलम्ब-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें ५७ । १९) । (३) कश्यप और विनताके पुत्र (आदि० विराजमान होते थे ( सभा० ४ । १४)। ६५ । ४०)। (४) एक कौरवर झोय महारथी वीर,
आलम्बायन-इन्धके सखा, आलम्ब गोत्रीय चारुशीर्ष ही जिसने शकुनि के साथ होकर अर्जुन पर हमला किया
आलम्बायन नामसे प्रसिद्ध हुए हैं ( अनु० १८ । ५)। था (द्रोण. १५६ । १२२ )।
आवर्तनन्दा-एक तीर्थ, इसका सेवन करनेवाले पुरुषको आरुषी-मनुकी पुत्री, च्यवन मुनिकी पत्नी । इसके पुत्रका
नन्दनवनमें स्वर्गीय सुख प्राप्त होता है (अनु० २५ । ४५)। नाम था 'और्व' । ये अपनी माके ऊरुसे प्रकट हुए, अतः और्व' कहलाये (आदि. ६६ । ४६)।
आवशार-पूर्वदिशाका एक भारतीय जनपद, जिसे कर्णने
दिग्विजयके समय जीता था ( वन० २५४ । ९)। आरोचक-भारतवर्षका एक जनपद और वहाँ के निवासी (भीष्म० ५१ । ७)।
आवसध्य-महान् तेजःपुञ्जसे सम्पन्न एक अग्नि
(वन० २२१ । ५)। आचीक-सैन्धवारण्यसे आगे मनीपी पुरुषों का निवासभूत एक पर्वत ( वन० १२५ । १६)।
आवह वायुके सात भेदोंमेंसे दूसरा (शान्ति० ३२८ । ३७)। आर्जव-सुबलपुत्र शकुनिका भाई, इरावान्द्वारा इसका आशाव
आशावह (१) दिवःपुत्र आदि बारह सूर्यो से एक वध ( भीष्म० ९० । २७-४६)।
( आदि. १ । ४२)। (२) एक वृष्णिवंशी राजकुमार,
__ जो द्रौपदीके स्वयंवरमें उपस्थित था (आदि० १८५। १९)। आतीयनि-ऋतायनके पुत्र शल्य, इनके पूर्व न श्रेप थे और सदा सत्य ही बोलते थे; इसलिये ये आयिनि कडे आश्रमवासपर्व-आश्रमवासिक पर्वका एक अवान्तरपर्व, गये हैं (शल्य० ३२ । ५६)।
(१ से २८ अध्याय तक )। आर्तिमान्-सर्पभय निवारण करनेवाला एक मन्त्र ( आदि. आश्रमवासिकपर्व-महाभारतका एक पर्व । ५८ । २३-२६)।
आश्राव्य-इन्द्रसभामें विराजमान होनेवाले एक मुनि आर्यक-एक प्रमुख नाग (आदि. ३५। ७)। ये शूर
(सभा० ७ । १८)। तामह थे, इन्होंने भीमको रसपान कराने के लिये आश्वलायन-विश्वामित्र के ब्रहावादी पुत्रोंमेंसे एक वासुकिसे प्रार्थना की (आदि. १२७ । ६४-६८)। अपने पौत्र सुमुख के साथ मातलिकी कन्या विवाहके आषाढ-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशमशक प्रसङ्गमें इनकी नारदसे बातचीत ( उद्योग० १०४। दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि०६७।५९-६३)। १३-१७)।
इन्हें पाण्डवोंको ओरसे रणनिमन्त्रण प्राप्त हुआ था आर्या-शिशुकी माता । सप्त मातृकाओमेसे एक
( उद्योग० ४ । १७)। (२) एक मासका नाम । (वन० २२८ । ३०)।
आषाढ़ मासमें एक समय भोजन करनेवाला पुत्र और धनआर्यावर्त-भारतवर्षका नामान्तर अथवा एक भारतीय
धान्यसे सम्पन्न होता है ( अनु० १०६ । २६)। (३)
भगवान् शिवका नाम (अनु. १७ । १२१)। (४) प्रदेश (शान्ति० ३२५ । १५)। (स्मृतियों के अनुसार विन्ध्य तथा हिमालयके बीचका भूभाग आर्यावर्त है । )
एक नक्षत्रका नाम, पूर्वाषाढ़ा-उत्तराषाढ़ा । इसमें उपवास
करके कुलीन ब्राह्मणको दधि दान करनेवाला पुरुष आष्टिषेण-एक राजर्षि, इनके द्वारा युधिष्टिरको प्रश्नरूपमें
___ गोधनसम्पन्न कुलमें जन्म पाता है (अनु० ६४।२५-२६)। उपदेश मिला (वन० १५६ । १६; वन० १५९ अध्याय)। पृथुदक तीर्थमें तप करके इन्होंने ब्राह्मणत्व
आसुरायण-विश्वामित्र के एक ब्रह्मवादो पुत्र ( अनु० प्रात किया था (शल्य. ३९ । ३६)। इनकी तपस्याका वर्णन (शल्य.४०।३-९) । सरस्वती नदीके आसुरि-एक प्राचीन ऋषि, जो कपिल-सांख्यदर्शनके लिये इन ऋषिका आशीर्वाद, यहाँ स्नान करनेवालेको
आचार्य एवं पञ्चशिखके गुरु थे। इन्होंने मुनियोंको ब्रह्मअश्वमेधका फल प्रात होगा, यहाँ सोसे भय न होगा ज्ञानका उपदेश दिया था (शान्ति० २१८ । १०-१४)। तथा थोड़े ही समयतक इस तीर्थके सेवनसे महान् फलकी आस्तीक-एक ऋषि, जो यायावर कुलके जरत्कारु ऋषिके प्रासि होगी (शल्य.४०। ७-८)।
पुत्र थे । इनकी माताका नाम भी जरत्कारु था (आदि.
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भास्तीकपर्व
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( ३३ )
१३ । १०-११; १५ । ३; ४८ । ९-११ ) । इनका जन्म आदि० ४८ । १७ ) । इनका च्यवन मुनिसे अध्ययन ( आदि० ४८ । १८ ) । ' आस्तीक' नाम होनेका कारण ( आदि० ४८ । २० ) । नागराज वासुकिके भवन में इनका पालन ( आदि० ४८ । २१ ) । नागराज वासुकिको इनका आश्वासन ( आदि० ५४ । १७ - २५ ) । इनका जनमेजयके यज्ञमण्डपमें आगमन ( आदि० ५४ । २६-२७ ) । इनके द्वारा यजमान, ऋत्विज आदिकी स्तुति ( आदि० ५५ । १-१६ ) । इनको राजा जनमेजयका वरदान ( आदि० ५६ । १७ 9 ) । आस्तीकका राजासे 'तुम्हारा यज्ञ बंद हो और इसमें सर्प न गिरने पावें' यह वर माँगना ( आदि० ५६ । २१-२६ ) । इनके द्वारा तक्षककी प्राणरक्षा ( आदि० ५८ । १-१० ) । अश्वमेध यज्ञमें सदस्य होनेके लिये जनमेजयद्वारा इनसे प्रार्थना ( आदि० ५८ । १५-१६ ) । 'मेरे आख्यानका पाठ करनेवालोंको सर्पोंसे कोई भय न हो'--ऐसा इनका सर्पोंसे वर माँगना ( आदि० ५८ । २१ ) । आस्तीकका व्यासजीकी महत्ता बताते हुए जनमेजयकी प्रशंसा करना ( आश्रम ० ३६ । १२–१६ ) । सर्पोको संकटसे छुड़ाकर आस्तीकका प्रसन्न होना ( स्वर्गा ० ५ । ३२ ) । आस्तीकपर्व - महाभारत के आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व
( अध्याय १३ से ५८ तक ) ।
आहुक* - यदुवंशी राजा उग्रसेनका नामान्तर ( उद्योग०
१२८ । ३८-३९; अनु० १४ । ४१ ) । इनकी पुत्री 'सुतनु' के साथ अक्रूरका विवाह ( सभा० १४ । ३३ ) । आहुकके सौ पुत्र थे ( सभा ० १४ । ५६ ) । आहुक और अक्रूरके पारस्परिक वैरसे श्रीकृष्णकी चिन्ता (शान्ति ० ८१ । ८-११ ) । आहुक ( उग्रसेन) के आदेशसे नगरमें यह घोषणा की गयी कि द्वारकामें कोई मदिरा न बनावे; जो नशीली वस्तु तैयार करेगा, उसे शूलीपर चढ़ा दिया जायगा ( मौसल ० १ । २८-३१ ) । आहुति - ( १ ) एक क्षत्रिय, जो जारूथी नगरीमें श्रीकृष्णसे पराजित हुआ था । इसी नगरीमें शिशुपाल आदिकी भी पराजयका उल्लेख मिलता है । ( वन० १२ । ३० ) । ( २ ) नारायणका एक नाम ( शान्ति ० ३३८ । ९२ ) । इ क्षुमती - कुरुक्षेत्र में या उसके निकट बहनेवाली एक नदी,
म० ना० ५
* कहीं-कहीं 'आडुक' को उग्रसेनका पिता कहा गया है; परंतु महाभारत में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । इसके बिपरीत उद्योग ० १२८ । ३८-३९ में आहुक उग्रसेनको एक व्यक्ति बताया गया है ।
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इन्द्र
जहाँ तक्षक और अश्वसेन- ये दो नाग रहा करते थे ( आदि० ३ । १४१ ) ।
इक्षुला - एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवर्षके लोग पीते हैं ( भीष्म० ९ । १७ ) ।
इक्ष्वाकु - (१ ) वैवस्वत मनुके दस पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ७५ | १५; अनु० २ । ५) | एक जापक ब्राह्मणके साथ इनका संवाद ( शान्ति० १९९ । ३९ - ११७ ) । इनकी सद्गतिका वर्णन ( शान्ति० २०० | २६ ) । इनके द्वारा मांस भक्षण-निषेध ( अनु० ११५ । ६६ )। इनके सौ पुत्र थे (अनु० २ । ५ ) । इनके स्वर्गवास के पश्चात् इन्हींके पुत्र शशाद राजा हुए ( वन० २०२ । १) | ( २ ) वैवस्वत मनुके प्रपौत्र एवं क्षुपके पुत्र; इनके भी सौ
पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़ा विंश था ( आश्व ० ४ । २) । इन्हें अपने पिता क्षुपद्वारा खड्गकी प्राप्ति हुई थी ( शान्ति० १६६ । ७३ )।
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इध्मवाह - दृढस्युका दूसरा नाम, ये अगस्त्य के पुत्र थे । ये (इम ( समिधा ) का भार वहन करनेसे 'इध्मवाह' कहलाये ( वन० ९९ । २७ ) ।
I
इन्द्र- (१) कश्यपसे उनकी पत्नी अदिति के गर्भ से जो बारह आदित्य उत्पन्न हुए, उनमें इन्द्र प्रमुख हैं ( आदि० ६५ | ११–१६; ७५ । १०-११ ) | ये वज्रधारी, वृत्रहन्ता, पुरंदर तथा तीनों लोकोंके स्वामी हैं ( आदि० ३ । १४८ - १४९ ) । देवश्रेष्ठ और सहस्राक्ष हैं ( आदि० २५ । ९--१३ ) । तक्षकद्वारा अपहृत हुए मदयन्तीके कुण्डलों की प्राप्ति कराने में इन्होंने उत्तङ्ककी सहायता की ( आदि ० ३ । १३१ ) । उत्तङ्कद्वारा इनकी स्तुति ( आदि० ३ । १४६ - १४९ ) । समुद्रमन्थन से इन्हें ऐरावत की प्राप्ति हुई ( आदि० १८ । ४० ) । कद्दूद्वारा इनकी स्तुति ( आदि० २५ । ७-१७ ) । इनके द्वारा की हुई वर्षा सर्पोंकी प्रसन्नता ( आदि० २६ अ० में इनके द्वारा वालखिल्य ऋषियोंका अपमान ( आदि० ३१ । १० ) | गरुड़के ऊपर इनका वज्रप्रहार और उनसे मित्रता स्थापित करनेकी इच्छा ( आदि० ३३ । १८२५ ) । इन्द्र और गरुड़की मित्रता ( आदि० ३४ । १ ) । सर्पोंसे छलपूर्वक अमृतका अपहरण ( आदि० ३४ । ८-२० ) । इन्द्रका तक्षकको आश्वासन ( आदि० ५३ । १५-१७ ) । इनके द्वारा कुन्ती के गर्भसे अर्जुनकी उत्पत्ति (आदि ० ६३ । ११६) । इनका ब्राह्मणका रूप धारण करके कर्णसे कवच-कुण्डल माँगना ( आदि० ६७ । १४४ - १४५ ) । विश्वामित्रका तप भङ्ग करनेके लिये मेनका अप्सराको भेजना ( भादि ० ७१ । २१-२६) । वायुका रूप धारण करके इनके द्वारा
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इन्द्र
जलक्रीड़ा करती हुई देवयानी आदि कन्याओंके वस्त्रोंका सम्मिश्रण ( आदि० ७८ । ४)। इनका ययातिके साथ वार्तालाप और उन्हें स्वर्गसे नीचे गिराना (आदि०८८। १-५)। पाण्डुद्वारा इन्द्रकी आराधना तथा इन्द्रका उन्हें वरदान ( आदि० १२२ । २६-२७) । कुन्तीद्वारा इनका आवाहन तथा इनके द्वारा अर्जुनका जन्म (आदि० १२२ । ३५)। जानपदी' नामक अप्सराको भेजकर इनका शरद्वान् ऋषिकी तपस्यामें विघ्न डालना । (आदि० १२९ । ६)। शिवजीद्वारा इनका हिमालयकी गुफामें अवरोध और मनुष्यलोकमें अर्जुनरूपमें जन्म लेने के लिये इन्हें आदेश (आदि. १९६ । ९-२६)। पाण्डवोंके निवासके लिये खाण्डवप्रस्थमें दिव्यनगरके निर्माणहेतु इनको श्रीकृष्णकी मानसिक प्रेरणा तथा खाण्डवप्रस्थमें दिव्य नगरका निर्माण करनेके लिये इनका विश्वकर्माको आदेश (आदि० २०६।२८ के बाद दा. पाठ, पृष्ट ५९३) । तिलोत्तमाके रूपसे मोहित होकर इनका सहस्रनेत्र होना (आदि. २१० । २७)। खाण्डववनकी रक्षाके लिये इनका श्रीकृष्ण तथा अर्जुनके साथ युद्ध ( आदि० २२६ अ० में)। इनके द्वारा तक्षकके पुत्र अश्वसेनकी रक्षा (आदि० २२६ । ९)। अर्जुनद्वारा इनकी पराजय (आदि० २२७ । २३)। श्रीकृष्ण तथा अर्जुनको इनका वरदान ( आदि० २३३ । १०१२)। नारदजीद्वारा इनकी दिव्य सभाका युधिष्ठिरके प्रति वर्णन (सभा० ७ अ० में)। भगवान् श्रीकृष्णद्वारा इनका मानमर्दन, इनके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णका गोविन्द' नामकरण ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८०१)। नरकासुरको मारनेके लिये इनकी श्रीकृष्णसे प्रार्थना ( पृष्ट ८०६ दा० पाठ)। इनका सुरभिसे वार्तालाप (वन०९। ६-१६)। इनके द्वारा अर्जुनको दिव्यास्त्र देनेकी स्वीकृति (वन ३७ । ५७-५८)। इनका अर्जुनको स्वर्गमें चलनेका आदेश ( वन० ४१ । ४३-४५)। इनके द्वारा चित्रसेनको अर्जुनके लिये संगीतविद्याकी शिक्षा देनेका आदेश (वन० ४४ । ८)। इनका अर्जुनकी प्रसन्नताके लिये चित्रसेनको उर्वशीके पास भेजना ( वन०४५। २)। उर्वशीके शाप देनेपर इनके द्वारा अर्जुनको आश्वासन ( वन० ४६ । ५५-५८)। इनका नरनारायणकी महिमा बतलाते हुए लोमश मुनिको युधिष्ठिरके पास संदेश देनेके लिये भेजना (आदि० ४७ । ७-३१)। इनका नलद्वारा दमयन्तीको संदेश देना ( वन० ५५। ६)। इनके द्वारा दमयन्ती स्वयंवर में राजा नलको वर- प्रदान (वन० ५७ । ३५-३६)। इनका कलियुगको
प्रति अन्याय करनेसे रोकना ( वन० ५८ । 11-
१२)। इनके द्वारा वृत्रासुरका वध (वन. १०१ । १४-१५)। इनका महर्षि च्यवनपर वज्र-प्रहार करनेको उद्यत होना ( वन०१२४ । १७)। मदासुरसे डरे हुए इन्द्रका अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बनाना ( वन० १२५ । २-३ ) । इनका युवनाश्वकुमार मान्धाताको अँगुली पिलाना (वन० १२६ । ३० द्रोण. ६२ । ७-८)। इनका बाज बनकर उशीनरसे कबूतरके बराबर तौलकर माम माँगना ( वन० १३१ । २३-२४)। इनके द्वारा राजा उशीनरको वर-प्रदान (वन० १३१ । ३०-३१ )। इनका यवक्रीतको वर-प्रदान (वन० १३५। ४१-४२)। नरकासुरको मारने के लिये इनकी विष्णुसे प्रार्थना (वन० १४२। २४)। इनके द्वारा गन्धमादन पर्वतपर युधिष्ठिरको आश्वासन ( वन० १६६। १३-१४) । हिरण्यपुरके विनाशके उपलक्ष्यमें इनके द्वारा अर्जुनका अभिनन्दन (वन० १७३१७२-७५)। इनका महर्षि वकसे चिरजीवियोंके सुख-दुःखके विषयमें प्रश्न ( वन. १९३ अ० में)। बाजरूपसे राजा शिबिसे वार्तालाप तथा उनसे कबूतरके बराबर मांस माँगना ( वन० १९७ । २०)। इनके द्वारा केशी दानवकी पराजय और देवसेनाका उद्धार ( वन० २२३ । १५)। देवसेनाके साथ ब्रह्माके पास जाना (वन० २२४ । २१-२२)। स्कन्दद्वारा पराजित होकर इनकी शरणमें जाना ( वन० २२७ । १७-१८)। स्कन्दको देवसेनापति पदपर अभिषिक्त करना (वन० २२९ । २३)। स्कन्दको देवसेनाके साथ पाणिग्रहणके लिये कहना (वन० २२९ । ४८)। रावण के पुत्र इन्द्रजित्से इनकी पराजयको चर्चा ( वन० २८८ । ३)। कर्णसे उसका कवच कुण्डल माँगना (वन० ३१०। ४)। कर्णको अपनी अमोघ शक्ति देना (वन०३१० । २३)। त्रिशिराको तपसे डिगानेके लिये अप्सराओंको भेजना (उद्योग. ९। ९-१२)। इनके द्वारा त्रिशिराका वध (उद्योग० ९ । २२-२४) ।त्रिशिराके सिर काटनेके लिये इनके द्वारा बढ़ईको वरदान ( उद्योग० ९ । ३७ )। त्रिशिराके वधसे लगा हुई ब्रह्महत्याका विभाजन ( उद्योग ९। ४३ के बाद दाक्षि० पाठ)। इनका वृत्रासुरके मुखसे बाहर निकलना ( उद्योग० ५ । ५४ )। भगवान् विष्णुके कहनेसे वृत्रासुरके साथ इनकी मैत्री ( उद्योग १० । ३२)। इनके द्वारा वृत्रासुरका वध ( उद्योग० १० । ३९)। इनका ब्रह्महत्याके भयसे जलमें छिपना (उद्योग १० । ४६) । इनके द्वारा ब्रह्महत्याका विभाजन (उद्योग० १३ । १९)। इनका प्रकट होकर पुनः नहपके भयसे अन्तर्धान होना ( उद्योग. १३।२१२२ )। इनका लोकपालोको उनका अधिकार प्रदान
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( ३५ )
करना ( उद्योग० १६ । ३१-३४ ) । अगस्त्यजीसे नहुषके पतनका वृत्तान्त पूछना (उद्योग० १७ । ६)। इनका महर्षि अङ्गिराको वरदान (उद्योग० १८।७)। स्वर्गमें आकर इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित होना ( उद्योग० १८।९)। मातलिके जामाता नागकुमार सुमुखको भगवान् विष्णुकी आज्ञासे दीर्घायु बनाना ( उद्योग १०४ । २८)। शिवद्वारा दिव्यकवचकी प्राप्ति, उससे सुरक्षित होकर इनका वृत्रको मारना तथा मन्त्र और विधिसहित वह कवच अङ्गिराको देना (द्रोण० ९४ ।। ६४-६६)। इन्द्र के लिये विश्वकर्माद्वारा विजय नामक धनुषका निर्माण तथा इन्द्रका उसे परशुरामको समर्पण करना ( कर्ण० ३३ । ४२-४४ )। त्रिपुरोंसे भयभीत होकर इनका देवताओंसहित ब्रह्माके पास जाना (कर्ण ३३ । ३७-४० )। कर्ण और अर्जुनके द्वैरथ-युद्ध में अर्जुनकी विजयके लिये इनका सूर्यसे विवाद ( कर्ण ८७ । ५७-५९)। इन्द्र के अनुरोधसे ब्रह्मा और शिवजीके द्वारा अर्जुनकी विजय घोषणा ( कर्ण० ८७ । ६४७३ ) । नमुचिके वधसे संकटमें पड़े हुए इन्द्रका अरुणासङ्गममें स्नान करनेसे उद्धार (शल्य० ४३ । ४३-४५)। इनके द्वारा स्कन्दको उत्क्रोश' और 'पञ्चक' नामक दो अनुचर-प्रदान (शल्य. ४५। ३५-३६)। स्कन्दको शक्ति नामक अम्र और घण्टाका दान (शल्य. ४६ । ४४-४५)। इनके द्वारा भरद्वाजकन्या अतावतीकी परीक्षा और उसे वर-प्रदान ( शल्य.४८।२-.५८)। इन्द्रतीर्थ में सौ यज्ञ करनेसे इनका शतक्रतु' नाम होना (शल्य०४९ । २-४)। कुरुक्षेत्रकी भूमि जोतते हुए राजर्षि कुरुके साथ इनका संवाद (शल्य ५३ । ५१५)। पक्षीरूपसे आकर इनका तपस्वियोंको गृहस्थ-धर्मका उपदेश (शान्ति.११।11-२६)। इनका रन्तिदेवको वरदान ( शान्ति. २९ । १२०-१२१)। बृहस्पतिजीसे समस्त प्राणियों के लिये प्रिय होने का उपाय पूछना (शान्ति० ८४ । २ )। अम्बरीषके पूछनेपर इनका उनके सेनापति सुदेवकी सद्गतिका कारण बनाना ( शान्ति. ९८ । ११ के बाद दाक्षि० पाठ से १३ तक )। अम्बरीषके पूछनेपर, इन्द्रका उनसे रणयज्ञका वर्णन करना (शान्ति० ९८ । १५-५०)। बृहस्पतिजीसे विजय प्राप्तिके उपाय पूछना (शान्ति. १०३ । ४-५)। प्रह्लादके पास शीलकी शिक्षाके लिये शिष्यरूपसे निवास और वररूपसे उसकी प्राप्ति ( शान्ति. १२४ । २८-६२) । विरूपाक्षको राजधर्माके शापकी कथा सुनाना (शान्ति० १७३ । ८-१०)। राजधर्माके कहनेसे गौतमको जीवन-दान देना ( शान्ति. १७३। १२-१३ )। आत्महत्याके लिये उद्यत काश्यपको सियारके
रूपमें प्रकट होकर समझाना ( शान्ति० १८० अ० में)। प्रह्लादके साथ इनका ज्ञानविषयक संवाद (शान्ति० २२२ । ९-३७)। ब्रह्मासे बलिका पता पूछना (शान्ति० २२३ । ३-७)। बलिपर आक्षेप (शान्ति० २२३ । १४.-२५; शान्ति० २२४।२--४)। लक्ष्मीके साथ संवाद और उनकी सुप्रतिष्ठा (शान्ति. २२५ । ५-२९ ) । बलिको जीवित चले जानेकी आज्ञा देना (शान्ति २२५ । ३३-३६) । नमुचिसे उसके श्रीहीन होनेपर भी दुःखित न होनेका कारण पूछना ( शान्ति. २२६ । ३)। राजलक्ष्मीसे भ्रष्ट होनेपर भी बलिसे शोक न करनेका कारण पूछना (शान्ति० २२७ । १४-१९ ) । बलिका उत्तर सुनकर उसकी बातोंका समर्थन और उसे अभय-दान (शान्ति० २२७ । ८९-५५६ ) नारदजीके साथ लक्ष्मीका दर्शन ( शान्ति. २२८ । १६-१८ )। असुरोंको त्यागकर आनेके विषय में लक्ष्मीसे प्रश्न ( शान्ति. २२८ । २८ ) । लक्ष्मीको साथ लेकर अमरावतीमें प्रवेश (शान्ति. २२८ । ८९)। इनके द्वारा अपनी पत्नी अहल्याकी धर्षणाकी गौतमद्वारा चर्चा (शान्ति० २६६ । ४७-५१) । इनका वृत्रासुरके साथ युद्ध और मोहित होना ( शान्ति. २८१ । १३२१)। देवताओं और ऋषियोंके प्रोत्साहनसे इनके द्वारा वृत्रासुरका वध (शान्ति. २८२ । ९)। ब्रह्महत्याके भयसे भागना और कमलनालमें छिपना (शान्ति. २८२ । ११-१८ ) । ब्रह्माद्वारा इन्हें ब्रह्महत्यासे छुटकारा प्राप्त होना ( शान्ति. २८२ । ५६ )। अहल्यापर बलात्कारके कारण गौतमके शापसे इन्द्रकी दाढ़ी मूंछ हरी हो गयी और विश्वामित्रके शापसे इन्हें अपना अण्डकोश खो देना पड़ा, जिससे भेड़ेके अण्डकोश जोड़े गये ( शान्ति० ३४२ । २३)। इन्हें दुहरी ब्रह्महत्या लगी (शान्ति. ३४२ । ४२ )। नारदजीसे अद्भुत घटनाके विषयमें इनका प्रश्न करना (शान्ति० ३५२ । ७-९)। एक तोतेके साथ संवाद ( अनु० ५। १३-२८)। राजर्षि भङ्गास्वनको स्त्री बना देना (अनु० १२ । ५-१०)। भङ्गाखनके दो सौ पुत्रों में फूट डालना ( अनु० १२ । २९-३१) ।भङ्गास्वनपर प्रसन्न होकर वर देना (अनु. १२ । ४२-४३)। मतङ्गको तपस्यासे विरत करनेके प्रसंगमें उसके साथ संवाद (अनु. २७ । २७ से २९ । १२ तक)। मतङ्गको वरदान देना (अनु० २९ । २४-२५) । शम्बरासुरसे व्यवहारके विषयमें प्रश्न ( अनु० ३६ । ३) । महर्षि देवशर्माकी पत्नी रुचिको प्रलोभन देना और विपुलद्वारा फटकार पाना (अनु० ४३ । ७-२६) । बृहस्पतिजीसे
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(
३६ )
इन्द्रदमन
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उत्तम दानके विषयमें पूछना (अनु. ६२ । ५३)। अमरेश्वर, अमरेन्द्र, अमरोत्तम, असुरार्दन, असुरसूदन, ब्रह्माजीसे गोलोक और गोदानके विषयमें प्रश्न (अनु० बलभित्, बलहन्, बलहन्ता, बलजित्, बलनाशन, बल७२।६-१२) । ब्रह्माजीसे दुसरेकी गौका अपहरण करने- निषदन, बलसूदन, बलवृत्रन, बलात्रहन, बलवृत्रनिषके फलके सम्बन्धमें प्रश्न ( अनु० ७४ । १)। ब्रह्माजी- दन, बलवृत्रसूदन, भूतभव्येश, शचीपति, शक्र, शम्बरसे गोलोककी श्रेष्ठताके विषयमें प्रश्न (अनु. ८३ । १३. हन्, शम्बरपाकहन्, शतक्रतु, शतमन्यु, दशशताक्ष, १४)। कार्तिकेयको भेंट समर्पित करना (अनु० ८६ । दशशतनयन, दशशतेक्षण, दैत्यनिबर्हण, दैत्यासुरनिबर्हण, २५)। अगस्त्यजीको अपना परिचय देकर कमलकी दानवशत्रु, दानवघ्न, दानवारि, दानवसूदन, देवश्रेष्ठ, चोरीका कारण बताना ( अनु. ९४ । ४७-४९)। देवदेव, देवाधिप, देवगणेश्वर, देवपति, देवराज, देवराट, मातलिके पूछनेपर सबके वन्दनीय पुरुषका परिचय देना
देवेश, देवेन्द्र, हरि, हरिश्मश्रु, हरिय, हरिमान्, हरि(अनु० ९६ । २२ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ १७८३)। वाहन, ईश्वर, जगदीश्वर, काश्यप, कौशिक, किरीटी, कुशिधृतराष्ट्र के रूपमें इनके द्वारा गौतमनामक ब्राह्मण- कोत्तम, लोकत्रयेश, लोकेश्वरेश्वर, मधवा, महेन्द्र, मरुके हाथीका अपहरण कर लिये जानेपर इनके साथ
त्पति, मरुत्वान्, मुकुटी, नमुचिन, नमुचिहन्, पाकशासन, संवाद ( अनु० १०२ । ७-६१) । महर्षि विद्युत्प्रभको पर्जन्य, पुरन्दर, पुरुभूत, पूषानुज, पुष्करेक्षण, सहस्रका पापसे छूटनेका उपाय बताना (अनु० १२५ । ४८-५०)। सहस्राक्ष, सहस्रलोचन, सहस्रनवन, सहस्रनेत्र, सर्वदानवबृहस्पतिजीसे धर्मके विषयमें जिज्ञासा ( अनु० १२५। सूदन, सर्वदेवेश, सर्वलोकामर, सुरश्रेष्ठ, सुराधिप, सुर५९) । अश्विनीकुमारोंके निमित्त च्यवनके साथ संघर्ष गणेश्वर, सुरपति, सुरपुङ्गव, सुरराट, सुरराज, सुरारिइन्, (अनु० १५६ । १६-३१)। पञ्चशिखावाले बालकके सुरर्षभ, सुरसत्तम, सुरेश, सुरेश्वर, सुरेन्द्र, सुरोत्तम, रूपमें शिवजीपर व प्रहार करते समय इनकी बाँहका
त्रैलोक्यपतिः त्रैलोक्यराज, त्रिभुवनेश्वर, त्रिदशाधिप, स्तम्भित होना और शिवजीकी कृपासे पुनः इनका संकट
त्रिदशाधिपति, त्रिदशेश, त्रिदशेश्वर, त्रिदशेन्द्र, त्रिदिवेमुक्त होना (अनु. १६० । ३३-३६ ) । वृहस्पतिजीको
श्वर, त्रिलोकराजा त्रिलोकेश, वज्रभृत, वज्रधर, वज्रधारी, मरुत्तका यज्ञ करानेसे रोकना ( आश्व० ५। १८-२१)।
वज्रधृक, वजहस्त, वज्रपाणि, वज्रायुध, वज्री, वरद, वासव, बृहस्पतिजीसे उनकी चिन्ताका कारण पूछना (आश्व०
विबुधश्रेष्ठ, विबुधाधिप, विबुधाधिपति, विबुधेश्वर, विश्वभुक, ९।१-५)। अग्निको दूत बनाकर भरुत्तके पास संदेश
वृषाकपि, वृत्रशत्रु, वृत्रहन्, वृत्रहन्ता, वृत्रनिषूदन । भेजना ( आश्व० ९। ८)। गन्धर्वराज धृतराष्ट्रको दूत (२)पाञ्चजन्यद्वारा बलसे प्रकट किया गया 'इन्द्र' नामक बनाकर मरुत्तके पास भेजना (आश्व० १०।२)।
अग्नि (वन० २२० । ७)। मरुत्तपर वज्र-प्रहार करनेको उद्यत होना ( आश्व०१०।
इन्द्रकील-हिमालय और गन्धमादनसे आगेका एक पर्वत, ८)। मरुत्तके यज्ञमें जाना ( आश्व० १०।२०)।
जिसका अभिमानी देवता कुबेरका उपासक है (सभा. यज्ञमण्डपकी व्यवस्था करना (आश्व० १०।२६-३०)।
१०। ३२, वन०३७ । ४२)। इनके द्वारा शरीरस्थ वृत्रासुरका संहार (आश्व०११ । १९)। चाण्डालरूपसे उत्तङ्कको अमृत पिलानेके लिये इन्द्रजित्-राक्षसराज रावणका पुत्र, इसका लक्ष्मणके साथ प्रकट होना (आश्व० ५५ । १८-१९)। मुनिके इनकार
युद्ध (वन० २८५। ८)। इसके द्वारा राम-लक्ष्मणका करनेपर अन्तर्धान होना (आश्व० ५५ । २२)। ब्राह्मण
मूर्छित होना ( बन० २८८ । २६) । लक्ष्मणद्वारा इसका
वध ( वन० २८९ । २३)। का रूप धारण करके उत्तङ्ककी सहायता करना ( आश्व० ५८।३२-३३)। उत्तङ्क मुनिके डंडे में वज्रास्त्रका संयोग इन्द्रतापन-वरुणकी सभामें उनकी उपासना करनेवाला करना ( आश्व० ५८ । ३५ )। इनके द्वारा स्वर्गमें एक दैत्य ( सभा० ८। १५)। श्रीकृष्णका स्वागत ( मौसल. ४ । २८) । इन्द्रका इन्द्रतीर्थ-सरस्वती तटवर्ती एक तीर्थ, जहाँ इन्द्रने सौ यज्ञोंयुधिष्ठिरको अपने रथपर बैठकर सदेह स्वर्ग चलने के लिये का अनुष्ठान किया था; इसकी विशेष महिमा (शल्य. कहना और उनके आश्रितवात्सल्यकी परीक्षा करना ४८। १८, ४९ । २-५)। (महाप्रस्था० ३। १-२९)। धर्मप्रेरित इन्द्रके द्वारा इन्दतोया-गन्धमादनपर्वतके निकट बहनेवाली एक नदो, युधिष्ठिरकी पुनः परीक्षा--देवदूतद्वारा उन्हें मायामय यहाँ स्नान और तीन रात उपवासका फल अश्वमेधका नरकका दर्शन करवाना (स्वर्गा० २ अ०में)।
पुण्य (अनु० २५ । ११)। महाभारतमें आये हुए इन्द्रके नाम---अदितिनन्दन, इन्द्रदमन-एक प्राचीन नरेश । इनके द्वारा ब्राक्षणको धन
आखण्डल, अमरश्रेष्ठ, अमराधिप, अमरराल, अमरेश, दान (शान्ति. २५ । १८)।
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इन्द्रधुम्न
( ३७ )
इरावान्
इन्द्रद्युम्न-(१) एक असुरभावापन्न नरेश, जो श्रीकृष्ण- गमन (वन० १ । ११) । गन्धमादनजाते समय पाण्डवोंका
द्वारा मारा गया (वन० १२ । ३२)। (२) एक इन्द्रसेनको पुलिन्दराज सुबाहुके यहाँ छोड़ना(वन०१४०। महर्षि (वन. २६ । २२ )। (३) राजा जनकके २७)। इसका धात्रेयिकासे द्रौपदीका समाचार पूछना (वन० पिता (वन० १३३ । ४ )। (४) एक प्राचीन २६९।११-१५)। इन्द्रसेनको द्वारका जानेका आदेश राजर्षि, जो कीर्ति लोप होनेसे स्वर्गसे भूतलपर गिरे और (विराट०४।३)। इन्द्रसेनका द्वारका-गमन (विराट एक चिरजीवी कच्छपद्वारा अपनी कीर्तिका बखान सुनकर ४ । ५८)। उपप्लव्य नगरमें अभिमन्युके विवाहमे जाना
पुनः स्वर्गलोकमें जा पहुँचे थे ( वन० १९९ अध्याय )। (विराट०७२ । २३)। (३) एक कौरवपक्षका योद्धा इन्द्रद्युम्नसरोवर-(१) गन्धमादन पर्वतके समीपवर्ती
(द्रोण०१५६ । १२२) (४) इन्द्रसेन (और इन्द्रसेना) सरोवर । यहाँ पत्नियोंसहित पाण्डुका आगमन ( आदि.
निषधनरेश नलके पुत्र और पुत्री, इनकी माता ११८ । ५० ) । (२) द्वारकापुरीका एक सरोवर
दमयन्ती थी। दमयन्तीद्वारा नलके जुएमें हारनेकी (सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ०, पृष्ठ ८१६)।
आशङ्का होनेपर वार्ष्णेयसे इन्द्रसेन और इन्द्रसेनाको कुण्डिन
पुर भेजवाना (वन० ६०॥१८-२४) । इन दोनोंकी पुनः इन्द्रद्वीप-एक द्वीपका नाम, जिसे पहले सहस्रबाहुने जीतकर
राजा नलसे भेंट (वन० ७५ । २४)। अपने अधिकारमें किया था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७९२ )।
इन्द्रसेना-(१) राजा नलकी पुत्री ( देखिये इन्द्रसेन
और इन्द्रसेना') (२) नारायणकी कन्या और इन्द्रपर्वत-विदेहदेशवर्ती एक पर्वत (सभा० ३०।१५)।
मुद्गलकी पत्नी, अप्रतिम सुन्दरी होकर भी इसने एक इन्द्रप्रस्थ-पाण्डवोंकी राजधानी ( वर्तमान दिल्ली )।
हजार वर्षके बूढ़े पति मुद्गलका अनुसरण किया ( वन० विश्वकर्माद्वारा इसका निर्माण । इसका इन्द्रप्रस्थ' नाम
११३ । २४, ( विराट०२१ । ११)। होनेका कारण (आदि० २०६ । २८ के बाद)। व्यास
इन्द्राणी-इन्द्रपत्नी शची ( देखिये शची)। द्वारा इसके भूभागका शोधन ( आदि० २०६ । २९)। इसका विशद वर्णन (आदि० २०६। २९ के बाद दा० पा०,
इन्द्राभ-भरतवंशीय महाराज कुरुके प्रपौत्र एवं धृतराष्ट्रके पृष्ठ ५९५.२०६ । ४९ तक) । (आदिपर्वके २०७,
___सातवें पुत्र ( आदि० ९४ । ५९)। २१८, २२०, २२१ अध्यायोंमें; सभापर्वके १३, २४, इन्द्रोत-शुनकवंशी ऋषि । राजा जनमेजयको फटकारना ३२, ७३ वनपर्वके ५१, २३३, २३७, विराटपर्वके १८, (शान्ति०१५०। ९-१९)। राजा जनमेजयसे ब्राह्मणों के ५०, उद्योगपर्वके २६, ५५, ९५: भीष्मपर्वके १२१, प्रति द्रोह न करनेकी प्रतिज्ञा कराकर उन्हें अपनी शरणमें शान्तिपर्वके १२४ तथा आश्वमेधिकपर्वके १५ अध्यायोंमें लेना (शान्ति० १५१ । १०-२१) । राजा जनमेजयको भी इन्द्रप्रस्थ'का नाम आया है । मौसलपर्व ७ । ७२ में धर्मोपदेश करके उनसे अश्वमेध यज्ञ कराना (शान्ति. यह कथा आयी है कि अनिरुद्धके पुत्र वज्रको इन्द्रप्रस्थमें १५२ अमें)। यादवोंका राजा बनाया गया था।)
इरा-( १ ) कुबेरकी सेवामें रहनेवाली अप्सरा ( सभा० इन्द्रमार्ग-एक प्राचीन तीर्थ । यहाँके स्नानका फल स्वर्गकी १०।११)। (२) ब्रह्माके सभाभवनमें उनकी प्राप्ति ( अनु० २५ । ९)।
उपासना करनेवाली एक देवी ( सभा०११ । ३९)। इन्द्रलोकाभिगमनपर्व-वनपर्वके अन्तर्गत एक अवान्तर इरामा-एक महानदी, जिसे मार्कण्डेयजीने भगवान् बालपर्व ( अध्याय ४२ से ५१ तक )।
मुकुन्दके उदरमें देखा था (वन० १८८ । १०४ )। इन्द्रवर्मा-मालवनरेश । पाण्डवपक्षके योद्धा । इनके इरावती-पञ्चनद प्रदेशकी रावी नदी, जो दिव्यरूप धारण अश्वत्थामा नामक हाथीका भीमसेनद्वारा वध ( द्रोण.
करके अन्य नदियोंके साथ वरुणकी सेवामें उपस्थित १९० । १५)।
होती है । सभा०९। १९)। पार्वतीजीने स्त्रीधर्म इन्द्रसेन-(१) सोमवंशीय महाराज अविक्षितके पौत्र एवं वर्णन करने के सम्बन्धमे जिन नदियोंसे सलाह ली थी, परीक्षित्के पुत्र ( आदि. ९४ । ५५ ) । (२)
उनमें इरावती' भी उपस्थित थी ( अनु. १४६ । पाण्डवोंका सारथि ( सभा० ३३ . ३०) । युधिष्ठिरकी आज्ञासे इन्द्रसेनका द्वारका भगवान् श्रीकृष्णको इरावान्-अर्जुनके द्वारा नागकन्या उलूपीके गर्भसे उत्पन्न बुलानेके लिये जाना और उनसे चलनेका अनुरोध करना पुत्र ( आदि० २१३। ३६ के बाद दाक्षिणात्य (समा० १३ । ४१.४२)। इसका पाण्डवोंके साथ बन- पाठ)। प्रथम दिनके युद्धगें श्रुतायुष के साथ इनका
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(
३८
)
उनक
द्वन्द्व युद्ध (भीष्म ४५१६९-७१)। इनके द्वारा विन्द इषुपाद-एक दानव । माता दनु' । पिता कश्यप (आदि.
और अनुविन्दकी पराजय (भीष्म० ८३ । १८-२२)। ६५।२५ ) । यही विख्यात पराक्रमी राजा नग्नजित्के इनका युद्ध करके शकुनिके पाँच भाइयोंका वध करना
रूपमें उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । २०-२१)। (भीष्म० ९० । २७-४६)। अलम्बुषके साथ युद्ध और उसके द्वारा इनका वध (भीष्म० ९० । ५६
ईजिक-एक देश (भीष्म० ९ । ५२)। इला-(१)वैवस्वत मनुकी पुत्री, पुरुषरूपमें परिणत ईरी-यमराजकी सभामें वैवस्वत यमकी उपासना करनेहोनेपर इनका नाम सुद्यम्न हुआ (आदि० ७५। वाले एक सौ ईरी' नामवाले नरेश ( सभा०८ ।
१६; अनु०१४७ । २६)। [ये दो बार अपने जीवन- २३)। में स्त्री होकर पुरुष हुए थे। पहले तो इन्होंने होताओंके
ईलिन-पूरुवंशी महाराज तंसुके पुत्र । इनकी पत्नीका दोपसे कन्या होकर ही जन्म लिया था। बाद में वशिष्ठजी
नाम रथन्तरी' था। उसके गर्भसे इनके दुप्यन्ता शूर, की कृपासे पुरुष हुए और दुबारा इलावृतखण्डमें जाकर महादेवजीके शापसे स्त्री हुए थे। यह कथा श्रीमद्भागवत
__भीम, प्रवसु तथा वमु नामक पाँच पुत्र हुए थे (आदि० के नवम स्कन्धमें देखना चाहिये। 1 इनके गर्भसे पुरू
९४ । १६-१८)। रवाका जन्म हुआ ( फिर ये पुरुष हो गये )। अतः ईश-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३५ )। पुरूखाके पिता और माता दोनों कहे जाते हैं ( आदि० ईशानाध्यषिततीर्थ-एक प्राचीन तीर्थ, जिसके सेवनसे ७.५ । १८-१९)। इला बुधकी पत्नी और पुरूरवाकी
सहस्र कपिलादान और अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है माता थी (अनु. १४७।२७) । (२) एक नदी,
(वन० ८४ । ८-९)। जिसने कार्तिकेयको फल-फूलकी भेंट अर्पित की थी (अनु. ८६ । २४)। इला नदी सम्बन्धी तीर्थमें युधिष्ठिरने
ईश्वर-(१) ग्यारह रुद्रों से एक, ब्रह्माजीके पौत्र एवं ब्राह्मणोंसहित स्नान किया था (वन. १५६।८)।
स्थाणुके पुत्र (आदि० ६६ । ३)। (२) एक
राजा, जो क्रोधवश नामक दैत्यों से किसीके अंशसे उत्पन्न इलावृतवर्ष-जम्बूद्वीपका मध्यवर्ती भूभाग (सभा० २८ ।
हुआ था ( आदि. ६७ । ६५ )। (३) ६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)।
राजा पुर के द्वारा पौष्टीके गर्भसे उत्पन्न द्वितीय इलास्पद-एक प्राचीन तीर्थ, इसमें स्नान करनेसे दुर्गतिका
पुत्र, महारथी (आदि० ९४ । ५)।(४) एक निवारण तथा वाजपेय यज्ञका पुण्यफल सुलभ होता है विश्वेदेव (अनु. ९१।३७)। ( वन० ८३७७-७८)। इलिल-एक पुरुवंशी राजा । सम्राट् दुष्यन्तके पिता
उक्थ-(१) परावाणीका उत्पादक एक अग्नि, जिसकी (आदि० ७१।७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। इनकी ।
विविध उक्थ-मन्त्रीद्वारा स्तुति की जाती है ( वन० भार्या का नाम 'रथन्तर्या' था (आदि० ७४ । १२५ के
२१९ । २५)। (२) सामवेदका एक विशेष बाद दाक्षिणात्य पाठ)। दुप्यन्तके पिता तथा माताके
भाग। ये नान दाक्षिणात्य पाठके अनुसार दिये गये हैं । उदीच्य पाठके अनुसार इनके पिताका नाम ईलिन' और माता- उक्षा-ऋषभकन्दका नाम (वन० ५९७ । १७)।
का नाम रथन्तरी' था ( आदि० ९४ । १६-१८)। उन-(१) धृतराष्ट्र के पुत्रों से एक (आदि. ६७ । इल्वल--मणिमती नगरीका निवासी एक दैत्य (वन०
१०३) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( भीष्म०६४ । ९६ । ४)। एक ब्राह्मणसे रुष्ट होने के कारण यह ब्राह्मण.
३४-३५)। (२) एक यादव राजकुमार, जिसे द्रोही होकर छलसे ब्राह्मणोंकी हत्या किया करता था
पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजा गया ( उद्योग (वन० ९६।५-१३)। इसका अगस्त्यजीसे मैं कितना
४। १२ )। (३) भगवान् शिवका एक नाम धन दान करना चाहता हूँ ?' यह पूछना (वन० ९९ ।
( अनु० १७ । १००)। (४) प्रजापति कविके पुत्र। १३)। इसके द्वारा श्रुता, अध्नश्व, त्रसदस्यु और
(अनु. ८५ । १३३)। (५) एक वर्णसंकर जाति । अगस्त्यजीको धनका दान (वन० ९९ । १६)।
क्षत्रिय पुरुष और शूद्रा स्त्रीके संयोगसे उत्पन्न अगस्त्यजीके हुङ्कारसे इसका भस्म होना ( वन० ५५ ।
बालक (अनु. १४८ । ७)। ५७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)।
उग्रक-एक प्रमुख नाग (आदि. ३५ । ७)।
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उग्रकर्मा
उण्ड्र ( या उड्र)
उग्रकर्मा (१) शाल्व देशका राजा. जो भीमसेन के द्वारा दिया, फिर मद्यनिषेधकी आज्ञा जारी की (मौसल. मारा गया (कर्ण० । ४१)। (२) केकय-राज- १। २७-३०)। उग्रसेन मृत्युके पश्चात् विश्वेदेवोंमें कुमार विशोकका सेनापति, कर्णद्वारा इसका वध मिल गये थे ( स्वर्गा० ५। १७.१८)। (६) सोम(कर्ण० ८२ । ४-५)।
वंशीय राजा अविक्षितके पौत्र तथा परीक्षितके पुत्र उग्रतीर्थ-क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे प्रकट हुआ एक
(आदि० ९४ । ५२-५४)। क्षत्रिय राजा ( आदि०६७।६५)।
उग्रायुध-(१) धृतराष्ट्रका एक पुत्र (आदि० ६७ । उग्रतेजा-(१) भगवान् शिवका एक नाम (अनु० १७ ।
९९)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमैं गया था ( आदि. ५७)। (२) एक श्रेष्ठ नाग, जो बलरामजीके परम
१८५। २)। (२) पाण्डवपक्षीय एक पाञ्चाल योद्धा, धाम पधारनेके समय उनके स्वागतके लिये आया था
कर्णद्वारा घायल (वर्ण० ५६ । ४४)। (३) कौरव( मौसल० ४ । १६ )।
पक्षका एक योद्धा, जो पराक्रमी और आदर्श धनुर्धर था,
युद्धक्षेत्र में मारा गया (शल्य. २ । ३७)। (४) उग्रश्रवा-(१) लोमहर्षणपुत्रः सौतिः पौराणिक
एक दुर्धर्ष चक्रवर्ती नरेश, जिसे भीष्मजीने किसी समय (आदि०१।१)। (२) धृतराष्ट्रका एक पुत्र
मारा था (शान्ति० २७ । १०)। (आदि० ६७ । १०० ) । भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण० १५७ । १९)।
उग्रायुधपुत्र-कौरव-पक्षका एक संशप्तक योद्धा, जिसे उग्रसेन-(१) महाराज जनमेजयका एक भाई, जिसने
अर्जुनने मारा था ( कर्ण० १९ । ७)। अन्य दो भाइयोंके साथ सरमा-पुत्रको मारा था उच्चैःश्रवा-(१) समुद्र-मन्थनके समय समुद्रसे प्रकट (आदि.३ । १-२) (२) मुनि'नामवालो कश्यपकी हुआ सर्वश्रेष्ठ अश्व, जो देवलोक में चला गया ( आदि. पत्नीका एक पुत्र, देवगन्धर्व (आदि० ६५ । ४२)। १८ । ३३-३७)। इसके शरीरका रंग कैसा है-इस यह अर्जुनका जन्मोत्सव देखने गया था (आदि०१२२।। प्रश्नको लेकर कद् एवं विनताका विवाद (आदि० ५५)। विराटनगरमें अर्जुन और कृपाचार्यका युद्ध २० । २ से २३ । ३ तक)। (२) पूरुवंशी महाराज देखनेके लिये भी इसने पदार्पण किया था ( विराट ० ५६ । कुरुके पौत्र तथा अविक्षित्के छठे पुत्र ( आदि. ९४ । ११-१२)। (३)एक राजा, जो स्वर्भानु' नामक असुरके अंशसे प्रकट हुआ था (आदि०६७ । १२-१३)। उच्छिख-तक्षककुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके (४) (चित्रसेन ) धृतराष्ट्रका एक पुत्र (आदि० समन जलमग
सर्पसत्रमें जल मरा था (आदि. ५७ । ५)। ६७ । १००)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १३७ । २५-३०)। (५) ये वृष्णिवंशके प्रतापी उच्छ्रङ्ग-विन्ध्यद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक, राजा और राजा कुन्तिभोजके फुफेरे भाई थे इसका दूसरा साथी अतिशृङ्ग था ( शल्य० ४५ । ४१)। ( आदि० ६७ । १३०; २१६ । ८ )। राजा उज्जयन-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० उग्रसेनका दूसरा नाम आहुक था ( उद्योग० १२८ । ३८-३९; अनु. १४ । ४१)। इनके मन्त्री वसुदेव थे।
और पुत्र बलवान् कंस; कंस अपने पिता उग्रसेनको केट उज्जयन्त पर्वत-सौराष्ट्र देश ( काठियावाड़) के पिण्डारक करके मन्त्रियोंके साथ इनका राज्य भोगने लगा ( सभा० क्षेत्रके अन्तर्गत एक महान् सिद्धिदायक पर्वत ( वन० २२ । ३६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ट ७३१)। उग्रसेन- ८ । २१)। की सम्मतिसे श्रीकृष्णने भाइयोसहित कंसको मारकर पुनः उजानक-मानसरोवरसे आगे गन्धमादनके निकट आर्टिषणउग्रसेनको ही मथुराके राज्यपर अभिषिक्त किया (सभा० के आश्रमके पासका एक तीर्थभूत सरोवर, इसमें स्नान पृष्ट ७३२)। उग्रसेन और वृष्णिवंशको जरासंधसे सदा करनेसे पापोंसे छुटकारा मिलता है (वन० १३० । १७; क्लेश प्राप्त होता था (सभा० पृष्ट ७३२)। शाल्वके
अनु. २५ । ५५)। चढ़ाई करनेपर उग्रसेनके द्वारा नगरकी सुरक्षा (वन.
उज्जालक-मरुप्रदेशमें स्थित बालुकामय समुद्र (वन०२०२। १५ । २३)। श्रीकृष्णसे नारदजीकी पूज्यताके विषयमें उजा प्रश्न (शान्ति० २३० । ३)। साम्बके पेटसे पैदा हुआ ५६) । मुसल उग्रसेनको दिया गया, उसे देखकर ये दुखी हुए उण्ड्र (या उडू)-दक्षिण भारतका एक जनपद, जिसे और उसे कुटवाकर चूर्ण बनवाकर इन्होंने समुद्र में फेंकवा सहदेवने दूतोद्वारा जीत लिया था (सभा०३३ । ७१)।
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उतथ्य
उत्तङ्क
युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें उण्डूनिवासी भेंट लेकर आये ३।१४०)। नागलोकमें वस्त्र बुनती हुई दो स्त्रियों थे (वन० ५५ । २२)।
तथा चक्र घुमाते हुए छः कुमारों एवं एक दिव्य पुरुषका
इन्हें दर्शन होना तथा इनका उनकी स्तुति करना (आदि. उतथ्य-महर्षि अङ्गिराके मध्यम पुत्र (आदि०६६।५)। महाराज मान्धाताको राजधर्मके विषयमें इनका उपदेश
३ । १४४-१४९)। इनके द्वारा घोड़ेकी गुदा फूंकनेसे
आगकी लपटोका प्रकट होना एवं आगसे भयभीत होकर (शान्ति० ९० और ११ अध्यायोंमें)। सोमकी कन्या
तक्षकका कुण्डल देना (आदि०३ । १५१-१५३ )। भद्राके साथ विवाह ( अनु०१५४ । १२)। वरुणद्वारा भद्राका अपहरण किये जानेपर इनका सम्पूर्ण जल पी
नागलोकमें देखे हुए कुमार आदिके विषयमें इनका गुरुसे
पूछना (आदि.३। १६३) । बैल और उसपर चढ़े लेना (अनु. १५४ । २२-२८)।
हुए पुरुषके सम्बन्धमें इनकी जिज्ञासा ( आदि० ३ । उत्कल-भारतवर्षका एक जनपद (भीष्म० ९ । ४१)।
१६५)। गुरुके द्वारा इनके प्रश्नोंका समाधान (आदि. कर्णने दुर्योधनके लिये इस देशको जीता था ( द्रोण० । ३ । १६६-१६८) । तक्षकके विनाशहेतु सर्पयज्ञके लिये ४।८)।
राजा जनमेजयको सर्पसत्रकी सलाह देना (आदि. ३ । उत्कोचक-एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ महर्षि धौम्य तपस्या १७८-१८४)।(२) गौतम ऋषिके शिष्य, द्वारका जाते करते थे, पाण्डवोंने यहींपर धौम्यमुनिका पुरोहितके रूपमें
समयमार्गमें श्रीकृष्णसे इनकी भेंट और उनसे कौरवों पाण्डवोंवरण किया था (आदि० १८२।२-६)।
का समाचार पूछना (आश्व० ५३ । ८-१४)। कुपित
होकर इनका श्रीकृष्णको शाप देनेके लिये उद्यत होना उत्क्राथिनी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ ।
(आश्व० ५३ । २०-२२)। श्रीकृष्णसे अध्यात्मतत्त्वका १६)।
वर्णन करनेके लिये कहना (आश्व० ५४।१)। शापउत्क्रोश-इन्द्रद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक, दानसे निवृत्त होकर इनका श्रीकृष्णसे विश्वरूपका दर्शन इसके दूसरे साथीका नाम पञ्चक था (शल्य०४५। करानेके लिये प्रार्थना करना (आश्व० ५५। ३-३)। ३५)।
श्रीकृष्णसे जलके लिये वरदान माँगना ( आश्व० ५५। उत्तर-(१) आयोदधौम्यके तीसरे शिष्य वेदके शिष्य
१३)। श्रीकृष्णका इन्हें उत्तङ्क नामक मेघोंसे जल प्राप्त (आदि०३ । ८३)। इनकी गुरुसेवा (आदि० ३ ।
होनेका वर देना (आश्व० ५५ । ३५-३७)। इनकी ८५)। इनके द्वारा गुरुपत्नीकी अवैध आज्ञाका उल्ल
उत्कृष्ट गुरुभक्ति (आश्व० ५६ । २-६)। उत्तङ्कका वन (आदि० ३। ८७)। गुरुपत्नीके कहनेपर इनका
गुरुके लिये काष्ठका बोझ लाना । उस बोझके साथ गिरी राजा पौष्यके यहाँसे कुण्डल लानेके लिये जाना ( आदि. हुई सफेद जटा देखकर वृद्धावस्थाका अनुमान करके इनका ३ । ९८)। इनके द्वारा अमृतस्वरूप गोमयका भक्षण रोदन) गुरुपुत्रीका इनके आँसुओंको अपने हाथमे लेना (आदि०३।१०१)। गुरुपत्नीके लिये राजासे कुण्डल- और उसका हाथ जलना, गुरुके पूछनेपर 'घर जानेकी की याचना (आदि.३।१०४)। क्षत्राणीके अन्तः- आशा न मिलनेसे ही मुझे दुःख हुआ है' यह बताना पुरमें उपस्थित न होनेकी बात बताकर इनका राजाको तथा गुरुका इन्हें आज्ञा लेकर घर जानेका आदेश देना;
आलम्भ देना (आदि०३ । १०६)। फिर आचमन उत्तङ्कका 'गुरुदक्षिणा क्या दूँ ?' यह पूछना, गुरुका आदिसे शुद्ध होनेपर इनको क्षत्राणीका दर्शन होना और बिना दक्षिणाके ही संतोष व्यक्त करके उन्हें पुत्री देनेकी उनसे इनका कुण्डल माँगना (आदि. ३ । १११)। इच्छा व्यक्त करना तथा उत्तङ्कका षोडशवर्षीय युवक होकर इनका राजा पौष्यको अपवित्र अन्न खिलानेके कारण शाप उसका पाणिग्रहण करना (आश्व० ५६ । ७-२४)। देना (आदि. ३ । ११६) । पौष्यद्वारा इनको अनपत्य इनका गुरुपत्नीसे गुरुदक्षिणा माँगनेका आग्रह और होनेका शाप ( आदि०३ । ११७) । कुण्डल लेकर अहल्याका मदयन्तीके कुण्डल माँगना (आश्व० ५६ । आते समय इनकी क्षपणकरूपधारी तक्षकसे भेंट तथा २५-२९) । कुण्डल लाने के लिये सौदासके पास जाकर उसके द्वारा कुण्डलोंका हरण होना (आदि.३।१२७)। उनके साथ इनका वार्तालाप करना ( आश्व० ५७ । ३इनका क्षपणकका पीछा करना एवं क्षपणकका तक्षकरूपमें १८) । मदयन्तीको राजाका संदेश सुनाकर कुण्डल प्रकट होकर नागलोकमें जाना (आदि. ३ । १२९. माँगना (आश्व० ५७ । १९)। राजा सौदाससे रानीके १३०)। नागलोक जाते समय इनकी सहायताके लिये लिये संदेशका प्रमाण माँगना (आश्व० ५८ ।।)। इन्द्रका वज्रको आदेश देना (आदि.३।१३.)। मदयन्तीको राजाका संदेश सुनाकर कुण्डल प्राप्त नागलोकमें जाकर इनके द्वारा तशकको स्तुति (आदि. करना ( आश्व० ५८ । ३)। सौदासके साथ
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उत्तमाश्व
उत्तर दिशा
पुनः इनकी बातचीत (आश्व० ५८ । ४-१६)। इनके पूछना ( विराट० ४५ । १२ ) । घायल होनेसे तृक्षपर चढ़कर बेल तोड़कर गिराते समय कुण्डलों की चोरी हतोत्साह होकर अर्जुनसे सारथ्यके लिये अपनी असमर्थता ( आश्व० ५८ । २४-२६)। इनका डंडेसे साँपकी बाँबी प्रकट करना (विराट. ६१ । ४-१२)। अर्जुनके खोदना (आश्व० ५८ । २७-२८)। इन्द्र की सहायता
आदेशसे कौरव महारथियोंके वस्त्र उतार लेना (विराट. से नागलोकमें पहुँचना (आश्व०५८ । ३६-३८)।
६६।१५)। बृहन्नलाको सारथि बनाकर इनका नगरअश्वरूप अग्निकी सहायतासे कुण्डल प्राप्त करना
की ओर प्रस्थान ( विराट. ६७ । १४) । उत्तरका (आश्व० ५८ । ५६) । गुरुपत्नीको कुण्डल देना नगरमें प्रवेश करके पिता तथा ककके चरणोंमें अभिवादन ( आश्व० ५८ । ५८ )। इनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर
(विराट०६८ । ५७ ) । विराटसे युद्धका समाचार भगवान् विष्णुका इन्हें वरदान देना (वन० २०१।३०)।
बताना (विराट. ६९ । १-११)। पितासे पाण्डवोंका इनका अयोध्यानरेश बृहदश्वसे धुन्धुको मारनेके लिये परिचय देना (विराट०७१।१३-१७)। अर्जुनका आग्रह करना (वन० २०२ । २२)।
विशेषरूपसे परिचय देना (विराट. ७१ । १८-२१)।
प्रथम दिनके युद्ध में वीरबाहु के साथ द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म. उत्तमाश्व-भारतवर्षका एक जनपद (भीष्म. १४१)।
४५ । ७७ )। शल्यपर आक्रमण और उनके द्वारा उत्तमौजा-पाण्डवोंका सम्बन्धी । पाञ्चालदेशीय योद्धा इनका वध ( भीष्म० ४७ । ३६-३९ ) । स्वर्गमें
( उद्योग. ५७ । ३२ )। इनके द्वारा अर्जुनके रथके जाकर इनका विश्वेदेवोंमें प्रवेश (स्वर्गा० ५। १७-१८)। दाहिने पहियेकी रक्षा ( भीम. १५ । १९, भीम. (२) एक राजा, जो अपने बड़ेका अपमान करनेके १९ । २४; भीष्म• ९८ । ४३)। इनके रथ के घोड़ोंका कारण नष्ट हो गया ( सभा. २२ । २१ )। वर्णन (द्रोण• २३ । ८)। अङ्गदके साथ इनका युद्ध (३) एक अग्नि, तीन दिन अग्निहोत्र छूट जानेपर (द्रोण. २५ । ३८-३९ )। कृतवर्माके साथ युद्ध इन्हें अष्टाकपाल चरुकी आहुति देना कर्तव्य (बन. (द्रोण. ९२ । २७-३२)। दुर्योधनके साथ युद्ध २२१ । २९ )।(४) उत्तर भारतका एक जनपद करके इनका पराजित होना (द्रोण. १३० । ३०-४३)। (भीष्म० ९। ६५ )। कृतवर्मासे इनकी पराजय ( कर्ण० ६१ । ५९ )।
।
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उत्तर उलूक-उत्तर दिशामें स्थित उलूक देश, जिसे अर्जनइनके द्वारा कर्ण पुत्र सुषेणका वध (कर्ण० ७५ । १३)।
ने जीता था (सभा० २७ । ११)। अश्वत्थामाद्वारा इनका वध (सौप्तिक० ८ । ३५-३६)।
उत्तर कुरु-जम्बूद्वीपका एक वर्ष ( खण्ड ), जिसकी उत्तमौजा आदिका दाह (स्त्री० २६ । ३४)।
सीमातक अर्जुन गये थे और वहाँसे करके रूपमें बहुत उत्तर-(१) राजा विराटके पुत्र । इनका विराट के साथ
धन लाये थे । वह भूमि मनुष्योंके लिये अगम्य है द्रौपदी-स्वयंवरमें आना (आदि. १८५८)। इनका
(सभा० २८ । ७-२० )। यह उत्तर कुरुवर्ष नीलदूसरा नाम 'भूमिजय' था (विराट० ३५ । ९)।
गिरिसे दक्षिण तथा मेरुगिरिसे उत्तर है। वहाँ सिद्ध पुरुष इनके पास गोपाध्यक्षका आना और इन्हें युद्ध के लिये
निवास करते हैं । वहाँके वृक्ष फल-फूलसे सम्पन्न हैं, उत्साहित करना (विराट. ३५ । ९)। इनके द्वारा
फूल सुगन्धित फल मधुर और सरस हैं। क्षीरी' नामवाले अपने लिये सारथि ढूँढनेका प्रस्ताव (विराट०३६।२)।
वृक्ष वहाँ षडरसयुक्त अमृतमय दूध देते हैं । कुछ वृक्ष बृहन्नला नामधारी अर्जुनको सारथि बनाकर इनका
मनोवाच्छित फदेते हैं। क्षीर' के फलोंमें इच्छानुसार युद्ध के लिये प्रस्थान ( विराट० ३७ । २७)। कौरवोंकी
वस्त्र और आभूषण भी प्रकट होते हैं। वहाँ मणिमवी भूमि सेना देखकर भयभीत हो रथसे कूदकर भागना (विराट
और सोने की बाल का है । स्वर्गच्युत पुण्यात्मा वहाँ रहते हैं। ३८ । २८) । अर्जुनके समझानेपर इनका सारथि
वहाँके निवासियोंकी आयु ग्यारह हजार वर्षकी होती है । बननेको राजी होना (विराट ० ३८ । ५१)। शमी
वहाँ भारुण्ड नामक पक्षी होते हैं, जो मृतकोंकी लाशें वृक्षसे अर्जुनकी आज्ञाके अनुसार पाण्डवोंके दिव्य धनुष
उठाकर कन्दराओंमें डालते हैं (भीष्म०७ । २-१३)। आदि उतारना (विराट० ४१ । ८)। बृहन्नलासे
उत्तर कोसल-एक भारतीय जनपद, जिसे भीमसेनने पाण्डवोंके अस्त्रोंके विषयमें प्रश्न करना (विराट० ४२ ।
जीता था (सभा० ३० । ३)। अध्यायमें )। अर्जुनसे उनके दस नामोंके कारण पृथकपृथक् पूछना ( विराट. ४४।१०-१२)। अर्जनको उत्तर ज्योतिष-पश्चिमका एक प्राचीन नगर, जिसे नकलपहचानकर उनकी शरणमें जाना ( विराट. ४४ । ने जीता था (सभा० ३२ । ११)। २४-२५ ) । अर्जुनले उनके नपुंसक होने का कारण उत्तर दिशा-गरुडने गालबके समक्ष उत्तर दिशाका
म० ना०६
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उत्तरपाञ्चाल
उद्धव
विस्तारपूर्वक वर्णन किया है (उद्योग० १११ अध्याय)। प्राप्त की (सभा० २७ । १६) । (२) दक्षिण मूर्तिमती उत्तर दिशाके द्वारा अष्टावक्रका स्वागत दिशाका एक जनपद (भीम० ९।६१)। (अनु० अध्याय १९ से २१)।
उदपानतीर्थ-सरस्वती नदीके जलमें स्थित एक प्राचीन उत्तरपाञ्चाल-एक जनपद, जहाँ पृषत्की मृत्युके बाद तीर्थ, इसकी उत्पत्तिकी कथा (शल्य. ३६अध्याय)।
पदको राजा बनाया गया (आदि० १२९ । ४३)। उदयगिरि-एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ एक दिन संध्योपासना आगे चलकर उत्तरपाञ्चाल एवं उसकी राजधानी करनेसे बारह वर्षातक संध्योपासना करनेका फल मिलता अहिच्छत्रापर द्रोणका अधिकार हो गया। यह प्रदेश है(वन गङ्गाके उत्तर तटपर था (आदि. १३७ । ७०-७६)।
उदयाचल-उदयगिरि (द्रोण. १८४।४७)। उत्तरपारियात्र-एक पर्वत, जहा अर्जुनके लिये शुभाशंसा की उदरशाण्डिल्य-इन्द्रसभामें विराजमान एक ऋषि गयी थी ( वन० ३१३ । ८)।
(सभा०७।१३)। उत्तरमानस-एक तीर्थ, यहाँकी यात्रा करनेसे भ्रूणहत्यारा उदराक्ष-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४.५। ६३)।
भी पापसे मुक्त हो जाता है ( अनु० २५। ६०)। उदानवायु-प्राणवायुके पाँच भेदोमसे एक (वन. उत्तरा-मत्स्यनरेशकी कन्या, अभिमन्युकी पत्नी और परीक्षित- २१३ । १२)।
की माता ( आदि० ९५। ८३-८४ )। उत्तराकी शिक्षा- उदापेक्षी-विश्वामित्रका एक ब्रह्मवादी पुत्र ( अनु. के लिये अर्जुनने अपने को रखनेका राजा विराटसे अनुरोध ४।५९)। किया । विराटने कहा, तुम उत्तराको नृत्यकी शिक्षा दो। उहालक एक ऋषि, जो जनमेजयको सर्पसत्रके सदस्य थे फिर अर्जुनने उत्तराको नृत्य-गीत सिखाना आरम्भ किया
(आदि० ५३.७)। ये ही आयोदधौम्य ऋषिके शिष्य (विराट. ११ । ८-१२)। उत्तराका बृहन्नलासे आरुणि पाञ्चाल हैं, जो आगे चलकर उद्दालक नामसे उत्तरका सारथि बनने के लिये कहना (विराट.३७ ।
प्रसिद्ध हुए। ये इन्द्र की सभामें भी उपस्थित होते थे ५-१९)। वृहन्नलासे गुड़िया बनानेके लिये कौरवोंके
(सभा० ७ । १२)। उद्दालकके पुत्र का नाम श्वेतकेतु वस्त्र माँगना (विर.ट० ३७ । २८-२९)। अभिमन्युके
और कन्याका नाम सुजाता था। उद्दालकने अपनी कन्या साथ उत्तराका विवाह (विराट ७२ । ३५)। पतिकी
सुजाताका व्याह प्रिय शिष्य कहोडसे किया था, जिसके मृत्युके शोकसे दुखी होकर मूछित होना (द्रोण.
गर्भसे अष्टावक्रका जन्म हुआ था (वन० १३२ । ७८ । ३७)। श्रीकृष्णद्वारा उसे आश्वासन (द्रोण.
१-९)। उद्दालकके यज्ञमें उनके चिन्तन करनेपर ७८ । ४०-४२)। युद्ध स्थलमें अभिमन्युको मरा हुआ
सरस्वती नदीका प्राकट्य हुआ थाउस समय उनकी उस देखकर विलाप करना (स्त्री०२० । ४-२८)। अभि
धाराका नाम 'मनोरमा' हुआ था (शल्य० ३८ । मन्यके लिये शोक करना और व्यासजीद्वारा इसका
२२-२५)। इन्होंने अपने पुत्र श्वेतकेतुको ब्राह्मणोंके समझाया जाना ( आश्व० ६२८-१२) । वनको जाते
प्रति उसके कपटपूर्ण व्यवहारके कारण निकाल दिया था हुए धृतराष्ट्र के पीछे कुछ दूरतक जानेवाली स्त्रियों में उत्तरा
(शान्ति० ५७ । १०)। भी थी ( आश्रम० १५।१०)।
उहालकि-प्राचीन ऋषि । नाचिकेतके पिता ( अनु०७१। उत्तरापथ-उत्तर भारत (शान्ति. २०७ । ४३)।
२-३)। नाचिकेतपर रुष्ट होकर इनका शाप देना उत्तेजनी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६ । ६)। (अनु० ७१ । ७) । पुत्रशोकसे संतप्त होकर इनका
पृथ्वीपर गिरना (अनु० ७१ । ९)। भरकर जीवित उत्पलावन-पंजाबका एक तीर्थ, जहाँ विश्वामित्रने अपने पुत्र के साथ यज्ञ किया था (वन० ८७ । १५)। यहाँ
हुए पुत्रसे उसके विषयमें पूछना ( अनु० ७१ । १३)। स्नानका फल ( अनु० २५ । ३४)।
उद्धव-एक यादव । श्रीकृष्णके सखा एवं मन्त्री । इनका उत्पलिनी-नैमिपारण्यके समीप बहनेवाली एक नदी, जिसका
परिचय महाभारतमें इस प्रकार है-उद्धवजी द्रौपदीके
स्वयंवरमें पधारे थे (आदि. १८५ । १८)। ये रैवतकदर्शन अर्जुनने किया (आदि० २१४ । ६)।
पर्वतके उत्सवमें सम्मिलित थे ( आदि० २१८ । ११)। उत्पातक-यहाँ स्नान करके उपवास करनेसे नरमेधके फलकी
बृहस्पति के शिष्य महाबुद्धिमान् उद्धवजी सुभद्राके लिये प्राप्ति होती है (अनु० २५ । ४१)।
दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थमें गये थे (आदि० २२० । ३०)। उत्सवसंकेत-(१) लुटेरोंके दल, जिनपर अर्जुनने विजय शाल्वके चढ़ाई करनेपर इनके द्वारा द्वारका नगरीकी
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उपयाज
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उपनन्द-(१) धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि० ६७ । ९६) । भीमसेनद्वारा इसका वध (कर्ण. ५१ । १९)। (२) नागलोकका एक नाग (उद्योग १०३ । १२)। (३) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.
सुरक्षा (वन० १५। ९)। वृष्णिवंशियोंसे विदा ले उद्धवजी अपने तेजसे पृथ्वी-आकाशको व्याप्त करते हुए प्रभासक्षेत्रसे अन्यत्र चले गये। वृष्णिकुलके भावी विनाशको जाननेवाले भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें वहाँ नहीं
रोका ( मौसल०३।१:-१३)। उद्भव-एक राजा, जिन्हें पाण्डवों की ओरसे रण-निमन्त्रण
भेजा गया ( उद्योग०४।१३)। उद्भस-उद्भसदेशीय योद्धा, जिन्हें साथ लेकर नकुल सहदेव
धृष्टद्युम्ननिर्मित क्रौञ्चव्यूहकी बायीं पाँखके स्थानमें खड़े हुए थे (भीष्म० ५० । ५३)। उद्भिद-कुशद्वीपके प्रथम वर्ष (खण्ड) का नाम (भीष्म
१२ । १२)। उद्योगपर्व-महाभारतका एक प्रधान पर्व । उद्रपारक-धृतराष्ट्र नागके कुलमें उत्पन्न एक सर्प, जो
जनमेजयके सर्पसत्र में दग्ध हो गया था (आदि० ५७ । १७)। उद्धह-(१) क्रोधवशसंशक दैत्यके अंशसे उत्पन्न एक
क्षत्रिय राजा (आदि. ६७ । ६४)। (२) वायुके सात भेदोंमेसे तीसरा (शान्ति० ३२८ । ४०)। उन्माथ-यमराजद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमें
एक । दूसरेका नाम प्रमाथ था (शल्य०४५।३०)। उन्माद पार्वतीद्वारा स्कन्दको दिये गये पार्षदोंमेंसे एक
(शल्य. ४५ । ५१)। उन्मुच-दक्षिण दिशामें रहनेवाले एक ब्रह्मर्षि (शान्ति.
२०८ । २८)। उपकीचक-कालेय राक्षसोंके अंशसे उत्पन्न । कीचकके
छोटे भाई, कीचकके मारे जानेपर ये द्रौपदीको बाँधकर इमशानमें ले गये थे। इनकी संख्या १०५ थी, भीमसेनद्वारा इनका वध ( विराट० २३ । ५-२८)। उपकृष्णक-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. १५ । ५७)। उपगहन-महर्षि विश्वामित्रका एक ब्रह्मवादी पुत्र (अनु.
४ । ५६)। उपगिरि-उत्तर दिशाका एक पर्वतीय जनपद (सभा०
२७ । ३)। उपचित्र-धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि० ६७ । ९५)। (भीष्म० ५१ । ८ में भी इसका नाम आया है )।
भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण० १३६ । २२)। उपजला-एक नदी, जहाँ यज्ञ करके उशीनरने इन्द्रसे भी
ऊँचा स्थान प्राप्त किया था (वन० १३० । ३१)। उपत्यक-एक भारतीय जनपद, जो पर्वतकी तराई में स्थित है (भीष्म० ९५५)।
उपप्लव्य-विराट राज्यका एक उपनगर, जो राजधानीके
पास ही था; यहाँ अज्ञातवासके बाद पाण्डवोंने निवास किया था (विराट. ७२ । १४) । ( इसका नाम
अनेक बार आया है।) उपमन्यु-(१) आयोदधौम्य ऋषिके शिष्य ( आदि.
३ । २२--३३)। इनकी गुरुभक्ति ( आदि.३। ३५-४९) । इनका आकके पत्ते खानेसे अन्धा होकर कुएँ में गिरना और गुरुकी आज्ञासे इनके द्वारा अश्विनीकुमारोंकी स्तुति (आदि० ३ । ५०-६८)। इनको अश्विनीकुमारका वरदान ( आदि० ३ । ७३ ) । इनको गुरुदेवका आशीर्वाद (आदि० ३ । ७६-७७)। (२) सत्ययुगके महायशस्वी ऋषि । व्याघ्पादके पुत्र । धौम्यके बड़े भाई (अनु० १४ । ११-१२; अनु०१४ । ५५)। इनके आश्रमका वर्णन (अनु० १४ । ४५---६३)। श्रीकृष्णका इन्हें प्रणाम करना और उपमन्युका उन्हें पुत्र-प्राप्ति का विश्वास दिलाते हुए महादेवजीकी आराधनाके लिये कहना एवं शिवजीकी महिमा बताना ( अनु० १४ । ६४-११०)। इन्होंने बाल्यकालमें मातासे दूध-भात माँगा, माने आटा घोलकर दोनों भाइयोंको दूधके नामपर दे दिया । फिर इन्होंने पिताके साथ किसी यजमानके यहाँ जाकर दूधका स्वाद चखा और घर आकर मासे कहा, 'तुमने जो दूध कहकर दिया, वह दूध नहीं था ।' मॉने कहा, 'भगवान् शिवकी कृपाके बिना दूध-भात कहाँ ?' उन्होंने पूछा, 'महादेवजी कौन है ? फिर माताने उनकी महिमा बतायी, जिससे वे शिवाराधनामें प्रवृत्त हुए (अनु० १४ । ११५-१६७)। इनकी तपस्या, शिवभक्ति, स्तुति-प्रार्थना, शिवदर्शन और वरप्राप्ति (अनु. १४ । ३६८-३७७)। इनका श्रीकृष्णसे तण्डिद्वारा की गयी शिव-स्तुतिका वर्णन (अनु. १६ अध्यायमें)। इनके द्वारा श्रीकृष्णसे शिवसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन
(अनु० १७ अध्यायमें)। उपयाज-परम शान्त, ब्रह्माके तुल्य प्रभावशाली, संहिताके स्वाध्यायमें तत्पर, कश्यप गोत्रमें उत्पन्न, सूर्यदेवके भक्त एवं सुयोग्य एक श्रेष्ठ महर्षि, जो याजके छोटे भाई थे (आदि. १६६ । ७-१०)। द्रोणविनाशक पुत्रकी प्राप्तिके लिये इनसे द्रुपदकी प्रार्थना और एक अर्बुद धेनुका प्रलोभन (आदि० १६६ । १०-१२)। इनका द्रुपदकी प्रार्थनाको अस्वीकार करना और अपनी अभीष्ट
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उपरिचरवसु
(४४)
उम्लोचा
सिद्धिके हेतु याजके समीप जाने के लिये उन्हें आदेश देना। यज्ञशिष्ट अन्नके भोक्ता, सत्यपरायण और अहिंसक थे, (आदि० १६६। १३-२०) । इनके द्वारा याजकी इन्होंने सब कुछ भगवान्को समर्पित कर दिया था। इन्हें हीन वृत्तिका वर्णन (आदि. १६६ ।।५-१९)। इन्द्रदेव अपने साथ एक शय्या और आसनपर बिठाते थे द्रोगविनाशक पुत्रेष्टि-यज्ञमें सहयोग देने के लिये इनको (शान्ति०३३५ । १७-२६)। इनके यज्ञका आरम्भ याजकी प्रेरणा ( आदि० १६६ । ३२)। (याज और) (शान्ति. ३३६ । ५ ) । इनके यज्ञकी समाप्ति उपयाजकी तपस्यासे द्रपदको द्रौपदी एवं धृष्टद्युम्नकी (शान्ति० ३३६ । ६.)। अजका अर्थ बकरा बतानेके प्राप्ति (सभा.८.। ४५)।
कारण ऋषियों के शापसे इनका पातालमें प्रवेश (शान्ति. उपरिचरवसु-एक प्राचीन पुरुवंशी राजा, जो नित्य धर्म
३३७ । १३-१६)। देवताओंद्वारा इन्हें वर-प्राप्ति परायण थे (आदि० ६३ ।।) । इन्द्र की आज्ञासे
(शान्ति• ३३७ । २४-२७)। भगवत्कृपासे गरुडने उन्होंने चेदिदेशका राज्य स्वीकार किया (आदि. ६२ ।
इन्हें आकाशचारी बनाया (शान्ति० ३३७ । ३७)। २)। इन्द्र के द्वारा इनके प्रति चेदिदेशकी प्रशंसा (आदि. इनका ब्रह्मलोकगमन (शान्ति० ३३७ । ३८)। ६३ । ८-११) । देवराजद्वारा इन्हें सर्वज्ञ होनेका वर- उपवेणा-एक नदी, जो अग्निकी जननी मानी जाती है दान (आदि० ६३ । १२) । इनको देवेन्द्रके द्वारा ( किसी-किसीके मतमें यह सम्भवतः दक्षिणभारतकी दिव्य विमान, बाँसकी छडी एवं वैजयन्तीमालाकी भेंट कृष्णवेणा या कृष्णा नामक नदीकी एक शाखा है।) (आदि०६३ । १३-७)। इनका बाँसकी छडीको (वन० २२२ । २४ )। धरतीमें गाड़कर इन्द्रपूजाकी प्रथा चलाना (आदि०६३। उपश्रुति-उत्तरायणकी अधिष्ठात्री देवी। इन्होंने ही कमल१८-१९)। हंसका स्वरूप धारण करके इन्द्रका इनकी नालकी ग्रन्थिमै इन्द्राणीको इन्द्रका दर्शन कराया था की हुई पूजा ग्रहण करना एवं अपनी पूजाका महत्त्व बत- (आदि. १६६ । ५६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ लाना ( आदि० ६३। २२-२५ )। उपरिचरवसुने ४८३)। इनकी सहायतासे शचीकी इन्द्रसे भेंट (उद्योग चेदिदेशमें ही रहकर इस पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया १४ । १२-१३)। (आदि०६३।२८)।इनके बृहद्रथ, प्रत्यग्रह, कुशाम्बु, उपसन्ध-निकम्भ दैत्यका पुत्र । सुन्दका भाई। ये दोनों माबेल्ल तथा यदु नामके पाँच पुत्र थे (आदि० ६३ ।
भयंकर और क्रूर हृदयके थे (आदि० २०८ । २-३)। ३०-३१ )। इनका उपरिचर' नाम होनेका कारण
इन दोनों भाइयोंके पारस्परिक प्रेमका वर्णन (आदि. (आदि० ६३। ३४ ) । इनकी राजधानीके समीप
२०८ । ४-६)। त्रिभुवनपर विजय पानेके लिये विन्ध्यप्रसिद्ध नदी 'शुक्तिमती' बहती थी (आदि०६३ । ३५)।
पर्वतपर इन दोनों की उग्र तपस्या (आदि० २०८।७)। इनके द्वारा कोलाहल, पर्वतपर पैरसे प्रहार ( आदि.
इनकी तपस्या में देवताओंका विघ्न डालना ( आदि. ६३ । ३६)। इनके द्वारा शुक्तिमतीकी पुत्री गिरिका'
२०८ । ११)। इन दोनोंको अपने भाईके अतिरिक्त का पाणिग्रहण (आदि० ६३ । ३९)। पितरोंकी आज्ञा
किसी दूसरेसे न मरने का ब्रह्माजीद्वारा वरदान (आदि. का पालन करने के लिये हिंसक पशुओंको मारनेके हेतु इनका
२०८ । २४-२५)। त्रिभुवन में इन दोनों के अत्याचार वनमें जाना ( आदि०६३ । ४१-४२)। श्येनपक्षीके
(आदि० २०९ अध्याय)। तिलोत्तमाके कारण इन द्वारा आनी पत्नी गिरिकाके लिये इनके द्वारा अपना दोनों भाइयोंकी एक-दसरेके हाथसे गदायुद्ध में मृत्यु वीर्य भेजना (आदि०६३ । ५४)। बाजोंके पारस्परिक (आदि० २११ । १९)। युद्धसे इनके वीर्यका यमुनाजीमें गिर जाना ( आदि.
उपावृत्त-भारतवर्षका एक जनपद (भीष्म०९ । ४८)। ६३ । ५८)। यमुनाजीमें गिरे हुए इनके वीर्यसे मत्स्यरूपधारिणी 'अद्रिका' नामक अप्सराद्वारा सत्यवती' एवं ।
उपेन्द्र भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु. १४९ । 'मत्स्य' राजाका जन्म (आदि० ६३ । ५०-६१)। मछलीके पेटसे उत्पन्न हुए 'मत्स्य' नामक बालकका उपेन्द्रा-एक नदी, जिसका जल भारतके लोग पीते हैं इनके द्वारा ग्रहण एवं सत्यवतीको मल्लाहके हाथमें सौंपना (भीष्म० ९ । २७)। (आदि०६३ । ६३-६७)। यमकी सभामें ये विराज- उमा-पार्वती देवी (वन. ३७ । ३३ ) (विशेष पार्वती' मान होते हैं (सभा०८।२०)। ये इन्द्रके सखा, शब्द देखिये।) नारायणके भक्त, धर्मात्मा, पितृभक्त तथा आलस्यरहित उम्लोचा-एक अप्सरा, जो अर्जुनके जन्म-महोत्सवपर अन्य थे, श्रीनारायणदेवके वरसे इन्हें साम्राज्य प्राप्त हुआ था. अप्सराओंके साथ नाचने-गाने आयी थी (आदि. वे वैष्णवशास्त्रके अनुसार भगवान्का पूजन करते थे, १२२ । ६५)।
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उरग
उलूपी
उरग-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९/५४ )। ___४०)। द्रोगाचार्य के मारे जानेपर युद्धस्थलसे भागना उरगा-उत्तर भारतकी एक पर्वतीय राजधानी, जहाके (द्रोण. १९३। १४)। इसके द्वारा युयुत्सुकी राजा रोचमान को अर्जुनने परास्त किया था (सभा. पराजय (कर्ण० २५ । ९-११)। सहदेवद्वारा इसकी २७ । १९)।
पराजय (कर्ण० ६१। ४३-४४)। नकुलके साथ उर्वरा-बुबेरभवनकी एक अप्सरा, जिसने अन्य नर्तकियोंके
इसका युद्ध (शल्य. २२॥ २८-२९)। सहदेवके द्वारा साथ अष्टावको स्वागतमें नृत्य किया था (अनु. १९)
इसका वध ( शल्य० २८ । ३२-३३)। महाभारतमें ४४)।
आये हुए इसके नामान्तर-शाकुनि, कैतव, सौबलसुत
और कैतव्य । (२) एक यक्ष (या नाग), जिसके उर्वशी-(१) एक प्रसिद्ध सर्वश्रेष्ठ अप्सरा (आदि.
साथ गरुडने युद्ध किया था ( आदि० ३२॥ १८-१९)। ७४ । ६८ वन० ४३ । २९)। उर्वशीके गर्भसे राजा
(३) उत्तरभारतका एक जनपद, जिसके राजा बृहन्तपुरूरवाद्वारा छः पुत्र उत्पन्न हुए-आयु, धीमान्,
को अर्जुनने परास्त किया था (सभा०२७। ५)। अमावमु, दृढायु, वनायु और शतायु (आदि० ७५ ।
(४) एक प्राचीन ऋषि, जो विश्वामित्रके पुत्र हैं २४-२५)। यह स्वर्गकी विख्यात ग्यारह अप्सराओंमें
(अनु. ४ । ५१)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मके ग्यारहवीं है, जिसने अर्जुनके जन्मोत्सवपर गीत गाया था (आदि. १२२ । ६६) । कुवेरकी सभा नृत्य-गान
पास आये थे (शान्ति० ४७ । ११)। करनेवाली अप्सराओंमें यह भी है (सभा० १०।११)
उलूकदूतागमनपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तरपर्व(अध्याय इसकी अर्जुनके पास जाने के लिये चित्रसेनसे बात ( वन १६० से १६४ तक)। ४५। १४-१६)। इसका कामपीड़ित होकर अर्जनके उलूकाश्रम-एक तीर्थ ( उद्योग. १८६ । २६)। पास पहुंचना (वन० ४६ । १६) । उर्वशीका अर्जुन- उलूत-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५४ )। के निकट अपने आनेका कारण बताना और अपनी काम- उलूपी-ऐरावत-कुलोत्पन्न कौरव्य नागकी पुत्री ( आदि. विवशता प्रकट करना (वन० ४६ । २२-३५)। २१३ । १२)। इसके द्वारा अर्जुनका हरिद्वारसे नाग'स्वर्गकी अपराओंका किसीके साथ पर्दा नहीं है, उनके
लोकमें आकर्षण (आदि. २१३। १३)। अर्जुनसाथ समर्कसे दोष नहीं होता, ऐसा कहकर उर्वशीका
द्वारा इसके गर्भसे इरावान् का जन्म(आदि० २१३ । ३६ अर्जुनसे समागमके लिये प्रार्थना करना (वन० ४६ । के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। इसका बभ्रुवाहनको अर्जुनसे ४२-४४ ) । कामनापूर्ति न होनेपर इसके द्वारा अर्जुनको । युद्ध करने के लिये उत्साहित एवं उत्तेजित करना (आश्च० शाप (वन० ४६ । ४९-५०)। शुकदेवजीकी परमपद- ७९ । ११-१२)। संजीवन मणिके द्वारा अर्जुनको प्राप्तिके सभर आश्चर्यचकित होना (शान्ति० ३३२ । जिलाना ( आश्व० ८० । ५०-५२)। अर्जुनके पूछने२१-२४ )। (२) भगीरथके ऊपर बैठने के कारण पर युद्ध में अपने आनेका कारण बताकर उनको मेले गङ्गाजीका एक नाम (द्रोण०६०।६)।
हुए शाप और उससे छूटनेका वृत्तान्त बताना तथा उससे
विदा लेकर अर्जुनका अश्वके पीछे जाना ( आश्व० उर्वशीतीर्थ-एक तीर्थ, जिसकी यात्रा करके मनुष्य इस भूतलपर पूजित होता है (वन० ८४ | १५७)। यहाँ
८१ अ० में)। बभ्रुवाहन और चित्राङ्गदाके साथ इसका
हस्तिनापुर आगमन (आश्व० ८७ १२६-२७)। इसके स्नानका फल ( अनु० २५ | ४६)।
द्वारा कुन्ती और द्रौपदीके चरण छूना, सुभद्रासे मिलना उर्वी-पृथ्वीका ना- यह नाम पड़नेका कारण (शान्ति.
तथा नाना प्रकार के उपहार पाना (आश्व० ८८ । २०८ । २८)।
१-५) । इसके द्वारा गान्धारीकी सेवा (आश्रम. १ । उलूक- (१) शकुनिका पुत्र ( उद्योग० ५७ । २३)। २३)। यह प्रजा के साथ प्रतिकूल बर्ताव नहीं करेगी
यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था ( आदि. १८२ । ऐसा प्रजाजनोंका विश्वास (आश्रम० १०। ४६)। २२)। दुर्योधन के कहनेसे पाण्डवोंके शिविर में जाकर संजयका ऋषियोंसे इसका परिचय देना (आश्रम०२५ । भरा सभाम दुयाधनका संदेश सुनाना (उद्योग० १६१ ११)। पाण्डवोंके महाप्रस्थान के पश्चात् उलूपीका गङ्गाअ० में)। दुधनको पाण्डवोंके संदेश सुनाना जीमें प्रवेश ( महाप्र. १ । २७)। महाभारतमें आये (उद्योग. १६३ । ५१-५३)। प्रथम दिनके युद्ध में हुए उलूपीके नाम-भुजगात्मजा, भुजगेन्द्रकन्या, चेदिराजके साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ४५। भुजगोत्तमा, कौरवी, कौरव्यदहिता, कौरव्यकलनन्दिनी, ७८-८०)। सहदेवका इसपर आक्रमण (भीष्म• ७२।। पन्नगनन्दिनी, पन्नगसुतापन्नगात्मजा, पन्नगेश्वरकन्या ५) । अर्जुनद्वारा इसकी पराजय (द्रोण. १७१। पन्नगी, उरगात्मजा ।
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उल्मुक
( ४६ )
ऋक्ष
उल्मुक-एक वृष्णिवंशी महारथी राज कुमार, जो युधिष्ठिरके आनयन (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, राजसूय यज्ञमें आया था (सभा०५ | १६) । प्रभास- पृष्ट ८२७ से ८२४ तक)। क्षेत्र पाण्यासे मिलने के लिये आले हुए वृष्णिवंशियोमे उप-(१) पश्चिम दिशामें निवास करनेवाले एक ऋषि उल्मुक भी थे (वन० १२० । १९)। धृतराष्ट्रको
(शान्ति० २०८ । ३०)। (२) भगवान् शिवका युद्ध में उल्मुक आदि वृष्णिवंशी वीरोके आनेकी सम्भावना
एक नाम (अनु. १७ । १०५ )। (३) यदुवंशी से भय (द्रोण०११ । २८)।
वृजिनीवान्के पुत्र । चित्ररथके पिता (अनु० १४७।२९)। उशव-यमराजकी सभामें बैठनेवाले एक राजा ( सभा० उष्ट्रकर्णिक दक्षिण भारतका एक जनपद, जिसे सहदेवने ८।२६)।
दूतोंद्वारा ही वशमें कर लिया था (समा० ३१ । ७१)। उशना महर्षि ( भृगु ) के पुत्र शुक्राचार्य, ये असुरोंके उष्णदेश-क्रौञ्चद्वीपके अन्तर्गत क्रौञ्चपर्वतके निकट मनोनुग
उपाध्याय थे। इनका एक नाम उशना भी है (आदि० देशके बाद स्थित एक देश (भीष्म० १२ । २१)। ६५। ३६ )। (विशेष देखिये शुक्र ।)
उप्णीगङ्ग-एक प्राचीन तीर्थ (वन. १३५ । ७)। उशीनर-(१) एक वृष्णिवंशी एवं पराक्रमी राजमार,
उष्णीनाभ-एक विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३४)। जो द्रौपदोके स्वयं में गया था (आदि० १८५।२०)। (२) शिबिदेशके राजा, यम-भाके सदस्य हैं (सभा० ८।१४)। इन बाजरूपा इन्द्रको अग्निरूपा कबूतर- ऊजयोनि-विश्वामित्र ब्रहावादा पुत्रामस एक का रक्षाके लि; अपना मांस काटकर देना (वन० ४। ५९)। १३. । .५ से १३३ । २८ तक)। इन्द्र और ऊर्णनाभ ( सुदर्शन )-धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि० अग्निद्वारा राजाका अभिनन्दन (वन० १३१ । ३०. ६७ । ९६ )। भीमसेनद्वारा इसका वध ३.)। इनकार्गमन (वन० १.५। ३२-३३)। (द्रोण० १२७।६७)। इनका गालवको नाक रूपमें दो सौ घोड़े देकर यथातिकन्या ऊर्णाय-एक देवगन्धर्व, जो अर्जनके जन्मोत्सव में आया माधवोको स्वीकार करना (उद्योग. ११८१५)। था ( आदि० १२२ । ५५ )। इसका मेनकाके प्रति इनको महाराज शुनकसे खड्नकी प्राप्ति (शान्ति. १६६ ।
अनुराग ( उद्योग० ११७ । १६)। ७९ ) । ये शरणागतव सल शिबिके पिता थे ।
ऊर्ध्वबाह-दक्षिण दिशामें निवास करनेवाले एक ऋषि, जो माधवीके गर्भसे शिवि नामक पुत्रकी प्राप्ति (उद्योग
धर्मराजके ऋत्विज हैं ( अनु० १५० । ३४-३५, अनु० ११८४२०)। इन्हें गोदानसे स्वर्गकी प्राप्ति हुई (अनु०
१६५ । ४०)। ७६ । २५)। (३) काशिराज वृषादभि, इनकी
ऊर्ध्वभाक-एक अग्नि, जो बृहस्पतिके पश्चम पुत्र हैं शरणागतरक्षाके प्रसङ्ग में कबूतर और बाजकी कथा
(वन० २१९ । २०)। ( अनु० ३२ अमें )। ये उशीनर और वृषादर्भि दोनों नामोंसे विख्यात थे और काशी जनयदके राजा थे ,
ऊर्ध्वरेता-एक महर्षिः जो युधिष्ठिरका बड़ा सम्मान करते थे
(वन०२६ । २४)। (अनु० ३२ । २२-३७)। (४) एक देश, जहाँके
ऊर्ध्ववेणीधरा-स्कन्द की अनुचरी मातृका (शल्य. निवासी सैनिक अर्जुनके द्वारा मारे गये थे ( कर्ण० ५। ।
४६ । १८)। ४७)। इस देशके वीर सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों में कुशल और बलशाली होते हैं (शान्ति. १०१ । ४)।
ऊर्व ( और्व )-एक तेजस्वी भृगुवंशी ऋषि, जिन्होंने
त्रिलोकीके नाशके लिये एक भयंकर अग्निकी सृष्टि की उशीनर देशके क्षत्रिय ब्राहाणोंकी कृपादृष्टिसे वञ्चित
और उसे समुद्र में डालकर बुझा दिया । ये च्यवनके पुत्र होनेके कारण शूद्र हो गये ( अनु० ३३ । २२-२३)।
और ऋचीकके पिता थे (अनु० ५६ । १-७)। उशीरबीज-(१) उत्तराखण्डका एक पर्वत ( वन०
ऊष्मप-पितरोंका एक गण, जो यमसभामें यमराजकी उपासना १३९ । १)। (२) हिमालयके पास उत्तर दिशाका स्थानविशेष, जहाँ महाराज मरुत्तका यज्ञ हुआ था
करता है ( सभा० ८ । ३०)। (उद्योग० १११ । २३)।
ऊष्मा-पाञ्चजन्य न मक अग्निके पुत्र (वन० २२१ । ४)। उषा-बाणासुरकी पुत्री, इसके साथ गुप्तरूपसे अनिरुद्धका विहार, बाणासुरद्वारा अनिरुद्धका निग्रह तथा श्रीकृष्ण- ऋक्ष (१)-महाराज अजमीढके द्वारा धूमिनीके गर्भसे द्वारा बाणासुरको जीतकर अनिरुद्ध एवं उषाका द्वारका उत्पन्न । इनके पुत्रका नाम संवरण था, जो कुरुवंशमें
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ऋक्षदेव
ऋषभ
प्रसिद्ध राजा हुए हैं (आदि. ९४।३१-३४)।(२) ऋतधामा-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम (शान्तिः पूरुवंशीय राजा अरिहके द्वारा सुदेवाके गर्भसे उत्पन्न । ३४२ । ६९)। इनकी पत्नीका नाम 'ज्वाला' एवं पुत्रका नाम मतिनार' ऋतुपर्ण-अयोध्याके एक राजा, जो इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न था ( आदि० ९५ । २४-२५)।
तथा उतविद्याके मर्मज्ञ थे और जिनके यहाँ नलका सारथि क्षदेव-शिखण्डीका पुत्र, इसके धोड़े सफेद और लाल
वाणेय उनके जूएम पराजित हो जानेपर जाकर रहने लगा रंगके सम्मिश्रणसे पद्मके समान वर्णवाले थे (द्रोण. (वन०६६।२१-२२; ६० ।२५)। इनके द्वारा बाहुक २३ । २४-२५)।
बने हुए राजा नलकी अपने यहाँ अश्वाध्यक्षके पदपर नियुक्ति ऋक्षवान-भारतवर्षके सात कुलपर्वतोंमेंसे एक (भीष्म
(वन० ६७ । ५-७)। इनका दमयन्तीके द्वितीय खयं९। ११ वन० ६१ । २१ )।
वरके लिये विदर्भदेशको प्रस्थान (बन०७१ ।२०)।
इनका बाहुककी अश्वपंचालन-कलासे प्रभावित होना ऋक्षा-सोमवंशीय महाराज अजमीढकी पत्नी (आदि.
(बन० ७१ । २४)। इनकी गणित-विद्याकी अद्भत ९५ ।३७)।
शक्ति ( वन० ७२ । ७-११)। इनके द्वारा नलको ऋक्षाम्बिका-स्कन्दको अनुचरी मातृका (शल्य० ४६।१२)।
द्यूत हृदयका दान (वन० ७२ । २९) । विदर्भनरेश ऋचीक-(१)-एक महर्षि, जो भृगुकुमार च्यवनके पुत्र थे
भीमद्वारा इनका आतिथ्य-सत्कार ( वन० ७३ । २०)। ( वन० ९९ । ४२)। ये ही कल्पान्तरमें ही और्वके पुत्र
इन्हें नलसे अश्वविद्याकी प्राप्ति तथा इनका अयोध्याको हुए, ये जमदग्निके पिता थे (आदि० ६६ । ४५-४७)।
लौटना (वन० ७७ । १७-१९)। इन्होंने शुल्करूपमें महाराज गाधिको देने के लिये वरुणसे
ऋतुस्थला-स्वर्गकी प्रधान ग्यारह अप्सराओंमेंसे एक, जिसने एक हजार अश्वोंकी याचना की थी (वन० ११५।
अन्य अप्सराओं के साथ अर्जुनके जन्म-महोत्सवमें आकर २६-२७ )। इनका सत्यवतीके साथ विवाह (वन.
नृत्य और गान किया था (आदि. १२२ । ६५-६६)। ११५ । २९ )। इनका परशुरामको क्षत्रियों के वधसे रोकना ( बन० ११७ । १० आश्व० २२ । २०)। ऋतेयु पश्चिम दिशानिवासी एक ऋषि, जो वरुणके सात इनका वरुणसे माँगकर सत्यवतीके शुल्क रूपमें गाधिको
विजोंमें से एक है (अनु. १५०। ३६)। एक हजार श्यामकर्ण घोड़े देना ( उद्योग० ११९। ऋत्वा-एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें उपस्थित ५-६ ) । गाधिपत्रो सत्यवतोके साथ इनका विवाह हुआ था (आदि. १२२ । ५७ )। (शान्ति० ४१ । ७)। इनका पुत्रोत्पत्तिके लिये चरु ऋद्धि-कुबेरकी पत्नी ( उद्योग. ११७ । ९)। देना ( शान्ति० ४९ । ९ )। माताके साथ चरुके ऋद्धिमान-एक महानाग, जो गरुडद्वारा मारा गया था उलट-फेर हो जानेपर अपनी पत्नी सत्यवतीके साथ संवाद ( शान्ति. ४९ । १८-२८ )। विश्वामित्रके
भ-भूनामक देवताओंका गण, जो देवताओद्वारा भी जन्मप्रसंगमें पुनः इस कथाका वर्णन ( अनु० ४ अ०में )।
आराधित होता है (वन० २६१ । १९, शान्ति०२०८। ऋचीकको शाल्वराज द्युतिमानसे राज्यका दान प्राप्त
२२; अनु० १३७ । २५)। हुआ था ( अनु० १३७ । २३) । (२) विवस्वान्के
ऋषभ-(१) धृतराष्ट्रके कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो स्वरूपभूत बारह सूर्या से एक ( आदि० १ । ४२)। ( ३ ) सम्राट भरतके पौत्र एवं भुमन्युके पुत्र
जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था (आदि० ५७ । १७)।
(२) एक वृषभरूपधारी राक्षस, जो मगधनरेश बृह( आदि० ९४ । २४)।
द्रथद्वारा मारा गया और जिप्सको खालसे तीन चेयु पूरुको तीसरे पुत्र रौद्रावके द्वारा मिश्रकेशो अप्सराके
नगाड़े बनाये गये ( सभा० २१ । ५६) । (३) गर्भसे उत्पन्न प्रथम पुत्र (आदि. ९४ । १०)।
एक प्राचीन तपस्वो ऋषि, जो पहले कभी ऋषभअन्वग्भानु तथा अनाधृष्टि भी इन्हींके नाम थे, ये महान् ।
कूटपर रहते थे (वन० ११० । ८)। ये ब्रह्मसभामें विद्वान् तथा चक्रवर्ती सम्राट थे, इनके पुत्रका नाम
ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित होते हैं (सभा० ११ । २४)। ‘मतिनार' था ( आदि० ९४ । ११-१३)।
ऋषभमुनिका सुमित्रको आशाके त्यागका उपदेश ऋण-चार प्रकारके ऋण (आदि० ११९ । १७ )। (शान्ति० १२५ अध्यायसे १२८ तक)। (४) इन ऋणोंके निराकरणकी आवश्यकता ( आदि. ११९ ।। दक्षिण-समुदतटवर्ती एक पर्वत, जहाँ गालव और १८-२०)।
गरुड़को शाण्डिलीका दर्शन हुआ था ( उद्योग. ११२ । ऋत-ग्यारह रुमेंसे एक ( अनु० १५० । १२ )। २२; १६३।१)। पाण्डयदेशवर्ती यह पर्वत एक
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ऋषभकूट
( ४८ )
एकत्वचा
पवित्र तीर्थ है, जहाँकी यात्रासे वाजपेय यज्ञके फल और आतिथ्य-सत्कार ( वन० १११ । १३ )। वेश्याको स्वर्गलोक सुलभ होते हैं (वन० ८५ । २१)। ब्रह्मचारी समझकर इनके द्वारा अपने पितासे उसके (५) एक राजा, जिन्हें भारतवर्ष बहुत प्रिय रहा है स्वरूप और आचरणका वर्णन (वन० ११२ अ०में)। (भीष्म० ९ । ७)। (६) एक राजा या राजकुमार,
इनका राजा लोमपाद के यहाँ जाना (वन० ११३ । ८)। जो द्रोणनिर्मित गरुड-व्यूह के हृदयस्थानमें खड़ा किया लोमपादपुत्री शान्ता के साथ इन का विवाह ( वन० गया था (द्रोण. २०। १२)। (७) एक दैत्य ११३ । ११; शान्ति० २३४ । ३४ ) । महाभारतमें या दानव (शान्ति० २२७ । ५१)।
आये हुए ऋष्यशृङ्गके नाम-काश्यप, कश्यपपुत्र और
कश्यपात्मज । (२) एक राक्षस, जिसके पुत्रका नाम ऋषभकूट-एक पर्वत, जहाँ पहले कभी ऋषभ मुनिने तास्या
अलम्बुष था (द्रोण० १०६ । १६)। की थी (वन० ११०। ८)। ऋषभतीर्थ-कोसला या अयोध्या में स्थित एक प्राचीन तीर्थ,
जहाँ उपवास करनेसे सहस्र गोदान और वाजपेय यज्ञका एकचक्र-कश्यप और दनुका पुत्र एक विख्यात दानव फल मिलता है (वन० ८५। १०-१)।
(आदि. ६५ । २५)। ऋषभद्वीप-सरस्वतीतटवर्ती एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे एकचक्रा-एक प्राचीन नगरी, जहाँ कुन्तीदेवी अपने पाँचों
देवविमान सुलभ होता है (बन० ८४ । १६०)। पुत्रोंके साथ कुछ कालतक एक ब्राह्मणके यहाँ टहरी थीं। ऋषिक-(१) एक राजर्षि, जो दानवोंके सरदार 'अर्क'
पाण्डव यहाँ वेदाभ्यास-परायण ब्रह्मचारी बनकर माताके के अंशसे उत्पन्न हुए थे ( आदि. ६७ । ३२-३३)।
साथ रहते थे (आदि.६।। २६-२७)। भीमने यहीं (२) एक उत्तरीय जनपद, जहाँ ऋषिकराजके साथ
रहकर बकासुरको मारा था (आदि० ६१ । २१)।
एकचका नगरीमें पाण्डवोंके जाने, एक मासतक रहने अर्जुनका भयानक युद्ध हुआ था (सभा०२७ । २५)
और भीमद्वारा बकासुरके मारे जाने का विस्तृत वृत्तान्त भीष्म ९। ६४)।
(आदि. १५५ अध्यायसे १६३ अध्यायतक)। ऋषिकुल्या-एक नदी एवं प्राचीन तीर्थ, जहाँ स्नान करके पापरहित मानव देवताओं और पितरोंकी पूजा करनेसे
एकचन्द्रा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । ऋषिलोकमें जाता है (वन० ८४ । ४८-४९; भीष्म०
___३०)। ९। ४७)।
एकचूडा स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ५)। ऋषिगिरि-मगधकी राजधानी गिरिव्रजके समीपवर्ती एक एकजट-स्कन्दके एक सैनिकका नाम ( शल्य० ४५ । पर्वत, जिसका दूसरा नाम 'मातङ्ग' है (सभा० २१। ५८)। २-३)।
एकत-एक प्राचीन महर्पि, जो गौतमके पुत्र थे, इनके दो ऋष्यमूक-एक पर्वत, जिसके शिखरपर मार्कण्डेयजीने धनुर्धर भाई और थे-द्वित और त्रित । ये तेजस्वी महात्मा थे तो
श्रीराम और लक्ष्मणका दर्शन किया था (वन० २५। भी एक बार इन्होंने त्रितसे हल किया । इस कथाका ९)। यहीं हनुमान्जी सुग्रीवके साथ रहे (वन० १४७ ।
वर्णन (शल्य० ३६ अ. में) । ये पश्चिम दिशाका ३०)। इसी ऋष्यमूकसे सटा हुआ पम्पासरोवर है आश्रय लेनेवाले ऋषि हैं (शान्ति. २०८ । ३.)। ( वन. २७९ । ४४ )। श्रीराम और लक्ष्मणका ऋष्य
इन्होंने उपरिचर वसुके यज्ञमें सदस्यता ग्रहण की मूकपर जाना तथा सुग्रीव के साथ श्रीरामकी मैत्री ( वन. (शान्ति० ३३६ । ५-६)। ये तीनों भाई भगवान् २८. । ९-११)।
नागयणके दर्शनके लिये वेतद्वीपमें गये थे । (शान्ति. ऋष्यत-(१) महर्षि विभाण्डकके पुत्र । मृगीके पेटसे ३३९ । १२)। इन्होंने अपने भाई त्रितको कुएँ में इनकी उत्पत्ति तथा ऋष्यशृङ्ग नाम पड़नेका कारण गिराया था ( शान्ति. ३४१ । ४६ ) । वाणशय्यापर (वन. ११० । ३७-३९) ।ये कश्यपगोत्री थे और पड़े हुए भीष्मजीके पास ये भी गये थे (अनु. २६ । तपस्या तथा इन्द्रियसंयमसे ही प्रतिष्ठित हुए थे ७)। ये तीनों भाई वरुणके सात ऋत्विजोंमें हैं और (शान्ति. २९६ । १४-१६ )। महर्षि ऋष्यशृङ्ग पश्चिम दिशामें रहते है (अनु. १५० । ३६, १६५। ब्रह्मसभामें बैठकर ब्रह्माजीकी उपासना करते हैं (सभा. ४२)। ११ । २३ ) । अपने आश्रमपर आयी हुई एक एकत्वचा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । वेश्याको ब्रह्मचारी मुनि समझकर इनके द्वारा उसका २४)।
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एकपाद
( ४९ )
ओघरथ
एकपाद-एक जनपद, जहाँके राजा और निवासी मनुष्य एकानङ्गा-यशोदा मैयाकी पुत्री । भगवान् श्रीकृष्णकी
युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें आये थे और भीड़के कारण बहिन । यह वही कन्या है, जिसके निमित्तसे श्रीकृष्णने दरवाजेपर रोक दिये गये थे (सभा० ५१ । १७)। कंसका वध किया था (सभा० ३८ । २९ के बाद एकपाद्-भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४९ । ९५)। दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२०, कालम २)। एकरात्रतीर्थ -एक तीर्थ, जहाँ एक रात नियमपूर्वक सत्य- एडी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । १३)। वादी होकर रहनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है एरक-कौरव्य कुलोत्पन्न एक नाग, जो सर्पसत्रमें जलकर (वन० ८३ । १८२)।
भस्म हो गया (आदि. ५७ । १३)। एकलव्य-(२)निषादराज हिरण्यधनुका पुत्र । इसका द्रोणा- एलापत्र-एक प्रमुख नाग, इसकी माता कद्र और पिता
चार्यके पास धनुर्वेदके अध्ययनके लिये आगमन (आदि. कश्यप थे । इसके द्वारा माताके शापरी चिन्तित हुए १३१ । ३१ )। निषादपुत्र होनेके कारण द्रोणद्वारा वासुकिको देवताओंके प्रति ब्रह्माजी के द्वारा कहे हुए इसका प्रत्याख्यान (आदि० १३१ । ३२)। आचार्य शापोद्धारके उपायोंका वर्णन (आदि० ३८ । १-१९)। द्रोणकी मूर्तिमें गुरुभावना करके इसके द्वारा धनुर्विद्याका अभ्यास ( आदि० १३१ । ३४) । गुरुभक्तिके कारण ऐक्ष्वाकी-सम्राट भुमन्युकी पुत्रवधू एवं सुहोत्रकी पत्नी । इसकी बाणविद्यामें सफलता (आदि० १३१ । ३५)। महाराज सुहोत्रद्वारा इनके गर्भसे अजमीढ़, सुमीढ़ तथा पाण्डवोंके कुत्ते के मुँहको बाणोंसे भरकर इसका पाण्डवोंको
पुरुमीढ़ नामक तीन पुत्र हुए थे (आदि० ९४ । विस्मयमें डालना ( आदि० १३१ । ४१)। पाण्डवों ।
२४-३०)। तथा कौरवोद्वारा इसकी प्रशंसा (आदि. १३१ । ४२)। ऐरावत-(१)समुद्रमन्थनके समय प्रकट हुआ एक हाथी, पाण्डवोंके प्रति इसका अपना परिचय देना (आदि०।३१।
जो इन्द्र के अधिकारमें है (आदि० ५८ । ४०)। यह ४५)। इसका द्रोणाचार्यको अपने दाहिने हाथका अँगूठा
क्रोधवशाकी पुत्री भद्रमनाका पुत्र है और यही देवताओं काटकर गुरुदक्षिणाके रूपमें देना (आदि. १३१ ।
का हाथी है ( आदि० ६६ । ६२-६३)। ( यही ५४ ) । द्रोणाचार्यका अर्जुनके हितके लिये इसका
पूर्व दिशाका दिग्गज है। ) ऐरावत आदि चार दिग्गज अँगूठा कटवाना (द्रोण. १८१।१७) श्रीकृष्णका
पुष्कर द्वीपमें भी रहते हैं (भीष्म० १२ । ३३)। अर्जुनके प्रति उसके पराक्रमका तथा अपने द्वारा इसके
(२) कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न एक प्रमुख नाग वधके कारणका कथन (द्रोण. १८१ । १८-२१)।
(आदि० ३५ । ५ )। इसके कुलमें उलूपीके पिता निषादराज एकलव्यके श्रीकृष्णद्वारा मारे जानेकी चर्चा
कौरव्यका जन्म हुआ था ( आदि० २१३ । १८)। (उद्योग० ४८ । ७७; मौसल० ६ । ११)। (२)
कश्यपवंशी नागोंमें इसकी गणना ( उद्योग० १०३ । क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न एक राजा
११)। (३) एक असुर, जो भगवान् श्रीकृष्णद्वारा मारा (आदि० ६७ । ६३)। पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रण
गया ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षि० पाठ, पृष्ट निमन्त्रण भेजा गया ( उद्योग० ४ । १७)।
८२५, कालम १)। एकलव्यसुत-एकलव्यका पुत्र, जिसने अश्वमेधके अश्वके ऐरावतखण्ड-शृङ्गवान् पर्वतसे उत्तर समुद्रके निकटका पीछे जाते हुए अर्जुन के साथ घोर युद्ध किया था। अर्जुनसे एक वर्ष (भीष्म०६ । ३७)। धृतराष्ट्र के प्रति संजयद्वारा पराजित होकर उसने उनका सत्कार किया (आश्व०
इसका विशेष वर्णन (भीष्म० ८।१०-१५)। ८३ । ८-१०)।
ऐल-इलानन्दन पुरूरवा, जो यमराजकी सभामें विराजमान एकशृङ्ग-सात पितरों से एक । ये तीन अमूर्त पितरोंके होते हैं (सभा० ८ । १६)। इन्होंने जीवन में कभी मांस
अन्तर्गत हैं। ये सब-के-सब ब्रह्मसभामें ब्रह्माजीकी उपासना सेवन नहीं किया था ( अनु० ११५ । ६५)। ये सबेरे करते हैं (सभा० ११ । ४७-४८)।
और सायंकाल स्मरण करनेयोग्य पुण्यात्मा नरेशोंमेंसे
एक हैं (अनु. १६५ । ५२)। एकहंस तीर्थ-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गो
ऐषीक-सौप्तिकपर्वका एक अवान्तर पर्व, अध्याय १० से दानका फल मिलता है ( वन० ८३ । २०)।
अध्याय १८ तक। एकाक्ष-(१) कश्यप और दनुका पुत्र एक विख्यात दानव
(आदि० ६५ । २९ )।(२) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५। ५८)।
ओघरथ-ओघवान्के पुत्र ( अनु० २ । ३८)।
(ओ)
म. ना०७
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(311) औ
ओघवती
ओघवती - ( १ ) एक नदी ( भीष्म० ९ । २२ ) । कुरुक्षेत्र में वसिष्ठके आवाहन करनेपर प्रकट हुई सरस्वतीका नाम ( शल्य० ३८ | २७ ) । भीष्म जी ओघवती के तटपर बाणशय्या पर पड़े थे ( शान्ति० ५० । ७) । ( २ ) ओघवान्की पुत्री (अनु० २ । ३८ ) । इसका अग्निपुत्र सुदर्शन के साथ विवाह ( अनु० २ । ३९ ) । अतिथिसत्कार के लिये ब्राहाणरूपधारी धर्मको आत्मसमर्पण ( अनु० २ । ५७ ७ ) । ओघवान् - ( १ ) कौरवपक्षका एक योद्धा ( कर्ण० ५
४२) । (२) नृगके पितामह ( अनु० २ । ३८ ) । ओडू- एक प्राचीन देश, जहाँके राजा भेंट देनेके लिये युधिष्ठिरके यज्ञमें पधारे थे ( सभा० ५१ । २३ ) ।
( ५० )
औक्थ्य- एक साम ( वन० १३४ | ३६ ) | औदका - औदका उस स्थानका नाम है, जहाँ नरकासुर ने सोलह हजार कन्याओं को कैद कर रक्खा था। नरकासुरका यह अन्तःपुर मणिपर्वत पर बना था। जलकी सुविधासे सम्पन्न होने के कारण उस स्थानका नाम 'औदका' रक्खा गया था। यह मुर दानवके संरक्षण में था ( सभा० ३८ मैं दाक्षि० पाठ, पृष्ठ ८०५० कालम १ ) । औदुम्बर उदुम्बर या औदुम्बर देशके क्षत्रिय राजकुमार, जो युधिष्ठिरके यहाँ भेंट लेकर आये ते ( सभा० ५२ । १३ )।
औद्दालक-एक मुनिसेवित तीर्थ, जहाँ स्नान करके मनुष्य पापमुक्त हो जाता है (वन० ८४ । १६१ ) । औरसिक-एक देश, जहाँ के योद्धाओं को भगवान् श्रीकृष्णने जीता था ( द्रोण० ११ । १६ ) ।
और्व (ऊर्व ) - एक ऋषि, जो च्यवन मुनिके द्वारा मनुपुत्री आरुषीके गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ये अपनी माताकी जाँघ फाड़कर प्रकट हुए थे ( आदि० ६६ । ४६ ) । इनके पुत्रका नाम ऋचीक था ( आदि० ६६ । ४७ )1 माता की जाँ से इनका प्राकट्य (आदि० १७७ । २४ ) । इनका और्व नाम होनेका कारण ( आदि० १७८ । ८ ) । इनके द्वारा क्षत्रियोंके नेत्रोंकी दृष्टिशक्तिका अपहरण ( आदि० १७७ । २५ ) । अन्धभावको प्राप्त हुए क्षत्रियोंका इनसे नेत्रोंके लिये प्रार्थना और इनका नेत्रदान ( आदि० १७८ । ७ ) । सम्पूर्ण लोकोंके विनाशके लिये इनका संकल्प और प्रयत्न ( आदि० १७८ । ९-१० ) । पितरोंद्वारा इनके जगद्विनाशक संकल्पका निवारण ( आदि० १७८ । १४ – २२ ) । इनके द्वारा अपनी क्रोधाग्निका बडवानलरूप से समुद्र में
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कंस
त्याग ( आदि० १७९ । २१ ) । इनके द्वारा तालजङ्घवंश विनाशकी चर्चा ( अनु० १५३ | ११ ) | औशनस - एक सरस्वती तटवर्ती तीर्थ, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता और तपस्वी मुनि रहते हैं (वन० ८३ । १३५ ) । इसका कपालमोचन नाम पड़नेका कारण और माहात्म्य ( शल्य० ३९ । ९ - २२ ) ।
औशिज - ( १ ) एक प्राचीन राजा, जो देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी थे ( आदि० १ । २२६) । ( २ ) एक प्राचीन धर्मश मुनि, जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १७ ) । ये अङ्गिराके पुत्र हैं ( शान्ति ० २०८ । २७ ) ।
औशीनरि ( औशीनर ) - उशीनरकुमार शिवि, जो यम
राजकी सभामें बैठनेवाले नरेश हैं ( सभा० ८ ११४ ) । औशीनरी - उशीनर देशकी एक शूद्रजातीय कन्या, जिसके
गर्भसे गौतमने काक्षीवान् आदि पुत्रोंको उत्पन्न किया ( सभा० २१ । ५ ) ।
औष्णीक -एक प्राचीन देश, जहाँके राजा भेंट लेकर के यहाँ आये थे ( सभा० ५१ । १७ ) । ( क )
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कंस - ( १ ) मथुरा महाराज उग्रसेनका पुत्र ( सभा० २२ । ३६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ )। इसके रूपमें कालनेमि दानव ही उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ६७ ) । जरासंघकी पुत्री उसकी पत्नी थी, जो इसे राजा बना देने की शर्त के साथ मिली थी । मन्त्रियोंद्वारा इसका राज्याभिषेक और इसका अपने पिताको कैद करके स्वयं राज्य भोगना । इसके द्वारा देवकीजीका वसुदेवजीके साथ विवाह । आकाशमें देवदूतकी वाणी सुनकर इसका देवकीको मार डालने के लिये उद्यत होना । इसके द्वारा देवकीके छः शिशुओंका वध ' सभा० २२ । ३६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ७३१ ) | कंसका वसुदेवपर कड़ा पहरा | इसके द्वारा वसुदेवकी लायी हुई गोपकन्याको मारने का प्रयत्न | इसके द्वारा व्रजके गोपोंका सताया जाना ( पृष्ठ ७३२ ) । श्रीकृष्ण-बलभद्रद्वारा सुनामा और मुष्टिकके मारे जानेपर कंसके मनमें भयका आवेश तथा श्रीकृष्णद्वारा कंसका वध ( सभा० ३८, पृष्ठ ८०१, कालम २ ) । कंस अम्नज्ञान और बल-पराक्रममें कार्तवीर्यके समान था । इससे समस्त राजाओंको उद्वेग होता था । उसके पास एक करोड़ पैदल सैनिक थे। आठ लाख रथी और उतने ही हाथी सवार थे । बत्तीस लाख घुड़सवारोंकी सेना थी ( सभा० ३८, पृष्ठ ८०३ ) । सभा में विराजमान कंसका श्रीकृष्णके हाथ से मन्त्रियों और परिवारसहित वध
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(सभा० अध्याय ३८, दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ट ८०४, कालम मेंसे एक (सभा० १४ । ५९)। यह द्रौपदीके १)। (२)एकः असुर, जो श्रीकृष्णद्वारा मारा गया। यह स्वयंवरमें आया था (आदि० १८५। १९)। युधिष्ठिरउग्रसेनके पुत्र कंससे भिन्न था (सभा० ३८, पृष्ठ ८२५)। के राजसूय यज्ञमें भी इसका आना हुआ था (सभा०३४ । क-(१) प्रजापति (आदि० १ । ३२)। (२) दक्ष- १५)। (४) एक जनपद: जहाँके लोग युधिष्ठिरके प्रजापतिका एक नाम ( शान्ति० २०८ । ७)। (३) लिये भेंट लाये थे (सभा० ५५ । ३०; शान्ति० ६५ ।
भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । ९१)। १३)। (५) छद्मवेषी ब्राहाणा, अज्ञातवासके समय ककुत्स्थ-इक्ष्वाकुवंशी महाराज शशादके पुत्र, जो अनेनाके युधिष्ठिरका बदला हुआ नाम (विराट. १।२४; विराट. पिता थे (वन० २०२ । १-२)।
१८ । २५, विराट० ३१ । २१ विराट०७० । ४)।
फङ्कणा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १६)। कक्ष-एक भारतीय जनपद ( भीष्म०९। ४९)।
कच-देवगुरु बृहस्पतिके ज्येष्ठ पुत्र ( आदि०७६ । ११)। कक्षक-वासुक्कुिलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
देवताओंके आग्रह करनेपर इनका संजीवनीविद्या सर्पसत्र में जल मरा था (आदि० ५७ । ६)।
सीखनेके लिये शुक्राचार्यके समीप जाना (आदि. ७६ । कक्षसेन-(१) राजा अविक्षित्के पौत्र तथा परीक्षित्के
१२-१८) । शुक्राचार्यको अपना परिचय देकर एक प्रथम पुत्र (आदि. ९४ । ५४) । ये यम-सभाके
सहस्र वर्षोंतक ब्रहाचर्य पालनके लिये इनका उनसे सदस्य और सूर्यपुत्र यमके उपासक बताये गये हैं (सभा०
अनुमति माँगना (आदि. ७६ । २०)। शुक्राचार्यके ८।१८) । इनका वसिष्ठको सर्वस्व समर्पण करके
द्वारा इनका स्वागत ( आदि० ७६ । २१) । इनके स्वर्गलोकगमन (अनु० १३७ । १५)। सायं प्रातः स्मरण
द्वारा गुरुकुलमें शुक्राचार्य एवं आचार्यपुत्री देवयानीकी करनेयोग्य पुण्यात्मा नरेशोभेसे एक (अनु. १६५।५९)।
आराधना (आदि० ७६ । २२-२५) । इनकी देवयानी ये न्यायोपार्जित धनके दान और गत्य-भाषणके द्वारा परम
द्वारा एकान्त-परिचर्या (आदि० ७६ । २६) । इनके सिद्धिको प्राप्त हुए ( आश्व० ९१ । ३५-३६ )।
द्वारा गुरुकी गौओंकी सेवा ( आदि० ७६ । २७)। (२) राजा युधिष्ठिरकी सभामै बैठकर उनकी उपासना
दानवोंका इन्हें मारकर कुत्तों और सियारोंको खिला देना करनेवाले एक नरेश (सभा० ४ । २२)।
(आदि० ७६ । २९)। इनके वियोगमें देवयानीकी कक्षसेन-आश्रम-असित नामक पर्वतपर स्थित एक पुण्य
चिन्ता ( आदि० ७६ । ३१-३२)। शुक्राचार्यकी दायक आश्रम (वन० ८९ । १२)।
संजीवनीके प्रभावसे इनका कुत्तोंके पेट फाड़कर प्रकट कक्षीवान-(१) एक प्राचीन राजा, जो व्युषिताश्व-पत्नी होना (आदि० ७६ । ३४)। दानवोंका इन्हें पीसकर
भद्राके पिता थे (आदि० १२० । १७)। (२) एक समुद्रके जलमें मिला देना ( आदि० ७६ । ४१)। ऋषि, जो अङ्गिराके पुत्र हैं और पूर्व दिशामें निवास करते हैं। देवयानीके पुनः चिन्तित होनेपर शुक्राचार्यके द्वारा (शान्ति० २०८ । २७-२८, अनु० १६५।३७-३८)। इनका पुनः संजीवन ( आदि० ७६ । ४२ )। दानवोंका इन्होंने एकाग्रचित्त हो वेदकी ऋचाओंद्वारा भगवान् इन्हें जलाकर इनकी राखको मदिरामें मिला शुक्राचार्यको विष्णुकी स्तुति करके उनकी कृपा एवं तपस्यासे सिद्धि पिला देना (आदि० ७६ । ४३)। गुरुके पेटमें मृतप्राप्त की (शान्ति० २९२ । १५-१७)। ये तपस्यासे संजीवनी विद्या सीखकर इनका शुक्राचार्यको जीवित करना अपनी प्रकृतिको प्राप्त हुए (शान्ति० २९६ । १४- (आदि. ७६ । ५८-६२)। इनके द्वारा गुरुकी १६)। ये महेन्द्र के गुरु, ब्रह्मतेजसे सम्पन्न और लोक- महिमा एवं उनके अनादरसे हानिका वर्णन ( आदि. स्रष्टा बताये गये हैं। इनका तेज रुद्र, अग्नि और वसुओं- ७६ । ६३-६४)। देवयानीके आग्रह करनेपर भी इनका के समान है। ये पृथ्वीपर शुभ कर्म करके देवताओंके साथ उसके साथ विवाह स्वीकार न करना ( आदि० ७७ । आनन्द भोगते हैं। इनका कीर्तन करनेसे इन्द्रलोककी ६-१५)। इनको देवयानीके द्वारा संजीवनी विद्या प्राप्ति होती है ( अनु० १५० । ३०-३३)। सिद्ध न होनेका शाप (आदि० ७७ । १६)। इनके कक्षेयु-पूरुपुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे द्वारा देवयानीको ब्राह्मण-जातीय पति न मिलनेका शाप उत्पन्न पुत्र (आदि० ९४ । १०)। ये सायं-प्रातः (आदि.७७ । १९)। स्वर्ग जानेपर इनको देवताओं
स्मरणीय राजाओंमेंसे एक हैं (अनु. १६५।६)। द्वारा वरदान (आदि० ७७ । २३) । इनसे संजीवनीकड़-(१) एक प्राचीन राजा ( आदि. ११२३३)। विद्या पढ़कर देवताओंका कृतार्थ होना (आदि० ७८ ।
(२) एक पक्षी, जो सुरसाकी संतान है (भादि. १)। बाण-शय्यापर पड़े हुए भीष्मके पास ये भी गये थे ६६ । ६९)। (३) वृष्णिकुलके सात महारथी वीरों- (शान्ति० ४७ । ९; अनु० २६ । ८)।
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कच्छ
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( ५२ )
कच्छ - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५६ ) । कच्छपी - नारदजीकी वीणा ( शल्य० ५४ । १९ ) । कठ- एक धर्मज्ञ जितेन्द्रिय ऋषि जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १८ ) । राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरने इनका सत्कार किया था ( सभा० ४५ । ३८ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ८४३ ) | ये सर्पदंशनसे मरी हुई प्रमद्वराको देखने आये थे ( आदि०८ । २५ ) । कणिक - ( १ ) धृतराष्ट्रका एक मन्त्री, जो कूट राजनीति और अर्थ - शास्त्रका पण्डित तथा उत्तम मन्त्रका ज्ञाता ब्राह्मण था (आदि० १३९ । २ ) । इसके द्वारा धृतराष्ट्रको कुटनीतिका उपदेश ( आदि० १३९ । १-९२) । ( २ ) भरद्वाजकुलमें उत्पन्न एक कूटनीतिज्ञ ब्राह्मण, जिसने सौवीरनरेश शत्रुंजयको कूटनीतिका उपदेश किया था ( शान्ति० १४० अ० ) । कण्टकिनी - स्कन्द की अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १६ ) । कण्डरीक - एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि, जिनके कुलमें प्रतापी
राजा ब्रह्मदत्त उत्पन्न हुए थे ( शान्ति० ३४२ । १०५ ) । कण्डु - एक महर्षि, जिनकी पुत्री 'वाक्ष' ने दस प्रचेताओंके साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित किया था ( आदि ०
१९५ । १५ ) ।
कण्डूति - स्कन्द की अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । १४ ) । कण्व - ( १ ) कश्यपगोत्रीय प्राचीन महर्षि, जिनका
।
आश्रम मालिनी नदी के तटपर था ( आदि० ७० । २१-२८ ) । इनके आश्रमका वर्णन ( आदि० ७० । २४-२९ ) । इन्हें मेधातिथिका पुत्र और पूर्व दिशामें रहनेवाला ऋषि बताया गया है ( शान्ति० २०८ | २७; अनु० १५१ । ३१; अनु० १६५ । ३८ ) । इनके द्वारा शकुन्तलाका पालन-पोषण एवं नामकरण ( आदि० ७२ । १३-१६ ) । शकुन्तला के गान्धर्व विवाहका समर्थन ( आदि० ७३ । २६-२७ ) । इनका शकुन्तलाके प्रति पातिव्रत्य धर्मका उपदेश एवं इसकी महिमाका वर्णन ( आदि ० ७४ । ९-१० ) । शकुन्तलाको पतिगृह पहुँचाने के लिये शिष्योंको इनका आदेश ( आदि०७४ १०-११ ) । इनके द्वारा स्त्रियोंको पिताके घर में अधिक दिनोंतक रहनेका निषेध ( आदि० ७४ । १२ ) । आचार्य बनकर इनके द्वारा राजा भरतके 'गोवितत' नामक अश्वमेध यज्ञका सम्पादन (आदि०७४ । १३० ) । इनका दुर्योधनको समझाते हुए मातलिका उपाख्यान सुनाना (उद्योग ० ९७ । १२ से १०५ । ३७ तक ) । इन्हें भरतसे दक्षिणारूपमें जाम्बूनद सुवर्णके बने हुए एक हजार कमल प्राप्त हुए थे ( द्रोण० ६८ । १११२ ) | ( २ ) प्राचीन युगान्तरके एक प्रसिद्ध तपस्वी महामुनि, जिन्हें ब्रह्माजीने वर दिया था ( अनु० १४१ में दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ट ५९१५ ) ।
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कनकाङ्गद
1
कण्वाश्रम - कण्व मुनिका आश्रम । यह लक्ष्मीद्वारा सेवित तथा लोकपूजित है । यह स्थान धर्मारण्यके अन्तर्गत है यहाँ प्रवेश करनेमात्रसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है ( वन० ८२ । ४५-४६ ) । प्रवेणी नदीके उत्तरमार्गमैं कण्वका पुण्यमय आश्रम है, जहाँ वरुणस्रोतस् नामक पर्वतपर सूर्यके पार्श्ववर्ती माठर देवताका विजयस्तम्भ सुशोभित है ( वन० ८८ । १०-११)। ( किसी-किसीके मत में यह स्थान राजपूतानेमें कोटासे चार मील दक्षिणपूर्व चम्बल नदी के तटपर स्थित है | )
कथक - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६७ ) । कदलीवन-सौगन्धिक कमलोंसे भरी हुई कुबेर- पुष्करिणीके तटपर स्थित सुवर्णमय केलोंसे भरा हुआ एक उपवन, जो हनुमानजी का निवासस्थान था ( वन० १४६ । ५८ ) । कद्र - दक्ष प्रजापतिकी एक पुत्री ( आदि० ६५ । १३) । यह नागों की माता और कश्यपकी पत्नी हैं। कश्यपके वर देनेको उद्यत होनेपर इनके द्वारा उनसे एक हजार नागके पुत्ररूपमें पानेकी प्रार्थना (आदि० १६ । ५-८)। पाँच सौ वर्षों बाद इनको एक हजार पुत्रोंकी प्राप्ति ( आदि० १६ । १५ ) । इनके द्वारा अपने पुत्रोंको आज्ञापालन न करनेके कारण शाप (आदि० २० । ८ ) । 'उच्चैःश्रवा घोड़ेका रंग क्या है ? इस प्रश्नपर कद्र और विनताका परस्पर विवाद करना । पराजित होनेपर दासी बनने की शर्त रखना और कद्रका छलपूर्वक विनताको अपनी दासी बनाना ( आदि० २० । २ से २३ । ४ तक ) । इनके द्वारा अपने पुत्रोंकी सूर्यके तापसे रक्षाके लिये इन्द्रकी स्तुति ( आदि० २५ । ७-१७ ) । कद्रकी प्रमुख संतानोंकी नामावली ( आदि० ३५ अध्याय ( ) । ये ब्रह्मसभा ब्रह्माजीकी उपासना करती हैं ( सभा० ११ । ४१–४३ ) | यह स्कन्दग्रहके रूपमें सूक्ष्म शरीर धारण करके गर्भवती स्त्रियोंके गर्भ में प्रवेश कर जाती और वहाँ उस गर्भको खा जाती हैं। इससे वह गर्भिणी सर्प पैदा करती है (वन० २३० । ३७-३८ ) । इसकी शान्तिका उपाय ( वन० २३० । ४३ - ४५ ) । कमोर - प्रात: और सायं स्मरण करनेयोग्य एक राजर्षि ( अनु० १६५ । ५३ )।
कनकध्वज - धृतराष्ट्रका पुत्र ( कनकाङ्गद ) ( आदिο
११६ । १४ ) | यह द्रौपदीके स्वयंवर में गया था ( आदि०१८५ । ३ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( भीष्म० ९६ । २६-२७ ) ।
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कनकाक्ष - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य०४५ | ७४ )। कनकाङ्गद ( कनकध्वज ) - धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि० ६७ । १०५ ) | ( देखिये कनकध्वज )
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कनकापीड
( ५३ )
कपिला
कनकापीड-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ६६)। कपिध्वज-अर्जुनका एक नाम ( भीष्म० २५ । २०)। कनकायु-धृतराष्ट्रका पुत्र (आदि०६७ । ९९) । इसका कपिल-(१) भगवान् श्रीकृष्ण या विष्णुके पुरातन एक नाम करकायु भी था । द्रौपदी-स्वयंवरके अवसरपर
अवतार महर्षि कपिल, जिन्होंने दृष्टिपातमात्रसे सगर-पुत्रोंइसके इसी नामका उल्लेख है ( आदि० १८५ । २)।
को भस्म कर दिया था ( वन० ४७ । १८-१९; (इन दोनों नामोंसे भी इसकी मृत्युका उल्लेख नहीं है ।
वन० १०७ । ३२-३३)। ये प्रजापति कर्दमके पुत्र हैं । सम्भव है, इसका कोई तीसरा नाम भी हो।)
इनकी माताका नाम देवहूति है । इनका दूसरा नाम कनकावती-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६८)।
'चक्रधनु' है ( उद्योग० १०९ । १७-१८ )। कनखल-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके तीन रात उपवास
शान्ति० ४३ अध्यायमें भी इनकी महिमाका उल्लेख करनेवाला मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता है (वन० हुआ है । बाणशय्यापर गिरने के समय भीष्मजीके पास ८५ । ३०; वन० ९० । २२ ) । यहाँ स्नानका फल
आनेवाले महर्षियोंमें इनका भी नाम आया है (शान्ति. (अनु० २५ । १३)।
४७ । ८ ) । इनका स्यूमरश्मि ऋषिके साथ यज्ञकन्दरा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ९)। विषयक संवाद ( शान्ति० २६८ अध्याय) । प्रवृत्तिकन्दर्प-कामदेवका एक नाम (वन० ५३ । २०)। निवृत्तिमार्गके विषयमें उन्हीं ऋषिसे संवाद (शान्ति. कन्यकागुण-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९।५२)। २६९ अध्याय )। स्यूमरश्मिसे ब्रह्म-प्राप्तिके सम्बन्धमें कन्याकुप-एक प्राचीन तीर्थ । यहाँ स्नानका फल कीर्तिकी बातचीत (शान्ति० २७० अध्याय)। इनका शिवमहिमाके प्राप्ति ( अनु० २५ । १९-२०)।
विषयमें युधिष्ठिरको अपना अनुभव बताना ( अनु० कन्यातीर्थ-(१) कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ
१८ । ४-५)। सात धरणीधर ऋषियोंमेंसे एक ये भी (वन० ८३ । ११२)। (२) पाण्ड्य देशमें दक्षिण
हैं (अनु. १५० । ४१)। इनके शापसे सगर-पुत्रोंके समुद्रके तटपर स्थित कन्या या कुमारी नामक तीर्थ;
दग्ध होनेकी चर्चा ( अनु० १५३ । ९)। (२) जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल और पापसे
भगवान् सूर्यका एक नाम (वन० ३ । २४)। (३) छुटकारा मिलता है (वन०८५ । २३; वन०८८ 1 १४;
एक नागराज, जिनका कपिलतीर्थ प्रसिद्ध है। कपिलके वन० ९५ । ३)।
उस तीर्थमें स्नान करनेसे सहस्र कपिला-दानका फल होता कन्याश्रम-एक तीर्थ, जिसमें तीन राततक उपवास करके
है (वन०८४ । ३२) । (४) भानु ( मनु ) नामक नियमित भोजन करनेसे स्वर्गीय सुख सुलभ होता है
अग्निके चतुर्थ पुत्र पूर्वोक्त महर्षि कपिलके ही अवतार
या स्वरूप हैं (वन० २२१ । २१)। (५) एक श्रेष्ठ (वन०८३ । १८९)।
ऋषि, जो शालिहोत्रके पिता थे। इन्होंने उपरिचरके कन्यासंवेद्यतीर्थ-एक प्राचीन तीर्थ, जिसके सेवनसे मनुष्यको प्रजापति मनुका लोक प्राप्त होता है (वन०८४ । १३६)।
यज्ञकी सदस्यता ग्रहण की थी (शान्ति० ३३६ । ८)। कन्याहृद-एक तीर्थ, जिसमें निवास करनेसे देवलोककी
(६) विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु० ४।५६)। प्राप्ति होती है (अनु० २५ । ५३)।
(७) भगवान् शिवका एक नाम (अनु०१७।९८)।
(८) भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४९ । ७० कप-दानवोंका एक दल । इसका स्वर्गपर अधिकार करना (अनु० १५७ । ४) । ब्राह्मणोंद्वारा इसका संहार
वन० १४९ । १०९)। (अनु० १५७ । १७-१८)।
कपिलकेदारतीर्थ-कपिलका केदाररूप तीर्थ । इसमें स्नान कपट-एक दानव । कश्यपपत्नी दनुका पुत्र (भीष्म
करनेसे महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है । उस दुर्लभतीर्थमें ६५ । २६)।
जाकर तपस्याद्वारा पाप नष्ट हो जानेसे मनुप्यको अन्तर्धानकपालमोचन-कुरुक्षेत्रमें सरस्वती-तटवर्ती एक तीर्थ, जो विद्याकी प्राप्ति होती है (वन० ८३ । ७२-७४ )। सब पापोंसे छुड़ानेवाला है (वन० ८३ । १३७; शल्य. कपिलतीर्थ-नागराज कपिलका एक तीर्थ, जिसमें स्नान ३९ वाँ अध्याय)।
करनेसे सहस्र कपिला-दानका फल प्राप्त होता है (वन० कपाली-ग्यारह रुद्रोंमेसे एक । ये ब्रह्माजीके पौत्र तथा ८४ । ३२)। स्थाणुके पुत्र थे (आदि० ६६ । १-३)।।
कपिला-(१) दक्ष प्रजापतिकी पुत्री । कश्यपपत्नी कपिजल-एक प्रकारके पक्षी, जो मरे हुए त्रिशिराके वेद- ( आदि० ६५। १२ )। (२) कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत
पाठी मुखसे उत्पन्न हुए थे ( उद्योग० ९ । ४०)। एक प्राचीन तीर्थ । यहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका कपिजला-एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है फल मिलता है ( वन० ८३ । ४७-४८ )। (३) (भीष्म० ९ । २६)।
एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है (भीष्म०
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कपिला गाय
( ५४ )
करंजनिलया
९ । २८ )। (४) पञ्चशिखकी माता (शान्ति० कपोतरोमा-उशीनरकुमार शिबिके पुत्रका नाम । उसका २१८ । १५)।
दूसरा नाम औद्भिद' था (वन० १९७ । २७-२८)। कपिला गाय-इसकी उत्पत्ति तथा दानका वर्णन ( अनु० यमकी सभामें विराजमान होनेवाले नरेशोंमें इनका भी ७७ अ०; अनु० १३० । १९-२०)।
नाम आया है (सभा० ८ । १७)। ये कलिङ्गराज कपिलावट-एक तीर्थ, यहाँ उपवाससे सहस्र गोदानका चित्राङ्गदकी कन्याके खयंवरमें गये थे (शान्ति०४।६)। फल प्राप्त होता है (वन० ८४ । ३.)।
कबन्ध-एक राक्षस । भगवान् श्रीरामद्वारा इसका वध कपिलाश्च-महाराज कुबलाश्वके पुत्र । ये तीन भाई धन्धुकी (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ट ७९४ क्रोधाग्निसे बच गये थे । इन्हींसे इक्ष्वाकुवंशी नरेशोंकी का दूसरा कालम ) । इसका लक्ष्मणको पकड़ना वंश-परम्परा चालू हुई (वन० २०४ । ४०)।ये पृथ्वीके (वन० २७९ । ३०)। लक्ष्मणद्वारा इसका मारा उन प्राचीन शासकोंमेंसे हैं, जो इसे छोड़कर स्वर्गको जाना (वन० २७९ । ३८-३९) । शापसे मुक्त होनेपर चले गये (शान्ति० २२७ । ५१)।
इसका विश्वावसु गन्धर्वके रूपमें प्रकट हो सोताजीका पता कपिलाह्रद-वाराणसीके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ स्नानसे
बताना ( वन० २७९ । ४२-४३)। राजसूय यज्ञका फल मिलता है (वन० ८४ । ७८)। कमठ-(१) युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान कम्बोजराज यहाँ स्नानका फल (अनु० २५ । २५)।
(सभा० ४ । २२)। (२) एक ऋषि, जिन्होंने कपिस्कन्ध-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५।५७)। तपस्याद्वारा सिद्धि प्राप्त की थी ( शान्ति० २९६ । १४कपोत-गरुडकी प्रमुख संता से एक(उद्योग० १०१।१३)।
कमला-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६ । ९)। कपोत, कपोती और बहेलियेकी कथा-(शान्ति.
कमलाक्ष-(१) कौरवपक्षका एक महारथी योद्धा, जिसे १४३ अध्यायसे १४९ तक)। कपोतके द्वारा शरणागत
दुर्योधनने अर्जुनपर आक्रमण करने के लिये शकुनिके साथ भेजा अतिथिका सत्कार ( शान्ति. १४३ । ४)। बहेलियेको
था (द्रोण. १५६ । १२०-१२३)। (२) तारकाउसके कर-कर्मके कारण सगे-सम्बन्धियोंने भी त्याग दिया
सुरका पुत्र । त्रिपुरोंमेंसे रजतमयपुरका अधिपति( कर्ण था (शान्ति० १४३ । १०-१४)। पक्षियोंके वधसे
३३ । ५)। शिवजोद्वारा तीनों पुरोंका संहार (कर्ण०३४। पत्नीसहित जीविका चलानेवाले उस बहेलियेको एक दिन
११४)। अन्यत्रके वर्णन के अनुसार कमलाक्षके अधिकारमै आँधी-वर्षाके कारण महान् कष्टकी प्राप्ति (शान्ति० १४३।
सुवर्णमय पुर था और शिवजीने तीनों पुरीको दग्ध १८-२५)। सर्दीसे व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिरी
किया (द्रोण. २०२ । ६४-८३)। हुई एक कपोतीको उठाकर उसने पीजड़ेमें डाल लिया । स्वयं दुखी होकर भी उस पापीने दूसरोंको सताना न
कमलाक्षी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६ । ६)। छोड़ा (शान्ति. १४३ । २५-२७)। बहेलियेका एक कम्प-एक वृष्णिवंशी राजकुमार, जो मृत्युके पश्चात वृक्षके नीचे विश्राम (शान्ति० १४३ । २८-३३)। विश्वेदेवोंमें मिल गया (स्वर्गा० ५। १६ )। उसी वृक्षपर रहनेवाले कबूतरद्वारा अपनी प्यारी भार्या कम्पन-एक महाबली नरेश, जो युधिष्ठिरकी सभामें कबूतरीका गुणगान तथा पतिव्रता स्त्रीकी प्रशंसा विराजमान होते थे (सभा० ४ । २२)। (शान्ति.१४४ । १-१७)। कबूतरीका कबूतरसे कम्पना-एक सिद्धसेवित नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा शरणागत व्याधकी सेवाके लिये प्रार्थना (शान्ति. १४५ पीती है ( भीष्म० ५। २५)। इसमें स्नान करनेसे अध्याय)। कबूतरके द्वारा अतिथिसत्कार और अपने पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त होता है (वन० ८४।११६)। शरीरका बहेलियेके लिये परित्याग (शान्ति० १४६ कम्बल-(१) एक प्रमुख नाग (आदि०३५। १०)। ये अध्याय ) । बहेलियेका वैराग्य ( शान्ति. १४७ वरुणकी सभामें भी विराजमान होते हैं (सभा० १ । अध्याय)। कबूतरीका विलाप, अग्निमें प्रवेश तथा ९)। मातलिके उपाख्यानमें ये कश्यपके वंशज कहे गये उन दोनों कपोतदम्पतिको स्वर्गलोककी प्राप्ति (शान्ति. हैं (उद्योग० १०३ । ९)। प्रयागतीर्थमें कम्बल नागका १४८ अध्याय)। बहेलियेकी तपस्या तथा दावानलमें स्थान है, जो ब्रह्माजीकी वेदीके अन्तर्गत है (वन० ८५। दग्ध होकर उसका स्वर्गलोकमें जाना । कपोतकी शरणागत- ७६-७७)। (२) कुशद्वीपका चौथा वर्ष ( भीष्म० वत्सलता तथा कपोतीके पातिव्रत्यकी अनुकरणीयता । १२। १३)। कपोत-कपोतीके इस प्रसंगको श्रवण करनेका फल करंजनिलया-वृक्षोंकी माता अनला या वीरुधा, जो करंज (शान्ति. १४९ अध्याय)।
नामक वृक्षपर निवास करती है । यह वरदायिनी तथा
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करक
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( ५५ )
प्राणियोंपर कृपा करनेवाली है; अतः पुत्रार्थी मनुष्य करंज वृक्षपर इसके उद्देश्यसे प्रणाम करते हैं (वन० २३० । ३५-३६ ) ।
करक- एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६० ) । करकर्ष - चेदिराजका भ्राता । शरभका छोटा भाई | इन दोनोंको साथ लेकर वे ( चेदिराज ) पाण्डवोंकी सहायता के लिये आये थे ( उद्योग० ५० । ४७ ) । इसने युद्धके मैदानमें आगे बढ़कर चेकितानको अपने रथपर बिठाकर उनकी रक्षा की ( भीष्म० ८४ । ३२-३३ ) । करकाश- कौरवपक्षका एक योद्धा, जो द्रोणनिर्मित गरुडव्यूहमें उसकी ग्रीवाके स्थान में खड़ा किया गया था ( द्रोण० २० । ६ ) ।
करट - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६३ ) । करतोया - एक तीर्थंभूत पवित्र नदी, जो वरुणकी सभा में उपस्थित हो उनकी उपासना करती है ( सभा० ९ । २२ ) । यहाँ तीन रात उपवास करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है ( वन० ८५ । ३ ) । करन्धम- एक इक्ष्वाकुवंशी नरेश, जो खनीनेत्रके पुत्र और अविक्षित के पिता थे । इनका प्रथम नाम सुवर्चा था । इन्होंने अपने करका धमन करके ( हाथको बजाकर ) सेना उत्पन्न किया और शत्रुओंको मार भगाया; इसलिये ये करन्धम कहलाये ( आश्व० ४ । २ -१९ ) । ये यमराजकी सभा में रहकर भगवान् यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । १६ ) ।
करभ- एक राजा, जो मगधराज जरासन्धके आगे नतमस्तक
रहता था ( सभा० १४ । १३ ) ।
करभञ्जक - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६९ ) । करम्भा-कलिङ्गदेशकी राजकुमारी । पूवंशी महाराज
अक्रोधनकी पत्नी । देवातिथि की माता ( आदि० ९५ । २२ ) ।
करवीर - ( १ ) एक प्रमुख नाग ( आदि ३५ । १२ ) । (२) द्वारका के समीपवर्ती एक बन ( सभा० ३८ | २९ के बाद, पृष्ठ ८१३, कालम १ ) ।
करवीरपुर - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मरूप हो जाता है ( अनु० २५ । ४४ ) । करहाटक–दक्षिण भारतका एक देश, जिसे सहदेवने दूतद्वारा ही जीता था ( सभा० ३१ । ७० ) । कराल - एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सव के समय आया था आदि० १२२ । ५७ )। करालजनक- मिथिलाके एक राजा, जिन्होंने वसिष्ठजी से
कर्ण
विविध ज्ञानविषयक प्रश्न किये और उनके सदुपदेश सुने ( शान्ति० ३०२ अध्याय से ३०८ अध्याय तक ) | करालदन्त - इन्द्रकी सभा में विराजनेवाले एक महर्षि, जो वहाँ रहकर इन्द्रकी उपासना करते हैं ( सभा० ७ । १४)। करालाक्ष - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६१ ) । करीति - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४४ ) । करीषक- एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५५ ) । करीषिणी - एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है। ( भीष्म० ९ । १७, २३ ) ।
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करूष - ( १ ) एक भारतीय जनपद ( आधुनिक विद्वानोंकी धारणा के अनुसार बघेलखण्ड और बुन्देलखण्डका कुछ भाग ( आदि० १२२ । ४० ) | ( २ ) करूषराज, जिसकी प्राप्ति के लिये तपस्या करनेवाली वैशाली भद्राका शिशुपालने अपहरण किया था ( सभा० ४५ । ५१ ) । (३) एक नरेश, जिन्होंने जीवन में कभी मांस नहीं खाया ( अनु० ११५ । ६४ ) ।
करेणुमती - चेदिनरेश शिशुपालकी पुत्री, नकुलकी पत्नी एवं निरमित्रकी माता ( आदि० ९५ । ७९ ) । कर्कखण्ड - पूर्वीय भारतका एक जनपद, जिसे कर्णने
दुर्योधनके लिये जीता था ( वन० २५४ । ८ ) । कर्कर- एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ | १६ ) | कर्कोटक - (१) कश्यप और कद्रू की संतानोंमें प्रमुख एक
नाग ( आदि० ३५ । ५ ) | ये अर्जुनके जन्मोत्सव में गये थे ( आदि० १२२ । ७१ ) । वरुणकी सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ९ । ९ ) । दावानलसे दग्ध होनेके भय से इनका राजा नलको पुकारना, नलके आनेपर उनसे नारदजीके शापसे अपने स्थावर-तुल्य होनेका हाल कहना, उनका मित्र होना, राजा नलको बैँसकर उनका रूप विकृत करना, उन्हें आश्वासन देना तथा पुनः पूर्वरूप में परिणत होने के लिये ओढ़नेके निमित्त दो वस्त्र प्रदान करना ( वन० ६६ । २ - २५ ) | ये शिवजी के रथके घोड़ोंके केसर बाँधने की रस्सी बनाये गये थे स्वधामगमनके ( कर्ण ० ४ । २९ ) । बलरामजी के समय स्वागत के लिये ये भी गये थे (मौसल० ४ । १५) । ( २ ) कर्कोटक देश और वहाँ के निवासी ( कर्ण ० ४४ । ४३ )। कर्ण - (१) कुन्तीके गर्म और सूर्यके अंशसे कवच-कुण्डलधारी महाबली कर्णकी उत्पत्ति ( आदि० ६३ । ९८६ आदि० ११० । १८ ) । पहले इसका 'वसुषेण' नाम था परंतु जब इसने अपने कवच-कुण्डलोंको शरीरसे उधेड़कर इन्द्रको दे दिया, तबसे उसका नाम
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कर्ण
कर्ण
वैकर्तन' हो गया ( आदि० ६७ । १४४---१४७)। (सभा० ३० । २०)। युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें रथिकुन्तीके द्वारा इसका जलमें परित्याग (आदि. ६७ । श्रेष्ठ कर्णका आगमन (सभा०३४ । ७)। यह अङ्ग १३९; आदि० ११०।२२)। इसे ब्राह्मणके लिये कुछ और वङ्ग देशका राजा था और इसने जरासंधको परास्त भी अदेय नहीं था ( आदि० ६७ । १४३)। ब्राहाण- किया था (सभा० ४४ । ९-११)। द्यूतके लिये आये रूपमें याचक होकर आये हुए इन्द्रको इसके द्वारा कवच हुए राजा युधिष्ठिर कर्णसे भी मिले थे (सभा० ५८ । कुण्डलका दान एवं प्रसन्न हुए इन्द्रसे इसको 'शक्ति' २३ ) । द्यूतसभामें कर्ण भी उपस्थित था और द्रौपदीको नामक अमोघ अस्त्रकी प्राप्ति (आदि०६७।१४४-१४६; दावपर लगानेसे बहुत प्रसन्न हुआ था (सभा० ६५ । आदि. ११० । २८-२९)। यह सूर्यदेवका सर्वोत्तम ४४)। इसके द्वारा विकर्णको फटकारते हुए द्रौपदीके अंश था (आदि० ६७ । १५०)। गङ्गाके प्रवाहमें हारे जाने की घोषणा और द्रौपदी तथा पाण्डवोंके वस्त्र बहते हुए इस बालक कर्णका अधिरथके हाथमें पहँचना उतार लेनेके लिये दुःशासनको आदेश (सभा०६८ । ( आदि. ५०० । २३)। अधिरथ तथा उसकी पत्नी २७-३८)। इसका द्रौपदीको दूसरा पति चुन लेनेके राधाका इसको अपना पुत्र बना लेना ( आदि. ११०। लिये कहना और उसे दासी बताना (सभा० ७१। २३)। इसका 'वसुषेण' नाम होनेका कारण (आदि. १-४) । वनमें चलकर पाण्डवोंका वध करने के लिये ११० । २४)। इसकी सूर्य-भक्ति (आदि० ११० । दुर्योधनको इसकी सलाह ( वन० ७ । १६-२०)। २५)। इसकी ब्राहाण-भक्ति (आदि० ११०।२६)। द्वैतवनमें पाण्डवोंके पास चलने के लिये इसका दुर्योधनको इसका कर्ण' और 'वैकर्तन' नाम होने का कारण उभाड़ना ( वन० २३७ अध्याय )।घोषयात्राका प्रस्ताव (आदि. ११० । ३१)। द्रोणाचार्यके समीप अध्ययनके बताना (वन० २३८ । १९-२०)। धृतराष्ट्र के आगे लिये इसका आगमन ( आदि. १३१ । ११ )। घोषयात्राका प्रस्ताव रखना (वन० २३९ । ३-५)। अध्ययनावस्थामें अर्जुनसे इसकी स्पर्धा ( आदि. द्वैतवनमें गन्धर्वोद्वारा इसकी पराजय (वन० २४१ । १३१ । १२)। रङ्गभूमिमें इसकी अर्जुनसे स्पर्धा तथा ३२)। मार्गमें इसके द्वारा दुर्योधनका अभिनन्दन अस्त्र-कुशलता ( आदि. १३५ । ९-१२)। रङ्ग- (वन० २४७ । १०-१५)। दुर्योधनको अनशन न भूमिमें दुर्योधनद्वारा इसका सम्मान (आदि० १३५ ।। करनेके लिये इसका समझाना (वन० २५० अध्याय)। १३-१४) । अर्जुनद्वारा इसे रङ्गभूमिमें फटकार (आदि. भीष्मद्वारा इसकी निन्दा, इसके क्षोभपूर्ण वचन और १३५ । १८) । अर्जुनसे लड़नेके लिये इसका रङ्गभूमिमें इसका दिग्विजयके लिये प्रस्थान (वन० २५३ अध्याय)। उद्यत होना (आदि. १३५ । २०)। रङ्गभूमिमें इसके द्वारा समूची पृथ्वीपर दिग्विजय और हस्तिनापुरमें कृपाचार्यका इससे परिचय पूछना और इसका लज्जित इसका स्वागत ( वन० २५४ अध्याय ) । कर्णका होना ( आदि० १३५ । ३४)। दुर्योधनद्वारा इसका दुर्योधनको यशके लिये सलाह देना ( वन० २५५ अङ्गदेशके राजपदपर अभिषेक (आदि. १३५ । ३८)।
अध्याय )। कर्णद्वारा अर्जुनके वधकी प्रतिज्ञा ( बन० इसके द्वारा दुर्योधनको अटल मित्रताका वरदान (आदि०
२५७ । १६-१७ )। सूर्यके समझानेपर भी इसका १३५ । ४१)। इसका रङ्गभूमिमें अपने पिता अधिरथ
कवच कुण्डल देनेका ही निश्चय रखना (वन० ३००। का अभिवादन (आदि० १३६ । २)। भीमसेनद्वारा
२७-३९)। इन्द्रसे शक्ति लेकर ही उन्हें कवच-कुण्डल इसका तिरस्कार (आदि० १३६ । ६) । द्रुपदसे देनेका निश्चय ( वन.३०२ । १७ के बाद दाक्षिणात्य पराजित होकर इसका पलायन (आदि० १३७ । २४ के पाठ )। कर्णका कुन्तीके गर्भसे जन्म, कुन्तीका उसे बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । द्रौपदीके स्वयंवरमें इसका पिटारीमें रख कर अश्वनदीमें बहा देना तथा अमृतसे प्रकट आगमन (आदि. १८५।४)। स्वयंवरमें लक्ष्यवेधके हुए कवच-कुण्डल धारण करनेके कारण इसका नदीमे लिये उद्यत हुए कर्णको देखकर सूतपुत्र होनेके कारण जीवित रह सकना (वन० ३०८ । ४-७-२७)। इसका वरण न करनेके सम्बन्धमें द्रौपदीका वचन पिटारीमें बंद हुए कर्णका अधिरथ और राधाके हाथमें (आदि. १८६ । २३)। द्रौपदीके स्वयंवरमें अर्जुनद्वारा ___ आना (वन० ३०९ । ५-६)। राधाद्वारा कर्णका विधिइसकी पराजय (आदि० १८९ । २२)। पराक्रमपूर्वक पूर्वक पालन ( वन० ३०९ । ११-१२ ) । इसका द्रुपदको पराजित कर पाण्डवोंको कैद करने के लिये इसका 'वसुषेण' और 'वृष' नाम पड़नेका कारण ( बन० दुर्योधनको परामर्श (आदि० २०१।१-२१)। ३०९ । १३-१४)। हस्तिनापुरमें इसकी शिक्षा और इसको द्रोणको फटकार (आदि० २०३ । २६)। दुर्योधनसे मित्रता (वन० ३०९ । १७-१८)। इन्द्रसे राजसूय-दिग्विजयके समय भीमसेनद्वारा इसकी पराजय उनकी शक्ति माँगना (वन० ३१०।२१) । इन्द्रको
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०ना०८
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इसके द्वारा कवच-कुण्डल- दान ( वन० ३१० । ३८ ) । पाण्डवों का पता लगाने के लिये इसकी पुनः गुप्तचर भेजने की सलाह ( विराट० २६ । ८ - १२ ) । द्रोणाचार्यकी बातों पर आक्षेप करते हुए अर्जुनसे युद्ध करनेका ही इसका निश्चय ( विराट० ४७ । २१ - ३४ ) । इसकी आत्मप्रशंसापूर्ण अहङ्कारोक्ति ( विराट० ४८ अध्याय ) । अर्जुनपर इसका आक्रमण ( विराट० ५४ । १९ ) । अर्जुन से पराजित होकर युद्ध के मुहानेसे भागना ( विराट० ५४ । ३६ ) | अर्जुनके साथ पुनः युद्ध और पराजित होकर भागना ( विराट० ६० । २७ ) । कर्णके कपड़ोंका उत्तरद्वारा उतारा जाना ( विराट० ६५ । १५ ) । द्रुपदके पुरोहितके कथनका समर्थन करनेवाले भीष्मके वाक्योंपर इसका आक्षेप करना ( उद्योग० २१ । ९-१५ ) । इसकी आत्मप्रशंसा ( उद्योग ० ४९ । २९– ३२; उद्योग० ६२ । २ -६ ) । भीष्मजीके आक्षेप करनेपर इसका अस्त्र त्यागकर सभासे प्रस्थान ( उद्योग० ६२ । १३ ) | दुर्योधनके पक्षमें रहनेका निश्चय बताते हुए श्रीकृष्णसे रणयज्ञके रूपकका वर्णन करना ( उद्योग ० १४१ अध्याय | इसके द्वारा श्रीकृष्णसे युधिष्ठिरकी विजय और दुर्योधनकी पराजयके लक्षणोंका वर्णन ( उद्योग० १४३ । २--४५ ) । कुन्तीको उत्तर देते हुए उनके चार पुत्रोंको न मारनेकी प्रतिज्ञा ( उद्योग ० १४६ । ४–२३ ) । भीष्मजी के जीते जी युद्ध न करनेकी प्रतिज्ञा ( उद्योग० १५६ । २५ ) | भीष्मकी कटु आलोचना ( उद्योग० १६८ । ११ -- २९ ) । पाँच दिनमें ही पाण्डवसेनाको नष्ट करनेकी अपनी शक्तिका कथन ( उद्योग ० १९३ । २० ) | श्रीकृष्णके समझानेपर दुर्योधनका ही पक्ष ग्रहण करनेका निश्चय ( भीष्म ० ४३ । ९२ ) । भीष्मसे शस्त्र डलवा देनेके लिये दुर्योधनको सलाह देना ( भीष्म० ९७ । ७ – १३ ) । बाणशय्या पर पड़े हुए भीष्म के पास जाकर इसका उन्हें प्रणाम करना ( भीष्म० १२२ । ४-५ ) । भीष्मके समझानेपर क्षमा-प्रार्थना करते हुए इसका युद्धका ही निश्चय बताना ( भीष्म० १२२ । २३ - - ३३ ) । कौरवोद्वारा इसका स्मरण ( द्रोण० १ । ३३ -- ४७ ) । भीष्मके लिये शोक प्रकट करते हुए इसका रणके लिये प्रस्थान ( द्रोण० २ अध्याय) । भीष्मकी प्रशंसा करते हुए युद्धकं लिये उनसे आजा माँगना ( द्रोण० ३ अध्याय ) । भीष्मकी आज्ञा पाकर कौरवोंकी सेनामें इसका जाना (द्रोण० ४ । १५) । दुर्योधनके पूछने पर इसका सेनापतिके लिये द्रोणाचार्यका नाम बताना ( द्रोण० ५ । १३ - - २१ ) । दुर्योधनसे भीमसेन के स्वभावका वर्णन करते हुए द्रोणाचार्य की रक्षा के लिये कहना ( द्रोण० २२ । १८ - - २८ ) । केकय
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राजकुमारों के साथ युद्ध ( द्रोण० २५ । ४२-४४ )। अर्जुन, भीमसेन, पृष्टद्युम्न और सात्यकिके साथ युद्ध ( द्रोण० ३२ । ५२--७० )। इसका अभिमन्युसे पराजित होना ( द्रोण० ४० । १७ -- ३६ ) । इसका द्रोणाचार्य अभिमन्यु वधका उपाय पूछना ( द्रोण० ४८ | १८ ) । इसके द्वारा अभिमन्युके धनुष और ढालका काटा जाना ( द्रोण० ४८ । ३२ - ३९ ) । इसके ध्वजका वर्णन ( द्रोण० १०५ । १२-१४ ) । भीमसेनके साथ युद्धमें इसका पराजित होना ( द्रोण० १२९ । (३३) । भीमसेन के साथ इसका युद्ध और पराजित होना ( द्रोण० १३५ से १३८ अध्यायतक ) । भीमसेनसे बचने के लिये इसका रथमें दुबक जाना ( द्रोण० १३९ । ७६ ) । भीमसेनको मूच्छित करके इसका धनुषकी नोक से उन्हें दबाना ( द्रोण० १३९ । ९१-९२ ) । भीमसेनको कटुवचन सुनाना ( द्रोण० १३९ । ९५–१०९ ) । अर्जुन के बाणोंसे आहत होकर इसका दूर हट जाना ( द्रोण० १३९ । ११४ ) । अर्जुनके द्वारा युद्ध में परास्त होना ( द्रोण० १४५ ॥ ८३-८४ ) । दुर्योधन के प्रोत्साहन देनेपर उसे उत्तर देना ( द्रोण० १४५ । २५ - ३३ ) । सात्यकिके साथ युद्धमें इसकी पराजय ( द्रोण० १४७ । ६४-६५ ) । दुर्योधनद्वारा द्रोणाचार्यपर किये गये दोषारोपणका निराकरण ( द्रोण० १५२ । १५ - २२ ) । दुर्योधनसे दैवकी प्रधानताका वर्णन ( द्रोण० १५२ । २३-३४ )। दुर्योधनको आश्वासन ( द्रोण० १५८ ।५-११ ) । इसके द्वारा कृपाचार्यका अपमान ( द्रोण० १५८ ॥ २५–३२; द्रोण० १५८ | ४९-७० ) । अर्जुन के साथ युद्ध में इसका पराजित होना ( द्रोण० १५९ । ६२-६४ )। सहदेवको युद्ध में परास्त करके उनके शरीर में धनुषकी नोक चुभोकर उन्हें कटु वचन सुनाना ( द्रोण० १६७। २ - १८ ) । सात्यकिके साथ इसका युद्ध ( द्रोण० १७० । ३०—४३ ) । दुर्योधनको इसकी सलाह ( द्रोण० १७० । ४६—–६० ) । इसके द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय ( द्रोण० १७३ । ७ ) । घटोत्कच के साथ इसका घोर युद्ध ( द्रोण ० १७५ अध्याय ) । इसके द्वारा इन्द्रकी दी हुई शक्तिसे घटोत्कचका वध ( द्रोण० १७९ । ५४ -५८ ) । भीमसेनके साथ युद्ध और उन्हें परास्त करना (द्रोण० १८८ । १०-२२ ) । भीमसेनके साथ युद्ध ( द्रोण० १८९ । ५० - ५५ ) । द्रोणाचार्य के मारे जानेपर युद्धस्थलसे भागना ( द्रोण० १९३ । १० ) । सात्यकिद्वारा इसकी पराजय ( द्रोण० २०० । ५३ ) । संजयद्वारा इसके सेनापतित्व तथा मृत्युका वर्णन ( कर्ण० ३ । १७ - २१ ) । अर्जुनद्वारा इसके पुत्र वृषसेन के
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चत्रको चर्चा ( कर्ण ० ५। २३-२४ ) । सेनापति के लिये प्रस्ताव करनेपर दुर्योधनको आश्वासन ( कर्ण० १० । ४०-४५ ) । सेनापति-पदपर अभिषेक ( कर्ण० ३० । ४३) । इसका कौरव सेनाका मकरव्यूह बनाकर युद्धके लिये प्रस्थान ( कर्ण ० ११ (१४) | इसके द्वारा पाण्डवसेना का संहार ( कर्ण० २१ । १८ - २४ ) । भागते हुए नकुलके गलेमें धनुष फँसाकर उन्हें पकड़ना और जीवित छोड़ देना ( कर्ण० २४ । ४५-५६ ) । सात्यकिके साथ इसका युद्ध ( कर्ण० ३० अध्याय I दुर्योधनसे अपनी युद्धसम्बन्धी व्यवस्था के लिये कहना ( कर्ण० ३१ । ३५-६९ ) । शल्यको सारथि बनाकर युद्धके लिये प्रस्थान ( कर्ण० ३६ । २४-२५ ) । इसकी आत्मप्रशंसा ( कर्ण० ३७ । १३ - ३१ ) | अर्जुनका पता बतानेवालेको पुरस्कार देनेकी घोषणा ( कर्ण० ३८ अध्याय ) । शल्यको फटकारते हुए मद्रनिवासियों की निन्दा करना और उन्हें मारने की धमकी देना ( कर्ण० ४० अध्याय ) । शल्यको फटकारते हुए अपनेको परशुरामजी तथा एक ब्राह्मणद्वारा प्राप्त शापोंकी बात बताना ( कर्ण० ४२ अध्याय ) | आत्मप्रशंसापूर्वक शल्यको फटकारना ( कर्ण ० ४३ अध्याय ) । इसके द्वारा मद्र आदि बाहीक देशवासियोंकी निन्दा करना (कर्ण० ४४ से ४५ अध्यायतक)। इसके द्वारा पाञ्चालोंका संहार ( कर्ण० ४६ । २१-२२ ) । पाण्डव सेनाका संहार ( कर्ण ३८ । ९-१७ ) । कर्णपुत्र सुषेण और चित्रसेनद्वारा पिताके रथ के पहियोंकी रक्षा, वृषसेनद्वारा उसके पृष्ठभागकी रक्षा ( कर्ण० ४८ । १८-१९ ) । भीमसेनद्वारा कर्णपुत्र भानुसेनका वध ( कर्ण० ४८ । २७ ) । कर्गद्वारा युधिष्ठिरपर आक्रमण ( कर्ण० ४८ । ६३ ) । युधिष्ठिर के साथ युद्ध में इसका मूच्छित होना ( कर्ण ० ४९ । २१ ) | इसके द्वारा युधिष्ठिरके चक्ररक्षक चन्द्रदेव और दण्डधारका वध ( कर्ण० ४९ । २७ ) । युधिष्ठिर को परास्त करके उनका तिरस्कार करना ( कर्ण० ४९ । ४८-५९ ) । भीमसेनद्वारा इसकी पराजय ( कर्ण० ५० । ४७ ) । भीमसेन के साथ इसका घोर संग्राम ( कर्ण० ५१ से अध्यायतक ) । इसके द्वारा पाञ्चाल, चेदि और केकय वीरोंका भीषण संहार ( कर्ण० ५६ । ३८— ६९ ) । धृष्टद्युम्न के साथ युद्ध ( कर्ण० ५९ । ७-१४ ) । इसके द्वारा शिखण्डीकी पराजय ( कर्ण० ६१ । २३ )। युधिष्ठिरको घायल करके युद्धसे विमुख कर देना ( कर्ण० ६२ । २९-३१ ) । इसके द्वारा नकुल, सहदेव और युधिष्ठिरकी भीषण पराजय ( कर्ण० ६३ अध्याय ) | दुर्योधनकी प्रेरणा से इसका भार्गवास्त्र प्रकट करना (कर्ण० ६४ । ४७ ) । उत्तमौजाद्वारा कर्णपुत्र सुषेणका वध
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कर्ण
( कर्ण० ७५ । ९ ) । इसके द्वारा पाण्डवसेवाका भीषण संहार ( कर्ण० ७८ अध्याय ) । अर्जुनके पराक्रमके विषय में शल्यसे वार्तालाप ( कर्ण० ७९ । ४९-७० ) 1 अर्जुन और भीमसेनद्वारा खदेड़े हुए धृतराष्ट्र-पुत्रको इसका शरण देना ( कर्ण० ८१५१ ) । इसके द्वारा केकयराजकुमार विशोकका वध ( कर्ण० ८२ । ३ ) । केकय-सेनापति उग्रकर्माका वध 400 221 4 ) I सात्यकिद्वारा कर्णपुत्र प्रसेनका वध (कर्ण० ८२ । ६ )। इसके द्वारा धृष्टद्युम्नके पुत्रका वध ( कर्ण० ८२ । ९ ) । इसका भीमसेनके भय से भीत होना ( कर्ण० ८४ । ७-८ ) । अर्जुनद्वारा कर्णपुत्र वृषसेनका वध ( कर्ण० ८५ । ३६)। शल्यसे वार्तालाप ( कर्ण० ८७ । १०१-१०३ ) | अर्जुनके साथ द्वैरथ युद्ध ( कर्ण० ८९ अध्याय ) । कर्णके सर्पमुख वाणसं अर्जुनके किरीटका गिरना ( कर्ण० ९० । (३३) । रथका पहिया बैँस जानेसे उसे निकालनेके लिये इसका रथसे उतरना और बाण न चलाने के लिये अर्जुनसे अनुरोध करना ( कर्ण० ५० १०५-११६ ) । अर्जुनद्वारा इसका वध (कर्ण० ९१ । ५० ) । कर्णका दाह-संस्कार ( स्त्री० २६ । ३६ ) । ब्राह्मणद्वारा इसे शाप प्राप्त होनेका प्रसंग ( शान्ति० २ । २३-२६ )। इसे ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुरामजीका शाप ( शान्ति ० ३ अध्याय ) । कलिङ्गराजकी कन्याका दुर्योधनद्वारा अपहरण होने पर इसके द्वारा समस्त राजाओंकी पराजय ( शान्ति० ४ । १७-२० ) । इसके बल पराक्रमका वर्णन ( कर्ण० १५ अध्याय ) । इसके द्वारा जरासंघकी पराजय ( कणο ५ । ४ ) । इसके द्वारा मालिनी और चम्पानगरीकी प्राप्ति ( कर्ण० ५ । ६-७ ) । इसके कुण्डलदान की चर्चा (अनु० १३७ । ९ ) । कुन्तीका व्यासजीके सम्मुख कर्णके जन्मप्रसङ्गकी चर्चा और इसे देखनेकी इच्छा व्यक्त करना ( आश्रम० ३० अध्याय ) । कर्ण सूर्यका अंश था ( आश्रम ० ३१ । १४ ) । व्यासजीके आवाहन करनेपर कर्णका भी प्रकट होना ( आश्रम० ३२ । ९ ) । स्वर्ग में जाकर इसका सूर्यदेवमें मिल जाना ( स्वर्गा० ५।२० ) ।
महाभारतमें आये हुए कर्णके नाम - आधिरथि, आदित्यनन्दन, आदित्यतनय, अङ्गराज, अनेश्वर, अर्कपुत्र, भरतर्षभ, गोपुत्र, कौन्तेय, कुन्तीसुतः कुरूद्वह कुरुपृतनापति, कुरुवीर, कुरुयोध, पार्थ, पूषात्मज, राधासुतः राधात्मज राधेय, रविसूनु, सौति, सावित्र, सूर्य, सूर्यपुत्र, सूर्यसम्भवः सूतः सूतनन्दन, सूतपुत्र, सूतसूनुः सूतमुत, सूततनय, सूतात्मज, वैकर्तन, वैवस्वत, वसुषेण, वृष । ( २ ) धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि० ६७ । ९५९ आदि० ११६ । ३ ) । भीमसेनद्वारा इसपर आक्रमण
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कर्णनिर्वा
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( ५९ )
कर्णवेष्ट - एक क्षत्रिय राजा जो 'क्रोधवश' संज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न थे (आदि० ६७ । ६०-६६ । पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रणनिमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग ० ४। १५)। कर्णश्रवा-अजातशत्रु युधिष्ठिरका आदर करनेवाले एक महर्षि (का० २६ । २३ ) ।
कर्णाटक - एक दक्षिण भारतीय जनपद ( भीष्म ० १ । ५९)।
( भीष्म० ७७ 1 4 ) । भीमसेनद्वारा इसका नभ ( भीष्म० ७७ । ३६ ) । कर्णनिर्वाक - नानप्रस्थधर्मका पालन करके स्वर्गको प्राप्त हुए कलविङ्क - ( १ ) एक तीर्थ, जहाँ स्नान करने अनेक
एक ब्रहार्षि ( शान्ति० २४४ । १८ ) ।
कर्णपर्व - महाभारतका एक प्रमुख पर्व ।
वरण - ( १ ) प्राचीन कालके मनुष्यों की एक जातिजो दक्षिण समुद्र तटपर रहती थी । सहदेवने इस जातिके लोगोंको परास्त किया था ( सभा० ३१ । ६७ ) । ( जो अपने कानोंसे ही अपने शरीरको ढक लें, उन्हें 'कारण' कहते है । प्राचीन कालमें ऐसी जातिके लोग थे जिनके कान पैरोंतक लटकते थे ।) इस जाति के लोग युधिष्ठिरको भेंट देनेके लिये आये थे (सभा० ५२।१९ ) । (२) दक्षिण भारतका एक जनपद । यहाँके योद्धा दुर्योधनकी सेना में थे ( भीष्म० ५१ । १३ ) । surator स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । २४)।
तीर्थों में स्नानका फल मिलता है ( अनु० २५ । ४३ ) । (२) एक प्रकारका पक्षी, जिसकी उत्पत्ति मरे हुए त्रिशिराके सुरापायी मुखसे हुई ( उद्योग ०९ । ४२ ) । कलश - एक कश्यप-वंशी नाग ( उद्योग० १०३ । ११ ) । कलशपोतक - एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । ७ ) । कलशी - एक तीर्थ, जहाँ आचमन करनेसे अग्निष्टोम राजका फल मिलता है ( वन० ८३ । ८० ) । कलशोदर - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७२ ) । कला - कालपरिमाण ( शल्य० ४५ । १५ ) । कलाप - एक महातेजस्वी ऋषि) जिनका राजसूय यज्ञके अन्तमें राजा युधिष्ठिर ने पूजन किया सभा० ४५ । ३८ के बाद दाक्षिणात्यपाठ पृष्ठ ८४३, कालम १ ) । कलि - ( १ ) सोलह देवगन्धर्वोर्मिसे एक । कश्यप-पत्नी 'मुनि' के पुत्र ( आदि० ६५ । ४४ ) | ये अर्जुन के जन्म महोत्सव में भी पधारे थे ( आदि० १२२ । ५७ ) । ( २ ) सत्ययुग आदिके क्रमसे प्रवृत्त होनेवाला चौथा युग ( शान्ति ० ६९ 1 ८१-२ ) । इसका इन्द्रके साथ संवाद दमयन्तीने राजा नलको अपना पति चुन लिया यह इन्द्रसे सुनकर इसका कुपित होना और उसे दण्ड देनेको उद्यत हो जाना ( वन ५८ । ६ ) । नलके शरीर में प्रविष्ट होकर उन्हें राज्यसे वञ्चित करनेका संकल्प करना और इसमें इसकी द्वापर से सहायता के लिये प्रार्थना ( वन० ५८ । १३-१४ ) । इसका राजा नलके शरीर में प्रवेश ( वन० ९९ । ३ ) ! पुष्करको जुआ खेलने के लिये तैयार करना ( वन० ५९ । ४-५ ) । नलको दुःख देनेवाले ( कलियुग ) के लिये दमयन्तीका शाप (वन० ६३ । १६-१७ ) । कर्कोटक नाग विपदग्ध हो कलियुगका बड़े दुःखसे नलके शरीर में रहना ( वन० ६६ । १५-१६ ) । यूत विद्याका रहस्य जाननेके अनन्तर नलके शरीरने कलियुग का निकलना और शाधाग्नि से मुक्त होना ( वन० ७२ । ३०-३१ ) । कलिका अपने स्वरूपको प्रकट करना और नलका उसे शाप देनेका विचार करना ( वन० ७२ । ३२ | भयभीत एवं कम्पित हुए कलियुगका हाथ जोड़कर राजासे क्रोध रोकने की प्रार्थना करना, इन्द्रसेन जननी दमयन्तीके शापसे अपने पीडित होनेकी चर्चा करना, नलकी शरण में जाना और नलका कीर्तन करने वालोंको अपनेसे ( कलिसे ) भय न होनेकी घोषणा करना और डरकर के वृक्ष में समा जाना ( वन० ७२ ।
काका यारह विख्यात अप्सराओंमेंसे एक, जिसने अर्जुनके जन्म समय आकर नाच-गान किया था ( आदि० ४२२ । ६४-६६ ) । वर्णिकान सुमेरु पर्वत के उत्तर भाग में समस्त ऋतुओं के फूलोंगे भरा हुआ एक दिव्य एवं रमणीय वन ( भीष्म० ३ । २४ ) ।
कर्ता - एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ | ३४ ) ।
- ( १ ) एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १६ ) । (२) एक प्राचीन ऋषि जो ब्रह्मसभा में रहकर ब्रह्माकी उपासना करते है ( सभा० १३ | १९ ) । इक्कीस प्रजापतियों में इनका नाम आया है (शान्ति० २३४ । ३६३७ )। ( ३ ) एक राजर्षि, जो विरजा के पोत्र तथा कीर्तिमानके पुत्र थे। इनके पुत्रका नाम अव था शान्ति० ५५ । ९०९१ ) | कईमिलक्षेत्र - समाके निकटका एक क्षेत्र जहाँ राजा भरतका अभिषेक हुआ था ( वन० १३५ | १ ) । कर्य एक माचीन देश जिसके राजाको भीमसेनने जीता था ( सभा० ३० | २४ ) |
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कलि
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कल- पितरोंका एक गण । ये ब्रह्मसभा में रहकर ब्रह्माजी की उपासना करते हैं ( सभा० ११ । ४७ ) ।
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कलिङ्ग
कल्माषपाद
३०-३८ )। कलियुगका सर्वश्रेष्ठ तीर्थ गङ्गा (वन० आगे करके कलिङ्गवासियों ने भीमसे लडाई की और उनके ८५। ८९-९१)। कलियुगका मान (वन० १८८। द्वारा वे मारे गये थे (भीष्म० ५४ । ३-४२)। (शेष २६-२७ )। कलियुगके अन्तिम भागमें संसारकी स्थिति देखिये श्रतायु-)। (३) स्कन्दका एक सैनिक (वन० १८८ । ३९-६४)। कलियुग एवं युगान्तमें
(शल्य० ४५ । ६४)। जगत्की परिस्थिति ( वन० १९०। ११-८८ );
कल्कि-भगवान् विष्णुके भावी दशम अवतार, जो कलियुगकलिके मनुष्योंकी आयु ( शान्ति०२३१ । २५)।
के अन्तमें धमेके शिथिल हो जानेपर प्रकट होंगे, इनका कलिके युगधर्मका वर्णन ( वन० १४९ । ३३-३८% शान्ति०६९।९१-९७, शान्तिपर्वके २३१, २३२, २३८
नाम होगा कल्कि विष्णुयशा ( सभा० ३८ । २९ के
बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७९६, कालम २, वन० १९०। और ३४० आध्यायोंमें भी कलिधर्मका वर्णन आया
९३-९४ ) । कल्किके स्वरूप और कार्यका वर्णन ( वन. है )। मार्कण्डेयजीद्वारा उसके प्रभावका वर्णन ( वन०
१९० । ९३-९७ )। इनके द्वारा कलियुगके बाद १८८ । २५-८५, वन० १९०। ७-९२) । इस कलियुग
कृतयुगकी स्थापना (वन० १९३ । १-१४)। भगवान् का अंश ही कुरुकुलकलङ्क राजा दुर्योधनके रूपसे उत्पन्न
नारायणका नारदजीसे कल्किको अपना अवतार बताना हुआ था ( आदि. ६७ । ८७ आश्रम० ३१ । १०)।
(शान्ति० ३३९ । १०४)। (३) भगवान् सूर्यका एक नाम (वन० ३ । २०)।
कल्माष-(१) एक प्रमुख नाग (आदि० ३५ । ७)। (४) भगवान् शिवका एक नाम ( अनु० १७ । ७९)। कलिङ्ग (कालिङ्ग)-(१) दक्षिण भारतका एक
(२) एक उत्तम अश्व, जिसका रंग चितकबरा था। प्राचीन देश । तीर्थयात्राके अवसरपर यहाँ अर्जुनका
यह अश्व अर्जुनने दिग्विजयके समय हाटकदेशके निकटआगमन ( आदि. २१४ । ९, भीष्म. ९। ४६,
वर्ती गन्धर्वनगरसे प्राप्त किया था (सभा० २८ । ६)। ६९)। सहदेवने दक्षिण-विजयके समय इसे जीता था कल्माषपाद-एक इक्ष्वाकुवंशी राजा, जो ऋतुपर्णके पौत्र (सभा० ३१ । ७१)। इस देशके निवासी युधिष्ठिरके एवं सुदासके पुत्र थे । इनका दूसरा नाम मित्रसह था । राजसूय यज्ञमें भेंट लेकर आये थे ( सभा० ५२। सुदासपुत्र होनेसे ये सौदास भी कहलाते थे। इस भूतलपर ये १८)। तीर्थयात्राके समय युधिष्ठिर यहाँ गये थे (वन० असाधारण तेजसे सम्पन्न थे ( आदि० १७५।१;
११४।४)। कर्णने दिग्विजयके समय इसे जीता था अनु. ७८ । १-२)। इनका नगरसे निकलकर वनमें (वन० २५४ । ८)। सहदेवने दन्तकूरमें कलिङ्गोंको मृगयाके लिये जाना, वहाँ इनके द्वारा हिंसक पशुओंका परास्त किया था ( उद्योग. २३ । २४) । दन्तकूरमें वध (आदि० १७५। २)। वहाँसे थककर इनका श्रीकृष्णने कलिङ्गोका संहार किया था ( उद्योग. ४८। नगरकी ओर लौटना और एक तंग रास्तेपर इनकी ७६ ) । सहदेवने इसे जीता था इसकी चर्चा (उद्योग० शक्ति मुनिसे भेंट (आदि० १७५ । ६-७)। वहाँ ५० । ३१) । कर्णने इस देशको पहले जीता था (द्रोण. ४ । ८) । द्रोणनिर्मित गरुडव्यूहकी ग्रीवा और पीठके । मुनिका तिरस्कार (आदि०७५। ८-११)। शक्तिद्वारा स्थानपर कलिङ्गदेशीय योद्धा स्थित थे (द्रोण. २०। इन्हें राक्षस होनेका शाप (आदि. १७५। १३-१४)। ६-१०)। परशुरामजीके द्वारा इस देशके निवासी विश्वामित्रकी प्रेरणासे इनके शरीरमें किङ्कर' नामक परास्त हुए थे (द्रोण. ७० । १२ )। कलिङ्गदेशीय राक्षसका आवेश (आदि० १७५ । २१)। इनके द्वारा योद्धा सात्यकिके साथ लड़े हैं (द्रोण. १४१ । १०- रसोइयेको एक तपस्वी ब्राह्मणके भोजनके लिये मनुष्यका ११)। परशुरामजीके डरसे भगे हुए कुछ क्षत्रिय शूद्र मांस देनेकी प्रेरणा (आदि. १७५ । ३१)। ब्राह्मणहो गये थे. उन्हींमें कलिङ्गोंकी भी गणना है (अनु० द्वारा इन्हें राक्षसस्वभावसे युक्त होनेका शाप ( आदि. ३३ । २२)। (२) कलिङ्ग देशका राजा (सभा० १७५ । ३५-३६)। इनके द्वारा महर्षि शक्तिका भक्षण ५१ । ७ के बाद दा० पाठ )। इसका नाम श्रुतायु था (आदि० १७५ । ४०)। विश्वामित्रकी प्रेरणासे इनके (भीष्म० ५१ । ६८-६९)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें द्वारा वशिष्ठके समस्त पुत्रोंका संहार (आदि०१७५/४२)। गया था (आदि. १८५। १३)। द्रोणनिर्मित व्यूहके वशिष्ठपर इनका आक्रमण (आदि. १७६ । १८)। दाहिने अङ्गमें स्थित था (द्रोण०७।११)। जयद्रथ- मन्त्रपूत जलसे अभिषिक्त करके वशिष्ठद्वारा इनका उद्धार की रक्षा संलग्न था (द्रोण० ७४ । १७)। भीमसेन- (आदि० १७६ । २६)। वसिष्ठद्वारा इनको कभी भी के साथ कलिङ्ग-राजकुमारका युद्ध और उनके द्वारा इसका ब्राह्मणका अपमान न करनेका आदेश (आदि. १७६ । वध (द्रोण० १५५ । २१-२४) । कलिङ्गराज श्रुतायुको ३१)। वशिष्ठसे पुत्र प्राप्त करनेके लिये इनकी
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कल्माषी
कश्यप
प्रार्थना ( आदि० १७६ ॥ ३३ )। वशिष्ठद्वारा इनकी कशेरक-कुबेरकी सभामें उपस्थित हो उनकी सेवामें संलग्न पत्नीके गर्भसे अश्मक' नामक पुत्रका उत्पादन (आदि० रहनेवाले बहुसंख्यक यक्षोंमेंसे एक (सभा० १०१५)। १७६ । ४७)। शापग्रस्त-अवस्थामें इनके द्वारा मैथुनके कशेरु-त्वष्टा' प्रजापतिकी एक सुन्दरी पुत्री, जिसे चौदह लिये उद्यत हुए ब्राह्मणका भक्षण (आदि. १८१।१६)। वर्षकी अवस्थामें नरकासुर हर लाया था । सोलह हजार ब्राहाणपत्नी आङ्गिरसीद्वारा इन्हें अपनी पत्नीके साथ निन्यानबे अन्य कुमारियोंके साथ इसका भी भगवान् समागम करते ही मृत्यु होने एवं वशिष्ठद्वारा ही पुत्र श्रीकृष्णके साथ विवाह हुआ । इन सब कुमारियोंने प्राप्त होनेका शाप ( आदि. १८१ । २०)। महर्षि भगवान् श्रीकृष्णसे देवर्षि नारद तथा वायुदेयके भविष्य पराशरद्वारा दयावश सौदासकुमार सर्वकर्माकी प्राण-रक्षा कथनकी सत्यता बताते हुए उनके दर्शनमात्रसे अपनेको (शान्ति. १४९ । ७६-७७)। इनका नाम मित्रसह कृतकृत्य बताया और उनके प्रति अपनी सकामभावना
और इनकी रानीका नाम मदयन्ती था। उसे इन्होंने प्रकट की । फिर भगवान्ने इन्हें अपनाया ( सभा० ३८ वशिष्ठकी सेवामें अर्पित की ( शान्ति. २३४ । ३०, २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८०४-८११)। अनु० १३७ । १८)। इनका वशिष्ठजीसे गौके विषयमें कशेरुमान ( कसेरुमान् )-एक यवनजातीय असुर, पूछना ( अनु० ७८ । ३)। कुण्डलकी याचनाके जो श्रीकृष्णद्वारा मारा गया ( सभा०३८ । २९ के लिये गये हुए उत्तङ्क मुनिके साथ इनका संवाद बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८२४,कालम २ वन० १२ । ३२)।
(आश्व० ५७ । १-१८) आश्व० ५८ । ४-१६)। कश्यप-(१) एक देवर्षि, ब्रह्मर्षि और प्रजापति, जो कल्माषी-एक नदी, जिसके आस-पास भ्रमण करते हुए मरीचि ऋषिके पुत्र और दक्ष प्रजापतिके जामाता हैं
राजा द्रपद ब्राह्मणोंकी एक बस्तीमें पहुँचे और याज- (भादि०६५।११)। ये कद्रू और विनताके पति हैं उपयाजसे मिले थे (आदि. १६६ । ५-६)। इसीके (आदि० १६ । ६)। ब्रह्माजीने इन्हें सौंपर क्रोध न किनारे निवास करनेवाले भृगुजीने युधिष्ठिरको उपदेश करनेके लिये कहा और उनका विष उतारनेवाली विद्या देकर अनुगृहीत किया था (सभा० ७८ । १६)। प्रदान की ( आदि० २० । १४-१५)। कश्यपजीका ( आचार्य नीलकण्ठने कल्माषी' का अर्थ 'कृष्णवर्णा गरुड़से कुशल पूछना और उनके भोजन माँगनेपर एक यमुना' किया है।)
हाथी और कछुएको खानेके लिये आदेश देना । विभावसु कल्याणी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ७)। और सुप्रतीक मुनिके वैर और शापकी कथा सुनाकर कवच-इन्द्रसभामें विराजमान होनेवाले एक ऋषि (सभा०
उन्हींके हाथी और कछुआ होनेकी बात बताना और ७।१७ के बाद दाक्षि० पाठ)। ये पश्चिम दिशामें
उनके विशाल शरीर एवं युद्धका वर्णन करना (आदि.
२९ । १३--३२) । तपस्यामें लगे हुए पिता कश्यपका निवास करते हैं ( शान्ति० २०८ । ३०)।
गरुड़को दर्शन (आदि. ३० । ११)। इनका पुत्रकी कवची-धृतराष्ट्रका पुत्र ( आदि. ६७ । १०३ )।
कामनासे यज्ञ करना (आदि.३१ । ५)।वालखिल्योंभीमसेनद्वारा इसका वध (कर्ण० ८४ । २-६)।
के प्रसादसे इनका विनताके गर्भसे अरुण और गरुड़को कवि-(१) महर्षि भृगुके पुत्र (आदि०६६ । ४२)। जन्म देकर गरुड़को पक्षियोंके 'इन्द्र' पदपर अभिषिक्त
अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ करना (अनु० करना (आदि० ३१ । १२-१५)। अदिति, दिति, ९४ । ३२)। (२) बृहस्पतिके पाँचवें पुत्र एक दनु, काला, दनायु, सिंहिका, क्रोधा, प्राधा विश्वा, अग्नि, जो बड़वानलरूपसे समुद्रका जल सोखते हैं। विनता कपिला, मुनि, कद्र-ये दक्षकी तेरह कन्याएँ इनकी शरीरके भीतर ऊपरकी ओर गतिशील होनेके कारण इन्हें पत्नियाँ हैं (आदि० ६५ । १२)। इनकी संतानोंका 'उदान' और 'ऊर्ध्वभाक' भी कहा गया है (वन. वर्णन (आदि० ६५ । १४-५४)। इनसे देवता २१९ । २०)। (३) वरुणके यज्ञमें ब्रह्माजीके और असुर दोनों उत्पन्न हुए (आदि०६६ । ३४)। शुक्रका हवन होनेसे जो तीन पुरुष प्रकट हुए उनमेंसे इन्होंने ज्येष्ठ पत्नी अदितिके गर्भसे इन्द्र भादि बारह एक । शेष दो भृगु और अङ्गिरा थे। ब्रह्माजीने कविको आदित्योंको जन्म दिया (भादि० ७५ । १.)। कश्यप ही अपना पुत्र स्वीकार किया। इस कविके कवि काव्य' और सुरभिके सहवाससे नन्दिनी नामक गौकी उत्पत्ति आदि आठ पुत्र हुए जो वारुण कहलाते हैं। ये सभी (आदि० ९९ । ८-१४) । अर्जुनके जन्म-समयमें प्रजापति हैं (अनु०८५ । १३२-१३४)। (४) उपस्थित हुए सात ऋषियोंमें ये भी थे (आदि. १२२ । ब्रह्मपुत्र कविके पुत्र (अनु. ८५। १३३)। (५) ५१)। परशुरामजीका इन्हें समूची पृथ्वी दानमें देना एक विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३६)।
(आदि. १२९ । १२)। ये ब्रह्माजीको सभामें विराज
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कश्यप
काञ्ची
मान होते हैं (सभा० ११ । १८)। इनका प्रह्लादके (२) एक नाग, जो अर्जुनके जन्म-महोत्सवमें उपस्थित पूछनेपर उन्हें प्रश्नका असत्य उत्तर देने या यथार्थ बात हुआ था (आदि. १२२ । ७१)। जानते हुए भी कुछ उत्तर न देनेके दोष बताना तथा कहोड-महर्षि उद्दालकके शिष्य और जामाता। अष्टावक्रके पिता दोनों पक्षोसे मिले होनेके कारण गवाही न देनेवाले
(वन० १३२ । ३-८)। इनका उद्दालकका शिष्य गत्राहको प्राप्त हुए दोषका वर्णन करना ( सभा० ६८ ।
होकर विनीत भावसे उनकी परिचर्या में संलग्न रहना । ७३-७५ )। युधिष्ठिरके साथ तीर्थयात्रा करनेवाले
इनके द्वारा की गयी सेवाके महत्त्वको समझकर गुरुका ऋषियों में इनका भी नाम आया है (वन० ८५ ।
इन्हें शीघ्र ही सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंका ज्ञान कराना और ११९)। ब्रह्माजीने यज्ञमें सारी पृथ्वी कश्यपको दान कर
अपनी कन्या सुजाताका इनके साथ विवाह कर देना दी; इससे पृथ्वीको बड़ा खेद हुआ और वह रसातलको
(वन. १३२ । ९)। अपने गर्भस्थ बालकद्वारा अपने जाने लगी। तब कश्यपजीने अपनी तपस्यासे पृथ्वीको
अध्ययनकी कटु आलोचना सुनकर इनका उसे आठ प्रसन्न किया (वन. ११४।१८-२२)। परशुराम
अङ्गोंसे वक होनेका शाप देना ( वन० १३२ । १०. जीका कश्यपको भूमिदान करके स्वयं उनका महेन्द्रपर्वत
११)। गर्भवती सुजाताका इनसे धनकी याचना करना पर निवास (वन. ११७ । १४)। कश्यपपत्नी
(वन० १३२ । १५)। इनका जनकके दरबारमें जाना अदितिके गर्भसे भगवान्का वामन अवतार (वन.
और वहाँ शास्त्रार्थी पण्डित बन्दीसे हारकर जलमें डुबाया २७२ । ६२)। परशुरामजीसे सम्पूर्ण पृथ्वीको दक्षिणा
जाना ( वन० १३२ । १५ )। इनका जलसे बाहर रूपमें लेकर उन्हें पृथ्वीसे बाहर निकल जानेका आदेश
आना और अष्टावक्रको समङ्गा नदीमें स्नान करनेका देना (द्रोण०७० । १९-२१)। इनका द्रोणाचार्यके
आदेश देना (वन० १३४ । ३२-३९)। पास जाकर उनसे युद्ध बंद करनेको कहना (द्रोण० १९० । ३५-४०)। स्कन्दके जन्म-समयमें इनका कहोल-इन्द्रकी सभामें विराजमान होनेवाले एक प्राचीन आगमन (शल्य. ४५।१०)। परशुरामजीसे दक्षिणा- ऋषि (सभा० ७।१७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ )। रूपमें पृथ्वीका दान लेना (कान्ति०४९ । ६४)। हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णसे मार्गमें इनकी भेंट परशुरामजीको राज्यके बाहर भेजना (शान्ति ४१। (उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। ६५-६६ )। रसातलको जाती हुई पृथ्वीको ऊरुओंके काक-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९.६४)। सहारे रोकना ( शान्ति० ४९ । ७२ ) । पुरोहितके
काकी-(१) ताम्राकी लोक-विख्यात पुत्री । इसने विषयमें पुरूरवाको उपदेश (शान्ति. ७३ । ७-३२)।
उल्लुओंको जन्म दिया ( आदि०६६ । ५६-५७)। कश्यपजीका दूसरा नाम अरिष्टनेमि' भी है (शान्ति.
(२) शिशुओंकी सात मातृकाओमेसे एक ( वन. २०८ । ८)। इनका भीष्मको वराह-अवतारकी कथा सुनाना ( शान्ति० २०९ । ६)। ये मूलभूत कश्यप
२२८ । १०)। गोत्रके प्रवर्तक हैं (शान्ति. २९६ । १७-१८)। काक्षीवान-गौतम ऋषिके पुत्र । चण्डकौशिक ऋषिके महर्षि कश्यपके अङ्गोंसे तिलकी उत्पत्ति ( अनु०६६। पिता ( सभा० १७। २२ २१ । ५ )। ये १०)। इनका वृषादर्भिसे प्रतिग्रहका दोष बताना युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते थे (सभा० । ( अनु. ९३ । ४.)। अरुन्धतीसे अपने शरीरकी दुर्बलताका कारण बताना (अनु. ९३ । ६५)। यातु- काश्रन-मेरुद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक, धानीसे अपने नामका परिचय देना (अनु० ९३ । ८६)।
अनु० ९३ । ८६)। दूसरा मेघमाली था (शल्य. ४५। ४७)। मृणालकी चोरीके विषयमें शपथ खाना (अनु. ९३ ।
काश्चनाक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ५७)। ११६-११७)। अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ खाना (अनु. ९४ । १८)। कुबेरके सात काश्चनाक्षी-नैमिषारण्यमें बहनेवाली सरस्वतीका नाम गुरुओमसे एक ये भी हैं, ये उत्तर दिशाका आश्रय लेकर (शल्य० ३८ । १९)। रहते हैं, इनके कीर्तनसे कीर्ति और कल्याणकी प्राप्ति काञ्ची-( मद्राससे ३७ मील दक्षिण-पश्चिममें स्थित एक होती है ( अनु० १५० । ३८-३९)। इनका तपोबलसे नगर, जो प्राचीन समयमें चोल राजाओंकी राजधानी था। पृथ्वीको धारण करना ( अनु० १५३ । २)।
इस समय इसे काञ्जीवरम्' कहते हैं । यह सात मोक्षमहाभारतमें आये हुए कश्यपजीके नाम-देवर्षि, दायिनी पुरियो में से एक है।) यहाँके योद्धा दुर्योधनकी काश्यप, महर्षि, मारीच, प्रजापति, आरिष्टनेमि आदि । सेनामें विद्यमान थे ( उद्योग० १६१।२१)।
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कात्यायन
( ६३ )
काम्बोज
-
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कात्यायन-इन्द्रकी सभामें विराजमान होनेवाले एक ऋषि कामठक (या कामठ )-धृतराष्ट्र कुलमें उत्पन्न एक (सभा० ७ । १९)।
नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें जल मरा था ( आदि. कानीन-एक प्रकारका बन्धुदायाद पुत्र ( आदि. ११९ । ५७ । १६)।
३३) । ( विवाहसे पहले ही जिस कन्याको इस शर्तपर काम (अथवा कामाख्य ) तीर्थ-एक तीर्थ, जहाँ स्नानस दिया जाता है कि इसके गर्भसे उत्पन्न हुआ पुत्र मेरा मनोवाञ्छित फलकी प्राप्ति होती है ( वन० ८२ । ही पुत्र समझा जायगा ।' उस कन्याके गर्भसे उत्पन्न १०५)। पुत्रको 'कानीन' कहते हैं-यह नीलकण्ठकी व्याख्या कामदा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६ । २७)। है। ) सर्वसम्मत मत यह है कि नारीकी कन्यावस्थामें कामदेव-भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४९ । ८३ )। ( विवाहसे पूर्व ) ही जो पुत्र पैदा होता है, वह 'कानीन' कामन्दक-एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने आङ्गरिष्ठको कहलाता है । यथा-व्यास, कर्ण, शिवि, अष्टक, प्रतर्दन
राजधर्मका उपदेश दिया था (शान्ति. १२३ । १५-२५)। और वसुमान आदि ।
कामा-पृथुवाकी पुत्री, जो पूरुवंशी महाराज अयुतनायीकी कान्तारक-एक दक्षिण भारतीय जनपद, जिसके राजाको
पत्नी तथा अक्रोधनकी माता थी ( आदि. १७७ । २१)। सहदेवने दक्षिण-विजयके अवसरपर पराजित किया (सभा० ३१ । १३)। ( वेणा नदीके तट पर स्थित काम्पिल्य-दक्षिणपाञ्चालका एक नगर, जो द्रुपदकी भूभागको ही कान्तारक' कहा गया है--ऐसा आधुनिक
राजधानी था (आदि. १३७ । ७३)। विवाहके पश्चात् विचारकोंका मत है।)
शिखण्डीका काम्पिल्य नगरमें आगमन (उद्योग. १८९ । कान्ति-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९।४०)।
१३) । दशार्णराजने एक समय इसके निकट पहुँचकर कान्यकुब्ज-गङ्गातटपर बसा हुआ एक प्राचीन नगर, जो
किसी ब्राह्मणको दूत बनाकर वहाँ भेजा था ( उद्योग. राजा गाधिकी राजधानी था ( आधुनिक कन्नौज ही
१९२ । १४)। प्राचीन कालमें यहीं राजा ब्रह्मदत्त राज्य
करते थे, जिनके यहाँ पूजनी नामक चिड़िया थी प्राचीन कान्यकुब्ज है)। वह राज्य या जनपद भी
(शान्ति० १३९ । ५)। कान्यकुब्ज नामसे ही विख्यात था (आदि. १७४ । ३, वन० ११५ । २०)। यहाँ विश्वामित्रने इन्द्रके साथ
काम्बोज-(१) पश्चिमोत्तर भारतखण्डका एक जनपद सोमपान किया था ( वन० ८७ । १७)। कान्यकुब्जमें
और वहाँके निवासी, जिन्हें अर्जुनने जीता था (सभा० राजा गाधिकी कुमारी पुत्री सत्यवतीको अपनी पत्नी
२७ । २३)। युधिष्ठिरके रथमें काम्बोजदेशमै उत्पन्न बनाने के लिये ऋचीक मुनिने राजासे माँगा था ( उद्योग
(काबुली) घोड़े जोते गये थे (सभा० ५३ । ५)। ११९ । ४)।
काम्बोजदेशीय म्लेच्छगण कलियुगमें राजा होंगे---यह कान्वशिरा-एक जाति, जो पहले क्षत्रिय थी; किंतु ब्राहाणोंसे
भविष्यवाणी ( वन. १८८ । ३६)। काम्बोज योद्धा डाह रखने के कारण नीच भावको प्राप्त हो गयी (अनु.
दुर्योधनके सैनिक थे ( उद्योग० १६० । १०३)।
महाभारतकालमें इस देशका राजा सुदक्षिण था, जो ३५ । १७)।
महारथी माना गया था (उद्योग० १६६ । १-३)। कापिल-कुशद्वीपका सातवाँ वर्ष ( भीष्म० १२ । १४)।
भीष्मनिर्मित गरुडव्यूहके पुच्छ स्थानमें काम्बोज खड़े कापी-एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है
किये गये थे (भीष्म० ५६ । ७)। काम्बोजदेशीय (भीष्म०९।२४)।
अश्व देखनेयोग्य तथा तोतेकी पाँखके समान रङ्गवाले काम-(१) धर्मके तीन पुत्रोंमेंसे एक, इनकी पत्नीका होते हैं। ऐसे ही घोड़े नकुलके रथमें जुते हुए थे (द्रोण. नाम रति है (आदि० ६६ । ३२-३३)। (२) अनुपम २३ । ७)। काम्बोज आदि कई देशोंके अश्व पूँछ, रूपवान् स्वाहापुत्र अग्नि ( बन० २१९ । २३)।
कान और नेत्रोंको स्थिर करके वेगसे दौड़नेवाले होते हैं (३) भगवान् शिवका एक नाम (अनु०१७।४२)। (द्रोण. ३६ । ३६) । (२) काम्बोजराज सुदक्षिण, जो (४) कामस्वरूप रुक्मिणीपुत्र प्रद्युम्न (अनु. १४८। द्रौपदीस्वयंवरमें गया था (आदि. १८५। १५)। २०-२१)। (५) भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० जिसके छोटे भाईका अर्जुनद्वारा वध हुआ था (कर्ण० १४९ । ४५ ) । (६) एक ऋषिका नाम ( अनु० १५६ । १११)। यह काम्बोजदेशीय घोड़ोंपर सवार १५०1४१)। .
हो युद्धके लिये चला था (भीष्म० ७१ | १३)। कामचरी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य. ४६ । इसका युद्ध और अर्जुनद्वारा वध (द्रोण. ९२ । ६१२३)।
७३)। काम्बोजनरेश सुदक्षिणके वधकी चर्चा (छोण.
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काम्यकवन
( ६४ )
कालकवृक्षीय
९४ । ३०)। सुदक्षिणका पिता भी काम्बोज या १२-१४)। पराक्रमी सहस्रबाहुका अग्निदेवको भिक्षा काम्बोजराज कहलाता था (द्रोण. ९२ । ६१)। देना (शान्ति०४९ । ३८)। आपव मुनिद्वारा इसे (३) काम्बोज देशका एक प्राचीन नरेश, महाराज
शापकी प्राप्ति (शान्ति० ४९ । ४३)। परशुरामद्वारा धुन्धुमारसे इन्हें खङ्गकी प्राप्ति हुई (शान्ति० १६६।७७) इसकी भुजाओंका उच्छेद (शान्ति० ४९ । ४०)।
इसके वंशका संहार (शान्ति. ४९ । ५२-५३)। काम्यकवन-एक वनका नाम, वनवासकालमें पाण्डवोंने
इसके द्वारा मांसभक्षणनिषेध (अनु० ११५। ६०)। यहाँ निवास किया था। यह ऋषि-मुनियोंको बहुत प्रिय
इसकी दत्तात्रेयजीसे वरयाचना (अनु० १५२ । ७था। पाण्डवोका काम्यकवनमें प्रवेश तथा विदुरजीका
१०)। वरप्राप्तिके पश्चात् इसके अहंकारयुक्त वचनवहाँ जाकर उनसे मिलना और बातचीत करना (वन.
ब्राह्मणकी अपेक्षा क्षत्रियकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन ( अनु. ५ अ० में )। संजयका काम्यकवनमें जाकर विदुरको
१५२। १५-२२)। वायुदेवके कहनेसे इसका ब्राह्मणबुला ले आना ( वन० ६।११-१७)। युधिष्ठिर
की महत्ता स्वीकार करना (अनु. १५७ । २४-२६)। आदिका दैतवनसे काम्यकवनमें प्रवेश, काम्यकवनमें
इसका अभिमानवश समुद्रको बाणोंसे आच्छादित करना पाण्डवोंके पास भगवान् श्रीकृष्ण, मुनिवर मार्कण्डेय तथा
(आश्व० २९ । ३)। परशुरामजीद्वारा इसका वध नारदजीका आगमन (वन० १८२-१८३ अ० में)।
(आश्व० २९ । ११)। पाण्डवोंका काम्यकवनमें गमन (वन०२५८ अ० में)। काम्या-एक स्वर्गीय अप्सरा, जो अर्जनके जन्मोत्सव में महाभारतमे आये हुए कार्तवीर्य अर्जुनके नाम-अनूप नृत्य करने आयी थी (भादि. १२२ । ६४)।
पति, अर्जुन, हैहय, हैहयेन्द्र, हैहयाधिपति, हैहयर्षभ,
हैहयश्रेष्ठ आदि । कायव्य-एक डाकू, निषादपुत्र, जो क्षत्रिय पिता और
कार्तस्वर-एक दैत्य, जो कभी इस पृथ्वीका अधिपति था; निषादजातीय मातासे उत्पन्न हुआ था। इसके
किंतु इसे छोड़कर चल बसा (शान्ति० २२७ । ५२)। सदाचारका वर्णन ( शान्ति० १३५ । २-१)। लुटेरोंद्वारा सरदार होनेके लिये प्रार्थना करनेपर उसके ।
कार्तिकेय-भगवान् स्कन्दका एक नाम, कृत्तिकाओंने द्वारा उन्हें धर्मोपदेश ( शान्ति० १३५ । १३-२२)।
इन्हें स्तन्य-पान कराया, अतः ये कार्तिकेय नामसे प्रसिद्ध
हुए (अनु० ८५1८१-८२, अनु० ८६ । १३-१४)। कायशोधन तीर्थ-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ
(विशेष देखिये स्कन्द) जाने और स्नान करनेसे शरीरकी शुद्धि होती है (वन. ८३ । ४२)।
कासिक-एक प्राचीन देश, जहाँ निवास करनेवाली
दासियाँ युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें सेवाकार्य करती थीं कारन्धम-दक्षिण समुद्रके समीपवर्ती तीर्थ ( पाँच नारी
( सभा० ५१ । ८)। तीर्थो से एक ) ( आदि० २१५ । ३ ) । यहाँ
शापवश ग्राह बनकर रहनेवाली अप्सरा ( वर्गाकी सखी काष्णि-एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें उपस्थित का अर्जुनद्वारा उद्धार (भादि. २१५ । २१)।
हुआ था (आदि०१२२। ५६)। कारपवन-सरस्वतीनदी-सम्बन्धी एक
. प्राचीन तीर्थ का
काल (१)-ध्रुव' नामक वसुके पुत्र--सबको अपना
ग्रास बनानेवाले भगवान् काल ( आदि. ६६ । २१)। (शल्य. ५४ । १२)।
ये स्कन्दके अभिषेकमें गये थे (शल्य० ४५ । १७)। कारस्कर-एक निन्द्य एवं त्याज्य देश, जहाँका धर्म दूषित
(२) एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभामें उपस्थित हो उनकी है (कर्ण० ४४ । ४३)।
उपासना करते हैं (सभा०७।१४)। कारीष-महर्षि विश्वामित्रका एक ब्रह्मवादी पुत्र ( अनु० कालकक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६९)। ४ । ५५)।
कालकण्ठ स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५। ६९)। कारूप- ( १ ) वैवस्वत मनुके छठे पुत्र (आदि.
कालकवृक्षीय-एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रकी सभामें ७५ । १६)। (२) एक प्राचीन देश, जहाँका राजा
विराजमान होते हैं (सभा० ७ । १०)। इनका एक चोर-डाकुओंको मारनेवाला था। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें
कौएको पिंजड़े में बाँधकर साथ लेना और कोसलराज उपस्थित हुआ था ( आदि० १८५ । १६)।
क्षेमदर्शीके सारे राज्यमें वहाँका समाचार जाननेके लिये कार्तवीर्य-हैहयनरेश कृतवीर्यका पुत्र सहस्रबाहु अर्जुन, बारंबार चक्कर लगाना (शान्ति० ८२ । ६-७)। इसके प्रभाव तथा अत्याचारका वर्णन ( वन० ११५। लोगोंको वायसीविद्या सीलनेकी प्रेरणा देते हुए घूम-घूमकर
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कालका
( ६५ )
कालयवन
राजकर्मचारियों के दुष्कर्मोको अपनी आँखों देखना माताने तपस्या करके इनके लिये एक विशाल हिरण्यपुर (शान्ति. ८२ । ८) । सर्वज्ञ काकके कथनका नामक नगर ब्रह्माजीसे प्राप्त किया था, जिसमें ये देवताओंबहाना लेकर उनका समस्त राजकर्मचारियोंकी चोरीका से अवध्य एवं सुरक्षित हो निवास करते थे (वन. हाल बताना और राजाको सतत सावधान रहनेके लिये १०३ । ७-१३)। ये वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपदेश देना (शान्ति० ८२ । १२-५७, ६१-६७)। उपासना करते थे (सभा० ९ । १२)। इनके साथ राजा क्षेमदर्शीको इनका वैराग्यपूर्ण उपदेश (शान्ति० अर्जुनका युद्ध और उनके द्वारा इन दानवोंका संहार
१०४ । १२-५४) । राजा क्षेमदशीसे राज्यप्राप्तिके (वन. १७३ अध्याय ) । अर्जुनने इन्द्रकी आज्ञासे विभिन्न उपायोंका वर्णन (शान्ति० १०५।५-२५)। इनका वध किया था ( विराट. ४९। १०; विराट. क्षेमदर्शीसे संधि करनेके लिये राजा जनकको समझाना ६१ । २५, उद्योग० ४९ । १४)। ये भगवान् विष्णुके (शान्ति. १०६ । ९-१९)।
चरणोंसे उत्पन्न कहे गये हैं (उद्योग. १००।५-६)। कालका-महान् असुरकुलकी कन्या, कालकेयों अथवा कालघट-एक वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मण, जो जनमेजयके कालकंजोंकी माता, इसकी अपने पुत्रोंके लिये तपस्या सर्पसत्रके सदस्य बने थे (आदि० ५३।८)।
और ब्रह्माजीसे वरयाचना ( अनु० १७३ । ७-११)। कालञ्जरगिरि-मेधाविक तीर्थका लोकविख्यात पर्वत, कालकाक्ष-एक दैत्य, जिसका गरुडद्वारा वध हुआ था जहाँ देवहृदमें स्नानसे सहस्र गोदानका पल मिलता है (उद्योग०१०५ । १२)।
(वन० ८५। ५६)। इस तीर्थकी महिमाका वर्णन कालकीर्ति-मयूरके छोटे भाई सुपर्णनामक असुरके अंशसे (अनु० २५ । ३५)। उत्पन्न एक क्षत्रिय राजा (आदि०६७ । ३७)। कालतीर्थ-अयोध्याका एक तीर्थ, जहाँ स्नानसे ग्यारह
कर- समदसे प्रकट हआ एक भयानक विष वृषभदानका फल प्राप्त होता है (वन०८५।११)। और इसका भगवान् शिवद्वारा पान (आदि. १८। कालतोयक-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९।४७)। ४१-४३)। भीमसेनके भोजनमें दुर्योधनद्वारा कालकूट कालद-एक भारतीय जनपद (भीष्म. ९। ६३)। मिलाया गया था (आदि. १२७ । ४५-४८ वन० कालदन्तक (कालदन्त)-वासुकि कुलमें उत्पन्न एक १२ । ८.)। (२) एक पर्वत, जो पत्नियोसहित नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें जल मरा था (आदि. तपस्याके लिये जाते समय राजा पाण्डुको मार्गमें मिला ५७।६)। था (आदि. ११८ । ४७-४८)। श्रीकृष्णको इन्द्र- कालनेमि-एक महाबली दानव.
कालनेमि-एक महाबली दानव, जो इस भूतलपर कंस प्रस्थसे गिरिव्रज जाते समय मार्गमें कोई कालकूट पर्वत
नामसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६७)। लाँघना पड़ा था (सभा० २० । २६-२७)। यहाँ
कालपथ-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक दुर्योधनकी सेनाका पड़ाव पड़ा था (उद्योग०१९।३०)।
(अनु. ४ । ५०)। (३) उत्तराखण्ड में कालकूट पर्वतके आसपासका प्रदेश, जिसे अर्जुनने उत्तर-दिग्विजयके समय जीता था ( सभा०
कालपर्वत-(१) लङ्काके समीप समुद्रतटवर्ती एक पर्वत २६ । ४)।
(वन० २७७ । ५४)। (२) एक पर्वत, जो स्वप्नमें
श्रीकृष्णसहित शिवजीके पास जाते हुए अर्जुनको मार्गमें कालकेय ( कालखंज)-(कालका अथवा ) कालाके पुत्र, हिरण्यपुरनिवासी दानव । इसका अर्जुनके साथ युद्ध
मिला था (द्रोण० ८० । ३१)। और उनके द्वारा इसका संहार (आदि०६५। ३५, कालपृष्ठ-एक नाग, जो त्रिपुरविनाशके समय शिवजीके वन० १७३ | १९-५५, उद्योग० १५८ । ३०, द्रोण. रथमें जुते हुए घोड़ोंके केसर बाँधनेके लिये रस्सी बनाया ५१ । १६; कर्ण०७९ । ६२)। इन सबने वृत्रासुरकी गया था (कर्ण० ३४ । २९-३०)। अध्यक्षतामें देवताओंपर चढ़ाई की थी (वन० १००। कालमख-'कालमुख' नामवाली एक विशेष जातिके लोग,
जो मनुष्य और राक्षस दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुए थे । कालकोटि-नैमिषारण्यके अन्तर्गत एक प्राचीन तीर्थ सहदेवने दक्षिण-दिग्विजयके समय उन सबपर भी विजय (वन० ९५। ३)।
प्राप्त की थी (सभा० ३१ । ६७)। कालखंज ( कालकंज)-असुरवंशकी कन्या कालकाके कालयवन-एक असुरभावापन्न यवन, जोश्रीकृष्णद्वारा मारा
पुत्र कालकंज या कालखंज कहे गये हैं, ये ही कालकेय गयाथा (सभा०३८।२९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ भी हैं, इनकी संख्या लाखोंके लगभग थी, इनकी ८२४, कालम २ द्रोण. १९१६-१८)।यह गर्गाचार्यके
म० ना०९
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कालरात्रि
काशि
सिलिकनी सभा
२३)।
तेजसे उत्पन्न एवं अत्यन्त शक्तिशाली असुर था उसे अन्यत्र चले जानेका आदेश दिया (सभा० ३८ । (शान्ति० ३३९ । ९५)।
२९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ८००, कालम १)। कालरात्रि-मृत्युकी रातकी अधिष्ठात्री, जिसे सौप्तिक- काली-वेदव्यासकी माता सत्यवती (आदि०६०।२)।
आक्रमणके समय पाण्डवपक्षके योद्धाओंने प्रत्यक्ष देखा कालीयक-एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५। १०)। था। उसके स्वरूपका वर्णन (सौप्तिक.८ । ६९-८४)।
कालेय-इसी नामसे प्रसिद्ध दैत्यगण ( आदि० ६७ । कालवेग-वासुकिकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके ४७-५५)। इनके द्वारा वसिष्ठ, च्यवन, भरद्वाज आदि सर्पसत्रमें जल मरा था (आदि. ५७ । ६)।
मुनियोंके आश्रमोंपर जाकर ऋषियोंका भक्षण (वन० कालशैल-उत्तराखण्डकी एक पर्वतमाला (वन० १३९।१)। १०२ । ३-६)। देवताओंद्वारा इनका वध ( वन०
१०५।१०)। कुछ कालेय पातालमें भाग गये (वन० काला-दक्ष प्रजापतिकी पुत्री, कश्यपकी पत्नी, कालकेय
१०५। १२)। नामक असुरोंकी माता ( आदि. ६५ । १२,
कालेहिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । कालाप-एक धर्मज्ञ जितेन्द्रिय ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे ( सभा० ४ । १८)।
कालोदक-एक तीर्थ जहाँ सौ योजन दूरसे आकर नहानेवाले कालाम्र-भद्राश्ववर्षके शिखरपर स्थित भद्रशालवनमें सुशो मनुष्यकी भ्रूणहत्या दूर हो जाती है ( अनु० २५ ॥६०)। भित एक महान् वृक्ष, जो एक योजन ऊँचा है। उसमें इसमें स्नानसे दीर्घायु प्राप्त होती है (शान्ति० १५२ । सदा फल-फूल लगे रहते हैं। उसका रस पीकर भद्राश्व
१२-१३)। वर्षके स्त्री-पुरुष सदा जवान बने रहते हैं और सिद्ध कावेरी-एक उत्तम तीर्थभूत नदी, जो वरुण सभामें रहकर तथा चारण सदा उस वृक्षके आस-पास रहते हैं (भीष्म. उनकी उपासना करती है ( सभा० ५। २०)। (यह ७ । १४-१८)।
दक्षिण भारतकी प्रसिद्ध नदी है । इसके तटपर श्रीरङ्गक्षेत्र, कालिक-पूषाद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों से एक, त्रिचनापल्ली तथा कुम्भकोणम् आदि प्रख्यात नगर एवं दुसरेका नाम पाणीतक' था (शल्य० ४५४४३-४४)।
तीर्थ हैं। ) इसमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल
मिलता है (वन० ८५ । २२)। कालिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६।१४)।
काव्य-प्रजापति कविके आठ वारुणसंज्ञक पुत्रों से एक कालिकाश्रम-एक तीर्थ, जहाँ स्नान और तीन रात
(अनु०८५। १३३ )। निवास करनेसे मनुष्य जन्म-मरणके चक्करसे छूट जाता है
काश-काशके अभिमानी देवता, जो यमकी सभामें धर्म(अनु० २५ । २४)।
राजकी उपासना करते हैं (सभा० ८ । ३२)। कालिकासंगम-एक तीर्थ, जिसमें स्नान करके तीन रात उपवास करनेवाला मानव सब पापोंसे छूट जाता है
मस मे का नाता काशि-(१) एक भारतीय जनपद ( वर्तमान काशीराज्य (वन०८४ । १५६)।
तथा वाराणसीमण्डल)। जिसपर पाण्डुने विजय प्राप्त की
थी ( आदि. ११२ । २९, भीष्म ९ । ५२)। कालिकेय-सुबलका पुत्र, जो अभिमन्युद्वारा निहत हुआ
भीमसेनने काशीमें उस देशके राजाकी कन्या बलन्धराके था (द्रोण० ४९ । ७)।
साथ ब्याह किया (आदि० ९५ । ७७)। भीमसेनने कालिङ्ग-कलिङ्ग देशका राजा श्रुतायुध, जो युधिष्ठिरको
इसपर विजय प्राप्त की (सभा० ३० । ६, उद्योग सभामें विराजमान होता था (सभा० ४ । २६)।
५० । १९)। सहदेवने भी काशिदेशपर विजय पायी थी इसीका नाम श्रतायु भी था (सभा० ५१ । ७ के बाद
(उद्योग० ५०।३१)। इस काशिदेशके महारथीराजा दाक्षिणात्य पाठ)।
वाराणसीमें रहते थे और पाण्डवपक्षके योद्धा थे (उद्योग कालिन्दी-कलिन्दगिरिनन्दिनी यमुना । ये अन्य सरिताओं
५०। ४१; उद्योग० १९६ । २)। अर्जुनने भी इस के साथ खयं भी वरुणसभामें पदार्पण करती हैं ( सभा.
देशको जीतकर अपने वशमें किया था (आदि० १२२ । ९।१८)।(विशेष देखिये यमुना)।
४०)। श्रीकृष्णने इस देशको जीता था (द्रोण. कालिय-एक प्रमुख नाग (आदि०३५ । ६)। वृन्दावन- ११।१५)। कर्णने दुर्योधनके लिये इस देशको वशमें में कदम्बवनके पास जो हृद था, उसमें प्रवेश करके किया था (कर्ण० ८ । १९)। काशिदेशपर हर्यश्व राजा श्रीकृष्णने कालियनागके मस्तकपर नृत्यक्रीडा की और हुए, इनके बाद सुदेव, फिर दिवोदास (अनु. ३० ।
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काशिक
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( ६७ )
१२- १५; उद्योग० ११७ । १) । फिर वृषदर्भ उशीनर भी कभी वहाँके राजा हुए थे ( अनु० ३२ । ९)। अम्बा स्वयंवर के अवसरपर भीष्मने इस देशको जीता था ( अनु० ४४ । ३८ ) । युधिष्ठिरके अश्वमेधका घोड़ा इस देशमें गया था ( आश्व० ८३ | ४ ) । (२) काशीराज्य अथवा जनपद में रहनेवाले लोग। काशिराज और काशिप्रदेशके योद्धा युधिष्ठिरकी सेनामें थे तथा भीष्मद्वारा मारे और घायल किये गये ( भीष्म० १०६ । १८–२० ) ।
काशिक - पाण्डवपक्षका एक उदार रथी ( उद्योग० १७१ । १५)।
काशिराज- काशिदेश के राजा, जो 'दीर्घजिह्न' नामक दानव के अंशसे उत्पन्न थे ( आदि० ६७ । ४० ) । ये युधिष्ठिर के बड़े प्रेमी थे । उपप्लव्य नगर में अभिमन्युके विवादमें एक अक्षौहिणी सेनाके साथ इनका शुभागमन हुआ था ( विराट० ७२ । १६ ) । ये बड़े पराक्रमी थे और महाभारत युद्ध में इन्होंने पाण्डवोंका पक्ष ग्रहण किया था ( भीष्म० २५ । ५ ) ।
काशी - प्रजापति कविके पुत्र | आठ वारुणसंज्ञक पुत्रोंमेंसे एक (अनु० ८५ | १३३)।
काशीपुरी - वाराणसी नगरी, जिसे भगवान् श्रीकृष्ण ने
जलाया था ( उद्योग० ४८ । ७६ )। काशीश्वरतीर्थ कुरुक्षेत्र की सीमामें अम्बुमती नदीके समीप स्थित एक तीर्थ, जिसमें स्नान करके मनुष्य सब रोगेसि मुक्त और ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है ( वन० ८३ । ५७ T
काश्मीर ( काश्मीरक ) - एक भारतीय जनपद तथा यहाँ के निवासी, दिग्विजय के समय इसे अर्जुनने जीता था ( सभा० २७ । १७; भीष्म० ९ । ५३ -६७ )। इस देशके निवासी राजा युधिष्ठिरके लिये भेंट लाये थे ( सभा० ३४ । १२; सभा० ५२ । १४; वन० ५१ । २६ ) | श्रीकृष्ण ने भी काश्मीरवासियोंको परास्त किया था ( द्रोण० ११ । १६ ) | परशुरामजीने इन्हें परास्त किया था ( द्रोण० ७० । ११ ) । काश्मीरमण्डल - पुण्यमय काश्मीर प्रदेशका वह स्थान, जहाँ उत्तरके समस्त ऋषि नहुषकुमार ययाति, अनि और काश्यपका संवाद हुआ था ( वन० १३० । १०(११) । काश्मीरमण्डलकी चन्द्रभागा ( चनाब ) और वितस्ता (झेलम) में सात दिन स्नान करनेसे मनुष्य मुनिके समान निर्मल हो जाता है। काश्मीरमण्डलकी जो नदियाँ महानद सिन्धुमें गिरती हैं, उनमें तथा सिन्धुमें स्नान करके मनुष्य मृत्युके पश्चात् स्वर्गगामी होता है ( अनु० २५ । ७-८ )।
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काश्यप
काश्य - ( १ ) काशी के एक राजा, जो अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका के पिता थे तथा जिनकी उक्त तीनों कन्याओंका भीष्मने अपहरण किया था ( आदि० १०२ । ५६, ६४-६५) । ( २ ) काशिराज जो युधिष्ठिर के समय विद्यमान थे और जिन्होंने राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिर के अभिषेक के समय उन्हें धनुप अर्पण किया था ( सभा० ५३ । ९ ) । काश्य तथा अन्य राजाओंके दिये हुए धनको युधिष्ठिर जूए में हार गये ( सभा० ६८ । २ ) । इन्हें पाण्डवों की ओरसे रण- निमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग ० ४ । १९ ) । काश्यके पुत्रका नाम अभिभूथा ( उद्योग० १५१ । ६३; भीष्म० ९३ । १३ ) | उत्तम रथी नरश्रेष्ठ काश्य ( या काशिराज ) भीष्म और द्रोणके समान पराक्रमी थे ( उद्योग ० १७१ । २२ ) । काश्यका नाम 'सेनाविन्दु' और 'क्रोधहन्ता' था (उद्योग ० १७१ । २०-२२ ) । पाण्डवसेनाके महाधनुर्धर शूरवीरों में काश्य ( काशिराज ) भी हैं । इन्होंने भी सबके साथ शङ्खनाद किया था ( भीष्म० २५ । १७ ) । धृतराष्ट्रपुत्र जयके साथ इनका युद्ध ( द्रोण० २५ । ४५ ) । वसुदानके पुत्रद्वारा काशिराज (कुमार) अभिभूके वधकी चर्चा ( कर्ण ० ६ । २३-२४)। ( २ ) एक प्राचीन ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजी के पास पधारे थे ( शान्ति ० ४७ । १० ) । काश्यप - ( १ ) एक प्रसिद्ध मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण, जो सर्पदंशन से पीड़ित हुए परीक्षित् के प्राण बचाने के लिये आ रहे थे ( आदि० ४२ । ३३ ) । इस्तिनापुर जाते समय इनका मार्ग में तक्षकसे भेंट और तक्षकके डँसनेसे भस्म हुए वृक्षको मन्त्रबल से पुनः पूर्ववत् हरा-भरा कर देना ( आदि० ४२ । ३३ से ४३ । १० तक ) । इनका तक्षकसे वार्तालाप करना और उससे यथेष्ट धन पाकर लौट जाना ( आदि० ५० | १९ - २७) । (२) वसुदेवजी के पुरोहित, जिन्होंने पाण्डवोंके गर्भाधान से लेकर चूडाकरण तक सारे संस्कार कराये ( आदि० १२३ । ३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । इनके द्वारा पाण्डुका अन्त्येष्टि- संस्कार सम्पन्न कराया गया ( आदि० १२४ । ३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । युधिष्ठिरका आदर करनेवाले ऋषियोंमें ये भी थे ( वन० २६ । २३ ) । सिद्ध महर्षिके साथ इनका संवाद ( आश्व० १६ । १९ से आश्व० १९ । ५३ तक ) | ( ३ ) इन्द्रकी सभा में विराजमान होनेवाले एक ऋषि, जो कश्यपके पुत्र हैं (सभा० ७ । १७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । परम धर्मात्मा काश्यपने पृथुके यज्ञमें सदस्यता ग्रहण की थी और अत्रि तथा गौतमके विवादको सभामें उपस्थित किया था ( वन ० १८५ । २१ ) । कश्यपपुत्र विभाण्डक, राजधर्मा,
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काश्यपद्वीप
( ६८ )
कीचक
विश्वावसु, इन्द्र, आदित्य, वसु, अन्य देवता तथा कश्यप- (३) यमराजके दण्डका नाम । वे अन्तकालमें इससे कलमें उत्पन्न समस्त प्रजा काश्यप कही गयी है ।(४) प्राणियोंका संहार करते हैं (कर्ण. ५६।१२०)। कश्यपपुत्र काश्यप नामक अग्नि । यह उन पाँच अग्नियों- किङ्किणीकाश्रम-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे स्वर्गलोकमेंसे एक हैं, जिन्होंने तीव्र तपस्या करके पाञ्चजन्यको की प्राप्ति होती है (अनु. २५। २३)। उत्पन्न किया था (वन० २२० । १-५ )। महत्तर
कितव-एक प्राचीन जातिके लोग, जो नाना प्रकारकी भेटनामक अग्नि, जो काश्यपके अंशसे प्रकट हुए थे, वे भी
सामग्री लेकर राजा युधिष्ठिरके यहाँ आये थे काश्यप कहलाये। इन्हें पाञ्चजन्यने पितरोंके लिये उत्पन्न
(सभा० ५१ । १२)। किया था (वन० २२० । ९)। (५) एक ऋषि
किन्नर-गन्धर्वविशेष (सभा० १० । १४)। कुमार, जो एक वैश्यक रयके धक्केसे गिरकर आत्महत्या करनेको उद्यत हो गये । शृगालरूपधारी इन्द्रके साथ किम्पुना-एक तीर्थस्वरूपा पवित्र नदी, जो वरुणकी उनका संवाद (शान्ति० १८०।६)।
__ सभामें रहकर उनकी उपासना करती है (सभा०९।२०)। काश्यपद्वीप-एक द्वीप, जो चन्द्रमा प्रतिविम्बित खरगोश- किम्पुरुष-(१) धवलगिरिसे आगे हिमालयके उत्तर
की आकृतिमें एक कानके रूपमें दृष्टिगोचर होता है भागमें विद्यमान एक देश, जो द्रुमपुत्रसे सुरक्षित था । (भीष्म०६ । ५५)।
इसे अर्जुनने जीता था (सभा० २८ । १-२)। (२) काष्ठा-कालपरिमाण (शल्य०४५। १५)।
एक जाति, जो पुलहकी संतान हैं (आदि०६६।८)। किंजप्य-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ स्नान और
किम्पुरुषोंने समुद्रपानका अद्भुत दृश्य देखनेके लिये
अगस्त्यजीका अनुसरण किया था (वन० १०४ । २१)। जप करनेसे असीम फल प्राप्त होता है (वन० ८३ । ७९)।
कुबेरके क्रीडास्थलरूप सरोवरकी रक्षामें किम्पुरुष भी तत्पर किंदत्तकृप-एक कूपमय तीर्थ, जहाँ सेरभर तिल दान
रहते थे (वन. १५३ । ९)। कुबेर लंका छोड़कर करनेसे मनुष्य तीनों ऋणोंसे मुक्त होता है (वन०
किम्पुरुषोंके साथ गन्धमादनपर आकर रहने लगे ८३ । ९८)।
(वन० २७५ । ३३) । ये दक्ष-कन्याओंकी संतति हैं किंदम-एक ऋषि, मृगीरूपधारिणी पत्नीके साथ मृगरूप
(शान्ति. २०७ । २५)। युधिष्ठिरके अश्वमेधयज्ञमें धारण करके मैथुन करते समय इनका पाण्डुके बाणोंसे किम्पुरुष भी थे ( आश्व० ८८ । ३७ )। (३) घायल होना (आदि. ११७ । ६-७)। बाणकी चोट जम्बूद्वीपका एक खण्ड, जिसे किम्पुरुषवर्ष एवं हैमवत खानेपर इनका मानव-वाणीमें विलाप ( वन
भी कहते हैं । शुकदेवजी इसे लाँधकर भारतक ११७1८-११)। इनका पाण्डुके साथ संवाद (वन. थे (शान्ति. ३२५ । १३-१४)। ११७। १२-२९ ) । इनके द्वारा राजा पाण्डुको शाप किरात-एक भारतीय जनपद (भीष्म० २१ ५१, ५७)। (वन०११७ । ३०-३३)। इनका प्राणत्याग (वन.
- किरीटी-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७१)। ११७।३४)। किंदान-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ स्नान और किर्मीर-एक राक्षस, जो नरकासुरका भ्राता और काम्यकदान करनेसे उसका असीम फल प्राप्त होता है।
वनका रहनेवाला था। इसका भीमसेनसे युद्ध (वन. (वन० ८३ । ७९)।
११। ४४-६४)। भीमसेनद्वारा इसका वध (वन. किङ्कर-(१) एक राक्षस, जिसने विश्वामित्रकी प्रेरणासे
११।६७)।
किर्मीरवधपर्व-वनपर्वके एक अवान्तर पर्वका नाम ( वनशापग्रस्त राजा कल्माषपादके शरीरमें प्रवेश किया था किमारवधपक (आदि. १७५ । २१)। विश्वामित्रकी प्रेरणासे इसके
पर्वका ग्यारहवाँ अध्याय)। द्वारा वसिष्ठके समस्त पत्रोंका संहार ( आदि० किष्किन्धागुहा-दक्षिण भारतमें धारवाड़ जिलेका एक १७५ । ११)। (२) राक्षसोंकी एक जाति या वर्ग, जो पर्वतीय स्थान, जहाँ प्राचीन कालमें वानरराज वालि-सुग्रीव मयासुरकी आशाके अनुसार आठ हजारकी संख्यामें
रहा करते थे। यहाँ सहदेवने मैन्द और द्विविदको जीता उपस्थित हो युधिष्ठिरके मयनिर्मित सभाभवन की रक्षा करते
था (सभा० ३१ । १७)। इसी किष्किन्धामें श्रीरामने और उसे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर उठाकर ले जाते थे वालीको मारा और सुग्रीवको वहाँका स्वामी बनाया ( सभा. ३ । २८; सभा०४८।९)। युधिष्ठिरने
(वन० २८० । १५-३९)। धन लनेके लिये हिमालयपर जानेके बाद वहाँ किङ्कर कीचक-मत्स्यनरेश विराटका साला और सेनापति एक नामक राक्षसोंको भेट पूजा दी थी (आश्व० ६५। ६)। महाबली वीर, जो द्रौपदीको देखकर काममोहित हो
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कीचकवधपर्व
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( ६९ )
गया था ( विराट० १४ । ४ - १०; विराट० १८ । ७)। यह रानी सुदेष्णाका भाई था ( विराट० १५ । ७; विराट० २१ । २९ ) । यह 'सूतपुत्र' कहा जाता था ( विराट० १४ । ४७ ) । कालेय नामक दैत्योंमें सबसे बड़ा जो 'बाण' था, वही कीचकरूपमें उत्पन्न हुआ था । इसके छोटे भाई भी कालेय ही थे ( विराट० १६ अध्यायमें पृष्ठ १८९३ ) । इसके छोटे भाई एक सौ पाँच थे, जो उपकीचक कहलाते थे । वे सभी भीमसेनके द्वारा मारे गये थे ( विराट० २३ । ३२-३३ ) । सूतराज केकयकी बड़ी रानी मालवीके गर्भसे कीचक और इसके भाई उत्पन्न हुए ( विराट० १६ अध्यायमें दा० पाठ, पृष्ठ १८९३ ) | इसका सुदेष्णासे द्रौपदीका परिचय पूछना ( विराट० १४ । ७ - २३ ) । द्रौपदीसे प्रेमयाचना करना ( विराट० १४ । ४०-४५ ) । द्रौपदीको प्राप्त करने के लिये इसका सुदेष्णासे अनुरोध (विराट० १५ । २ ) । द्रौपदीका केश पकड़ना और उसे लात मारना ( विराट० १६ । १० ) । संकेतानुसार द्रौपदीसे मिलनेके लिये इसका रातके समय नृत्यशाला में जाना ( विराट० २२ । ४० ) । वहीं रातहीमें भीमसेनके साथ युद्ध और उनके द्वारा इसका वध ( विराट० २२ ।
५२-८२ ) । इसने अपने जीवनमें त्रिगर्तराज सुशर्माको बारंबार हराया था ( विराट० २५ और ३० अध्याय ) । कीचकवधपर्व - विराटपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय १४ से २४ तक )।
कीटक - क्रोधवशसंज्ञक दैत्योंके अंशसे उत्पन्न एक राजा ( आदि० ६७ । ६० ) ।
कीर्ति - दक्ष प्रजापतिकी एक पुत्री और धर्मराजकी स्त्री ( आदि० ६६ । १४ ) । कीर्तिकी अधिष्ठात्री देवी (वन ० ३७ । ३३ ) ।
कीर्तिधर्मा - युधिष्ठिरका सम्बन्धी और सहायक क्षत्रिय वीर ( द्रोण० १५८ । ३९ ) ।
कीर्तिमान - ( १ ) नारायणके मानसिक पुत्र विरजाके आत्मज, जो पाँचों विषयोंसे ऊपर उठकर मोक्षमार्गका अवलम्बन करने लगे ( शान्ति ० ५९ । ९० ) । (२) एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१ ) । कुकुण - एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग ० १०३ । १० ) । कुकुर - (१) यदुवंशी 'कुकुर' नामक नरेशसे प्रचलित हुई वंशपरम्परा । इस वंशके क्षत्रिय भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञा के अनुसार चलकर शत्रुओंको बंदी बनाते और मित्रोंको आनन्दित करते थे ( उद्योग० २८ । ११ ) । कुकुर और अन्धकवंशके लोग मौसल - युद्ध में परस्पर
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कुण्डधार
जूझते हुए एक-दूसरेपर मतवाले होकर टूटते थे (मौसल ० ३ । ४२ ) । ( २ ) एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ । १० ) । (३) एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६० ) ।
कुक्कुटिका - स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( भीम० ४६ । १५)।
कुक्कुर - ( १ ) एक धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १८ ) । ( २ ) एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४२ ) । कुक्षि - ( १ ) एक सुप्रसिद्ध दानवराज, जो मेरु गिरिके समान तेजस्वी और विशाल 'पार्वतीय' नामक राजा हुआ ( आदि० ६७ । ५६ ) | ( २ ) रैभ्यका पुत्र, जो शुद्ध, सुव्रत और धर्मात्मा दिक्पाल था (शान्ति० ३४८ । ४२-४३ )।
कुञ्जर - ( १ ) एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १५) । सौवीर देशका एक राजकुमार, जो जयद्रथका अनुगामी था ( वन० २६५ । १० ) । अर्जुनद्वारा इसका वध ( वन० २७१ । २७ )। कुञ्जल-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७६ )। कुटर - एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १५ ) । बलरामजीके नागरूपमें समुद्र की ओर पधारते समय उनके स्वागतमें यह भी आया था ( मौसल ० ४ । १५) । कुठार- धृतराष्ट्रकुल उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था (आदि० ५७ । १५ ) । कुणिगर्ग - एक महायशस्वी और शक्तिशाली ऋषि, जिनकी कन्या व्याह न करके तपस्या में संलग्न हो वृद्ध हो गयी और अन्तमें अपनी तपस्याका उपधा भाग देकर उसने एक ऋषिके साथ अपना विवाह-संस्कार सम्पन्न किया ( शल्य० ५२ । ३ ) ।
कुणिन्द्र - एक द्विज-मुख्य ( ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय नरेश ), जिन्होंने राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरको दिव्य शङ्खकी भेंट दी थी ( सभा० ५१ । ७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ 1 कुण्ड - ' कुण्ड' नामवाले एक विद्वान् ब्राह्मण ऋषि, जो जनमेजयके सर्पसत्र के सदस्य हुए थे (आदि० ५३ । ८ ) । कुण्डज ( कुण्डभेदि ) - धृतराष्ट्रका पुत्र ( आदि० ६७ ।
१०५ ) । भीमसेनद्वारा ' कुण्डभेदि' नामसे इसका वध ( भीष्म० ९६ । २६ ) ।
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कुण्डधार - ( १ ) धृतराष्ट्रका एक पुत्र, भीमसेनद्वारा इसका वध, इसका दूसरा नाम कुण्डोदर था ( भीष्म० ८८ | २३) । ( २ ) वरुणकी सभा में उपस्थित होनेवाला
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कुण्डभेदी
(
७० )
एक नाग (सभा०९।९) (३) एक मेघ, अपने भक्त कुतप-श्राद्धमें प्रशस्तकाल (दिनके आठवें भागमें जब ब्राह्मणके लिये यक्षराज मणिभद्रसे इसकी प्रार्थना (शान्ति. सूर्यका ताप घटने लग जाता है, उस समयका नाम २७१ । १९-२०)। ब्राह्मणके लिये धर्मका वरदान कुतप है। उसमें पितरोंके लिये दिया हुआ दान अक्षय दिलाना (शान्ति० २७१ । २४-२६) । तपःसिद्ध हुए होता है (आदि० ९३ । १३ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। ब्राह्मणसे मिलकर अन्तर्धान होना (शान्ति०२७१। (यह काल बारह बजेके बाद आता है । ) ५२)।
कुनदीक-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ५८)। कुण्डभेदी-धृतराष्ट्रका एक पुत्र (आदि० ६७ । १०४)।
कुन्तल-(१) दक्षिण भारतीय कुन्तल जनपदके निवासी भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण० १२७ । ६०)।
(सभा०३४ । ११, उद्योग० १४० । २६)। कुन्तलदेशीय कुण्डल-(१) कौरवकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके योद्धा (भीष्मः ५१। १२, कर्ण. २० । १०) ।
सर्पसत्रमें जल मरा था ( आदि० ५७ । १३)। (२) (२) दक्षिण भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६३)।
५२-५९)। कुण्डलाहरणपर्व-वनवासके एक अवान्तर पर्वका नाम कुन्ति-(१) कुन्ति देशके निवासी राजा और योद्धा (सभा० (अध्याय ३०० से ३१० तक)।
१४ । २६)। (२) एक भारतीय जनपद (सभा० कुण्डली-(१) गरुडकी संतानोमैंसे एक ( उद्योग १४ । २७ भीष्म० ९ । ४०-४३)।
१०१।९)। (२) एक नदी, जिसका जल भारतीय कुन्तिभोज-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो शूरसेनके फुफेरे प्रजा पीती है (भीष्म ९।२१)।(३) धृतराष्ट्रका भाई थे (आदि० ६७ । १३०)। शूरसेनद्वारा इनके लिये एक पुत्र, इसका दूसरा नाम 'कुण्डाशी' था (यह
अपनी पुत्री पृथाको गोद देना (आदि०६७ । १३१)। नाम आदि०६७ । ९७ में आया है)। भीमसेनद्वारा सहदेवद्वारा दक्षिण-दिग्विजयके समय उनपर आक्रमण इसका वध (भीष्म० ९६ । २४)। (४) भगवान्
और इनका सहर्ष उनके शासनको स्वीकार करना विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । ११०)।
(सभा० ३१ । ६)। ये युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें कुण्डारिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ ।
पधारे थे (सभा० ३४ । १२)। इनका दुर्वासाकी १५)।
सेवाके लिये अपनी पुत्री कुन्तीको उपदेश (वन० ३०३ । कुण्डाशी-धृतराष्ट्रका एक पुत्र (दि. ११६ । १४)। १३-२९) । (२) कुन्तिभोजके पुत्र भी इसी नामसे
'कुण्डली' नामसे भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म० प्रसिद्ध थे; इनका दूसरा भाई पुरुजित् था। ये दोनों ९६।२४)।
पाण्डवोंके मामा थे (कर्ण० ६ । २२)। महाभारत कुण्डिक-सोमवंशी महाराज कुरुके प्रपौत्र एवं धृतराष्ट्रके
प्रथम दिनके युद्धमे कुन्तिभोज और इनके पुत्र का विन्द प्रथम पुत्र (आदि० ९४ । ५८)।
और अनुविन्दके साथ युद्ध (भीष्म० ४५।७२-७६)।
धृष्टद्युम्ननिर्मित क्रौञ्चव्यूहमें नेत्रके स्थानमें कुन्तिभोज कुण्डिन-(१) पूरुवंशी महाराज कुरुके प्रपौत्र एवं
और शैव्य खड़े किये गये थे (भीष्म० ५० । ४७)। धृतराष्ट्रके पञ्चम पुत्र (आदि० ९४ । ५४)। (२)
मकरव्यूहमें कुन्तिभोज और शतानीक पेरोंके स्थानमें खड़े कुण्डिन' नाम से प्रसिद्ध पुर या नगर, जो विदर्भदेशकी
थे (भीष्म० ७५ । ११ ) । इनके घोड़ोंका वर्णन राजधानी था (वन० ६०, ७३, ७७ अ० में उद्योग
(द्रोण० २३ । ४६)। अलम्बुषके साथ युद्ध (द्रोण. १५८ अ० में)।
१६ । १८३) । अश्वत्थामाद्वारा इनके दस पुत्र मारे गये कुण्डीविष-एक भारतीय जनपद( भीष्म०५०। ५०)।
(द्रोण० ९६ । १८-२०)। अर्जुनके मामा कुन्तिभोज कुण्डीवृष-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ५६ । ९)।
और पुरुजित्के द्रोणद्वारा मारे जाने की चर्चा (कर्ण. कुण्डोदपर्वत-एक तीर्थभूत पर्वत, जहाँ राजा नलको जल
६। १२)। और शान्ति मिली (वन० ८७ । २५)।
कुन्ती-शूरसेनकी पुत्री, राजा कुन्तिभोजकी (दत्तक) कुण्डोदर-(१) एक प्रमुख नाग (आदि० ३५।१६)। कन्या पृथा (आदि० ६३ । १४ आदि० १०९ । ५)। (२) धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि० (६७ । ९७)। ये सिद्धि नामक देवीके अंशसे उत्पन्न हुई थीं (आदि.
कुण्डधार' नामसे भीमसेनद्वारा इसका वध ६७ । १६०)। शूरसेनद्वारा इनका कुन्तिभोजके लिये (भीष्म ८८ । २३)। (३) पूरुवंशी महाराज गोदरूपमें दान (आदि० ११०३) पिता कुन्तिभोजके कुरुके पौत्र एवं जनमेजयके छठे पुत्र ( आदि० घरमें देवताओं तथा अतिथियोंकी पूजा-सत्कारके ९४ । ५५)।
लिये इनकी नियुक्ति ( आदि. ११०।४)।
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कुन्ती
(
७१ )
कुन्ती
इनके द्वारा महर्षि दुर्वासाकी परिचर्या एवं संतुष्ट हुए महर्षिद्वारा इनको मन्त्रका उपदेश ( आदि.६७ । १३३-१३४; आदि. ११० । ६ )। कौतूहलवश इनके द्वारा सूर्यका आवाहन ( आदि. ६७ । १३६; आदि. ११० । ८) सूर्यद्वारा इनको अपने साथ समागमके लिये आदेश ( आदि० ११० । १३)। इनका सूर्यसे क्षमायाचना करते हुए उनके प्रस्तावको अस्वीकार करना ( आदि. ११० । ११-१६)। दोषोंके अस्पर्शका आश्वासन एवं दिव्यपुत्रका प्रलोभन देकर इनके साथ सूर्यका समागम (आदि. ११० । १६-१८)। इनके गर्भसे कर्णका जन्म ( आदि. ६७ । १३७, आदि. ११०।१८)। सूर्यदेवका इनको पुनः कन्यात्व प्रदान करना ( आदि. ११०।२०)। माता-पिता आदि बान्धवोंके भयसे इनके द्वारा नवजात शिशुका जलमें परित्याग ( आदि० ६७ । १३९, आदि. ११० । २२ ) इनके द्वारा स्वयंवरमें पाण्डुका वरण
और पिताद्वारा इनका विधिपूर्वक पाण्डुके साथ विवाह (आदि. १११ । ८-९)। संन्यासके लिये कृतसंकल्प हुए पाण्डुसे वानप्रस्थाश्रममें रहनेके लिये इनका हठ ( आदि. ११८ । २७-३०)। इनको किसी श्रेष्ठ पुरुषके सम्पर्कसे पुत्रोत्पादन करनेके लिये पाण्डका आदेश ( आदि० ११९ । ३७ )। परपुरुषसे संतानोत्पादनके विषयमें इनका विरोध तथा व्युषिताश्व एवं भद्राका उदाहरण देकर अपने मानसिक संकल्पसे ही पत्रोत्पादन के लिये पाण्डुसे इनकी प्रार्थना ( आदि. १२० । १-३७)। इनका दुर्वासासे प्राप्त हुए मन्त्रकी महिमा बताकर किसी देवताके आवाहनके लिये पाण्डुसे आज्ञा माँगना ( आदि० १२१ । १०-१६)। धर्मराजके आवाहनके लिये इनको पाण्डुका आदेश ( आदि. १२१ । १७-२०)। इनके द्वारा धर्मका आवाहन और उनके द्वारा इनके गर्भसे युधिष्ठिरका जन्म ( आदि. १२२ । ७) । वायुदेवका आवाहन और उनके द्वारा इनके गर्भसे भीमकी उत्पत्ति ( आदि. १२२ । १४)। इन्द्रका आवाहन और उनके द्वारा इनके गर्भसे अर्जुनका जन्म ( आदि. १२२ । ३५)। इनके द्वारा तीनसे अधिक संतानोत्पादनका निषेध ( भादि. १२२ । ७७-७८) । माद्रीके गर्भसे पुत्रकी उत्पत्तिके लिये इनसे पाण्डुका आग्रह (आदि. १२३ । ९-३४)। इनकी कृपासे माद्रीको पुत्रलाभ (आदि० १२३ । १५-१६)। पाण्डुके निधनपर इनका करुण विलाप (आदि० १२४ । १६-२३ ) । कुन्तीका मूर्च्छित होकर गिरना, माद्रीके उठानेपर विलाप करना तथा शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंद्वारा इनको आश्वासन (आदि० १२४ । २२ के बाद दा०
पाठ)। पतिके साथ सती होनेके लिये इनका माद्रीसे अनुरोध (आदि. १२४ । २३-२४)। बच्चोंकी रक्षाके हेतु सती न होनेके लिये इनसे माद्रीकी प्रार्थना (आदि. १२४ । २८)। पाण्डवोंके अल्पवयस्क होनेके कारण इनसे सती न होनेके लिये शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंका अनुरोध, पतिके शवके साथ चितारोहणके लिये इनसे माद्रीका आज्ञा माँगना (आदि० १२४ । २८ के बाद दा० पाठ )। माद्रीको सती होनेके लिये इनकी आज्ञा ( आदि० १२४ । २९)। ऋषियोंका कुन्ती और पाण्डवोंको लेकर हस्तिनापुर जाना (आदि० १२५ अ०) भीमके नागलोक चले जानेपर इनकी चिन्ता तथा विदरद्वारा इनको आश्वासन ( आदि. १२८ । ११-१८ ) । रङ्गभूमिमें कर्ण और अर्जुनके युद्ध के लिये उद्यत होनेपर इनकी मूर्छा तथा विदुरद्वारा इनको आश्वासन (आदि० १३५ । २७-२८) । कुन्तीसहित पाण्डवोंकी वारणावतयात्रा ( आदि. १४४ अ० )। इनके सहित पाण्डवोका लाक्षागृहसे निकल जाना (आदि. १४७ अ.)। अधिक थक जाने के कारण माता कुन्तीको भीमसेनका अपनी पीठपर बिठाकर ले जाना (आदि. १४७ । २०-२१)। भीमको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये इनसे हिडिम्बाकी प्रार्थना (आदि० १५४ । ४-१५) । हिडिम्बाकी मनोरथपूर्ति के लिये उनका युधिष्ठिरसे अनुरोध ( आदि. १५४ । १५ के बाद दा. पाठ ) । कामपीड़ित हिडिम्बाको पुत्रदान करनेके लिये इनका भीमको आदेश ( आदि. १५४ । १८ के बाद दा० पाठ ) । एकचक्रा नगरीके समीप इनको व्यासका आश्वासन (आदि. १५५।१२)। इनका ब्राह्मणपरिवारके विषयमें भीमसेनसे वार्तालाप ( आदि. १५६ । ११-१५ )। ब्राह्मणद्वारा इनसे बकासुरके वृत्तान्तका कथन (आदि. १५९ । २-१७)। ब्राह्मण-परिवारको इनका आश्वासन (आदि. १६० । १-३)। भीमद्वारा बकवध-वृत्तान्तको गुप्त रखनेके लिये इनका ब्राह्मणसे अनुरोध ( आदि० १६० । १६-१७ ) । ब्राह्मणपरिवारको दुःखसे मुक्त करने एवं अत्याचारी बकासुरके विनाशके लिये इनका भीमको आदेश (आदि. १६० । २०)। इनके इस आदेशका युधिष्ठिरद्वारा प्रतिवाद (आदि० १६३ । ५)। युधिष्ठिरके प्रति इनके द्वारा कृतज्ञताकी प्रशंसा ( आदि. १६१ । १४)। इनके द्वारा युधिष्ठिरके प्रति भीमके बाहुबलकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन ( आदि० १६१ । १५-१८)। इनको पुत्रोसहित पाञ्चालदेश जानेके लिये आगन्तुक ब्राह्मणकी प्रेरणा ( आदि. १६६ । ५६ के बाद दा० पाठ)। पाञ्चालदेश चलनेके लिये इनका युधिष्ठिरको परामर्श
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कुन्ती
( ७२ )
कुन्ती
-
( आदि. १६७1८)। इनके द्वारा द्रौपदीरूप भिक्षाका मिलकर उपभोग करनेके लिये पाण्डवोंको उपदेश ( आदि० १९. । २)। द्रुपदके रनिवासमें इनका सम्मान (आदि. १९३ । ९) । व्यासजीके पूछनेपर द्रौपदीके विवाहके सम्बन्धमें इनका निर्णय (आदि. १९५ । १८)। इनके द्वारा द्रौपदीको आशीर्वाद एवं शिक्षा ( आदि. १५८ । ४) । विदुरका द्रुपदके भवनमें आकर कुन्ती, द्रौपदी तथा पाण्डवोंके लिये नाना प्रकारके रत्न और धन भेंट करना (आदि० २०५।१४) विदुरजीका महलमें जाकर कुन्तीके चरणों में प्रणाम करना। कुन्तीका किसी तरह मेरे पुत्रोंके प्राण बचे हैं। ऐसा कहकर दुःख प्रकट करना, विदुरजीको ही उनके जीवनका रक्षक बताकर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना और भविष्यमें क्या होगा-इसके लिये शोकाकुल होना । विदुरका उन्हें पुनः आश्वासन देना और उन सबको साथ लेकर हस्तिनापुर जाना (आदि० २०६ । ९ के बाद दा० पाठसहित ११ तक)। गान्धारीका कुन्ती और द्रौपदीको राजा पाण्डुके महलमें ठहरानेके लिये विदुरको आदेश देना (आदि० २०६ । २२ के बाद दाक्षि पाठ)। इन्द्रप्रस्थमें श्रीकृष्णका कुन्तीसे जानेके लिये। विदा माँगना और कुन्तीका उन्हींको अपना तथा अपने पुत्रोंका रक्षक बताकर सदा सुधि बनाये रखनेके लिये उनसे प्रार्थना करना (भादि० २०६ । ५१ के बाद दा० पाठ ) । अर्जुनका सुभद्रासहित आकर माता कुन्तीको प्रणाम करना । कुन्तीका सुभद्राको हृदयसे लगाकर उसका मस्तक सूंघना (आदि० २२० । १४-२१)। विदुरका कुन्तीको अपने घरमें रखनेके लिये पाण्डवोंसे कहना और पाण्डवोंका उनके अनुरोधको स्वीकार करना (सभा० ७८ । ५-८) । द्रौपदीका कुन्तीसे वनगमनके लिये विदा लेना और कुन्तीका उसे आश्वासन देते हुए जानेकी आज्ञा तथा कर्तव्यका उपदेश दे स्वयं भी पुत्रोंके पीछे विलाप करती हुई जाना (सभा० ७९ । १-२९)। विदुरका कुन्तीको आश्वासन देना ( सभा०७९ । ३१)। कुन्तीका दुर्वासाकी सेवाके लिये उद्यत होना (वन० ३०४ । १-११)। इनकी सेवासे प्रसन्न होकर दुर्वासाका इन्हें मन्त्र प्रदान करना (वन० ३०५। २०) । इनके द्वारा सूर्यदेवका आवाहन (वन. ३०६ । ७) । इनकी सूर्यदेवसे कवच-कुण्डलविभूषित पुत्रकी माँग (वन० ३०७ । १७)। इनका नवजात शिशुको पिटारीमें रखकर नदीमें छोड़ देना (वन. ३०८ । २२)। श्रीकृष्णके मिलनेपर उनसे पाण्डवोंका समाचार पूछकर इनका विलाप करना (उद्योग० ९० । ५-९०)। श्रीकृष्णद्वारा पाण्डवोंको उत्साहवर्धक संदेश
देना और विदुलोपाख्यान सुनाकर उन्हें युद्धके लिये उत्तेजित करना (उद्योग. १३२५ से उद्योग. १३७ । २३ तक)। विदुरकी बातोंसे चिन्तित होकर इनका कर्णके पास जाना ( उद्योग० १४४ । २६)। कर्णको अपना प्रथम पुत्र बताते हुए उसे पाण्डवपक्षमें मिल जानेके लिये प्रेरित करना ( उद्योग. १४५ अध्याय)। कुन्तीका पाण्डवोंसे मिलना और द्रौपदीको आश्वासन देना (स्त्री० १५। ३३-३८)। कर्णको भी जलाञ्जलि देनेके लिये कहना और पाण्डवोंके सामने कर्णका अपने गर्भसे जन्म लेनेका रहस्य प्रकट करना (स्त्री० २७ १७-१३)। कर्णके लिये चिन्तित युधिष्ठिरको समझाना (शान्ति० ६ । ४-८)। इनके द्वारा अभिमन्युवधके शोकसे पीड़ित सुभद्रा और उत्तराको आश्वासन (आश्व० ६१ । ३३-४०)। इनकी उत्तराके मृत बालकको जिलानेके लिये श्रीकृष्णसे प्रार्थना (आश्व० ६६।१४-२६)। इनके द्वारा गान्धारीकी सेवा (आश्रम०१ । २३-२४)। वनमें जाती हुई गान्धारी तथा धृतराष्ट्रके साथ इनका भी जाना । ये आगे-आगे गान्धारीका हाथ पकड़े जाती थीं (आश्रम १५। १-९)। पाण्डवोंके अनुरोध करनेपर भी कुन्तीका वनमें जानेसे न रुकना । युधिष्ठिरका सहदेवका ख्याल रखने, कर्णको याद रखने तथा द्रौपदी एवं भीमसेन आदिका भी प्रिय करनेका आदेश देना (आश्रम १६ । ७-१६) । युधिष्ठिर आदि पुत्रोंका लौट चलनेके लिये अत्यन्त आग्रह तथा द्रौपदी और सुभद्राका अपने पीछे-पीछे आना देखकर आँसू पोंछती हुई कुन्तीका पाण्डवोंको उनके अनुरोधका उत्तर देना (आश्रम १६ । १७ से १७ अध्यायतक) । धृतराष्ट्र और गान्धारीके समझानेपर भी कुन्तीका न लौटना तथा गान्धारी और धृतराष्ट्र आदिके साथ उनका गङ्गातटपर निवास (आश्रम० १८ । ४-१६)। वनमें कुन्तीके पास उनके पुत्रोंका आना । कुन्तीका रोते हुए सहदेवको हृदयसे लगा लेना ( आश्रम० २४ । ७-१०) । कुन्तीका उन पुत्रहीन दम्पतिको अपने साथ खींचकर लाना (आश्रम० २४ । १२)। कुन्तीका व्यासजीसे कर्णके जन्मका गुप्त रहस्य बताकर अपने उस पुत्रके दर्शनकी इच्छा प्रकट करना (आश्रम २९ । ४९ से ३० । १८ तक)। युधिष्ठिर और सहदेवका कुन्तीसे उनकी सेवाके लिये वनमें रहनेकी इच्छा प्रकट करना और कुन्तीका उन्हें हृदयसे लगाकर तपस्यामें विघ्न न पड़े, इसके लिये लौट जाने का आदेश देना (आश्रम० ३६ । २८४२)। कुन्तीकी वनमें कठोर तपस्या । एक मासतक उपवास करके एक दिन भोजन करना (आश्रम०३७ ।
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कुन्द
( ७३ )
१४ ) | कुन्तीका ध्यान लगाकर बैठना और दावाग्निमें जलकर भस्म हो जाना ( आश्रम० ३७ । ३१-३२ ) । कुन्तीकी हड्डियोंका गङ्गामें डाला जाना और उनके लिये श्राद्धकार्य सम्पादित होना ( आश्रम ० ३९ अध्याय ) । कुन्ती और माद्री दोनों पत्नियोंके साथ राजा पाण्डुका महेन्द्रभवन में जाना ( स्वर्गा० ५ । १५ ) । कुन्द - धाताद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदोंमेंसे एक ( शल्य० ४५ । ३९ ) ।
कुन्दापरान्त - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४९ ) । कुपट-एक दानव, कश्यपपत्नी दनुका पुत्र ( आदि० ६५ । २६ ) ।
कुबेर - पुलस्त्यकुमार विश्रवा मुनिके पुत्र, जो राक्षसोंके राजा थे, लङ्कामें निवास करते थे । नरयान ( पालकी ) पर चढ़ने के कारण ' नरवाहन' तथा राजाओंके भी राजा होनेसे 'राज- राज' कहलाते थे । इनके पिता विश्रवा इनपर कुपित थे । पिताके क्रोधको जानकर इन्होंने उनकी सेवा और प्रसन्नता के लिये तीन राक्षस-कन्याओं को नियुक्त कर दिया था ( आदि० २७५ | १ - ३ ) । इनकी पत्नीका नाम भद्रा है ( आदि० १९८ । ६ ) । इनका उत्तर दिशामें कैलासपर यक्षों और राक्षसोंके आधिपत्यपर अभिषेक किया गया ( वन० १११ । १०-११ ) । ब्रह्माजीसे वरदान पाकर रावणका कुबेरको जीतना, इन्हें लङ्कासे निष्कासित करना और इनके पुष्पक विमानको छीन लेना । फिर कुबेरद्वारा रावणको शाप ( वन० २७५ । ३२-३५ ) । खाण्डवदाह के समय युद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुनपर प्रहार करनेके लिये इन्होंने गदा हाथमें ली थी (आदि० २२६ । ३२ ) । नारदजीद्वारा इनकी दिव्य सभाका वर्णन ( सभा० १० अध्याय ) । इनके द्वारा अर्जुनको अन्तर्धानास्त्रका दान ( वन० ४१ । ३८) । इनकी गन्धमादनपर पाण्डवोंसे भेंट और युधिष्ठिर तथा भीमसेनको सान्त्वना ( वन० १६१ । ४३-५१ ) । इनका अपनेको अगस्त्यसे शाप मिलनेकी कथाका युधिष्ठिर के प्रति वर्णन ( वन० १६१ । ५४-६२)। इनके द्वारा युधिष्ठिर और भीमसेनको उपदेश और सान्त्वना (वन० १६२ अध्याय ) । इनका श्रीरामके लिये अभिमन्त्रित जल भेजना ( वन ० २८९ । ९ ) । स्थूणाकर्णको स्त्री ही बने रहने का शाप देना ( उद्योग० १९२ । ४५-४७) । यक्षोंके अनुरोधसे उसके शापका अन्त बताना (उद्योग ० १९२ । ५० ) । कुबेर शुक्राचार्यसे एक चौथाई धन पाकर उसमेंसे सोलहवाँ भाग मनुष्यों के लिये अर्पित करते हैं (भीम० ६ । २३ ) | पृथ्वीदोहनके समय ये दोग्धा थे ( द्रोण० ६९ । २४ ) | कुबेरकी
म० ना० १०
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कुमारक
सरस्वतीके तट पर तपस्या, कुबेरतीर्थकी उत्पत्ति तथा कुबेरको अनेक वरोंकी प्राप्ति । कुबेरने वहाँ धनका आधिपत्य, रुद्रदेवके साथ मित्रता, देवत्व, लोकपालत्व, नलकूबर नामक पुत्र तथा पुष्पक विमान प्राप्त किये ( शल्य० ४७ । २८ - ३१ ) । महाराज मुचुकुन्दके साथ युद्ध और वार्तालाप ( शान्ति० ७४ । ४ - १८ ) । उशनाद्वारा अपने धनका अपहरण होनेपर इनका शिवजीकी शरण में जाना ( शान्ति ० २८९ । १२ ) । इनके द्वारा अष्टावक्र मुनिका स्वागत-सत्कार ( अनु० १९ । ३७-५० )।
महाभारतमें आये हुए कुबेर के नाम-अलकाधिप, धनद, धनदेश्वर, धनाधिगोता, धनाधिप, धनाधिरति, धनाध्यक्ष, धनेश्वर, धनपति, धनेश, द्रविणपति, गदाधर, गुह्यकाधिप, गुह्यकाधिपति, कैलासनिलय, नरवाहन, निधिप, पौलस्त्य, राजराज, राजराट्, राक्षसाधिपति, राक्षसेश्वर, वैश्रवण, वित्तगोता, वित्तपति, वित्तेश, यक्षाधिप, यक्षाधिपति, यक्षपति, यक्षप्रवर, यक्षराट, यक्षराज, यक्षराक्षसभर्ता, यक्षरक्षोधिप इत्यादि ।
कुबेरतीर्थ- सरस्वती नदी -सम्बन्धी एक तीर्थ, इसकी उत्पत्तिका प्रसंग ( शल्य० ४७ । २५-३१ ) । कुब्जाम्रक - यात्रामात्रसे सहस्र गोदानका फल और स्वर्ग देनेवाला एक तीर्थ ( बन० ८४ । ४० ) ।
कुमार - ( १ ) 'अनल' नामक वसुके पुत्र स्कन्द, जिनका जन्मकाल में सरकंडों के वनमें निवास था ( आदि० ६६ । २३ ) । इनका 'कार्तिकेय' नाम होनेका कारण ( आदि० ६६ । २४ ) । कुमारग्रह अथवा कुमार स्कन्द के पार्षद, जो वज्रका प्रहार होनेपर कुमार के शरीर से प्रकट हुए थे ( वन० २८८ । १) । ( २ ) भारतवर्ष - का एक पूर्वीय जनपद, जहाँके राजा श्रेणिमान्को दिग्विजय के समय भीमसेनने परास्त किया था ( सभा० ३० । १ यहाँके राजकुमार राजसूययज्ञमें युधिष्ठिरके लिये भेंट लाये थे ( सभा० ५२ । १४ - १७) । (३) एक प्राचीन राजा, जिसे पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग० ४ । २४ ) । द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और उनके द्वारा इसका परास्त होना ( द्रोण० १६ । २१–२५ ) । (४) 'सनत्कुमार' अथवा कुमार सनत्सुजात ऋषि, जिन्होंने किसी समय कहा था कि "मृत्युकी सत्ता है ही नहीं' ( उद्योग ० ४१ । २ ) । ( ५ ) गरुड़की प्रमुख संतानों में से एक ( उद्योग ० १०१ । १३ ) ।
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कुमारक- कौरव्यकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में जल भरा था ( आदि० ५७ । १३) ।
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कुमारकोटि
( ७४ )
कुरुक्षेत्र
3
कुमारकोटि-एक तीर्थ, जिसके नियमपूर्वक सेवनसे दस कुम्भरेता-शंयुके प्रथम पुत्र भरद्वाजकी पत्नी वीराके गर्भ से
हजार गोदानका फल प्राप्त होता है (वन०२।११७)। उत्पन्न वीर नामक अग्नि, जिन्हें सोमदेवताके साथ द्वितीय कुमारधारा-पितामह सरोवरसे निकली 'कुमारधारा' नामकी
आज्य-भाग प्राप्त होता है। इन्हें 'रथप्रभु' रथध्वान' एक धारा, जहाँ स्नानसे कृतार्थता प्राप्त होती है और 'कुम्भरेता' भी कहते हैं (धन० २२० १९.१०)। (वन० ८४ । १४९)।
कुम्भवक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ५५ । ७५)। कुमारवर्ष-रैवतक पर्वतके पासका वर्ष (भीष्म० ११।२६)।
० ११।२६)। कुम्भश्रवा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । २६)। कुमारी-(१) केकयदेशकी एक राजकुमारी, पूरुवंशीय कुम्भाण्डकोदर-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य. राजा भीमसेनकी पत्नी, प्रतिश्रवाकी माता ( आदि.
प्रतिश्रवाकी माता ( आदि०४५। ६९)। ९५ । ४३)। (२) स्कन्दके शरीरसे उत्पन्न कुमारी कम्भिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६।१५)। ग्रह । ये कुमारियाँ गर्भस्थ बालकोंका भक्षण करनेवाली
कुम्भीनसि-एक मायावी असुर (अनु० ३९।७)। हैं (वन० २३०३१) । (३) धनंजय नागकी भार्या
कुम्भीनसी-गन्धर्वराज चित्ररथकी पत्नी, जिसने चित्ररथकी (उद्योग०११७ । १७)। (४)भारतकी एक नदी,
जीवन-रक्षाके लिये युधिष्ठिरसे प्रार्थना की थी ( आदि. जिसका जल यहाँकी प्रजा पीती है (भीष्म० ९ । ३६)।
१६९ । ३५)। (५) शाकद्वीपकी एक नदी (भीष्म०११ । ३२)।
कुरङ्गक्षेत्र-एक तीर्थ, यहाँ स्नान और त्रिरात्र उपवासका कुमुद-(१) एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १५;
फल ( अनु० २५ । १-१२)। उद्योग० १०३ । १३; मौसल. ४ । १५)।(२) एक
कुरु-(१) सूर्यकन्या तपतीके गर्भसे सम्राट् संवरणद्वारा वानर जो वानरराज सुग्रीवका सहायक एवं अनुगामी
उत्पन्न (आदि० ९४ । ४८)। इनके द्वारा वाहिनीके था (वन० २८९ । ४) । (३) सुप्रतीकके कुलमें
गर्भसे अश्ववान्, अभिष्यन्त, चैत्ररथ, मुनि एवं जनमेजयका उत्पन्न एक गजराज (उद्योग० ९९ । १५)।(४)
जन्म । इनके नामसे कुरुजाङ्गल देशकी प्रसिद्धि । गरुडकी प्रमुख संतानों से एक (उद्योग० १०१।१२)। (५) कुशद्वीपका एक पर्वत (भीष्म० १२ । १०)।
इनकी तपस्यासे कुरुक्षेत्रका पवित्र होना (आदि० ९४ । (६) धाताद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदोंमेंसे
५०-५१)। इनकी दूसरी पत्नी शुभाङ्गीसे विदुरका एक ( शल्य० ४५ । ३९ ) । (७) स्कन्दका एक
जन्म ( आदि० ९५ । ३९)। कुरुक्षेत्रकी भूमि जोतते सैनिक ( शल्य० ४५ । ५६ )। (८) भगवान्
हुए इनका इन्द्र के साथ संवाद (शल्य. ५३ । विष्णुका एक नाम (अनु. १४९ । ७६)।
६-१५ ) । कुरुक्षेत्रमें इनके यज्ञ करते समय सरस्वती
नदी (सुरेणु' नामसे प्रकट हुई थीं । कुछ व्याख्याकारोंके कुमदमाली-ब्रह्माद्वारा स्कन्दको दिये गये चार पार्षदोंमेंसे
अनुसार 'ओघवती' नामसे इनका प्राकट्य हुआ था एक (शल्य. ४५। २५)।
(शल्य. ३८ । २६-२७)। (२) एक श्रद्धा-शमकुमुदाक्ष-एक प्रमुख नाग (आदि० ३५ । १५)।
दमसम्पन्न प्राचीन ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए कुमुदोत्तर-शाकद्वीपका एक वर्ष, जो जलद या मलयके
भीष्मजीको देखने आये थे (शान्ति० ४७।८)। निकट है (भीष्म० ११ । २५)।
कुरुक्षेत्र-सरस्वती एवं दृषद्वती नामक नदीका मध्यवर्ती कुम्भ-प्रह्लादजीके तीन पुत्रोंमेंसे एक, इसके शेष दो भाई
क्षेत्र, इसमें निवासकी महिमा (वन० ८३ । ४, २०४, विरोचन और निकुम्भ हैं ( आदि० ६५। १९)।
२०५)। कुरुक्षेत्रमें इक्षुमती नदीके तटपर तक्षक रहता कुम्भक-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७५)।
था (आदि० ३ । १३९-१४२)। कुरुने अपनी तपस्यासे कम्भकर्ण-राक्षसकन्या पुष्पोत्कटाके दो पुत्रों से एक । इस क्षेत्रको पवित्र बनाया (आदि० ९४ । ५०)।
रावणका सहोदर छोटा भाई । इसके पिता पुलस्त्यकुमार चित्राङ्गद नामक गन्धर्वके साथ युद्ध करके महाराज विश्रवा थे ( बन० २७५ । १-७)। इसका तप चित्राङ्गदकी मृत्यु यहीं हुई थी ( आदि० १०१ । करके ब्रह्मासे नींदका वरदान माँगना ( वन० २७५।। ८-९) सुन्द और उपसुन्द सम्पूर्ण दिशाओंको जीतकर २८)। इसका लक्ष्मणद्वारा वध (वन० २८७।१९)। कुरुक्षेत्रमें निवास करते थे (आदि० २०९ । २७ )। कुम्भकर्णाश्रम-एक तीर्थ, इसकी यात्रासे भूतलपर सम्मान- खाण्डवदाहके पहले तक्षक वहासे कुरुक्षेत्र चला लाभ (वन० ८४ । १५७)।
गया था (आदि० २२६ । ४)। वनयात्राके समय कुम्भयोनि-अर्जुनके जानेपर इन्द्रसभामें नृत्य करनेवाली पाण्डवोंका यहाँ आगमन (वन० ५।१)। यह एक अप्सराओंमेंसे एक (वन० ४३ । ३०)।
प्रसिद्ध तीर्थ है, जिसके दर्शनमात्रसे पाप नाश हो जाता
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कुरुजाङ्गल
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( ७५ )
है ( वन० ८३ | १–३, ७-८ ) । कुरुक्षेत्रकी सीमा के भीतर एक पवित्र स्थानमें मान्धाताने यज्ञ किया था ( वन० १२६ । ४५ ) । मुद्गलं नामक जितेन्द्रिय ऋषि, जो उच्छवृत्ति से जीविका चलाते थे, कुरुक्षेत्रमें ही रहते थे ( वन० २६० । ३ ) । भीष्म और परशुरामका युद्ध कुरुक्षेत्रमें ही हुआ था ( उद्योग० १७८ । ७२ ) । कौरव और पाण्डव युद्धके लिये कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए और वहीं श्रीकृष्णके मुखसे अर्जुनको गीताका उपदेश प्राप्त हुआ ( भीष्म० २५ अध्यायसे ४२ अ० तक ) । महाभारत-युद्धका मैदान कुरुक्षेत्र ही था ( भीष्मपर्व शल्यपर्वतक । इसी क्षेत्र में भीष्मजी शरशय्यापर पड़े थे ( भीष्म० ११९ । ९२ ) । कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी 'ओघवती' के रूपमें प्रकट हुई ( शल्य० ३८ । ३-४ ) । पहले यह समन्तपञ्चक क्षेत्र था। महाराज कुरुके समय से इसका नाम कुरुक्षेत्र हुआ । इसकी सीमाका निर्धारण तथा महिमा ( शल्य० ५३ अ० ) । बलरामजी - द्वारा इसकी महिमाका वर्णन ( शल्य० ५५ । ६ – १० ) । भीमसेन और दुर्योधनका युद्ध तथा दुर्योधनका वध भी इसी क्षेत्र में हुआ ( शल्य ० ५५ अ० से ५८ अ० तक ) । अतिथिसत्कारपरायण अग्निपुत्र सुदर्शन अपनी पत्नी ओघवती के साथ कुरुक्षेत्रमें ही रहते थे ( अनु० २ । ४०)।
कुरुजाङ्गल अथवा कुरु - भारतवर्षका सुविख्यात जनपद,
जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी । कुरुके नामसे ही कुरुजाङ्गल देशकी प्रसिद्धि हुई ( आदि० ९४ । ४९ ) । धृतराष्ट्र तथा पाण्डुके जन्मके बाद इस देशकी सर्वाङ्गीण उन्नतिका वर्णन ( आदि० १०८ । १ - १६ )। कुरुतीर्थ कुरुक्षेत्र में तैजसतीर्थसे पूर्वभागमें स्थित एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है ( वन० ८३ । १६५) ।
कुरुपाञ्चाल - कुरु और पाञ्चाल नामक भारतवर्षके दो
जनपद ( भीष्म० ९ । ३९ ) ।
कुरुवर्णक-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५६ ) । कुरुविन्द - एक भारतीय जनपद तथा वहाँके निवासी ( भीष्म० ८७ ।९ ) ।
कुलत्थ - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६६ ) । कुलधर्म - सनातनकालते चले आनेवाले कुलाचार ( भीष्म० २५ । ४० ) ।
कुलपांसन राजा - ( उद्योग० ७४ अ० में ) । कुलम्पुन - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मानव अपने
समूचे कुलको पवित्र कर देता है ( वन० ८३ । १०४ )। कुलम्पुना- एक नित्य स्मरणीय नदी (अनु० १६५ | २० ) ।
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कुशवान्
कुलाचल-महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान्, ऋक्षवान्, विन्ध्य और पारियात्र -- ये सात कुलपर्वत हैं ( भीष्म ०९।११) | कुलिक-एक प्रमुख नाग, जो कद्दूका पुत्र है ( आदि० ६५ । ४१ ) ।
कुलिन्द - ( १ ) एक प्राचीन राजा ( सभा० १४ । २६ ) । ( २ ) प्राचीन देश ( सभा० २६ । ३; भीष्म० ९ । ५५, ६३ )।
कुल्या- एक तीर्थ, यहाँ उपवाससे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है (अनु० २५ । ५६ ) । कुवलयापीड - ऐरावत- कुलोत्पन्न कंसका हाथी । भगवान् श्रीकृष्णद्वारा इसका वध ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८०१, कालम १ ) । कुवलाश्व - इक्ष्वाकुवंशी महाराज बृहदश्व के पुत्र इनके इक्कीस हजार पुत्र थे ( वन० २०२ । ५ ) । इनका grat मारनेके लिये प्रस्थान ( वन० २०४ । ११ ) । इनमें भगवान् विष्णुके तेजका प्रवेश (वन० २०४ । १३ ) | इनके द्वारा धुन्धुका वध ( वन० २०४ । ३२ ) । इन्हें देवताओंसे वर प्राप्ति ( वन० २०४ । ३६ - ३८ ) । इनका धुन्धुमार नाम पड़नेका कारण ( वन० २०४ । ४२)।
कुवीरा - एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म ० ९।२७ ) ।
कुश - एक प्राचीन कालके महर्षि, जो अग्निदेवके समान प्रतापी थे, ये ब्रह्माजीके पुत्र और विश्वामित्र के प्रपितामद्द थे ( आदि० ७४ । ६९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । कुशचीरा - एक नदी, जिसका जल भारतके निवासी पीते हैं ( भीष्म ० ९ । २३ ) ।
कुशद्वीप - सुप्रसिद्ध सात द्वीपोंमेंसे एक। इसका विशेष वर्णन ( भीष्म० १२ । ६-१६ ) ।
कुशधारा - एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २४ ) ।
कुशनाभ - महर्षि कुशके धर्मात्मा पुत्र, गाधिके पिता और विश्वामित्र के पितामह ( आदि० ७४ । ६९ के बाद दाक्षिजात्य पाठ ) ।
कुशप्लवन - एक तीर्थ, जहाँ स्नान और तीन रात निवास से अश्वमेध यज्ञका फल सुलभ होता है ( वन० ८५ । ३६ ) । कुशल- क्रौञ्चपर्वतके निकटका एक देश ( भीष्म० १२ । २१ ) ।
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कुशल्य- एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४० ) । कुशवती - देवलोककी एक नगरी ( वन० १६१ । ५४ ) । कुशवान् - मानस सरोवरके निकटवर्ती, उज्जानक सरोवरका एक हद ( वन० १३० । १७-१८ ) ।
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कुशविन्दु
( ७६ )
कृतयुग
कुशविन्दु-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५६)। (२) एक वनवासी ऋषि, जो सर्पविषसे मरी हुई कुशस्तम्ब-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य स्वगमें
प्रमद्वराको देखनेके लिये गये थे ( आदि०८।२५)। अप्सराओंद्वारा सेवित होता है (अनु० २५ । २८)।
इन्होंने हस्तिनापुरको जाते हुए श्रीकृष्णकी मार्गमें परिक्रमा
की थी ( उद्योग० ८३ । २७)। कुशस्थली-द्वारकापुरीका प्राचीन नाम (सभा० १४।५०)।
' कुशिकाश्रम-कोशीनदीके निकटवर्ती एक तीर्थभूत आश्रमका कुशाद्य-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४४)।
नाम (वन० ८४ । १३१)। कुशाम्ब-राजा उपरिचरवसुके तृतीय पुत्र, इनका दूसरा कशेशय-कुशद्वीपके छः श्रेष्ठ पर्वतोमैंसे एक (भीष्म० १२ । नाम मणिवाहन था ( आदि. ६३ । ३१)।
१०-११)। कुशावर्त-एक तीर्थ, यहाँ स्नानका फल (अनु० २५। कुसुम-धाताद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदों से एक १३)।
(शल्य० ४५। ३९)। कुशिक-(१) अजमीढके वंशमें उत्पन्न जल के वंशज कुसुम्भि-द्वारकाके समीपवर्ती एक वन (सभा०३८ । २९ वल्लभके पुत्र (आदि. ९५। ३३, भीष्म०९।८ के बाद पृष्ठ ८१३, कालम १)। अनु० ४।५)। एक स्थानपर इन्हें जह्नवंशज बला- कुस्तुम्वुरु-कुबेरकी सभाका एक पिशाच (सभा० १.। काश्वका पुत्र कहा गया है ( शान्ति० ४९ । ३)। १६)। इनकी पुत्र-प्राप्तिके लिये तपस्या (शान्ति. ४९ : ४)। कहन-सौवीर देशका एकराजकुमार, जो जयद्रथका अनुगामी इन्द्रका पुत्ररूपमें जन्म (शान्ति. ४९ । ५-६)। था (वन. २६५।११)। इनके यहाँ च्यवनका आगमन तथा रहनेकी इच्छा बताना कुहर-कलिङ्गदेशका एक राजाजो क्रोधवश नामवाले (शान्ति० ५२ । ९-१०)। भार्यासहित इनके द्वारा दैत्योंके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६५)। च्यवनका सत्कार तथा उन्हें सर्वस्व अर्पण (शान्ति०५२।
कुहुर-एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ । १५)। १३-१८)। इनका च्यवनको घरमें ले जाकर ठहराना, शय्या आदि देना और सेवाके लिये प्रतिज्ञा करना (शान्तिः कुहू-महर्षि अङ्गिराकी आठवीं पुत्री (वन० २१८।८)। ५२ । २३.२४ ) । पत्नीसहित राजाका निराहार रहकर
.
१६
यह स्कन्दके जन्म-समयमें आयी थी (शल्य०४५। १३)। इक्कीस दिनोंतक सोये हुए च्यवनके पैर दबाना कूर्चामुख-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० (शान्ति० ५२ । ३४-३५)। च्यवनके सहसा चले ४ । ५३ )। जानेसे इनकी चिन्ता और पुनः उन्हें शय्यापर विराज- कूर्म-एक प्रमुख नाग, जो कद्रूका पुत्र है (आदि० ६५ । मान देख आश्चर्य और उनकी आज्ञासे पुनः उतने ही ४१)। दिनोंतक सोये हुए मुनिकी चरणसेवा (शान्ति० ५३। कूष्माण्डक-एक प्रमुख नाग ( भादि० ३५ । ११)। २-७)। मुनिके प्रतिकूल आचरणसे भी राजा-रानीका कृकणेयु-पूरुके तीसरे पुत्र । रौद्राश्व के द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके क्रोध न करना (शान्ति. ५३ । ८-२४)। इन राज- गर्भसे उत्पन्न दस पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ९४।१०)। दम्पतिका रथमें जुतकर कोड़ोंसे पीटा जाना और अन्त- कृत-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१)। में मुनिकी कृपासे नवयौवनसम्पन्न एवं स्वस्थ होना।
कृतक्षण-विदेहदेशके एक राजा, जो युधिष्ठिरकी सभामें (शान्ति० ५३ । २७-६३) । च्यवन मुनिके वर माँग
विराजते थे (सभा० ४ । २७)। इन्होंने राजा युधिष्ठिरनेके लिये कहनेपर संतोष प्रकट करके नगरको वापस
को चौदह हजार घोड़े भेंटमें दिये थे (सभा० १५। . आना (अनु. ५३ । ५९-६५)। दूसरे दिन मुनिके
के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८६१, कालम २)। पास जाकर अद्भुत स्वर्गीय दृश्य देखना (अनु. ५४ । २-२५)। रानीसे मुनिकी प्रशंसा करना ( अनु० ५४। कृतचेता-एक प्राचीन ऋषि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका
च्यवन वर माँगने लिये कोपर विशेष आदर करते थे (वन० २६ । २२)। संतोष प्रकट करना ( अनु० ५४ । ३८-४२) । च्यवन कृतबन्धु-एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३८)। मुनिसे अपने यहाँ रहनेका कारण और परीक्षाके क्लेशोंके कृतयग-हनुमानजीद्वारा इस युगके धर्मका वर्णन (वन. विषयमें पूछना (अनु०५५।२-९)। च्यवनमुनिसे वर १४९ । ११-२५)। मार्कण्डेयजीद्वारा इसका वर्णन माँगना (अनु०५५।१८अनु० ५५।३५)। अपने पौत्रके (वन. १८८ । २२)। कलियुगके बाद कल्कीद्वारा ब्राह्मणत्वके विषयमें पूछना (अनु० ५५ । ३६-३७)। इसकी स्थापना (वन० १९१।१-१४)।
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कृतवर्मा
( ७७ )
कृतशौच
कृतवर्मा-यदुकुलके अन्तर्गत भोजवंशी हृदिकका पुत्र, जो से भागना (द्रोण० १९३ । १३)। सात्यकिद्वारा भगवान् श्रीकृष्णका अनुरागी एवं आज्ञापालक था इसकी पराजय (द्रोण. २०० । ५३)। इसके द्वारा (आदि० ६३ । १०५)। यह मरुद्गणोंके अंशसे उत्पन्न शिखण्डीकी पराजय (कणे० २६ । ३६-३७)।धृष्टद्युम्न हुआ था (आदि० ६७ । ८१)। इसका द्रौपदीके द्वारा इसका मूञ्छित किया जाना (कर्ण० ५४ । ४० के स्वयंवरमें पदार्पण (आदि. १८५ । १८)। यह बाद दा० पाठ )। इसके द्वारा उत्तमौजाकी पराजय सुभद्राके लिये उपहार-सामग्री लेकर खाण्डवप्रस्थमैं गया (कर्ण० ६१ । ५९)। भीमसेनके साथ युद्धमें भागना था (आदि० २२० ।३१)। यह युधिष्ठिरकी सभामें (शल्य० ११। ४५-६७ )। सात्यकिद्वारा इसकी विराजमान होता था (सभा० ४ । ३०)। यह वृष्णि- पराजय (शल्य. १७ । ७७-७८; शल्य. २१ । २९वंशके सात महारथियोंमेंसे एक था (सभा० १४ । ३०)। युधिष्ठिरद्वारा पराजय (शल्य. १७ । ८७)। ५८)। उपप्लव्य नगरमें अभिमन्युके विवाहमें उपस्थित द्वैपायन सरोवरपर जाकर दुर्योधनको युद्धके लिये उत्साहित हुआ था (विराट. ७२ ॥ २१) । पाण्डवोंकी ओरसे करना (शल्य० ३० । ९-१४)। सेनासहित युधिष्ठिरइसको रणनिमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग०४१ १२)। के पहुँचनेपर इसका वहाँसे हट जाना (शल्य. ३० । दुर्योधनके माँगनेपर एक अक्षौहिणी सेनाकी सहायता देना ६३)। अश्वत्थामाके साथ रातमें सौतिक युद्ध के लिये (उद्योग. ७ । ३२)। इसका सेनासहित दुर्योधन- जाना (सौप्तिक० ५। ३८)। रातमें शिविरसे भागे की सहायतामें जाना (उद्योग० १९ । १७)। सात्यकि- हुए योद्धाओंका इसके द्वारा वध (सौप्तिक० ८।१०६. के कहनेसे श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये कौरवसभाके द्वारपर १०७) । पाण्डवोंके शिविरमें इसका आग लगाना उसका सेनासहित डट जाना ( उद्योग० १३०। १०. (सौप्तिक०८।१०९-११०)। धृतराष्ट्रको दुर्योधन११)। यह कौरवपक्षका अतिरथी वीर था ( उद्योग के मारे जानेका समाचार बताकर इसका अपने देशकी १६५ । २४ ) । प्रथम दिनके युद्धमें इसका सात्यकिके ओर जाना (स्त्री० ११ । २१)। युधिष्ठिरके अश्वमेधसाथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ४५ । १२-१३)। अभिमन्यु- यज्ञमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णके साथ के हाथों यह घायल हुआ था (भीष्म० ४७ १०)। कृतवर्माका भी आगमन (आश्व०६६ । ३-४ ) । भीष्मद्वारा निर्मित क्रौञ्चारुणव्यूहमें मस्तककी जगह खड़ा सात्यकिद्वारा मौसल-युद्धमें इसका वध (मौसल. ३ । किया गया था ( भीष्म० ७५ । १७) । भीमसेन- २८)। स्वर्गमें जानेपर इसका मरुद्गणोंमें प्रवेश (स्वर्गा० द्वारा इसका पराजित होना (भीष्म० ८२ । १)। ५। १३ )। सात्यकिद्वारा इसका घायल होना ( भीष्मः १०४। महाभारतमें आये हए कृतवर्माके नाम-आनर्तवासी, १६) । धृष्टद्युम्न के साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११०। भोज, भोजराज, हार्दिक्य, हृदिकसुता हदिकात्मज, ९-१०, भीष्म० १११।४०-४४)। भीमसेन और माधव, सात्वत, वाष्र्णेय, वृष्णि, वृष्णिसिंह आदि । अर्जुनके साथ युद्ध (भीष्म० ११३, ११४ अध्याय)। कृतवाक-अजातशत्रु युधिष्ठिरका आदर करनेवाले एक सात्यकिके साथ युद्ध (द्रोण० १४ । ३५-३६; द्रोण. महर्षि ( वन० २६ । २४)। २५ । ८.९)। अभिमन्युपर प्रहार और उसके घोड़ोंको कृतवीर्य-(१) सोमवंशी राजा अहंयातिके श्वशुर, भानुमार डालना (द्रोण० ४८ । ३२) । अभिमन्युपर मतीके पिता (आदि. ९५ । १५)। (२) भूमण्डलआक्रमण करनेवाले छः महारथियोंमें एक यह भी था के एक सुप्रसिद्ध प्राचीन राजा, जो कार्तवीर्यके पिता और (द्रोण० ७३ । १०)। अर्जुनके साथ युद्ध और उनके वेदज्ञ भृगुवंशियोंके यजमान थे (आदि. १७७॥ ११)। प्रहारसे इसका मूछित होना (द्रोण० ९२।१६-२६)। इनके द्वारा सोमयज्ञ करके भृगुवंशियोंके लिये विपुल इसका युधामन्यु और उत्तमौजाके साथ युद्ध (द्रोण. धनराशिका दान (आदि० १७७ । १३)। ये यमराज९२ । २७-३२)। सात्यकिके साथ युद्ध (द्रोण. की सभाके एक सदस्य हैं (सभा०८।९)। माहिष्मती ११३ । ४६-५८)। भीमसेनको आगे बढनेसे रोकना नगरीका राजा अर्जुन इन्हीं कृतवीर्यका ज्येष्ठ पुत्र था (द्रोण० ११३ । ६४-६७) भीमसेन और शिखण्डी- (सभा०३८ । २९ के बाद दा० पाठ,पृष्ठ ७९१,कालम २)। को परास्त करके इसका पाण्डव-सेनाको खदेड़ना (द्रोण. कृतवेग-एक पुण्यात्मा एवं बहुश्रत राजर्षि, जो यमसभाको ११४ । ५९-१०३ )। सात्यकिद्वारा इसकी पराजय सुशोभित करते हैं (सभा०८।९)। (द्रोण. ११५ । १०-११; द्रोण. ११६ । ४१)। क्रतशौच-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ जाने और युधिष्ठिरके साथ युद्ध और उन्हें परास्त करना (द्रोण तीर्थ सेवन करनेसे पुण्डरीक-यज्ञका फल प्राप्त होता १६५ । २४-४०)। द्रोणाचार्यके मारे जानेपर युद्धस्थल- है (वन० ८३ । २१)।
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कृतश्रम
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( ७८ )
कृतश्रम - युधिष्ठिरकी सभा में बैठनेवाले एक महर्षि ( सभा० ४ । १४ ) । इनको वानप्रस्थधर्मके पालनसे स्वर्गलोककी प्राप्ति हुई ( शान्ति० २४४ । १८ ) । कृति - ( १ ) एक पुण्यात्मा एवं बहुश्रुत राजर्षि, जो यमराजकी सभाको सुशोभित करते हैं ( सभा० ८ । ९ ) । (२) एक विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३५) । (३) भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । २२ ) । कृती - शूकरदेशका एक राजा, जिसने युधिष्ठिरको सौगजरत्न
भेंट किये थे ( सभा० ५२ । २५ ) ।
कृत्तिका - ( १ ) एक तीर्थ, यहाँकी यात्रासे अतिरात्र यागका फल मिलता है ( वन० ८४ । ५१) । (२) कृत्तिकाएँ छः हैं, इनका स्कन्दसे अपनेको माता स्वीकार करनेका अनुरोध ( वन० २३० । ५) । इन्हें नक्षत्रमण्डल स्थानकी प्राप्ति ( वन० २३० | ११ ) | कृत्तिका नक्षत्र में दान देनेका फल ( अनु० ६४ । ५ ) । कृत्तिकाङ्गारक- एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके एक पक्षतक निराहार रहनेवाला मनुष्य निष्पाप होकर स्वर्गलोकमें जाता है (अनु० २५ | २२–२६ ) । कृत्तिकाश्रम - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके पितरोंका तर्पण और महादेवजीको संतुष्ट करनेवाला पुरुष पापमुक्त हो स्वर्ग में जाता है (अनु० २५ | २५ ) । कृत्या - ( १ ) दैत्योंद्वारा आभिचारिक यशसे उत्पन्न की हुई एक राक्षसी, जो आमरण उपवासके लिये बैठे हुए दुर्योधनको वनसे उठाकर रसातलमें ले गयी थी ( वन० २५२ । २१–२९ ) । ( २ ) एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म० ९ । १८ ) । कृत्रिम - एक प्रकारका अबन्धुदायादपुत्र ( मैं आपका पुत्र हूँ' यों कहकर जो स्वयं समीप आया हो ) ( आदि० ११९ । ३४ ) ।
कृप - एक प्राचीन राजा, जिन्होंने कभी मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५ । ६४ ) ।
कृपाचार्य - किसी समय गौतमगोत्रीय शरद्वान्का वीर्य सरकंडेके समूहपर गिरा और दो भागोंमें बँट गया, उसीसे एक पुत्र और एक कन्याका जन्म हुआ, कन्याका नाम कृपी हुआ और पुत्र महाबली कृपके नामसे प्रसिद्ध हुआ (आदि० ६३ । १०७ ) । ये रुद्रगणके अंशावतार और अत्यन्त पुरुषार्थी थे ( आदि० ६७ । ७७ >)1 'जानपदी' नामक अप्सराके दर्शनसे सरकंडेपर स्खलित हुए महर्षि शरद्वान्के दो भागों में बँटे हुए वीर्यसे एक पुत्र और एक कन्याकी उत्पत्ति ( आदि० १२९ ॥ ६ - १४ ) । वनमें शिकारके लिये आये हुए महाराज
कृपाचार्य
शान्तनुका इन्हें देखना और कृपाके वशीभूत हो घर लाकर इनका पालन-पोषण एवं समस्त संस्कार करना ( आदि० १२९ । १५-१८ ) । इनका 'कृप' नाम होनेका कारण ( आदि ० १२९ । २० ) । शरद्वान्का इनको इनके गोत्र आदिका गुप्तरूपसे परिचय देकर समस्त शास्त्रोका उपदेश करना ( आदि० १२९ । २१-२२ ) । ये धनुर्वेद के परमाचार्य हो गये ( आदि० १२९ । २२ ) । इनसे कौरवों- पाण्डवों तथा यादवोंका धनुर्वेद पढ़ना ( आदि० १२९ । २३) । रङ्गभूमिमें अर्जुनपर आक्षेप करते समय इनका कर्णसे उसके कुलका परिचय पूछना ( आदि० १३५ । ३२ ) । ये युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें उपस्थित थे ( सभा० ३४ । ८)। धनकी देख-रेख और दक्षिणा बाँटने के कामपर नियुक्त किये गये थे ( सभा० ३५ । ७ | इनका पाण्डवों अन्वेषण के लिये सलाह देना ( विराट० २९ । १ - १४ ) । कर्णको फटकारते हुए युद्धके विषयमें अपना मत प्रकट करना ( विराट० ४९ अ०में ) । अर्जुनद्वारा घायल होनेपर कौरवका इन्हें अन्यत्र हटा ले जाना ( विराट० ५७ । ४३ ) । दुर्योधनसे दो मासमें पाण्डव - सेनाको नष्ट करनेकी अपनी शक्तिका कथन ( विराट० १९३ । १९ ) । युधिष्ठिरको आज्ञा देकर अपनेको अवध्य ब ( भीष्म० ४३ । ७०-७५ ) । प्रथम दिनके युद्धमें बृहत्क्षत्र के साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ४५ । । चेकितानद्वारा इनका मूच्छित होना ( भीष्म० ८४ । ३१ ) । सात्यकि को घायल करना ( भीष्म० १०१ । ४०-४१ ) । सहदेवके साथ द्वन्द्व-युद्ध करना ( भीष्म० ११०।१२-१३; भीष्म ० १११ । २८-३३ ) । भीमसेन और अर्जुनके साथ युद्ध ( भीष्म० ११३, ११४ अध्याय ) । धृष्टकेतुके साथ युद्ध ( द्रोण० १४ । ३३-३४ )। वार्धक्षेमके साथ युद्ध ( द्रोण० २५ । ५१-५२ ) । अभिमन्युके पार्श्वरक्षकका वध कर देना ( द्रोण० ४८ ॥ ३२ ) । इनके ध्वजका वर्णन ( द्रोण० १०५ । १४१६ ) । अर्जुनके साथ युद्ध ( द्रोण० १४५ अ० ) । अर्जुनके साथ युद्ध में मूच्छित होना ( द्रोण० १४७ । ९ ) । कर्णको फटकारना ( द्रोण० १५८ । १३ – २३; ३३- ४७ ) । अश्वत्थामासे दुर्योधनको अर्जुनके साथ युद्धके लिये जानेसे रोकनेको कहना ( द्रोण० १५९ ॥ ७७-८२ ) । इनके द्वारा शिखण्डीकी पराजय ( द्रोण ० १६९ । ३२ ) । द्रोणाचार्यके मारे जानेपर युद्धस्थलसे भागना ( द्रोण० १९३ । १२ ) । अश्वत्थामासे द्रोणवधका समाचार बताना ( द्रोण० १९३ । ३७-६७ ) । सात्यकिद्वारा पराजय ( द्रोण० २०० । ५३ ) । इनके
५२-५४
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कृपी
(
७९
)
द्वारा शिखण्डीकी पराजय ( कर्ण० ५४ । २३)। (२) एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है चित्रकेतु-पुत्र सुकेतुका वध ( कर्ण० ५४ । २८)। (भीष्म० ९ । १७ )। युधामन्युको परास्त करना (कर्ण० ६१ । ५५-५६)। कृश-(१) शृङ्गीऋषिका एक मित्र, जो धर्मके लिये कष्ट इनके द्वारा कुलिन्द-राजकुमारका वध (कर्ण० ८५।। उठानेके कारण सदा कृश ही रहा करता था (आदि० ६) । दुर्योधनको सन्धिके लिये समझाना (शल्य० ४० । २७-२८)। इनका शृङ्गीऋषिको उत्तेजित करना ४ अ.)। द्वैपायन सरोवरपर जाकर दुर्योधनको युद्धके (आदि. ४० । २९-३२ ) । इनका शृङ्गीऋषिको लिये उत्साहित करना (शल्य० ३०। ९-१४)। उनके पिताके कंधेपर राजा परीक्षितद्वारा सर्प डालनेका सेनासहित युधिष्ठिरके पहुँचनेपर वहाँसे हट जाना (शल्य. समाचार सुनाना ( आदि. ४१ । ५-९)। ३०। ६३) । दुर्योधनके कहनेसे अश्वत्थामाको सेनापति- (२) ऐरावतकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके पदपर अभिषिक्त करना ( शल्य०६५ । ४३)। दैवकी सर्पयज्ञमें दग्ध हो गया था (आदि०५७ । ११)। प्रबलता बताते हुए अश्वत्थामाको सत्पुरुषोंसे सलाह लेनेकी (३) एक दिव्य महर्षि, जो शरशय्यापर पड़े हुए राय देना ( सौप्तिक० २ अ० ) । अश्वत्थामाको भीष्मजीको देखनेके लिये आये थे (अनु० २६ । ७)। प्रातःकाल युद्ध करनेके लिये समझाना (सौप्तिक. ४।।
०४। कृशक-एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग. १०३ । १५)। १-२०% सौप्तिक. ५। १-१७)। अश्वत्थामाके साथ
कृशाश्व-यमकी सभामें उपस्थित धर्मराजकी उपासना रातमें युद्धके लिये जाना ( सौप्तिक० ५। ३०)। इनके द्वारा पाण्डव-शिविरसे भागे हुए योद्धाओंका वध
करनेवाले एक नरेश ( सभा० ८ । १७)। ये उत्तर(सौप्तिक.८।१०६-१०७)। शिविरमें आग लगाना
गोग्रहणके समय अर्जुनका कृपाचार्य एवं अन्य कौरव(सौप्तिक० ८।१०९-११०)। दुर्योधनकी दशा
वीरोंके साथ होनेवाले युद्धको देखनेके लिये इन्द्रके देखकर विलाप करना (सौप्तिक० ९ । १०-१७)।
विमानमें बैठकर आये थे ( सभा० ५६ । १०)। धृतराष्ट्र और गान्धारीको कौरव-पाण्डवोंके विनाशकी
इनका प्रातःसायं स्मरण कीर्तन करनेवाला मनुष्य धर्मसूचना देना (स्त्री० ११।५-१७) । समाचार बताकर
फलका भागी होता है ( अनु० १६५ । ४९)। हस्तिनापुरकी ओर चला जाना (स्त्री०११।२१)। कृषीवल-इन्द्रकी सभामै बैठकर उनकी उपासना करनेइन्हें द्रोणाचार्यसे खन-विद्या प्राप्त होनेका प्रसंग (शान्ति वाले एक प्राचीन महर्षि (सभा०७।१३)। १६६।८१)। तपस्यासे सिद्धि या प्रतिष्ठा प्राप्त करने कष्ण-(१) सत्यवतीनन्दन द्वैपायन व्यास, जिन्हें शरीरका वाले लोगोंमें इनका भी नाम है (शान्ति० २९६ । रंग साँवला होनेके कारण लोग 'कृष्ण' भी कहते थे १४ ) । वनमें जाते समय धृतराष्ट्रका कृपाचार्यको (आदि० १०४ । १५)।( देखिये व्यास ) युधिष्ठिरके हाथों सौंपकर अपने साथ जानेसे लौटाना
(२) एक नाग, जो वरुणसभामें रहकर वरुण देवताकी (आश्रम० १६ । ५)। महाप्रस्थानसे पूर्व युधिष्ठिरने उपासना करते हैं ( सभा० ९ । ८)। (३) अर्जुनका कृपाचार्यकी पूजा करके उन्हें परीक्षित्को शिष्यरूपमें सौंपा
एक नाम (विराट०४४।२२)।(४) स्कन्दका एक (महाप्रस्थान० १ । १४-१५)।
सैनिक (शल्य. ४५५७)। (५) एक महर्षि, जो महाभारतमें आये हुए कृपाचार्यके नाम-आचार्य, उत्तरायणके आरम्भमें शर-शय्याशायी भीष्मजीको देखने के आचार्यसत्तम, भारताचार्य, ब्रह्मर्षि, शारद्वत, शरदत-सत,
लिये पधारे थे (शान्ति० ४७ । १२)। (६) भगवान् गौतम आदि ।
शिवका एक नाम ( अनु०१७। ४५) । (७) भगवान् कृपी-शरद्वान् ऋषिको पुत्री, कृपाचार्यकी बहन, द्रोणाचार्य- विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । ७२)।(८) ये
की पत्नी और अश्वत्थामाकी माता (आदि. ६३ । नारायणस्वरूप हैं, इनकी वन्दना करके महाभारतका १०७-१०८ ) । शान्तनुद्वारा इनका संवर्धन ( पालन- पाठ करनेका विधान (आदि० । । मङ्गलाचरण )। पोषण ) एवं समस्त संस्कार ( आदि. १२९ । १८)। ये श्रीकृष्ण' ही धर्ममय वृक्षके मूल हैं (आदि. १। द्रोणाचार्यका इन्हें धर्मपत्नीके रूपमें ग्रहण करना (आदि० १११)। विश्ववन्दित महायशस्वी भगवान् विष्णु जगत्के १२९ । ४६)। इनका मरे हुए द्रोणाचार्यके लिये रोना जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये वसुदेवजीके द्वारा देवकीके (स्त्री० २३ । ३४-३७)।
गर्भसे प्रकट हुए (आदि० ६३। ९९)। आदि-अन्तसे महाभारतमें आये हुए इनके नाम-शारद्वती, कृपी, रहित, सबके आत्मा, अव्यय, अनन्त, अचल, अजन्मा, गौतमी आदि।
नारायणस्वरूप, अनादि, सर्वव्यापी, परम पुरुष पूर्णतम कृमि-(१) एक क्षत्रियकुल ( उद्योग० ७४ । १३)। परमात्मा ही धर्मकी वृद्धिके लिये अन्धक और वृष्णि
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कुलमें बलराम और श्रीकृष्णरूपसे अवतीर्ण हुए ( आदि० २ अध्याय) । इन भगवान् वासुदेवने विन्दुसरोवरपर ६३ । १००-१०४)। सम्पूर्ण देवताओं एवं इन्द्रका भगवान् धर्मपरम्पराकी रक्षाके लिये बहुत वर्षांतक निरन्तर श्रद्धा श्रीहरिसे अवतार ग्रहण करने की प्रार्थना और भगवान्की पूर्वक यज्ञ किया था (सभा०३।१६)। युधिष्ठिरको स्वीकृति ( आदि०६४ । ५१-५४)। देवताओंके भी राजसूय यज्ञके लिये इनकी सम्मति (सभा० १४ अध्याय)। देवता, सनातन पुरुष, नारायणके ही अंशस्वरूप प्रतापी जरासंधके वधके विषयमें इनकी युधिष्ठिर और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण मनुष्योंमें अवतीर्ण हुए थे( आदि. भीमसेनसे बातचीत ( सभा० १५ । १४-२५ )। ६७ । १५१)। अपने श्याम और श्वेत दो प्रकारके इनके द्वारा अर्जुनकी बातका अनुमोदन और जरासंधकी केशोंको द्वारमात्र बनाकर सच्चिदानन्दधन नारायणने उत्पत्तिका वर्णन ( सभा० १७ अध्याय)। जरासंधस्वयं ही अपनेको पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण रूपसे वधके लिये भीम और अर्जुनके साथ ब्राह्मण-रूप धारणकर प्रकट किया (आदि०१९६ ॥३२-३३)। वृष्णिवंशियों- इनकी मगध-यात्रा (सभा० २० अध्याय)। इनके सहित इनका द्रौपदीके स्वयंवरमें आगमन (आदि. द्वारा मगधकी राजधानीकी प्रशंसा ( सभा० २१ । १८५ । १६-२०)। इनका स्वयंवरमें आये हुए १-११) । इनका जरासंधके साथ संवाद (सभा० ब्राह्मणवेषधारी पाण्डवोंको पहचानना और बलरामजी- २१ । ४९-५४)। निरपराध कैद किये हुए राजाओंको संकेतसे बताना (आदि० १८६। ८-१०)। द्रौपदी- को छोड़ देनेके लिये इनकी जरासंधको चेतावनी स्वयंवरमें भीम और अर्जुनके विषयमें इनका बलरामजीसे ( सभा० २२ । ७-२६ )। जरासंधके वधके लिये वार्तालाप (आदि. १८८ । २०-२३ के बाद दाक्षिणात्य इनका भीमको संकेत ( सभा० २४ । ५ के बाद पाठ)। पाण्डवोंसे मिलने के लिये बलरामसहित इनका दाक्षिणात्य पाठ ) । इनके द्वारा जरासंध-पुत्र सहदेवका कुम्भकारके घरमें आगमन (आदि० १९० । १८)। राज्याभिषेक ( सभा० २४ । ४३)। राजसूय यज्ञके द्रौपदीके विवाहके अवसरपर इनके द्वारा पाण्डवोंको उपलक्ष्यमें इनके द्वारा युधिष्ठिरको विपुल धनराशिकी विविध उपहारोंकी भेंट ( आदि० १९८ । १३-१९)। भेंट ( सभा. ३३ । १३)। राजसूय यज्ञमें भीष्मके पाण्डवोंको द्रुपद नगरसे हस्तिनापुर जानेके लिये इनकी आदेशपर सहदेवद्वारा इनकी अग्रपूजा ( सभा० सम्मति ( आदि० २०६ । ६)। पाण्डवोंके निवासके ३६ । ३० )। इनके प्रति शिशुपालके आक्षेपपर्ण वचन लिये दिव्य नगर-निर्माणके हेतु इनकी इन्द्रको प्रेरणा (सभा० ३७ अध्याय)। भीष्मद्वारा इनकी महिमाका ( आदि० २०६ । २८ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। वर्णन (सभा० ३८ । ६-२९ )। भगवान् श्रीकृष्णके प्रभास क्षेत्रमें इनका अर्जुनके साथ मिलन और रैवतक
अवतारका प्रकृतिपर प्रभाव; अवतारकालमें महर्षियों, पर्वतपर विश्राम ( आदि०२१७ । ३-८)। अर्जुनको देवर्षियों आदिका आगमन तथा इन्द्रद्वारा भगवान्से सुभद्राहरणके लिये इनकी सम्मति (आदि० २१८ । प्रार्थना (सभा० ३८ । पृष्ठ ७९७ )। वसुदेवजीका नव२३)। सुभद्राहरणसे कुपित हुए वृष्णिवंशियोंको इनकी जात शिशु श्रीकृष्णको कंसके भयसे गोकुलमें नन्दगोपके सान्त्वना ( आदि. २२० । १-११)। दहेजरूपमें ___ घर छिपा देना (सभा० ३८ । पृष्ठ ७९८)। इनके पदाविपुल धनराशि लेकर इनका इन्द्रप्रस्थ नगरमें आगमन घातसे दही आदिके मटुकोंसे भरे छकड़ेका
और भेट समर्पण ( आदि० २२०।२७-५२)। अर्जुन- उलट जाना ( सभा० ३८ । पृष्ठ ७९८ ) । के साथ इनका यमुनाजीमें जल-विहार (आदि० २२१ । इनके द्वारा पूतनाका वध, यशोदा मैयाका इन्हें १४-२०)। खाण्डववन-दाहके लिये इनसे अग्निकी ऊखलमें बाँधना, इनके द्वारा यमलार्जुनका उद्धार प्रार्थना (आदि० २२२ । २-११)। अग्निद्वारा इनको (सभा०३८ । पृष्ठ ७९८)। इनकी सात वर्षकी अवस्थामें वेषदिव्य चक्रका दान (आदि० २२४ । २३)। वरुणद्वारा भूषा, खेल-कूद, मनोरञ्जन और इनके द्वारा वत्स-चारण इनको कौमोदकी गदाकी भेंट (आदि० २२४ । २८)। (सभा० ३८ । पृष्ठ ७९९)। श्रीकृष्णका अकेले वृन्दावनमें खाण्डववनदाहके समय इनका इन्द्र आदि देवताओंके जाना इनकी शोभा और वन-विहार तथा इनके द्वारा कालिय साथ युद्ध (आदि० २२६ अध्याय)। अर्जुनके द्वारा नागका मानमर्दन एवं अन्यत्र प्रेषण; इनका बलभद्रजीके अभयदान देनेपर इनका मयासुरको जीवनदान (आदि. साथ वन-विहार ( सभा० ३८ । पृष्ठ ८००)। इनके द्वारा २२७ । ४४-४५)। अर्जुनके साथ निरन्तर प्रेम-वृद्धिके इन्द्रका मान-भङ्ग और गोवर्धन-धारण । देवेन्द्रद्वारा इनका लिये इनकी इन्द्रसे वर-याचना (आदि० २३३ । १३)। गोविन्द' नामकरण और गवेन्द्र' पदपर अभिषेक । इनकी मयासुरको सभाभवन-निर्माणके लिये आज्ञा इनके द्वारा अरिष्टासुर, केशीनामक दैत्य, आन्ध्रदेशीय (सभा० १०।१३)। इनकी द्वारकायांत्रा (सभा० मल्ल चाणूर, कंसके सेनापति सुनामा' का वधः इनके
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( ८१ )
द्वारा कंसके मन में भयका उत्पादन और कुवलयापीडका वध, श्रीकृष्णद्वारा कंसका वध और उग्रसेनका राजाके पदपर अभिषेक ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८०१६८०४ ) । बलरामजीके साथ इनका मथुरा में ही निवास, उज्जयिनी में सान्दीपनि
के यहाँ इन दोनों भाइयोंका अध्ययनके लिये जाना तथा चौंसठ कलाओंका अध्ययन एवं गुरुसेवा करना, इन्हें बारह दिनोंमें ही गजशिक्षा और अश्वशिक्षाकी प्राप्ति । इनका पुनः धनुर्वेदकी शिक्षाके लिये सान्दीपनिके यहाँ जाना और अवन्तीमें निवास करना; पचास दिन-रात में ही दस अङ्गोंसे युक्त सुप्रतिष्ठित एवं रहस्यसहित धनुर्वेदका ज्ञान प्राप्त करना; सान्दीपनिपुत्रके मारनेवाले असुरका श्रीकृष्ण और बलरामद्वारा वध; मरे हुए गुरुपुत्रको यमलोकसे लाकर इनके द्वारा गुरुदक्षिणा तथा ऐश्वर्यका दान ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८०२ ) । चौंसठ कलाओं के नाम ये हैं - १ - गीत ( गाना ), २ - वाद्य ( बाजा बजाना ), ३-नृत्य ( नाचना ), ४ - नाट्य ( नाटक करना, अभिनय करना ), ५ - आलेख्य ( चित्रकारी करना ), ६ - विशेषकच्छेद्य ( तिलकके साँचे बनाना ), ७-तण्डुलकुसुमवलिविकार ( चावलों और फूलोंका चौक पूरना ), ८- पुष्पास्तरण ( फूलोंकी सेज रचना तथा बिछाना ), ९ - दर्शन - वसनाङ्गराग ( दाँतों, कपड़ों और अङ्गको रँगना या दाँतोंके लिये मञ्जन - मिस्सी आदि, वस्त्रोंके लिये रंग और रँगनेकी सामग्री तथा अङ्गोंमें लगाने के लिये चन्दन, केसर, मेंहदी, महावर आदि बनाना और उनके बनानेकी विधिका ज्ञान ), १० - मणिभूमिका कर्म ( ऋतुके अनुकूल घर सजाना ), ११ - शयनरचना ( बिछावन वा पलंग बिछाना ), १२ - उदकवाद्य ( जलतरंग बजाना ), १३ - उदकघात ( पानी के छींटे आदि मारने वा पिचकारी चलाने और गुलाबपाससे काम लेनेकी विद्या ), १४ - चित्रयोग ( अवस्था परिवर्तन करना अर्थात् नपुंसक करना, जवानको बुढ्ढा और बुड्ढेको जवान करना इत्यादि ), १५ - माल्यग्रन्थ-विकल्प ( देवपूजनके लिये या पहननेके लिये माला गूँथना ), १६ - केश शेखरा - पीड़ - योजन सिरपर फूलोंसे अनेक प्रकारकी रचना करना या सिरके बालोंमें फूल लगाकर गूँथना ), १७ - नेपथ्ययोग ( देश-कालके अनुसार वस्त्रआभूषण आदि पहनना ), १८ - कर्ण-पत्र-भंग ( कार्नोके लिये कर्णफूल आदि आभूषण बनाना ), १९ - गन्धयुक्ति (सुगन्धित पदार्थ, जैसे गुलाब, केवड़ा, इत्र, फुलेल आदि बनाना ), २० - भूषण - भोजन, २१ - इन्द्रजाल, २२कौचुमारयोग ( कुरूपको सुन्दर करना या मुँहमें और शरीरमें मलने आदिके लिये ऐसे उबटन आदि बनाना, जिनसे कुरूप भी सुन्दर हो जाय ), २३ - हस्तलाघव म० ना० ११
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( हाथकी सफाई, फुर्ती या लाग ), २४ - चित्रशाकापूपभक्ष्यविकार किया अनेक प्रकारकी तरकारियाँ; पूप और खाने के पकवान बनाना, सूपकर्म ), २५ - पानकरसरागासव - भोजन ( पीनेके लिये अनेक प्रकारके शर्बत, अर्क और शराब आदि बनाना ), २६ - सूचीकर्म
सीना, पिरोना ), २७ – सूत्रकर्म ( रफूगरी और कसीदा काढ़ना तथा तागेसे तरह-तरह के बेल-बूटे बनाना ), २८-प्रहेलिका ( पहेली या बुझौवल कहना और बूझना ), २९ - प्रतिमाला ( अन्त्याक्षरी अर्थात् श्लोकका अन्तिम अक्षर लेकर उसी अक्षरसे आरम्भ होनेवाला दूसरा श्लोक कहना, बैतबाजी ), ३० - दुर्वाचकयोग ( कठिन पदों या शब्दों का तात्पर्य निकालना ), ३१-पुस्तकवाचन ( उपयुक्त रीति से पुस्तक पढ़ना ), ३२- नाटिकाख्यायिका-दर्शन ( नाटक देखना या दिखलाना ), ३३काव्य- समस्या-पूर्ति, ३४- पट्टिका वेत्रवानविकल्प ( नेवाड़, बा या तसे चारपाई आदि बुनना ), ३५ - तर्क-कर्म ( दलील करना या हेतुवाद ), ३६ - तक्षण ( बढ़ई; संगतराश आदिका काम करना ), ३७ - वास्तुविद्या ( घर बनाना; इंजीनियरी ), ३८ - रूप्यरत्न- परीक्षा ( सोने, चाँदी आदि धातुओं और रत्नोंको परखना ), ३९ - धातुवाद ( कच्ची धातुओंको साफ करना या मिली धातुओंको अलग-अलग करना ), ४० - मणिराग-ज्ञान ( रत्नों के रंगोंको जानना ), ४१ - आकर शान ( खानोंकी विद्या ), ४२ - वृक्षायुर्वेदयोग ( वृक्षोंका शान; चिकित्सा और उन्हें रोपने आदि की विधि ), ४३मेष- कुक्कुटलावक- युद्ध विधि ( भेंड़े, मुर्गे, बटेर, बुलबुल आदिको लड़ाने की विधि), ४४ -- शुक-सारिकाप्रलापन (तोता मैना पढ़ाना ), ४५ –उत्सान ( उचटन लगाना और हाथ, पैर, सिर आदि दबाना ), ४६ - केशमार्जन कौशल (बालों का मलना और तेल लगाना), ४७- अक्षरमुष्टिकाकथन ( करपलाई ), ४८ – म्लेच्छितकला विकल्प ( म्लेच्छ या विदेशी भाषाओं का जानना ), ४९ -- देशभाषाज्ञान ( प्राकृतिक बोलियोंको जानना ), ५०- पुष्पशकटिकानिमित्तज्ञान ( दैवीलक्षण, जैसे बादलकी गरज, बिजलीकी चमक इत्यादि देखकर आगामी घटनाके लिये भविष्यवाणी करना ), ५१ - यन्त्रमातृका ( यन्त्रनिर्माण), ५२ -- धारणमातृका ( स्मरण बढ़ाना), ५३ - सम्पाठ्य ( दूसरेको कुछ पढ़ते हुए सुनकर उसे उसी प्रकार पढ़ देना ), ५४ - मानसी काव्य - क्रिया ( दूसरेका अभिप्राय समझकर उसके अनुसार तुरंत कविता करना या मनमें काव्य करके शीघ्र कहते जाना), ५५ - - क्रियाविकल्प ( क्रियाके प्रभावको पलटना ), ५६ - छलितकयोग ( छल या ऐय्यारी करना ), ५७ - अभिधान ( कोष-छन्दोज्ञान ), ५८ - वस्त्रगोपन
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( वस्त्रोंकी रक्षा करना ), ५९ - द्यूतविशेष (जुआ खेलना ), ६० - आकर्षण -क्रीड़ा ( पासा आदि फेंकना ), ६१ - बालक्रीडाकर्म ( लड़का खेलाना ), ६२ - - वैनायिकीविद्या -ज्ञान ( विनय और शिष्टाचार, इल्मे इखलाक वो आदाब ), ६३ - वैजयिकी विद्याज्ञान, ६४ – वैतालिकी विद्याज्ञान || - हिंदी शब्दसागरसे श्रीकृष्णको गदा और परिधके युद्ध में तथा सम्पूर्ण अस्त्रशस्त्रों के ज्ञानमें उत्कृष्ट स्थानकी प्राप्ति और समस्त लोकों में उनकी ख्याति ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८०३) । इनका मथुरा छोड़कर द्वारका में जाना तथा इनके द्वारा बड़े-बड़े असुरोंका वध ( सभा० ३८ । पृष्ठ,८०४) । भौमासुर को मारने के लिये इनसे इन्द्रकी प्रार्थना (सभा० ३८ | पृष्ठ ८०६) श्रीकृष्णद्वारा नरकासुरको मारकर माता अद्वितिके कुण्डल ला देने की प्रतिज्ञा । इनके द्वारा मुरनामक असुर, निशुम्भ, हयग्रीव, विरूपाक्ष, पञ्चजन तथा नरकासुर का वध ( सभा ० ३८ | पृष्ठ ८०७) । भूमिद्वारा इनको कुण्डल-दान ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८०८) । मणिपर्वत पर बने हुए, नरकासुर के अन्तःपुरमें इनका प्रवेश तथा नरकासुर द्वारा अपहरण करके लायी हुई कन्याओंकी गान्धर्व विवाह करने के लिये भगवान् से प्रार्थना ( सभा० ३८ । पृष्ठ ८०८-८१०) । उनकी प्रार्थना स्वीकार करके श्रीकृष्णका उन्हें द्वारका भेजना ( सभा० ३८ । पृष्ठ ८११) । इनका मणिपर्वतको गरुडपर लादकर बलरामजी और इन्द्रके साथ स्वर्गलोक में जाना, मेरुपर्वतके मध्यशिखरपर पहुँचकर श्रीकृष्ण द्वारा देवस्थानों का दर्शन; फिर देवलोक में जाकर इन्द्रभवन के निकट इनका गरुड़से उतरना, देवताओंद्वारा इनका स्वागत तथा इनका माता अदिति के चरणों में प्रणाम करके उन्हें उनके कुण्डल अर्पित कर देना ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८११ ) | 'देवमाता अदिति और इन्द्रपत्नी शचीद्वारा श्रीकृष्ण एवं सत्यभामाका सत्कार तथा वहाँसे लौटकर इन सबका द्वारकामें आगमन ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८१२ ) । इनके द्वारा मणिपर्वत ( प्राग्ज्योतिषपुर ) से लायी गयी धनराशिका वृष्णिवंशियों में वितरण ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८१८ ) । इन्द्रद्वारा श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन (सभा० ३८ | पृष्ठ ८१९ ) । शोणितपुर में इनका शिवजी से युद्ध और उनकी पराजय ( सभा० ३८ । पृष्ठ ८२३) । इनके द्वारा बाणासुरकी भुजाओंका छेदन (सभा० ३८ | पृष्ठ ८२३) । इनका रुक्मीको भयभीत करना, जाली में आहुति, क्राथ और शिशुपालको पराजित करना, शैव्य, दन्तवक्र तथा शतधन्वाको भी हराना; इन्द्रद्युम्न, कालयवन, कशेरुमान्का वध करना। द्युमत्सेनके साथ इनका युद्ध, महाबली गोपति और तालकेतुका इनके द्वारा वध, पाण्डय, पौण्ड्र, मत्स्य, कलिङ्ग और अङ्ग आदि अनेक देशों के राजाओंकी एक साथ ही पराजय ( सभा० ३८ | पृष्ठ २.८२४)। इनके द्वारा बभ्रु की पत्नीका उद्धार; पीठ, कंस, पैठक ' तथा अतिलोमा नामक असुरोंका वधः जम्भ, ऐरावत, विरूप और शम्बर आदि असुरोंका वधःभोगवती में वासुकि नागको
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जीतकर इनके द्वारा रोहिणीकुमार गदका उद्धार ( सभा० |३८|पृष्ठ ८२५) । इनकी गोदमें आते ही शिशुपालकी दो भुजाओ तथा तीसरी आँख का विनाश ( सभा० ४३ । १८ ) । " शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा कर दूँगा' ऐसा कहकर इनका श्रुतश्रवा ( अपनी बुआ ) को आश्वासन ( सभा० ४३ । २४ ) । इनके द्वारा शिशुपालका वध ( सभा० ४५ | २५ ) | यज्ञकी समाप्तिपर श्रीकृष्णद्वारा युधिष्ठिरका अभिनन्दन ( सभा० ४५ । ३९ - ४३ ) | राजसूय यज्ञमें ऋषियों सहित श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिरका अभिषेक किया (सभा० ५३ । १५-१६ ) | द्रौपदीकी लाज रखनेके लिये इनका अव्यक्तरूपसे उसके चीर में प्रवेश करके उसे बढ़ाना (सभा० ६८ । ४७ ) । इनके द्वारा रोती हुई द्रौपदीको आश्वासनप्रदान ( वन० १२ । १२८ - १३२ ) । इनका जुए के दोष बताते हुए पाण्डवोंपर आयी हुई विपत्ति में अपनी अनुपस्थितिको कारण मानना ( वन० १३ अध्याय ) । इनके द्वारा शाल्व के साथ युद्ध करने तथा सौभ विमान महित उसके नष्ट करनेका संक्षिप्त वर्णन ( वन० १४ अ० से २२ अध्यायतक ) । इनका शाल्वके साथ भीषण युद्ध ( वन० २० अध्याय ) । इनका शाल्वकी माया से मोहित होना ( वन० २१ । २२) | श्रीकृष्णद्वारा सौभविमान सहित शाल्वका वध (वन० २२ । ३६-३७) । इनका पाण्डवोंसे सम्मानित हो सुभद्रा और अभिमन्युको साथ लेकर द्वारकाको प्रस्थान (वन० २२ । ४७-४८) । प्रभासक्षेत्र में पाण्डवोंसे भेंट और सात्यकिंके वचनोंका इनके द्वारा समर्थन ( वन ०१२०/२३२६ ) । काम्यकवनमें पाण्डवों के पास इनका आगमन और इनके द्वारा उन्हें आश्वासन ( वन० १८३ | १६-३६)। मार्कण्डेयजीको कथा कहनेके लिये प्रेरित करना ( वन० १८३ । ५० ) । द्रौपदीके स्मरण करनेपर पाण्डवों के आश्रम में प्रकट होना, बटलोईमेंसे सागका पत्ता खाकर त्रिलोकीको तृप्त करना ( वन० २६३ । १८-२५ ) । उपप्लव्यनगर में अभिमन्युके विवाहके अवसरपर जाकर युधिष्ठिर को बहुत-साधन भेंट करना ( विराट० ७२ । २४२५ ) । राजा विराटकी सभा में कौरवों के अत्याचार और पाण्डवों के धर्म-व्यवहारका वर्णन करते हुए किसी सुयोग्य दूतको कौरवों के यहाँ भेजने का प्रस्ताव ( उद्योग ० १ अध्याय)। द्रुपदको कार्यभार सौंपकर इनका द्वारकाको प्रस्थान ( उद्योग० ५ । ११ ) । दुर्योधन और अर्जुन दोनोंकी सहायता करने के लिये स्वीकृति देना ( उद्योग० ७ । १६ ) । अर्जुनका सारथ्य कर्म स्वीकार करना ( उद्योग० ७ । ३८ ) । संजयको प्रत्युत्तर देते हुए इनके द्वारा कर्मयोगका समर्थन ( उद्योग ० २९ । ६-१६ ) । इनके द्वारा वर्णधर्मका निरूपण ( उद्योग० २९ । २२-२६ ) । कौरवों के अन्यायका उद्घाटन करते
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हुए इनका संजयद्वारा धृतराष्ट्रको चेतावनीका संदेश वर्णन ( उद्योग० १४७ । १६-४३) । युधिष्ठिरसे (उद्योग० २९ । ३१-५८)। संजयद्वारा कौरवोंके द्रोणाचार्यके वचनोंका वर्णन ( उद्योग० १४८ । २लिये संदेश देना ( उद्योग० ५९ । १८-२९) । शान्ति- १६)। युधिष्ठिरसे विदुरके वचनों का वर्णन ( उद्योग स्थापनार्थ कौरवसभामें जाने के लिये उद्यत होना (उद्योग १४८ । १८-२६)। युधिष्ठिरसे गान्धारीके वचनोंका ७२ । ७९-८१)। कौरवोंके अत्याचारोंका वर्णन करके वर्णन ( उद्योग० १४८ । २९-३६)। युधिष्ठिरसे धृतयुधिष्ठिरको युद्ध के लिये प्रोत्साहन देना (उद्योग० ७३ राष्ट्रके वचनोंका वर्णन ( उद्योग. १४९ अध्याय)। अध्याय)। भीमसेनको उत्तेजित करना (उद्योग० ७५ कौरवसभामें अपने किये हुए प्रयत्नोंका वर्णन करके अध्याय)। भीमसेनको आश्वासन देना ( उद्योग० ७७ दण्डपर ही जोर देना (उद्योग. १५० । १८)धृष्टअध्याय)। अर्जुनको बातोंका उत्तर देना ( उद्योग० द्यनको प्रधान सेनापति बनानेका समर्थन ( उद्योग ७९ अध्याय)। श्रीकृष्णके द्वारा द्रौपदीको आश्वासन १५१ । ४९) । युधिष्ठिरको युद्ध करना ही कर्तव्य (उद्योग० ८२ । ४४-४९)। सात्यकिसहित रथपर बतलाना ( उद्योग० १५४ । १५)। दुर्योधनके संदेशआरूढ़ हो हस्तिनापुरको प्रस्थान (उद्योग०८३ । २९)। का उत्तर देना ( उद्योग. १६२ । ६ उद्योग मार्गमें इनका दिव्य महर्षियोंके दर्शन करना ( उद्योग० १६२ । ५७-६३)। कौरवसेनाको मारनेके लिये ८३ । ६०)। हस्तिनापुर जाते समय मार्गमें वृकस्थलमें ___ अर्जुनको आदेश (भीष्म २२ । १६)। अर्जुनको विश्राम (उद्योग० ८४ । २०-२१) श्रीकृष्णका हस्तिना- दुर्गाकी स्तुति करनेके लिये कहना (भीष्म २३ । पुरमें स्वागत ( उद्योग० ८९ । ५)। इनका राज- २)।अर्जुनको गीताका उपदेश देना (भीष्म० २६ । ११ महलमें प्रवेश ( उद्योग० ८१ । १)। विदुरके गृहमें से ४२ अध्यायतक)। कुरुक्षेत्रमें इनके द्वारा पाञ्चपदार्पण ( उद्योग० ८९ । २२)। कुन्तीसे मिलकर उन्हें जन्य नामक शङ्कका बजाया जाना (भीष्म० २५ । आश्वासन देना (उद्योग०९० । ९१-९९)। दुर्योधन- १५)। सांख्ययोगका वर्णन (भीष्म २६ । ११से उसके निमन्त्रणको अस्वीकार करनेका कारण ३०)। अज्ञानी और ज्ञानवान्के लक्षण तथा रागद्वेषसे बताना (उद्योग. ९१ । २४-३२)। विदुरके घर रहित होकर कर्म करने के लिये प्रेरणा (भीष्म० २७ । इनका भोजन और विश्राम ( उद्योग० ११ । ४१)। २५-३५)। फलसहित पृथक-पृथक यज्ञोंका कथन विदुरजीसे कौरवसभामें जानेका औचित्य बतलाना और ज्ञानकी महिमा ( भीष्म २८ । २४-४२)। (उद्योग० ९३ अध्याय)। श्रीकृष्णका कौरवसभामें सांख्ययोगी और निष्काम कर्मयोगीके लक्षण तथा प्रवेश (उद्योग० ९४ । ३३)। कौरवसभामें इनका शानयोगका वर्णन (भीष्म २९ । ७-२६)। योगभ्रष्ट प्रभावशाली भाषण ( उद्योग० ९५ अध्याय)। दुर्योधन- पुरुषकी गति और ध्यानयोगीकी महिमा (भीष्म को पाण्डवोंसे संधि करनेके लिये समझाना (उद्योग. ३० । ३७-४७)। आसुरी स्वभाववालोंकी निन्दा १२४ । ८--६२)। दुर्योधनको फटकारना ( उद्योग. और भगवद्भक्तोंकी प्रशंसा तथा अन्य देवताओंकी उपा. १२८ । २-३१)। कंस और दैत्यदानवोंका दृष्टान्त सनाका वर्णन (भीष्म० ३१ । १३-२३)। ब्रह्म देते हुए दुर्योधनको कैद करनेकी सलाह देना (उद्योग० अध्यात्म और कर्मादिका वर्णन (भीष्म ३२।३-७)। १२८ । ५०)। दुर्योधनद्वारा कैद किये जानेकी बात सकाम और निष्काम उपासनाका फल और निष्काम सुनकर इनकी सिंहगर्जना ( उद्योग० १३० । २४-२९)। भगवद्भक्तिकीमहिमा ( भीष्म० ३३।२०-३४) । श्रीकृष्णकौरवसभामें इनके विश्वरूपका दर्शन ( उद्योग० १३१।। द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्तिका कथन (भीष्म ५-१३)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रको अदृश्य नेत्र प्रदान करना ३४ । १९-४२)। इनके द्वारा अपने विश्वरूपका वर्णन और ( उद्योग० १३१ । १९) । कौरवसभासे प्रस्थान फलसहित अनन्यभक्तिका कथन ( भीष्म० ३५ । (उद्योग० १३१ । ३७-३८) । कुन्तीके पास जाकर ५-१८, ५५) । साकार-निराकारके उपासकों और पाण्डवोंसे कहनेके लिये संदेश पूछना (उद्योग. भगवत्प्राप्तिके उपाय तथा भगवत्प्राप्त पुरुषोंके लक्षणोंका १३२।४)। कर्णके साथ मन्त्रणा तथा उपप्लव्यनगरको वर्णन (भीष्म०३६ । १-२०)। क्षेत्र-क्षेत्र तथा प्रस्थान ( उद्योग० १३७ । २९-३०)। कर्णको पाण्डव- ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुषका वर्णन ( भीष्म० ३७ । १पक्षमें आनेके लिये समझाना ( उद्योग. १४०। ६- ३४)। सत् रज और तम तथा भगवत्प्राप्तिके उपाय २९)। कर्णसे पाण्डवोकी निश्चित विजयका प्रतिपादन और गुणातीत पुरुषके लक्षण ( भीष्म० ३८ । ५करते हुए युद्धकी तिथि निर्धारित करना (उद्योग. २०)। जीवात्माके विषय, प्रभावसहित परमेश्वरके स्वरूप १४२ । १७-२०) । युधिष्ठिरसे भीष्मके वचनोंका तथा चर-अक्षर तथा पुरुषोत्तमका वर्णन (भीष्म ३९ ।
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७-२० )। दैवी और आसुरी सम्पदा तथा आसुरी सम्पदावालोंके लक्षण और उनके अधोगतिका वर्णन (भीष्म०४०।१-२०)। आहार, यज्ञ, तप और दानके पृथक-पृथक भेद (भीष्म० ४१।७-२२)। शान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुखके पृथक-पृथक भेद (भीष्म० ४२ । १९-४०)। कर्णको पाण्डवोके पक्षमें आनेके लिये समझाना (भीष्म० ४३१९-९१)। भीष्मके पराक्रमसे चिन्तित हुए युधिष्ठिरको आश्वासन देना (भीष्म ५० । २६-३०)। चक्र लेकर भीष्मको मारनेके लिये उद्यत होना ( भीष्म० ५९ । ८८-८९)। भीष्मद्वारा इनकी महिमाका वर्णन ( भीष्म० ६५।। २५ से ६८ अ. तक ) । भीष्मको मारनेके लिये अर्जुनको चेतावनी ( भीष्म० १०६ । ३३-३७)। चाबुक लेकर भीष्मके वधके लिये दौड़ना (भीष्म० १०६ । ५५-५७)। भीष्मके पराक्रमसे दुःखित युधिष्ठिरको सान्त्वना देना ( भीष्म० १०७ । २६-४०)। भीष्मके पास चलनेके लिये युधिष्ठिरके प्रस्तावकी स्वीकृति ( भीष्म० १०७ । ५२-५५ )। भीष्म-वधके लिये उद्यत न होनेवाले अर्जुनको समझाना (भीष्म० १०७ । ९६-१०२ ) । भीष्मका वध करनेके लिये अर्जुनको प्रेरित करना (भीष्म० ११८ । ३५-३६ ) । भीष्मके मारे जानेपर युधिष्ठिरसे वार्तालाप ( भीष्म० १२० । ६६-६७)। धृतराष्ट्रद्वारा इनकी लीलाओंसहित महिमाका वर्णन (द्रोण० ११ । १-४०)। भगदत्तद्वारा अर्जुनपर चलाये हुए वैष्णवास्त्रको अपनी छातीपर लेना (द्रोण० २९ । १८)। अर्जुनके पूछनेपर वैष्णवास्त्रका रहस्य बताकर भगदत्तको मारनेका आदेश देना (द्रोण. २९ । २५-३४, ४४-४५ ) । अभिमन्यु-वधसे दुखी होकर विलाप करते हुए अर्जुनको शान्त करना (द्रोण. ७२ । ६६-७४) । अर्जुनसे जयद्रथकी रक्षाका समाचार बताना (द्रोण. ७५ अ० में)। पुत्रशोकसे दुखी सुभद्राको आश्वासन देना (द्रोण० ७७ । १२-२६)। विलाप करती हुई द्रौपदी, सुभद्रा और उत्तराको आश्वासन
देना (द्रोण. ७८ । ४०-४२)। अर्जुनकी विजयके लिये समयपर रथ तैयार करके लानेके लिये दारुकको आदेश देना ( द्रोण० ७९ । २१-४२)। सोते हुए अर्जुनको स्वप्नमें दर्शन देना और उनसे वार्तालाप करके शिवजीके पास ले जाना (द्रोण० ८० । २-४९)। इनके द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति (द्रोण ८० । ५५-६४)। जयद्रथ-वध के लिये युधिष्ठिरको आश्वासन (द्रोण० ८३ । २१-२८)। इनके द्वारा शङ्ख बजाया जाना (द्रोण.८८ । २.)। द्रोणाचार्यको छोड़कर आगे बढ़नेके लिये अर्जुनको प्रेरणा (द्रोण. ९१।
३०-३१ ) । घोड़ोंको पिलानेके लिये जल प्रकट करनेके हेतु अर्जुनको प्रेरित करना (द्रोण० ९९ ॥ ५८)। इनके द्वारा संग्रामभूमिमें अश्वपरिचर्या (द्रोण. १००। १०-१६ ) । अर्जुन को दुर्योधनका वध करनेके लिये प्रोत्साहन (द्रोण. १०२ । १-१८)। दुर्योधनपर बाणोंको विफल होते देख अर्जुनको उपालम्भ ( द्रोण. १०३ । ६-१०)। अर्जुनको सात्यकिके आगमनकी सूचना देना (द्रोण. १४१।१३-२५)। भूरिश्रवाके चंगुलसे सात्यकिको छुड़ानेके लिये अर्जुनको प्रेरित करना (द्रोण. १४२ । ६४-६५)। भूरिश्रवाको मुक्त होनेका वरदान (द्रोण. १४३ । ४८)। मायाद्वारा अन्धकारकी सृष्टि करके जयद्रथ वधके लिये अर्जुनको प्रेरित करना (द्रोण० १४६ । ६२-७२)। जयद्रथके सिरको उसके पिताकी गोदमें डालनेके लिये कहना और उसका रहस्य बताना (द्रोण०१४६ । १०४-११९, । जयद्रथ वधके पश्चात् मायारूपी अन्धकारको समेट लेना ( द्रोण. १४६ । १३२)। कर्णके साथ अर्जुनको युद्ध करनेसे मना करना (द्रोण. १४७ । ३३-३६ ) । जयद्रथ-वधके बाद अर्जुनको बधाई देना (द्रोण० ११८ । २५-३२)। अर्जुनको संग्रामका दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिरके पास ले जाना (द्रोण० १४८ । ३६-५९ ) । जयद्रथ-वधके बाद युधिष्ठिरको विजयका समाचार बताना (द्रोण. १४९।२)। युधिष्ठिरके क्रोधको ही शत्रु-वध कारण बताना (द्रोण. १४९ । ४५-५१)। युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करनेसे रोकना (द्रोण. १६२ । ४७-५१ )। आधी रातके समय कर्णके साथ अर्जुनके युद्धका अनौचित्य बताकर घटोत्कचको भेजनेके लिये अनुमति देना (१७३ । ३५-४१)। घटोत्कचको कणके साथ युद्ध करनेके लिये आदेश देना (द्रोण. १७३ । ४५-५८)। अर्जुनसे भिन्न-भिन्न महारथियोंका सामना करनेके लिये व्यवस्था बताना (द्रोण. १७७ । ३३-३६)। अलायुधका वध करनेके लिये घटोत्कचको प्रेरित करना ( द्रोण० १७८ । २-३) । अर्जुनद्वारा घटोत्कचके वधसे प्रसन्नताका कारण पूछे जानेपर कर्णकी प्रशंसा करते हुए अपनी प्रसन्नताका कारण बताना (द्रोण. १८०। ११-३३)। अर्जुनसे जरासंध आदि धर्मद्रोहियोंके वधका कारण बताना (द्रोण. १८१ । २-३३)। सात्यकिसे कर्णद्वारा अर्जुनपर शक्ति न छोड़े जानेका कारण बताना (द्रोण. १८२ । ३५-४६)। घटोत्कच वधसे दुखी युधिष्ठिरको समझाना (द्रोण. १८३ | २४-२६)। द्रोणाचार्य के वधकी युक्ति बताना (द्रोण० १९० । १०-१२) । युधिष्ठिरको छलपूर्वक अश्वत्थामाके मारे जानेकी झूठी बात कहनेको विवश
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करना (डोण. १९० । ४६-१७)। नारायणास्त्रको
बलरामजीको समझाना (शल्य०६०१४-२५के बादतक)। शान्त करनेका उपाय बताना (द्रोण. १९९।३८-४२)। भीमसेनद्वारा किये जाते हुए अधर्मपूर्ण बर्तावको आप भीमसेनको रथसे खींचकर नारायणास्त्रको शान्त करना चुपचाप देखते क्यों हैं ? उन्हें रोकते क्यों नहीं ? यह (द्रोण० २०० । १५-१७)। अर्जुनको युद्धस्थलका युधिष्ठिरसे पूछना ( शल्य० ६० । ३३-३४)। इनके भीषण दृश्य दिखाना ( कर्ण० १९ । २८-५३ )। द्वारा दुर्योधनपर आक्षेप (शल्य० ६१ । १८-२३)। अश्वत्थामाके साथ युद्ध में शिथिल देखकर अर्जुनको चेतावनी दुर्योधनद्वारा किये गये आक्षेपोंका इनकी ओरसे उत्तर देना (कर्ण० ५६ । १३५-१३८) । अर्जुनको युद्ध- (शल्य०६१।३९-५०)। इनके द्वारा पाण्डवोंका समाधान भूमिका दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिरके पास ले जाना
(शल्य०६११६१-६९)।इनका अर्जुनकोरथसे उतरनेके लिये ( कर्ण० ५८ । १०-४१ ) । अर्जुनसे धृष्टद्युम्नको आदेश देना (शल्य०६२।९-१०)।अर्जुनद्वारा रथके दग्ध अश्वत्थामाके चंगुलसे छुड़ानेको कहना ( कर्ण० ५९ ।। होनेका कारण पूछनेपर इनका उत्तर (शल्य० ६२ । ४७-४९) । अर्जुनसे दुर्योधन और कर्णके पराक्रमका १८-१९)। इनके द्वारा युधिष्ठिरका अभिनन्दन (शल्य. वर्णन करके कर्णको मारने के लिये उन्हें उत्साहित करना ६२ । २१-२७)। युधिष्ठिरके भेजनेसे हस्तिनापुरको
और भीमसेनके पराक्रमका वर्णन करना ( कर्ण० ६० जाना (शल्य. ६२ । ४५ शल्य. ६३ । ३४) । अध्याय)। घायल युधिष्ठिरको देखनेके बहाने अर्जुनको धृतराष्ट्रको आश्वासन देना (शल्य० ६३ । ४०-५८)। कर्णके पाससे हटा लेना ( कर्णः ६४ । ६६)। अर्जुनके गान्धारीको प्रबोधन (शल्य०६३ । ५९-६५)। हस्तिनासाथ युधिष्ठिरके पास जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करना पुरसे शिविरको लौटना ( शल्य. ६३ । ७८ )। (कर्ण०६५। १७)। युधिष्ठिरके वधसे अर्जुनको रोकनेके अश्वत्थामाकी चपलता और क्रूरताके प्रसङ्गमें सुदर्शनचक्रके प्रसंगमें बलाक व्याध और कौशिक ब्राह्मणकी कथा कहकर माँगनेकी बात सुनाते हुए युधिष्ठिरको उससे भीमसेनकी समझाना और युधिष्ठिरको स्त' शब्द कहनेमात्रसे रक्षा करने के लिये प्रयत्न करनेका आदेश देना (सौप्तिक. अर्जुनकी प्रतिज्ञा-पूर्ति बताना (कर्ण० ६९ अध्याय)। १२ अध्याय)। अर्जुन और युधिष्ठिरको साथ लेकर अर्जुनको आत्महत्यासे बचाना (कर्ण. ७० । २३-२४)। भीमसेनकी रक्षाके लिये जाना (सौप्तिक० १३ । १युधिष्ठिरको प्रसन्न करना (कर्ण० ७० । ४९-५५)। १)। अर्जुनको ब्रह्मास्त्र प्रकट करनेका आदेश देना अर्जुनको उपदेश (कर्ण० ७१।३-१२)। कर्ण-वधके (सौप्तिक० १४ । २-३ ) । इनके द्वारा अश्वत्थामाको लिये अर्जुनको प्रोत्साहन (कर्ण०७२।१७ से७३ अध्याय- शाप (सौप्तिक० १६ । ८-१६) । महादेवजीकी तक)। कर्ण वधके लिये अर्जुनको प्रोत्साहन ( कर्णः महिमाका प्रतिपादन (सौप्तिक० १७ । ६-२६)। ८६ । २-१६) । कर्णवध के लिये अर्जुनको प्रात्साहन इनका धृतराष्ट्रको समझाना (स्त्री० १२ । २३-३०)। (कर्णः ८९ । ४३-४८) । कर्णके सर्पमुख बाणसे धृतराष्ट्रको फटकारकर उनका क्रोध शान्त करना (स्त्री० अर्जुनकी रक्षा करना ( कर्ण० ९० । २९-३१)। १३ । २-११)। गान्धारीद्वारा अपनेको दिये गये धर्मकी दुहाई देनेपर कर्णको चेतावनी देना (कर्ण शापका समर्थन (स्त्री० २५। ४८-४९)। गान्धारीको ९१ । १-१४)। कर्ण-वधका शुभ समाचार सुनानेके सान्त्वना देना (स्त्री० २६ । १-५)। नारद-संजयलिये अर्जुनसे युधिष्ठिरके पास चलनेको कहना और संवादरूपमें षोडशराजकीयोपाख्यान सुनाकर युधिष्ठिरसैनिकोंको युद्धकी व्यवस्थाका आदेश देना ( कर्ण० को समझाना (शान्ति. ३९ अध्याय)। युधिष्ठिरके ९६ । २-११ )। युधिष्ठिर के पास पहुँचकर कर्ण- पूछनेपर नारद-पर्वत-उपाख्यान सुनाना (शान्ति० ३० वधका समाचार सुनाना ( कर्ण० ९६ । १८- अध्याय)। व्यासजीकी बात माननेके लिये युधिष्ठिरको २३ ) । शल्यका वध करनेके लिये युधिष्ठिरको समझाना (शान्ति० ३७ । २१-२५)। युधिष्ठिरसे उत्साहित करना ( शल्य० ७ । २५-४१)। चार्वाकको प्राप्त हुए वर आदिका वर्णन करना (शान्ति. अर्जुनसे दुर्योधनको मारनेके लिये कहना (शल्य. ३९ अध्याय) । भीष्मकी प्रशंसा और युधिष्ठिरको २७ । ३-१२)। युधिष्ठिरको क्रियात्मक प्रयोगद्वारा उनके पास चलनेका आदेश (शान्ति० ४६ । ११
___२३)। युधिष्ठिरको परशुरामोपाख्यान सुनाना (शान्ति. ६-१५) । युधिष्ठिरको फटकारना (शल्य० ३३ । २- ४९ अध्याय) । भीष्मजीके गुण-प्रभावका सविस्तर १६) । अर्जुनसे भीमसेन और दुर्योधनके बलाबलका वर्णन वर्णन करते हुए उनसे युधिष्ठिरका शोक दूर करनेके करके मायाद्वारा दुर्योधनको मारनेकी सलाह देना लिये कहना (शान्ति० ५०। १३-३८)। भीष्मकी (शल्य. ५८ । ३-२०)। दुर्योधनके वधसे कुपित प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिरको धर्मोपदेश करनेका आदेश
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( ८६ )
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(शान्ति० ५१ । १०-१८)। धर्मोपदेशके लिये भीष्म- को वरदान (शान्ति. ५२ । १४-२१)। इनकी मातश्चर्या (शान्ति० ५३ । १-९)। भीष्मद्वारा ही धर्मोपदेश होनेका कारण बताते हुए उन्हें उपदेश करनेको कहना (शान्ति. ५४ । २५-३९) । भीष्मसे युधिष्ठिरके लज्जित और भयभीत होनेका कारण बताना (शान्ति० ५५ । ११-१३)। जाति-भाइयोंमें फूट न पड़नेके विषयमें नारदजीसे पूछना (शान्ति०८१ अध्याय)। इन्हींसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन करना (शान्ति० २०७ अध्याय)। उग्रसेनसे नारदजीके गुणोंका वर्णन करना ( शान्ति. २३० । ४-२४)। अर्जुनको अपने नामोंकी व्युत्पत्ति बताना (शान्ति. ३४१ । ४-५१)। अर्जुनसे सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्थाका वर्णन करना (शान्ति० ३४२ । ३-२१)। अर्जुनसे अपने नामों की व्याख्या करना ( शान्ति. ३४२१६७-११६)। युधिष्ठिरसे महादेवजीके माहात्म्यकी कथाके प्रसंगमें उपमन्युकी कथा सुनाना और अपनी तपस्या तथा दर्शन पानेका वृत्तान्त बताना (अनु० १४ अध्याय) भगवती उमासे आठ वरदान माँगना (अनु० १५।६)। उपमन्युके साथ शिवजीके विषयमें वार्तालाप ( अनु० १६ अध्याय )। इनके द्वारा भगवान् शिवकी महिमाका वर्णन (अनु० १८ । ६१-८३)। नारदजीसे पूजनीय पुरुषोंके लक्षण पूछना ( अनु० ३१ । २१)। पृथ्वीसे गृहस्थोंके पापनाशक अनुष्ठानके विषयमें प्रश्न करना ( अनु० ३४ । २१)। गिरगिटयोनिसे नृगका उद्धार करना (अनु०७०।७)। नृगसे उनकी दुर्गतिका कारण पूछना (अनु० ७०1८-९) । ब्राह्मणका धन न लेनेके विषयमें घोषणा करना (अनु० ७०। ३१) । पृथ्वी देवीसे गृहस्थधर्मके विषयमें पूछना (अनु. ९७ । ४)। पर्वतको जलाकर पुनः उसे प्रकृतिस्थ करना (अनु० १३९ । १६-२१)। ऋषियोंके पूछनेपर इसका रहस्य बताना (अनु० १३९ । ३०-४४)। भीष्मजीद्वारा इनकी महिमाका वर्णन (अनु० १५८ अध्याय)। युधिष्ठिरको ब्राह्मणकी महिमा सुनानेके प्रसंगमें प्रद्युम्नके पूछनेपर दुवोंसाका चरित्र कहना (अनु० १५९ अध्याय)। युधिष्ठिरके प्रति शिवजीकी महिमाका वर्णन करना (अनु० १६० अध्याय से १६३ अध्यायतक) । भीष्मको देह- त्यागके लिये अनुमति प्रदान करना (अनु० १६७ । ४६-४७)। भीष्मके लिये शोक करती हुई गङ्गाको आश्वासन देना (अनु० १६८ । ३०-३५)। शोकाकुल युधिष्ठिरको समझाना (आश्व० २।२-८)। युधिष्ठिरको विविध दृष्टान्तोंद्वारा समझाना (आश्व० ११ अ० से १३ अध्यायतक ) । अर्जुनसे अपने द्वारका जानेका
प्रस्ताव करना (आश्व० १५। १२-३४)। अर्जुनके पूछनेपर पुनः गीताका ज्ञान सिद्ध महर्षि और काश्यपके संवादरूपसे सुनाना ( आश्व० १६ । ९ से १८ अध्याय तक)। पुनः ब्राह्मणगीताके द्वारा ज्ञानोपदेश करना (आश्व० २० अध्यायसे ३४ अध्यायतक) । अर्जुनके प्रति गुरु-शिष्यके संवादरूपमें ब्रह्मा और महर्षियोंके प्रश्नोत्तररूप मोक्षधर्मका वर्णन ( आश्व० ३५ अध्यायसे ५१ अध्यायतक)। युधिष्ठिरकी आज्ञा पाकर सुभद्रा
और सात्यकिके साथ द्वारकाको प्रस्थान (आश्व० ५२ । ५४-५८)। उत्तङ्क मुनिके पूछनेपर कौरवों-पाण्डवोका समाचार सुनाना ( आश्व० ५३ । १५-१८)। उत्तङ्क मुनिसे अध्यात्मतत्त्वका वर्णन करना (आश्व० ५४ । २१९)। उत्तङ्क मुनिको विश्वरूपका दर्शन कराना (आश्व० ५५ । ४-६)। उत्तङ्क मुनिको दर्शन देकर चाण्डालरूपधारी इन्द्रका रहस्य बताते हुए मरुदेशमें उत्तङ्क नामक मेघोंद्वारा वर्षा होनेका वर देना ( आश्व० ५५ । २६-३७)। रैवतक पर्वतपर होनेवाले महोत्सवमें सम्मिलित होना ( आश्व० ५९ | ३-४ )। उस महोत्सवसे अपने महलमें पधारना ( आश्व० ५९ । १६)। वसुदेवजीके पूछनेपर महाभारतयुद्धका वृत्तान्त सुनाना (आश्व० ६० । ६-३६)। वसुदेवजीके पूछनेपर अभिमन्यु-वधका वृत्तान्त सुनाना ( आश्व०६१। १५४२)। इनके द्वारा अभिमन्युका श्राद्ध-कर्म ( आश्व० ६२ । २-५)। इनका हस्तिनापुरमें आगमन और उत्तराके मृतबालकको जिलाने के लिये कुन्तीकी इनसे प्रार्थना ( आश्व० ६६ अध्याय )। उत्तराके मृतबालकको इनके द्वारा जीवनदान (आश्व० ६९ । १६-२४)। उत्तराके उक्त शिशुका नामकरण (आश्व० ७० । १११२)। श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको अश्वमेध यज्ञके लिये सम्मति देना (आश्व०७१ । २३-२६)। श्रीकृष्णका बलराम आदिके साथ आगमन और युधिष्ठिरको अर्जुनका संदेश सुनाना तथा उनके अधिक कष्ट उठानेका कारण बताना ( आश्व० ८६। १३-२१)। ब्राह्मणोंको दक्षिणा देनेके सम्बन्धमें युधिष्ठिरको व्यासजीकी आज्ञा माननेके लिये कहना (आश्व० ८९ ॥ १८-१९)। इनका युधिष्ठिरसे विदा लेकर बन्धुओसहित द्वारकाको लौटना (आश्व० ८९ । ३७-३८)। भगवान् श्रीकृष्णद्वारा युधिष्ठिरको वैष्णवधर्म-सम्बन्धी विविध विषयोंका उपदेश ( आश्व० ९२। दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ६३०८ से ६३५२ तक)। शापकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्णका वृष्णिवंशियोंकी ऐसी ही भवितव्यता है। ऐसा कहकर नगरमें प्रवेश करना (मौसल० १ । २३-२४ )। मदिरानिर्माण-निषेधकी आज्ञा जारी करना ( मौसल. १ । २९-३१)।
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( ८७ )
कृष्णवेणा
द्वारकामें भयंकर उत्पात देखकर भगवान् श्रीकृष्णका अन्धकवृष्णिनाथ, असित, आत्मा, अव्यक्त, अव्ययः यदुवंशियोंको तीर्थयात्राके लिये आज्ञा देना (मौसल. भोजराजन्यवर्धन, भूतेश्वर, भूतपति भूतात्मा, भूतेश, २ अध्याय ) । सात्यकि और प्रद्युम्नको मारा हुआ देख चक्रधर, चक्रधारी, चक्रगदाभृत्, चक्रगदाधर, चक्रगदाश्रीकृष्णका कुपित हो एक मुट्ठी एरका उठाना और भोज पाणि, चक्रपाणि, चक्रायुध, शैव्यसुग्रीववाहन, शम्भु, शङ्खतथा अन्धक कुलके प्रमुख योधाओंका संहार करना चक्रगदाधर, शङ्खचक्रगदाहस्त, शङ्खचक्रगदापाणि, ( मौसल. ३ । ३५-३७ )। साम्ब और गदके मारे शङ्खचक्रासिपाणि, शाङ्खचक्रगदाधर, शाङ्गचक्रासिपाणि जानेपर कुपित हुए श्रीकृष्णद्वारा समस्त यादवोंका संहार शार्ङ्गधनुर्धर, शार्ङ्गधन्वा, शाङ्गगदापाणि, शार्ङ्गगदासि(मौसल० ३। ४४-४७)। श्रीकृष्णका बलरामजीको । पाणि, शाङ्गों, शौरि, शूलभृत्, शूली, दाशाह, दशाईएक वृक्षके नीचे ध्यान लगाये बैठे हुए देखना और भर्ता, दशार्हाधिपति, दाशार्हकुलवर्धन, दाशार्हनन्दन, दारुकको अर्जुनके पास भेजकर संदेश कहलाना (मौसल. दाशाईनाथ, दाशार्हसिंह, दाशार्हवीर, दामोदर, देवदेव, ४ । १-३ )। इनका बलरामजीसे अपनी प्रतीक्षाके देवदेवेश, देवदेवेश्वर, देवकीमातः, देवकीनन्दन, देवकी लिये कहकर स्त्रियोंको कुटुम्बी जनोंके संरक्षणमें सौपनेके पुत्र, देवकीसुता देवकीतनय, गदाग्रज, गदपूर्वज लिये द्वारका जाना और पितासे अर्जुनके आनेतक गरुडध्वज, गोपाल, गोपेन्द्र, गोपीजनप्रिय, गोविन्द, स्त्रियोंका संरक्षण करनेकी बात कहकर स्वयं तपके लिये इलधरानुज, हरि, हृषीकेश, जनार्दन, कंसकेशिनिषूदन बलरामजीके पास जाने का विचार प्रकट करना ( मौसल. कंसनिषूदन, कौस्तुभभूषण, केशव, केशिहन्, केशिहन्ता, ४ । ७-१०)। उनका रोती हुई स्त्रियोंको आश्वासन केशिनिषूदन, केशिसूदन, महाबाहु, पीतवासा, रमानाथ, दे अर्जुनके आनेकी बात बताकर चल देना और वनके रामानुज, सङ्कर्षणानुज, सर्वदाशाईहर्ता, सर्वनागरिपुध्वज, एकान्त प्रदेशमें बलरामजीके पास जाकर उनके मुखसे सर्वयादवनन्दन, सत्य, सुपर्ण केतु, ता_ध्वज, तार्क्ष्यलक्षण) एक विशाल सर्पको निकलकर समुद्र की ओर जाते देखना त्रैलोक्यनाथ, त्रियुग, वासुदेव, वसुदेवपुत्र, वसुदेवसुत, (मौसल०४ | १२-१३)। बलरामजीके परमधाम- वसुदेवात्मज, व्रजनाथ, वृष्णिशार्दूल, वृष्णिश्रेष्ठ, वृष्णिगमनके पश्चात् उनका वनमें विचरना ! बीती बातों और कुलोद्वह, वृष्णिनन्दन, वृष्णिपति, वृष्णिप्रवर, वृष्णिप्रवीर, घटनाओंको याद करके उनपर विचार करना। गान्धारी वृष्णिपुङ्गव, वृष्णिसत्तम, वृष्णिसिंह, वृष्णिजीव,
और दुर्वासाके कथनको भी ध्यानमें लाना और परम- वृष्ण्यन्धकपति, वृष्ण्यन्धकोत्तम, यादव, यादवशार्दूल, धामको जानेके लिये किसी निमित्तकी प्रतीक्षा करते हुए यादवश्रेष्ठ, यादवाया यादवनन्दन यादवेश्वर, यदुशार्दूल) योगयुक्त होकर पृथ्वीपर लेटना, जरानामक व्याधके यदुश्रेष्ठ, यदूद्वह, यदुकुलश्रेष्ठ, यदुकुलनन्दन, यदुबाणसे तलुओंमें घाव हो जानेपर अपने तेजसे प्रकाशित कुलोदह, यदुनन्दन, यदुप्रवीर, यदुपुङ्गव, यदुसुखावह, होते हए ऊर्ध्वलोकको जाना, वहाँ उनका स्वागत होना यदूत्तम, यदुवंशविवर्धन, यदुवर, यदुवीर, यदुवीर
और इन्द्र आदि देवताओंसे मिलना ( मौसल.। मुख्य, योगेश्वर, योगीश, योगीश्वर, योगी इत्यादि । १८-२८)। अर्जुनद्वारा इनके शरीरका दाह-संस्कार होना कृष्णकर्णी--स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य. (मौसल. ७।३१)। दिव्यधाममें इनकी नारायणरूपसे ४६।२४)। स्थिति ( स्वर्गा० ५ । २४-२६)। इनकी पटरानियों से कृष्णकेश--स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६१ )। रुक्मिणी, गान्धारी, शैव्या, हेमवती तथा जाम्बवती---इन
कृष्णद्वैपायन-महर्षि पराशरके पुत्र-सत्यवतीनन्दन पाँचोंने पतिलोककी कामनासे अग्निमें प्रवेश किया ।
व्यास ( आदि. १ । १०, ५५ ) । हस्तिनापुर जाते सत्यभामा तथा अन्य दो देवियोंने तपस्याका निश्चय करके
समय मार्ग में श्रीकृष्णसे भेंट ( उद्योग० ८३ । ६४ के वनमें प्रवेश किया (मौसल.७ । ७३-७४)। शेष सोलह हजार रानियाँ दस्युओंके हाथोंसे छूटकर सरस्वतीके
__ बाद दाक्षिणात्य पाठ) (विशेष-देखिये व्यास)। जलमें कूद पड़ी और स्वर्गमें भगवान्से जा मिली (स्वर्गा० कृष्णपर्वत–कुशद्वीपका एक पर्वत, जो गौर' नामक ५। २५)।(इनकी सभी रानियोंसे दस-दस पुत्र उत्पन्न
मैनसिलके पर्वतसे पश्चिमभागमें स्थित एवं नारायणको हुए थे । इनमें प्रद्युम्न, साम्ब, चारुदेष्ण आदि विशेष प्रिय है ( भीष्म० १२ । ४)। प्रधान हैं।)
कृष्णवर्मा--अग्निदेवका एक नाम, जिसका आस्तीकने महाभारतमें आये हुए कृष्णके नाम-अच्युता जनमेजयके सर्पसत्रमें अग्निकी स्तुति करते हुए उच्चारण
अधिदेव, अधोक्षज, आदिदेव, अज, अमध्य, अनादि, किया था (आदि०५५। १०)। अनादिमध्यपर्यन्त, अनादिनिधन, अनाद्य, अनन्त, कृष्णवेणा-दक्षिण भारतकी एक पवित्र नदी, जिसके
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कृष्णा
( ८८ )
केरल
देवकुण्ड (जातिस्मर ह्रद ) में स्नानसे पूर्वजन्मकी स्मृति
मान--(१) एक दानव, कश्यपपत्नी दनुका पुत्र होती है( सभा० ९ । २०, वन० ८५। ३७, भीष्मः (आदि० ६५ । २४) । यही अमितौजा' नामक ९। २८)। यह अग्निका उत्पत्ति-स्थान है ( वन. पाञ्चाल क्षत्रिय वीरके रूपमें उत्पन्न हुआ था ( आदि० २२२ । २६)।
६७।११)। अमितौजा' पाण्डवपक्षका महारथी वीर कृष्णा -(१) द्रौपदी, जो यज्ञवेदीसे उत्पन्न हुई थी
था। (२) युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होनेवाले एक (आदि० ६३ । ११०) (विशेष---देखिये द्रौपदी)। राजा (सभा० ४ । २७ ) । कलिङ्गराज श्रुतायुधका (२) एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है
मित्र । कौरवपक्षीय योद्धा (भीष्म० १७ । ३२)। (भीष्म० ९ । ३३)। (३) दुर्गाजीका एक नाम भीमसेनके साथ युद्ध और इनके द्वारा इसका वध (विराट० ६ । ९)। (४)स्कन्दकी अनुचरी मातृका
(भीष्म० ५४ । ७७)। (३) युधिष्ठिरकी सभाको (शल्य०४६ । २२)।
सुशोभित करनेवाले एक नरेश, जो पूर्वोक्त केतुमान्' से कृष्णात्रेय--एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने तपोबलद्वारा
भिन्न थे (सभा०४ । ३२)। ये पाण्डवपक्षके योद्धा चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद ) का सबसे पहले ज्ञान प्राप्त
थे, धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन ( द्रोण. किया (शान्ति० २१० । २१)।
१०। ६४) । (४) द्वारकापुरीमें भगवान् श्रीकृष्णके
एक प्रासादका नाम, जिसमें भगवान्की पत्नी सुदत्ताजी कृष्णानुभौतिक-एक महर्षि, जो उत्तरायणके आरम्भमें
रहती थीं। (सभा० ३८१२९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ,पृष्ट शरशय्याशायी भीष्मजीको देखनेके लिये पधारे थे
८१५, कालम २)। (शान्ति० ४७ । ११)। कृष्णौजा-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७५)।
केतुमाल-जम्बूद्वीपके नौ वर्षों से एक, जो देवोपम पुरुषों
और सुन्दरी स्त्रियोंकी निवासभूमि था, इसे अर्जुनने जीता केकय-(१) एक भारतीय जनपद (व्यास और
था (सभा० २८ । ६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। यह शतलजके बीचका भूभाग ) (भीष्म० ९ । ४८)।
द्वीप या वर्ष मेरुपर्वतके पश्चिम भागमें है, यहीं जम्बूखण्ड दशरथपत्नी कैकेयीके पिताका राज्य यहीं था, इसीसे वह
प्रदेश है, जहाँके निवासी दस हजार वर्षोंकी आयुवाले कैकेयी कहलाती थी (वन० २७७ । १५)। (२)
होते हैं ( भीष्म ६ । १३, ३१-३२) । यहाँके पुरुष (कैकय अथवा कैकेय) केकय देशके निवासी या अधिपति,
सुनहले रंगके और स्त्रियाँ अप्सराओंके समान सुन्दरी राजा एवं राजकुमार विशेषतः केकयदेशीय पाँच राजकुमार,
होती हैं। इन्हें कभी रोग-शोक नहीं होता (भीष्म० जो परस्पर भाई थे और पाण्डवपक्षमें सम्मिलित थे
६ । ३२-३३)। (वन० १२० । २६)। इनका द्रोणाचार्यके साथ युद्ध ।
केतुमाला-पश्चिममें जम्बूमार्गके अन्तमें एक तीर्थ (द्रोण० २१ । २३-२९)। ये द्रोणाचार्यद्वारा मारे
(वन० ८९ । १५)। गये थे ( स्त्री० २५ । १५ ) । इनका दाह-संस्कार (स्त्री० २६ । ३६)। (३) दो केकय-राजकुमार
केतुवर्मा-एक त्रिगर्तदेशीय राजकुमार, जो त्रिगर्तराज विन्द और अनुविन्द दुर्योधनके पक्षमें थे, जो सात्यकिद्वारा
सूर्यवर्माका छोटा भाई था । यह आश्वमेधिक अश्वकी मारे गये थे (कर्ण० १३ । २०-३६ )। (४) एक रक्षाके लिये गये हुए अर्जुनके साथ लोहा लेकर उन्हींके सूतराज, जो इसी ( केकय ) नामसे विख्यात था। इसकी
हाथों मारा गया (आश्व० ७४ । १४-१५)। दो मालव-कन्याएँ पत्नियाँ थी--बड़ी मालवीसे कीचक- केतुशृङ्ग-एक प्राचीन नरेश, जो कालके अधीन हो चुके उपकीचक पैदा हुए थे और छोटीसे कैकेयी सुदेष्णाका है (आदि०१।२३७)। जन्म हुआ था, जो राजा विराटसे ब्याही गयी थी केदार-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक तीर्थ, यहाँ स्नानसे पुण्य
(विराट० १६ । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ १८९३)। की प्राप्ति (वन० ८३ । ७२)। केतु-(१)एक ग्रह, एक ही राहुके शिरश्छेदसे सिर और धड़ केरल-(१) एक म्लेच्छ जाति, वशिष्ठकी होमधेनु'
अलग-अलग हो गये थे (आदि० १९। ६-८)। यह नन्दिनीने अपने मुँहके फेनसे केरल, हूण आदि दस राहुके शरीरका धड़ या पुच्छभाग माना गया है। अर्जुन प्रकारके म्लेच्छोंकी सृष्टि की ( आदि० १७४ । ३८)।
और कर्णके ध्वजकी उपमा राहु और केतुसे दी गयी है (२) एक दक्षिण भारतीय जनपद (भीष्म०९। (कर्ण० ८७ । ९२)। (२) एक प्राचीन ऋषि, ५८) । वहाँके नरेश और निवासी भी केरल ही कहे इन्हें स्वाध्यायद्वारा स्वर्गकी प्राप्ति (शान्ति० २६ । ७)। गये हैं । सहदेवने केरल देशको दूतोद्वारा ही वशमें कर (३) भगवान् शिवका एक नाम (अनु०१७ । ३८)। लिया और कर देनेको विवश किया (सभा०३१ ।
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केवला
कैलास
७१-७२)। केरल-नरेशने राजा युधिष्ठिरको चन्दन, केसरी-एक वानरराज, जिनके क्षेत्रभूत अञ्जना देवीके अगुरु, मोती, वैदूर्य और चित्रक नामक रत्न भेंट किये गर्भसे वायुद्वारा हनुमान्जीका जन्म हुआ था (वन. (सभा० ५१।४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ, ८६१, १४७।२७)। कालम १)। कर्णने दिग्विजयके समय यहाँके राजाको ।
कैकेयी-(१) पूरुवंशीय महाराज अजमीढ़की पत्नी जीता और दुर्योधनके लिये करद' बनाया था (वन.
(आदि० ९५। ३७ )। (२) महाराज दशरथकी पट२५४ । १५-१६)।
रानी। भरतकी माता (वन २७४ । ८)। इनका केवला-एक नगरी, जिसे कर्णने अपनी दिग्विजययात्रामें महाराज दशरथसे भरतके लिये राज्य और रामके लिये जीता था (वन० २५४ । १०-११)।
वनवासका वरदान माँगना (वन० २७७।२६)। इनका केशयन्त्री-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६।१७)। भरतको राज्य ग्रहण करनेके लिये कहना (वन०२७७ । केशव-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम । इसकी निरुक्ति । ३२)। (३) सूतराज केकयकी छोटी पत्नी मालवी(शान्ति० ३४१ । ४८-४९)। केशव नाम महाभारत
के गर्भसे उत्पन्न सुदेष्णा, जो महाराज विराटकी रानी में अनेक स्थलोंपर प्रयुक्त हुआ है ( यथा-भीष्म
थी(विराट. १६। दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ १८९३, कालम २५ । ३१, २६ । ५४, २७ । १३४ । १४, ३५ ।।
१)।(केकयदेशके राजाओंकी सभी कुमारियाँ कैकेयी ३५, ४२ । ७६ आदि)।
कही गयी हैं । जैसे सार्वभौमकी पत्नी और जयत्सेनकी माता
सुनन्दा (आदि० ९५ । १६)। परीक्षित्-पुत्र भीमसेनकेशिनी-(१) एक अप्सरा, जो प्राधाके गर्भसे देवर्षि
की धर्मपत्नी एवं प्रतिश्रवाकी माता कुमारी (आदि० कश्यपद्वारा उत्पन्न हुई है ( आदि० ६५। ५०)।
__ ९५। ४३) इत्यादि । (२) महाराज अजमीढकी तृतीय पनी । इनके गर्भसे अंजमीढद्वारा जह, व्रजन एवं रूपिण नामके तीन कैटभ (१) एक महान् असुर, जो मधुका भाई एवं सहचर
था। इन दोनोंकी उत्पत्ति भगवान् विष्णुके कानोंकी पुत्रोंका जन्म हुआ था ( आदि० ९४ । ३२)। (३)
मैलसे हुई थी । भगवान्ने मिट्टीसे इनकी आकृति दमयन्तीकी दासी। इसका बाहुक नामधारी नलके साथ
बनायी थी । इनकी मूर्तिमें वायुके प्रविष्ट हो जानेसे ये सप्राण संवाद (वन० ७१ अध्याय)। इसके द्वारा बाहुककी परीक्षा ( वन० ७५ अध्याय) । (४) उमादेवीकी
हो गये थे। इसके साथीका मधु और इसका कैटभ नाम
होनेका कारण (सभा०३८ । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७८३)। अनुगामिनी सहचरी (वन० २३१ । ४८)। (५)एक सुन्दरी कन्या, जिसके लिये विरोचन और सुधन्वामें
भगवान् विष्णुद्वारा इन दोनोंका वध (सभा० ३८ । पृष्ठ संवाद हुआ था (उद्योग० ३५। ५-१५)।
७८४)। मधुसहित कैटभकी उत्पत्तिका वर्णन
नाभिकमलपर भगवत्प्रेरणासे जलकी दो बूंदें पड़ी थीं, केशी-(१)एक दानव, कश्यपपत्नी दनुका पुत्र (आदि०
जो रजोगुण और तमोगुणकी प्रतीक थीं । भगवान्ने उन ६५ । २३)। इसीने भगवान् विष्णुके साथ तेरह दिनों
दोनों बूंदोंकी ओर देखा । एक मधु और दूसरी बूंद तक युद्ध किया था ( वन० १३४ । २०)। इसके
कैटभके आकारमें परिणत हुई ( शान्ति० ३४७ । द्वारा देवसेनाका अपहरण (वन० २२३।९)। इसका
२५-२६) । भगवान् हयग्रीवद्वारा इनका वध (शान्ति. इन्द्रसे पराजित होकर भागना ( वन० २२३ । १५)।
३४७ । ६९-७० ) । (२)एक दानव, जो कभी (२) एक दैत्य, जो कंसका अनुगामी था ।
इस पृथ्वीका अधिपति था; किंतु इसे छोड़कर चल इसके शरीरमें दस हजार हाथियोंका बल था। यह
बसा (शान्ति० २२७ । ५३)। घोड़ेकी ही आकृतिमें रहता था। कंसकी प्रेरणासे श्रीकृष्णको मारने आया था; परंतु स्वयं ही पुरुषोत्तम भगवान्
कैतव-(१) शकुनिपुत्र उलूक (आदि० १८५ । २२)। श्रीकृष्णके हाथों मारा गया (सभा० ३८ । पृष्ठ ८०१
(२) एक भारतीय जनपद (भीष्म० १८ । १३)। कालम १)।(जिस स्थानपर यह मारा गया, वह वृन्दावन- कैरातपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय ३८ से में आजकल केशीघाटके नामसे विख्यात है।) श्रीकृष्णने ४. तक)। केशीको धर्मपूर्वक मारा था, यह उन्होंने शपथपूर्वक कैलास-एक पर्वत, जो कुबेर तथा भगवान् शिवका निवासघोषित किया है ( आश्व० ६९ । २३)। इनके द्वारा स्थान है ( वन० १०९ । १६-१७; बन० १४१ । केशिवधकी चर्चा (मौसल० ६।१०)।
११-१२)। यहाँ श्वेतकिने भगवान् शिवकी प्रसन्नताके केसर-शाकद्वीपका एक पर्वत, जहाँकी वायुमें केसरकी लिये उग्र तपस्या की (आदि० २२२ । ३६-४०)। सुगन्ध भीनी रहती है (भीष्म० १३ | २३
नौसमविउत्तर मैनाक है, जहाँ मयासुरने मणिमय भाण्ड म. ना०१२
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कैलासक
( ९० )
कोसल
तैयार करके रक्खा था ( सभा० ३ । २-९)। कैलास- जिसने वनमें जयद्रथ आदि साथियोंका द्रौपदीको परिचय पर्वत कुबेरके सभाभवनमें जाकर उनकी उपासना करता दिया था ( वन० २६५ अध्याय )। भीमसेनद्वारा है ( सभा० १० । ३१-३३ ) । व्यासजी कैलासपर इसका वध (वन० २७१ ।२६)। गये थे ( सभा० ४६ । १७)। राजा सगरने भी अपनी कोटितीर्थ-एक तीर्थ, जहाँ आचमन करनेसे अश्वमेध दोनों पत्नियोंके साथ जाकर कैलासपर तपस्या की थी यज्ञका फल मिलता है (वन० ८२ । १९, वन० ८४ । ( वन० १०६ । १०)। भगीरथने भगवान् शिवकी ७७ वन० ८५। ६१)। यह कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत है प्रसन्नताके लिये कैलासपर जाकर तप किया (वन. (वन०८३ । १७ वन०८३ । २००)। १०८ । २६ ) । कैलासपर्वत छ: योजन ऊंचा है । वहा कोटिश-वासकिकलमें उत्पन्न एक नाग (आदि०५७।५)। सब देवता आया करते हैं। उसके पास ही विशाला
कोपवेग-एक महर्षि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे ( बदरिकाश्रम ) है । कुबेरभवनरूप कैलासपर असंख्य
(सभा० ४। १६)। यक्ष, राक्षस, किन्नर, सुपर्ण, नाग और गन्धर्व रहते हैं (वन० १३१ । ११-१२ )। कैलास-शिखरके निकट
कोलगिरि-दक्षिण भारतका एक पर्वत-कोलाचल, जहाँके ही कुबेरकी नलिनी है, जहाँ भीमसेन गये थे (वन.
निवासियोंको सहदेवने जीता था (सभा० ३१ । ६८)। १५३ । १-२ ) । अन्य पाण्डवोंका भी वहाँ गमन कोलाहल-प्राचीन कालका एक सचेतन पर्वत, जिसने (वन० १५५ । २३)। कैलासपर्वतपर कुबेरको यक्ष
कामवश दिव्यरूपधारिणी शुक्तिमती नदीको रोक लिया और राक्षसोंका राजा बनाया गया था ( उद्योग था (आदि० ६३ । ३५-३६)। उपरिचर वसुके द्वारा १११।")। अष्टावक्रजी कैलास होते हुए उत्तर इसपर पैरोंसे प्रहार (आदि. ६३ । ३६)। इसके द्वारा दिशाकी ओर गये । वहाँ कुबेरभवनमें उनका सत्कार शक्तिमती नदीके गर्भसे जुड़वीं संतानको उत्पत्ति हुआ था ( अनु० १९ । ३१)। सुरभिने देव-गन्धर्व
(आदि० ६३ । ३७)। सेवित कैलासके सुरम्य शिखरपर तपस्या की ( अनु० कोलिक-विडालोपाख्यानमें आये हुए एक चूहेका ८३ । २८-३०)।
नाम (उद्योग. १६०।३८)। कैलासक ( या कैलास )-एक कश्यपवंशीय नाग कोलिसर्प-एक जाति, जो पहले क्षत्रिय थी; किंतु ब्राह्मणों( उद्योग० १०३ । ११)।
की कृपादृष्टि न मिलनेसे शूद्रत्वको प्राप्त हो गयी ( अनु० कैशिक-एक प्राचीन देश, जिसपर विदर्भनरेश भीष्मकने ३३ । २२)। विजय पायी थी ( सभा० १४ । २१)।
कोल्लगिरेय-दक्षिणका एक देश, जिसे अर्जुनने अश्वमेधीय कोकनद (१) एक प्राचीन क्षत्रियनरेश, जो दिग्विजयके यशका रक्षा
यज्ञकी रक्षाके समय जीता था ( आश्व० ८३ । ११)। समय अर्जुनसे भयभीत होकर उनकी शरणमें आया था कोशल-कोशलदेशीय क्षत्रिय, जो जरासंधके भयसे दक्षिण (सभा० २७ । १८)। (२) स्कन्दका एक सैनिक भाग गये थे (सभा० १४ । २७)। (शल्य० ४५। ६०)। (३) स्कन्दका एक सैनिक कोषा-एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है (शल्य० ४५ । ६१) । (४) स्कन्दका एक सैनिक (भीष्म० ९ । ३४)।। (शल्य० ४५ । ७४)।
कोष्ठवान्-एक पर्वत, जो अन्य बहुतसे पर्वतोंका अधिपति कोकवक-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९।६१)।
है (आश्व० ४३।५)। कोकामुख-एक तीर्थ, इसमें स्नानसे पूर्वजन्मकी स्मृति कोसल-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४०-४१, जाग्रत् होती है (वन० ८४ । १५८)।
५२)। पूर्वदिग्विजयके समय भीमसेनने उत्तर कोशलको कोकिलक-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७३ )। जीता था (सभा० ३० । ३)। दक्षिण-दिग्विजयके समय कोङ्कण-एक दक्षिण भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६०)।
सहदेवने दक्षिण कोशलको जीतकर अपने अधिकारमें कर
लिया था (सभा० ३१ । १२-१३) । पहले श्रीकृष्णने कोटरक-एक कश्यपवंशीय नाग (उद्योग० १०३ । १२)।
भी इस जनपदपर विजय पायी थी (द्रोण० २१ । १५) कोटरा-(१) स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य.
कोशलराज अभिमन्युद्वारा मारा गया था ( कर्ण. ४६ । १४ )। ( २ ) स्कन्दकी अनुचरी मातृका ५।२१)। दुर्योधनके लिये कर्णने इस देशको जीता था (शल्य० ४६ । १७)।
( कर्ण० ८ । १९ ) । यहाँका राजा क्षेमदर्शी था कोटिकास्य (कोटिक )-शिबिनरेश सुरथका पुत्र, (शान्ति० ८२।६)। अम्बाके स्वयंवरमें भीष्मने भी
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कोसला
कौशिकीकच्छ
कोसलको जीता था ( अनु० ४४ । ३८)। अश्वमेधके (आदि० १३३ । २३ के बाद ३५ तक )। द्रुपदके घोड़ेके पीछे जाते हुए अर्जुनने इस देशपर विजय पायी द्वारा इनकी पराजय ( आदि. १३७ । २४-२५)। थी (आश्व० ८३।४)।
द्रुपदके पाण्डवोंके सम्बन्धी हो जानेपर इनका भयभीत कोसला (अयोध्या)-सुप्रसिद्ध पुरी, जहाँ ऋषभतीर्थमें
और निराश होना ( आदि० १९९ । १४-१५)। स्नान और त्रिरात्र उपवाससे वाजपेय तथा सहस्र गोदान- कौरव्य-एक प्रमुख नाग (आदि० ३५ । १३)। का फल मिलता है (वन० ८५।१०-११)।
कौशिक-(१) युधिष्ठिरकी सभामें विराजनेवाले एक ऋषि कोहल-( १ ) वेदविद्याके पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मण, जो
(सभा० ४ । १२)। हस्तिनापुर जाते समय श्रीकृष्णसे जनमेजयके सर्पसत्रके सदस्य थे ( आदि. ५३ । ९)।
मार्गमें उनकी भेंट ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दा० (२) एक ब्राह्मण, जिन्हें राजा भगीरथने एक लाख
पाठ)। (२) एक प्राचीन ऋषि जो इन्द्र की सभामें सवत्सा गौएँ दान की थीं ( अनु० १३७ । २७)।
विराजमान होते हैं (सभा० ७ । १८ के बाद दा० पाठ) (३) उत्तर दिशाका आश्रय लेकर रहनेवाले एक ऋषि,
(३) जरासंधका एक मन्त्री, जिसका दूसरा नाम हंस सम्भव है, ये ही जनमेजयके सर्पसत्रके सदस्य बने हो
था ( सभा० २२ । ३२-३३ ) ( देखिये हंस)। (अनु० १६५ । ४५)।
(४) एक तपस्वी ब्राह्मण, इनकी क्रोधभरी दृष्टिसे कौकुलिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । बगुलीका भस्म होना ( वन० २०६। ५)। इनका १५)।
पतिव्रतासे वार्तालाप ( वन० २०६ । १८)। इनका कौकुहक-दक्षिण भारतका एक जनपद ( भीष्म धर्मव्याधसे विविध धार्मिक विषयोंपर वार्तालाप (वन० ९।६०)।
२०७ अ० से २१६ तक)। इनका घर लौटकर माता. कौणप-वासुकिके कुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो
पिताकी सेवामें तत्पर होना (वन० २१६ । २३)। माताके शापसे पीड़ित हो विवशतापूर्वक सर्पसत्रकी आगमें
(५) हैमवतीके प्रियतम पति, कुशिकवंशी विश्वामित्र होम किया गया था ( आदि० ५७ । ६)।
(वन०८४।१४२-१४३, उद्योग० ११७। १३)।
(६) एक सत्यवादी तपस्वी ब्राह्मण, जिसे लुटेरोंको कौणपासन-एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १४)।
छिपे मनुष्योंका पता बतानेके कारण नरककी प्राप्ति हुई कौणिकत्स्य-एक वनवासी श्रेष्ठ द्विज, जो सर्पदंशनसे मरी (कर्ण० ६९ । ४६-५२)। हुई प्रमद्वराको देखने के लिये आये थे ( आदि० ८।२५)।
कौशिककुण्ड-एक तीर्थ, यहाँ विश्वामित्रने उत्तम सिद्धि
प्राप्त की थी (वन.८४ । १४२)। कौण्डिन्य-एक महर्षि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे (सभा० ४। १६)।
कौशिकाचार्य-इस पदवीसे विभूषित राजा आकृति ( सभा० कौत्स-एक वृद्ध एवं विद्वान् ब्राह्मण, जो जनमेजयके २१ । ६१-६२) । (देखिये आकृति )
सर्पसत्रमें उद्गाता बनाये गये थे ( आदि० ५३ । ६)। कौशिकाश्रम-एक तीर्थ, जहाँ काशिराजकी कन्याने कठोर इन्हींको राजर्षि भगीरथने अपनी कन्या 'हंसी' का दान तप किया ( उद्योग०१८६ । २७)। किया था, जिससे वे अक्षय लोकको प्राप्त हुए ( अनु० कौशिकी-(१) एक नदी ( अनु० ९४ । ६) । १३७ । २६)।
महर्षि विश्वामित्रद्वारा इसका निर्माण (भादि०७१। कौमोदकी-भगवान् श्रीकृष्णकी गदा, यह गदा खाण्डव
३०)।( जिसे आजकल कोसी' कहते हैं। यह नदी वन-दाहके अवसरपर वरुणने उन्हें भेंटमें दी थी
पूर्वी-बिहारके कई जिलोंमें बह रही है । ) (२) एक (आदि० २२४ । २८)।
पापनाशिनी नदी, इसमें स्नान करनेमात्रसे राजसूय यज्ञका कौरव-कुरुके पुत्र तथा कुरुकुलमें उत्पन्न होनेवाले पुरुष
फल प्राप्त होता है (वन० ८४ । १३२, वन० ८७ । कौरव' कहलाते हैं । ( यद्यपि पाण्डव तथा धृतराष्ट्रपुत्र
१३, भीष्म० ९ । २९)। यहाँ स्नानका फल ( अनु. दोनों ही कौरव कहलाते हैं तथापि पाण्डवोंका पृथक् ग्रहण
२५ । ३१)। हो जानेसे कौरव' शब्द प्रायः दुर्योधन आदिके लिये ही व्यवहृत होता है। फिर भी पाण्डवोंके लिये भी इस
कौशिकी-अरुणासङ्गम-एक तीर्थ, जहाँ स्नान और त्रिरात्र शब्दका प्रयोग हुआ ही है।) इनके द्वारा रङ्गभूमिमें उपवाससे पाप छूट जाते हैं ( वन० ८४ । १५६)। आचार्य और अस्त्रोंके पूजनपूर्वक अन-कलाप्रदर्शन कौशिकीकच्छ-कोसी नदीका कछार (सभा० ३० । २२)।
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कौसल
( ९२ )
क्रोधवर्द्धन
कौसल-बकरेके समान मुख धारण करनेवाले स्कन्ददेवका क्रथन-(१) एक यक्ष, जिसके साथ पक्षिराज गरुडने एक नाम ( वन० २२८ । ४)।
युद्ध किया था ( आदि. ३२ । १८)। (२) एक कौसल्या-(१) ययातिनन्दन महाराज पूरुकी पत्नी और
असुर, जो भूतलपर राजा 'सूर्याक्ष' के रूपमें उत्पन्न जनमेजय (प्रवीर ) की पत्नी, इनका दूसरा नाम पौष्टी' हुआ था ( आदि० ६७ । ५७ ) । (३) धृतराष्ट्रका था ( आदि० ९५ । १०-११)। (२) एक पुत्र (आदि. ११६ । ११)। काशिराजकी पत्नी तथा अम्बा: अम्बिका एवं अम्बालिका- क्रमजित-एक क्षत्रियनरेश, जो युधिष्ठिरकी सभामें उनके की माता ( आदि. ९५। ५१ )। (३) दशरथ- पास बैठते थे (सभा० ४ । २८)। नन्दन श्रीरामकी माता (वन० २७४ । ७-८ )। (४) क्रव्याद-पितरोंका एक गण (शान्ति० २६९ । १५)। मिथिलानरेश महाराज जनककी पटरानी, इनका पतिको
काथ-(१) एक प्रसिद्ध राजा, जो सिंहिकाकुमार राहुके संन्यास न लेनेके लिये समझाना ( शान्ति. १८ ।
अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि. ६७ । ४०)। यह
द्रौपदीके स्वयंवरमें उपस्थित था (आदि० १८६ ॥१५)। कौस्तुभ-समुद्रसे प्रकट हुई एक मणि जो भगवान् विष्णुके जारूथीनगरीमें श्रीकृष्णद्वारा पराजित हुआ था (वन.
वक्षःस्थलका आभूषण बनी (आदि. १८। ३६ )। १२।३०)। इसने दुर्योधनकी सेनामें सम्मिलित हो . मणिरत्न कौस्तुभका प्रादुर्भाव (उद्योग० १०२ १२)। अभिमन्युपर धावा किया था (द्रोण० ३७ । २५ )। क्रतु-ब्रह्माजीके एक मानसपुत्र ( आदि० ६५ । १०;
इसका पुत्र अभिमन्युद्वारा मारा गया (द्रोण० ४६ । आदि. ६६ । शान्ति.१६६।१६)। बालखिल्य
२६-२७)। इसके द्वारा कलिङ्गराजकुमारका वध नामक ऋषि ऋतुके ही पुत्र हैं (आदि०६६।९)।
हुआ और पाण्डवपक्षीय, पर्वतीयनरेशद्वारा इसका वध ये अर्जुनके जन्म-समयमें पधारे थे (आदि० १२२२५२)।
हुआ ( कर्ण० ८५। १५-१६ )। (२) पूरुवंशी पराशरके राक्षस-सत्रमें राक्षसोंकी जीवनरक्षाके लिये गये
महाराज कुरुके प्रपौत्र एवं धृतराष्ट्रके एक पुत्र ( आदि. ये (आदि. १००।९)। ये इन्द्र और ब्रह्माजीके
९४ । ५८ )।(३) एक वानर सेनापति (वन. सभामें विराजमान होते हैं (सभा० ७।१७ सभा०
२८३ । १९ )।(४)(क्रथन) धृतराष्ट्रका एक १५। १९)। स्कन्दके जन्मकालमें भी ये पधारे थे
पुत्र | भीमसेनद्वारा इसका वध (कर्ण०५१ । १६)।
(५) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ७०)। (शल्य०४५। १०)। शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीके पास गये थे ( शान्ति. १७।१०)। इक्कीस
(६) एक नाग, जो बलरामजीके परमधाम पधारते
समय उनके स्वागतके लिये गया था (मौसल०४।१६) प्रजापतियोंमें ये भी हैं (शान्ति० ३३४ । ३५-३७)। सात चित्रशिखण्डी' ऋषियोंमें भी सुकी गणना की क्रिया-दक्ष प्रजापतिकी एक पुत्री और धर्मराजकी पत्नी गयी है ( शान्ति० ३३५।२७)।आठ प्रकृतियों में (आदि. ६६ । १४)। भी इनका स्थान है (शान्ति. ३४०।३४)। इन्हें क्रीत-एक प्रकारका अबन्धुदायाद पुत्र, जिसे धन आदि शिवभक्तिद्वारा सहस्रों पुत्रोंकी प्राप्ति हुई (अनु०१४। देकर खरीद लिया गया हो (भादि. ११९ । ३४)। ८७-८८)। उत्तरायण आरम्भ होनेपर भीष्मजी देखने- क्रूर-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६५)। के लिये आये थे (अनु० २६ । ४)। ये महायोगेश्वर करा अथवा क्रोधा दक्षप्रजापतिकी पुत्री । कश्यपकी माने गये हैं (अनु० ९२ । २१)।
पत्नी (आदि. ६५ । १२-१३, आदि०६६ । १३)। क्रथ-(१)एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक असुरके
इस क्रूरा या क्रोधाके क्रूर स्वभाववाले असंख्य पुत्र-पौत्र 'अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ६१)। हैं और यही क्रोधवश' संज्ञक असुरोंकी जननी है (२) एक प्राचीन देश, जिसपर विदर्भनरेश भीष्मकने (आदि० ६५ । ३२)। विजय पायी थी ( सभा० १४ । २१)। (३) एक क्रोध-एक विख्यात दानव, जो काला नामक कश्यपपत्नीका राजराजेश्वर, जिन्हें भीमसेनने दिग्विजयके समय परास्त
पुत्र था ( आदि०६५। ३५)। किया था ( सभा० ३०।७)।(४) एक महर्षि,
क्रोधन-एक ऋषि, जो इन्द्रकी सभामें विराजते हैं (सभा. जिन्होंने शान्ति दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए। श्रीकृष्णकी परिक्रमा की थी ( उद्योग० ८३ । २७)। (५) एक कौरव-योद्धा (द्रोण० १२० । १०-११)। क्रोधना-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १)। (६) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ७०)। क्रोधवर्द्धन-एक असुर, जो 'दण्डधार' नामक राजाके
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क्रोधवश
रूपमें इस भूतलपर उत्पन्न हुआ था ( आदि० २३ । ६)। यह एक श्रेष्ठ रथी था ( उद्योग० १७१ । ६७ । ४६)।
१०)। भगदत्तद्वारा इसकी दाहिनी भुजापर गहरा क्रोधवश-राक्षसोंके एक गणका नाम । इनकी माता कश्यप
आघात (भीष्म. ९५ । ७३)। इसका लक्ष्मणके साथ पत्नी क्रोधा या क्रूरा थी (आदि०६५। ३२)। ये ही युद्ध (द्रोण० १४ । ४९)। द्रोणके साथ युद्ध (दोण. कुबेरके सौगन्धिक कमलोंवाले सरोवर ( या नलिनी) की, २१ । ५०, ५६)। इसके रथके घोड़ोंका रंग (द्रोण. जिसका नाम अलका था, रक्षा करते थे । भीमसेनने इनके २३ । ६)। लक्ष्मणद्वारा इसका वध (कर्ण० ६। साथ युद्ध करके इन्हें परास्त किया था (वन० १५४ । २६-२७)। २०-२१)। इन्होंने धनाध्यक्ष कुबेरको भीमसेनके बल- क्षत्रधर्मा-धृष्टद्युम्नका पुत्र अर्धरथी ( उद्योग० १७१ । पराक्रमका वृत्तान्त बताया था (वन० १५४ । २५)। ७)। इसके रथके घोड़ोंका रंग (द्रोण० २३ । ५)।
ये रावणकी सेना में भी सम्मिलित थे (वन० २८५। २)। द्रोणाचार्यद्वारा इसका वध (द्रोण. १२५ । ६६)। क्रोधशत्रु-एक विख्यात दानव, जो काला नामक कश्यप- क्षत्रवर्मा-धृष्टद्युम्नका एक वीर पुत्र (द्रोण० १० । ५३)। पत्नीका पुत्र था ( आदि० ६५ । ३५)।
जयद्रथके साथ युद्ध (द्रोण० २५ । १०-१२)। क्रोधहन्ता-(१) कश्यपपत्नी कालाके चार पुत्रोंमेंसे एक आचार्य द्रोणद्वारा इसका वध (द्रोण. १८६ । ३४)। प्रसिद्ध दानव (आदि. ६५। ३५)। इसे वृत्रासुरका क्षितिकम्पन-स्कन्दका सेनापति (शल्य० ४५ । ५९)। छोटा भाई कहा गया है। यही राजा दण्डके रूपमें उत्पन्न
क्षीरवती-एक पुण्यतीर्थ, वहाँ स्नान करके देवताओंके हुआ था (आदि० ६७ । ४५)। (२) पाण्डवपक्षीय राजा सेनाबिन्दुका दूसरा नाम ( उद्योग० १७१ ।
पूजनमें लगा हुआ मनुष्य वाजपेय-यज्ञका फल पाता है
(वन० ८४ । ६८-६९)। २०)। क्रोशना-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १७)। क्षीरसागर (क्षीरनिधि)-इसकी उत्पत्ति ( उद्योग० कोष्टा-यदुके पुत्र ( अनु० १४७ । २८)।
१०२।४)। अन्य नामोंद्वारा इसकी चर्चा-क्षीरोद
(आदि० २ । ९१, भीष्मः १०।११; शान्ति. फ्रौञ्च-एक पर्वत, जिसे स्कन्दने विदीर्ण किया था (शल्य.
३३६ । २३; शान्ति० ३४० । ४५, अनु०१४ । २४०)। ४६ । ८४)।
क्षीरोदधि (शान्ति० ३३६ । २७)। क्रौञ्चद्वीप-एक प्रसिद्ध द्वीप, इसका विशेष वर्णन (भीष्म०
क्षीरी-उत्तर कुरुवर्षके कुछ वृक्ष, जो सदा षडविध रसोंसे १२ । १७-२३)।
युक्त अमृतके समान स्वादिष्ट दूध बहाते रहते हैं। उनके क्रौञ्चनिषूदन-सरस्वती-सम्बन्धी तीर्थ, जहाँ सरस्वतीमें स्नान ।
फलोंमें इच्छानुसार वस्त्र और आभूषण भी प्रकट होते हैं करनेसे विमानलाभ होता है (वन० ८४ । १६०)। (भीष्म० ७॥ ४-५)। क्रौञ्चपदी-एक तीर्थ, जहाँ पिण्डदान करके मनुष्य तीन क्षक-एक देश और वहाँके निवासी, ये युधिष्ठिरके लिये
ब्रह्माहत्यासे मुक्त हो जाता है ( अनु० २५ । ४२ )। भेंट लाये थे (सभा० ५२ । १५)। क्षुद्रकोंको साथ क्रौञ्चव्यूह-सेनाकी मोर्चाबंदीका वह प्रकार, जिसमें लेकर दुर्योधन शकुनिकी सेनाकी रक्षामें लगा था सैनिकोंको क्रौञ्च पक्षीकी आकृतिमें खड़ा किया जाता है । (भीष्म० ५१ । १६)। क्षुद्रक आदि देशोंके सैनिक भीष्मद्वारा क्रौञ्चव्यूहकी रचना (भीष्म० ७५ । १५- भीष्मकी आशाका पालन करते हुए अर्जुनके निकट चले गये २२)। युधिष्ठिरद्वारा उक्त व्यूहकी रचना (द्रोण. (भीष्म० ५९ । ७६)। भीष्मके पीछे द्रोणाचार्यके साथ ७।२५-२७ )।
रहकर क्षुद्रक भी शत्रुओंसे जूझनेके लिये चले थे (भीष्म क्रौञ्चारुणव्यूह-यह भी क्रौञ्चव्यूहका ही नामान्तर है।
८७।७)। परशुरामजीने पहले कभी क्षुद्रकोंका संहार इसका निर्माण धृष्टद्युम्नने किया था ( भीष्म० ५०। किया था (द्रोण० ७० । ११)। अर्जुनद्वारा क्षुद्रकोंका ४२-५७)
वध (कर्ण० ५। ४७)। भत्ता-विदुर ( उद्योग० ३३।२,६) ( देखिये विदुर)। क्षप-(१) एक प्रजापति, जो ब्रह्माजीके द्वारा मस्तकपर क्षत्रंजय-धृष्टद्युम्नका एक वीर पुत्र (द्रोण० १० । ५३)। धारण किये हुए उनके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। ब्रह्माजीके द्रोणाचार्यद्वारा द्रुपदके तीन पुत्रों (क्षत्रदेव, क्षत्रंजय छींकनेपर ये उनके मस्तकसे गिर पड़े थे (शान्ति.
तथा क्षत्रवर्मा ) का वध (द्रोण० १८६ । ३३-३४)। १२२ । १६-१७)। यही ब्रह्माके यज्ञके ऋत्विज हुए क्षत्रदेव-शिखण्डीका पुत्र (उद्योग० ५७ । ३२७ द्रोण. थे (शान्ति०१२२ । १७)। भगवान् रुद्रने इनको समस्त
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क्षुरकर्णी
खट्वाङ्ग
प्रजाओं तथा धर्मधारियोंका अधिपति बनाया था (शान्ति क्षेमधन्वा-एक कौरवपक्षीय प्रधान रथी, जो दुर्योधनके १२२ । ३५)। (२) शक्तिशाली वैवस्वतमनुके आत्मज अग्रगामी सहायकोंमें था (भीष्म० १७ । २७)। महाबाहु प्रसन्धिके पुत्र और इक्ष्वाकुके पिता (आश्व० शेमधर्ति-१)एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके ४ । ३) । ये महाबली राजर्षि यमराजकी सभामें
अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६४)। इसे विराजमान होते हैं (सभा० ८ । १३)। इन्हें मनुसे पाण्डवोंकी ओरसे रण-निमन्त्रण भेजे जानेका विचार खगकी प्राप्ति हुई (शान्ति. १६६ । ७३)। इन (उद्योग०४।८)। यही कुलूतदेशका अधिपति था महाराज क्षुपने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया था और कौरवपक्षसे युद्धमें आकर भीमसेनके द्वारा मारा गया (अनु० ११५। ६७)।
था (कर्ण०१२।१४)। (२) एक कौरव-पक्षका क्षुरकर्णी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । राजा, बृहन्तका सगा भाई, इसका सात्यकिके साथ युद्ध २५)।
(द्रोण. २५ । ४७-४८)। सात्यकिद्वारा इसका वध क्षेत्र देहधारियोंका यह शरीर ( भीष्म० ३७ । १)।
(शल्य० २१ । ८)। (३) कौरव-पक्षका एक योद्धा,
पाण्डवपक्षीय बृहत्क्षत्रके साथ इसका युद्ध (द्रोण. क्षेत्रका वर्णन (भीष्म० ३७ । ५-६)।
१०६ । ८) । बृहत्क्षत्रद्वारा इसका वध (द्रोण. क्षेत्रश-इस शरीरको जाननेवाला जीवात्मा । सम्पूर्ण शरीरोंमें
१०७।६)। क्षेत्रज्ञरूपसे भगवान् ही विराजमान हैं (भीष्म० ३७ । असमर्ति-धतराष्ट्रका एक पुत्र (आदि० ६७ । १००)। १-२)। क्षेत्रके स्वभाव और प्रभावसहित क्षेत्रका वर्णन (भीष्म ३७ । १९-३३)।
क्षेमवाह-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६६)।
क्षेमवृद्धि-राजा शाल्वका मन्त्री तथा सेनापति । जाम्बवतीक्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-शान-क्षेत्र और क्षेत्रका अर्थात् विकार
कुमार साम्बद्वारा इसकी पराजय (वन०१६ । ११सहित प्रकृति और पुरुषका विभागपूर्ण यथार्थ बोध—यही ।
१६)। ज्ञान है ( भीष्म० ३७ । २)।
क्षेमशर्मा-कौरव-पक्षीय एक योद्धा, जो द्रोणनिर्मित गरुड़क्षेम-एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे
व्यूहके ग्रीवाभागमें खड़ा किया गया था (द्रोण. २० । उत्पन्न हुआ था (आदि०६७ । ६५)। यह पाण्डवपक्षीय योद्धा था और द्रोणाचार्यद्वारा मारा गया था।
क्षेमा-एक स्वर्गीय अप्सरा, जो अन्य अप्सराओंके साथ (द्रोण० २१ । ५३)।
अर्जुनके जन्ममहोत्सवपर नृत्य करनेके लिये आयी थी क्षेमक-(१)कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न एक नाग (आदि० (आदि० १२२ । ६६)। ३५।११)। (२) एक प्राचीन राजा, जो युधिष्ठिरकी मि-क्षेमकमार सत्यधृति, जिसे चितकबरे, विशालकाय, सभामें विराजमान होता था (सभा० ४ । २२)।
वशमें किये हुए, सुवर्णकी मालासे विभूषित तथा ऊँचे इसे पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजा गया था
कदवाले शुभलक्षण अश्वोंने युद्धभूमिमै पहुँचाया (द्रोण० (उद्योग०४।२३)।
२३ । ५८)। क्षेमकर-जयद्रथका साथी त्रिगर्तदेशका एक राजा,
(ख) कोटिकास्यद्वारा द्रौपदीको इसका परिचय (वन० २६५ ।
खग-(१) कश्यपके वंशमें उत्पन्न हुआ एक नाग ६-७)। नकुलके हाथों इसका वध (वन० २७१ । ७०)।
( उद्योग० १०३ । १०)। (२) भगवान् शिवका
एक नाम (अनु. १७ । ६७)। क्षेमदर्शी-कोसलदेशके एक राजा (शान्ति० ८२ । ५)। इनके दरबारमें उपस्थित हो कालकवृक्षीय मुनिका इनके खगम-पूर्वकालका एक तपोबलसम्पन्न ब्राह्मण, जो मन्त्री आदिके दोष बताना और राजाको उपदेश देना सहस्रपाद ऋषिका मित्र था (आदि०११।१)। (शान्ति० ८२। १२-६७)। सेना आदिके नष्ट इसके शापसे सहस्रपाद ऋषिका 'डुण्डुभ' सर्प होना हो जानेपर इनका कालकवृक्षीय मुनिसे धनके अतिरिक्त सुखका उपाय पूछना (शान्ति० १०४ । ४-१०)। खट्वाङ्ग-इलविलाके पुत्र महाराज दिलीपका दूसरा नाम कालकवृक्षीय मुनिके प्रयत्नसे राजा जनकके साथ इनकी (द्रोण० ६१ । १-१.)। इन्होंने यह सारी पृथ्वी संधि और उनके द्वारा इनका सत्कार और जामाता ब्राह्मणोंको दान कर दी थी (द्रोण० ६१ । २)। बनाया जाना (शान्ति० १०६ । २३-२८)।
इनके यज्ञोंमें सड़कें सोनेकी बनी थीं। सभा-मण्डप भी
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( ९५ )
गङ्गा
सुवर्णसे ही निर्मित हुआ था (द्रोण० ६१ । ३-४)। रहकर अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णकी सहायतासे अमिदेवको इनके यज्ञके दिव्य वैभवका वर्णन (द्रोण. ३१।। तृप्त किया था (आदि. ६१ । ४५) । पूर्वकालमें ५-११)।
पुरूरवा नहुष और ययाति भी यहीं निवास करते थे खङ्ग-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ६७)। (आदि० २०६ । २५ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। खङ्गी-भगवान् शिवका एक नाम (अनु० १७ । ४३)। (विशेष देखिये इन्द्रप्रस्थ)। खण्डखण्डा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६। खाण्डवायन-परशुरामजीकी दी हुई स्वर्णवेदीको खण्ड२०)।
खण्ड करके आपसमें बाँटनेवाले ब्राह्मणोंका नाम (वन० खनीनेत्र-सूर्यवंशी विविंशके ज्येष्ठ पुत्र, जो पराक्रमी होने ५७।१३)।
और अकण्टक राज्य पानेपर भी प्रजाके अनुरागभाजन न खाशीर-पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद ( भीष्म हो सके । अतः राज्यसे उतार दिये गये ( आश्व० ४।
। ६-९)।
खिल-महाभारतके परिशिष्ट भाग हरिवंशका दूसरा नाम खर-(१) एक राक्षस, जो विश्रवाका पुत्र एवं शूर्पणखाका
(आदि० २। ८२-८३, आदि० ३७९-३८०)। सहोदर भाई था । इसकी माताका नाम राका था (वन. २७५। ४-८)। यह धनुर्विद्यामें विशेष पराक्रमी तथा
ख्याता-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । २०)। ब्रह्मद्रोही था (वन० २७५। १२)। रावण, कुम्भकर्ण और विभीषणकी तपस्याके समय ये दोनों भाई-बहन
गगनमूर्धा-कश्यप और दनुके वंशका एक विख्यात दानव उनकी सेवा करते थे (वन० २७५ । १२)। शूर्पणखाके
(आदि०६५ । २४)। यह पाँच केकय-राजकुमारोंमेंसे एककारण इसका श्रीरामसे बड़ा भारी वैर हो गया (वन०
के रूपमें उत्पन्न हुआ था ( आदि०६७।१०)। २७७ । ४२)। श्रीरामने तपस्वी जनोंकी रक्षाके लिये खर आदि चौदह हजार राक्षसोका संहार किया (सभा गङ्गा-देवनदी । वसुओंकी माता । भीष्मकी जननी । महर्षि ३८॥ २९ के बाद, पृष्ठ ७९४)। (२) राक्षसोंका एक
वशिष्ठके शाप और इन्द्रके आदेशसे आठ वसुओंका दल, जिसने अन्य दलोंके साथ वानर-सेनापर आक्रमण
गङ्गाजीके गर्भसे शान्तनुपुत्र होकर जन्म लेना (आदि. किया था (वन० २८५ । २)।
६७ । ७४) । गङ्गाजीका आधिदैविक रूप देवाङ्गनाके
तुल्य है, वे उसी रूपसे एक दिन ब्रह्माजीकी सभामें खरकर्णी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । २६)।
उपस्थित हुई । उस समय वायुके झोंकेसे उनके शरीरका खरजवा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका(शल्य० ४६ । २२)।
चाँदनीके समान उज्ज्वल वस्त्र सहसा कुछ ऊपरकी ओर खरी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ६)। उठ गया । उस अवस्थामें उनकी ओर देखनेके कारण खली-(१) भगवान् शिवका एक नाम (अनु० १७।। महाभिषको ब्रह्माजीके द्वारा मर्त्यलोकमें जन्म लेनेका शाप ४३)। (२) दानवोंका एक समुदाय, जिसे वशिष्ठजीने मिला और इन्हें भी उनके प्रतिकूल आचरण करनेके
अपने तेजसे दग्ध कर दिया (अनु० १५५ । २२)। लिये उनके साथ जानेका संकेत प्राप्त हुआ (आदि. खल-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल यहाँकी प्रजा ९६ । ४-८) । महाभिषका चिन्तन करती हुई गङ्गापीती है (भीष्म. ९।२८)।
का वहाँसे जाना और मार्गमें वसुओंसे उनकी उदासीका
कारण पूछना (आदि० ९६ । ९-१२)। 'वशिष्ठके खस-एक देश (द्रोण. १२१ । ४२)।
शापवश हमें मर्त्यलोकमें जन्म लेना पड़ेगा, वहाँ आप ही खाण्डव (वन)-यमुना-तटवर्ती एक वन, जिसे भगवान्
हमारी जननी हो' वसुओंकी गङ्गाजीसे प्रार्थना और इनका श्रीकृष्ण तथा अर्जुनकी सहायतासे अग्निदेवने जलाया था
इस प्रार्थनाको स्वीकार करना ( आदि० ९६ । १२इसकी रक्षाके लिये इन्द्रके प्रयत्न । इसके जलानेके समय
१८)। जन्म लेते ही जलमें फेंक देनेके लिये इनसे तक्षककी पत्नीका अर्जुनद्वारा वध ( आदि. २२३
वसुओंकी अभ्यर्थना ( आदि० ९६ । १९)। शान्तनुको अध्यायसे २२५ तक)।
एक पुत्र प्राप्त होनेके लिये इनका वसुओद्वारा व्यवस्था खाण्डवदाहपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय कराना (आदि० ९६ । २०-२२) । अपना पति २२१ से २२६ तक)।
बननेके लिये राजा प्रतीपसे इनकी प्रार्थना (आदि० ९७ । खाण्डवप्रस्थ-प्राचीन कालका एक नगर, जो पाण्डवोंकी ५)। दाहिनी जाँघपर बैठनेके कारण इन्हें पनीरूपमें राजधानी थी-इन्द्रप्रस्थ (आदि. ६१ । ३५) । यही नहीं, पुत्रवधूरूपमें प्रतीपका अङ्गीकार करना (आदि.
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गङ्गा
गङ्गाद्वार
९७ । ११)। गङ्गाजीका प्रतीपकी आज्ञाको स्वीकार (उद्योग० १८६ । ३६ ) । मेरुपर्वतके शिखरसे करना (आदि० ९७ । १२-१५)। राजा शान्तनुका दुग्धके समान श्वेत धारवाली विश्वरूपा अपरिमित गङ्गाजीके परम सुन्दर दिव्य प्रभासे प्रकाशमान, साक्षात् शक्तिशालिनी भयङ्कर वज्रपातके समान शब्द करने लक्ष्मीके समान मनोरम, अनिन्द्य सौन्दर्यसे सम्पन्न, वाली परम पुण्यात्मा पुरुषोंद्वारा सेवित सुभग-स्वरूपा दिव्याभरणभूषित, सूक्ष्माम्बर-विलसित तथा कमलोदर- पुण्यमयी भागीरथी गङ्गा बड़े प्रबल वेगसे सुन्दर चन्द्रकान्तिसे सुशोभित दिव्य रूपका दर्शन तथा उनके प्रति मोहद (चन्द्रकुण्ड ) में गिरती हैं। गङ्गाद्वारा प्रकट आकृष्ट हो उनसे अपनी पत्नी बननेके लिये प्रार्थना किया हुआ वह हद समुद्रके समान प्रतीत होता है। ( आदि. ९७ । २७-३३)। गङ्गाजीका कुछ शर्तों के भगवान् शङ्कर इन्हें एक लाख वर्षतक अपने मस्तकपर साथ उनके अनुरोधको अङ्गीकार करना ( आदि. ९८ । धारण किये रहे । ब्रह्मलोकसे उतरकर त्रिपथगामिनी १-४)। शान्तनुके द्वारा इनके गर्भसे आठ देवोपम गङ्गा पहले हिरण्यशृङ्गके पास विन्दुसरोवरमें प्रविष्ट हुई। पुत्रोंकी उत्पत्ति (आदि० ९८ । १२)। इनके द्वारा वहीसे उनकी सात धाराएँ विभक्त हुई । जिनके नाम इस नवजात शिशुओंका जलमें प्रक्षेप (आदि. ९८ । १३)। प्रकार हैं-वस्वोकसारा, नलिनी, पावनी, सरस्वती, जम्बूभीष्मका जन्म होनेपर उनके भी वधकी आशङ्कासे इनको नदी, सीतागङ्गा और सिन्धु (भीष्म ६ । २८-५०)। शान्तनुकी कड़ी फटकार ( आदि०९८ । १६)। अपने बाणशय्यापर पड़े हुए भीष्मके पास महर्षियोंको भेजना रहस्यको प्रकट करके इनका शान्तनुको उनके नवजात (भीष्म०११९।९७-९८)। इनका भागीरथी नाम पड़नेका शिशुओं ( वसुओं) का संक्षिप्त परिचय देना (आदि. कारण (द्रोण० ६०।६) । इनके द्वारा स्कन्दको ९८ । १७-२४) । वसुओंको वशिष्ठद्वारा प्राप्त कमण्डलुका दान (शल्य० ४६ । ५०)। समुद्रसे बेतकी हुए शापकी बात बताकर और यही एक नम्रताका वर्णन (शान्ति० ११३ । ८-११)। इनका पुत्र चिरकालतक मानवलोकमें रहेगा, ऐसा कहकर जह्नकी पुत्रीरूपसे प्रसिद्ध होना (अनु० ४ । ३)। गङ्गाइनके द्वारा शान्तनुके प्रति भीष्मके भावी गुणोंका
जीमें स्नानका फल ( अनु० २५ । ३९)। इनकी वर्णन और पालनके लिये उसे साथ लेकर इनका अन्तर्धान
महिमाका वर्णन (अनु. २६ । २६-९६)। अग्निहो जाना ( आदि. ९९ अ.)। शान्तनुका गङ्गाजीसे द्वारा स्थापित किये गये शिवजीके तेजको इनका मेरु पर्वतअपने पुत्रको दिखानेके लिये कहना और गङ्गाजीका पाल- पर छोड़ना (अनु० ८५ । ६८)। अग्निसे अपने गर्भके पोषकर बड़े एवं सुशिक्षित किये हुए उस पुत्रको राजा- स्वरूप आदिका वर्णन (अनु० ८५ । ७२-७६)। के हाथमें सौंप देना (आदि. १०० । ३०-४०)। पार्वतीजीसे स्त्रीधर्मका वर्णन करनेके लिये प्रार्थना (अनु० गङ्गा प्राचीन कालमें हिमालयके स्वर्णशिखरसे निकली १४६ । २७-३२)। अपने पुत्र भीष्मकी मृत्युपर और सात धाराओंमें विभक्त हो समुद्रमें गिरी । इन इनका शोक करना ( अनु० १६८ । २३-२८)। सातोंके नाम हैं-गङ्गा, यमुना, सरस्वती, रथस्था, सरयू, भीष्मजीके धराशायी होनेपर वसुओंका गङ्गाजीके तट पर गोमती और गण्डकी । इन धाराओंका जल पीनेवाले आकर अर्जुनको शाप देनेकी इच्छा प्रकट करना और पुरुषोंके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं । ये गङ्गा देवलोक- गङ्गाजीद्वारा उनके इस विचारका अनुमोदन होना में अलकनन्दा और पितृलोकमें वैतरणी नाम धारण (आश्व० ८१ । १२-१५) । करती हैं। इस मर्त्यलोकमें इनका नाम 'गङ्गा' है। महाभारतमें आये हुए गङ्गाजीके नाम-आकाशगङ्गा इनका तीर्थरूपसे वर्णन (वन० ८५। ८८-९९)।
___ भगीरथसुता, भागीरथी, शैलराजसुता, शैलसुता, देवनदी, इनका राजा भगीरथको वर देना (वन० १०८।१५)।
हैमवती, जाह्नवी, जनुकन्या, जह्नुसुता, समुद्रमहिषी, इनका भूतलपर गिरना (वन० १०९।८)। इनके
त्रिपथगा, त्रिपथगामिनी इत्यादि । द्वारा समुद्रका भरा जाना (वन. १०९। १८)।
गङ्गादत्त-राजा शान्तनुके द्वारा गङ्गाजीके गर्भसे उत्पन्न (वन० २२२ । २२)। परशुरामजीसे युद्ध के लिये कुमार देवव्रत (आदि० ९९ । ४५ के बाद दाक्षिणात्य उद्यत भीष्मको डाँटना ( उद्योग० १७८ । ८६-८८)। पाठ) । ( देखिये भीष्म ) . परशुरामजीसे भीष्मके लिये क्षमा माँगना (उद्योग. गङ्गाद्वार-जहाँ गङ्गाजी पर्वतमालाओंसे निकलकर समतल १७८ । ९२)। परशुरामजीके साथ होनेवाले युद्धमें भूमि या मैदान में आती हैं, उस स्थानका नाम गङ्गाद्वार सारथिके मारे जानेपर भीष्मका सारथ्य करना ( उद्योग है; इसीको 'हरद्वार' या 'हरिद्वार' कहते हैं। गङ्गाद्वारमें १८२।१६) | इनका अम्बाको नदी होनेका शाप देना प्रतीपने तपस्या की (आदि०९७।१)। यहाँ भरद्वाज
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गङ्गामहाद्वार
( ९७ )
गण्डा
मुनि रहते थे (आदि. १२९ । ३३)। अर्जुनने उसमें स्नान करनेवाला मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है यहाँके तीर्थोकी यात्रा की (आदि० २१३ अध्याय)। (वन० ८३ । १७६, वन० ८३ । २०१)। गङ्गाद्वार स्वर्गद्वारके समान है, वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटि- नेद-एक तीर्थ, जिसमें तीन रात उपवास करनेवाला तीर्थमें स्नान करनेसे पुण्डरीक यज्ञका फल मिलता है मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता और सदाके लिये ब्रह्मी(वन.८४ । २७, वन०८९ । १५, वन० ९०। भूत हो जाता है (वन०८४ । ६५)। २१)। पत्नीसहित महर्षि अगस्त्यने यहाँ तप गज-(१) एक महापराक्रमी वानरराज, जो एक अरब किया था (वनः ९७।११)। जयद्रथने यही सेनाके साथ श्रीरामके पास आये थे (वन० २८३ । ३)। आराधना करके भगवान् शिवको प्रसन्न किया
(२) सुबलपुत्र शकुनिका एक छोटा भाई, जिसने था ( बन० २७२ । २४-२६ ) । दक्ष-प्रजापतिने
अन्य भाइयोंके साथ रहकर पाण्डवसेनाके दुर्जय व्यूहमें भी यहीं ( कनखलमें ) यज्ञ किया था ( शल्य.
प्रवेश किया था (भीष्म० ९० । २७-३०)। इरावान्३८ । २७-२८ )। गङ्गाद्वार तथा वहाँके तीर्थ
द्वारा इसका वध (भीष्म० ९० । ४५-४६)। विशेष कुशावर्त, विल्वक, नीलपर्वत तथा कनखलमें
गजकर्ण-कुबेरकी सभामें उपस्थित हो उनकी सेवा करनेस्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोकको जाता
वाला एक यक्ष (समा० १० । १६)। है (अनु. २५ । १३) । गङ्गाद्वारमें भीष्मजीने अपने पिताका श्राद्ध किया था, जिसमें पिण्ड लेने के लिये गजशिरा-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५। ६०)।
गण-सेना-गणनाके लिये एक पारिभाषिक शब्द। तीन गुल्मोंशान्तनुका हाथ प्रकट हुआ था (अनु० ८४।१११५)। धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती गङ्गाद्वारके वनमें
____ का एक गण होता है (आदि० २ । २१)। दग्ध हुई थी और वहाँ युधिष्ठिरने उनके लिये श्राद्धकर्म गणा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । ३)।
भी कराया था (आश्रम. ३१ । १४-२०)। गणित-एक सनातन विश्वेदेव, कालकी गतिके ज्ञाता गङ्गामहाद्वार-यह वह स्थान है, जहाँ हिमालयके (अनु० ९१ । ३६)। शिखरसे गङ्गाजी उतरती हैं। यह गडोत्तरीसे भी बहत गणेश-व्यासनिर्मित महाभारतको लिपिबद्ध करनेवाले
आगे है। एक सत्यवादी महात्मा धाममुनि उसकी रक्षा करते विघ्नेश्वर भगवान गणनायक (आदि. १।७५-७९)। हैं। उनकी मूर्ति, आकृति तथा संचित तपस्याका परिमाण गण्डक-एक देश, जो गण्डकी नदीके आस-पास बसा किसीको ज्ञात नहीं होता। उस गङ्गामहाद्वारसे आगे हुआ है । इसे भीमसेनने दिग्विजयके समय जीता था जानेवाला मनुष्य हिमराशिमें गल जाता है । भगवान् नर- (सभा० २९ । ४)।. नारायणको छोड़कर दूसरा कोई उस गङ्गामहाद्वारसे गण्डकण्डू-कुबेरकी सभाका एक यक्ष, जो वहाँ धनाध्यक्ष
आगे कभी नहीं गया ( उद्योग० १११ । १६-२०)। कुबेरकी सेवा करता है (सभा०१०।१५)। गङ्गा-यमुना-सङ्गम-प्रयागका एक पावन तीर्थ, जिसमें गण्डकी-गङ्गाजीकी सात धाराओंमेंसे एक, गण्डकीका स्नान करनेसे दस अश्वमेध यज्ञका फल मिलता और जल पीनेवाले मनुध्य तत्काल पापरहित हो जाते हैं समस्त कुलका उद्धार हो जाता है (वन०८४ । ३५ (आदि. १६९ । २०-२१)। ग्रन्थान्तरों में इनके वन० ८५। ७४-७६)।
दो नाम और प्रसिद्ध हैं-नारायणी और शालग्रामी। गङ्गा-सरखती-सङ्गम-प्रयागका एक पवित्र तीर्थ, जहाँ
महाभारत ( भीष्मः ९। २५ ) में तथा बौद्ध
ग्रन्यों में इनका हिरण्वती या हिरण्यवती नाम भी उपलब्ध स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता और स्वर्गलोक
होता है। श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनने इन्द्रप्रस्थसे प्राप्त होता है (वन० ८४ । ३८)।
गिरिव्रज जाते समय इसे पार किया था ( सभा. गङ्गा-सागर-सङ्गम-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे दस २०।२७)। गण्डकी नदी सब तीयोंके जलसे उत्पन्न
अश्वमेध यज्ञोंके फलकी प्राप्ति होती है। वहाँ गङ्गाके हुई है। वहाँ जानेसे तीर्थयात्री अश्वमेध यज्ञका फल दूसरे पार जाकर स्नान और तीन रात निवास करनेवाला पाता और सूर्य-लोकमें जाता है (वन० ८४ । ११३)। मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है (वन०८५।४-५)।
अग्निकी उत्पत्तिकी स्थानभूता नदियोंमें भाण्डकी' की महा-यहाँ स्नानका फल ( अन० २५ । ३४ा भी गणना है (वन० २२२ । २२)। हिरण्वती या कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित यौवन तीर्थक अन्तर्गत गङ्गाह्रद गण्डकी भारतवर्षकी प्रधान नदियोंमें है (भीष्म०९।२५)। नामका कूप है, जिसमें तीन करोड़ तीर्थोका वास है। गण्डा-सप्तर्षियोंकी सेवा करनेवाली एक दासी (अनु०
म० ना० १३
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गतिताली
गन्धर्वनगर
९३ । २२)। इसका वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष बताकर उससे भय प्रकट करना (अनु० ९३ । ४६)। इसका यातुधानीसे अपने नामका अभिप्राय बताना (अनु. ९३ । ९८)। मृणालकी चोरीके विषयमें शपथ खाना (अनु० ९३ । १२९)। गतिताली-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६७)। गद-भगवान् श्रीकृष्णके अनुज । ये द्रौपदीके स्वयंवरमें
आये थे (आदि० १०५ । १७)। अर्जुन और सुभद्राके लिये दहेज लेकर ये द्वारकासे इन्द्रप्रस्थ आये थे (आदि० २२० । ३२ )। श्रीकृष्णके द्वारका जानेपर गदने इनका स्वागत किया और श्रीकृष्णने उन्हें हृदयसे लगाया (सभा० २।३५)। युधिष्ठिरके मयनिर्मित सभाभवनमें प्रवेश करनेके समय गद भी वहाँ उपस्थित थे ( सभा० ४।३०)। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें अन्य वृष्णिवंशियोंके साथ गद भी पधारे थे ( सभा० ३४ । १६ )। शाल्वके चढ़ाई करनेपर इन्होंने द्वारका नगरीकी रक्षा-व्यवस्थामें सहयोग दिया था ( वन० १५। ९)। युधिष्ठिरके अश्वमेध यज्ञमें श्रीकृष्णके साथ ये भी आये थे (आश्व. ८६ । ५)। मौसल-युद्धमें गदको मारा गया देख भगवान् श्रीकृष्णको विरोधियोंपर बड़ा क्रोध हुआ था ( मौसल० ३।४५)। गदापर्व-शल्यपर्वका एक अवान्तर पर्व (शल्य० अध्याय
३० से ६५ तक)। गदावसान-मथुराका स्थानविशेष । श्रीकृष्णके द्वारा अपने जामाता कंसके मारे जानेपर अत्यन्त कुपित हो मगधराज जरासंधने श्रीकृष्णको मारने की नीयतसे निन्यानबे बार अपनी गदा धुमाकर गिरिजजसे मथुराकी ओर फेंकी। वह गदा निन्यानबे योजन दूर मथुरामें जाकर गिरी । जिस स्थानपर वह गदा गिरी थी, वह स्थान मथुरामें 'गदावसान' नामसे विख्यात हुआ ( सभा. १९।
२२-२५)। गन्धकाली-सत्यवतीका दूसरा नाम । भीष्मने पिताका प्रिय करनेकी इच्छासे उनके साथ माता सत्यवती या गन्धकालीका विवाह करवाया (आदि० ५५ । १८)। (देखिये सत्यवती) गन्धमादन-(१) हिमालयके उत्तरभागमें स्थित बदरिकाश्रमके समीपवर्ती पर्वत । गन्धमादनपर कश्यपजीने तपस्या की (आदि० ३०।१०)। यही भगवान् शेषने भी तप किया था ( आदि. ३६ । ३ )। शतशृङ्गपर्वतपर तपस्याके लिये जाते समय दोनों पत्नियोसहित पाण्डुका यहाँ आगमन (आदि. ११८।१४)। यह गन्धमादन पर्वत दिव्यरूप धारण करके कुबेरकी सभामै रहकर उन
भगवान् धनाध्यक्षकी उपासना करता है ( सभा० १०।३२)। नारायणरूपसे भगवान् श्रीकृष्णने यत्रसायंगृह मुनि होकर दस हजार वर्षांतक गन्धमादन पर्वतपर निवास किया है (वन०१२।११)। तपस्याके लिये जाते समय अर्जुनने हिमवान् तथा गन्धमादन पर्वतको लाँधकर आगेकी यात्रा की थी ( बन. ३७ । १)। तपोबलसे ही गन्धमादनपर जाना सम्भव है-यह लोमशका वचन (वन. १४०। २२)। गन्धमादनपर विशाला बदरीका वृक्ष और भगवान् नर-नारायणका आश्रम है। वहाँ सदा यक्षलोग निवास करते हैं ( वन० १४१ । २२-२४ ) । पाण्डवोका गन्धमादनमें प्रवेश और वहाँकी प्राकृतिक स्थितिका वर्णन ( वन० १४३।२-६)। घटोत्कच और उसके साथियोंकी सहायतासे पाण्डवोका गन्धमादनपर्वतपर पहुँचना (वन० १४५ अ०)। गन्धमादनकी प्राकृतिक शोभाका वर्णन (वन० १५८ अध्याय)। गन्धमादनपर भीमसेनद्वारा कुबेरके सखा राक्षसप्रवर मणिमान्का वध (धन. १६० । ७६-७७ )। अर्जुनका इन्द्रलोकसे लौटकर गन्धमादनपर आना (वन० १६४ अध्याय)। लङ्कासे निर्वासित हुए कुबेरका गन्धमादनपर निवास (वन. २७५ । ३३)। यहाँ नर-नारायणने अवर्णनीय तपस्या की है ( उद्योग० ९६ । १५) । (२) गन्धमादन-निवासी एवं गन्धमादन नामसे प्रसिद्ध एक वानर-यूथपति, जो दस खरब बानरोंकी सेना साथ लेकर श्रीरामके समीप आया था (वन० २८३ । ५)। (३) एक राक्षसराज, जो यक्षों, गन्धवों और निशाचरोंके साथ कुबेरकी सभामें उनकी उपासना
करता है (सभा० १० । ३०-३१)। गन्धर्वतीर्थ-सरस्वती-तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ
विश्वावसु आदि गन्धर्व नृत्य आदिका आयोजन करते रहते हैं। बलरामजीने इसकी यात्रा की थी (शल्य. ३७ ।
९-१३)। गन्धर्वनगर-( नगर, ग्राम आदिका वह आभास, जो
आकाशमें या स्थलमें दृष्टिदोषसे दिखायी पड़ता है। जब गरमीके दिनोंमें मरुभूमि या समुद्र में वायुकी तहोंका घनत्व उष्णताके कारण असमान होता है, उस समय प्रकाशकी गतिके विच्छेदसे दूसरे शहर, गाँव, वृक्ष, नौका आदिका प्रतिविम्ब आकाशमें पड़ता है और कभी-कभी उस आकाशके प्रतिविम्बका प्रतिविम्ब उलटकर पृथ्वीपर पड़ता है, जिससे कभी दूरके गाँव, नगर या तो आकाशमें उलटे टॅगे या समीप दिखायी पड़ते हैं। यह दृष्टिदोष वायुकी असमान तहके कारण उस समय होता है, जब नीचेकी
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गन्धर्वी
गरुड़
तहकी वायु इतनी जल्दी हल्की हो जाती है कि ऊपरकी गयशिर-गया तीर्थके अन्तर्गत जो गय नामक पर्वत है। वायु और ऊपर नहीं जा सकती । गन्धर्वनगरका फल उसीको गयशिर अथवा गयशीर्ष कहते हैं, वहीं अक्षयवट बृहत्संहितामें लिखा है-हिन्दी-शब्द-सागर ) । महर्षियोंके है (वन० ८७।११॥ वन. ९५।९)। अन्तर्धानको गन्धर्वनगरकी उपमा ( आदि. १२५ ।
गयशीर्ष-गयाका ही तीर्थविशेष, जहाँ अक्षयवट है और ३५)।
जहाँ पितरोंके लिये दिया हुआ अन्न अक्षय होता है गन्धर्वी-क्रोधवशाकी पुत्री। सुरभिकी कन्या । इससे घोड़ों
(वन० ८७ ॥ ११॥ वन. ९५। ९)। की उत्पत्ति हुई (आदि. ६५। ६७-६८)।
गया-एक परम पावन तीर्थ, जहाँ जाकर ब्रह्मचर्य-पालनगन्धवती-सत्यवतीने पराशरजीसे अपने शरीरके लिये उत्तम
पूर्वक एकाम-चित्त होनेसे मनुष्य अश्वमेध-यज्ञका फल सुगन्धका वर माँगा । वर पाकर वह गन्धवती' एवं
पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है (वन०८४ । योजनगन्धा' नामसे प्रसिद्ध हुई (आदि०६३।८०८३)। (देखिये सत्यवती)।
८२ वन० ९५ । ८)। गभस्तिमान् द्वीप-एक द्वीप, जिसे शक्तिशाली सहस्रबाहुने ।
, गरिष्ठ-एक मुनि, जो इन्द्रसभामें रहकर वज्रधारी इन्द्रकी जीता था (सभा० ३८। २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ
उपासना करते हैं (समा० . । १३)। पृष्ठ ७९२, कालम )।
गरुड़-कश्यप और विनताके परम तेजस्वी पुत्र, जो भगवान् गय-(१) आयु के द्वारा स्वर्भानुकुमारीके गर्भसे उत्पन्न विष्णुके वाहन और ध्वज हैं (भादि० २३ । १२)। चतुर्थ पुत्र । पुरूरवाके पौत्र (भादि० ७५ । २५)।
ये समय आनेपर अपनी माताकी सहायताके बिना ही (२) एक प्राचीन राजा, जो अमूर्तरयाके पुत्र और अण्डा फोड़कर बाहर निकल आये। इनमें महान् साहस राजर्षियोंमें श्रेष्ठ थे। शमठद्वारा इनके यज्ञका वर्णन और बल-पराक्रम था । ये अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको ( वन० ९५।१८-२९)। ये यमराजकी सभामें
प्रकाशित करते थे। इच्छानुसार रूप धारण करने, चलने, विराजमान होते हैं (सभा० ८।१८)। इन्होंने सम्पूर्ण
पराक्रम दिखानेमें समर्थ थे। प्रज्वलित अग्निपुञ्जके समान तीर्थोंकी यात्रा की और वहाँके पावन जलके स्पर्श तथा अत्यन्त भयङ्कर जान पड़ते थे। इनकी पिङ्गल-वर्णकी महात्माओंके दर्शनसे प्रचुर धन एवं यश लाभ किये थे आँखें बिजलीके समान चमकती थीं। ये पैदा होते ही (वन० ९४ । १८-१९ )। इनके यशकी प्रशंसा सहसा बढ़कर विशाल हो गये और आकाश उड़ चले। (वन. १२१ । ३-१३)। विराट-नगरमें गोहरणके देवता इनें बड़वानलके समान भीषण देख अग्निदेवकी समय अर्जुन और कृपाचार्यका युद्ध देखनेके लिये ये इन्द्र- शरणमें गये । अग्निदेवने बताया कि ये महातेजस्वी के विमानपर बैठकर आये थे (विराट० ५६ । ९-१०)। विनतानन्दन गरुड़ हैं। ये कश्यपकुमार देवताओंके हितैषी इन्होंने हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णकी मार्गमें परिक्रमा और सोंके संहारक हैं (आदि० २३।५-१५)। की थी (उद्योग० ८३ । २७) । इनपर मान्धाताकी देवताओंदारा इनकी स्तुति ( भादि० २३ । १५विजय (द्रोण.६२।१.)। सञ्जयको समझाते हुए २६)। देवताओंद्वारा स्तुति करनेपर इनका अपने नारदजीद्वारा इनके यज्ञका वर्णन (दोण०६६ अध्याय)। तेजको समेटना (आदि. २३ । २७, मादि.२४।२)। इन्होंने गयाम यज्ञ किया । इनके यज्ञमें आयी हुई अपने और माताके दास्यभावसे छूटनेके लिये इनका सरस्वतीका नाम विशाला' है (शक्य. १८ । २०-२१)। साँसे उपाय पूछना (आदि० २७ । १४-१५)। श्रीकृष्णद्वारा इनके यज्ञका वर्णन (शान्ति. २९ । स्वर्ग जाते समय इनके पूछनेपर माताका इनको मार्गका ११-११९)। इनके द्वारा ब्राह्मणको पृथ्वीदान भोजन बतलाना ( भादि० २८ । २)। माताका इनके (पान्ति० २३४ । २६)। इन्होंने मांस-भक्षणका पूछनेपर इन्हें ब्राह्मणकी महिमा बताना और उन्हें न निषेध किया था (अनु. ११५। ५९)। (३) एक
खानेका आदेश देना (आदि०२८।३-१२)। स्वर्ग परम पुण्यमय श्रेष्ठ पर्वतः जो राजा गयद्वारा सम्मानित
जाते समय इनको माताका आशीर्वाद (भादि० २८ । हआ है। वहीं देवर्षिसेवित कल्याणमय ब्रह्मसरोवर है। १५-१६)। निषादोंके साथ एक सस्त्रीक ब्राह्मणका गयामें जाकर श्राद्ध करनेसे मनुष्यकी बीस पीढ़ियोंका इनके मुँहमें आना, इनका कण्ठ जलना तथा इनके उद्धार हो जाता है (वन.८७।८-१.)। (४) बारा उसका परित्याग (आदि. २९ । २-५)। पिता एक देश, जिसके भीतर गय पर्वत और गया तीर्थ है। कश्यपका इनको कछुए तथा हाथीके पूर्वजन्मका इतिहास इस देशके लोग राजा युधिष्ठिरके यहाँ भेंट लेकर आये ये बताकर उन खानेका आदेश देना (नादि. २९ । (सभा०५२।१६)।
१५-३२)। इनके द्वारा हाथी, कछुए एवं बालखिल्य
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गरुड़
( १०० )
गवाक्ष
ऋषियोंको लेकर उड़नेकी अद्भुत घटना (आदि० २९। राजर्षि ययातिके पास चलनेका परामर्श (उद्योग० ११४ । ३७ से ३० । २५)। बालखिल्य मुनियोंद्वारा इनका १-८)। ययातिसे अपने आगमनका प्रयोजन बताना नामकरण (आदि० ३० । ६-७)। इनके पिताके स्तुति (उद्योग०११४ । ११-२०)। ययातिकी कन्याके करनेपर बालखिल्य मुनियोंद्वारा उस शाखाका मिलनेपर गालवसे विदा लेना (उद्योग० ११५।१६)। परित्याग (आदि०३०।१६) । इनके स्वर्गके समीप
गालवको गुरुदक्षिणाके लिये छः सौ घोड़े और माधवीजानेपर वहाँ अनेक प्रकारके अशुभसूचक उत्पात होना
__ को भी गुरुकी सेवामें समर्पित करनेके लिये सम्मति देना (आदि० ३० । ३२-३८)। भयभीत हुए इन्द्रको (उद्योग० ११९ । ९-१०)। इनके द्वारा स्कन्दको बृहस्पतिका अमृतके लिये गरुडके आनेकी सूचना देना अपने पुत्र मयूरका दान (शल्य. ४६ । ५१)। (आदि० ३० । ४०-४२)। अमृत हरण करनेके श्रीनारायणकी आज्ञासे राजा उपरिचर वसुको पातालसे लिये इनको स्वर्ग आते देख इन्द्रका देवताओंको सावधान उठाकर आकाशचारी बनाना ( शान्ति. ३३७ । करना (आदि० ३० । १२-१४)। इनकी जन्मकथा ३७)। ऋषियोंके समाजमें नारायणकी महिमाके विषयमें तथा इनका पक्षियोंके इन्द्रपदपर अभिषेक (आदि० ३१ ।
अपना अनुभव सुनाना ( अनु० १३ । दा० पाठ)। ३४-३५, आदि. ३२ । १-२५)। अपना लघु रूप इनका कार्तिकेयको मयूर भेंट करना ( अनु० बनाकर चक्रमें इनका धुसना और अमृतके स्थानमें प्रवेश ८६ । २०)। करना । वहाँ अमृतरक्षक अद्भुत पराक्रमी दो सपोको महाभारतमें आये हुए गरुड़के नाम-अरुणानुज, मारकर इनका अमृतपात्रको लेकर उड़ना (आदि०
भुजगारि गरुत्मान्, काश्यपेय: खगराट, पक्षिराट पक्षिराज, ३३ । १-११)। मार्गमें इनका भगवान् विष्णुसे
पतगपति, पतगेश्वर, सुपर्ण, ताय, वैनतेय, विनतानन्दउनके ध्वजपर रहने तथा बिना अमृत पिये अजर-अमर
वर्धन, विनतासूनु, विनतासुत, विनतात्मज आदि । होनेका वर पाना एवं उनके लिये भी स्वयं वाहन होनेका वर देना (आदि. ३३ । १२-१६)। इन्द्रके साथ गरुड़व्यूह-सेनाकी मोर्चाबंदीकी एक विधि, जिसके अनुसार इनका युद्ध और मित्रता (आदि.३।२८से ३४। सैनिकोंको गरुड़की आकृतिमें खड़ा किया जाता ७) । इन्द्रके कथनानुसार गकड़के द्वारा नागोंका अमृत- है (भीष्म० ५६ । २)। की प्राप्तिसे वञ्चित होना, इन्द्रके मनोरथकी पूर्ति और गर्ग-एक प्राचीन महर्षि । इनका द्रोणाचार्यके पास आकर विनताका दासीभावसे छुटकारा (आदि० ३४ । ८- उनसे युद्धबंद करनेके लिये कहना(द्रोण० १९०।३५-४०)। २०)। इनके कुशोपर अमृत रखनेसे उनका पवित्र होना महाराज पृथुके दरबारमें ज्योतिषी होना (शान्ति. ५९ । ( आदि. ३४ । २४)। ये अर्जुनके जन्म-समयमें वहाँ १५)। महात्मा गर्गने किसी समय गन्धर्वराज पधारे थे ( आदि० १२२ । ५०)। श्रीकृष्णके ध्वजपर विश्वावसुको वेद्य तत्त्वकी नित्यताका उपदेश दिया था गरुडकी स्थिति (सभा० २४ । २२-२५)। इनका (शान्ति० ३१८ । ५९-६३)। शिवमहिमाके विषयमें ऋद्धिमान् नामक नागको पकड़ना (वन० १६०। युधिष्ठिरसे अपना अनुभव बताना ( अनु० १८ । १५)। इनकी गर्वपूर्ण आत्मप्रशंसा (उद्योग० १०५। ३८-३९)। ३-१७)। भगवान् विष्णुद्वारा इनके गर्वका नाश गर्गस्रोत-सरस्वतो-तटवर्ती एक तीर्थ, जहाँ तपस्यासे पवित्र (उद्योग० १०५।२२)। इनकी भगवान्से क्षमा
अन्तःकरणवाले वृद्धगर्गने कालका ज्ञान, कालकी गति, याचना (उद्योग०१०५। २७-२९)। गुरुदक्षिणा- ग्रहों और नक्षत्रोंके उलट-फेर आदि बातोंकी जानकारी की के लिये चिन्तित हुए गालवको इनका आश्वासन देना (शल्य० ३७ । १४-१८)। (उद्योग० १०७ । १७-१९)। गालवसे पूर्व दिशाका
गषय-एक महापराक्रमी वानरराज, जो एक अरब सेनाके वर्णन करना (उद्योग० १०८ अध्याय ) । गालवसे
'साथ श्रीरामके समीप पधारे थे (वन.२८३ । ३)। दक्षिण दिशाका वर्णन करना (उद्योग०१०९अध्याय)। गालवसे पश्चिम दिशाका वर्णन करना (उद्योग.११. गवल्गण-मुनियोक समान ज्ञानी एवं धर्मात्मा सञ्जयके पिता अध्याय) । गालवसे उत्तर दिशाका वर्णन करना (आदि० ६३ । ९०)। (उद्योग. १११ अध्याय)। ऋषभ पर्वतपर पंखहीन गवाक्ष-(१) एक गोलांगूल ( लंगूर ) जातिका वानर, होना और शाण्डिलीसे क्षमा याचना करना (उद्योगः
जो देखने में बड़ा भयङ्कर था। अपने साथ साठ सहस्र ११३।८-११)। शाण्डिलीके वरदानसे पंखोकी प्राप्ति कोटि(६खरब)वानर-सेना लेकर श्रीरामके सामने उपस्थित (उद्योग० ११३। ७)। गालवको धनके लिये हुआ (वन० २८३ | ४)। (२) सुबलपुत्र शकुनिका
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गवायन
( १०१ )
गान्धारी
एक छोटा भाई,जिसने अन्य भाइयों के साथ रहकर पाण्डव- ऋचीक मुनिको अपनी कन्या सत्यवतीका दान ( वन सेनाके दुर्जय व्यूहमें प्रवेश किया था (भीष्म ९० । ११५ । २८ शान्ति. ४९ । ७)। तीर्थयात्राके २७-३०) । इरावानद्वारा इसका वध (भीष्म० प्रसङ्गसे इनका ऋचीकके आश्रमपर जाना (शान्ति. ९० । ४५-४६)।
४९ । १३)। कुशिकपुत्र गाधि दीर्घकालतक संतानगवायन-एक यज्ञका नाम (वन०८४ । १०२)। हीन थे अतः संतानकी इच्छासे पुण्य कर्म करनेके लिये गविष्ठ-दस विख्यात दानवोंमेंसे एक ( आदि. ६५ ।
वे वनमें रहने लगे। वहाँ सोमयाग करनेसे उन्हें एक
कन्या हुई, जिसका नाम सत्यवती था । इसे ऋचीक ३०)। यही राजा द्रुमसेनके रूपमें प्रकट हुआ था (आदि. ६७ । ३४-३५)।
मुनिने माँगा । तब गाधिने शुल्क लेकर कन्या देनेकी
इच्छा प्रकट की और चन्द्रमाके समान कान्तिमान् तथा गाङ्गेय-(१) गङ्गानन्दन देववत भीष्म ( आदि० ९९ ।
श्यामवर्णके एक कर्णवाले एक हजार घोड़े लेकर उन्होंने ४७)। गङ्गानन्दन देवव्रत भीष्म (अनु० २६ । २)।
अपनी कन्या उन ब्रह्मर्षिको दे दी ( अनु० ४।६(२) गङ्गापुत्र भगवान् स्कन्द (शल्य.४४ । १६)।
२०)। ये अपने पुत्र विश्वामित्रको राज्यसिंहासनपर (३) गङ्गाजीका जल (वन० ३ । ३५)।
बिठाकर स्वर्गलोकको चले गये (शल्य० ४० । १६)। गाण्डीव-वरुणदेवका एक दिव्य धनुष, जो अग्निदेवके द्वारा
गान्धर्व-एक प्रकारका विवाह (आदि० ७३ । ९) । वर अर्जुनको दो अक्षय तरकोंके साथ प्राप्त हुआ (आदि. ६।। ४७-४८. उद्योग. १५८ । ६) । अग्निका
और वधू दोनों एक-दूसरेको स्वेच्छासे स्वीकार कर लें।
यह गान्धर्व विवाह है । यह विवाह क्षत्रियोंके लिये वरुणसे अर्जुनके लिये गाण्डीव धनुष, दो अक्षय तरकस और कपिध्वज रथ माँगना तथा वरुणका उनकी माँग
धर्मानुकूल है (आदि० ७३ । १३)। स्वीकार करके वे सब वस्तुएँ प्रस्तुत करना ( आदि० गान्धार-एक प्राचीन देश, आधुनिक मतके अनुसार २२४ । ३-१७ ) । अर्जुनद्वारा गाण्डीव-ग्रहण
इसमें सिन्धु और कुनर नदीसे लेकर काबुल नदीतकका (आदि० २२४ । २०)। गाण्डीव धनुष शत्रुओंकी
प्रदेश और पेशावर तथा मुल्तान सम्मिलित हैं। गान्धारीके सेनाके लिये कालरूप है । यह सब आयुधोंसे विशाल है। पिता सुबल यहींके राजा थे (आदि० १०९।११)। यह अकेला ही एक लाख धनुर्षोंके समान है। देवताओं, गान्धारी-(१) पूरुवंशीय महाराज अजमीढ़की द्वितीय दानवों और गन्धर्वोने इसका बहुत वर्षोंतक पूजन किया पत्नी (आदि. ९५ । ३७)। (२) गान्धारराज है। इसमें कभी कहीं कोई चोटका चिह्न नहीं आया है। सुबलकी पुत्री (आदि. १०९।९)। ये मतिके अंशसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इसे एक हजार वर्षांतक धारण किया उत्पन्न हुई थीं (आदि० ६७ । १६०)। इन्होंने था। तदनन्तर प्रजापतिने पाँच सौ तीन वर्षोंतक इसे भगवान् शङ्करकी आराधना करके उनसे अपने लिये सौ अपने पास रक्खा । फिर इन्द्रने पचासी वर्षांतक, सोमने पुत्र प्राप्त होने का वरदान पा लिया था (आदि. १०९। पाँच सौ वर्षोंतक तथा राजा वरुणने सौ वर्षोंतक इसे धारण १०)। पिताद्वारा इनका धृतराष्ट्र के लिये वाग्दान (आदि. किया था (विराट० ४३ । १०६) । वज्रकी गाँठको १०९ । १२)। गान्धारी पतिव्रत-परायणा थी। उन्होंने जब 'गाण्डीव' कहा गया है । यह धनुष इसीका बना हुआ
सुना कि मेरे भावी पति अंधे हैं और माता-पिता मेरा विवाह है । इसलिये 'गाण्डीव' कहलाता है । जगत्का संहार
उन्हींके साथ करना चाहते हैं, तब रेशमी वस्त्र करनेके लिये इसका निर्माण हुआ है । देवतालोग सदा
लेकर उसके कई तह करके उसीसे अपनी आँखें बाँध ली। इसकी रक्षा करते हैं (उद्योग० ९८ । १९)। गाण्डीव
उन्होंने निश्चय कर लिया था कि मैं सदा पतिके अनुकूल दूसरेको दे दो' ऐसा कहनेवालेका सिर काट लेना यह
रहूँगी । उनके दोष नहीं देखूगी ( आदि. १०९ । अर्जुनका उपांशु व्रत था (कर्ण० ६९ । ९-१०)।
१३-१५) । शकुनिद्वारा इनके विवाह संस्कारका अग्निदेवके कहनेपर वरुणको वापस देनेके लिये अर्जुनने
सम्पादन ( आदि. १०९ । १५-१७ ) । सुन्दरी गाण्डीव धनुष और अक्षय तरकसोको जलमें डाल दिया
गान्धारीने अपने उत्तम स्वभाव, सदाचार तथा सद्व्यवहारोंथा (महाप्रस्था० ।। ३६-४२)।
से समस्त कौरवोंको प्रसन्न कर लिया । अपने सुन्दर गाधि-विश्वामित्रके पिता । गाधिके पिताका नाम 'कुशनाभ बतोवसे समस्त गुरुजनोका प्रसन्नता प्राप्त करके उत्तम - था (आदि०७४ । ६९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। व्रतका पालन करनेवाली पतिपरायणा गान्धारीने कभी
ये कुशिक (या कुशनाभ) के पुत्र तथा कान्यकुब्ज देशके दसरे पुरुषोंका नामतक नहीं लिया (आदि० १०९ । .. अधिपति थे (आदि. १७४ । ३) । इनके द्वारा १८-१९)। इनके द्वारा व्यासका सत्कार और उनसे
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गान्धारी
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( १०२ )
सौ पुत्रोंकी प्राप्ति के लिये वर याचना (आदि० ११४ । ८ ) । गान्धारीका गर्भ धारण । कुन्तीके पुत्र होनेका समाचार सुनकर महान् दुःखके कारण अपने उदरपर आघात और इनके गर्भ से एक मांस-पिंडका प्रादुर्भाव ( आदि० ११४ । ९-१२) । व्यासजीके आदेशानुसार सौ टुकड़ों में विभक्त हुए उस मांस-पिण्डकी रक्षा व्यवस्था होनेपर उससे सौ पुत्रोंकी उत्पत्ति (आदि० ११४ । १७-२२) । पुत्रीके लिये इनका मनोरथ एवं व्यासद्वारा उसकी पूर्ति ( आदि० ११५ । ९-१७ ) । इनके द्वारा धृतराष्ट्रको चेतावनी ( सभा० ७५ । २- १० ) । इनका दुर्योधनको समझाना ( उद्योग० ६९ । ९-१० ) । युद्ध होने के विषयमें इनका धृतराष्ट्रको ही दोषी बताना ( उद्योग ० १२९ । १०-१५ ) । पाण्डवको आधा राज्य देकर संधि करनेके लिये दुर्योधनको समझाना ( उद्योग ० १२९| १९–५४ ) । कर्णवधका समाचार सुनकर मूर्छित होकर गिरना (कर्ण० ४ । ५ कर्ण० ९६ । ५५) । श्रीकृष्ण के समझाने पर उन्हें उत्तर देना ( शल्य० ६३ । ६६ - ६८ ) । पाण्डवोंको शाप देनेकी इच्छा करना ( स्त्री० १४ । २ ) । व्यासजीके समझानेपर उन्हें उत्तर देना ( स्त्री० १४ । १४ - २१ ) । भीमसेनपर कुपित होकर उनसे अन्यायका कारण पूछना ( स्त्री० १५ । १२–१४; स्त्री० १५ । २१–२३ ) । युधिष्ठिरपर कुपित होकर उन्हें पूछना और इनकी तनिक-सी दृष्टि पड़ते ही युधिष्ठिरके पैरोंके नखोंका काला पड़ जाना ( स्त्री० १५ । २४-३० ) । कुन्ती और द्रौपदीको धीरज देना ( स्त्री० १५ । ४१-४४ ) | युद्धस्थलमें मारे गये स्वजनोंको देखकर श्रीकृष्णके समक्ष विलाप करना ( स्त्री० १६ । १८- ६० ) । दुर्योधनको मरा हुआ देखकर श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप करना ( स्त्री० १७ । ५ - ३२ ) । अपने अन्य पुत्र तथा दुःशासनको देखकर श्रीकृष्णके सम्मुख इनका करुण रोदन (स्त्री० १८ अध्याय ) । विकर्ण, दुर्मुख, चित्रसेन, विविंशति और दुःसहको देखकर श्रीकृष्णके सम्मुख इनका विलाप ( स्त्री० १९ अध्याय ) । इनके द्वारा श्रीकृष्णसे उत्तरा और विराट-कुलकी स्त्रियोंके शोक और विलापका वर्णन ( स्त्री० २० अध्याय ) । कर्णके शवको देखकर उसके शौर्य तथा उसकी स्त्रीके विलापका श्रीकृष्णके सम्मुख वर्णन (स्त्री० २१ अध्याय ) । अवन्तीनरेश, जयद्रथ तथा दुःशलाको देखकर इनका श्रीकृष्णके सम्मुख शोक प्रकट करना ( स्त्री० २२ अध्याय ) । शल्य, भगदत्त, भीष्म और द्रोणको देखकर श्रीकृष्ण के सम्मुख इनका विलाप ( स्त्री० २३ अध्याय ) । भूरिश्रवाकी पत्नियोंका विलाप तथा शकुनिको देखकर श्रीकृष्ण के सम्मुख इनका शोकोद्वार ( स्त्री०
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गार्ग्य
२४ अध्याय ) । अन्यान्य वीरोंको मरा हुआ देखकर विलाप करना और कुपित होकर श्रीकृष्णको शाप देना ( स्त्री० २५ । १-३६ स्त्री० २५ । ४३-४६ । राजा धृतराष्ट्र के साथ इनका वनको प्रस्थान ( आश्रम ० १५ । ८- ९ ) । वनमें व्यासजीके समक्ष खड़ी होकर इनका उनसे महाराज धृतराष्ट्र तथा द्रौपदी, सुभद्रा, कुन्ती आदि सभी कुरुकुलकी स्त्रियोंके स्वजनोंके लिये होनेवाले शोकका वर्णन करना और सबको मरे हुए सम्बन्धियोंके दर्शन कराने का प्रस्ताव करना ( आश्रम० २९ । ३७ - ४९ ) । व्यासजीकी कृपासे इनका राजा धृतराष्ट्र तथा कुरुकुलकी स्त्रियोंके साथ गङ्गाजीसे प्रकट हुए अपने परलोकवासी स्वजनोंके दर्शन करना ( आश्रम० ३२ अध्याय ) | धृतराष्ट्र और कुन्तीके साथ इनका गङ्गाद्वारके वनमें दावानलसे दग्ध होना ( आश्रम ० ३७ । ३१-३२ ) । युधिष्ठिरका इनके लिये जलाञ्जलि देना तथा नाना प्रकारकी वस्तुओं का दान एवं श्राद्ध कर्म करना ३९ अध्याय ) | 'गान्धारीके शाप की सफलताका अवसर प्राप्त हुआ है' - ऐसी श्रीकृष्णकी मान्यता ( मौसल ० २ । २१ ) । धृतराष्ट्र के साथ इनको कुबेरके दुर्लभ लोकी प्राप्ति (स्वर्गा० ५। १४) । (३) उमादेवीकी
आश्रम ०
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अनुगामिनी सहचरी (वन० २३१ । ४८ ) । महाभारतमें आये हुए गान्धारीके नाम - गान्धारराजदुहिता,
सौबलेय, सौबली, सुबलजा, सुबलपुत्री, सुबलात्मजा आदि । गायत्री - चौबीस अक्षरोंका एक वैदिक मन्त्र; स्थावर-जङ्गम उन्नीस प्राणी हैं। इनके साथ पाँच महाभूतोंको गिन लेनेपर इनकी संख्या चौबीस हो जाती है । गायत्रीके भी इतने ही अक्षर होते हैं; इसलिये इन चौबीस भूर्तोको भी लोकसम्मत गायत्री कहते हैं । जो इस सर्वगुणसम्पन्न पुण्यमयी गायत्रीको यथार्थरूपसे जानता है वह कभी नष्ट नहीं होता है ( भीष्म० ४ । १५-१६ ) । गायत्री त्रिपुर - विजयके समय महादेवजीके रथके ऊपरी भागकी बन्धन-रज्जु बनी थी ( कर्ण० ३४ । ३५ ) । कन्या गायत्रीने कार्तवीर्य अर्जुनको ब्राह्मणोंकी श्रेष्ठताके विषय में चेतावनी देते हुए आकाशवाणीद्वारा अपना मन्तव्य प्रकट किया था ( अनु० १५२ । १४, २० ) । गायत्री-स्थान- एक तीर्थस्थान, जहाँ तीन रात निवास करनेवाला सहस्र गोदानका फल पाता है ( वन० ८५। २८ ) । गायन - स्कन्दका एक सैनिक ( शक्य० ४५ । ६७ ) । गार्ग्य ( १ ) - एक प्राचीन ऋषि, जो देवराज इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । १८ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५५ ) । इनके द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन
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गार्दभि
( १०३ )
गीता
(अनु. १२७ । ९-१४)। (२) एक भारतीय गिरिका-शुक्तिमती नदीकी पुत्री, जिनका जन्म कोलाहल जनपद, जिसे भगवान् श्रीकृष्णने जीता था (द्रोण पर्वतके द्वारा शुक्तिमतीके गर्भसे हुआ था (आदि. ११।१५)।
६३ । ३७)। यही राजा उपरिचर वसुकी पत्नी हुई गार्दभि-विश्वामित्रके एक ब्रह्मवादी पुत्र (अनु० ४।५९)। (आदि० ६३ । ३९)। गार्हपत्य-(१) सात पितरों से एक (सभा० ११ । ४६)। गिरिगह्वर-पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद ( भीष्म (२) एक अग्नि (वन० २२४ । ३५)।
९। ४२)। गालव-युधिष्ठिरकी सभामें विराजनेवाले एक ऋषि (सभा.
गिरिप्रस्थ-निषधदेशका एक पर्वत, जिसके आश्रयमें छिपे ४ । १५)।ये इन्द्रकी सभामें भी बैठते हैं (सभा०॥ १०)। गुरुदक्षिणा माँगनेके लिये इनका गुरु विश्वामित्र- रहकर इन्द्रने अपना कार्य सिद्ध किया था (वन० से हठ करना ( उद्योग० १०६ । २५)। गुरुदक्षिणाके
३१५। १३)। लिये आठ सौ घोड़े पानेकी चिन्ता ( उद्योग० १०७ । गिरिव्रज-मगधदेशकी प्राचीन राजधानी । जरासंध गिरिव्रज३-१५)। गरुडकी पीठपर बैठकर पर्व दिशाकी ओर में ही रहता था। उसके समयमें गिरिव्रजकी जो प्राकृतिक जाते हुए गरुडके वेगसे इनका व्याकुल होना (उद्योग
स्थिति थी, उसका वर्णन श्रीकृष्णने अर्जुनसे इस प्रकार ११२।५-१८)। गरुडके साथ धनके लिये ययातिके पास
किया था यहाँ पशुओंकी अधिकता है, जलकी सदा जाना ( उद्योग० ११४।९) । ययातिकन्या माधवी
पूर्ण सुविधा रहती है, रोग-व्याधिका प्रकोप नहीं होता। को लेकर अयोध्यानरेश हर्यश्वके पास जाना ( उद्योग
सुन्दर महलोंसे भरा-पूरा यह नगर बड़ा मनोहर जान ११५।१८)। राजा हर्यश्वसे दो सौ घोड़े शुल्करूपमें
पड़ता है । यहाँ विहारोपयोगी विपुल, वराह, वृषभ लेकर माधवीको एक पुत्र उत्पन्न करनेके लिये उनके
(ऋषभ), ऋषिगिरि ( मातंग) तथा चैत्यक नामक हाथमें सौंपना (उद्योग. ११६ | १५)। पुत्रोत्पत्तिके
पर्वत हैं। बड़े-बड़े शिखरोंवाले ये पाँचों सुन्दर पर्वत बाद पुनः माधवीको लेकर इनका दिवोदासके पास जाना
शीतल छायावाले वृक्षोंसे सुशोभित हैं और एक साथ (उद्योग. ११६ । २२)। दो सौ घोड़े शुल्करूपमें
मिलकर एक-दूसरेके शरीरका स्पर्श करते हुए मानो लेकर माधवीको दिवोदासके हाथमें एक पुत्रकी उत्पत्तिके
गिरिव्रज नगरकी रक्षा कर रहे हों। यहाँ अर्बुद और लिये देना ( उद्योग० ११७७)। पुत्रोत्पत्तिके पश्चात्
शक्रवापी नामवाले दो नाग रहते हैं। स्वस्तिक और वहाँसे माधवीको लेकर गालवका उशीनरके पास जाना
मणि नामक नागोंके भी यहाँ उत्तम भवन हैं । यहाँ और उशीनरको माधवीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न करनेकी
सदा मेघ समयपर वर्षा करते हैं (सभा० २१-१०)। प्रेरणा देते हुए उनसे चार सौ घोड़े माँगना ( उद्योग.
यहाँ जरासंधने अपनेद्वारा जीते गये नरेशोंको कैद करके ११८। ३-८)। गरुडकी सलाहसे विश्वामित्रको छ:
रखा था (सभा० १४ । ६३)। गिरिजजसे मथुराकी सौ घोड़े और माधवीको देकर गुरुदक्षिणा चुकाना
ओर जरासंधने अपनी गदा फेंकी थी (सभा० १९ । (उद्योग० ११८।१४)। फिर एक पुत्रकी उत्पत्तिके
२३-२४ )। श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन गिरिव्रजमें बाद माधवीको राजा ययातिको लौटाकर इनका वनको
गये । भीमने वहाँ जरासंधको मारा और भगवान् जाना ( उद्योग० ११८ । २४) । स्वर्गसे गिरे हुए
श्रीकृष्णने बंदी राजाओंको कैदसे छुड़ाया। फिर भयभीत ययातिको इनका अपने तपका आठवाँ भाग देना
हो शरणमें आये हुए जरासंधपुत्रको राजाके पदपर
अभिषिक्त किया (सभा० २४ अध्याय)। भीमसेनने (उद्योग० १२१ । २८) । नारदजीसे श्रेयके विषयमें
पूर्वदिग्विजयके समय जरासंधके पुत्रको 'कर' देनेकी प्रश्न करना (शान्ति. २८७ । ५-११)। शिवमहिमा
शर्तपर उसके राज्यपर प्रतिष्ठित कर दिया (सभा. के विषयमें युधिष्ठिरसे अपना अनुभव सुनाना (अनु.
३० । १७-१८) । गिरिव्रजमें ही राजर्षि धुन्धुमार १८ । ५२-५८)। अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होने
देवताओंके वरदानको त्यागकर सोये थे ( अनु. पर शपथ करना (अनु० ९४ । ३७)। महर्षि गालव विश्वामित्रजीके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक थे ( अनः ।।
६ । ३९)। ५२) । इनके पुत्रका नाम शृजवान था, जो एक गीताप्रया-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य.४६ । महर्षि थे और जिन्होंने वृद्धकन्यासे विवाह किया था )। (शल्य०५२ । १४-१५)। (२)एक बाभ्रव्यगोत्रीय गीता-कुरुक्षेत्रमें युद्धके अवसरपर स्वजनोंके वधकी ऋषि, जो वेदके क्रमविभागके पारङ्गत विद्वान् थे आशङ्कासे मोहग्रस्त हुए अर्जुनके शोक, चिन्ता और (शान्ति० ३४२। १०४)।
दैन्यका निवारण करके उन्हें कर्तव्य कर्ममें निष्काम भावसे
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गीता
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( १०४ )
लगा देनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको जो उपदेश दिया था, वही 'गीता' ( अथवा 'श्रीमद्भगवद्गीता' ) के नाम से विख्यात है । वेदव्यासजीने गीता के इस प्रसङ्गको भीष्मपर्वके श्रीमद्भगवद्गीतापर्व में अध्याय २५ से ४२ तक लिपिबद्ध किया है । इसमें कुल सात सौ श्लोक हैं । श्रीमद्भगवद्गीता के प्रत्येक अध्यायके विषयोंका संक्षिप्त दिग्दर्शन इस प्रकार है- दोनों सेनाओं के प्रधान- प्रधान वीरों एवं शङ्खध्वनिका वर्णन तथा स्वजन - वध के पाप भयभीत हुए अर्जुनका विषाद (भीष्म० २५ अध्याय ) । अर्जुनको युद्धके लिये उत्साहित करते हुए भगवान्के द्वारा नित्यानित्यवस्तुविवेचनपूर्वक सांख्ययोग, कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञकी स्थिति और महिमाका प्रतिपादन ( भीष्म० २६ अध्याय ) । ज्ञानयोग और कर्मयोग आदि समस्त साधनों के अनुसार कर्तव्य कर्म करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन एवं स्वधर्म पालनकी महिमा तथा कामनिरोधके उपायका वर्णन ( भीष्म० २७ अध्याय ) । सगुण भगवान् के प्रभाव, निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषोंके आचरण और उनकी महिमा - का वर्णन करते हुए विविध यज्ञों एवं शानकी महिमाका वर्णन ( भीष्म० २८ अध्याय ) । सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तिसहित ध्यानयोगका वर्णन ( भीष्म० २९ अध्याय ) । निष्काम कर्मयोगका प्रतिपादन करते हुए आत्मोद्धार के लिये प्रेरणा तथा मनोनिग्रहपूर्वक ध्यानयोग एवं योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन
( भीष्म० ३० अध्याय ) | ज्ञान-विज्ञान, भगवान् की व्यापकता, अन्य देवताओंकी उपासना एवं भगवान्को प्रभावसहित न जाननेवालोंकी निन्दा और जाननेवालों की महिमाका कथन ( भीष्म० ३१ अध्याय ) । ब्रह्म अध्यात्म और कर्मादिके विषय में अर्जुनके सात प्रश्न और उनका उत्तर एवं भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गोंका प्रतिपादन ( भीष्म० ३२ अध्याय ) | ज्ञान-विज्ञान और जगत् की उत्पत्तिका, आसुरी और दैवी सम्पदावालों का, प्रभावसहित भगवान् के स्वरूपका, काम निष्काम उपासनाका एवं भगवद्भक्तिकी महिमा का वर्णन ( भीष्म० ३३ अध्याय ) । भगवान्की विभूति और योगशक्तिका तथा प्रभावसहित भक्तियोगका कथन, अर्जुनके पूछनेपर भगवान् द्वारा अपनी विभूतियोंका और योगशक्तिका पुनः वर्णन ( भीष्म० ३४ अध्याय ) । विश्वरूपका दर्शन करानेके लिये अर्जुनकी प्रार्थना, भगवान् और संजयद्वारा विश्वरूपका वर्णन, अर्जुनद्वारा भगवान् के विश्वरूपका देखा जाना, भयभीत हुए अर्जुनद्वारा भगवान् की स्तुति प्रार्थना, भगवान् द्वारा विश्वरूप और चतुर्भुजरूपके दर्शनकी महिमा और केवल अनन्य भक्तिसे ही भगवान्की प्राप्तिका कथन
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गुरुस्कन्द
( भीष्म० ३५ अध्याय ) । साकार और निराकारके उपासकोंकी उत्तमताका निर्णय तथा भगवत्प्राप्तिके उपायका एवं भगवत्प्राप्तिवाले पुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन ( भीष्म० ३६ अध्याय ) । ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ और प्रकृति-पुरुषका वर्णन ( भीष्म० ३७ अध्याय ) | ज्ञानकी महिमा और प्रकृति- पुरुषसे जगत् की उत्पत्तिका, सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणोंका, भगवत्प्राप्ति के उपायका एवं गुणातीत पुरुषके लक्षणोंका वर्णन ( भीष्म० ३८ अध्याय ) । संसार वृक्षका, भगवत्प्राप्तिके उपायका, . जीवात्माका प्रभावसहित परमेश्वरके स्वरूपका एवं क्षरअक्षर और पुरुषोत्तमके तत्त्वका वर्णन भीष्म० ३९ अध्याय ) । फलसहित दैवी और आसुरी सम्पदाका वर्णन तथा शास्त्रविपरीत आचरणोंको त्यागने और शास्त्रअनुकूल आचरण करने के लिये प्रेरणा ( भीष्म० ४० अध्याय ) | श्रद्धाका और शास्त्रविपरीत घोर तप करनेवालों का वर्णन, आहार, यज्ञ, तप और दानके पृथकपृथक् भेद तथा ॐ तत् सत्के प्रयोगकी व्याख्या ( भीष्म० ४१ अध्याय ) । त्यागका, सांख्य सिद्धान्तका, फलसहित वर्ण-धर्मका, उपासनासहित ज्ञाननिष्ठाका, भक्तिसहित निष्काम कर्मयोगका एवं गीताके माहात्म्यका वर्णन ( भीष्म० ४२ अध्याय ) | गुडाकेश- अर्जुनका एक नाम ( आदि० १३८ । ८ ) । ( निद्राको जीत लेनेके कारण अर्जुनका नाम गुडाकेश हुआ ) | ( देखिये अर्जुन ) गुणकेशी-इन्द्रके प्रिय सारथि मातलिकी कन्या (उद्योग० ९७ । १३ ) | नागकुमार सुमुखके साथ विवाह हुआ ( उद्योग० १०४ । २९ ) ।
गुणमुख्या स्वर्गकी एक अप्सरा, जो अर्जुनके जन्मकाल में अन्य अप्सराओंके साथ नृत्य करने आयी थी ( आदि० १२२ । ६१ ) । गुणावती-एक नदी, जिसके उत्तर प्रान्त में परशुरामजी ने क्षत्रियोंका संहार किया था ( द्रोण० ७० । ८ )। गुणावरा स्वर्गकी एक अप्सरा, जो अर्जुनके जन्मकालमें अन्य अप्सराओंके साथ नृत्य करने आयी थी ( आदि० १२२ । ६१ ) ।
गुप्तक-सौवीर देशका राजकुमार, जो जयद्रथका साथी था ( वन० २६५ । १० ) । अर्जुनद्वारा इसका वध ( वन० २७१ । २७ ) ।
गुरुभार - गरुड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग ० १०१ । १३ ) ।
गुरुस्कन्द - एक पर्वतराज ( आश्व० ४३ । ५ ) ।
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गुल्म
गोदावरी
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गुल्म-सेना-गणनाके लिये एक पारिभाषिक शब्द-तीन छोड़कर पितामह ब्रह्माजीकी सेवामें रहता था (वन.
सेनामुखका एक गुल्म होता है ( आदि० २ । २०)। २७४ । १२)। गुह-एक दक्षिण भारतीय म्लेच्छ जातिका नाम (शान्ति० गोकर्ण-(१) एक प्राचीन तीर्थ, जहा पूर्वकालमें भगवान् २०७॥ ४२)।
शेषने तपस्या एवं एकान्तवास किया था (आदि.
३६ । ३)। यह भगवान् शिवका स्थान है, यहाँ तीर्थगुह्यक-(१) देवयोनिके अन्तर्गत एक जाति, इस जातिके लोग
यात्राके प्रसंगमें अर्जुनका आगमन हुआ था (आदि. द्रौपदीका स्वयंवर देखने आये थे (आदि. १८६७)। ये
२१६। ३४)। यह समुद्रके मध्यमें विद्यमान, त्रिभुवनकुबेरकी सभाका वहन करते हैं (सभा० १० ।३)।
विख्यात और अखिल लोकवन्दित तीर्थ है। यहाँ ब्रह्मा गन्धमादनपर भीमसेनने अपनी गदासे गुह्यकोंको मारा था। (शल्य. ११।५५-५७)। महाभारत-युद्धमें मारे गये
आदि देवता, तपोधन महर्षि और भूत-यक्ष आदि
भगवान् शङ्करकी उपासना करते हैं। यहाँ भगवान् योद्धाओंमेंसे कुछ लोग गुह्यकोंके लोकोंको प्राप्त हए (स्वगों०
शिवकी पूजा करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य ४।२३)(२) एक यक्ष,जो कुबेरकी सभामें उनकी सेवाके लिये
अश्वमेध यज्ञका फल पाता और गणपति-पद प्राप्त कर उपस्थित होता था (सभा०१०।१५)। वह ब्रह्माजीकी
लेता है (वन० ८५ । २४-२७)। गोकर्ण तीर्थ तीनों सभामें भी उपस्थित होता है (सभा० ११ । ४९)।
लोकोंमें विख्यात है । वह पवित्र कल्याणमय और शुभ गृत्समद-इन्द्र के प्रिय सखा और बृहस्पतिके समान एक
है । अशुद्ध अन्तःकरणवालोंके लिये यह तीर्थ अत्यन्त श्रेष्ठ मुनि । शिव-महिमाके विषयमें इनका युधिष्ठिरसे अपना
दुर्लभ है (वन०८८।१५-१६)। (२) यह एक अनुभव बताना (अनु० १८। १९-२९)। ये वीतहव्य
तपोवन है (भीष्म० ६ । ५१)। के पुत्र थे और रूपमें इन्द्रकी समानता करते थे, किसी समय दैत्योंने इन्हें 'इन्द्र' मानकर पकड़ लिया था।
गोकर्णा-कर्णके सर्पमुख बाणमें प्रविष्ट अश्वसेन नागकी इनके पुत्रका नाम सुचेता था (अनु०३० । ५८-५९)।
माता (कर्ण० ५० । ४२)। ऋग्वेदमें महामना गृत्समदकी श्रेष्ठ श्रति विराजमान है, गोकर्णी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६।२५)। ब्राह्मणलोग इनका बड़ा सम्मान करते हैं । ये ब्रह्मर्षि गोकुल-अधिक गौओंके रहनेका स्थान एवं नन्दका गोकुलगृत्समद बड़े तेजस्वी और ब्रह्मचारी थे (अनु. ३०। जहाँ पले हुए ग्वालोको सव्यसाची अर्जुनने मारा था ६०-६१)।
(सभा० ३८ । पृष्ठ ७९९-८००; कर्ण० ५। ३८) । गृध्रकूट-एक पर्वत, जहाँ लंगूरोंने मगधराज बृहद्रथको गोतीर्थ-एक तीर्थ, जहाँ पाण्डवलोग तीर्थयात्रा करते बचाया था (शान्ति० ४९। ८२)।
__ हुए गये थे (वन० ९५ । ३)।गृध्रपत्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ७४)। गोदा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य०४६ । २८)। गृध्रवट-महादेवजीका स्थान, जहाँ भस्मस्नान कर्तव्य है। गोदावरी-एक नदी, जो वरुणकी सभामें उपस्थित होती है वहाँ यात्रा करनेसे ब्राह्मणको व्रतके पालनका पुण्य फल
(सभा०९।२०)। यह दक्षिण भारतके नासिक जिलेमें प्राप्त होता है तथा अन्य वर्णवालोंके सारे पाप नष्ट हो ।
स्थित त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके समीप ब्रह्मगिरिसे निकलती जाते हैं (वन०८४ । ९१-९२)।
और समुद्र में मिलती है। इसमें अगाध जल भरा है। गृहदेवी-राक्षसी जरा, जिसे ब्रह्माजीने गृहदेवी' के नामसे
बहत-से तपस्वी इसका सेवन करते हैं तथा यह सबके उत्पन्न किया था ( सभा० १८ । १.२)। दानवोंके
लिये कल्याणस्वरूपा है ( बन० ८८।२)। सिद्ध विनाशके लिये इसकी सृष्टि हुई है। यह दिव्यरूप धारण
पुरुषोंसे सेवित गोदावरीके तटपर जाकर स्नान करनेसे करनेवाली है । जो अपने घरकी दीवारपर अनेक पुत्रोसे
गोमेध यज्ञका फल मिलता है और वासुकिका लोक प्राप्त घिरी हुई युवती स्त्रीके रूपमें इसका चित्र अङ्कित करती
होता है (वन०४५।३३,८८।२)। राजा युधिष्ठिर तीर्थहै, उसके घरमें सदा वृद्धि होती है ( सभा० १८।
यात्रा करते हुए यहाँ भी आये थे। यह समुद्रगामिनी नदी है ( वन० ११८ ॥३)।यह अग्निकी उत्पत्तिस्थान है
(वन. २२२ । २४)। दशरथनन्दन भगवान् गेरु-एक पर्वतीय धातु (वन० १५८ । ९५)।
श्रीरामने (पञ्चवटीमें) गोदावरीके तटपर कुछ कालगो (गौ)-महर्षि पुलस्त्यकी भार्याका नाम गो या गौ था। तक निवास किया था (वन० २७७ । ४१)। भारतवर्षइनके गर्भसे वैश्रवण नामक पुत्र हुआ, जो पिताको की प्रधान नदियोंमें गोदावरीकी गणना है (भीष्म०
म. ना०१४
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गोधा
( १०६ )
गोवासन
९।१४) । जो जनस्थानमें गोदावरीके जलमें स्नान मेंसे है ( भीष्म० ९ । १८)। दिवोदासकी नगरीका करके उपवास करता है, वह पुरुष राजलक्ष्मीसे सेवित एक छोर गङ्गाके उत्तरतटपर था और दूसरा छोर होता है (अनु० २५। २९)।
गोमतीके दक्षिण किनारेतक फैला हुआ था (अनु० गोधा-(गोध)-पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद (भीष्म ३०।1८)। ९। ४२)।
गोमतीमन्त्र-एक मन्त्र, जिसे गौओंके बीचमें खड़ा होकर गोनन्द-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४३ । ६५)। मन-ही-मन जपा जाता है। ऐसा करनेवाला पुरुष शुद्ध एवं गोपति-(१)कालकेतुका साथी एक राक्षस, जो महेन्द्रके
निर्मल (पापरहित) हो जाता है । जो तीन रात उपवास करके शिखरपर इरावतीके किनारे श्रीकृष्णद्वारा आइत हुआ
गोमतीमन्त्रका जप करता है, उसे गौओंका वरऔर अक्षप्रपतनके अन्तर्गत नेमिहंस-पथ नामक स्थानमें
दान प्राप्त होता है । इसके जपसे पुत्रार्थीको पुत्र, धनार्थीको मारा गया (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ,
धन और पतिकी इच्छावाली स्त्रीको मनके अनुकूल पृष्ठ ८२४ ) । (२) एक देवगन्धर्व, जो कश्यपपत्नी
पतिकी प्राप्ति होती है (अनु० ८१ । ४२-४५)। मुनिके गर्भसे उत्पन्न हुआ था (वन०६५। ४२)। गोमन्त-(१)द्वारकाके निकटका एक श्रेष्ठ पर्वत, (गोमान् या यह अर्जुनके जन्ममहोत्सव में आया था ( आदि. १२२। रैवतक) जहाँ जरासंधको पछाड़कर बलरामजीने उसे जीवित ५५)। (३) शिबिका एक पुत्र, परशुरामजीके
छोड़ दिया था क्योंकि उसकी मृत्यु भीमसेनके हाथसे होनेक्षत्रियसंहारके बाद वनमें गौओंने इसकी रक्षा की थी। वाली थी (सभा० २४।४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृथ्वीने कश्यपजीको इसका परिचय दिया था (शान्ति. पृष्ठ ७१.)। (२) पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद ४९ । ७८-७९)। (४) भगवान् शिवका एक नाम (भीष्म०९। ४३)। (३) कुशद्वीपका एक पर्वत (अनु० १७ । ११५)। (५) भगवान् विष्णुका
(भीष्म० १२।८)। एक नाम ( अनु० १४९।६१)।
गोमुख-(१) क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न एक गोपराष्ट्र-पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद (भीष्म० ९। राजा ( आदि० ६७ । ६३-६६)। (२) इन्द्रसारथि १४)।
___ मातलिका पुत्र (उद्योग० १००।८)। गोपायन-गोपोंकी सेनाका नाम ( भीम० ७१ । १३)। गोरथ-मगधकी राजधानी गिरिव्रजके निकटका एक पर्वत गोपालकक्ष-एक पूर्वीय देश, जिसे भीमसेनने दिग्विजयके (सभा० २० । ३०)।
समय जीता था (सभा० ३०। ३। भीष्म० ९ । ५६)। गोलोक-एक दिव्य सच्चिदानन्दमय लोक, जो समस्त लोकगोपाली-(१) एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके सम्मानार्थ पालोंके लोकोंसे ऊपर है और वहाँ प्रधानतः दिव्य
इन्द्रसभामें नृत्य किया था ( वन. ४३ । ३०)। गौओंका निवास है। इसकी समस्त लोकोंसे ऊपर स्थिति (२) स्कन्दकी अनुचरी मातृका(शल्य० ४६ । ४)। क्यों है--इसके कारणका ब्रह्माजीद्वारा प्रतिपादन (अनु. गोप्रतार-सरयूनदीका उत्तम तीर्थ, जहाँ भृत्य, सेना और ८३ अध्याय)। गोलोक भगवान् नारायणका ऊपरका ओठ वाहनोंसहित भगवान् श्रीराम परमधामको पधारे थे और ब्रह्मलोक नीचेका ओठ है (शान्ति० ३४७ । ५२)। (वन० ८४ । ७०-७३)।
गोवर्धन-(१) व्रजमण्डलका सुप्रसिद्ध पर्वत, जो भगगोभवन-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक पवित्र तीर्थ, जहाँ वान् श्रीकृष्णका स्वरूप माना गया है, इसे गिरिराज' स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है (वन. कहते हैं । जब इन्द्र व्रजवासियोको अपनी पूजा न पाने८३ । ५०)।
के कारण मिटा देने के लिये व्रजमें घोर वर्षा करने लगे, गोमती-एक प्रसिद्ध नदी, गङ्गाकी सात धाराओंमेंसे एक, उन दिनों भगवान् श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें ही गौओंकी
इसका जल पीनेवाले मनुष्योंके पाप तत्काल नष्ट हो रक्षाके लिये एक सप्ताहतक गोवर्धन पर्वतको अपने जाते हैं (आदि. १६९ । २०.२१)। यह वरुणकी हाथपर उठा रक्खा था (सभा० ३८ । दाक्षिणात्य सभामें उपस्थित होती है (सभा०९।२३)। युधि- पाठ पृष्ठ ८०१ सभा०४१।९, उद्योग० १३०।४६)। ष्ठिर तीर्थयात्राके प्रसंगसे यहाँ गये थे (वन० ९५। (२) बाहीक देशके राजभवनके द्वारपर स्थित एक २)। यह विश्वभुक नामक अग्निकी पत्नी है (वन० वटवृक्ष, जो गोवर्धन नामसे प्रसिद्ध था ( कर्ण०४४। २१९ । १९)। जारूथीमें गोमतीके तटपर दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे गोवासन-(१)शिवि देशके राजा, जिनकी पुत्री देविका(वन० २५५ । ७०)। यह भारतवर्षकी प्रधान नदियों ने स्वयंवरमें राजा युधिष्ठिरको अपना पति चुना था
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गोविकर्ता
( १०७ )
गौतम
(आदि० ५९ । ७६)। इन्होंने एक सहस्र योद्धाओं- को साथ ले काशिराज अभिभूके पराक्रमी पुत्रका सामना किया था (द्रोण. ९५। ३८ द्रोण. ९६ । ११)। (२) एक देश, जहाँके निवासी राजा युधिष्ठिरके लिये तीन खरबकी सम्पत्ति लेकर भेंट देनेके निमित्त आये थे,
(सभा० ५१।५)। गोविकर्ता-महाबली बैलोंको नाथनेवाला (विराट० २ ।
गोवितत-अश्वमेध-यज्ञका एक भेद, यही यज्ञ कण्वने अपने
दौहित्र भरतसे करवाया था (आदि०७४ । १३०)। गोविन्द-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम, गिरिराज गोवर्धन
को धारण करके गौओं तथा व्रजवासियोंकी रक्षा करनेके कारण इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णका गोविन्द' नाम रक्खा, गवेन्द्र' (गौओंके इन्द्र ) पदपर उनका अभिषेक किया (सभा० ३८ । २९ के बाद, पृष्ठ ८०१, कालम १)। गोविन्दगिरि-क्रौञ्चद्वीपका एक पर्वत (भीष्म० १२ ।
१९)। गोवज-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ६६)। गोवत-गोव्रतधारी पुरुष, जो जहाँ कहीं भी सो लेता है, जिस किसी भी फल-मूल आदिसे भोजनका कार्य चला लेता है तथा वल्कल आदि जिस किसी वस्तुसे शरीरको ढक लेता है, वही यहाँ गोव्रतधारी कहलाता है (उद्योग. ९९ । १४)। गोश्टङ्ग-दक्षिणका एक श्रेष्ठ पर्वत, जिसपर सहदेवने विजय
पायी थी (सभा०३१ । ५)। गोसव-एक महायश (वन० ३० । १७)। गोस्तनी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ३)। गोहरणपर्व-विराटपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
२५ से ६९ तक)। गौतम-(१) सप्तर्षियोंमेंसे एक, जो अन्य ऋषियोंके
साथ अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे थे (आदि० १२२ । ५०-५१)। इनके एक पुत्रका नाम शरद्वान् गौतम था, जो सरकण्डोंके साथ उत्पन्न हुए थे ( आदि. १२९ । २)। इनके दूसरे पुत्रका नाम चिरकारी था (शान्ति० २६६ । ४)। ये ब्रह्माजीकी सभामें उनकी सेवाके लिये उपस्थित होते हैं (सभा० ११ । १९)। इनका अत्रि मुनिके साथ संवाद ( वन० १८५। १५१८)। इनका सत्यवानके जीवित होनेका विश्वास दिला- कर राजा द्युमत्सेनको आश्वासन देना ( वन. २९८ । ११-१३)। सावित्रीसे वनका वृत्तान्त पूछना (वन. २९८ । ३३-३५)। द्रोणाचार्यके पास आकर उनसे
युद्ध बंद करनेके लिये कहना (दोण०१९० । ३६-४०)। शर-शय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखनेके लिये अन्य मुनियों के साथ ये भी पधारे थे (शान्ति० ४७ । १०)। इनका पारियात्र पर्वतपर अपने आश्रममें साठ हजार वर्षातक तपस्या करना । इनके यहाँ लोकपाल यमका पदार्पण और इनके द्वारा उनका सत्कार (शान्ति. १२९ । ४-८) । यमके साथ इनकी धर्म-चर्चा (शान्ति. १२९ । ९)। ये उत्तर-दिशाका आश्रय लेकर रहते हैं (शान्ति० २०८ । ३३)। इनका अपने पुत्र चिरकारीको उसकी माता अहल्याके वधके लिये आदेश देना (शान्ति. २६ ।)। वनमें जाकर पत्नी-वधके विषयमें चिन्ता करना ( शान्ति. २६६ । ४७-५८)। वनसे लौटनेपर पत्नीको जीवित पाकर इनके द्वारा पुत्रका अभिनन्दन (शान्ति. २६६ । ६७७१)। इनके शापसे इन्द्रका हरी दाढ़ी-मूंछोंसे युक्त होना (शान्ति० ३४२ । २३) । इनका अङ्गिरासे तीर्थोके विषयमें प्रश्न (अनु. २५ । ५-६) । राजा वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष बताना (अनु. ९३ । ४२)। अरुन्धतीसे अपने शरीरके मोटे न होनेका कारण बताना (अनु० ९३ । ६७) । यातुधानीके समक्ष अपने नामकी व्याख्या करना । (अनु. ९३ । १०)। मृणाल की चोरीके विषयमें शपथ खाना (अनु. ९३ । १२२. १२३)। अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु० ९४ । १९) । अहल्यापर वलात्कारके कारण इनका इन्द्रको शाप (अनु. १५३ । ६)। अपने सभी शिष्योंमें उत्तङ्कपर ही इनका अधिक स्नेह
और प्रेम होना, उत्तङ्कके इन्द्रिय-संयम, शौच, पुरुषार्थ, क्रियाशीलता और उत्तमोत्तम सेवासे इनका अधिक प्रसन्न होना तथा अधिक प्रेमके कारण ही इनका उत्तङ्कको घर जानेकी आज्ञा न देना (आश्व० ५६ । ४-६)। इनकी आज्ञासे इनकी पुत्रीका रोते हुए उत्तङ्कके आँसुओंका अपने हाथोंमें लेना, इनका उत्तङ्कसे उनके मानसिक शोकका कारण पूछना । उनकी घर जानेकी इच्छा जानकर उन्हें सहर्ष आज्ञा प्रदान करना। उनके गुरु-दक्षिणा देनेकी इच्छा प्रकट करनेपर उनकी सेवासे ही अपनेको संतुष्ट बताना और गुरु-दक्षिणा लेनेकी इच्छा न करना, साथ ही उत्तङ्कके षोडशवर्षीय युवक हो जानेपर उनके साथ अपनी कन्याका विवाह कर देना (आश्व० ५६ । ११--२४)। इनका अपनी पत्नीसे उत्तङ्कके विषयमें पूछना और वह राक्षस सौदासके यहाँ कुण्डल लाने गया है-यह जानकर पत्नीको उसके वधकी आशङ्का बताकर इस अनुचित आशाके लिये उपालम्भ देना । उत्तङ्ककी रक्षाके लिये अपनी पत्नी अहल्याकी इच्छाका अनुमोदन
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गौतमी
( १०८ )
घटोत्कच
करना (आइत्र० ५६ । ३२–३५)। गौतमके पुत्र गौरपृष्ठ-एक राजर्षि, जो यमसभामें उपस्थित हो सूर्यपुत्र शरद्वान्को भी गौतम' कहा जाता है ( आदि० १२९। यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । २१)। १) तथा शरद्वान् के पुत्र कृप और कन्या कृपीके लिये गौरमुख-शमीक ऋषिके एक शिष्य । इन्होंने गुरुकी भी गौतम' (आदि० १३० । १४) एवं गौतमी' आज्ञासे राजा परीक्षित्को शृङ्गी ऋषिके शापका समाचार नामका प्रयोग देखा जाता है ( आदि० १२९ । ४७)। सुनाया ( आदि० ४२ । १४-२२)। ( २ ) एक ऋषि, जो अन्य ऋषि-मुनियोके साथ गौरवाहन-एक राजा, जो युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें पधारे युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे (सभा०४।७)।
ये (सभा० ३४ । १२)। ये इन्द्रकी सभामें भी उपस्थित होकर देवेन्द्रकी उपासना करते थे (सभा०७।१८)। इन्होंने ही गिरिखजमें गौशिरा-एक मुनि, जो इन्द्रकी सभामें रहकर वज्रधारी
__ इन्द्रकी उपासना करते हैं (सभा० ७।११)। निवास करके उशीनर देशकी शूद्र-जातीय कन्याके गर्भसे काक्षीवान् नामक पुत्र उत्पन्न किया था (सभा०२१।३- गौराश्व-एक राजर्षि, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी ५)। (३) एक तपस्वी एवं विद्वान् ब्राह्मण मुनि, जो उपासना करते हैं (सभा० ८ । १८)। एकत, द्वित और त्रितके पिता थे (शल्य० ३६ । ७९)। गौरी-( १ ) महादेवी पार्वतीका एक नाम (वन० (४) एक तपस्वी ब्राह्मण, जिन्होंने अपने हाथीका ८४ । १५१)(२) उमादेवीकी अनुगामिनी सहचरी अपहरण हो जानेपर धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र के साथ संवाद (वन० २३१ । ४८ )। (३) वरुणकी प्रिय पत्नी किया था (अनु० १०२ अध्याय)। (५) मध्यदेशका ( उद्योग. ११७ । ९ )। (४) भारतवर्षकी एक रहनेवाला एक कृतघ्न ब्राह्मण, जिसका नाम गौतम था: प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय जनता पीती है इसका डाकुओंके गाँवमें निवास (शान्ति.१६८।३६)। (भीष्म०९।२५)। अपने गाँवके एक सदाचारी ब्राह्मणद्वारा फटकारे जानेपर गौरीशिखर-एक त्रिभुवनविख्यात तीर्थ, वहाँ स्तनकुण्डमें उसके द्वारा समुद्र की यात्रा (शान्ति० १६९।१)। स्नान करनेसे वाजपेय यज्ञका तथा देवता-पितरोंका पूजन वनमें राजधर्मा नामके वकका अतिथि होना (शान्ति० करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है (वन० ८४ । १६९।१.)। राजधर्माका आतिथ्य स्वीकार करके
१५१-१५४ )। धनके लिये राक्षसराज विरूपाक्षके पास पहुँचना (शान्ति.
ग्रन्थिक-विराटनगरमें अज्ञातवासके समय नकुलका नाम १००।२६ ) । विरूपाक्षसे वार्तालाप और धन लेकर
(विराट०३।४)। लौटना ( शान्ति. १७१।२-२८)। राजधर्माको
ग्रामणी-भगवान् शिवके एक गण, जिनके नामका शुद्धमार डालनेका विचार (शान्ति. १७१ । ३४-३५)।
भावसे कीर्तन करनेवाले मनुष्योंके सब पाप नष्ट हो जाते जलती हुई लकड़ियोंद्वारा राजधर्माका वध (शान्ति. १७२ । ३ ) । राक्षसोंद्वारा इसका वध (शान्ति.
हैं (अनु० १५० । २५)। १७२। २३-२४ ) । इन्द्रद्वारा जीवनदान ( शान्ति. ग्रामणीय-ग्रामशासक क्षत्रियोंके वंशज, जिन्हें दिग्विजयके १७३ । १२-१३)। इसे देवताओंका शाप ( शान्ति समय नकुलने जीता था (समा० ३२ । ९)। १७३ । १७-१८)।
(घ) गौतमी-(१) द्रोणाचार्यकी भार्या (आदि०१२९॥ ४७)। घट-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६३)। ( देखिये-कृपी ) (२) गौतम गोत्रकी एक कन्या घटजानक-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें जटिला, जिसने सात ऋषियोंसे विवाह किया था (आदि० विराजते हैं ( सभा० ४।१३)। हस्तिनापुर जाते १९५।१४)। यह ब्रह्माजीकी सभामें विराजमान होती
समय मार्गमें श्रीकृष्णसे इनकी भेंट (उद्योग० ८३ । है (सभा०११।४०)। द्रौपदीकी पतिसेवाके विषय
६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। में गौतमी जटिलाका दृष्टान्त (शान्ति० ३८ । ५)।
घटोत्कच-हिडिम्बाके गर्भसे भीमसेनद्वारा उत्पन्न एक राक्षस (३) एक ब्राह्मणी । अपने पुत्रकी मृत्युपर इसका
(आदि. १५४ । ३.)। इसका 'घटोत्कच' नाम व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके साथ संवाद (अनु.
होनेका कारण ( आदि. १५४ । ३८)। आवश्यकता । २१-३२ ) । ( ४ ) एक नदी ( अनु.
पड़नेपर अपने पितृवर्गों ( पाण्डवों ) की सेवाके लिये १६५ । २१)।
इसका कुन्तीको आश्वासन (आदि. १५४ । ४५)। गौर-कुशद्वीपका एक पर्वत ( भीष्म० १२ । ४)। इन्द्रकी शक्तिका आघात सहन करनेके लिये इन्द्रद्वारा
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घटोत्कच
( १०९ )
घृताची
इसकी सृष्टि ( आदि. १५४।१६)। सहदेवकी आज्ञा- मायामय घोर युद्ध करके कौरव-सेनाका संहार करना से इसकी लङ्का-यात्रा ( सभा० ३१ । ७२ के बाद (द्रोण. १७९ । २५-४७)। कर्णद्वारा छोड़ी हुई दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७५९)। इसके द्वारा विभीषणको इन्द्रप्रदत्त शक्तिके प्रहारसे घटोत्कचका वध (द्रोण. पाण्डवोंका परिचय ( सभा० ३१ । पृष्ठ ७६२)। १७९ । ५८)। यह यों और ब्राह्मणोंसे द्वेष एवं घृणा विभीषणसे कर लाकर इसका सहदेवको देना (सभा० करता था (द्रोण. १८१ । २६-२७)। व्यासजीके ३८ । पृष्ठ ७६४ ) । भीमसेनकी आज्ञासे द्रौपदीको कंधेपर आवाहन करनेपर यह भी गङ्गाजीके जलसे प्रकट हुआ चढ़ाकर इसका गन्धमादनकी यात्रा करना ( बन. था (आश्रम० ३२ । ८)। यह मृत्युके पश्चात् यक्षों १४५। ४-८) । इसका दुर्गम मार्गमें पाण्डवोंको एवं देवताओंमें मिल गया ( स्वर्गा० ५ । ३७)। पीठपर बिठाकर ले जाना और उन्हें संकटसे पार करना महाभारतमें आये हुए घटोत्कचके नाम-भैमसेनि, (वन० १७६ । २१)। प्रथम दिनके संग्राममें इसका
भैमि, भीमसेनसुत, भीमसेनात्मज, भीमसूनु, भीमसुता अलम्बुष के साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ४५ । ४२-४५)।
हैडिम्ब, हैडिम्बि, राक्षस, राक्षसाधिप, राक्षसपुङ्गव, दुर्योधनके साथ युद्ध (भीष्म० ५८ । १४-१५)।
राक्षसेश्वर, राक्षसेन्द्र इत्यादि । भगदत्तके साथ मायायुद्ध छेड़ना और इसके अद्भुत पराक्रमसे पगजित होकर कौरवसेनाका उस दिन युद्ध
घटोत्कचवधपर्व-द्रोणपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय बंद कर देना (भीष्म० ६४ । ५७-७२) । भगदत्त
१५३ से १८३ तक)। द्वारा इसका पराजित होना (भीष्म० ८३ । ३०-४०)। घण्टोदर-एक दैत्य या दानव, जो वरुणकी सभामें उनकी दुर्योधनके साथ युद्ध करके उसे प्राण-संशयमें डाल देना सेवाके लिये उपस्थित होता है ( सभा० ९ । १३४)। (भीष्म० ९१ । १९ से १२ । ७ तक)। वङ्गनरेशके घण्टाकर्ण-ब्रह्माद्वारा स्कन्दको दिये गये चार पार्षदोंमेंसे गजराजको मारकर उसे पराजित करना ( भीष्म तीसरा । पहला नन्दिसेन, दूसरा लोहिताक्ष और चौथा कुमुद९२ । १२)। इसके द्वारा विकर्णकी पराजय (भीष्म माली था (शल्य० ४५ । २३-२४)। १२ । ३६ ) । इसके द्वारा बृहदलकी पराजय (भीष्म० घर्णिका-शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानीकी धाय (आदि. ९२।११)। कौरव महारथियोंके प्रहारसे व्याकुल
७८ । २५)। होकर इसका आकाशमें उड़ना ( भीष्म
घृतपा-घी पीकर रहनेवाले ऋषि, जो ब्रह्माजीकी आशाके ९३ । ६ )। इसकी आसुरी मायासे
अधीन रहकर सनातनधर्मका पालन करते हैं (शान्ति. कौरवसेनाका पलायन (भीष्म ९४ । ४१-४७) ।
१६६ । २४)। दुर्मुखके साथ इसका इन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११०। १३.
घतवती-भारतकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय १४; भीष्म० १११।३७-३९)। धृतराष्ट्रद्वारा इसकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०। ७२-७३)। अलम्बुषके
प्रजा पीती है (भीष्म० ९ । २३, भीष्म० ९ । ३१)। साथ इसका युद्ध (द्रोण० १४ । ४६-४७)। इसके घृततोय (अथवा घृतोद ) समुद्र-धीका समुद्र (भीष्म० घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । ७५)। अलम्बुपके साथ १२ । २)। युद्ध (द्रोण० २५ । ६१-६२) । अलायुधके साथ युद्ध घृताची-एक श्रेष्ठ अप्सरा, जिसके गर्भसे महर्षि प्रमतिद्वारा (द्रोण. ९६ । २७-२८)। इसके द्वारा अलम्बुषका
द्वारा अलम्बुषका झरु' का जन्म हुआ था ( दि. ५। ९)। यह वध (द्रोण० १०९ । २८-२९)। अश्वत्थामाके साथ छः प्रधान अप्सराओंमेंसे एक है (आदि०७४।१८)। युद्धमें इसके पुत्र अञ्जनपर्वाका उसके द्वारा मारा जाना घृताची उन प्रधान ग्यारह अप्सराओंमेंसे एक है, जो तथा इसका भी पराजित होना (द्रोण. १५६ । ५६- अर्जुनके जन्मोत्सवमें नाचने-गाने आयी थी (आदि. १८६) । अश्वत्थामाद्वारा इसकी पराजय (द्रोण. १२२ । ६५)। इसके दर्शनसे स्खलित हुए भरद्वाज १६६ । १५-३०)। श्रीकृष्ण और अर्जुनकी आज्ञासे मनिके वीर्यसे द्रोणाचार्यका जन्म हुआ था (आदि. इसका कर्णके साथ युद्धके लिये जाना (द्रोण. १७३। १२९ । ३५-३८, वन० ४३ । २९) । यह कुबेरसभा६३-६५)। घटोत्कच और जटासुरके पुत्र अलम्बुषका की प्रमुख अप्सरा है (सभा०१०।१०)। इसे घोर युद्ध तथा अलम्बुषका वध (द्रोण.१७४ अध्याय)। देखकर भरद्वाजजीके वीर्यका स्खलन और श्रुतावती नामक इसके रूप तथा रथ आदिका वर्णन और कर्णके साथ कन्याकी उत्पत्ति (शल्य० ३४८ । ६४-६६)। इसके मायामय घोर युद्ध (द्रोण. १७५ अ०)। इसके द्वारा दर्शनसे व्यासजीके वीर्यका स्खलन और शुकदेवजीका अलायुधका वध (द्रोण. १७८ । ३१)। इसका जन्म (शान्ति. ३२४ । २-९)। इसने अष्टावक्रके
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घृतार्चि
( १९० )
चन्द्र
स्य.
स्वागत-सत्कारके निमित्त कुवेरसभामें नृत्य किया था चक्रव्यूह-द्रोणनिर्मित एक सैन्य-व्यूह, जिसका भेदन करना (अनु० १९ । ४४)।
पाण्डव-दलमें केवल अर्जुन जानते थे, अभिमन्यु इसमें घृतार्चि-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम, जिसकी व्याख्या प्रवेश करके निकलना नहीं जानता था, अतः उसमें
उन्होंने श्रीमुखसे की है (शान्ति. ३४२ । ८५)। बाहरसे सहायता न पहुँच सकनेके कारण मारा गया। घोर-महर्षि अङ्गिराके वारुणसंज्ञक पुत्रोंमेंसे एक (अनु.
इस व्यूहका निर्माण गाडीके पहियेकी आकृतिमें होता है। ८५। १३१)।
इसका वर्णन (द्रोण. ३४ । १३-२४)। घोरक–पश्चिमोत्तर भारतका एक जनपद, जहाँ के लोगोंने चक्राति एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४५)।
राजा युधिष्ठिरको बहुत धन अर्पित किया था ( सभा. चक्ष-विवस्वान् (सूर्य ) के ही बोधक दिवःपुत्र आदि ५२ । १४)।
बारह सूर्यों से एक (आदि. १।१२)। घोषयात्रापर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय चक्षुर्वर्धनिका-शाकद्वीपकी एक नदी (भीष्म० ११ । २३६ से २५७ तक)।
३३)। घ्राणश्रवा-स्कन्दका एक सैनिक एवं पार्षद, जो निरन्तर चण्डकौशिक-गौतमपुत्र महात्मा काक्षीवान्के पुत्र (सभा०
योगयुक्त रहकर सदा ब्राह्मणोंसे प्रेम रखते हैं (शल्य. १७ । २२)। इनकी कृपासे मगधनरेश बृहद्रथको ४५। ५७)।
पुत्रकी प्राप्ति हुई। वही जरासंधके नामसे विख्यात हुआ
(आदि. १७ । २८-४१)। इनके द्वारा जरासंधका चक्र-(१) नागराज वासुकिसे उत्पन्न एक नाग, जो भविष्यकथन (आदि० १९ अध्याय)। सर्पसत्र में जल मरा था (आदि०५७।६)। (२) भगवान्
चण्डतुण्टक-गरुड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक (उद्योग. श्रीकृष्णका सुप्रसिद्ध अस्त्र सुदर्शनचक्र, जिसे अग्निदेवने
१०१।९)। उन्हें प्रदान किया था (आदि० २२४ । २३)। (३) ,
चण्डबल-इसी नामसे प्रसिद्ध एक वानर, जो कुम्भकर्णके एक भारतीय जनपद (भीष्म. १। ४५)। (४)
मुखका ग्रास बन गया था (वन० २८७ ।।)। भगवान् विष्णुद्वारा स्कन्दको दिये गये तीन पार्षदोंमेसे एक ( शल्य. ४५। ३७ ) । (५) त्वष्टाद्वारा
चण्डभार्गव-वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ एक विद्वान् ब्राह्मण, जो स्कन्दको दिये गये दो अनुचरोंमेंसे एक, दूसरेका नाम
च्यवनमुनिके वंशमें उत्पन्न हुए थे, ये अपने समयके अनुचक्र था (शल्य०४५।४.)।
सुप्रसिद्ध कर्मकाण्डी थे और राजा जनमेजयके सर्पयशचक्रक-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु.४।
के होता बनाये गये थे (आदि. ५३ । ४-५)। ५४)।
चतुरश्व-एक राजर्षि, जो यमसभामें उपस्थित होकर चक्रदेव-वृष्णिवंशका एक अतिरथी वीर ( सभा० १४। सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । ११)। ५७-५८)।
चतुर्दष्ट्र-स्कन्दका एक सैनिक अथवा पार्षद, जो ब्राह्मणोंसे चक्रद्वार-एक पर्वत, जो सुलभाके पूर्वजोंके यौमें देवराज प्रेम रखनेवाला है (शल्य० ४५। ६२)। इन्द्रके सहयोगसे यज्ञवेदीमें ईटाकी जगह चुना गया था (शान्ति० ३२० । १८५)।
चतुर्वेद-सात पितरोंमेंसे एक ( सभा० ११ । ४७)। चक्रधनु-महर्षि कर्दमसे उत्पन्न भगवान् कपिलमुनि ही चतुष्कर्णी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य.
चक्रधनु कहलाते हैं। ये दक्षिणदिशामें रहते हैं । इन्होंने ४६ । २५)। ही सगर-पुत्रोंको भस्म कर दिया था ( उद्योग० १०९। चतुष्पथरता-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य. १७-१८)।
४६ । २७)। चक्रधर्मा-विद्याधरोंके अधिपति, जो अपने छोटे भाइयोंके चत्वरवासिनी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य. साथ कुबेरकी सभामें उपस्थित हो भगवान् कुबेरकी ४६ । १२)। उपासना करते हैं (सभा० १० । २७)।
चन्द्र-(१) एक श्रेष्ठ दैत्य, जो चन्द्रमाके समान सुन्दर चक्रनेमि-स्कन्दको अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । ५)। और चन्द्रवर्मा नामसे विख्यात काम्बोज देशका राजा चक्रमन्द-एक नाग, जो बलरामजीके परमधाम पधारते हुआ (आदि० ६७ । ३१-३२)। (२) चन्द्रमा समय उनके स्वागतके लिये आया था ( मौसल. (आदि० २०९ । २६ वन०११८ । १२)।(देखिये४। १६)।
चन्द्रमा)।
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चन्द्रक
( १११ )
चन्द्रमा
चन्द्रक-बिडालोपाख्यानमें वर्णित उल्लूका नाम (शान्ति. (भीष्म० १२ । ४२-४३)। इनकी सभी पलियाँ अनु१३८ । ३३)।
पम रूपवती थी; परंतु रोहिणीका सौन्दर्य उन सबसे चन्द्रकुण्ड-(चन्द्रहृद)-एक ह्रद या कुण्ड, जिसमें
बढ़कर था, अतः वे अन्य पत्नियोंकी उपेक्षा करके मेरुपर्वतसे भागीरथी गङ्गा गिरती हैं (भीष्म० ६ ।
सदा रोहिणीके पास रहने लगे। यह देख दूसरी २९)।
स्त्रियोंने पिता दक्षसे उनकी शिकायत की । दक्षने चन्द्रकेतु-कौरवपक्षका एक योद्धा, अभिमन्युद्वारा इसका
__समझाते हुए कहा-'तुम्हें सबपर समान भाव रखना वध (द्रोण.४८ । १५.१६)।
चाहिये ।' उनके इस आदेशकी अवहेलना करके सोम
पूर्ववत् रोहिणीमें ही आसक्त रहने लगे । इससे कुपित चन्द्रतीर्थ-एक प्राचीन तीर्थ, जिसकी बहुत-से ऋषिलोग
हो दक्षने उनके लिये राजयक्ष्माकी सृष्टि की और वह उपासना करते हैं। यहाँ वालखिल्य नामक वैखानस मुनि
रोग उनके शरीरमें समा गया। सोम क्षीण हो चले । निवास करते हैं। यहाँ तीन पवित्र शिखर और तीन
उनके क्षीण होनेसे ओषधियों और प्रजाका भी क्षय झरने हैं (वन० १२५ । १७)।
होने लगा। तब देवताओंके अनुरोधसे दक्षने उनके चन्द्रवर) त्रिगतराज सुशमाका भाइ । अजुनद्वारा रोगकी निवृत्तिका उपाय बताते हुए कहा- सोम अपने वध (कर्ण० २७ । ३-१३) । (२) पाण्डवपक्षका
सब स्त्रियोंके प्रति समान बर्ताव करें और पश्चिम समुद्र में, पाञ्चालयोद्धा । युधिष्ठिरका चक्ररक्षक । कर्णद्वारा इसका
जहाँ सरस्वती नदीका संगम हआ है, वहाँ जाकर स्नान वध (कर्ण० ४९ । २७)।
करें । उस तीर्थमें महादेवजीकी आराधनासे इन्हें इनकी चन्द्रप्रमर्दन-दक्षकन्या सिंहिकाका पुत्र । पिताका नाम । पूर्व कान्ति प्राप्त हो जायगी। ये पंद्रह दिन क्षीण होंगे कश्यप (आदि० ६५ । ३१)।
और पंद्रह दिन सदाबढ़ते रहेंगे।' सोमने अमावास्याको उस चन्द्रभ-स्कन्दका एक सैनिक या पार्षद, जो ब्राह्मणोंका तीर्थमें गोता लगाया। इससे उन्हें उनकी शीतल किरणे प्राप्त प्रेमी है (शल्य० ४५ । ७५)।
हो गयीं और वे सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करने
लगे । वे प्रत्येक अमावास्याको वहाँ स्नान करते हैं(शल्य. चन्द्रभागा-पञ्चनद प्रदेश (पंजाब ) की एक नदी, जिसे
३५ । ४५-४६)। इनके द्वारा स्कन्दको मणि और आजकल चिनाब' कहते हैं ( सभा० ९।१९)।
सुमणि नामक पार्षदोंका दान (शल्य. ४५ । ३२)। इसमें सात दिन स्नान करनेसे मनुष्य मुनिके समान
शम्बरासुरके प्रति ब्राह्मणोंकी महिमाका वर्णन (अनु. निर्मल हो जाता है (अनु. २५। ७)।
३६ । १३-१७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। इनका चन्द्रमा-(१) शीतल किरणोंवाले सोम, जो क्षीरसागर- कार्तिकेयको भेंडा देना (अनु० ८६ । २३)। अजीर्ण
का मन्थन होते समय उससे प्रकट हुए थे (आदि. निवारणके लिये पितरों और देवताओंको ब्रह्माजीकी १८ । ३४)। ये अत्रिपुत्र और बुधके पिता हैं (द्रोण. शरणमें जानेकी सलाह देना (अनु० ९२ । ६)। पूर्ण१४४ । ४)। इन्हें प्रजापति दक्षने अपनी सत्ताईस मासी तिथिको चन्द्रोदयके समय ताँबेके बर्तन में मधुकन्याएँ पत्नीरूपमें प्रदान की थीं (आदि०६६। मिश्रित पकवान लेकर जो चन्द्रमाके लिये बलि अर्पण करता १३, आदि० ७५ । ९; शल्य. ३५ । ४५)। सोमके है, उसकी दी हुई उस बलिको साध्य, रुद्र, आदित्य, सत्ताईस पत्नियाँ हैं, जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात है। विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुद्गण और वसुदेवता भी पवित्र व्रतका पालन करनेवाली वे सोम-पत्नियाँ काल- ग्रहण करते हैं तथा उससे चन्द्रमा और समुद्रकी भी विभागका ज्ञापन करने में नियुक्त हैं। लोक-व्यवहारका वृद्धि होती है ( अनु० १३४ । ३-६)। (२) ये निर्वाह करने के लिये वे सब-की-सब नक्षत्रवाचक नामोंसे सोम या चन्द्रमा आठ वसुओंमेंसे एक हैं । वसुरूपमें युक्त हैं ( आदि० ६६ । १६-१७)। ये नक्षत्रोंके साथ ये धर्मपत्नी मनस्विनीके पुत्र हैं। उनकी मनोहरा नामक मेरु पर्वतकी परिक्रमा करते और पर्वसंधिके पत्नीसे चार पुत्र उत्पन्न हुए हैं-वर्चा, शिशिर, प्राण समय विभिन्न मासोंका विभाग करते रहते हैं। और रमण · ( आदि० ६६ ॥ १८-२२)। सोमने अपने इस प्रकार महामेरुका उल्लङ्घन करके समस्त प्राणियोंका पुत्र वर्चाको कुछ शतोंके साथ केवल सोलह वर्षोंके पोषण करते हुए वे पुनः मन्दराचलको चले जाते हैं लिये देवकार्यकी सिद्धि के निमित्त भूतलपर भेजा था, जो (वन० १६३ । ३२-३३) । चन्द्रमण्डलका व्यास 'अभिमन्यु' रूपसे अवतीर्ण हुआ था (आदि० ६७ । ग्यारह हजार योजन, उनकी परिधिका विस्तार तैतीस १३-१२४)। (३) भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, हजार योजन और उनकी मोटाई उनसठ सौ योजन है जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है (भीष्म०९। २९)।
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चन्द्रवत्स
( ११२ )
चातुर्मास्य
चन्द्रवत्स-एक क्षत्रियकुल, जो चन्द्रवत्ससे आरम्भ हुआ निवास करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है (वन०
था। इसमें धारण' नामक 'कुलपांसन' राजकुमार ८४ । १३३)। पैदा हुआ था ( उद्योग०७४ । १६)।
चम्पा-यहाँ भागीरथीमें तर्पण करनेकी महिमा है ( वन० चन्द्रवर्मा-काम्बोजदेशका एक राजा, जो चन्द्रमाके समान ८५। १४-१५)। भागीरथी गङ्गाके तटपर अवस्थित सुन्दर था, यह चन्द्रनामक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ एक प्राचीन नगरी, जिसमें त्रेतायुगमें राजा लोमपाद था (आदि. ६७ । ३१-३२)। धृष्टद्युम्नके द्वारा इसका रहते थे (वन० ११३ । १५)। द्वापरमें यहाँ अधिवध (द्रोण० ३२। ६५)।
रथ सूतकी राजधानी थी। यहीं गङ्गाजीके जलसे राधाको चन्द्रविनाशन-एक महान् असुर, जो भूतलपर जानकि' वह पिटारी मिली, जिसमें शिशु कर्ण बंद था (वन०
नामसे प्रसिद्ध राजा हुआ था (आदि० ६७ । ३७-३८)। ३०८ । २६ से वन० ३०९। ५ तक)। इसपर कर्ण चन्द्रसीता-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य०४६ ।
अधिकार करके इसका पालन करता था ( शान्ति ११)।
५।७)। विपुलका चम्पानगरीको जाना ( अनु० चन्द्रसेन-(१) एक राजकुमार, जो बंगाल के राजा समुद्र
४२ । १६)। सेनका पुत्र था और द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था चर्ममण्डल-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४७)। (आदि० १८५ । ११)। यह अपने पिताके साथ ही चर्मण्वती-एक नदी, जिसे आजकल 'चम्बल' कहते हैं। भीमसेनदारा पराजित हुआ था (सभा० ३० । २४)।
यह वरुणकी सभामें उपस्थित होती है (सभा० ९ । यह पाण्डव-सेनाका श्रेष्ठ रथी और युधिष्ठिरका सहायक
२१)। इसके तटपर सहदेवने जम्भकके पुत्रको परास्त था (उद्योग. १७१ । १९)। चन्द्रमाके समान श्वेत
किया था ( सभा० ३१ । ७)। चर्मण्वती नदीमें वर्णवाले समुद्री घोड़े इसके रथमै जुते थे। (द्रोण.
स्नान करनेसे राजा रन्तिदेवद्वारा अनुमोदित ‘अग्निष्टोम' २३ । ६०)। अश्वत्थामाद्वारा इसका वध (द्रोण.
यज्ञका फल मिलता है (वन० ८२ । ५४ )। अग्निकी १५६ । १८३ )। (२) कौरवपक्षका योद्धा
उत्पत्तिकी स्थानभूता नदियोंमें इसकी भी गणना है (वन० शल्यका चक्ररक्षक, युधिष्ठिरद्वारा इसका वध २२२ २३)। (शल्य. १२। ५२)।
चर्मवान्-सुबलका एक पुत्र, शकुनिका भाई, इरावान्चन्द्रहन्ता-एक दैत्य, जो राजर्षि शुनक' के रूपमें इस
द्वारा इसका वध (भीष्म ९० । २७-४६)। भूतलपर उत्पन्न हुआ था (आदि. ६७ ॥३७-३८)। चन्द्रहर्ता-दक्षकन्या सिंहिकाका पुत्र, पिताका नाम कश्यप
चाक्षुषी-एक प्रकारको विद्या, जिसको मनुने सोमको) (आदि. ६५। ३१)।
सोमने विश्वावसुको, विश्वावसुने चित्ररथको और चित्ररथ
ने अर्जुनको दिया था। तीनों लोकोंमें जो भी वस्तुएँ चन्द्राश्व-इक्ष्वाकुवंशी महाराज कुबलाश्वके पुत्र, ये धुन्धु
हैं, उनमें से जिस वस्तुको आँखसे देखनेकी इच्छा हो, की क्रोधाग्निमें दग्ध होनेसे बच गये थे (वन०२०४ ।
उसे इस विद्याके प्रभावसे कोई भी देख सकता है और ४०-४२)।
जिस रूपमें देखना चाहे, उसी रूपमें देख सकता है चन्द्रोदय-राजा विराटका एक भाई (द्रोण० १५८ ।।
(आदि. १६९ । ४३-४५)। ४२)। चपल-एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३८)।
चाणूर-(१) एक क्षत्रिय नरेश, जो मयनिर्मित सभामें
युधिष्ठिरकी सेवामें बैठते थे (सभा० ४ । २६)। (२) चमसोद्भेद-सुराष्ट्रदेशीय विनशनतीर्थके अन्तर्गत एक
एक आन्ध्रदेशीय मल्ल (पहलवान), जो एक महान् तीर्थ, जहाँ अदृश्य हुई सरस्वतीका दर्शन होता है,
असुर था. यह कंसके दरबारमें रहा करता था, भगयहाँ स्नान करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। (वन० ८२ । ११२ वन । ८८।२० शल्य. ३५।
__ वान् श्रीकृष्णने इसका वध कर दिया ( सभा० ३८ ।
पृष्ठ ८०१, उद्योग० १३० । ४७)। चमू-सैन्यगणनाके लिये एक पारिभाषिक शब्द । तीन चातुर्मास्य-एक व्रत, जिसका वर्षाके चार महीनोंमें यत्न
पूर्वक पालन करना आवश्यक माना जाता है। वीर पृतनाकी एक चमू होती है (आदि० २ । २१)।।
पाण्डवोंने गयामें चातुर्मास्य व्रत ग्रहण करके वेदादि चमूहर-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३५)।
शास्त्रोंके स्वाध्यायद्वारा भगवान्की आराधना की ( वन० चम्पकारण्य (चम्पारन)-एक तीर्थ, जहाँ एक रात ९५ । १३-१४)।
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चातुर्वर्ण्य
(११३ )
चित्रचाप
चातुर्वर्ण्य-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों बदरिकाश्रममें इसकी तपस्याका वर्णन (शान्ति. वर्णोको ही चातुर्वर्ण्य कहते हैं, साक्षात् भगवान्ने ही ३९ । ३)। इसका ब्रह्माजीसे अपने लिये किसी भी गुणकर्मविभागपूर्वक चातुर्वर्ण्यकी सृष्टि की है (भीष्म० प्राणीसे भय न होनेका वर माँगना और ब्रह्माजीका कुछ २८ । १३, शान्ति० २०७ ॥ ३०-३३)।
संशोधनके साथ उसको वर-प्रदान करना ( शान्ति. चान्द्रमसी-बृहस्पतिकी यशस्विनी पत्नी तारा, जो कभी
३९। ४-५) ब्राह्मणोंद्वारा इसका वध (शान्ति०३८।३५)। चन्द्रमाके सम्पर्क में आ जानेके कारण चान्द्रमसी, चाषवक्त्र-स्कन्द का एक सैनिक या पार्षद, जो ब्राह्मणोंका कहलाती थी। इसने छः अग्निस्वरूप पुत्रों और एक प्रेमी है (शल्य०४५। ७६ )। 'स्वाहा' नामक पुत्रीको जन्म दिया था (वन.२१९।१)। चिकुर-नागराज आर्यकके पुत्र एवं सुमुखके पिता, जिन्हें
व गरुड़ने अपना ग्रास बना लिया था ( उद्योग चान्द्रवत-रूप-सौन्दर्य, सौभाग्य तथा लोकप्रियताकी प्राप्ति
१०३ । २४)। करानेवाला एक व्रत, जो मार्गशीर्ष मासकी शुक्ल प्रतिपदाको मूल नक्षत्रसे चन्द्रमाका योग होनेपर आरम्भ
चित्र-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक (मादि० ६७ । किया जाता है, इसका विशेष विधान (अनु. ११०
९५, आदि. ११६।४)। भीमसेनद्वारा इसका वध
(द्रोण. १३६ । २०-२२) । (२) एक गजराज, अध्याय)।
जिसके साथ स्कन्दने शैशवकालमें क्रीड़ा की थी (वन. चाम्पेय-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक
२२५ । २३) । (३) कौरव-पक्षका एक योद्धा, (अनु० ४ । ५०)।
प्रतिविन्ध्यद्वारा वध (कर्ण०१४ । ३२-३३)। (४) चारु ( चारुचित्र)-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक (आदि.
चेदिदेशीय पाण्डवपक्षका योद्धा, कर्णद्वारा वध ( कर्ण० ६७ । ९५, आदि. ११६। ४)। भीमसेनद्वारा वध
५६ । ४९)। (द्रोण. १३६ । २०-२२)।
चित्रक ( नामान्तर चित्र एवं चित्रयाण)-धृतराष्ट्रके चारुदेष्ण-भगवान् श्रीकृष्णद्वारा रुक्मिणीके गर्भसे प्रकट
सौ पुत्रोंमेसे एक (आदि०६७ । १०५)। चित्र नामसे (अनु० १४ । २९) । द्रौपदीके स्वयंवरमें इनका
इसका भीमसेनद्वारा वध (द्रोण. १३७ । ३०)। आगमन ( आदि. १८५। १७) | इनके द्वारा
चित्रकुण्डल (दीर्घलोचन)-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंसे एक विविन्ध्यका वध (वन०१६ । २६)।
(आदि. ११६ । ६) । भीमसेनद्वारा इसका वध चारुनेत्रा-कुबेरकी सभामें उपस्थित हो भगवान् धनदकी
(भीष्मः ९६ । २७)। ( चित्रकुण्डलकी जगह सेवा करनेवाली एक अप्सरा (सभा०१०।१०)।
दीर्घलोचन पाठभेद मिलता है।) चारुमत्स्य-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोमेसे एक ( अनु० चित्रकट-सर्वपापनाशिनी मन्दाकिनीके तटपर अवस्थित एक ४ । ५९)।
श्रेष्ठ पर्वत । वहाँ मन्दाकिनीमें स्नान और देवता-पितरोंकी चारुयशा-श्रीकृष्ण और रुक्मिणीके पुत्र ( अनु० १४ ।
पूजा करनेसे अश्वमेध-यज्ञका फल मिलता है (वन० ८५।
५८)। वनवासके समय भगवान् श्रीरामने चित्रकूट चारुवक्त्र-स्कन्दका सैनिक या पार्षद, जो ब्राह्मणोंका प्रेमी पर्वतपर निवास किया था (वन० २७७ । ३८)। जो है (शल्य०४५। ७१)।
चित्रकूट पर्वतपर मन्दाकिनीके जलमें स्नान करके उपवास चारुवेष-श्रीकृष्ण और रुक्मिणीके पुत्र (अनु. १४ । करता है, वह पुरुष राजलक्ष्मीसे सेवित होता है ( अनु० ३३-३४)।
२५ । २९ ) । ( यह स्थान उत्तरप्रदेशके बाँदा चारुशीर्ष-एक आलम्बगोत्रीय ऋषि, जो इन्द्र के प्रिय सखा जिलेमें है)।
थे; शिव-महिमाके विषयमें युधिष्ठिरसे इनका अनुभव चित्रकेतु-(१) गरुड़की प्रमुख संतानों से एक (उद्योग सुनाना (अनु. १८ । ५-७)।
१०१। १२) । (२) पाण्डव-पक्षका एक योद्धा । चारुश्रवा-श्रीकृष्ण और रुक्मिणीके पुत्र ( अनु० १४। पाञ्चालराजकुमार (भीष्म० ९५ । ४१)। ३३-३४)।
चित्रगुप्त-धर्मराजके मन्त्री । इनके द्वारा धर्मके रहस्यका चार्वाक-दुर्योधनका मित्र एक राक्षस, जिसने युधिष्ठिरके वर्णन ( अनु० १३० । १८-३३)।
नगर-प्रवेशके समय संन्यासी वेषमें आकर उनके प्रति चित्रचाप ( चित्रशरासन या शरासन )-धृतराष्ट्र के दुर्वचन कहे थे (शान्ति० ३८ । २२-२७)। सौ पुत्रों से एक (आदि०६७।९८आदि० ११६।६)।
म० ना० १५
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चित्रदेव
( ११४ )
चित्रलेखा
चित्रदेव-स्कन्दका सैनिक या पार्षद, जो ब्राह्मणोंका प्रेमी १६९ । ५८ ) । इसका पाण्डवोंपर अपने आक्रमण है ( शल्य०१५। ७१)।
और पराजयका कारण बताना ( आदि. १६९ । चित्रधर्मा-भूमण्डलका एक नरेश, जिसके रूपमें विरूपाक्ष
६०-७२ )। किसी श्रोत्रिय ब्राह्मणको पुरोहितरूपमें नाम दैत्य ही उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । २२-२३)।
वरण करनेके लिये इसकी अर्जुनको प्रेरणा (आदि. पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रण-निमन्त्रण भेजा गया
१६९ । ७१-८०)। इसका अर्जुनको तपती और था ( उद्योग० ४ । १३)।
संवरणकी कथा सुनाना (आदि० १७० अध्यायसे १७२
तक ) । वशिष्ठके साथ विश्वामित्रके वैरका कारण चित्रपुष्प-विचित्र पुष्पं से भरा हुआ एक वन, जो द्वारकाके
सुनाकर इसके द्वारा वशिष्ठके अद्भुत क्षमावलका वर्णन पश्चिमवर्ती सुकक्ष नामक रजतपर्वतपर सुशोभित था
(आदि. १७३ अध्यायसे १७४ अध्यायतक) । इसका (सभा० ३८ । पृष्ठ ८१२)।
शक्तिके शापसे राक्षसभावको प्राप्त हुए राजा चित्रबह-गरुड़की प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग०
कल्माषपादके द्वारा विश्वामित्रकी प्रेरणासे वशिष्ठके १०१।१२)।
पुत्रोंके भक्षण एवं वशिष्ठके शोककी कथा सुनाना चित्रबाण (नामान्तर-चित्र या चित्रक)-धृतराष्ट्रके (आदि० १७५ अध्याय)। इसके द्वारा कल्माषपादके सौ पुत्रों से एक (आदि० ११६ । ४) । भीमसेनद्वारा
उद्धार और वशिष्ठजीसे उन्हें अश्मक नामक पुत्रकी प्राप्तिवध ( दोण० १३७ । २९)।
का वर्णन ( आदि. १७६ अध्याय )। शक्तिपुत्र चित्रबाहु (चित्रायुध )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक पराशरके जन्म और पिताकी मृत्युका हाल सुनकर कुपित
(आदि० ६७ । ९७, आदि० ११६ । ८)। हुए पराशरको शान्त करनेके लिये वसिष्ठजीके और्वोपाख्यान चित्रायुध नामसे इसका भीमसेनद्वारा वध (द्रोण. सुनानेकी कथाका वर्णन (आदि. १७७ अध्यायसे १७८, १३६ । २०-२२)।
१७९ अध्यायतक)। पराशरके राक्षससत्रके आरम्भ और चित्ररथ-(१) एक देवगन्धर्व, जो पिता कश्यप और
समाप्ति तथा कल्माषपादको ब्राह्मणी आङ्गिरसीके शापकी माता मुनिका पुत्र था (आदि. ६५ । ४३)। यह
कथा कहना (आदि. १८० अध्यायसे १८१ अध्यायतक)। अर्जुनके जन्मोत्सवमें गया था (आदि. १२२ । ५६)।
अर्जुनके पूछनेपर इसका धौम्यको पुरोहित बनानेकी यही गन्धर्वराज अङ्गारपर्णके नामसे विख्यात था (आदि.
सलाह देना ( आदि. १८२ । १.२)। चित्ररथका १६९ । ५ ) । प्रदोषकालमें गङ्गाजीके जलके भीतर
अर्जुनसे आग्नेयास्त्रको ग्रहण करना (आदि० १८२ । ३)। अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करते समय पाण्डवोंके वहाँ
यह कुबेरकी सभामें रहकर भगवान् धनाध्यक्षकी उपासना आ जानेसे इसका उनके ऊपर क्रोध प्रकट करना और
करता है (सभा. १०।२६)। इसने राजा युधिष्ठिर
को चार सौ दिव्य घोड़े दिये, जो वायुके समान फटकारना ( आदि. १६९ । ५-१५)। गन्धर्वको अर्जुनका मुँहतोड़ उत्तर (आदि० १६९ । १६-२४)।
वेगशाली थे ( सभा० ५२ । २३)। यह गन्धर्वोद्वारा अर्जुनके साथ इसका युद्ध (आदि. १६९ । २५)।
पृथ्वीदोहनके समय बछड़ा बना था (द्रोण० ६९।२५)। अर्जुनके आग्नेयास्त्रसे इसके रथका दग्ध होना और महाभारतमें आये हुए चित्ररथके नाम-अङ्गारपर्ण, इसकी मूर्छा तथा अर्जुनका इसे युधिष्ठिरके पास घसीट दग्धरथ, गन्धर्व और गन्धर्वराज इत्यादि । ले जाना (आदि. १६९ । ३१-३३)। इसकी जीवन- (२)मार्तिकावत देशका राजा. जिसकी अपनी पत्नीके साथ । रक्षाके लिये युधिष्ठिरसे कुम्भीनसीकी प्रार्थना (आदि. की हुई जलक्रीडाको रेणुकाने देखा था ( वन० . १६९ । ३५)। अर्जुनद्वारा इसको जीवनदान (आदि. ११६ । ७)। ( ३ ) एक पाञ्चाल राजकुमार १६९ । ३७)। इसका चित्ररथ नाम होनेका कारण द्रोणाचार्यद्वारा इसका वध (द्रोण. १२२ । ४३-४९)। तथा अर्जुनके कारण इसका 'दग्धरथ' नाम होना (४) अङ्गदेशके एक राजा, जो देवशर्माकी पत्नी ( आदि. १६९ । ४० )। इसके द्वारा विश्वावसुसे रुचिकी बहिन प्रभावतीके पति थे (अनु० ४२ । ८)। अपनेको चाक्षुषी विद्याकी प्राप्तिका कथन और चाक्षुषी (५) यदुवंशी उषङ्गुके पुत्र एवं शूरके पिता (अनु. विद्याके महत्त्वका वर्णन (आदि. १६९ । ४३-४६)। १४७ । २९)। इसके द्वारा पाण्डवोंको गन्धर्वदेशीय दिव्य अश्वोंका दान
चित्ररथा-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा और उनकी प्रशंसा ( आदि. १६९ । ४४-५४ )।
पीती है (भीष्म० ९ । ३४)। इसका अर्जुनको चाक्षुषी विद्या प्रदान करना (आदि० १६९ । ५६)। अर्जुनके साथ इसकी मित्रता ( आदि० चित्रलेखा-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके स्वागत-समारोह
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चित्रवर्मा
चित्रसेना
के अवसरपर इन्द्रसभामें नृत्य किया था (वन० किया था, उसका वर्णन पीछे किया गया है।) (२) ९। ३४ )।
पूरुवंशीय राजा अविक्षिके पौत्र तथा परीक्षित्के तृतीय चित्रवर्मा-( १ ) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक पुत्र (आदि. ९४ । ५४)। (३) एक गन्धर्व, जो (आदि०६७। ९७, आदि. १६६।६)। भीमसेन
सत्ताईस सहायक गन्धर्वो और अप्सराओंके साथ युधिष्ठिरकी द्वारा इसका वध (द्रोण. १३६ । २०-२२)। (२)
सभामें उपस्थित हो उनका मनोरञ्जन करते थे (सभा. एक पाञ्चाल राजकुमार । राजा द्रुपदने इसे युद्ध के लिये
४ । ३७)। ये कुबेरकी सभामें भी उपस्थित होते हैं
(सभा.१०।२६)। ये इन्द्रकी सभामें विराजते हैं निमन्त्रित करनेकी प्रेरणा दी थी ( उद्योग.४।१३)। चित्रकेतु, सुधन्वा, चित्ररथ और वीरकेतु-ये चार
(सभा० ७॥२२)। इनका अर्जुनको संगीत-विद्याकी इसके भाई थे । बड़े भाई वीरकेतुके मारे जानेपर शेष
शिक्षा देना (वन० ४४। ८-९)। इन्द्र के आदेशसे सभी भाई द्रोणाचार्यपर टूट पड़े और उनके द्वारा मारे
इनका उर्वशीके पास जाकर उसे अर्जुनको प्रसन्न करनेके गये (द्रोण. १२२ । ४३-४९)। यह सुचित्रका पुत्र
लिये कहना (वन० ४५।६-१३)। द्वैतवनमें कौरवोंके था (कर्ण०६ । २७-२८)।
साथ इनका युद्ध और कर्णको परास्त करना (वन.
२४१ अध्याय)। दुर्योधनको बंदी बनाना (वन० चित्रवाहन-मणिपूरके नरेश, चित्राङ्गदाके पिता (भादि.
२४२ । ६)। अर्जुनद्वारा पराजित होकर इनका अपनेको २१४ । १५)। पुत्रिका-धर्मकी शर्तपर इनके द्वारा
प्रकट कर देना (वन. २४५ । २७)। इन्द्रसे अर्जुनको अपनी कन्याका दान (आदि० २१४ । २५)।
अर्जुनकी युद्ध-कलाकी प्रशंसा करना (विराट. ६४ । चित्रवाहा-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय जनता
३८-४३)। युधिष्ठिरके अश्वमेधयज्ञमें ये भी पधारे थे और पीती है (भीष्म० ९।१७)।
यथावसर अपने नृत्य-गीतकी कलाओद्वारा ब्राहाणोंका चित्रवेगिक-धृतराष्ट्र के कुल में उत्पन्न एक नाग, जो सर्पसत्रमें मनोरञ्जन करते थे (आश्व० ८८ । ३९-४०)। धृतराष्ट्र के दग्ध हो गया था ( आदि० ५७ । १८)।
आश्रमपर नारदजीके साथ ये भी पधारे थे (आश्रमः चित्रशरासन (शरासन या चित्रचाप)-धृतराष्ट्रके
२९ । ९)। (४) जरासंधका मन्त्री, डिम्भक सौ पुत्रों से एक (आदि. ११६ । ४)। भीमसेनद्वारा
(सभा० २२ । ३२-३३)। (देखिये-डिम्भक ) इसका वध (द्रोण० १३६ । २०-२२)।
(५) अभिसारदेशका राजा और कौरव-पक्षका एक
योद्धा । श्रुतकर्माद्वारा इसका वध ( कर्ण. १४ । १४)। चित्रशिखण्डी-पाञ्चरात्रशास्त्रके रचयिता मरीचि, अत्रि,
(६) ( श्रुतसेन )-त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई (कर्ण० अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ-इन
२७ । ३-११)। (७) एक पाञ्चाल योद्धा, कर्णद्वारा सात ऋषियोंकी संज्ञा ( शान्ति० ३३५ । २७ )।
वध (कर्ण० ४८ । १५)। (८) कर्णका पुत्र, चित्रशिला-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा कर्णका चक्ररक्षक (कर्ण०४८।१८) । नकुलद्वारा पीती है ( भीष्म०९।३०)।
इसका वध (शल्य. १०। १९-२०)। (९) चित्रसेन ( उग्रसेन)-(१) धृतराष्ट्र के ग्यारह महारथी कर्णका भाई, युधामन्युद्वारा इसका वध (कर्ण० ८३ ।
पुत्रोंमेंसे एक ( आदि. ६३ । ११९)। यह द्रौपदीके ३९-४०)। (१०) समुद्रतटवर्ती राज्यके अधिपति स्वयंवरमें गया था (आदि. १८५। ३)। युधिष्ठिरके एक पाण्डवपक्षीय योद्धा, जो अपने पुत्रके साथ युद्धभूमिमें साथ जुआ खेलनेको उद्यत हुए लोगोंमें यह भी था समुद्रसेनके द्वारा मारा गया (कर्णः ६ । १५-१६)। (सभा० ५८ । १३)। इसका चेकितानके साथ युद्ध (११) एक नाग, जो कर्ण और अर्जुनके युद्ध में अर्जुनकी (भीष्म० ११०। ८)। भीमसेनके साथ युद्ध (भीष्म विजयका समर्थक था (कर्ण० ८७ । ४३)। ११३ । २)। सुशर्माके साथ संग्राम (भीष्म. ११६ ।
चित्रसेना-(१) कुबेरकी सभामें उपस्थित हो धनदकी २७-२९)। भीमके साथ युद्ध (द्रोण०९६ । ३.)। सात्यकिके साथ युद्ध (द्रोण. ११६ । ४)। भीमसेन- .
उपासना करनेवाली एक अप्सरा (सभा० १०।१०)। द्वारा मारा गया (द्रोण. १३७ । २९-३०)। इसका
अर्जुनके इन्द्रलोकमें जानेपर इसने नृत्य किया था शतानीकके साथ युद्ध और शतानीकद्वारा इसकी पराजयका
(वन० ४३ । ३०)। (२) एक प्रमुख नदी, जिसका वर्णन (द्रोण० १६८ ॥ १-१२)। ( यह युद्ध चित्रसेनके जल भारतीय प्रजा पीती है (भीष्म० ९।१७)। जीवनकालका है। अध्याय १३७ में इसके वधका वर्णन (३) स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । हआ है। इससे पहले जो इन्होंने शतानीकके साथ युद्ध
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चित्रा
( ११६ )
चित्रोपला
चित्रा-एक अप्सरा, जिसने अष्टावकके सम्मानार्थ कुबेरकी इसका संतप्त हृदयसे समराङ्गणमें आना और पतिदेवकी सभामें नृत्य किया था ( अनु० १९ । ४४)।
दशाका निरीक्षण (भाश्व० ७९ । ३७-३९) । पतिचित्राक्ष-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक (आदि. ६७ । ९५
वियोगके शोकसे संतप्त हो मूञ्छित होकर गिरना, कुछ आदि. ११६ । ४)। भीमसेनद्वारा वध (द्रोण.
देर बाद होशमें आनेपर उलूपीको सामने खड़ी देखना १३६ ।२०-२२)।
और उसे उपालम्भ देकर उससे अर्जुनके प्राण बचानेका
अनुरोध करना (भाश्व० ८० । २-७)। पतिके चित्राङ्क (चित्राङ्गद या श्रुतान्तक )-धृतराष्ट्र के सौ
निकट जाकर इसका विलाप करना (आश्व० ८.16पुत्रोंमेंसे एक (आदि. ११६ । ६)। भीमसेनद्वारा
११ )। पुनः उलूपीसे पतिको जिलानेके लिये इसका वध (शल्य. २६ । १०-११)।
अनुरोध करना (आश्व.८०।१२-१७)। आमरण चित्राङ्गद (चित्राङ्ग)-(१) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक। उपवासका संकल्प लेकर बैठना (आश्व०८०।१८)।
'श्रुतान्तक' नामसे भीमसेनदारा इसका वध (शल्य. चित्राङ्गदाका उलूपी तथा बभ्रुवाहनके साथ हस्तिनापुरमें २६।१०)। (२) महाराज शान्तनुके द्वारा सत्यवतीके जाना (आश्व०८७।२६)। इसका कुन्ती और द्रौपदीके गर्भसे उत्पन्न एवं विचित्रवीर्यके अग्रज (भादि० ९५। चरणोंका स्पर्श करना और सुभद्रा आदिसे मिलना ४९-५०, आदि. १०१।२)। पिताके स्वर्गवासी
(आश्व०८८ । २-३)। कुन्ती, द्रौपदी और सुभद्रा होनेपर भीष्मद्वारा इनका राज्याभिषेक (आदि. १०१। आदिका चित्राङ्गदाके लिये विविध रत्नोंकी भेंट देना ५) चित्राङ्गद नामक गन्धर्वके साथ इनका भीषण ( आश्व० ८८ । ३-४ )। इसका दासीकी भाँति संग्राम और उसके द्वारा इनकी मृत्यु (आदि. १०१। गान्धारीकी सेवामें संलग्न होना (भाश्रम १ । २३. ९)। भीष्मद्वारा इनका अन्त्येष्टि-संस्कार ( आदि. २४) । वनमें जाते हुए धृतराष्ट्र और गान्धारीके साथ १०१।११)। (३) एक गन्धर्व, जिसके द्वारा
कुरुकुलकी अन्य स्त्रियोसहित चित्राङ्गदाका भी धरसे बाहर शान्तनुपुत्र चित्राङ्गदका वध किया गया ( आदि. निकलना और रोना ( आश्रम. १५ । १०)। १०१।९)। (४) द्रौपदीके स्वयंवरमें आये हुए
__संजयका आश्रमवासी मुनियोंको कुरुकुलकी स्त्रियोंका एक राजा (सम्भव है, ये कलिङ्गराज या दशार्णराजमेसे परिचय देते समय चित्राङ्गदाकी अङ्गकान्तिको नूतन कोई रहे हो।) (आदि. १८५। २२) । (५) मधूकपुष्पकी भाँति गौर बताना (भाश्रम. २५ । कलिङ्गदेशके एक राजा, जिनके यहाँ किसी समय स्वयंवर
११)। पाण्डवोंके महाप्रस्थानके पश्चात् इसका मणिपूर' महोत्सवमें देश-देशके राजा एकत्र हुए थे (शान्ति. नामक नगरको जाना (महाप्रस्थान०१। १८)। ४।२)। (६) महाबली शत्रमर्दन दशार्णनरेश,
(२) एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्रके सम्मानार्थ कुबेरकी जिनके साथ अश्वमेध-सम्बन्धी अश्वकी रक्षाके समय सभा नृत्य किया था (अनु० १९ । ४४) । अर्जुनका बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ और ये अर्जुनके अधीन चित्रायुध (या चित्रबाहु)-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंहो गये (आश्व० ८३ । ५-७)।
मेंसे एक (आदि. ६७ । ९७)। भीमसेनद्वारा इसका वध चित्राङ्गदा-(१) मणिपूरनरेश चित्रवाहनकी पुत्री (द्रोण० १३६ । २०-२२)। (२)(दृढ़ायुध) धृतराष्ट्र के
(आदि० २१४ । १५)। नगरमें विचरण करती हुई सौ पुत्रों से एक (आदि०११६।८)। भीमसेनद्वारा इसका इस राजकुमारोपर अर्जुनकी दृष्टि पड़ी और वे वध (द्रोण. १३७ । २९) (३)सिंहपुर-नरेश, जिनकी इसे चाहने लगे ( आदि० २१४ । १६)। राजधानी सिंहपुरपर अर्जुनने दिग्विजयके समय आक्रमण चित्राङ्गदाके पितासे उनका इसे अपनी पत्नी बनानेके लिये किया और उसे युद्ध में जीत लिया (सभा०२७।२०)। (४) माँगना (आदि० २१४ । १७) । अर्जुनद्वारा इसका चेदिदेशके एक महारथी योद्धा, जो पाण्डव पक्षमें थे। उनके पाणिग्रहण (आदि० २१४।२६) । इसके गर्भसे घोड़े लाल और आयुध आदि विचित्र थे (द्रोण०२३४५६अर्जुनद्वारा एक पुत्रका जन्म और अर्जुनका चित्राङ्गदाको ६४)। कर्णद्वारा इनका वध (कर्ण० ५६ । ४९)। हृदयसे लगाकर वहाँसे प्रस्थित हो जाना (आदि० २१४। चित्राश्व-सत्यवान्का दूसरा नाम । इन्हें अश्व बहुत प्रिय २७)। इससे मिलनेके लिये अर्जुनका पुनः मणिपूरमें थे। ये मिट्टीके अश्व बनाया करते थे और चित्रमें अध आगमन ( आदि. २१६ । २३)। मणिपूरसे जाते ही अङ्कित करते थे, इसलिये लोग इन्हें चित्राश्व' समय इसको अर्जुनका आश्वासन तथा राजसूय यज्ञमें भी कहते थे (वन० २९४ । १३)। आनेका आदेश (आदि. २१६। २६-३४)। चित्रोपला-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा बभ्रवाहन और अर्जुनके युद्ध में दोनोंके धराशायी होनेपर पीती है (भीष्म०९।३४)।
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चिबुक
( ११७ )
चैत्ररथपर्व
चिबुक-नन्दिनी गौद्वारा उत्पादित एक म्लेच्छ जाति द्वारा मूर्छित होना (भीष्म० ८४ । ३१) । चित्रसेनके (आदि. १७४ । ३८)।
साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११०। ८-९, भीष्म० १११ । चिरकारी-महर्षि गौतमका एक पुत्र, जो प्रत्येक कार्यपर
५३-५५)। धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. अधिक देरतक विचार करनेके कारण उसे बहुत देरसे
१०। ५४) । अनुविन्दके साथ युद्ध (द्रोण. १४ । पूर्ण करता था, इसीसे चिरकारी कहलाता था। पिताद्वारा
४८)। इनके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । ४५)। अपनी माताके वधका आदेश पानेपर उसका विचार
द्रोणाचार्यद्वारा इनकी पराजय (द्रोण० १२५ । ६८करना (शान्ति २६६ । ३---.४३)। पिताके चरणों- १) । दुर्योधनद्वारा इनका वध ( शल्य. १२। में नतमस्तक होना (शान्ति० २६६ । ६.)। पिता
३१-३३)। व्यासजीके आवाइन करनेपर गङ्गाजीके द्वारा उसका अभिनन्दन (शान्ति. २६६ । ६७)। जलसे ये भी प्रकट हुए थे ( आश्रम० ३२।१२)। पिताके साथ स्वर्गगमन (शान्ति० २६६ । ७८)।
इनके दो नाम और मिलते हैं--सात्वत और वार्ष्णेय । चिरान्तक-गरुड़की प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग० चेदि-एक प्राचीन देश, जिसे उपरिचर वसुने जीता था १०१ । १३)।
और इसपर शासन किया था ( आदि० ६३ । १-२)। चीन-(१) नन्दिनी गौद्वारा उत्पादित एक म्लेच्छ जाति
चेदिदेशकी विशेषता (आदि. ६३ । ८)। यहींका (आदि. १७४ । ३८)। (२) एक देश, जहाँके
राजा शिशुपाल था । नकुलकी पत्नी करेणुमती भी यहीकी लोग युधिष्ठिरको भेंट देनेके लिये आये थे (सभा. राजकुमारी थीं (आदि० ९५ । ७९)। शिशुपालकी ५१ । २३)।
मृत्युके पश्चात् उसके पुत्र धृष्टकेतुको चेदिदेशका राजा चीरक-एक देश या जनपद, जिसे कर्णने जीतकर दुर्योधन
बनाया गया ( सभा० ४५। ३६ )। राजा नलके
समयमें सुबाहु इस देशके राजा थे जिनके यहाँ दमयन्तीने के लिये कर देनेवाला बना दिया था (कर्ण० । १९)।
सुखपूर्वक निवास किया था (वन०६५। ४४-७६)। चीरवासा-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवश नामक
चेदिराज धृष्टकेतु एक अक्षौहिणी सेना साथ लेकर दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि. ६७।६१)। पाण्डवोंकी सहायतामें आये थे (उद्योग. १९ । ७)। (२) एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें उपस्थित हो भगवान् । इस देशके क्षत्रिय वीर भगवान् श्रीकृष्णकी सलाइसे धनाध्यक्षकी सेवा करता है (सभा० १०116)। चलकर शत्रुओंको बंदी बनाते और मित्रोंको आनन्दित चीरिणी-एक नदी, जिसके तटपर वैवस्वत मनुने भीगे चीर करते थे ( उद्योग. २८ । ११)। भारतके प्रमुख और जटा धारण किये तपस्या की थी (वन० १८७। जनपर्दोर्मे 'चेदि की भी गणना है (भीष्म० ९४०)।
चैत्य-देववृक्ष ( आदि० १५० । ३३)। चुलुका-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है (भीष्म. ९ । २०)।
चैत्यक-मगधकी राजधानी गिरिव्रजके समीपका एक पर्वत
जो मगधवासियोंको अत्यन्त प्रिय था। बृहद्रथ-परिवारके चूचुक-दक्षिण भारतकी एक म्लेच्छ जाति (पान्ति.
लोग इसकी देवताकी भाँति पूजा किया करते थे (सभा० २०७ । ४२)।
२१।१-५)। चूचुप-दक्षिण भारतका एक जनपद ( उद्योग० १४०। २६)।
चैत्ररथ (१) एक वन, जहाँ राजा ययातिने विश्वाची' चेकितान-पाण्डव-पक्षका एक महारथी, जो वृष्णिवंशी
अप्सराके साथ रमण किया था ( आदि०७५ । ४८)। यादव था और द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि.
तपस्याके लिये जाते समय राजा पाण्डु अपनी दोनों
पत्नियोंके साथ यहाँ आये थे (आदि. ११८।१८)। १८५। ११; उद्योग० १७१ । १८; भीष्म० ८४ । २०)। राजा युधिष्ठिरके मयनिर्मित सभामें प्रवेश करते
द्वारकापुरीका एक वन, जो इसी (चैत्ररथ ) नामसे समय ये भी उनकी सेवामें उपस्थित थे (सभा०४।
प्रसिद्ध था और ब्रह्माजीके अलौकिक उद्यानकी भाँति २७ ) । इन्होंने युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें
शोभा पाता था (सभा० ३८ । पृष्ठ ८१२, कालमर)। उपस्थित हो अभिषेकके समय उनके लिये तरकस भेंट
(२) भरतवंशीय महाराज कुरुके द्वारा वाहिनीके किया था (सभा० ५३ । १)। प्रथम दिनके संग्राममें
गर्भसे उत्पन्न एक राजकुमार (आदि० ९४ । ५०)। सुशर्माके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म ४५। चैत्ररथपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ६०-६२)। कृपाचार्यको मूर्छित करके स्वयं भी उनके १६५ से १८२ तक)।
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( ११८ )
जटिला
चैद्य-चेदिराज शिशुपाल ( आदि. १ । ३१)। च्यवन-सरोवर-एक तीर्थ जिसमें पितरोंका तर्पण किया
चेदिराज धृष्टकेतु, जो धृष्टद्युम्ननिर्मित क्रौञ्चव्यूहके नेत्र- जाता है ( वन० १२५ । ११-१२)। स्थानमें खड़े थे ( भीष्म० ५० । ४७)।
(छ) चोल-एक देश, जिसकी सेनाओंपर अर्जुनने विजय पायी थी
छत्रवती--अहिच्छत्रदेशको राजधानी, अहिच्छत्रा नगरीका (सभा० २७ । २१)।चोलदेशके नरेशको भी चोल
__दूसरा नाम (आदि० १६५ । २१)। कहा गया है, ये युधिष्ठिरको भेंट देने गये थे (सभा. ५२ ।३५) । दक्षिण भारतका एक जनपद, जहाँके
__ छन्दोदेव-मतङ्गको इन्द्रके वरदानसे जन्मान्तरमें मिलनेवीर योद्धा धृष्टद्युम्ननिर्मित क्रौञ्चव्यूहकी दाहिनी पाँखका
वाला नाम (अनु० २९ । २४)। आश्रय लेकर खड़े थे (भीष्म०९।६०, भीष्म
छागमुख-बकरेके समान मुख धारण करनेवाले भगवान्
छागमुख-बकरक समान मुख धारण कर ५०। ५१)। भगवान् श्रीकृष्णने इस देशको जीता था स्कन्द, जो अपने पुत्रों और कन्याओंसे घिरकर मातृ(द्रोण०११।१७) । पाण्डवोंकी ओरसे इन्होंने युद्ध काओंके देखते-देखते युद्ध में अपने पक्षकी रक्षा करते हैं किया (कर्ण० १२ । १५)।
(वन० २२८ । ३.४)। चौर-क्षत्रियोंकी एक प्राचीन जाति, जो ब्राह्मणोंके रोषसे शूद्रत्वको प्राप्त हो गयी (अनु०३५ । १७)।
जङ्गारि-विश्वामित्रके ब्रह्मवाद) पुत्रों में से एक (अनु० ४ ।
५७)। च्यवन-(१) एक सुप्रसिद्ध तपस्वी मुनि, जो महर्षि भृगुके
जङ्गाबन्धु-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते पुत्र थे ( आदि. ५।८)। इनकी उत्पत्ति-कथा
थे (सभा०४ । १६)। ( आदि. ५। १३ से ६।३ तक)। इनका च्यवन नाम पड़नेका कारण तथा इन्हें देखते ही पुलोमा राक्षस
जटाधर-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ६१)। का जलकर भस्म हो जाना ( आदि०६।३)।
जटायु-एक गीध, विनतानन्दन अरुणके दूसरे पुत्र, इनके द्वारा सुकन्या नामक पत्नीके गर्भसे प्रमतिका
इनकी माताका नाम श्येनी और बड़े भाईका नाम जन्म ( आदि. ५। ९, आदि.८।१)। इनसे
सम्पाति था (आदि० ६६ । ६९-७०)। इनका आस्तीकने अङ्गीसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया था सीताहरणके समय रावणके साथ युद्ध (वन. २७९ । (आदि०४८।१८)। इनकी भार्या मनुकी पुत्री ३-५)। रावणद्वारा इनकी पाखोका काटा जाना आरुषी थी, जिससे और्व मुनिका जन्म हुआ था (आदि०
(वन० २७९ । ६)। श्रीरामचन्द्रजीको सीताका पता
(वन० २७९ । ५)। ६६ । ४६ )। ये ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी बताकर इनका प्राण त्याग करना (वन. २७९ । उपासना करते हैं (सभा० ११ । २२)। सुकन्याद्वारा
२३)। जटायु अपने भाई सम्पातिके साथ सूर्यमण्डल. इनकी आँखोंके फोड़ दिये जानेपर इनके द्वारा राजा
की ओर उड़े थे। सम्पतिकी पाँखें जल गयीं और शर्यातिके सैनिकोंका मलावरोध ( वन० १२२ । १५
इनकी बची रह गयीं--इस प्रसङ्गकी चर्चा (वन. १७)। इन्हें शर्यातिसे सुकन्याकी प्राप्ति होनेपर इनकी २८५ । ४९.५०)। प्रसन्नता (वन० १२२। २६-२७)। रूप, यौवन जटालिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । और पत्नीकी प्राप्तिसे प्रसन्न होकर इनका अश्विनीकुमारों- २३)। को सोमपानके अधिकारी बनानेकी प्रतिज्ञा करना (वन० जटासुर-(१) एक राजा, जो युधिष्ठिरकी सभामें रहता १२३ । २२-२३)। इनके द्वारा इन्द्रकी भुजाओंका था (सभा० ४ । २४)। (२) एक राक्षस, जो स्तम्भन (वन० १२४ । १९; शान्ति०२४२ । २४)। पाण्डवोंके अस्त्र-शस्त्र तथा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल इनका अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराना ( बन० और सहदेवको लेकरभागा जा रहा था (वन० १५७ । १२५।१०) अभिमन्त्रित जल पी लेनेपर राजा युवनाश्व- ७-११)। इसका भीमसेनके साथ युद्ध तथा प्राणको इनका आश्वासन देना (वन०१२६।१०-२८)। त्याग ( वन० १५७ । ४८-७०)। इसके पुत्रका नाम देवव्रत भीष्मका इनसे वेदाङ्गों और वेदोका अध्ययन अलम्बुष था, जो घटोत्कचके हाथसे मारा गया (द्रोण. (शान्ति० ३७ । ११)। (२) अङ्गिराके वंशज, १७४ । ७-३७)। च्यवन नामक अग्नि (वन० २२० । १)।
जटासुरवधपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय च्यवनाश्रम-एक तीर्थ, जिसमें काशिराजकी कन्या अम्बाने १५७)। स्नान किया (उद्योग. १८६ । २६)।
जटिला-गौतमगोत्रकी कन्या, सात ऋषियोंकी पत्नी
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जटी
( ११९ )
जनदेव
(आदि. १९५। १४)। हस्तिनापुरकी स्त्रियोंद्वारा कुटुम्बी जन और धनका नाश होनेपर क्या करना चाहिये, द्रौपदीकी पतिसेवाके विषयमें इनका दृष्टान्त (शान्ति. इस विषयमें प्रश्न करना ( शान्ति० २८।४ )। ३८ । ५)।
जनकका स्वर्ग और नरकका प्रत्यक्ष दर्शन कराकर जटी-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६१)।। अपने सैनिकोंको युद्धके लिये प्रोत्साहित करना (शान्ति. जठर-(१) एक वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मण, जो जनमे
९९ । ४-७ ) । कालकवृक्षीय मुनिके समझानेपर जयके सर्पसत्रके सदस्य बने थे (आदि० ५३ । ८)।
जनकका क्षेमदीसे संधि करना और उसका सत्कार (२) एक भारतीय जनपद (भीष्म०९।४२)।
करके उसके साथ अपनी कन्याका ब्याह कर देना
(शान्ति. १०६ । २१-२८ ) । इनकी विरक्ति जतुगृह-लाक्षागृह, जिसे दुर्योधनने पाण्डवोंके विनाशके लिये
(शान्ति० १७८ । २)। महर्षि माण्डव्यके तृष्णावारणावतमें बनवाया था (आदि०६१ । १७) । पाण्डवों
वियक प्रश्नका जनकद्वारा उत्तर (शान्ति. २७६ ने इस भवनमें सालभर रहकर इसमें आग लगा दी
अध्याय )। पराशरजीसे कल्याण-प्राप्तिके विषयमें जनक(आदि. ६३ । २१-२३)। दुष्ट दुर्योधनकी प्रेरणासे
के प्रश्न (शान्ति. २९० । ४ )। पराशरजीसे इनके पुरोचनद्वारा महात्मा पाण्डवोंके विनाशके लिये लाहका
विविध प्रकारके प्रश्न (शान्ति० २९६ । १-२, शान्ति० घर बनवाया गया था (आदि० १४३। ८)। विदुरके
२९८ । २ ) । कराल जनकको वसिष्ठका उपदेश भेजे हुए खनकद्वारा पाण्डवोंने इसमें सुरंगका निर्माण
(शान्ति०३०२ अध्यायसे ३०८ अध्याय तक)। वसुमान् कराया था ( आदि० १४६ । १६)। अपने शराबी
जनकको एक मुनिका धर्मविषयक उपदेश (शान्ति. पाँच पुत्रोंके साथ मदिरा पीकर मत्त होकर एक भीलनी
३०९ अध्याय ) । महर्षि याज्ञवल्क्यसे देवरातपुत्र का इस भवनमें आकर सोना (आदि. १४७ । ७)।
जनकका प्रश्न करना और उनके द्वारा उनके प्रश्नोंभीमका इस घरमें आग लगाना (आदि. १४७ ।
का समाधान (शान्ति० ३१० अध्याय से ३१८ अध्याय १०)। इसमें जलकर पुरोचनकी मृत्यु ( आदि.
तक)। जरा-मृत्युके उल्लङ्घनके विषय महर्षि पञ्च१४७ । १६)।
शिखसे जनदेव जनकका प्रश्न ( शान्ति० ३१९ । जतुगृहपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ५)। धर्मध्वज जनककी परीक्षाके लिये आयी हुई और १४० से १५० तक)।
उनके शरीरमें प्रविष्ट हुई सुलभासे उसपर दोषारोपण जनक-(क) मिथिलाके एक भूतपूर्व राजा जो अब यम
करते हुए इनका प्रश्न (शान्ति० ३२० । ७५)। सभामें विराजमान होते हैं (समा०८ । १९) ।
राजा जनकद्वारा शुकदेवजीका पूजन (शान्ति० ३२६ । (ख) युधिष्ठिरके समकालिक मिथिलाके एक राजा,
३-५)। शुकदेवजीको उनका ज्ञानोपदेश (शान्ति. जिसे भीमसेनने दिग्विजयके समय पराजित किया था
३२६ । २२-५१)। जनकने जीवनमें कभी मांस नहीं (सभा० ३०।१३)। (ग) एक विदेहराज जनक,
खाया था ( अनु. ११५। ६५)। ब्राह्मणरूपधारी जिनके दरबारमें वन्दीद्वारा शास्त्रार्थमें हारे हुए कहोडको
धर्म और जनकका ममत्व-त्यागविषयक संवाद ( आश्व. समुद्र में डलवा दिया गया था (वन० १३२ । १५)।
३२ अध्याय)। इनका अपनी यज्ञशालामें आये हुए अष्टावक्रसे वार्ता. महाभारतमें आये हुए जनकके नाम-ऐन्द्रद्युम्न, दैवलाप (वन. १३३ । २०-३०)। इनका अष्टावक्रको राति, धर्मध्वज, कराल, करालजनक, मैथिल, मिथिलावन्दीसे शास्त्रार्थ करनेका अवसर देना ( वन० १३३ ।
धिप, मिथिलाधिपति, मिथिलेश्वर, वैदेह, विदेहराज आदि। ३०)। हारे हुए वन्दीको अष्टावक्रके इच्छानुसार
(मिथिलाके प्रायः सभी राजा जनक कहलाते थे । जलमें डुबानेकी बात स्वीकार करना (वन० १३४ । प्रस्तुत वर्णनमें अनेक जनकोंके जीवनकी बातें संकलित २९)। कहोडका जनकके सामने प्रकट होकर पुत्रकी
हुई हैं। नामोंमें भी विभिन्न जनकोंके नाम हैं । यह प्रशंसा करना (वन० १३४ । ३२-३६)। राजाकी किसी एक ही जनकका परिचय नहीं है । )। आज्ञासे वन्दीका समुद्रके जलमें प्रवेश (वन० १३४। जनदेव-मिथिलानरेश जनक (शान्ति० २१८ । ३) । इन्हें ३७)। धर्मव्याधद्वारा कौशिक ब्राह्मणके प्रति जनकके पञ्चशिखका उपदेश (शान्ति. २१८ । २२ से शान्ति. गुणोंका वर्णन (वन० २०७ । ३७-३९)। विदेहराज २१९ । ५२ तक)। ब्राह्मणरूपमें विष्णुद्वारा इनकी जनक सीताके पिता थे ( वन० २७४ । ९)। परीक्षा (शान्ति. २१९ । ५२ के बाद दाक्षिणात्य इनका राज्य छोड़कर संन्यास ग्रहण करनेका उपक्रम पाठ)। इन्हें भगवान् विष्णुका दर्शन और वर-प्राप्ति (शान्ति. १८।४-५ )। इनका अश्मा मुनिसे (शान्ति० २१९ अध्यायकी समाप्तितक)।
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जनमेजय
( १२० )
जनमेजय
जनमेजय-(१) एक राजर्षि जो महाराज परीक्षित्के पुत्र कथा सुनकर तथा यज्ञको समाप्त करके राजाने समस्त
थे। इनकी माताका नाम मद्रवती था. इनकी पत्नी वपु. ब्राह्मणोंको पर्याप्त दक्षिणा देकर संतुष्ट किया और ष्टमासे शतानीक और शङ्ककर्ण नामक दो पुत्र उत्पन्न सबको विदा करके तक्षशिलासे हस्तिनापुरको चले आये हुए थे (आदि.१।९, आदि०९५। ८५-८६)। (स्वर्गा० ५। ३३-३४)। इन्होंने कुरुक्षेत्रमें दीर्घकालतक यज्ञ किया था (आदि० महाभारतमें आये हुए जनमेजयके नाम-भारत, भरत३ )। इनके तीन भाई थे-श्रुतसेन, उग्रसेन और
शार्दूल, भरतश्रेष्ठ, भारताम्य, भरतर्षभ, भरतसत्तम भीमसेन (आदि. ३१)। सरमाके शाप देनेपर
कौरव, कौरवशार्दूल, कौरवनन्दन, कौरवेन्द्र) कौरव्य, इनका चिन्तित होना (आदि. ३ । ११)। इन्होंने
कुरुशार्दूल, कुरुश्रेष्ठ, कुरूद्वह, कुरुकुलश्रेष्ठ, कुरुकुलोद्वह) सोमवाको पुरोहित बनाया और भाइयोंको उनकी
कुरुनन्दन, कुरुप्रवीर, कुरुपुङ्गवाग्रज, कुरुसत्तम, पाण्डव, प्रत्येक आशाके पालनका आदेश दिया (आदि. ३।
पाण्डवनन्दन, पाण्डवेय, पारिक्षित्, पौरव आदि । १२-२०)। उनके द्वारा तक्षशिलापर विजय (आदि.
(२) एक परलोकवासी नरेश (आदि.१।२२८)। ३ । २०)। इनका वेदको अपना उपाध्याय बनाना ये यमराजके सभामें विराजमान होते हैं (सभा०८ । (आदि० ३ । ८२ )। सर्पयज्ञ करनेके लिये इनको १९)। मान्धाताने इन्हें पराजित किया था (द्रोण. उत्तङ्ककी सलाह (आदि. ३। १८३-१८४)। काशि- ६२। १०)। इन्होंने तीन ही दिनोंमें विजयी होकर इस राज सुवर्णवर्मा की पुत्री वपुष्टमासे इनका विवाह भूमण्डलका राज्य प्राप्त किया था (शान्ति० १२४ । ( आदि० ४४ । ८-९) । मन्त्रियोंके द्वारा अपने १६)। ब्राह्मणोंके लिये अपने शरीर और गौका त्याग पिताकी मृत्युका विस्तारपूर्वक समाचार सुनकर इनका करके इन्होंने उत्तम लोक प्राप्त किया था ( शान्ति. तक्षकसे बदला लेनेका निश्चय ( आदि०५० । ३३- २३४ । २४ अनु०१३७ । ९)। (३) एक क्षत्रिय ५४)। ऋत्विोद्वारा इनको सर्प-सत्र करनेका राजा, जो क्रोधवशसंशक दैत्योंके अंशसे उत्पन्न हुआ था परामर्श ( आदि० ५१ । ६-७ ) । इन्होंने (आदि०६७ । ६२)। पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रणयज्ञकी दीक्षा लेनेसे पहले ही सेवकको यह आदेश दे दिया निमन्त्रण भेजा गया था (उद्योग० ४ । १६)। यह गदाकि मुझे सूचित किये बिना किसी अपरिचित व्यक्तिको
युद्धमें कुशल पर्वतीय राजा था । इसे धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुखने यज्ञमण्डपमें न आने दिया जाय, इनका तक्षकको अग्नि- मारा था (कर्ण०६। १९-२०)। (४) एक राजा, कुण्डमें गिरानेके लिये ऋत्विजोंको बारंबार प्रेरणा (आदि. जो भरतवंशी महाराज कुरुके द्वारा वाहिनीके गर्भसे ५६ । ४-११)। उनका आस्तीकको वर देना और यज्ञ- उत्पन्न हुए थे ( आदि. ९४ । ५१ )। (५) समाप्तिका वर माँगनेपर उनसे दूसरा वर माँगनेका आग्रह अश्ववान् कुमार परीक्षित्के वंशमै उत्पन्न एक राजा, जिसके करना (आदि० ५६ । १७-२६)। इनके द्वारा यज्ञ पुत्रका नाम धृतराष्ट्र था (आदि० ९४ । ५३-५६)। बंद करनेकी आज्ञा देकर ऋत्विज आदि सदस्यों और ये परीक्षित-वंशीय नरेश, अर्जनके प्रपौत्र और अभिमन्युके लोहिताक्ष सूत तथा शिल्पीको पुरस्कार ( आदि० ५८ पौत्रसे भिन्न थे (शान्ति० १५० । ३)।ये अनजानमें अध्याय)। सर्पसत्र में आये हुए व्यासजीसे इनकी महाभारत- ब्रह्महत्या कर देनेके कारण प्रजा ब्राह्मणों और पुरोहितोयुद्ध-सम्बन्धी वृत्तान्त सुनानेकी प्रार्थना ( आदि०६० । द्वारा त्याग दिये गये और दुखी हो वनमें जाकर १८-१९)। इनके प्रार्थना करनेपर व्यासजीकी आज्ञासे पुण्यकर्म एवं तपस्या करने लगे। इन्होंने पृथ्वीपर घूमवैशम्पायनजीने इनसे पूरुवंश, भरतवंश एवं कुरुवंशके घूमकर ब्रह्महत्यानिवारणका उपाय पूछा, अन्तमें एक परिचयपूर्वक सम्पूर्ण पुरातन इतिहास एवं महाभारत शौनकवंशी इन्द्रोत मुनिकी शरणमें गये (शान्ति० १५० । युद्धकी कथा सुनायी थी (आदि० ६० । १८-२४)। ४-८) । इन्द्रोतमुनिके फटकारनेपर इन्होंने उनकी ही इनका व्यासजीसे अपने पिताके दर्शन करानेकी प्रार्थना शरण ग्रहण की (शान्ति. १५१।१-५)। इन्द्रोत और व्यासजीका परलोकसे उनका आवाहन करके उसी रूप मुनिने अश्वमेधयज्ञ कराकर इन्हें पापसे मुक्त किया और अवस्थामें जनमेजयको दर्शन कराना, जनमेजयका (शान्ति. १५२। ३९) । (६) महाराज पूरुके पहले पिताको अवभृथ-स्नान कराकर स्वयं स्नान पुत्र, इनकी माताका नाम कौसल्या था. इन्हींका दूसरा करना तथा आस्तीकसे अपने यज्ञको विविध आश्चर्योंका नाम प्रवीर है, इनके द्वारा मधुवंशकी कन्या अनन्ताके केन्द्र बताना और आस्तीकके कहनेसे महर्षि व्यासका गर्भसे प्राचिन्वान्की उत्पत्ति हुई थी (आदि० ९५ । बारंबार पूजन करना । इसके बाद वैशम्पायनजीसे शेष ११.१२)। (७) वरुणकी सभामें विराजमान होनेवाला कथा सुनाने के लिये कहना (आश्रम० ३५। ४-१८)। एक नाग (सभा०९।१०) । (८) नीपवंशका
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जनस्थान
जम्बूखण्डविनिर्माणपर्व
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एक कुलाङ्गार नरेश ( उद्योग० १७४ । ३३)। (९) ऋचीकके सौ पुत्रोंमें बड़े थे। इनके भी चार पुत्र थे, पाण्डवपक्षका एक पाञ्चालदेशीय योद्धा, जो दुर्मुखका पुत्र जिनमें सबसे छोटे परशुरामजी थे (आदि. ६६ । ४५-- था. यह युधिष्ठिरका सम्बन्धी एवं सहायक था, इसके ४९)। जमदनिजी अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे ये घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । ५१ द्रोण. १५८३९)। (आदि० १२२ । ५१)। ये ब्रह्माजीकी सभामें विराजते इसका कर्णके साथ युद्ध (कर्ण० ४९ । ३५-३७)। हैं (सभा० १५ । २२) । इनका सत्यवतीके गर्भसे जनस्थान-दण्डकारण्यका एक भाग, जो गोदावरीके तटपर
जन्म (वन० ११५ । ४३)। इनकी राजा प्रसेनजित्से है और जहाँ त्रेतायुगमें राक्षसोंका समुदाय निवास करता
रेणुकाकी मांग और उसके साथ विवाह (वन. ११६ । था, यहाँ रहकर देवताओंका कार्य सिद्ध करते हुए
२)। इनको अपनी पत्नी रेणुकाके गर्भसे पाँच पुत्रोंकी श्रीरामने प्रजाजनोंके हितकी कामनासे भयानक कर्म
प्राप्ति (वन० ११६ । ४)। इनका रेणुकाका वध करनेवाले मारीच, खर, दूषण, त्रिशिरा आदि चौदह हजार
करनेके लिये पुत्रोंको आदेश (वन० ११६ । ११)। राक्षसोंका वध किया (सभा०३८।दा. पाठ, पृष्ठ ७९४)।
माताका वध कर देनेपर परशुरामको इनका वरदान (वन. यही राक्षसराज रावणने मायासे सुवर्णमय मृगका रूप १०६ । १८)। कार्तवीयके पुत्रोद्वारा इनका वध (वन धारण करनेवाले मारीच नामक राक्षसके द्वारा श्रीरामको
११६।२८, शान्ति०४९।५०)। द्रोणाचार्यके पास आकर धोखेमें डालकर इनकी धर्मपत्नी सीताको हर लिया था इनका उनसे युद्ध बंद करनेको कहना (द्रोण. १९०। (वन. १४७ । ३३-३४)। यहाँ रहते समय शूर्पणखाके ३५-४०)। इनके जन्मका प्रसंग (शान्ति० ४९ । नाक-कान कटवानेके कारण श्रीरामका जनस्थानवासी २९)। इनसे परशुरामका जन्म (शान्ति०४९ । राक्षस खरके साथ महान् वैर हो गया (वन० २७७ । ३१-३२)। इनका वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष बताना ४२) । नरश्रेष्ठ श्रीरामने जनस्थानमें तपस्वी मुनियोंकी (अनु० ९३ । ४४)। अरुन्धतीसे अपने मोटे न होनेका रक्षाके लिये चौदह हजार राक्षसोंका वध किया था। कारण बताना ( अनु० ९३ । ६४) । यातुधानीसे (द्रोण. ५९ । ३)। जनस्थानमें श्रीरामने जब
अपने नामकी व्याख्या बताना (अनु० ९३ । ९४ )। राक्षसोंके संहारका विचार किया था, उस समय एक
मृणालकी चोरीके विषयमें शपथ खाना ( अनु० ९३ । राक्षसके सिरको काटकर दूर फेंका, वह महोदर मुनिकी १२०-१२१) । अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेजाँघमें जा लगा और उसकी हड्डी मुनिकी जाँघमें फंस पर शपथ खाना ( अनु. ९४ । २५)। रेणुकाके पैर गयी थी (शल्य. ३९ । ९-११)। जनस्थानमें
और मस्तकके संतप्त होनेसे सूर्यपर कोप करना (अनु. गोदावरीके जलमें स्नान करके उपवास करनेवाला पुरुष
५५ । १८)। इनका शरणागत सूर्यको अभयदान देना राजलक्ष्मीसे सेवित होता है (अनु० २५। २९)। (अनु० ९६ । ८-१२)। इनके द्वारा धर्मके रहस्यका जनार्दन-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम ( वन० १२ ।
वर्णन (अनु. १२७ । १७-१९)। ये उत्तर दिशाके
ऋषि हैं (अनु. १६५। ४४)। जमदग्निका क्रोधपर २४ ) । दस्युजनोंको त्रास देनेके कारण भगवान् श्रीकृष्णका नाम जनार्दन हुआ है (उद्योग०७० । ६)।
विजय ( आश्व० ९२ । ४१-४६)। महाभारतमें अनेक स्थलोंपर जनार्दन' नामका प्रयोग महाभारतमें आये हुए जमदग्निके नाम-आर्चीक, हुआ है, यथा-(भीष्म० २५ । ३६,३९,४४भीष्म०२७॥ भार्गव, भार्गवनन्दन, भृगुशार्दूल, भृगुश्रेष्ठ, भृगूत्तम,
१७ भीष्म० ३४ । १८ भीष्म ३५। ५.) इत्यादि । ऋचीकपुत्र, ऋचीकतनय आदि । जन्तु-प्रसिद्ध राजा सोमकका पुत्र, जिसके प्रति राजपरिवारको जम्बुक-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ७४)। भारी आसक्ति थी (वन १२७॥४-१५)। सो जम्बू-मेरुपर्वतके दक्षिण भागमें विद्यमान वृक्षविशेष. जो पुत्रोंकी प्राप्तिके निमित्त जन्तुकी आहुति देकर यज्ञ करनेके सदा फल-फूलोसे भरा रहता है, सिद्ध और चारण उस लिये ऋत्विजकी सलाह (वन० १२०॥ १६-२७)।
वृक्षका सेवन करते हैं, उसकी शाखा ऊँचाईमें स्वर्गलोकजन्तुके लिये माताओंका शोक और ऋत्विजोंका इसे तक फैली हुई है, उसीके नामपर इस दीपको जम्बूद्वीप काटकर इसकी चर्बियोंकी आहुति देना (वम० १२८।
कहते हैं (सभा० २८ । ६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ २-६)। इसका पुनः अपनी माताके गर्भसे जन्म
७४७)। (वन० १२८ । ८)।
जम्बूक-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७६ )। जमदग्नि-एक ब्रह्मर्षि, जो सत्यवती और ऋचीक ऋषिके अम्धूखण्डविनिर्माणपर्व-भीष्मपर्वका एक अवान्तर पर्व पुत्र, और्वके पौत्र तथा महर्षि च्यवनके प्रपौत्र थे ये (अध्याय १ से १० तक)।
मामा०१६..
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जम्बूद्वीप
( १२२ )
जयत्सेन
जम्बूद्वीप-सात द्वीपोंमेंसे एक (सभा० २८ । ६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७४७ )। (यह द्वीप समस्त भूमण्डलके मध्यभागमें है।) इसके विस्तार आदिका वर्णन (भीष्म० ११ । ५-७)। जम्बूनदी-गनाकी सात धाराओंमेंसे एक धाराका नाम
(भीष्म० ६ । ४८)। जम्बूमार्ग-प्राचीन तीर्थ, जो देवताओं, पितरों और
ऋषियोंसे सेवित है, वहाँ जानेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है (वन० ८२ । ४०-४१) । साधारणभावसे तीन महीनेतक और इन्द्रियसंयमपूर्वक एकाग्रचित्त हो एक ही दिन जम्बूमार्गमें स्नान करनेसे मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है ( अनु० २५ । ५१)। जम्भ-(१) एक असुर, जिसे भगवान् श्रीकृष्णने मारा था (सभा०३८ । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२५; द्रोण. ११ । ५ )।(२) एक दैत्य, जिसका शुक्राचार्यने त्याग किया था ( सभा० ६२ । १२)। इसीका वध इन्द्रने किया था (शान्ति० ९८ । ४९)। (३) एक असुर, जो भगवान् विष्णुद्वारा मारा गया था (वन० १०२ । २४ )।(४) राक्षसोका एक दल, जो रावणके अधीन था और वानर-सैनिकोपर धावा बोला था ( वन० २८५ । २)। (५) पौलोम और कालखंज नामक दानवोंके अन्तर्गत एक दानव, जो नरावतार अर्जुनके द्वारा मारा गया ( उद्योग० ४९ । १४-१५)। जम्भक-एक क्षत्रिय राजा, जो वसुदेवनन्दन भगवान्
श्रीकृष्णद्वारा दलबलसहित मार डाला गया था, केवळ उसका पुत्र ही जीवित बच गया था, जिसे सहदेवने दक्षिण-दिग्विजयके समय जीता था ( सभा० ३१ ।
७-८)। जय- (१) महाभारतका नाम (आदि.११ मङ्गला
चरण, प्रत्येक पर्वका मङ्गलाचरण; आदि. ६२ । २०)। (२) धृतराष्ट्रका एक महारथी पुत्र ( भादि. ७ । ११९ )। इसने गोहरणके समय विराटनगरमें अर्जुनपर धावा किया था ( विराट. ५४ । .)। नीलके साथ इसका युद्ध (द्रोण. २५ । ४५)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १३५ । ३६ )।(३) एक देवता, जो मूसल लेकर खाण्डवदाइके समय अर्जुन और श्रीकृष्णके विपक्षमें खड़े हुए थे (आदि० २२६ । ३४ )।(४) एक प्राचीन नरेश, जो यमसभामें उपस्थित हो सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । १५ )। (५) भगवान् सूर्यका एक नाम ( वन.३।२४)। (६)
विराटनगरमें रहते समय युधिष्ठिरका गुप्त नाम ( अन्य भाइयोंके गुप्त नाम क्रमशः जयन्त, विजय, जयत्सेन,
और जयदल थे।) ( विराट. ५। ३५) जब सूतपुत्र द्रौपदीको श्मशानमें लिये जा रहे थे, द्रौपदीने 'जय आदि' गुप्त नार्मोसे ही पाण्डवोंको अपन रक्षाके लिये पुकारा था (विराट० २३ । १२)। (७) एक मुहूर्तका नाम ( उद्योग. ६ । १७)। (८) एक कश्यपवंशी नाग (उद्योग० १०३ । १६)। (९) विदुलोपाख्यानका नाम ( उद्योग. १३६ । १८)। (१०) एक कौरवदलका योद्धा, जो शकुनिका साथी होकर अर्जुनपर आक्रमण करनेके लिये दुर्योधनद्वारा भेजा गया था (द्रोण. १५६ । ११९-१२३)।(११) पाण्डवपक्षका एक पाञ्चाल योद्धा, जो कर्णद्वारा घायल किया गया था (कर्ण० ५६ । ४४)। (१२) नागराज. वासुकिके द्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदरूप नागों से एक नाग, दूसरेका नाम महाजय था (पाल्य. ४५। ५२ )। (१३ ) विजय या जीत (शल्य. ४६ । ६४ )।(१४) भगवान् विष्णुका नाम
(अनु० १४९ । ६७)। जयत्सेन-(१) मगधदेशका एक राजा, जो जरासंधका
पुत्र था और कालेय नामक दैत्योंमें सबसे श्रेष्ठ असुरके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ४८)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि. १८५। ८)। पाण्डवोंकी ओरसे इसे रणनिमन्त्रण भेजा गया (उद्योग. ४ । १९ )। एक अक्षौहिणी सेनाके साथ पाण्डवोके यहाँ इसका आगमन हुआ था (उद्योग. १९।८)। धृतराष्ट्रपुत्र विजयके साथ इसने युद्ध किया (द्रोण. २५। ४५)। (२) पुरुवंशी सार्वभौमके द्वारा केकयकुमारी सुनन्दाके गर्भसे उत्पन्न एक राजा, इनकी पत्नी विदर्भराजकुमारी सुश्रवा थी और इनके पुत्रका नाम अवाचीन था ( आदि. ९५ । १६-१७)। (३) विराटनगरमें रहते समय नकुलका गुप्त नाम (विराट. ५।३५, विराट०२३ । १२)। (४) एक कौरवपक्षका राजा, जो मगधनिवासी जरासंघका पुत्र था। यह एक अक्षौहिणी सेना साथ लेकर दुर्योधनकी सहायताके लिये आया था ( भीम १६ । १६)। यह अभिमन्युद्वारा मारा गया (कर्ण० ५ । ३०)। ('जयत्सेन' नामक दो राजा या राजकुमार हैं, दोनों ही मागध हैं और दोनोंहीके पिताका नाम जरासंध है, परंतु सुप्रसिद्ध राजा जरासंधका पुत्र सहदेव ही पिताके बाद मगधका राजा हुआ था और वह अपने भाई जयत्सेनके साथ पाण्डवपक्षमें ही सम्मिलित हुआ था। अतः यह दूसरा जयसेन मगधदेशवासी किसी अन्य जरासंधका पुत्र है, यही मानना
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जयत्सेना
( १२३ )
जयद्रथ
चाहिये।) (५) धृतराष्ट्रका एक पुत्र, शतानीकद्वारा अपना परिचय देनेके लिये उसे विवश करके बंदी बनाकर इसकी पराजय (भीष्म ७९ । ४४-४५)। भीमसेन- रथपर डाल लेना और युधिष्ठिरके सामने उसी दशामें द्वारा इसका वध (शल्य. २६ । ११-१२)।
उपस्थित करना (वन० २७२ । २~१५)। युधिष्ठिरजयत्सेना-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ६)।
का इसे छोड़ देनेका आदेश और युधिष्ठिरकी दासता
स्वीकार कर लेनेके कारण इसे छोड़ देनेके लिये द्रौपदीका जयद्वल-विराटनगरमें रहते समय सहदेवका एक गुप्त नाम भी भीमसेनसे अनुरोध (वन० २७२ । १७-१८)। (विराट. ५। ३५, विराट० २३ । १२)।
जयद्रथका छुटकारा, युधिष्ठिरका उसे उसके पापकर्मके जयद्रथ-(१) सिन्धुनरेश वृद्धक्षत्रका पुत्र, इसकी पत्नीका । लिये धिक्कारते हुए दासभावसे मुक्त कर देना और उसे नाम दुःशला था ( आदि० ६७ । १०९-११० )। सकुशल लौट जानेकी आज्ञा देना (वन० २७२ । २१दुःशलाके साथ उसका विवाह (आदि. ११६ । १७-१८)। २४)। जयद्रथका लजित हो सीधे गङ्गाद्वारको जाना यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि. १८५। २१)। और तपस्याद्वारा भगवान् शङ्करको प्रसन्न करके एक दिनके युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें सम्मिलित हुआ था (सभा० लिये अर्जुनके सिवा अन्य चार पाण्डवोंको जीत लेनेका ३४ । ८)। कौरवसभामें राजा युधिष्ठिरके जुआ खेलते वरदान प्राप्त करना (वन० २७२ । २५--२९)। समय यह भी मौजूद था ( सभा० ५८ । २६)। इसका सेनासहित दुर्योधनकी सहायतामें आना (उद्योग. जयद्रथका विवाहकी इच्छासे शाल्वदेशकी ओर जाते १९ । १९)। प्रथम दिनके युद्ध में द्रुपदके साथ द्वन्द्वसमय साथियोंसहित काम्यकवनमें पहँचना और द्रौपदी- युद्ध (भीष्म० ४५ । ५५-५७)। भीमसेनसे दुर्योधनको देखकर चकित होना, फिर दूषित भावनाका उदय
की रक्षा करके भीमसेनपर आक्रमण (भीष्म० ७९ । होनेसे उनका परिचय जाननेके लिये कोटिकास्यको उनके १७-२०)। भीमसेनके पुरुषार्थसे इसका किंकर्त्तव्यपास भेजना ( वन० २६४ । ६-१६ )। द्रौपदीसे विमूढ़ होना (भीष्म० ८५। ३५ के बाद )। भीमसेन इसका अनुचित प्रस्ताव करना ( वन० २६७ ।
और अर्जुनके साथ युद्ध (भीष्म० ११३ अध्यायसे ११४ १३-१० )। द्रौपदीकी इसको कड़ी फटकार ( वन० अध्यायतक)। विराटके साथ इसका द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म २६७ । १९-२० और दाक्षिणात्य पाठके श्लोक )।
११६ । ४२-४४ ) । अभिमन्युके साथ युद्ध द्रौपदीका इसको धिक्कारना और फटकारना (वन.
(द्रोण. १४ । ६४-७४ )। क्षत्रवर्माके साथ युद्ध २६८ । २-९ )। इसका द्रौपदीको समझाना (द्रोण. २५ । १०-१२)। ब्यूहद्वारपर पाण्डवोंको (वन. २६८ । १०-१२ ) । पुनः द्रौपदीकी रोक देना (द्रोण. ४२।७)। धृतराष्ट्रके पूछनेपर इसे कड़ी फटकार ( वन० २६८ । १३-२२)।
संजयद्वारा इसको वर-प्राप्तिका वर्णन (द्रोण. ४२ । उसका द्रौपदीको पकड़नेकी चेष्टा और उनके धक्के १२-२२)। पाण्डवोंके साथ युद्ध और व्यूहद्वारको खाकर कटे पेड़की भाँति गिरना, फिर दुबारा उठकर
रोके रखना (द्रोण. ४३ अध्याय) । अर्जुनद्वारा की उन्हें पकड़ना और रथपर बैठनेके लिये विवश कर देना
गयी अपने वधकी प्रतिज्ञा जानकर कौरवोंके सामने अपना (वन० २६८ । २३-२५)। धौम्यमुनिका जयद्रथको
भय प्रकट करके वहाँसे चले जानेकी आज्ञा माँगना फटकारना (वन० २६८ । २६-२७)। जयद्रथद्वारा
(द्रोण० ७४ । ४-१२)। इसके ध्वजका वर्णन अपहृत हुई द्रौपदीके पीछे धौम्य मुनिका जाना (वन.
(द्रोण.१०५ । २०-२२) । अर्जुनके साथ इसका २६८ । २८ )। युधिष्ठिरके समक्ष धात्रेयिकाद्वारा
युद्ध (द्रोण. १४५ अध्याय )। भगवान श्रीकृष्णकी जयद्रथके अत्याचारका वर्णन (वन० २६९ । १७
प्रेरणासे अर्जुनका जयद्रथके काटे हुए सिरको समन्त२२)। पाण्डवोंका जयद्रथको ललकारना (वन० २६९ ।
पञ्चकमें तपस्या करनेवाले इसके पिताकी गोदमें गिराना २८)। द्रौपदीद्वारा जयद्रथके सामने पाण्डवोंके पराक्रम
तथा उनके द्वारा उस सिरके भूमिपर गिरनेसे उनके भी का वर्णन (वन. २७० अध्याय) । पाण्डवोद्वारा सिरके सौ टुकड़े हो जाना (द्रोण० १४६।१०४--१३०)। जयद्रथकी सेनाका संहार और जयद्रथका पलायन (वन० महाभारतमें आये हुए जयद्रथके नाम-सैन्धव, सैन्धवक, २७१ । १-३३)। भीम और अर्जुनका जयद्रथका सौवीर, सौवीरज, सौवीरराज, सिन्धुपति, सिन्धुराज, पीछा करना और उसे फटकारना (वन० २७१ । ५२
सिन्धुराट, सिन्धुसौवीरभर्ताः सुवीर, सुवीरराष्ट्रप, ५९)। भीमसेनका जयद्रथको पकड़कर पीटना और
वार्धक्षत्रि आदि। अधमरा कर देना, उसका सिर मूड़कर पाँच शिखाएँ (२) एक गजा, जो यमसभामें बैठकर सूर्यपुत्र यमकी रख देना, राजाओंकी सभा युधिष्ठिरका दास बताकर उपासना करते हैं (सभा०८ । ३६)।
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जयद्रथवधपर्व
( १२४ )
जरा
जयद्रथवधपर्व-द्रोणपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय
८५ से १५२ तक)। जयद्रथविमोक्षणपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व
( अध्याय २७२)। जयन्त-(१) इन्द्र के पुत्र, इनकी माताका नाम शची था (आदि. ११२ । ३-४) । (२) विराटनगरमें रहते समय भीमसेनका एक गुप्त नाम (विराट. ५। ३५, विराट०२३ । १२)। (३) एक पाञ्चाल शिरोमणि महामनस्वी वीर, जो महारथी माना गया था ( उद्योग. १७१ । ११)। (४) ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक (शान्ति. २०८ । २०)। (५) भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४९ / ९८)। (६) बारह आदित्योंमेंसे एक (अनु. १५०। १५)। जयन्ती-सरस्वती-तटवर्ती एक तीर्थस्थान, जहाँ सोमतीर्थम स्नान करके मनुष्य राजसूय-यज्ञका फल प्राप्त करता है
(वन० ८३ । १९)। जयप्रिया-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ ।
१२)। जयरात-कौरव-पक्षका योद्धा, जो कलिङ्गदेशका राजकुमार
था। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १५५ । २८)। जयसेन-एक मगधदेशीय राजकुमार, जो युधिष्ठिरकी
सभामें बैठा करता था (सभा० ४ । २६)। जया-दुर्गा देवीका एक नाम (विराट० ६ । १६)। जयानीक-(१) द्रुपदपुत्रका एक पुत्र, जो अश्वत्थामाद्वारा मारा गया (द्रोण० १५६ । १८१)। (२) विराटके
भाई (द्रोण० १५८ । ४२)। जयावती-स्कन्द की अनुचरी मातृका (शल्य.४६।४)।
३-४)। इनकी तपश्चर्याका वर्णन ( आदि० ४०। ९)। गर्तमें लटके हुए पितरोंद्वारा इनको अपने दुःखकी कथा सुनाना तथा इनसे इनका परिचय पूछना (आदि० ४५ । ३-३२)। पितरोंको अपना परिचय देकर कुछ शोके साथ विवाह करनेके लिये इनका उन्हें वचन देना (आदि० ४६ । २-१०) । पत्नीके लिये विचरते हुए इनका कहीं पत्नी प्राप्त न होनेपर उदासीन हो वनमें जोरजोरसे पुकार लगाना तथा धीरे-धीरे कन्याकी भिक्षा माँगना ( आदि०४६ । १२-१३)। दूतोद्वारा इनका उद्देश्य जानकर नागराज वासुकिका इनकी समस्त शर्तोको स्वीकार करके इनके साथ अपनी बहिनका ब्याह कर देना (भादि. ४६ । १९-२३; आदि० ४७ । ५)। पत्नीके साथ इनकी शर्त एवं ऋतुकाल आनेपर उसमें गर्भाधान (आदि.४७ । ८-१३)। धर्मलोपके भयसे पत्नीके द्वारा जगाये जानेपर इनके द्वारा पत्नीका परित्याग (आदि. १७। १५-४३)। पुत्रके लिये पत्नीके प्रार्थना करनेपर 'तुम्हारे उदरमें गर्भ है। इस प्रकार पत्नीको इनका आश्वासन ( आदि. ४७ । ४२)। (२) नागराज वासुकिकी बहिन, जरत्कारु नामक ऋषिकी पत्नी तथा आस्तीककी माता ( आदि. १४ । ६-७)। धर्मलोपके भयसे पतिको जगानेपर पति के द्वारा इनका परित्याग ( आदि. ४७ । १६-४३)। पुत्रके लिये प्रार्थना करनेपर जरत्कारु ऋषिके द्वारा इनको आश्वासन (आदि० ४७ । ४२)। जरत्कारु ऋषिके चले जानेपर मातृ-शापसे चिन्तित हुए वासुकिको इनका आश्वासन (आदि० ४८ । १-१३)। अपने पुत्र आस्तीकको सपोंकी रक्षाके लिये इनकी प्रेरणा ( आदि० ५४ । ५--
जयाश्व (१)-द्रुपदका एक पुत्र, जो अश्वत्थामाद्वारा मारा गया (द्रोण. १५६ । १८१)। (२) विराटके
भाई (द्रोण० १५८ । ४२)। जरत्कारु-(१) यायावरसंज्ञक ब्राह्मणोंके घरमें उत्पन्न एक ऊर्ध्वरेता और महान् ऋषि, जो आस्तीकके पिता थे (आदि० १३ । ११; आदि. १५ । २-३ )। (यायावर शब्दका अथे इसी अध्यायकी टिप्पणी में देखना चाहिये । ) इनके द्वारा गर्त में लटके हुए अपने पितरोंका दर्शन तथा उनके आदेशसे विवाह करनेका इनका निश्चय (आदि० १३ । १५-२७)। उनके विवाहकी शर्ते (आदि. १३ । २८-३१)। नागराज वासुकिके द्वारा भिक्षाके रूपमें प्राप्त हुई अपने समान नामवाली कन्यासे इनका विवाह होनेकी कथा ( आदि. १४ । २-७)। इनका जरत्कारु नाम होनेका कारण (आदि.४०।
जरा-(१) एक राक्षसी, जिसने जरासंधके शरीरके दोनों
टुकड़ोंको जोड़ा था (सभा० १७ । ४०)। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने गृहदेवीके नामसे इसकी सृष्टि की थी और इसे दानवोंके विनाशके लिये नियुक्त किया था। जो अपने घरकी दीवारपर इसे अनेक पुत्रोंसहित युवती स्त्रीके रूपमें भक्तिपूर्वक लिखता है-इसका चित्र अङ्कित करता है, उसके घरमें सदा वृद्धि होती है; अन्यथा उसे हानि उठानी पड़ती है। मगधराज बृहद्रथके घरमें इसकी भलीभाँति पूजा होती थी; अतः उसने प्रसन्न होकर दो टुकड़ोंमें उत्पन्न हुए शिशु जरासंधको जोड़कर बृहद्रथको सुरक्षित रूपसे दे दिया था (सभा० १८।१-७)। इसका राजा बृहद्रथको अपना परिचय देना (सभा. १८।१-८)। इसकी मृत्युके कारणका श्रीकृष्णद्वारा अर्जुनके प्रति कथन (द्रोण. १०१। १२-१४)। (२) जरा' नामक एक व्याध, जिसने मृगके भ्रमसे
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जरायु
( १२५ )
जल्प
सोते हुए श्रीकृष्णके एक पैरमें बाण मारा था ( मौसल० २२९ । ९) । खाण्डववनदाहके समय पुत्रोंके लिये ४ । २२-२३)।
इसकी चिन्ता और पुत्रोंद्वारा इसे आत्मरक्षाके हेतु अन्यत्र जरायु-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १९)।
चले जानेका आदेश (आदि० २२९ । १२)। इसका
अपने बच्चोंके साथ संवाद ( आदि० २३० अध्याय)। जरासंध-(१) ( नामान्तर शत्रुसह )-धृतराष्ट्रके
अग्निदेवकी कृपासे इसके बच्चोंकी रक्षा (आदि० २३. सौ पुत्रों से एक (आदि०६७ । १००)। शत्रुसह नामसे इसका भीमसेनद्वारा वध (द्रोण० १३७ । ३०)।
अध्याय)। (२) विप्रचित्ति नामक दानवके अंशसे उत्पन्न जरितारि-पक्षिरूपधारी मन्दपाल ऋषिके द्वारा जरिताके मगधराज बृहद्रथका पुत्र (सभा० १७॥ १२)। श्रीकृष्ण- गर्भसे उत्पन्न एक पक्षी मुनि । इनके द्वारा अग्निकी द्वारा इसकी उत्पत्तिका वर्णन (सभा०१७ । १२-५१)। स्तुति । खाण्डववनमें अग्निद्वारा इनको अभयदान चण्डकौशिक मुनिके द्वारा कृपापूर्वक दिये हुए फलके (आदि० २३१ अध्याय )। माताओंद्वारा भक्षण करनेपर उनके गर्भसे इसका जन्म जर्जरानना-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । (सभा० १७ । २९) । इसका जरासंध नाम होनेका १९)। कारण (सभा०१८।११)। चण्डकौशिक मुनिद्वारा ।
जर्तिक-बाहीकों की एक जाति, जिसका चरित्र अत्यन्त इसके भविष्यका कथन (सभा० १९ । ४-१५ )।
निन्दित है (कर्ण०४४।१०)। द्रौपदीके स्वयंवरमें इसका आगमन (आदि. १८५। २३ ) । स्वयंवरमें धनुष उठाते समय इसका।
जल-जल-तत्त्वके अभिमानी देवता, जो ब्रह्माजीकी सभामें घुटनोंके बल गिरना और लजित होकर स्वदेशको
विराजमान होते हैं (सभा०११।२०)। लौट जाना ( आदि. १८५ । २७ ) । भगवान् जलद-शाकद्वीपका एक पर्वत, जिसके निकट कुमुदोत्तर वर्ष श्रीकृष्णका इसके पराक्रमका युधिष्ठिरके प्रति वर्णन (सभा० है (भीष्म. ११ । २५)। १४ । ६२-७०)। श्रीकृष्णके साथ इसके वैरका कारण जलधार-शाकद्वीपका एक पर्वत (भीष्म ११ । १६)। (सभा० १९ । २२)। श्रीकृष्णको मारनेके लिये इस
जलन्धम-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५। ५७)। का मगधसे मथुराको गदाका प्रक्षेप ( सभा० १९ ।
जलप्रदानिकपर्व-स्त्रीपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय २३)। इसका श्रीकृष्णके साथ संवाद (सभा० २१ ।
से १५ तक)। ४२-४७)। इसके द्वारा शिवजीकी प्रसन्नताके हेतु नरबलिके लिये नरेशोंका निग्रह (सभा० २२।८)।
जलसंधि-(१) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक (आदि. भीमसेनके साथ इसका युद्ध ( सभा. २३ । १० से
६७ । ९४)। भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म०६५।
३३) । (२) कौरव-पक्षका एक महारथी योद्धा सभा० २४ । ६ तक)। भीमसेनद्वारा इसकी मृत्यु (सभा० २४ । ७) । अर्जुनके प्रति श्रीकृष्णका इसके वधका
(उद्योग. ६६ । ७)। यह द्रौपदीके स्वयंवर में भी गया कारण बताना (बोण० १८५। ८-१६)। कर्णद्वारा
था ( आदि. १८५। १२)। सात्यकिद्वारा इसका वध पराजित होकर उसे मालिनी नगरी देकर उसके साथ
(द्रोण. ११५ । ५२-५३)। इसके संधि करनेकी चर्चा (शान्ति० ५।६)। जला-यमुनाकी पार्श्ववर्तिनी एक नदी, जहाँ उशीनरने यज्ञ महाभारतमें आये हुए जरासंधके नाम-बार्हद्रथ,
करके इन्द्रसे भी ऊँचा स्थान प्राप्त किया था (वन. मागध, मगधाधिप, मगधाधिपति, मगधेश्वर आदि ।।
१३० । २१)। (३) मगधदेशका एक दूसरा क्षत्रिय, जिसका पुत्र जलेयु-पूरु-पुत्र रौद्रायद्वारा मिश्रकेशी अप्सरासे उत्पन्न जयत्सेन कौरवपक्षका योद्धा था और अभिमन्युद्वारा (आदि० ९४ । १०)। मारा गया था (कर्ण० ५। ३०)।
जलेला-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १६) । जरासंधवधपर्व-सभापर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय जलेश्वरी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ ।१३) । २० से २४ तक)।
जल्प-एक प्रकारका वाद, जिसमें वादी छल, जाति और निग्रहजरिता-मन्दपाल ऋषिकी भार्या पक्षिणी ( आदि० २२८ । स्थानको लेकर अपने पक्षका मण्डन और विपक्षीके पक्षका १६)। मन्दपालके द्वारा इसके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्र- खण्डन करता है। इसमें वादीका उद्देश्य तत्त्व-निर्णय नहीं जरितारि, सारिसक्क, स्तम्बमित्र और द्रोण ( आदि. होता; किंतु स्वपक्ष-स्थापन और परपक्ष-खण्डनमात्र होता
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जवन
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( १२६ )
है । वादके समान इसमें भी प्रतिज्ञा, हेतु आदि पाँच अत्रयव होते हैं ( सभा० ३६ । ३ ) । जवन - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७५ ) । जह्न - महाराज अजमीढ़ के द्वारा केशिनी के गर्भ से उत्पन्न एक राजा, उनके वंशज कुशिक नामसे प्रसिद्ध हुए ( आदि० ९४ । ३२-३३) । इनकी वंशपरम्पराका वर्णन (शान्ति ० ४९ । ३—६ ) । गङ्गाजी इनकी पुत्री - भावको प्राप्त हुई ( अनु० ४ । ३ ) ।
ु
जागुड़ एक देश, भारतका एक जनपद, जहाँके राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञमें आये थे ( वन० ५१ । २५ ) । जाङ्गल - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५६ ) । जाजलि - एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने घोर तपस्या की थी ( शान्ति ० २६१ । ३३ - ३७ ) । इनके सिरपर पक्षियोंका अंडा देना ( शान्ति० २६१ । २३-२४ ) । मनमें सिद्ध होनेका अहङ्कार आनेपर आकाशवाणीद्वारा इन्हें तुलाधारके पास जानेका आदेश ( शान्ति ० २६१ । ४२-४३ ) । इनका तुलाधारके पास जाना और धर्मोपदेश सुनना ( शान्ति अध्याय २६२ से २६३ तक ) । इन्हें पक्षियोंका उपदेश ( शान्ति० २६४ | ६-१९)। इनका तुलाधार के साथ परमधामगमन ( शान्ति० २६४ । २०-२१ )। जाठर-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६२ ) । जातिस्मर - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके मनुष्यके शरीर एवं
मनकी शुद्धि हो जाती है ( वन० ८४ । १२८ ) । जातिस्मर कीट एक कीड़ा, जिसे शुभ कर्मके प्रभावसे
अपने पूर्वजन्मों की बातोंका स्मरण बना रहा । व्यासजी की कृपासे उसकी क्रमशः उन्नति और उद्धार ( अनु० ११७ अध्याय से ११९ अध्यायतक ) ।
जातूकर्ण - एक जितेन्द्रिय मुनि, जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १४ ) ।
जारूथी
जानुजङ्घ- सायं प्राप्तः स्मरण करने योग्य एक पुण्यात्मा नरेश (अनु० १६५ । ५९ ) ।
जावक - एक गायत्री - जपपरायण ब्राह्मण । जापकमें दोष आनेके कारण उसे नरककी प्राप्ति ( शान्ति० १९७ अध्याय ) । परमधामके अधिकारी जापकके लिये देवलोक भी नरकतुल्य है ( शान्ति० १९८ अध्याय ) | जापकको सावित्रीका वरदान — उसके पास धर्म, यम और काल आदिका आगमन । राजा इक्ष्वाकु और जापक ब्राह्मणका संवाद | सत्यकी महिमा तथा जापककी परम गतिका वर्णन ( शान्ति० १९९ अध्याय ) । जापक ब्राह्मण और राजा इक्ष्वाकुके उत्तम गतिका वर्णन तथा जापकको मिलनेवाले फलकी उत्कृष्टता ( शान्ति० २०० अध्याय ) ।
जाबालि - विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५५ ) ।
जाम्बवती -ऋक्षराज जाम्बवान्की पुत्री और भगवान्
श्रीकृष्णकी पत्नी ( सभा० ३८ । दा० पाठ, पृष्ठ ८१५ ) । श्रीकृष्ण से पुत्र प्राप्ति के लिये इनकी प्रार्थना ( अनु० १४ । ३०-३४ ) । श्रीकृष्णकी तपस्या- यात्रा के लिये इनकी मङ्गल-कामना ( अनु० १४ । ३६ -४० ) | श्रीकृष्णके परमधाम पधारनेपर ये पतिलोककी प्राप्तिके लिये अग्निमें समा गयी थीं (मौसल ० ० । ७३ )।
जानकि- एक क्षत्रिय राजा, जो चन्द्रविनाशन असुरके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ३९ ) । पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण-निमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग ० ४ । २० )।
जानपदी - एक अप्सरा, जो इन्द्रकी आज्ञासे शरद्वान्की तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये आयी थी (आदि० १२९ । ६) । इसके दर्शन से स्खलित हुए शरद्वान्के वीर्य कृप एवं कृपीका जन्म ( आदि० १२९ । ११ - २० ) ।
जातिस्मरहद - एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेवाला मनुष्य पूर्वजन्मकी चातोंको स्मरण करनेकी शक्ति पा लेता है। ( चन० ८५ । ३ ) ।
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जाम्बवान् ऋक्षराज, सुग्रीवके मन्त्री (वन० २८० । २३) । ये दस खरब काले रीछोंकी सेना लेकर भगवान् श्रीरामके पास आये थे ( वन० २८३ । ८ ) ।
जाम्बूनद - (१) पूरुवंशी महाराज कुरुके पौत्र एवं
जनमेजयके पाँचवें पुत्र ( आदि० ९४ । ५६ ) | ( २ ) एक सुवर्णमय पर्वत ( मेरु ), जहाँसे गङ्गाजीका कल-कल नाद लोमशजीको सुनायी दिया था ( वन० १३९ । १६ ) । (३) उशीरवीज नामक स्थानमें स्थित एक पवित्र सुवर्णमय पर्वत, जहाँ राजा मरुत्तने यज्ञ किया था (उद्योग० १११ । २३) । ( ४ ) जम्बूद्वीपकी जम्बूनदीसे उत्पन्न सुवर्ण ( भीष्म ० ७ | २६ ) । जाम्बूनदी - एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म० ९ । ३० ) ।
जायाशब्दकी निरुक्ति-पुरुषका अपना आत्मा ही संतानरूपमें स्त्रीके गर्भ से जन्म लेता है ( वन० १२ । ७० ' ) । जारुधि - एक प्राचीन देश ( सभा० ३८ । ३९ के बाद दाक्षि० पाठ ) ।
जारूथी - एक स्थान या नगर, जहाँ श्रीकृष्णने आहुति, क्राथ, साथियों सहित शिशुपाल, जरासंध, शैव्य और शतधन्वाको परास्त किया था ( वन० १२ । ३० ) ।
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जाह्नवी
जाह्नवी - गङ्गाजीका एक नाम ( जो जह्नकी पुत्री होनेके कारण प्रसिद्ध हुआ था । ) ( आदि० ९९ । ४ ) । जितवती - राजर्षि उशीनरकी सुन्दर रूप और युवावस्था सुशोभित पुत्री, जो मनुष्यलोककी सुप्रसिद्ध सुन्दरी थी और नामक वसुकी पत्नीकी सखी थी ( आदि ० ९९ । २२-२४ ) | इसके निमित्त वशिष्ठजीकी नन्दिनी गौका अपहरण करनेके लिये वसुपत्नीकी अपने पतिसे प्रार्थना ( आदि० ९९ । २१ - २५ ) । इसके लिये नन्दिनीका अपहरण करनेसे वसुओंको वशिष्ठजीका शाप ( आदि० ९९ । ३२ ) ।
( १२७ )
जितात्मा - एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१ ) । जितारि - पूरुवंशी महाराज कुरुके पौत्र एवं अविक्षित् के पुत्र ( आदि ० ९४ । ५३ ) ।
जिष्णु - (१ ) अर्जुनका एक नाम ( वन० ४७ । १३ ) । जिष्णु नामसे अर्जुनके प्रसिद्ध होनेका कारण ( विराट० ४४ । २१ ) । ( २ ) भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम । ये सबको जीतने के कारण जिष्णु कहलाते हैं ( उद्योग ० ७०। १३) । (३) पाण्डवपक्षका एक चेदिदेशीय योद्धा, कर्णद्वारा इसका वध कर्ण ० ५६ । ४८ ) । जिष्णुकर्मा - पाण्डवपक्षका एक चेदिदेशीय योद्धा ( कर्ण ० ५६ । ४८ ) ।
जीमूत - ( १ ) एक मल्ल ( पहलवान ), जिसका विराटनगरमें भीमसेन के साथ मल्ल-युद्ध हुआ और जो उनके द्वारा मारा गया ( विराट० १३ । २४-३६ ) । (२) एक ब्रहार्षि, जिनके सामने हिमालयकी वह स्वर्णनिधि प्रकट हुई थी, जिसे जैमूत कहते हैं ( उद्योग० १११ । २३ ) ।
जीवजीवक-पक्षिविशेष ( शान्ति ० १३९ । ६ )। जीवल- अयोध्यानरेश ऋतुपर्णका सारथि इससे बाहुक नामवाले राजा नलका वार्तालाप ( वन० ६७ । ११ ) । जृम्भिका – जंभाई, जिसे देवताओंने वृत्रासुरके मुखसे इन्द्रको निकालने के लिये पैदा किया था ( उद्योग ०९ । ५३)।
जैगीषव्य - ब्रह्माजीकी सभा में रहकर उनकी उपासना करनेवाले एक महर्षि ( सभा० ११ । २४ ) । आदित्य तीर्थकी महिमाके प्रसंगमें इनके चरित्रका वर्णन ( शक्य ० ५० अध्याय ) । इनका असितदेवल मुनिको समत्वबुद्धिका उपदेश ( शान्ति० २२९ । ७ – २५ ) | शिवमहिमा के विषय में युधिष्ठिरसे इनका अपना अनुभव सुनाना ( अनु० १८ । ३७ ) । जैत्र - ( १ ) एक रथविशेष, जिसपर आरूढ़ हो राजा
ज्योति
हरिश्चन्द्रने सम्पूर्ण दिशाओंपर विजय पायी थी ( सभा० १२ । १२ ) । ( २ ) धृतराष्ट्रका एक पुत्र, भीमसेनद्वारा इसका वध ( शल्य० २६ । १४ ) । (३) धृष्टद्युम्नका शङ्ख ( शल्य० ६१ । ७१ के बाद दाक्षि णात्य पाठ ) ।
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जैमिनि - एक ब्रह्मर्षि, जो जनमेजयके सर्पयज्ञ में ब्रह्मा बनायें ये थे ( आदि० ५३ । ६ ) । ये महर्षि व्यासके शिष्य हैं ( आदि० ६७ । ८९ ) । ये युधिष्ठिरकी सभा में विराजमान होते थे ( सभा० ४ । ११ ) । शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखनेके लिये ये भी गये थे ( शान्ति० ४७।६ )।
ज्ञानपावनतीर्थ - एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ जानेसे मनुष्य
अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और मुनिलोकको जाता है ( वन० ८४ | ३ ) ।
ज्येष्ठ - ( १ ) सामवेद के पारंगत एक प्राचीन ऋषि, जिन्हें
पद नामक ऋषियोंसे सात्वत धर्मका उपदेश प्राप्त हुआ था ( शान्ति० ३४८ । ४६) । ( २ ) जेठका महीना ( अनु० १०९ । ९ ) । ज्येष्ठपुष्कर - एक तीर्थ, ( वन० २०० । ६६ अनु० १३० । ७)।
ज्येष्ठ साम - एक साम, जिसकी उपासनाका व्रत ज्येष्ठमुनिने लिया था ( शान्ति० ३४८ । ४६ ) । ज्येष्ठस्थान - एक तीर्थ, जहाँ महादेवजीका दर्शन-पूजन करनेसे मनुष्य चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है ( वन० ८५ । ६२ ) ।
ज्येष्ठा - एक नक्षत्र, जिसमें ब्राह्मणको सामयिक शाक और मूली दान करनेसे अभीष्ट समृद्धि एवं सद्गतिकी प्राप्ति होती है (अनु० ६४ । २३ ) । ज्येष्ठा नक्षत्र में इन्द्रियसंयमपूर्वक पिण्डदान करनेवाला मनुष्य समृद्धिशाली होता है तथा प्रभुत्व प्राप्त करता चन्द्रव्रतमें ज्येष्ठा नक्षत्रकी चन्द्रमाकी ग्रीवामें स्थिति मानकर उसके द्वारा चन्द्रमाके ग्रीवाभागका चिन्तन करनेका विधान है ( अनु० ११० । ७ ) ।
ज्येष्ठल- एक तीर्थ, जहाँ जाकर एक रात्रि रहनेसे मानव सहस्र गोदानका फल पाता है ( वन० ८४ । १३४ ) । ज्येष्ठला - एक नदी, जो वरुणकी सभार्मे उपस्थित होती है ( सभा० ९ । २१ ) ।
ज्योति - ( १ ) ' अह : ' नामक वसुके पुत्र ( आदि० ६६ । २३) । ( २ ) अग्निद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । दूसरेका नाम ज्वालाजिह था ( शल्य० ४५ । ३३ ) ।
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ज्योतिक
( १२८ )
तक्षक
ज्योतिक-कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न हुआ एक प्रमुख डिडिक-बिडालोपाख्यानमें आये हुए एक चूहेका नाम नाग (आदि० ३५। १३)।
(उद्योग० १६० । ३४)। ज्योतिरथा-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी डिम्भक-जरासंधका नीतिशास्त्रविशारद मन्त्री । हंसका पीते है (भीष्म० ९ । २६)।
भ्राता ( सभा० १९ । २६ )। किसी भी अस्त्र-शस्त्रसे ज्योतिरथ्या-एक नदी, जिसका शोणभद्रसे संगम हुआ है।
न मरनेका इसे देवताओंद्वारा वरदान ( सभा० इस संगममें स्नान करनेसे मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल
१४ । ३७ )। भगवान् श्रीकृष्णके साथ जरासंधके पाता है (वन० ८५ । ८)।
सत्रहवीं बारके युद्ध में एक हंस नामका राजा बलरामजीके
द्वारा मारा गया था। उसके मारे जानेपर जरासंधके ज्योतिष्क-(१) एक कश्यपवंशीय नाग ( उद्योग
सैनिक चिल्ला-चिल्लाकर हंस मारा गया' ऐसा कहने १०३ । १५)। (२) सुमेरु पर्वतका एक शिखर
लगे । उसे सुनकर इसे अपने भाईकी मृत्युका भ्रम (शान्ति० २८३ । ५)।
हुआ और वह उसके वियोगमें यमुनाजीमें कूदकर मर ज्योत्स्नाकाली-पोमकी दूसरी पुत्री, सूर्यकी भार्या, ये
गया (सभा० १४ । ३१-४२)। रूपमें साक्षात् लक्ष्मीके समान हैं ( उद्योग० ९८ ।
डुण्डुभ-एक सर्प, जिसका रुरुके साथ संवाद हुआ था । १३)।
ये शापग्रस्त सहस्रपाद ऋषि थे (आदि. ९ । २१ से ज्वर-रोगविशेष, भगवान् शङ्करके स्वेदसे इसकी उत्पत्तिका
आदि० १०। ७ तक ) । ब्राह्मण मित्रके शापसे इनके प्रकार ( शान्ति. २८३ । ३७-५५)।
सर्प होनेकी कथा ( आदि. ११ -९)। महर्षि ज्वाला-तक्षक नागकी पुत्री, जो महाराज ऋक्षकी पत्नी रुरुके दर्शनसे इनका सर्पयोनिसे मुक्त होना ( आदि.
और मतिनारकी माता थी (आदि०९५। २५)। ११।१२)। इनके द्वारा अहिंसा-धर्मकी श्रेष्ठताका ज्वालाजिह्व-(१) अग्निद्वारा स्कन्दको दिये गये दो रुरुके प्रति उपदेश (आदि० २१ । १३-१९)। पार्षदर्भिसे एक; दूसरेका नाम ज्योति था (शल्य.
तंसु-पूरुवंशी राजा मतिनारके पुत्र (आदि. ९४ । १४)। ४५ । ३३) । (२) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य.
इनके पुत्रका नाम ईलिन था ( आदि. ९४ । १६)। ४५। ६१)।
तक्षक-एक श्रेष्ठ नाग, जो कश्यपद्वारा कके गर्भसे उत्पन्न
हुआ ( आदि० ३५ । ५)। इसके द्वारा क्षपणकका झल्लि-एक वृष्णिवंशी यादव, जो द्वारकाके सात मुख्य
रूप धारण करके उत्तङ्क मुनिके कुण्डलोंका अपहरण मन्त्रियोंमेंसे एक है (सभा० १४ । ६० के बाद दाक्षि
(आदि. ३ । १२७ आश्व० ५८ । २५-२६)। णात्य पाठ)।
राजा परीक्षित्को डसनेके लिये जाते हुए इसकी मार्गमें झिल्लिक-एक दक्षिण भारतीय जनपद (भीष्मः ९।
काश्यप नामक ब्राह्मणसे भेंट और धन देकर इसका उन्हें ५९)।
लौटा देना (आदि० ४२ । ३६ से ४३ । २०; आदि० झिल्ली (अथवा झिल्ली पिण्डारक)-(१) एक वृष्णि- ५० । १८-२७ ) । तपस्वी नागोंद्वारा फल आदि
वंशी योद्धा, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था ( आदि० भेजकर उस फलके साथ ही इसका छलपूर्वक परीक्षित्के १८५। २०)। ये सुभद्राके लिये दहेज लेकर खाण्डव- पास पहुँचना और उन्हें हँस लेना ( आदि० ४३ । प्रस्थ आये थे (आदि० २२० । ३२) धृतराष्ट्रद्वारा २२-३६, आदि०५०।२९)। इसका इन्द्रकीशरणमें जाना इनके पराक्रमका वर्णन (द्रोण०११।२८)। (२) और इन्द्रद्वारा इसे आश्वासन प्राप्त होना (आदि० ५३ । (या झिल्लिका) झींगुर नामक एक कीड़ा (वन०
१४-१७)। आस्तीककी कृपासे जनमेजयके यज्ञमें इसकी ६४।१)।
रक्षा (आदि. ५८ । ३-७)। यह इन्द्रका मित्र था
और सपरिवार खाण्डववनमें रहता था; अतः इसीके टिट्टिभ-एक दैत्य या दानव, जो वरुणकी सभामें उपस्थित
लिये इन्द्र सदा खाण्डववनकी रक्षा करते थे। उनके
जल बरसा देनेके कारण अग्नि उस वनको जला नहीं होता है ( सभा० ५ । १५)।
पाती थी ( आदि० २२२ । ७) । खाण्डववनदाहके
अवसरपर इसका कुरुक्षेत्रमें निवास और अर्जुनद्वारा डम्बर-धातादारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदो से एक । इसकी पत्नीका वध (भादि० २२६ । ४-८)। यह दूसरेका नाम आडम्बर था (शल्य० ४५। ३९)। वरुणकी सभाका सदस्य है (सभा०९।८)। नागों
(
ट
)
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तक्षशिला
द्वारा पृथ्वी दोहन के समय यह बछड़ा बना था ( द्रोण० ६९ । २२ ) । बलरामजी के शेषरूपसे अपने लोकमें पधारते समय यह प्रभासक्षेत्र के समुद्र में उनके स्वागतके लिये आया था ( मौसल ० ४ । १५ ) | तक्षशिला - एक नगरी, जिसे जनमेजयने जीता था ( और जहाँ सर्पसत्रका अनुष्ठान एवं महाभारत कथा का श्रवण किया था ) ( आदि० ३ । २० ) । सर्पसत्र और महाभारत कथाकी समाप्ति होनेपर ब्राह्मणों को दक्षिणा दे विदा करके जनमेजय तक्षशिलासे हस्तिनापुरको चले आये ( स्वर्गा० ५ । ३१-३५ ) ।
( १२९ )
तङ्गण - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६४ ) । तडित्प्रभा - स्कन्द की अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । १७ )।
तण्ड - वानप्रस्थ-धर्मका पालन करनेवाले एक ब्रह्मर्षि
( शान्ति० २४४ । १७ ) । इन्होंने ब्रह्माजी के समक्ष शिव सहस्रनाम सुनाया था ( अनु० १४ । १९ ) । इनके द्वारा शिवजीकी स्तुति (अनु० १६ । १२ - ६५) । तनय - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६४ ) । तनु - एक प्राचीन महर्षि, जिन्होंने राजा वीरद्युम्नको उनके पुत्रके विषय में कुछ बताया था ( शान्ति० १२७ । १८ - २२ ) । राजा वीरद्युम्नको उपदेश ( शान्ति ० १२८ । ९-२३ ) !
तन्तिपाल - विराटनगर में रहते समय सहदेवका नाम ( विराट० ३ ।९ ) ।
तन्तु - विश्वामित्रका एक ब्रह्मवादी पुत्र (अनु० ४ । ५५) । तन्दुलिकाश्रम - एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ जानेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और ब्रह्मलोक में जाता है ( वन० ८२ । ४३ ) ।
तप - काश्यप, वासिष्ठ, प्राणकः च्यवन तथा त्रिवर्चा इन पाँच मुनियोंकी तपस्यासे प्रकट हुआ एक तेजस्वी पुत्र, जो पाँच रंगोंसे युक्त होनेके कारण पाञ्चजन्य नामसे विख्यात हुआ । यह पूर्वोक्त पाँचों ऋषियोंके वंशका प्रवर्तक हुआ । ये पाञ्चजन्य नामक अग्नि ही घोर तपस्याके कारण तप कहलाये । फिर इन्होंने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये ( वन० २२० अध्याय ) ।
तपती - भगवान् सूर्यकी कन्या और संवरणकी पत्नी । इनके गर्भसे अजमीढवंशी संवरणके द्वारा कुरुकी उत्पत्ति हुई ( आदि० ९४ । ४८ ) । सूर्यकन्या तपती सावित्रीदेवीकी छोटी बहिन थी। तपस्या में संलग्न रहनेके कारण यह तीनों लोकोंमें तपती नामसे विख्यात हुई ( आदि० ६-७ ) । इसके अनुपम सौन्दर्यका वर्णन म० ना० १७
१७०
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ताण्ड्य
( आदि० १७० । ८-१० ) । इसका विवाह किसके साथ किया जाय' - पिता की यह चिन्ता (आदि०१७०।११) । सूर्यदेवका संवरण के साथ तपतीके विवाहका विचार ( आदि० १७० | १५-२० ) । संवरणको तपतीका प्रथम दर्शन और इसके अप्रतिम सौन्दर्य से उनका मोहित होना ( आदि० १७० । २३-२४ । राजाका तपतीसे कुछ प्रश्न करना और तपतीका उन्हें उत्तर दिये बिना ही अदृश्य हो जाना ( आदि० १७० । ३५ - ४२ ) । राजाको मूर्छित पड़ा देख तपतीका पुनः उन्हें दर्शन और आश्वासन देना । राजाकी इससे प्रणययाचना तथा तपतीका अपनेको पिताकी वशवर्तिनी बताकर उन्हींसे अपना वरण करनेका संवरणको परामर्श देना ( आदि० १७१ अध्याय ) । वशिष्ठजीका संवरणके लिये सूर्यसे तपतीको माँगना । सूर्यका अपनी कन्याको उनके लिये दे देना और तपतीका वशिष्ठजीके साथ संवरणके पास आना ( आदि० १७२ । २२ - ३० ) । एक पर्वत शिखर पर संवरणद्वारा तपतीका विधिवत् पाणिग्रहण किया जाना (आदि०१७२ । ३३) । संवरण और तपतीका बारह वर्षोंतक विहार और पीके गर्भ से कुरुका जन्म ( आदि० १७२ । ३४-५० ) ।
तपन - एक पाञ्चाल योद्धा, जिसका कर्णद्वारा वध हुआ ( कर्ण० ४८ । १५ ) ।
तम गृत्समदवंशी श्रवाके पुत्र ( अनु० ३० । ६३)। तमसा- एक श्रेष्ठ नदी, जिसका जल भारतवर्षके लोग पीते हैं ( भीष्म ०९ । ३१ ) ।
तमोऽन्तकृत् - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ५८ ) ।
तरन्तुक - कुरुक्षेत्रको सीमाका निर्धारण करनेवाले तरन्तुक
नामक एक यक्ष और उनका स्थान । वहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है ( वन० ८३ । १५-१६ शल्य० ५३ । २४ ) ।
तरल - एक भारतीय जनपद, जिसे कर्णने जीता था ( कर्ण० ८ । २० ) ।
तरुणक- धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो सर्पसत्रकी अग्निमें जलकर भस्म हो गया था ( आदि० ५७ । १९ ) ।
ताडकायन - विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु० ४ । ५६ )।
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ताण्ड्य - एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभा में विराजते हैं ( सभा० ७ । १२ ) । इनके द्वारा वानप्रस्थ - धर्मका पालन हुआ था; जिससे ये स्वर्गको प्राप्त हुए (शान्ति०
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तापत्य
( १३० )
तित्तिर
२४४ । १७)। ये उपरिचर वसुके यशमें सदस्य थे १८-२०)। सुग्रीवसे युद्ध के लिये उद्यत हुए पतिको (शान्ति. ३३६ । ७)।
इसका समझाना ( वन० २८० । २१-२४)। सुग्रीवको तापत्य-तपती और संवरणसे उत्पन्न हुए राजा कुरुके पति बनाना (वन० २८० । ३९)। (२) बृहस्पतिकी
वंशमें जन्म ग्रहण करनेवाले सभी कौरव तापत्य' कहलाते पत्नी (उद्योग. ११७ । १३)। हैं। इसी अभिप्रायसे चित्ररथ गन्धर्वने अर्जुनको तापत्य ताराक्ष (या तारकाक्ष)-तारका एक पुत्र, जो त्रिपुरोमें कहा था (आदि. १६९ । ७९)। अर्जुनके पूछनेपर
सुवर्णमय पुरका अधिपति था (कर्ण० ३३१५, कर्ण०१५ । उसने तापत्य नामके समर्थनमें तपती और संवरणके
२१)। भगवान् शिवद्वारा इसका वध (कर्ण०३४ । मिलनेका प्रसंग सुनाया था ( आदि० १७० अध्यायसे
११४)। १७२ अध्यायतक)।
तार्क्ष्य-(१) कश्यपपत्नो विनताका एक पुत्र ( आदि. तापसारण्य-तपस्वी जनोंसे सुशोभित एक तीर्थ या बन
६५ । ४०)। (२) एक ऋषि, जो इन्द्रकी सभामें (वन०८७ । २०)।
विराजमान होते हैं ( सभा० ।।१८)। ये तार्थ्य ताम्रचूडा स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य. ४६ ।। अरिष्टनेमि कहे गये हैं। उन्होंने क्षत्रियोंको यह बताया १८)।
था कि हमें मृत्युका भय नहीं होता (वन० १८४ । ताम्रद्वीप-एक दक्षिण भारतीय जनपद, जिसे सहदेवने ८-२१)। इनका सरस्वती देवीके साथ धर्मविषयक
जीतकर अपने अधीन किया था (सभा० ३१ । ६८)। संवाद हुआ था ( वन. १८६ अध्याय )। ताम्रपर्णी-पाण्ड्य देश (दक्षिण भारत ) की एक पवित्र (३) तायदेशीय एक क्षत्रिय राजकुमार, जो राजसूयनदी, जहाँ मोक्ष पाने के उद्देश्यसे देवताओंने आश्रममें के समय युधिष्ठिरको भेटके तौरपर बहुत धन अर्पित कर
रहकर बड़ी भारी तपस्या की थी (वन०८८ । १४)। रहे थे (समा० ५२ । १५) । (४) भगवान् शिव ताम्रलिप्त-एक प्राचीन राजा, जिसे सहदेवने पूर्व-दिग्विजयके
का एक नाम (अनु० १७ । ९८)। समय परास्त किया था ( सभा० ३० । २४)। तालकेतु-एक असुर, जो भगवान् श्रीकृष्णद्वारा महेन्द्रताम्रलिप्तक-एक पूर्वोत्तर भारतीय जनपद (भीष्म० । पर्वतके शिखरपर इरावती के किनारे पकड़ा गया और
अक्षप्रपतनके समीपवर्ती हंसनेमिपथ नामक स्थानमें मारा ताम्रवती-अग्नियोंकी उत्पत्तिकी स्थानभूता एक नदी
गया ( सभा०३८ । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२४ वन (वन० २२२ । २३)।
१२ । ३४)। ताम्रा-(१) काकी श्येनी, भासी, धृतराष्ट्री तथा शकी- तालचर-भारतवर्षका एक जनपद ( उद्योग. ११०। इन पाँच कन्याओंकी जननी ताम्रादेवी ( आदि० ६६ । '
तालजङ्क-(१) एक प्रसिद्ध क्षत्रिय कुल, जिसे राजा सगरने लोग पीते हैं (भीष्म. १।२८)।
जीता था (वन० १०६ । ८)। यह वंश शर्यातिवंशी
वत्सकुमार सुप्रसिद्ध राजा तालजङ्घसे प्रचलित हुआ था ताम्रारुणतीर्थ-एक तीर्थ, यहाँकी यात्रा करनेसे मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता और ब्रह्मलोकमें जाता है
( अनु० ३० । ७)। एक महान् असुर, जो ब्राह्मणोंका
सम्मान न करनेके कारण ब्रह्मादण्डसे ही मारा गया (वन० ८४ । १५४)।
(वन० ३०३ । १७; अनु. ३०। ७)। ताम्रोष्ठ-कुबेरकी सभामें रहकर उनकी सेवामें रहनेवाला
तालवन-(१) एक दक्षिण भारतीय जनपद, जिसे एक यक्ष (सभा० १०।१६)।
सहदेवने जीतकर उसे राजा युधिष्ठिरके लिये कर देनेको तार-श्रीरामकी सेनाका एक वानर योद्धा, जिसने निखर्वट
विवश कर दिया (सभा० ३३ । ७१) । (२) नामक राक्षसके साथ युद्ध किया (वन० २८५ । ९)। द्वारकाके समीपवर्ती लतावेष्ट पर्वतके चारों ओर सुशोभित तारकासुर-एक राक्षस, जो ताराश, कमलाक्ष और होनेवाले तीन वनों से एक ( सभा०३८ । दाक्षिणात्य विद्युन्मालीका पिता था ( कर्ण० ३३ । ५)। स्कन्द- पाठ, पृष्ट ८१३)। द्वारा इसका वध ( शल्य० ४६ । ७३) । इसके महान् तालाकट-एक दक्षिण भारतीय जनपद, जिसे सहदेवने पराक्रमका वर्णन (अनु० ८४ । ७९-८१)।
जीता था (समा० ३१ । ६५)। तारा-(१) वानरराज बालीकी भार्या (बन० २८.। तित्तिर-(१)हक प्रकारका पक्षी; जो मरे हुए त्रिशिराके
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तित्तिरि
( १३१ )
तुषार
भयानक मुखसे उत्पन्न हुए थे ( उद्योग० ९ । ४१)। युद्ध किया था (वन० २८५ । ९)। (२) एक
(२) एक भारतीय जनपद (भीष्म० ५० ।५.)। राजा, जिन्हें पाण्डवोकी ओरसे रण-निमन्त्रण भेजा गया तित्तिरि-(१) कश्यप और कद्रसे उत्पन्न एक प्रमुख नाग था ( उद्योग० ४ । २१)।
(आदि. ३५ । १५)। (२) युधिष्ठिरकी सभा तुण्डिकेर-एक भारतीय जनपद (द्रोण. १७ । २०)। विराजनेवाले एक ऋषि (सभा०४।१२)। (३)
तुम्बुरु-(१) एक देवगन्धर्व, जो कश्यप और प्राधा अश्वोंकी एक जाति, जो तीतरोंकी भाँति चितकबरी होती
पुत्र थे ( आदि० ६५ । ५१ ) । अर्जुनके जन्मोत्सवपर है (यह अश्व अर्जुनने दिग्विजयके समय गन्धर्व
इनका संगीत हुआ था (आदि. १२२ । ५४) । ये नगरसे प्राप्त किया था ।) (सभा० २८ । ६)।
इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं (सभा० ७।१४)। तिमि-एक जलजन्तु, जो समुद्र में ही होता है ( सभा० कुबेरकी सभाके भी प्रधान गन्धर्व हैं (सभा०१०। ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)।
२६)। इन्होंने युधिष्ठिरको सौ घोड़े भेंट किये थे तिमिशिल एक राजा, जिन्हें दक्षिण-दिग्विजयके समय (सभा० ५२ । २४)। इन्द्रलोकमें अर्जुनके स्वागत के
सहदेवने अपने अधीन किया था (सभा० ३१ । ६९)। समय ये भी थे (वन० ४३ । १४)। पर्वसंधिके समय तिलभार-एक पूर्वोत्तरवर्ती भारतीय जनपद (भीष्म०
गन्धमादन पर्वतपर कुबेरकी सेवामें उपस्थित हुए. तुम्बुरुके ९। ५३)।
सामगानका स्वर स्पष्ट सुनायी पड़ता है (वन. १५९ ।
२९)। गोग्रहणके अवसरपर कौरवोंके साथ अर्जुनका तिलोत्तमा-एक अप्सरा, जो कश्यपकी प्राधा' नामवाली
युद्ध देखनेके लिये ये स्वयं भी आये थे (विराट० ५६ । पत्नीसे उत्पन्न हुई थी (आदि०६५।४९)। अर्जुनके
१२)। युधिष्ठिरके अश्वमेधमें भी ये पधारे थे (आश्व० जन्म-समयमें पदार्पण करके इसने वहाँ नृत्य किया था
८८। ३९)। (२) एक प्राचीन ऋषि, जो शरशय्या(आदि. १२२ । ६२)। ब्रह्माके आदेशसे विश्वकर्मा
पर पड़े हुए भीष्मजीको देखने गये थे (शान्ति० ४७ । द्वारा तीनों लोकोंके दर्शनीय पदार्थोंके सारतत्त्व तथा रत्नराशिसे इसका निर्माण ( आदि. २१० । ११-१४)। इसका तिलोत्तमा नाम होनेका कारण ( आदि. २१०। तुर्वसु-ययातिके द्वारा देवयानीके गर्भसे उत्पन्न ( आदि १८)। इसके रूपसे मोहित होकर भगवान् शिवका
७५ । ३५; आदि. ८३ । ९)। ययातिकी तुर्वसुसे चतुमुंख और इन्द्रका सहस्रनेत्र होना (आदि० २१० ।
युवावस्थाकी याचना ( आदि. ८४ । १०-११)। २८)। इसको अपनी पत्नी बनानेके लिये ही मन्द और उप- तुर्वसुका उन्हें अपनी युवावस्था देनेसे इनकार करना(आदि. सुन्दका परस्पर गदायुद्ध करके एक-दूसरेके हाथसे मारा
७५ । ४३, आदि० ८४ । १२)। ययातिका तुर्वसुको जाना (आदि० २११ । १९)। इसको ब्रह्माद्वारा
शाप-तेरी संतति नष्ट हो जायगी; जिनके आचार और त्रिभुवनमें अव्याहत गतिका वरदान (आदि० २११ ।
धर्म वर्णसंकरोंके समान हैं, जो प्रतिलोमसंकर जातियोंमें २३)। इसके नाम की निक्ति ( अनु. १४१।१)।
गिने जाते हैं तथा जो कच्चा मांस खानेवाले चाण्डाल
आदिकी श्रेणी में हैं, ऐसे लोगोंका तू राजा होगा, पशुवत् तीरग्रह-एक पूर्वोत्तरवर्ती भारतीय जनपद ( भीष्म ९ ।
आचरण करनेवाले पापात्मा म्लेच्छोंमें तेरा वास होगा'
(आदि०८४ । १३-१५)। तीर्थकोटि-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेवाले यात्रीको पुण्डरीक-यज्ञका फल मिलता है और वह विष्णुलोकको जाता है तुलाधार
सो तुलाधार-एक काशीनिवासी धर्मात्मा वैश्य (शान्ति. (वन० ८४ । १२१)।
२६१ । ४२-४३)। इनका अपने पास आये हुए जाजलि तीर्थनेमि-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ७)।
मुनिका सत्कार करके उनके आगमनका कारण स्वयं ही
बताना (शान्ति. २६१ । ४६-५१) । जाजलिको तीर्थयात्रापर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ८०
धर्मका उपदेश देना (शान्ति. २६२ । ५-५५)। से १५६ तक)।
इनके द्वारा जाजलिको आत्मयज्ञविषयक धर्मका उपदेश तुङ्गकारण्य-एक तीर्थ, जहाँ सारस्वत मुनिने दूसरे ऋषियों
(शान्ति० २६३ । ४-४३)। इन्हें जाजलिके साथ को वेदाध्ययन कराया था (वन० ८५। ४६)। स्वर्गकी प्राति (शान्ति. २६४ । २०-२१)। तहवेणा-एक श्रेष्ठ नदी, जिसका जल भारतके लोग पीते हैं तबार-(१) एक उदीच्य जनपद (कुछ लोगोंके मतमें (भीष्म०९।२७)।
आधुनिक तुखारिस्तान-आक्सस नदीके आस-पासका तुण्ड-(१) एक राक्षस, जिसने बानर सेनापति नलके साथ प्रदेश ही तुषार है)। यहाँके नरेश युधिष्ठिरके राजसूय
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तुहर
( १३२ )
त्रिगर्त
यज्ञमें बुलाये गये थे और आकर रसोई परोसनेका कार्य निर्माण हुआ था । इसमें सुवर्ण तथा वैदूर्यसे जटित एक करते थे ( बन० ५१ । २५-२६ ) । गन्धमादनसे हजार खम्भे और सौ दरवाजे थे । इसकी लंबाई तथा द्वैतवनकी ओर लौटे हुए पाण्डव तुषार देशको पार करके चौड़ाई दो-दो मीलकी थी।) (सभा० ५६ । १८)। राजा सुबाहके नगर में पहुँचे थे (वन. १७७ । १२)। त्रसदस्य-एक राजर्षि, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र (२) तुषार जनपदके निवासी, जो भीष्मनिर्मित यमकी उपासना करते हैं ( सभा०८।९)। ये क्रौञ्चव्यूहके दाहिने पक्षका आश्रय लेकर स्थित हुए थे भूपालोंमें श्रेष्ठ, इक्ष्वाकुवंशीय और महामनस्वी थे, उनके (भीष्म ७५ । २१)। तुषारवासो म्लेच्छ मान्धाताके पिताका नाम पुरुकुत्स था, इनके यहाँ अगस्त्य मुनि,
राज्यमें निवास करते थे (शान्ति. ६५ । १३)। श्रुता और ब्रनश्वका आगमन और इनका राज्यकी तुहर-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७१ )। सीमापर जाकर उन सबका विधिवत् आदर-सत्कार करना
और उनके पधारनेका कारण पूछना (वन. ९८ । तुहुण्ड-एक दानव, जो कश्यपके द्वारा दनुके गर्भसे
१२-१४)। इनका अगस्त्यजीके धन माँगनेपर उनके उत्पन्न हुआ था ( आदि०६५ । २५) । यही भूतलपर
सामने अपने आय-व्ययका लेखा रखना (वन०९८१६)। सेनाबिन्दु नामक राजा हुआ था (आदि० ६७ ।
ये प्रातःसायं स्मरण करने योग्य नरेशोंमेंसे एक हैं १९-२०)।
(अनु० १६५। ५५)। तृणक-एक राजर्षि, जो यमसभामें उपस्थित हो वहाँ सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा०८।१७)।
त्रिककुब्धाम-भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु०
१४९ । २०)। तृणप-एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्म-समयमें वहाँ पधारे थे (आदि. १२२ । ५६)।
त्रिकूट-लङ्काके पासका एक पर्वत (वन० २७७ । ५४)। तृणबिन्दु-(१) काम्यकवनका एक सरोवर, जिसके पास
त्रिगङ्क-एक तीर्थ, जहाँ देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेसे पाण्डवलोग द्वैतवनसे गये थे (वन० २५८ । १३)।
। मनुष्य पुण्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है (वन०८४ । (२) काम्यकवनमें रहनेवाले एक ऋषि, जिनकी २९) । आशासे पाण्डवोंने द्रौपदीको आश्रममें छोड़कर शिकारके त्रिगर्त-(१) एक जनपद ( भीष्म० ५१।७) । वहाँके लिये प्रस्थान किया था (वन० २६४ । ५)। ये शर
निवासी और राजा। एकचक्रानगरीकी ओर जाते हुए शय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये कुरुक्षेत्रमें गये
पाण्डवलोग इस देशसे होकर निकले थे (आदि. १५५ । थे (शान्ति० ४७ । ५)।
२)। अर्जुनने उत्तर दिग्विजयके समय इस देशको तृणसोमाङ्गिरा-दक्षिण दिशाका आश्रय लेकर रहनेवाले
जीता था। यहाँके नरेश कुन्तीनन्दन अर्जुनकी शरणमें एक ऋषि (अनु० १५० । ३४)।
आये थे (सभा० २७ । १८)। नकुलने भी अपनी
दिग्विजययात्रामें इस देशको जीता था ( सभा० तृतीया-एक नदो, जो वरुणसभामें उपस्थित रहकर वरुण
३२।७)। ये लोग युधिष्ठिरके लिये भेंट लाये थे देवकी उपासना करती है (सभा०९।२१)।
(सभा० ५२ । १४)। एक त्रिगत देशीय वीरने तेजस्वी-पाँच इन्द्रोंमेंसे एक नाम (आदि०१९६।२८.२९)। राजा युधिष्ठिरके रथके घोड़ोंको मार डाला, फिर युधिष्ठिरतेजेयु-पूरुपुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे
द्वारा वह स्वयं भी मारा गया (वन० २७१ । १२उत्पन्न ( आदि० ९४ । ११)।
१४) । हाथीसहित त्रिगर्तराज सुरथ नकुलद्वारा
मारा गया (वन० २७१ । १८-२२)। अर्जुनने तैजस-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक वरुण देवतासम्बन्धी तीर्थ,
त्रिगतॊका संहार किया (वन० २७१ । २८)। त्रिगर्तजहाँ स्कन्दका देवसेनापतिके पदपर अभिषेक हुआ था
देशीय योद्धाओं तथा त्रिगर्तराज सुशर्माद्वारा विराटके (वन० ८३। १६४)।
राज्यपर आक्रमण और उनकी गौओंका अपहरण (विराट तैत्तिरि-राजा उपरिचर वसुके यज्ञमें सम्मिलित हुए
३० अध्याय) । त्रिगतोंके साथ मत्स्यदेशीय वीरोंका सोलह सदस्यों में से एक (शान्ति० ३३६ । ९)।
युद्ध ( विराट ० ३२ अध्याय)। त्रिगर्तराज सुशर्माका तोमर-एक पूर्वोत्तरवर्ती भारतीय जनपद ( भीष्म० ९। विराटको पकड़कर ले जाना, भीमद्वारा सुशर्माका निग्रह ६९)।
और युधिष्ठिरका अनुग्रह करके उसे छोड़ देना (विराट. तोरणस्फाटिक-धृतराष्ट्रके बनवाये हुए सभाभवनका नाम ३३ अध्याय)। पाँच त्रिगतोंके साथ युद्ध करनेका (घतक्रीडाके समय धृतराष्ट्रकी आज्ञासे इस सभाका काम पाँचों द्रौपदी-पुत्रोंको सौंपा गया (उद्योग. १६४ ।
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त्रिजटा
( १३३ )
त्रिस्थान
८)। त्रिगर्तराज पाँच भाई थे और पाँचों उदार रथी त्रिपुर-मयासुरद्वारा निर्मित असुरोंके तीन पुर या नगर, थे, इनमें प्रधान सल्यरथ था ( उद्योग० १६६ । ९- जो सोने, चाँदी और लोहेके बने हुए थे। इनके स्वामी ११)। ये भीष्मनिर्मित गरुड़व्यूहमें मस्तकस्थानपर क्रमशः कमलाक्ष, ताराक्ष और विद्युन्माली थे । भगवान् खड़े किये गये थे (भीष्म० ५६ अध्याय)। अर्जुन और शंकरने इन तीनों पुरों और वहाँ रहनेवाले असुरोंका अभिमन्युपर त्रिगाने धावा किया था (भीष्म० ६१ नाश किया था (कर्ण०३३ अध्यायसे ३४ अध्यायतक)। अध्याय)। नकुल के साथ इनका युद्ध (भीष्म० ७२ त्रिपरा-एक भारतीय जनपद, जिसे कर्णने जीता था अध्याय)। अर्जुनने इनपर वायव्यास्त्र छोड़ा था (भीष्म
(वन० २५४ अध्याय)। कोसलनरेश बृहद्दल त्रिपुराके १०२ अध्याय)। पहले कर्णने इनको परास्त किया था सैनिकोंके साथ थे (भीष्म० ८७।९)। (द्रोण. ४ अध्याय; कर्ण० ८ अध्याय)। श्रीकृष्णने भी
त्रिपुरी-एक दक्षिण भारतीय जनपद, जिसके राजाको सहइनपर विजय पायी थी (द्रोण० ११ अध्याय)। सत्य
देवने दिग्विजयके समय जीता था ( सभा०३१ । ६०)। रथ आदि पाँचों भाइयोंने यह प्रतिज्ञा की थी कि या तो । अर्जुन को मारेंगे या मर जायँगे' इसीलिये ये संशतक कहलाये ।
र त्रिराव-गरुड़के प्रमुख संतानों मेंसे एक ( उद्योग (द्रोण० १७ अध्यायः द्रोण० १९ अध्याय)। परशुरामजीने
१०१। ११)। भी कभी त्रिगतॊका संहार किया था (द्रोण०७० अध्याय)। त्रिवर्चा (त्रिवर्चक)-अङ्गिराके पुत्र एक ऋषि, जिन्होंने सात्यकिके साथ त्रिगोंका युद्ध (द्रोण. १४१ अध्याय)। अन्य चार ऋषियोंके साथ ता करके पाञ्चजन्य नामक युधिष्ठिरके द्वारा त्रिगोंका वध (द्रोण. १५७ अध्याय)। अग्निस्वरूप पुत्रको जन्म दिया था (वन० २२० । त्रिगाने अर्जुन और श्रीकृष्णपर धावा किया (शल्य० २७१-५)। अध्याय)। अश्वमेधयशके अश्वकी रक्षाके लिये गये हुए त्रिविष्टप-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ पापनाशिनी अर्जुनद्वारा इन सबकी पराजय (आश्व०७४ अध्याय)। वैतरणीमें स्नान करके भगवान् शिवको पूजा करनेसे (२) त्रिगर्त-नामधारी एक राजा, जो यमकी सभामें मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो परम गतिको प्रात होता है विराजते हैं (सभा० ८।२०)।
(वन० ८३ । ८४-८५ )। त्रिजटा-एक राक्षसी, जो अशोकवाटिकामें सीताजीको आश्वा-त्रिशक-एक राजा, जिन्हें गरुके शापसे हीनावस्था में पड़े
सन दिया करती थी । इसने अविन्ध्यका संदेश और अपना होनेपर भी महातपस्वी विश्वामित्रने स्वर्गलोकमें पहुँचाया था स्वप्न सीताजीको सुनाया था (वन० २८० । ५४--
( आदि० ७१ । ३४ और उसके बाद दो श्लोक दा. ७२)। श्रीरामका त्रिजटाको धन आदि देकर संतुष्ट
पाठ)। ये इक्ष्वाकु-कुलमें उत्पन्न हुए थे, अयोध्याके करना (वन० २९१ । ४१)।
राजा थे और विश्वामित्रसे मेलजोल रखते थे। इनकी त्रित-धर्मपरायण प्रजापति गौतमके तीन पुत्रों से एक, उनके पत्नी केकय-राजकुमारी सत्यवती थी, इन्हीं के पुत्र
दूसरे दो भाई एकत और द्वित थे। तीनों ही मुनि और। सत्यप्रतिज्ञ हरिश्चन्द्र थे (सभा० १२। 10 के बाद दा० ब्रह्मवादी थे। इन सबने तपस्याद्वारा ब्रह्मलोकपर विजय पाठ )। पायी थी (शल्य० ३६ । ७-९)। त्रित मुनिके कूपमें त्रिशिरा-ये त्वष्टाके पुत्र थे। इनका दूसरा नाम विश्वरूप गिरने, वहाँ यज्ञ करने और अपने भाइयोंको शाप देने- या ( उद्योग. १।३)। इनका अपराओंके लुभानेपर की कथा (शल्य० ३६ अध्याय)। ये उपरिचरवसुके भी शान्त रहना (उद्योग० ९ । १५-१६) । इन्द्रके यज्ञमें सदस्य थे (शान्ति० ३३६ । ६) भीष्मजीके
वन-प्रहारसे इनकी मृत्यु ( उद्योग. ९ । २४)। महाप्रयाणके समय उन्हें देखने आये हुए महर्षियोंमें
त्रिशूलखात-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके देवता और पितरोंकी ये भी थे (अनु० २६ । ६)। वरुणके सात ऋत्विजों
पूजा करनेसे मनुष्य देह त्यागके पश्चात् गणपतिपद प्राप्त मेंसे एक ये भी हैं। ये पश्चिमदिशामें निवास करनेवाले
कर लेता है (वन० ८४ । 11-१२)। ऋषि हैं (अनु० १५० । ३६-३७)।
त्रिषवण-एक दिव्य महर्षि, जिन्होंने शान्तिदूत बनकर त्रिदिवा-(१) एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवर्षको त्रिषवण-एक दिव्य । प्रजा पीती है (भीष्म० ९ । १७) । (२)एक प्रमुख
हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णसे मार्गमें भेंट की थी नदी, जिसका जल भारतवर्षकी प्रजा पीती है (भीष्म
(उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दा. पाठ)। ९।१८)।
त्रिस्थान-एक तीर्थ, जहाँ एक मासतक निराहार रहकर त्रिपाद-एक राक्षस, जिसका स्कन्दद्वारा वध हुआ (शल्य. स्नान करनेसे देवताओंका दर्शन होता है (अनु० २५।
४६ । ७५)।
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त्रिस्रोतसी
( १३४ )
दक्ष
त्रिस्रोतसी-एक नदी, जो वरुण-सभामें उपस्थित रहकर दक्ष-(१) ब्रह्माजीके दाहिने अँगूठेसे उत्पन्न एक महर्षि,
वरुणदेवकी उपासना करती है (सभा०९ । २३)। जो महातपस्वी एवं प्रजापति थे । इनकी पत्नी ब्रह्माजीके श्रुटि-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । १७)। बाँयें अँगूठेसे उत्पन्न हुई थी। उनके गर्भसे दक्षने त्रेता-कृतयुग या सत्ययुगके बाद द्वितीय युग । हनुमानजी
पचास कन्याएँ उत्पन्न की थीं ( आदि० ६६ । द्वारा इसके धर्मका वर्णन-त्रेतामें यज्ञकर्मका आरम्भ
१०.११)। ये ही कल्पान्तरमें दस प्रचेताओंद्वारा होता है, धर्मके एक पादका हास हो जाता है और
मारिपाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे; अतः प्राचेतस दक्ष भगवान् विष्णुका वर्ण लाल हो जाता है ( वन०
कहलाते हैं । इनसे समस्त प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं, इसीसे १४९ । २३-२६ )। मार्कण्डेयजीद्वारा त्रेताका वर्णन ।
ये सम्पूर्ण लोकके पितामह हैं (आदि. ७५। ५)। त्रेतायुग तीन हजार दिव्य वर्षोंका है, इसकी संध्या
इनके समान ही गुणशीलवाले इनके एकहजार पुत्र उत्पन्न और संध्यांशके भी उतने ही सौ दिव्य वर्ष होते हैं।
हुए। उन्हें नारदजीने मोक्षशास्त्र एवं सांख्यशानका
उपदेश दे दिया, जिससे वे विरक्त होकर घरसे निकल गये। इस प्रकार यह युग छत्तीस सौ दिव्य वर्षोंका होता है (वन० १८८ । २३)।
तब इन्होंने पुत्रिकाधर्मके अनुसार दौहित्रोंको अपना त्रैवलि-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते
पुत्र माननेका संकल्प लेकर पचास कन्याएँ उत्पन्न की
( आदि०७५। ६-८)। इन्होंने इनमेंसे दस कन्याएँ थे (सभा० ४ । १३)।
धर्मको, तेरह कश्यपको और कालका संचालन करने में ध्यक्ष-एक जनपद, जहाँके राजा युधिष्ठिरके पास भेंट लेकर ।
नियुक्त नक्षत्रस्वरूपा सत्ताईम कन्याएँ चन्द्रमाको ब्याह आये थे। द्वारपर रोक दिये जाने के कारण खड़े थे ( सभा.
दी (आदि० ७५ । ८)। ये अर्जुनके जन्मकालमें ५१ । १७)।
कुन्तीदेवीके स्थानपर गये थे (आदि० १२२॥ ५२)। त्र्यम्बक-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक (शान्ति० २०८ । १९)। ये भगवान् ब्रह्माकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते त्वष्टा-बारह आदित्योंमेंसे एक । कश्यपके द्वारा अदितिके हैं (सभा० ११ । १८)। इन्होंने सरस्वतीके तटपर
गर्भसे उत्पन्न ( आदि० ६५ । १६) । खाण्डववनके यज्ञ किया और उस स्थानके लिये एक वर दिया कि दाहके समय इन्द्रकी ओरसे युद्धके लिये इनका आगमन यहाँ मरनेवालेको स्वर्ग प्राप्त होगा। वही विनशन तीर्थ
और अस्त्रके रूपमें पर्वतको उठाना (आदि० २२६ । है (बन० १३० । २)। ये ब्रह्माजीके मानसपुत्रोंमें ३४)। ये इन्द्र की सभामें विराजमान होते हैं (सभा० सातवें हैं और भेरुपर्वतपर रहते हैं (वन० १६३ । ७ । १४) । इनकी पुत्री कशेरुका नरकासुरद्वारा
१४)। इन्होंने सत्ताईस कन्याएँ सोमको ब्याह दी अपहरण (सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ
थीं, इनके पति चन्द्रमा केवल रोहिणी' को ही प्यार करते ८०४-८०५)। प्रजापति त्वष्टा (विश्वकर्मा ) के द्वारा थे अतः अन्य पत्रियोंने पिता दक्षके पास जाकर इस बातकी वज्रका निर्माण (वन० १००।२४) । नल नामक शिकायत की, तब दक्षने चन्द्रमासे कहा-सोम ! तुम वानर इनका पुत्र था ( बन० २८३ । ४१)। इन्द्र अपनी सभी पत्नियोंके प्रति समानतापूर्ण बर्ताव करो; द्वारा अपने पुत्र त्रिशिराके मारे जानेसे इनका इन्द्रपर जिससे तुम्हें महान् पाप न लगे ।' इसके बाद इन्होंने सब कुपित होना और वृत्रासुरको प्रकट करना (उद्योग० कन्याओंको समझाकर चन्द्रमाके यहाँ भेजा; परंतु सोमने ९४८) । त्वष्टाने अपनी तपस्यासे संतुष्ट हुए शिवजीकी __दक्षकी बात नहीं मानी । अपनी पुत्रियोंके मुखसे फिर कृपासे वृत्रासुर नामक पुत्र उत्पन्न किया (द्रोण. सोमकी शिकायत सुनकर इन्होंने उन्हें शाप देनेकी ९४ । ५४)। इनके द्वारा स्कन्दको चक्र और अनुचक धमकी दी । जब चन्द्रमाने फिर उनकी बातकी
नामक दो पार्षद-प्रदान (शल्य० ४५ । ४० )। अवहेलना कर दी, तब इन्होंने रोषपूर्वक राजयक्ष्माकी सृष्टि त्वष्टाधर-शुक्राचार्यके रौद्र कर्म करने करानेवाले दो पुत्रों से
की और वह सोमके शरीरमें प्रविष्ट हो गया (शल्य. एक (दि. ६५। ३७ )।
३५ । ४५-६२)। देवताओंके अनुरोध करनेपर इन्होंने बताया, सोम अपनी पत्नियोंके प्रति समानतापूर्ण बर्ताव
करें और सरम्वती-समुद्र-संगममें स्नान करके महादेवजीदंश-अलर्क नामक कीड़ेकी योनिमें पड़ा हुआ एक राक्षस, की आराधना करें, तब इस रोगसे मुक्त हो जायँगे।
जो परशुरामजीकी दृष्टि पड़ते ही कीट-योनिसे मुक्त हो प्रतिमास पंद्रह दिनोंतक ये प्रतिदिन क्षीण होंगे और 'गया था । परशुरामजीके पूछनेपर उसका अपनी दुर्गति- आधे मासतक निरन्तर बढ़ते रहेंगे (शल्य० ३५ । का कारण बताना (शान्ति.३।१४-१५, १९-२३)। ७३-७७)। गङ्गाद्वारमै इनके आवाहन करनेपर
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दक्षिण दिशा
( १३५ )
दण्डधार
anwarwww..
सरस्वती वहाँ आयी और सुरेणु' नामसे विख्यात हई दण्ड-(१)एक क्षत्रिय राजा, जो 'क्रोधहन्ता' नामक (शल्य० ३८ । २८-२९)। बाणशय्यापर पड़े हुए
असुरके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । भीष्मको देखनेके लिये ये भी गये थे ( शान्ति.
४५)। यह अपने पिता विदण्टके साथ द्रौपदीके ४७ । १०)। इनकी आठ कन्याएँ ब्रह्मर्षियोंको ब्याही
स्वयंवरमें आया था (आदि. १८५ । १२) दिग्विजय के गयी थीं, जिनसे अनेक प्रकारके जीव जन्तु तथा देवता
समय भीमसेनने उसे दण्डधारसहित परास्त किया था मनुष्य आदि उत्पन्न हुए (शान्ति. १६६ । १७)।
(सभा० ३० । १७)। यह मगधदेशके क्षत्रिय राजा इनका एक नाम 'क' भी है (शान्ति. २०८ ।
दण्डधारका भाई था और अर्जुनद्वारा भाईके मारे ७) । शिवजीद्वारा इनके यज्ञका विध्वंस (शान्ति.
जानेपर इसने श्रीकृष्ण तथा अर्जुनपर धावा किया था, २८३ । ३२-३७)। यज्ञके समय दधं चिके साथ इनका
इम युद्ध में अर्जुनने इसका मस्तक काट लिया था संवाद ( शान्ति. २८४ । २०-२२)। यज्ञविध्वंसके
(कणं० १८ । १६-१९) । (२) एक सूर्यका बाद इनका शिवजीकी शरणमें जाना (शान्ति. २८४ ।
अनुचर (वन. ३।६८)। (३) यमराजका दिव्यास्त्र, ५७) । शिवजीसे क्षमा-प्रार्थना करना ( शान्ति.
जिसका वेग कहीं भी कुण्ठित नहीं होता, इसे २८४ । ६१-६४)। सहस्रनामद्वारा शिवजीका स्तवन
यमराजने अर्जुनको प्रदान किया था (वन० ४१ । करना (शान्ति. २८४ । ६९-१८०)। इनके द्वारा
२६)। (४) चम्पाके निकटका एक तीर्थ, जहाँ रुद्रको शाप (शान्ति० ३४२ । २५)। इनके द्वारा
गङ्गामें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता चन्द्रमाको शाप । इनकी माट कन्याओंमें जो अन्तिम दस
है ( वन० ८५ । १५)। (५) एक चेदिदेशीय थीं, वे मनुको ब्याही गयी थीं (शान्ति०३४२ । ५७)।
पाण्डवपक्षका योद्धा, जो कर्णद्वारा निद्दत हुआ था (२) गरुड़की प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग
( कर्ण ५६ । ४९)। (६ ) भगवान् १०१।१२)। (३) एक विश्वेदेव (अनु०११। ३५)।
विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । १०५)। दक्षिण दिशा-इसका वर्णन (उद्योग० १०९ अध्याय)।
दण्डक-दक्षिण भारतका एक देश, जो दण्डकारण्यका भूभाग
है। इसे सहदेवने दिग्विजयके समय जीता था (सभ'. दक्षिण पाञ्चाल-यह दक्षिण पाञ्चाल देश गङ्गाके दक्षिण
३१। ६६)। दण्डकका विशाल राज्य एक ब्राह्मणने तटसे लेकर चम्बल नदोतक फैला हुआ था, जहाँके
नष्ट कर दिया था (अनु. १५३ । ११)। क्षत्रिय जरासंधके भयसे दक्षिण भाग गये थे (सभा० १४ । २७)। पाञ्चाल एक ही जनपद था, जो गङ्गाके
दण्डकारण्य-एक तीर्थ और वन, जहाँ स्नान करनेसे दोनों तटॉपर फैला हुआ था। द्रोणाचार्यने अपने शिष्योद्वारा
सहस्र गोदानका फल मिलता है (वन० ८५ । ४१)। द्रपदपर आक्रमण करवाकर उसे अपने अधीन करके आधा
यहीं गोदावरीके तटपर पञ्चवटीमें वनवासके समय द्रपदको दे दिया और आधा अपने अधिकारमें रक्खा।
श्रीरामजी रहे । यहीं शूर्पणखाको कुरूप किया गया और जो भाग द्रोणके अधिकारमें था, वह उत्तरपाञ्चाल'
यहीं खर, दूषण, त्रिशिरा आदि चौदह हजार राक्षसोंका और जिसके राजा द्रुपद थे, वह दक्षिणपाञ्चाल' के नामसे
वध, मारीचका वध, सीताहरण, जटायुवध आदि घटनाएँ प्रसिद्ध हुआ (आदि. १३७ अध्याय)।
घटित हुई (वन० २७७ अध्यायसे २७९ अध्यायतक)। दक्षिणमल्ल-मल्लराष्ट्र (जिसकी राजधानी कशीनगर या दण्डकेतु-पाण्डवपक्षका एक योद्धा, इसके रथके घोड़ोंका कुशीनारा थी) का दक्षिणो भाग; इसे भीमसेनले वर्णन (द्रोण. २३ । ६८)। पूर्वदिग्विजयके समय जीता था ( सभा०३० । १२)। दण्डगौरी-एक स्वर्गीय अप्सरा, जिसने इन्द्रसभामें दक्षिण सिन्धु-एक तीर्थ, जो दक्षिण दिशाका समद अजुनके स्वागतार्थ नृत्य किया था (वन०४३ । २९)।
रूप ही है, इसमें जाकर स्नान करनेसे मनुध्य अग्नि- दण्डधार-(१) मगधनिवासी एक क्षत्रिय राजा, जो टोम यज्ञका फल पाता है और देवविमानपर बैठनेका क्रोधवर्धन' नामक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था
सौभाग्य प्राप्त कर लेता है (वन. ८२ । ५३.५४ )। (आदि० ६७ । ४६ )। भीमसेनने दिग्विजयके समय दक्षिणाग्नि-पाञ्चजन्यसे उत्पन्न एक घोर पावक ( आचार्य इसे इसके भाई दण्डसहित जीता था ( सभा० ३० ।
नीलकण्टने इसका नाम दक्षिणाग्नि' लिखा है। ) १७)। यह कौरवपक्षका योद्धा था, हाथीपर चढ़कर (वन० २२० । ६)।
लड़ता था और भगदत्तके समान पराक्रमी था । इसने दक्षिणापथ-दक्षिण भारतका नामान्तर, जिसका परिचय जब पाण्डवसेनाका संहार आरम्भ किया. जब श्रीकृष्णको नलने दमयन्तीको दिया था (वन० ६१ । २३)। प्रेरणासे अर्जुनने आकर इसके साथ युद्ध करके इसे मार
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दण्डनीति
( १३६ )
डाला ( कर्ण० ८ । १-१३)। (२) धृतराष्ट्र के सौ ___द्वारा गङ्गा-तरपर परशुरामजीके क्षत्रिय-संहारसे बचाया पुत्रोंमेंसे एक (आदि. ६७ । १०३) । भीमसेनद्वारा और सुरक्षित रखा गया था (शान्ति०४९। ८.)। इसका वध (कर्ण. ८४ । ५-६)। (३) एक दधीच-(१) कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत एक परम पुण्यमय पावन राजा, जो पाण्डवोंका सहायक था। इसके नामके साथ । तीर्थ, जहाँ सरस्वतीपुत्र अङ्गिराका जन्म हुआ था । इसमें मणिमान्का भी नाम आता है। अतः इन दोनामे कुछ स्नान करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता और सरस्वतीलगाव रहा होगा--ऐसा अनुमान होता है । ( सम्भव है। लोककी प्राप्ति होती है (वन ० ८३ । १८६-१८८)। ये दोनों परस्पर पिता-पुत्र, भाई-भाई या मित्र रहे हो ।) (२) महर्षि भृगुके पुत्र, इनके द्वारा वज्रनिर्माणके द्रौपदीके स्वयंवरमें भी दोनोंके नामों का एक साथ उल्लेख लिये देवताओंको अस्थिदान (वन० १०० । २१)। हुआ है (आदि. १८६। ७)। पाण्डवोंकी ओरसे सरस्वती नदीके द्वारा इन्हें सारस्वत नामक पुत्रकी इनको और मणिमान्को भी रण-निमन्त्रण भेजा गया था प्राति ( शल्य. ५१ । १३.१४)। इनके द्वारा (उद्योग० ४ । २०-२१)। ये दोनों द्रोणाचार्यके द्वारा
सरस्वतीको वरदान ( शल्य. ५१ । १७-२४)। मारे गये है। दोनोंके नामोंका उल्लेख मरणकालमें एक देवताओंके द्वारा अस्थिके लिये याचना करनेपर इनका साथ हुआ है ( कर्ण० ६ । १३-१५)। (४) एक
प्राण त्याग करना (शल्य. ५१ । २९-३०) । इनकी पाञ्चालयोद्धा, जो पाण्डवपक्षका वीर था। इसके घोड़ोंका अस्थियोंसे वन आदि अस्त्रोंका निर्माण ( शल्य. ५१ । वर्णन (द्रोण. २३ । ५३)। यह युधिष्ठिरका चक्ररक्षक
३१-३२)। ब्रह्माजीके पुत्र महर्षि भृगुने तीन तास्यासे था और कर्णद्वारा मारा गया था (कर्ण० ४९ । २७)।
भरे हुए लोकमङ्गलकारी विशालकाय एवं तेजस्वी दण्डनीति-ब्रह्माजीके द्वारा निर्मित नीतिशास्त्रमें वर्णित दधीचको उत्पन्न किया था। ऐसा जान पड़ता था मानो दण्डविधान-विषयक नीतिविद्या (शान्ति० ५९ । ७६- सम्पूर्ण जगत् के सारतत्त्वसे उनका निर्माण हुआ हो । ये ७९) । दण्डनीतिके गुणोंका वर्णन (शान्ति०६९ । पर्वतके समान भारी और ऊँचे थे। इन्द्र इनके तेजसे ७५-१०५)।
सदा उद्विग्न रहते थे (शल्य. ५१ । ३२-३४)। दण्डबाहु-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७३ )। दक्षयज्ञमें शिवजीका भाग न देखकर कुपित हो दक्ष दण्डी-धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि०६७ । १०३ )।
आदिको इनका चेतावनी देना (शान्ति० २८४ । १२
२१)। देवताओंके कहनेसे प्राण त्याग करना (शान्ति. दत्त (या दत्तक)-एक प्रकारका पुत्र, जिसे जन्मदाता
३४२ । ४०)। माता-पिताने स्वयं समर्पित कर दिया हो । यह छ: प्रकारके अबन्धु-दायादों से एक है ( आदि. ११९ । ३४ )। दनायु-दक्षप्रजापतिकी पुत्री. और महर्षि कश्यपकी पत्नी
(आदि० ६५ । १२)। इसके चार पुत्र हुए-विक्षर, दत्तात्मा-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३४ )।
बल, वीर और महान् असुर वृत्र (आदि०६५।३३)। दत्तात्रेय-भगवान् विष्णुके अवतार ( अत्रिपत्नी अनसूयाके गर्भसे इनका प्राकट्य )। सहस्रबाहु अर्जुनद्वारा इनकी
दनु-दक्ष प्रजापतिकी पुत्रो, महर्षि कश्यपकी पत्नी तथा तीव आराधना और इनके द्वारा उसे चार दुर्लभ
दानवोंकी माता (आदि० ६५। १२) । दनुके चौंतीस वरदानीको प्राप्ति (सभा०३८ । २९ के बाद दा० पाठ,
पुत्र हुए, जिनमें सबसे बड़ा विप्रचित्ति था (आदि०६५। पृष्ठ ७९१)। इनके द्वारा साध्योंको उपदेश ( उद्योग
२१-३६)। ये ब्रह्माजीको सभामें विराजमान होती हैं ३६ । ४-२१)।
(सभा० ११ । ३९)।
दन्तवक्त्र (या दन्तवक)-एक क्षत्रिय राजा, क्रोधवशदत्तामित्र-सौवीरदेशका राजा सुमित्र, जिसका अर्जुनने
संज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न ( आदि. ६७ । दमन किया था ( आदि० १३८ । २३)।
६२)। यह करूष देशका अधिपति था ( सभा० दधिमण्डोदक-एक समुद्र, जो घृतोद समुद्रके बाद आता है १४।१२) । सहदेवने इसे दक्षिण दिशाकी विजयके समय (भीष्म० १२ । २)।
पराजित किया था (सभा० ३१ । ३)। इसे पाण्डवोंकी दधिमुख-(१) कश्यप और कसे उत्पन्न हुआ एक ओरसे रण-निमन्त्रण भेजा गया था (उद्योग०४११६)।
प्रमुख नाग ( आदि०३५ । ८)।(२) एक वृद्ध एवं दम-(१) विदर्भनरेश भीमके पुत्र और दमयन्तीके भाई पराक्रमी वानर, जो भयंकर वानरोंकी विशाल सेना साथ
(वन. ५३ ॥९)। (२)एक महर्षि, जो अन्य महर्षियोंके लेकर श्रीरामके पास आया था (वन० २८३ । ७)। साथ भीष्मजीको देखनेके लिये आये और कथा-वार्ता दधिवाहन-एक प्राचीन नरेश, जिनका पौत्र महर्षि गौतम- सुनाकर अन्तर्धान हो गये (अनु०२६ । --१३)।
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दमघोष
( १३७ )
दमयन्ती
दमघोष-चेदिदेशका एक राजा, जिसका पुत्र शिशुपाल था
(आदि० १८६ । ८५)। दमन-(१) एक प्राचीन ब्रह्मर्षि ( वन० ५३।६)। पत्नीसहित विदर्भनरेश भीमद्वारा इनका सत्कार और प्रसन्न हुए मुनिका राजाको एक कन्या तथा तीन पुत्र प्रदान करना (वन० ५३ । ६-८)।(२) विदर्भ- नरेश भीमके पुत्र और दमयन्तीके भाई (वन० ५३ । ९)। (३) पौरवका पुत्र । धृष्टद्युम्नद्वारा इसका वध
(भीष्म०६१।२०)। दमयन्ती-विदर्भनरेश भीमकी पुत्री, जो महर्षि दमनके
आशीर्वादसे उत्पन्न हुई थी। इनके तीन भाई थे-- दम, दान्त और दमन (वन० ५३ । ९)। इनके प्रति प्रमदावनमें हंसद्वारा नलके गुणोंका वर्णन (वन० ५३ । २५-३०)। इनका देवदूत बनकर आये हुए नलसे वार्तालाप, उनका परिचय पूछना और महलके भीतर उनका आना कैसे सम्भव हुआ, यह जिज्ञासा प्रकट करना (वन० ५५ । २०-२१)। नलके मुखसे देवताओंके वरणका प्रस्ताव सुनकर दमयन्तीका हँसकर नलको अपना पाणिग्रहण करनेके लिये प्रेरित करना और उनके अस्वीकार करनेकी दशामें प्राण त्याग देनेका निश्चय प्रकट करना (वन० ५६ । १--४)। पुनः नलके द्वारा देवताओंके ही वरण करनेका अनुरोध होनेपर शोकाश्रु बहाती हुई दमयन्तीका देवताओंको नमस्कार करके नलको ही वरण करनेकी बात घोषित करना और स्वयंवर-सभामें देवताओंके समक्ष उन्हींको अपना पति चुननेका निश्चय बताना (वन० ५६ । १४-२१)। दमयन्तीका स्वयंवर सभामें आगमन (वन० ५७ । ८) । स्वयंवर-सभामें नलके रूपमें पाँच व्यक्तियों को देखकर निषधनरेश नलकी पहचान न होनेसे दमयन्तीका देवताओंकी शरणमें जाना और राजा नलकी प्राप्ति करानेके लिये उनसे प्रार्थना करना ( वन० ५७ । ८-.-२१)। देवताओंकी कृपासे दमयन्तीमें देव-सूचक लक्षणोंके. निश्चय करनेकी शक्तिका उत्पन्न होना तथा देवों और मनुष्योंके लक्षणोंपर विचार करके इनका नलको पहचान लेना (वन० ५७ । २४२५)। इनके द्वारा पतिरूपमें नलका वरण (वन० ५७ ।। २७-२८)। नलका इनमें अनन्य अनुराग बनाये रखनेका विश्वास दिलाना तथा दमयन्तीद्वारा नलका अभिनन्दन होना ( बन० ५७ । ३-३३ ) । नलके साथ दमयन्तीका विवाह, नव-दम्पतिका विहार और दमयन्तीके गर्भसे इन्द्रसेन तथा इन्द्रसेनाका जन्म (वन० ५७ । ४०-४६)। इनका राजा नलको जुएसे रोकनेका प्रयास (बन०६०। ५-७)। पराजयकी सम्भावना होनेपर इनका कुमार-कुमारीको बाणेयद्वारा पिताके यहाँ
भेजना ( वन०६० । १९.२०)। दमयन्तीका पतिके साथ तीन दिनोंतक नगरके समीप केवल जल पीकर रहना
और फल-मूलका आहार करते हुए वनमें जाना । पतिके विदर्भका रास्ता बतानेपर शङ्कित होना और उन्हें अपने साथ विदर्भनरेशके यहाँ चलनेके लिये कहना ( वन० ६५। ५-३६) । एक धर्मशालामें दमयन्तीका पतिके साथ सोना और उठनेपर उन्हें न देख उनके लिये विलाप करना ( वन० अध्याय ६२ से ६३ । १२ तक)। इन्हें अजगरका निगलना (वन० ६३ । २१)। इनके शापसे व्याधका भस्म होना (वन० ६३ । ३९)। इन्हें तपस्वियोंका आश्वासन (वन. ६४ । ९२-९५)। इनकी व्यापारी-दलसे भेंट तथा उन सबसे बात-चीत ( वन०६४।११४--१३२ )। जङ्गली हाथियोंके उपद्रवसे क्षतिग्रस्त व्यापारियोंका दमयन्तीको राक्षसी समझकर इसे मारनेका संकल्प करना और दमयन्तीका घने जङ्गलमें भागकर अपनी दशापर विलाप करना (धन. ६५। २७-३५)। दमयन्तीकी चिन्ता, इनका चेदिराजके नगरमें पहुँचकर उन्मत्ताकी भाँति घूमना और राजमाताद्वारा महलमें बुलवाया जाना (वन० ६५ । ४५---५२)। राजमाता और दमयन्तीकी बातचीत (वन०६५। ५३-६६)। राजमातासे शर्त करके दमयन्ती. का वहाँ उद्वेगरहित हो निवास करना(वन०६५।६७-७६)। सुदेव ब्राह्मणका चेदि-पुरीमें राजाके पुण्याहवाचनके समय सुनन्दाके साथ खड़ी हुई दमयन्तीको देखना इनके अनुपम सौन्दर्य तथा अन्य लक्षणोंद्वारा इन्हें पहचानना, इनकी दयनीय दशासे व्यथित होना । इन्हें सान्त्वना देनेके विचारसे इनके पास जाकर अपनेको इनके भाईका मित्र बताना और इनके माता-पिता तथा बच्चोंका कुशल-समाचार निवेदन करना । सुदेवको पहचानकर दमयन्तीका अपने सुहृदोंके समाचार पूछना
और फूट-फूटकर रोना । सुनन्दाका दमयन्तीकी इस स्थितिके विषयमें राजमाताको सूचित करना और राजमाताका सुदेवको बुलाकर उनसे दमयन्तीका परिचय पूछना (वन० ६८ अध्याय)। सुदेवका दमयन्तीके विषयमें विस्तारपूर्वक सारी बातें बताना। उसकेललाटमें स्थित कमलके चिह्नकी ओर संकेत करनाराजमाताका उस चिह्नसे
अपनी बहिनकी पुत्रीके रूपमें दमयन्तीको पहचानकर रोते-रोते गले लगाना । सुनन्दाका भी रोकर बहिन दमयन्तीको हृदयसे लगाना । दमयन्तीका मौसीसे विदर्भ जानेकी आशा माँगना और उनके द्वारा दी हुई सवारीपर बैठकर संरक्षक सेनाके साथ विदर्भ जाना । वहाँ पिताके घर पहुंचकर मातासे नलके अन्वेषणका
म. ना. १८
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यमी
दल्म
प्रयास करनेके लिये कहना । पिताकी आज्ञासे नलको (सभा० ५२ । १३)। वनवासके समय सुबाहुकी ढूँढ़नेके लिये जाते हुए ब्राह्मणोंको नलसे कहनेके लिये राजधानीमें जाते समय पाण्डवलोग दरद देशमें होकर अपना संदेश बताना और जो उस संदेशका उत्तर दें, गये थे (वन० १७७ । १२) । पाण्डवोकी ओरसे उनकी सारी परिस्थिति जानकर उनके विषयमें शीघ्र जिन्हें रणनिमन्त्रण भेजना आवश्यक समझा गया था, सूचना देनेके लिये कहना (वन० ६९ अध्याय)। उनमें दरदराजका भी नाम है (उद्योग० ४।१५)। पर्णादका दमयन्तीसे बाहुकरूपधारी नलका समाचार
यह पूर्वोत्तर दिशामें स्थित देश है (भीष्म०९।६७)। बताना और दमयन्तीका मातासे सलाह करके पिताको सूचित
दरददेशीय योद्धा दुर्योधनकी सेनामें सम्मिलित थे किये बिना गुप्तरूपसे सुदेव नामक ब्राह्मणको राजा
(भीष्म० ५१ । १६)। भगवान् श्रीकृष्णने कभी ऋतुपर्णके यहाँ कल ही सूर्योदयके बाद होनेवाले अपने
इस देशको जीता था (द्रोण. ७० । ११)। स्वयंवरका संदेश देकर भेजना (वन० ७० अध्याय)।
दरद देशीय योद्धाओंका सात्यकिपर आक्रमण और नलके विषयमें दमयन्तीके विचार (वन० ७३ । ८
सात्यकिद्वारा इनका संहार (द्रोण. १२१। ४२-४३)। १५)। इनके द्वारा बाहककी परीक्षाके लिये केशिनीका
(३) एक जाति, दरदलोग पहले क्षत्रिय थे, परंतु भेजा जाना (वन० ७५। २)। माता-पिताकी आज्ञा
ब्राह्मणोंके साथ ईर्ष्या करनेके कारण शूद्र हो गये लेकर दमयन्तीका बाहुकको अपने महलमें बुलाना और
(अनु० ३५। १७-१८)। 'महाराज नल मुझे छोड़कर क्यों चले गये ? क्या तुमने दरि-धृतराष्ट्रके वंशमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके उन्हें कहीं देखा है ?? इत्यादि प्रश्न करके अपना दुःख
सर्पसत्रमें जलकर भस्म हो गया था (आदि०५७। १६)। निवेदन करना । बाहुकरूपी नलके नेत्रोंसे आँसू बहना दर्दुर–एक पर्वत, जिसके अधिष्ठाता देवता कुबेरकी सभामें और उनका 'कलियुगसे प्रेरित होकर सब कुछ करना
रहकर भगवान् धनाध्यक्षकी उपासना करते हैं (सभा० पड़ा है। ऐसा कहकर दमयन्तीके द्वितीय पति-वरणकी १०।३२)। भावनापर कटाक्ष करना, दमयन्तीका शपथपूर्वक अपनी
दी-एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने कुरुक्षेत्रकी सीमाके निर्दोषता बताना । वायु देवताका आकाशवाणीद्वारा
भीतर अर्धकील तीर्थ प्रकट किया था, वहाँ उपनयन दमयन्तीकी शुद्धताका समर्थन करना और स्वयंवरको
और उपवास करनेसे मनुष्य कर्मकाण्ड और मन्त्रोंका नलकी प्राप्तिका एक उपायमात्र बताना । तत्पश्चात् नलका
ज्ञानी ब्राह्मण होता है । दर्भी मुनि वहाँ चार समुद्र भी अपने रूपको प्रकट करना और दमयन्तीके साथ उनका
लाये थे, उनमें स्नान करनेसे चार हजार गोदानका फल मिलन (वन० ७६ अध्याय)। पुष्करसे अपने राज्यको
मिलता है (वन० ८३ । १५४-१५७ )। वापस लेकर नलका दमयन्तीको पुनः अपनी राजधानीमें बुलाना (वन० ७९ । १)।
दर्व-(१) एक क्षत्रिय जाति, इस वंशके श्रेष्ठ क्षत्रिय राजदमी-एक त्रिभुवनविख्यात तीर्थ, जो सब पापोका नाश
कुमारोंने अजातशत्रु युधिष्ठिरको बहुत धन भेंट किया था करनेवाला है। यहाँ ब्रह्मा आदि देवता भगवान् महेश्वरकी
(सभा० ५२ । १३)। (२) एक भारतीय जनपद
(भीष्म० १ । ५४)। उपासना करते हैं (वन० ८२ । ७२ )। दम्भोद्भव-एक सार्वभौम सम्राट् ( भादि. १ । २३४)। दवीसंक्रमण-एक तीर्थ, जहाँकी यात्रा करनेसे तीर्थयात्री
अश्वमेध यज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता है ये महारथी और महापराक्रमी थे। इनका नर-नारायणके
(वन० ८४ । ४५)। साथ युद्ध और उनसे पराजित होना तथा उनके चरणों में प्रणाम करके इनका पुनः अपनी राजधानीमें लौट दर्शक-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ५ । ५३)। आना (उद्योग० ९६ । ५-३९)।
दल-इक्ष्वाकुवंशी राजा परीक्षित्का पुत्र, जिसकी माता दरद-(१) बाहीक देशके एक राजा, जो सूर्यनामक महान् मण्डूकराजकी कन्या सुशोभना थी (वन. १९२ । ३८)।
असुरके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि० ६७ ॥ ५८)। इनका अपने बड़े भाई शलके मारे जानेपर राज्याभिषेक इन्होंने जन्म लेते ही अपने शरीरके भारसे इस पृथ्वीको (वन० १९२ । ५९)। इनका महर्षि वामदेवसे वार्ताविदीर्ण कर दिया था (सभा०४४।८)।(२) एक लाप तथा वाम्य अश्वोको लौटाना (वन० १९२। ६०प्राचीन-देश और वहाँके निवासी। जिसे इस उत्तर दिग्विजय
२)। के समय अर्जुनने जीता था (सभा० २७ । २३)। दल्भ-एक प्राचीन ऋषि, जिनके पुत्र दाल्भ्य नामसे दरद देशके लोग राजा युधिष्ठिरके लिये भेंट ले गये थे प्रसिद्ध थे (बन० २।५)।
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दश
( १३९ )
श--एक भारतीय जनपद (भीष्म० ५। ५६)। और वीरबाहुकी सुनन्दा । इन दोनोंका ननिहाल दशार्णदशग्रीव--राक्षसराज दशमुख रावण, जो विश्रवामुनिके द्वारा
देशमें था, दमयन्तीका जन्म भी दशार्णराजके ही घरमें पुष्पोत्कटाके गर्भसे उत्पन्न हुआ था । इसके सहोदर हुआ था (वन० ६९ । १३-१६)। महाभारत युद्धसे भाईका नाम था कुम्भकर्ण (वन० २७५। ७,१०)।
पूर्व दशार्णदेशके राजा हिरण्यवर्मा थे, जिनकी पुत्रीका यह वरुणकी सभामें विराजमान होकर उनके पास बैठता विवाह पुरुषवेशमें रहनेवाली द्रुपदकन्या शिखण्डिनीसे है ( सभा०९ । १४)।
हआ था । यह रहस्य खुलनेपर दशार्णराजने द्रुपदपर पशज्योति-सुभ्राटके तीन पुत्रोमैंसे एक ( आदि.
आक्रमण करनेकी तैयारी की, परंतु दैवयोगसे शिखण्डिनी १।४४)।
वनमें जाकर शिखण्डीरूपमें परिणित हो गयी और दशमालिक--एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६६) ।
उसके पुरुषत्वका परिचय पाकर दशार्णराज संतुष्ट
हो गये (उद्योग० १८९ अध्यायसे १९२ अध्यायतक)। दशरथ-इक्ष्वाकुवंशीय महाराज अजके पुत्र, जो सदा
दशार्ण देश दो थे अथवा एक ही देशके दो विभाग थेस्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले और पवित्र थे। इनकी माता
ऐसा जान पड़ता है। क्योंकि भीष्मपर्वमें जहाँ भारतीय का नाम इलविला था (वन० २७४ । ६) इनके चार
जनपदोंकी गणना करायी गयी है, वहाँ दोदशार्ण देशोंका पुत्र थे---श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न (वन.
उल्लेख देखा जाता है (भीष्म० ९ । ४१-४२)। २७४।७)। इनके तीन पत्नियाँ थीं-श्रीराममाता
दशार्ण देशके सैनिक दुर्योधनके पक्षमें थे और द्रोणाचार्यकौसल्या, भरतजननी कैकेयी तथा लक्ष्मण और शत्रुघ्नकी
के अनुगामी होकर युद्ध करते थे (भीष्म०५१।१२)। माता सुमित्रा (वन० २७४ । ८)। इनका श्रीरामके
युधिष्ठिरके अश्वमेध यज्ञके समय दशार्ण देशका राज्य राज्याभिषेकके लिये सामग्री जुटानेके निमित्त पुरोहितको
चित्राङ्गदके अधिकारमें था, अर्जुनने इनको पराजित आदेश (वन० २७७ । १५)। कैकेयीका इन्हें वचनबद्ध करके इनसे श्रीरामके वनवास और भरतके राज्या
किया था (आश्व० ८३ । ५-७)। भिषेकका वर माँगना और इनका दाखित होकर मौन दशाह-यदुकुलमें उत्पन्न एक श्रेष्ठ क्षत्रिय, जिनके वंशमें हो जाना (वन० २७७ । २१-२.)। श्रीरामके वनमें
उत्पन्न होनेवाले क्षत्रियोंको दाशाह कहते हैं। भगवान् चले जानेपर इनका शरीर-त्याग करना ( वन.
श्रीकृष्णको भी इसीलिये दाशार्ह या दाशार्हपति कहते हैं २७७ । ३०)। रावणपर विजय पानेके बाद श्रीरामके
(सभा० ३८1दा० पाठ, पृष्ठ ८०९, ८१३, ८१४,616, पास इनका आना और राज्यके लिये आदेश देना (वन.
८२० और८२५)। २९१ । ३६) । दशरथके घरमें श्रीरामरूपसे अवतीर्ण दशावर-एक दैत्य, जो वरुणकी सभाम राकर उनकी हुए श्रीविष्णुने दशग्रीव रावणका वध किया था (वन उपासना करता है (सभा० ५।४)। ३१५ । २०)।
दशाश्व-इक्ष्वाकुका दसवाँ पुत्र, जो माहिष्मतीपुरीमें दशार्ण-एक प्राचीन जनपद (कुछ लोगोंके मतानुसार इसके
राज्य करता था। इसके पुत्रका नाम मदिराश्व था (अनु. दो भाग ये-पूर्वी और पश्चिमी । पूर्वीभागमें छत्तीसगढ़का कुछ २।६)। भाग और पाटन राज्य था तथा पश्चिमी भागमें पूर्वी मालवा दशाश्वमेध-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ
और भूपालकी रियासत सम्मिलित थी। हिंदी शब्दसागरके स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है (वन. अनुसार विन्ध्यपर्वतके पूर्व-दक्षिणकी ओर स्थित उस प्रदेश- ८३ । १४)। का प्राचीन नाम दिशाणं' है, जिसके समीप होकर धसान
दशाश्वमेधिक-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, जिसमें नदी बहती है। मेघदूत' से पता चलता है कि विदिशा
दशा- स्नान करके मनुष्य उत्तम गति पाता है (वन० ८३ । आधुनिक भिलसा इसी प्रदेशकी राजधानी थी।) इस )। देशपर राजा पाण्डुका आक्रमण और विजय (आदि.
दस-(नासत्य और ) दस्र दोनों अश्विनीकुमारों के नाम ११२ । २५)। भीमसेनने भी इस देशको जीता था है ( शान्ति० २०८ । १७)। (सभा० २९॥ ५) । नकुलने भी इसपर आक्रमण
दहति-अंशद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदों से करके विजय पायी थी (सभा० ३२ । ७)। प्राचीन कालमें दशार्णदेशके राजा सुदामा थे, इनकी दो पत्रियाँ एक (शल्य० ४५ । ३४)। थीं, इनमेंसे एक विदर्भनरेश भीमको और दसरी चेदिराज दहदहा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०१६।२०)। वीरबाहको ब्याही गयी थी, भीमकी पुत्री दमयन्ती थी दहन-(१) ग्यारह रुद्रोमेसे एक, ब्रह्माजीके पौत्र एवं
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दाक्षायणी
( १४० )
दाशार्णक
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स्थाणुके पुत्र ( आदि० ६६ । ३)। (२) अंशद्वारा इसके सिवा उद्योगपर्वके ८३, ८४, १३१, १३७ स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदों से एक (शल्य.
अध्यायोंमें; द्रोणपर्वके ८२, ११२ अध्यायोंमें; कर्णपर्वके ४५ । ३४ )।
७२ अध्यायमें, शान्तिपर्वके ४६, ५३ अध्यायोंमें और दाक्षायणी-दक्षकी कन्या । राजधर्माने अपनी माता सुरभिको आश्वमेधिकके ५२ अध्यायमें भी दारुकका नाम आया दाक्षायणी कहा है (शान्ति० १७०।२)। दाक्षायणी है। श्रीकृष्णद्वारा समयपर रथ लाने के लिये आदेश सुरभिने अपने मुखके फेनको राजधर्माकी चितापर गिराया,
मिलनेपर उसे स्वीकार करना (द्रोण० ७९ । ४३जिससे वह जी उठा ( शान्ति० १७३ । ३)। ( इसी ४४)। भगवान्की शङ्खध्वनि सुनकर उनके संदेशका तरह अदिति, दिति, दनु आदि सभी दक्ष-कन्याओंको
स्मरण करके दारुकका जयद्रथ-वधके पश्चात् रथ लेकर दाक्षायणी समझना चाहिये)।
श्रीकृष्णके पास जाना (द्रोण० १४७ । ४५-४६)। दाक्षिणात्य-दक्षिण भारतके निवासी दाक्षिणात्य कहलाते सात्यकिके उस रथपर चढ़कर कर्णके साथ युद्ध करते समय हैं। राजा भीष्मक दाक्षिणात्योंके अधिपति थे (उद्योग. इसकी रथ-संचालनकी कुशलता (द्रोण०१४७१५४-५५)। १५८।२)।
भगवान्के रथको दारुकके देखते-देखते दिव्य घोड़े दानभारि-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ५० । ५२)।
आकाशमें उड़ा ले गये (मौसल० ३ । ५)। दारुकको दान्त-विदर्भनरेश भीमके पुत्र और दमयन्तीके भाई भगवान् श्रीकृष्णका अर्जुनको यादव-संहारकी बात (वन० ५३ । ९)।
बताने और उन्हें बुलानेके लिये जानेका आदेश देना तथा दान्ता-अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अन्य अप्सराओंके दारुकका प्रस्थित होना ( मौसल. ४ । २-३ )।
साथ अष्टावक्रके स्वागतके लिये नृत्य किया था ( अनु० दारुकका कुन्तीपुत्रोंसे मिलकर उनसे यदुवंश-विनाशका १९ । ४५)।
समाचार सुनाना और अर्जुनको साथ लेकर द्वारका लौटना दामचन्द्र-युधिष्ठिरमें अनुराग रखनेवाला उनका एक
(मौसल० ५। १-५)। अर्जुनका दारुकके प्रति सम्बन्धी और सहायक राजा, जो बड़ा पराक्रमी था वृष्णिवंशी वीरोंके मन्त्रियोंसे मिलनेकी इच्छा प्रकट करना (द्रोण. १५८।४.)।
(मौसल. ७।६)। दामा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ५)। दारुण-गरुड़की प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग. दामोदर-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम, इस नामकी व्युत्पत्ति ( उद्योग० ७०1८)।
दार्व-दर्वदेशीय अथवा दर्व-जातिमें उत्पन्न क्षत्रिय नरेश दामोष्णी-युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होनेवाले एक
(सभा० २७ । १८)। महर्षि (सभा० ४।१३)। इन्होंने हस्तिनापुर जाते दावोतिसार-एक म्लेच्छ जाति (द्रोण० ९३ । ४४)। हुए श्रीकृष्णसे मार्गमें भेंट की थी ( उद्योग० ८३ । ६४ दावीं-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५४)। के बाद दा० पाठ)।
दाल्भ्य-(१) एक महर्षि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजदारद-एक भारतीय जनपद (शल्य. ५० । ५०)। मान होते थे ( सभा० ४।११)।(२) उत्तरादारुक-भगवान् श्रीकृष्णका सारथि, भगवान् श्रीकृष्णके खण्डका एक तीर्थभूत आश्रम (वन० ९० । १२)।
द्वारका जाते समय युधिष्ठिरने दारुकको हटाकर थोड़ी (३) एक ऋषि, जिन्होंने सत्यवान्के जीवित होनेका देर स्वयं सारथ्य किया (सभा०२।१६)। वे दारुकके विश्वास दिलाकर राजा द्युमत्सेनको आश्वासन दिया था साथ द्वारका पहुँचे (सभा० २ । ३०)। इसके द्वारा (वन० २९८ । १.)। जोतकर लाये हुए गरुडध्वज रथपर आरूढ़ हो भगवान् दाल्भ्यघोष-उत्तराखण्डका एक तीर्थभूत आश्रम (वन० श्रीकृष्ण द्वारकापुरीकी ओर प्रस्थित हुए (सभा०४५। ९०। १२)। ६०)। दारुकके पुत्रने प्रद्युम्नके रथका संचालन किया दाशराज-सत्यवतीका पालक पिता निषादराज ( उच्चैः(बन० १८ । ३, १२, १५, ३०, ३३ वन०१९। श्रवा ), जिसकी आज्ञासे सत्यवती धर्मार्थ नाव चलाया ६, १०, १३ )। शाल्वके बाणोंसे दारुकका पीड़ित करती थी ( आदि. १००। ४८ )। सत्यवतीके होना (वन० २१ । ५)। शाल्वका वध करनेके लिये विवाहके लिये शान्तनुसे इसकी शर्त (आदि० १००। इसका श्रीकृष्णको उत्साहित करना ( वन० २२॥ ५६)। अपनी पुत्रीके विवाहके सम्बन्धमें भीष्मके प्रति २१-२६)। उत्तरने सारथ्य कर्ममें अपनी उपमा इसका वक्तव्य (आदि.१००। ७७-८४ )। श्रीकृष्णके सारथि दाहकसे दी (विराट. ४५।१६)। दाशार्णक-दशार्ण देशके निवासी (भीष्म० ५०।१७)।
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दाशाही
दीर्घ
दाशाही-दशाह -कुलमें उत्पन्न वृष्णिवंशियोंकी सभा तथा (आदि० ९४ । २४ ) । (२) एक राजा, जो दधिदशा है-कुलकी कन्या ( सभा० ३८ । २९ के बाद वाहनका पुत्र था । इसका पुत्र महर्षि गौतमद्वारा दा. पाठ, पृष्ठ ८०६)। (दशाह-कुलकी कन्या होनेसे परशुरामके क्षत्रियसंहारसे बचाया और सुरक्षित रखा ही भुमन्युपत्नी विजया, विकुण्ठनपत्नी सुदेवा, कुरु- गया था (शान्ति० ४९ । ८.)। पत्नी शुभाङ्गी, पाण्डुपत्नी कुन्ती और अर्जुनपत्नी सुभद्रा दिवोदास-ये काशी जनपदके राजा तथा सुदेव अथवा आदि दाशाहीं कही गयी हैं।)
भीमसेनके पुत्र थे । इनका गालवको दो सौ श्यामकर्ण दाशेरक-क्षत्रियोंका एक वर्ग ( भीष्म० ५० । ४७)। घोड़े शुल्कमें देकर ययातिकन्या माधवीको एक पुत्रकी दासी-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं
उत्पत्ति के लिये अपनी पत्नी बनाना ( उद्योग० ११७ । (भीष्म० १।३१)।
१-७)। पुत्रोत्पत्तिके बाद पुनः गालवको माधवी वापस
देना ( उद्योग० ११७।८-२१)।ये यमसभामें रहकर दिक-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं
सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते है (सभा०८ । १२)। (भीष्म ९ । १९)।
ये शत्रुओंके यहाँसे अग्निहोत्र और उसकी सामग्री भी हर दिग्विजयपर्व-सभापर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय लानेके कारण तिरस्कारको प्राप्त हुए (शान्ति० ९६ । २५ से ३२ तक)।
२१)। इन्होंने इन्द्रकी आज्ञासे वाराणसी नगरी बसायी दिति-दक्षप्रजापतिकी पुत्री, महर्षि कश्यपकी पत्नी और
थी ( अनु० ३० । १६)। ये अपने शत्रु हैहयदैत्योंकी माता (आदि० ६५ । १२)। दितिका एक राजकुमारोंसे एक सहस्र दिनोंतक युद्ध करके सेना और ही पुत्र जिसका नाम विख्यात हुआ था हिरण्यकशिपु वाहनोंके मारे जानेपर भाग निकले और भरद्वाजकी (आदि० ६५ । १७)। ये ब्रह्माजीकी सभामें
शरणमें गये, वहाँ मुनिने पुत्रेष्टि-यज्ञ करवाया, जिससे इन्हें विराजमान होते हैं (सभा० ११ ३९)।
प्रतर्दन नामक पुत्रकी प्राप्ति हुई ( अनु० ३० । दिलीप-(१) सगरके प्रपौत्र, अंशुमान्के पुत्र और २०-३०)। दिवोदासने अपने पुत्र प्रतर्दनको युवराज
भगीरथके पिता, इनका राज्याभिषेक तथा इनका बनाकर उसे बीतहव्यके पुत्रोंका वध करनेके लिये भेजा अपने पुत्रको राज्य देकर वनगमन (वन० १०७। था ( अनु० ३० । ३६-३७)। ६३-६९ )। श्रीकृष्णद्वारा युधिष्ठिरके समक्ष इनके महाभारतमें आये हुए दिवोदासके नाम-भैमसेनि) चरित्रका वर्णन (द्रोण. ६१ अध्याय; शान्ति० २९ । काशीश, सौदेव, सुदेवतनय आदि । ७१-८.)। ये अनेक बार गोदान करके उसके प्रभावसे
दिव्यकट-एक पश्चिम दिशावर्ती नगर, जिसे नकुलने स्वर्गको प्राप्त हुए थे ( अनु० ७६ । २६)। अगस्त्य
दिग्विजयके समय अपने अधिकारमें कर लिया था जीके कमलोको चोरी होनेपर इनका शपथ खाना
(सभा० ३२ । ११)। (अनु० ९४ । २३)। ये मांस-भक्षणका निषेध करनेके कारण सम्पूर्ण भूतोंके आत्मस्वरूप हो गये और इन्हें दिव्यकर्मकृत्-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३५)। परावरतत्वका ज्ञान हो गया था ( अनु० ११५। दिव्यसानु-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३०)। ५८.५९)। यम-सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना दिशाचक्षु-गरुड़के प्रमुख संतानों से एक (उद्योग० करते हैं (सभा० ८ । १४)। (२) एक कश्यपवंशी १०१ । १०)। नाग ( उद्योग० १०३ । १५)।
दीप्तकेतु-एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३७)। दिलीपाश्रम-एम तीर्थ, जहाँ काशिराजकी कन्या अम्बाने
दीप्तरोमा-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१)। कठोर व्रतका आश्रय ले तप किया था ( उद्योग
दीप्ताक्ष-एक क्षत्रियकुल, जिसमें पुरूरवा नामक कुलाङ्गार १८६।२८)।
राजा प्रकट हुआ था ( उद्योग० ७४ । १५)। दिवःपुत्र-विवस्वान्के बोधक या स्वरूपभूत बारह सूर्योमेंसे। एक (आदि०५ । ४२)।
दीप्ति-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३४ )। दिवाकर-( १ ) भगवान् सूर्यका एक नाम (वन० दीप्तोदक-एक तीर्थ, जहाँ देवयुगमें भृगुजीने तपस्या की थी
११८ । १२)। (२) गरुड़की प्रमुख संतानोंमेंसे (वन० ९९ । ६९)। एक (उद्योग० १०१।१४)।
दीर्घ-मगधका एक राजा, जो राजगृहमें पाण्डुके द्वारा दिविरथ-(१) सम्राट भरतके पौत्र एवं भुमन्युके पुत्र मारा गया था ( आदि० ११२ । २७)।
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दीर्घजित
( १४२ )
दुःशासन
दीर्घजिह्व-महर्षि कश्यपद्वारा दनुके गर्भसे उत्पन्न एक
दानव (आदि०६५। ३०)। दीर्घजिला-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६।२३)। दीर्घतमा-एक मुनि, जो देवराज इन्द्रकी सभामें रहकर
उन बज्रधारी देवेन्द्रकी उपासना करते हैं (सभा० ७।१)। ये पश्चिम दिशाका आश्रय लेकर रहनेवाले
ऋषि हैं (अनु. १६५। ४२)। दीर्घप्रश-एक क्षत्रिय नरेश, जो वृषपर्वा नामक प्रसिद्ध
देत्यके अंशसे प्रकट हुआ था (आदि०६७।१६)। पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण-निमन्त्रण भेजना निश्चित हुआ था ( उद्योग० ४ । १२)।
योगः । १२)। दीर्घबाहु-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंसे एक (आदि०६७।१०५)।
भीमसेनके द्वारा इसका वध ( भीष्म० ९६ । २६)। दीर्घयश-अयोध्याके एक राजा, जिन्हें पूर्व-दिग्विजयके समय भीमसेनने कोमलतापूर्ण बर्तावसे ही अपने वशमें
कर लिया (सभा० ३०।२)। दीर्घरोमा-( दीर्घलोचन ) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक, (आदि० ११६ । १३)। भीमसेनद्वारा इसका वध
(मोण. १२७ । ६०)। दीर्घलोचन-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक (आदि.
६७ । १०४)। भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म ९६ । २६-२७ ) । (२) (दीर्घरोमा) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( दि. ११६। १३)।भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १२७ । ६०)। दीर्घसत्र-एक तीर्थ, जहाँकी यात्रा करनेमात्रसे मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंके समान फल पाता है (वन०
८२ । १०४-११०)। दीर्घायु-कलिङ्गराज श्रुतायुका भाई, जो अर्जुनद्वारा मारा
गया (द्रोण० ९४ । २९)। दुःशल-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंसे एक (आदि० ६७ ॥१३)।
भीमसेनद्वारा इसकी मृत्यु (द्रोण. १२९ । ३९ के
बाद दाक्षिणात्य पाठ)। दुःशला-धृतराष्ट्र और गान्धारीकी पुत्री तथा दुर्योधन
आदि सौ भाइयोंकी बहिन (आदि० ६७ । १०५)। सिंधुराज जयद्रथकी पत्नी (आदि०६७।१०९)। इसके जन्मकी कथा ( आदि० ११५ अध्याय )। पिताद्वारा जयद्रथके साथ इसका विवाह ( आदि० ११६ । १८)। दुःशलाका विचार करके युधिष्ठिरने द्रौपदीहरणके समय भाइयोको जयद्रथका वध न करनेकी आज्ञा दी थी (वन० २७१ । ४३)। अश्वमेधीय अश्वकी रक्षाके लिये त्रिगर्तदेशमें गये हुए अर्जुनके द्वारा
त्रिगर्तवीरोंको कष्ट पाते देख दुःशलाका युद्ध बंद करानेके लिये रणभूमिमें अपने शिशु पौत्र सुरथकुमारको लेकर आना और अर्जुनके पूछनेपर उनसे सुरथकी मृत्युका हाल बताना, विलाप करना और पार्थसे शान्ति एवं कृपाकी याचना करना ( आश्व० ७८ । २२-४१)। युधिष्ठिरका दुःशलाकी प्रसन्नताके लिये उसके बालक पौत्रको सिंधुदेशके राज्यपर अभिषिक्त करना ( आश्व.
८९ । ३५ )। दुःशासन-धृतराष्ट्रका एक महारथी पुत्र ( आदि. ६३ । ११९ )। यह पुलस्त्यकुलके राक्षसके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ८९-९०, ९१॥ आदि० ११६ । २)। धृतराष्ट्र के चार प्रधान पुत्रोंमें इसे द्वितीय स्थान प्राप्त था (आदि० ९५ । ५.)। यह भाइयोंके साथ द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि० १८५। १) युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें यह भोजनकी देखभाल और परोसनेकी व्यवस्थामें नियुक्त था (सभा० ३५ । ५)। इसका द्रौपदीके केश पकड़कर उन्हें बलपूर्वक सभाभवनमें ले आना (सभा०६७।३१)। इसके द्वारा द्रौपदीका चीरहरण (सभा०६८।०)। द्रौपदीके वस्त्र खींचते समय राजाओंद्वारा इसपर विकारोंकी बौछार ( सभा० ६८ । ५६ )। इसके द्वारा पाण्डवोंका उपहास (सभा० ७७ । ३-१४) दैतवनमें गन्धर्वोद्वारा बंदी बनाया जाना (वन० २४२ । ७)। दुर्योधनद्वारा राजा बननेके आदेशपर उसे अस्वीकार करते हुए इसका भाईके दोनों पैर पकड़कर रोना (वन. २४९ । २९-३५)। दुर्योधनके वैष्णव यज्ञमें आनेके लिये पाण्डवोंके पास निमन्त्रण भेजना (वन० २५६ १८)। गुप्तचरोंको भेजकर पुनः पाण्डवों का पता लगानेके लिये सलाह देना ( विराट० २६ । १४-१८ )। विराटनगरके निकट अर्जुनके साथ युद्ध और पराजित होकर उसका भागना (विराट० ६१ । ३६-४०)। कौरव-सभामें दुर्योधनसे इसका अपने आपके, दुर्योधनके और कर्णके कैद होनेकी सम्भावना बताना (उद्योग. १२८ । २३-२४)। प्रथम दिनके संग्राममें नकुलके साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ४५ । २२-२४)। अर्जुनके साथ द्वन्द्वयुद्ध और उनसे पराजित होना ( भीष्म ११०। २४-४६, भीष्म० १११। ५७-५८)। अर्जुनके साथ युद्ध में इसका घोर पराक्रम प्रकट करना (भीष्म०११७। १२-१९)। दुर्योधनसे अभिमन्युको मार डालनेकी प्रतिज्ञा करके युद्ध प्रारम्भ करना (द्रोण. ३९ । २४३१)। अभिमन्युद्वारा इसका मूञ्छित किया जाना (द्रोण० ४० । १३-१४) । अर्जुनके साथ युद्ध करके उनसे पराजित होकर भागना (द्रोण. ९० अध्याय)।
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( १४३ )
दुर्धर्ष ( दुर्मद )
सात्यकिके साथ इसका युद्ध (द्रोण० ९६ । १४-१७)। दुन्दुभी-एक गन्धर्वी, जो मन्थरा नामसे प्रसिद्ध कुबड़ी सात्यकिसे पराजित होकर इसका सेनासहित पलायन दासी हुई थी, ब्रह्माजीने इसे देवकार्यकी सिद्धिके लिये (द्रोण. १२१ । २९-४६) । सात्यकिद्वारा इसकी भूतलपर जानेका आदेश दिया था ( वन० २७६ । पराजय (द्रोण. १२३ । ३१-३४)। इसके द्वारा ९-१०)। प्रतिविन्ध्यकी पराजय (द्रोण० १६८ । ४३) । सहदेवके दुराधन (दुराधर या दुर्धर )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा पराजय (द्रोण. एक ( आदि० ६७ । १०१)। भीमसेनद्वारा इसका १८८ । २-९) । धृष्टद्युम्नद्वारा इसकी पराजय वध (द्रोण. १३५ । ३६)। (द्रोण. १८९।५)। द्रोणाचार्यके मारे जानेपर इसका दुराधर ( दुर्धर या दुराधन)-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से युद्धस्थलसे भागना (द्रोण. १९३ । १५)। सहदेवद्वारा एक (आदि. ११६ । १०)। भीमसेनद्वारा इसका वध पराजित होना (कर्ण० २३ । १८-२०) । धृष्टद्युम्नको (द्रोण. १३५ । ३६)। काबूमें कर लेना ( कर्ण०६१ । ३३)। भीमसेनके साथ दुर्ग-किला, दुर्ग छः प्रकारके होते हैं-मरुदुर्ग, जलदुर्ग, इसका युद्ध और पाण्डवोपर आक्षेप ( कर्ण० ८२ । ३२
__ पृथ्वीदुर्ग, वनदुर्ग, पर्वतदुर्ग और मनुष्यदुर्ग ( सैनिकके बाद दाक्षिणात्य पाठ)। क्रोधमें भरे भीमसेन और
शक्तिसे सम्पन्न होना)। इनमें मनुष्यदुर्ग ही प्रधान है दुःशासनका घोर युद्ध (कर्ण०८२ । ३३ से कर्ण० ८३ ।
(शान्ति० ५६ । ३५)। • तक)। भीमसेनकी गदाकी चोटसे धरतीपर गिरकर
दुर्गशैल-शाकद्वीपका एक पर्वत (भीष्म० ११ । २३)। दुःशासनका छटपटाना, भीमसेनका इसकी छातीपर चढ़कर इससे यह पूछना कि 'तूने किस हाथसे द्रौपदीके केश।
दुर्गा-(१) त्रिभुवनकी अधीश्वरी देवी दुर्गा । महाराज खींचे थे।' दु:शासनका रोष और अभिमानके साथ
युधिष्ठिरने विराटनगरमें प्रवेश करते समय जगजननी अपनी गजसुण्ड-दण्डके समान मोटी दाहिनी भुजा दिखा
दुर्गाकी स्तुति की और देवीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें कर यह उत्तर देना कि मैंने इसी हाथसे द्रौपदीके केश
वर दिया (विराट. ६ अध्याय) । भगवान् श्रीकृष्णखींचे ये । भीमसेनका इसकी उस भुजाको उखाड़कर
की प्रेरणासे अर्जुनने महाभारत युद्ध के प्रारम्भमें दुर्गादेवीउसीके द्वारा इसे पीटना और इसकी छाती फाड़कर इसके
की स्तुति की और देवीने अन्तरिक्षमें स्थित होकर उन्हें गरम रक्तको पीना (कर्ण० ८३ । ८-२९) । दुःशासन
विजयी होनेका वर दिया (भीष्म० २३ । ४-१९)। जिसमें रहता था, वह सुन्दर महल वीरवर अर्जुनको रहनेके
अर्जुनकृत दुर्गास्तोत्रकी महिमा (भीष्म २३ । २२लिये दिया गया (शान्ति. ४४ । ८-९)। व्यासजीके
२५)। (२) एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतकी आवाहन करनेपर गङ्गाजलसे इसका भी प्रकट होना
प्रजा पीती है (भीष्म ५। ३३)। (आश्रम० ३२ । ९)। मृत्युके पश्चात् इसे स्वर्गलोककी दुर्गाल-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५२ )। प्राप्ति हुई (स्वर्गा० ५ । २१-२२)
दुर्जय-(१) महर्षि कश्यपद्वारा दनुके गर्भसे उत्पन्न एक महाभारतमें आये हुए दुःशासनके नाम -भारत)
दानव (आदि०६५ । २३)। (२) (दुष्पराजय)भरतश्रेष्ठ, भारतापसद, धृतराष्ट्रज, कौरव, कौरव्य और
धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि. ११६ । ९)। कुरुशार्दूल आदि ।
( देखिये दुष्पराजय)। (३) एक राजा, जिसके लिये दुःसह-धृतराष्ट्रका एक महारथी पुत्र ( आदि. ६३ ।
पाण्डव-पक्षसे रण-निमन्त्रण भेजनेके लिये द्रुपदने सलाह ११९, आदि०६७ । ९३, आदि. ११६ । २)। यह पुलस्त्यकुलके राक्षसके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि.
दी थी (उद्योग० ४ । १६)। (४) इक्ष्वाकुवंशी ६७ । ८९) । अर्जुनके साथ इसका युद्ध और पराजित
सुवीरके पुत्र (अनु. २ । ११)। (५) भगवान् होकर भागना (विराट०६१ । ४३-१५)। इसका विष्णुका एक नाम ( अनु. १४९ । ९६)। सात्यकिके साथ युद्ध करके घायल होना (द्रोण० ११६। दुर्जया-दुर्जय मणिमती नगरी, जिसे दुर्जया भी कहते हैं २-७)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १३५ । (बन० ९६।१)। (कुछ आधुनिक समीक्षोंने ३६)।
'इलोरागुफा' को ही दुर्जया माना है । यह स्थान निजाम दुन्दुभि-एक राक्षस, जिसे भगवान् शङ्करने वर दिया और राज्यमें दौलताबादसे सात मील और नन्दगाँवसे चालीस
वे ही इसके विनाशमें भी समर्थ हुए (अनु.१४।। मीलपर स्थित है।) २१४)।
दुर्धर्ष (दुर्मद )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (मादि. दुन्दुभिस्वन-कुशद्वीपमें मुनिदेशके बादका देश (भीष्म. ६७ । ९४, आदि० १०६।३)। भीमसेनद्वारा इसका १२।१५)।
वध (द्रोण.१५५ । १०)।
मजाला
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दुर्मद
दुर्मद- धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक ( आदि० ६७ । ९६६ आदि० ११६ | ५ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण ० १३५ । ३६ ) ।
दुर्मर्षण - धृतराष्ट्रका एक महारथी पुत्र ( आदि० ६३ । ११९; आदि० ६७ । ९५; आदि० ११६ । ३ ) । इसका भीमसेनके साथ युद्ध ( मीष्म० ११३ अध्यायः द्रोण० २५ । ५-७ | अर्जुनसे लड़नेका उत्साह प्रकट करना ( द्रोण० ८८ । ११ - १३ ) । अर्जुनद्वारा इसकी गजसेनाका संहार और पलायन ( द्रोण० ८९ अध्याय ) । इसका सात्यकिके साथ युद्ध और उनके द्वारा घायल होना ( द्रोण० ११६ । ६-८ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण० १३५ । ३६ ) | दुर्मर्षणका सुन्दर महल माद्रीकुमार नकुलको रहनेके लिये दिया गया ( शान्ति० ४४ । १०-११ ) ।
दुर्मुख - ( १ ) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ६७। ९३; आदि० ११६ | ३ ) । यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था ( आदि० १८५ । १) । यह द्वैतवन में गन्धवद्वारा बंदी बनाया गया ( वन० २४२ । १२ ) । प्रथम दिनके संग्राममें इसका सहदेव के साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म ४५ । २५-२७ ) । अभिमन्युके द्वारा इसके सारथिका वध ( भीष्म० ४७ । १२ ) । इसके द्वारा श्रुतकर्माकी पराजय ( भीष्म० ७९ । ३५-३८ ) । अभिमन्युद्वारा पराजित होना ( भीष्म० ८४ । ४२ ) । घटोत्कच के साथ द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ११० । १३ - १४; भीष्म० १११ । ३७–३९ ) । धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध ( द्रोण० २० । २६ - २९ ) । पुरुजित् के साथ युद्ध ( द्रोण ०२५ । ४०-४१ )। सहदेवके साथ युद्ध ( द्रोण० १०६ । १३ ) | सहदेवद्वारा पराजित होना ( द्रोण० १०७ । २५ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण० १३४ । २०-२१ ) । इसके द्वारा पर्वतीय राजा जनमेजयके वधकी चर्चा ( कर्ण० ६ । १९ - २० ) । इसका सुन्दर भवन सहदेवको रहने के लिये दिया गया था (शान्ति ०४४।१२१३) । (२) (दुर्मर्षण) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ६७।९५ ) | दुर्मर्षण नामसे भीमसेनद्वारा इसका वध (शल्य० २६ । ९-१०) । (३) एक राजा, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होता था ( सभा० ४ । २१ ) | ( ४ ) एक असुर, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० ९ । १३ ) | ( ५ ) पाण्डवपक्षका एक योद्धा, जो कर्णके वशमें पड़ गया था ( कर्ण ० ७३ । १०४ ) | ( ६ ) एक सर्प, जो स्वधामको पधारते समय बलरामजीके स्वागत के लिये प्रभासक्षेत्रमें आया था ( मौसल० ४ । १६ )। दुर्योधन - ( १ ) धृतराष्ट्र और गान्धारीके सौ पुत्रोंमेंसे
( १४४ )
दुर्योधन
एक, जो सबसे बड़ा था । यह अपने ग्यारह महारथी भाइयो प्रधान था ( आदि० ६३ । ११८-१२० ) । यह कुरुकुलको कलङ्कित करनेवाला, दुर्बुद्धि तथा खोटे विचार रखनेवाला था और कलिके अंशसे उत्पन्न हुआ
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था ( आदि० ६७ । ८७ ) । दुर्योधनके द्वारा प्रज्वलित की हुई वैरकी भारी आग असंख्य प्राणियों के विनाशका कारण बन गयी। इसके सौ भाइयों की उत्पत्ति पुलस्त्यकुलके राक्षसों के अंशसे हुई थी ( आदि० ६७ । ८८-८९ )। इसकी उत्पत्तिकी कथा ( आदि० ११४ । ९ - २५ ) । इसके जन्म समय में प्रकट हुए अमाङ्गलिक अपशकुन ( आदि० ११४ । २७ - २९ ) । इसके जन्म कालिक अमङ्गलकारी उपद्रवोंको देखकर इसे कुल-संहारक बताते हुए इसे त्याग देनेके लिये धृतराष्ट्रको विदुरकी सलाह ( आदि० ११४ । ३४-३९ ) । जिस दिन भीमसेनका जन्म हुआ, उसी दिन दुर्योधनका भी हुआ ( आदि० १२२ । १९ ) | इसके द्वारा गङ्गातटवर्ती प्रमाण कोटि तीर्थ में जलक्रीडाका आयोजन और विष खिलाकर बेहोश किये हुए भीमसेनका जलमें प्रक्षेप ( आदि १२७ । २७-५४ ) । इसका भीमसेनके सारथिको उसका गला घोंटकर मार डालना (आदि० १२८ । ३६) । भीमसेनके भोजनमें पुनः कालकूट विष डलवानेका कुकृत्य ( आदि० १२८ । ३७ ) । इसकी गदायुद्ध में प्रवीणता ( आदि० १३१ । ६१ ) । इसका रणभूमिमें अस्त्रकौशल दिखाना ( आदि० १३३ । ३२-३५ ) । भीमसेनके साथ गदा- युद्ध करते हुए इसका अश्वत्थामाद्वारा निवारण ( आदि० १३४ । ५ ) । इसके द्वारा कर्णका राज्याभिषेक ( आदि० १३५ । ३८ ) । इसकी कर्णसे अटल मित्रताके लिये याचना ( आदि० १३५ । ४० ) । कर्णका पक्ष लेकर इसका भीमसेन एवं पाण्डवोंपर आक्षेप ( आदि० १३६ । १०-१८ ) द्रुपदद्वारा इसकी पराजय ( आदि० १३७ । २२ के बाद दा० पाठ) । युधिष्ठिरपर प्रजाका अनुराग देखकर इसकी चिन्ता (आदि० १४० । २९ ) । पाण्डवको वारणावत भेजने के विषय में दुर्योधन और धृतराष्ट्रका संवाद ( आदि० १४१ । ३-२४ ) । वारणावत में लाक्षागृह बनवाने तथा पाण्डवोंको जलानेके लिये इसका पुरोचनको आदेश ( आदि० १४३ । २१७) | द्रौपदीके स्वयंवर में इसका कर्ण और भाइयों सहित उपस्थित होना ( आदि० १८५ । १०४ ) । लक्ष्यवेधके लिये धनुषपर प्रत्यचा चढ़ाते समय इसका झटके से उत्तान गिरना और लज्जित हो अपने स्थानपर लौट जाना ( आदि० १८६ | २० के बाद ) । पाण्डवोंके विनाशके लिये इसके द्वारा धृतराष्ट्रके प्रति विविध उपायोंका कथन ( आदि० १९९ । २८-३१६ आदि० २०० । ४-२० ) ।
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दुर्योधन
( १४५ )
पाण्डवको आधा राज्य देनेके लिये इसे भीष्मकी सम्मति ( आदि ० २०२ । ५ - १९ ) । इसका युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें भाइयों सहित आना ( सभा० ३४ । ६)। युधिष्ठिरके लिये आयी हुई भेंट- सामग्रीको ग्रहण करना और सँभाल कर रखना ( सभा० ३५ । ९ ) । सबके विदा हो जानेपर भी युधिष्ठिरकी दिव्यसभा में दुर्योधन और शकुनि कुछ कालतक ठहरे रहे ( सभा० ४५ । ३८ ) । दुर्योधनामयनिर्मित सभाभवनको देखना और पगपगपर भ्रमके कारण उपहासका पात्र बनना तथा युधिष्ठिरके वैभव को देखकर इसका चिन्तित होना ( सभा० ४७ अध्याय ) | पाण्डवोंपर विजय प्राप्त करनेके लिये इसका शकुनिसे वार्तालाप ( सभा० ४८ अध्याय ) । इसका धृतराष्ट्र से अपनी चिन्ताका कारण बताना तथा जुएके लिये अनुरोध करना ( सभा० ४९ | १२ - ३६, ४२; सभा० ५० अध्याय ) । इसके द्वारा राजसूययज्ञमें युधिष्ठिर के लिये विभिन्न देशोंसे आयी हुई भेंटोंका धृतराष्ट्रके प्रति वर्णन ( सभा० अध्याय ५१ से ५२ तक ) । इसके द्वारा युधिष्ठिरके अभिषेकका अपने पिता के प्रति वर्णन ( सभा० १३ अध्याय) | इसका धृतराष्ट्रको उभाड़ना (सभा० अध्याय ५५ से ५६ तक ) । जुएके अवसरपर विदुरर्ज को इसकी फटकार तथा विदुरजीका इसे चेतावनी देना ( सभा ० ६४ अध्याय ) । द्रौपदीको पकड़कर सभाभवनमें लाने के लिये इसका विदुरको आदेश ( सभा० ६६ । १ ) । विदुरका इसे पुनः फटकारना ( सभा० ६६ । २- १२ ) । द्रौपदीको सभाभवनमें लाने के लिये इसका प्रातिकामीको आदेश ( सभा० ६७ । २ ) । द्रौपदीके प्रति इसके छल-कपटयुक्त वचन ( सभा० ७० । ३-६६ * सभा० ७१ । २० ) । इसके द्वारा अर्जुनकी वीरताका वर्णन ( सभा० ७४ । ६ के बाद ) । धृतराष्ट्रसे पुनः जुए के लिये इसका अनुरोध ( सभा० ७४ । ७-२३ )। पुरवासियोंद्वारा इसकी निन्दा ( वन० १ । १३-१७ ) । विदुर काम्यकवनसे लौट आनेपर इसकी चिन्ता ( वन० ७ । २ - ६) | इसे मैत्रेय ऋषिका शाप ( वन ० १० । ३४ ) । इसके द्वारा द्वैतवनको यात्राविषयक कर्णशकुनिकी मन्त्रणा स्वीकार करना ( वन० २३८ । २-१६ ) | घोषयात्राके लिये प्रस्थान ( वन० २३९ । २३) । गौओंकी देख-भाल करना और इसके सैनिकों का गन्धके साथ संवाद ( वन० २४० अध्याय ) | दुर्योधन आदि कौरवोंका गन्धर्वोके साथ युद्ध ( वन ० २४१ अध्याय ) । चित्रसेन आदि गन्धर्वोद्वारा दुर्योधन आदिकी पराजय तथा चित्रसेनका दुर्योधनको बंदी बनाना ( वन० २४२ । ६ ) | गन्धव के हाथसे छुड़ाने के लिये पाण्डवों के प्रति इसकी पुकार ( वन० २४३ । ११ के बाद
म० ना० १९
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दुर्योधन
दा० पाठ ) । इसका कर्णसे अपनी पराजयका समाचार बताना (वन० २४८ अध्याय) । कर्ण से अपनी ग्लानिका वर्णन करते हुए दुःशासनको राजा बननेका आदेश (चन० २४९ । १- २७ ) । इसका आमरण अनशनके लिये बैठना ( वन० २५१ । १९-२० ) । कृत्याद्वारा इसका रसातलमें पहुँचाया जाना ( वन० २५१ । २९ ) । दानवों तथा कर्णके द्वारा समझाये जानेपर इसका अनशन त्यागकर हस्तिनापुरको प्रस्थान ( वन० २५२ अध्याय ) । इसके वैष्णव यशका आरम्भ और समाप्ति ( वन० अध्याय २५५ से २५६ तक ) । इसका महर्षि दुर्वासको प्रसन्न करके युधिष्ठिरके आश्रमपर जानेके लिये वर माँगना ( वन० २६२ । १९-२३ ) | गुप्तचरोंद्वारा पाण्डवोंका पता न मिलनेपर मन्त्रियोंसे इसका परामर्श करना
( विराट० २६ । २-७ ) । मत्स्यदेशपर चढ़ाई करनेका निश्चय ( विराट० २९ । १४ के बाद दा० पाठ ) । मत्स्यदेशपर आक्रमण करने के लिये दुःशासनको आदेश देना ( विराट० ३० | २० - २४ ) | अपने सैनिकों को उभाड़ते हुए इसका अर्जुनसे युद्ध करनेका ही निश्चय ( विराट० ४७।२-१९ ) । कर्णकी बातोंसे कुपित हुए आचार्य वर्ग से इसका क्षमा माँगना ( विराट० ९१ । १६ ) | अर्जुन के साथ युद्ध और उनसे हारकर भागना ( विराट० ६५ अध्याय ) । श्रीकृष्ण से सहायता के रूपमें नारायणी सेना प्राप्त करना ( उद्योग ० ७।२३-२५)। इसका बलरामजी के पास सहायता मांगने के लिये जाना ( उद्योग ० ७ । २५ ) । कृतवर्मा के पास सहायता माँगने के लिये जाना ( उद्योग० ७ । ३२ ) । मार्ग में शल्यका सत्कार करके उनके प्रसन्न होनेपर अपने पक्षमें आनेके लिये उनसे प्रार्थना ( उद्योग० ८ । १८ ) । इसके पास ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं का संग्रह ( उद्योग० १९ । २७ । धृतराष्ट्रसे अपने पक्ष के वीरोंका वर्णन करते हुए अपना उत्कर्ष तथा पाण्डवोंका अपकर्ष बतलाना ( उद्योग० ५५ अध्याय ) । संजयसे पाण्डवोंके रथ तथा घोड़ों के विषय में प्रश्न ( उद्योग० ५६ । ६) । धृतराष्ट्र से अपनी प्रबलताका प्रतिपादन ( उद्योग० ५७।३६-४२) । युद्धको यज्ञका रूप देकर युद्ध करनेका ही निश्चय करना ( उद्योग० ५८ । १०- १८ ) । धृतराष्ट्रको ढाढ़स बँधानेके लिये आत्मप्रशंसा करना ( उद्योग० ६१ अध्याय ) । भीष्मजी से अपने पक्षकी प्रबलता बताना ( उद्योग० ६३ । १-८ ) । श्रीकृष्णके सत्कार के लिये मार्ग में विश्राम स्थान बनवाना ( उद्योग० ८५ । १२१७ ) | श्रीकृष्णको कैद करनेका विचार प्रकट करना ( उद्योग० ८८ । १३ ) । अपना निमन्त्रण अस्वीकार कर देनेवर श्रीकृष्णसे उसका कारण पूछना ( उद्योग ०
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दुर्योधन
९१ । १३–१५ ) । कण्वका दुर्योधनको मातलीयोपाख्यान सुनाना और संधिके लिये समझाना तथा इसके द्वारा कण्वमुनिके उपदेशकी अवहेलना (उद्योग० ९७ अध्याय से १०५ अध्यायतक ) । कौरवसभामें श्रीकृष्णको उत्तर देते हुए पाण्डवको सूईकी नोंक बराबर भी भूमि न देनेका निश्चय करना ( उद्योग० १२७ अध्याय ) । कैदकी सम्भावना से इसका कौरवसभासे चला जाना ( उद्योग ० १२८ | २५-२७ ) | श्रीकृष्णको कैद करनेका षड्यन्त्र ( उद्योग० १३० । ४-८ ) । रणयात्राके लिये सेनाको आज्ञा देना ( उद्योग० १५३ । ८-१७) । इसके द्वारा अपने सेनापतियोंका निर्वाचन और अभिषेक ( उद्योग ० १५५ | ३१–३३ ) | इसका भीष्मको प्रधान सेनापतिके पदपर अभिषिक्त करना ( उद्योग० १५६ । २६ ) । रुक्मीकी सहायता लेने से इनकार करना ( उद्योग० १५८ | (३७) । उलूकको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजना और श्रीकृष्ण, पाण्डव, द्रुपद, विराट, शिखण्डी और धृष्टद्युम्न आदिको कटुवचनोंद्वारा संदेश कहलाना ( उद्योग ० १६० अध्याय ) । भीष्मसे कौरवपक्ष के अतिथियों का नाम पूछना ( उद्योग० १६५।१२-१६) । भीम पाण्डवपक्ष के अतिरथियोंकी जानकारी प्राप्त करना (उद्योग० १६८ । ३९-४२ ) । शिखण्डीको न मारनेके
भीष्मसे इसका प्रश्न ( उद्योग ० १७३ । १-२ ) । भीष्मसे शिखण्डीका जन्मवृत्तान्त पूछना ( उद्योग० १८८५ ) । अपने पक्षके वीरोंसे उनकी शक्तिके विषयमें पूछना ( उद्योग० १९३ । २- ७ ) । कुरुक्षेत्रके मैदान में चलने के लिये सेनाको आशा देना ( उद्योग० १९५ अध्याय ) । भीष्मकी रक्षाके लिये दुःशासनको आदेश ( भीष्म १५ । १२ -२० ) । इसका मणिमय महान् ध्वज नाग-चिह्न से विभूषित था ( भीष्प्र० १७ । २५-२६) । युद्ध के लिये जाते समय गजारूढ़ दुर्योधन और उसके गजकी छटाका वर्णन ( भीष्म० २० । ७-८ ) । द्रोणाचार्य से दोनों पक्षोंके प्रधान प्रधान वीरोंका वर्णन करना ( भीष्म० २५ । ७-११) । प्रथम दिनके संग्राम में भीमसेन के साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ४५ । १९–२१ ) । भीमसेन के बाणोंसे आहत होकर इसका मूच्छित होना ( भीष्म० ५८ । १७)। भीमको उलाहना देना ( भीष्म० ५८ । ३४ - ४० ) । गजसेना के साथ भीमसेनपर आक्रमण भीष्म० ६२ । ३५ ) | भीमसेनके साथ युद्ध करके इन्हें मूच्छित कर देना ( भीष्म० ६४ । १६- २३ ) | पाण्डवों के विशिष्ट पराक्रमके विषय में भीष्मसे प्रश्न ( भीष्म० ६५ । ३१ - ३४ ) । भीमसेनके साथ युद्ध ( भीष्म० ७३ । १७- २३ ) । भोमसेनद्वारा इसका पराजित और मूच्छित
( १४६ )
दुर्योधन
होना ( भीष्म० ७९ । ११ - १६ ) । भीमसेनके पराक्रमसे भयभीत होकर इसकी भीष्मसे प्रार्थना ( भीष्म ८० । ४-६ ) । धृष्टद्युम्नद्वारा इसका पराजित होना ( भीष्म० ८२ । ५३ ) । भीमसेनद्वारा एक साथ आठ भाइयोंके मारे जाने से भीष्म के पास जाकर इसका विलाप करना ( भीष्म० ८८ । ३७-३८ ) । घटोत्कचके साथ इसका युद्ध और उसके साथी चार राक्षसोका इसके द्वारा वध ( भीष्म० ९१ । २०-२१ ) । घटोत्कचके प्रहारसे इसका प्राण संकटको स्थिति में पड़ जाना ( भीष्म० ९२ । १४ ) । इसके प्रहारसे भीमसेनका मूर्च्छित होना ( भीष्म० ९४ । ५-६ ) । घटोत्कचसे पराजित होकर भोप्यसे दुःख प्रकट करना ( भीष्म ९५ । ३ - १५ ) । भोष्मसे पाण्डवोंको मारने अथवा कर्णको युद्धके लिये आज्ञा देनेका अनुरोध करना ( भीष्म० ९७ । ३६ - ४२ ) । भीष्मकी रक्षाकी व्यवस्थाके लिये दुःशासनको आदेश ( भीष्म० ९८ । ३१-४२; भो०म० १०५ । २-६ ) । शल्यको युधिष्ठिरको रोकने के लिये आदेश देना ( भीष्म० १०५ ॥ २६ - २८ ) । अपनी सेनाको मारी जाती देख भीमसे इसकी प्रार्थना ( भीष्म० १०९ । १६-२३ ) । सात्यकिके साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ११० । १४; भीष्म० १११ । १४–१८ ) । अभिमन्यु के साथ युद्ध ( भीष्म० ११६ । १-८ ) । इसके द्वारा अपने सैनिकोंको प्रोत्साहन ( भीष्म० ११७ । २६-३० ) । सेनापतिकी आवश्यकताका वर्णन करते हुए कर्ण से अनुमति लेना ( द्रोण० ५। ५ - १२ ) । द्रोणाचार्य से सेनापति होनेके लिये प्रार्थना करना ( द्रोण० ६ । २-११ ) । इसके द्वारा द्रोणाचार्यका सेनापति के पदपर अभिषेक ( द्रोण० ७।५ ) | युधिष्ठिरको जीवित पकड़ लाने के लिये द्रोणाचार्यसे वर माँगना ( द्रोण० १२ । ६ ) । पाण्डवोंकी सेनाको द्रोणाचार्यद्वारा विचलित हुई देख कर्ण से इसका हर्षपूर्ण वार्तालाप (द्रोण० २२ । ११-१७) । द्रोणाचार्यको उपालम्भ देना ( द्रोण० ३३ । ७ -९ ) । अभिमन्युको मारनेके लिये अपने महारथियोंको आदेश देना ( द्रोण० ३९ | १६ - १९ ) । अभिमन्युसे युद्ध करनेके लिये कर्णको प्रेरित करना ( द्रोण० ४० । २३ - २५ ) । अभिमन्युके प्रहारसे पीड़ित होकर भागना ( द्रोण० ४५ | ३० ) । अर्जुन के भय से भीत जयद्रथको इसका आश्वासन ( द्रोण० ७४ । १४ - २० ) । द्रोणाचार्यको उपालम्भ ( द्रोण० ९४ । ४-१८ ) । अर्जुन से युद्ध करनेमें अपनो असमर्थता प्रकट करना ( द्रोण० ९४ । २७ - ३२ ) । द्रोणाचार्यद्वारा बाँधे गये दिव्य कवचसे युक्त होकर युद्धके लिये जाना ( द्रोण०
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दुर्योधन
९४ । ७३-७५ ) । अर्जुनको युद्धके लिये ललकारना ( द्रोण० १०२ । ३६-३८ ) । अर्जुनके साथ युद्ध में पराजित होकर भागना ( द्रोण० १०३ । ३२ ) । इसके ध्वजका वर्णन (द्रोण० १०५ | २६ - २८ ) । सात्यकिद्वारा इसकी पराजय ( द्रोण० ११६ । २४-२५ ) । सात्यकिसे हारकर भाइयोसहित भागना ( द्रोण० १२० । ४३-४४ ) | पाण्डवोंके साथ संग्राम ( द्रोण० १२४ । ३२- ४२ ) । द्रोणाचार्यको उपालम्भ देना ( द्रोण १३० । ४-१२ ) । युधामन्यु और उत्तमौजाके साथ युद्ध ( द्रोण० १३० । ३०-४३ ) | अर्जुनके वधके लिये कर्णको प्रोत्साहित करना ( द्रोण० १४५ । १२-३३ ) । अर्जुनके साथ युद्ध ( द्रोण० १४५ अध्याय ) । जयद्रथवध के बाद खेद प्रकट करते हुए द्रोणाचार्यको उपालम्भ देना ( द्रोण० १५० अध्याय ) । कर्ण से वार्तालापके प्रसंग द्रोणाचार्यपर दोषारोपण ( द्रोण० १५२ । २- १४ ) । युधिष्ठिर के साथ युद्ध और पराजय ( द्रोण० १५३ । २९-३९ ) । कर्णसे अपनी सेनाकी रक्षा के लिये अनुरोध ( द्रोण० १५८ । २ - ४ ) । कर्णको मार डालनेके लिये उद्यत हुए अामाको मनाना ( द्रोण० १५९ । १३-१५ ) । अश्वत्थामा से पाञ्चालोको मारनेके लिये अनुरोध ( द्रोण० १५९ । ८६ - १०० ) । पैदल सैनिकोंको प्रदीप जलानेका आदेश ( द्रोण० १६३ । १२ ) । द्रोणाचार्यकी रक्षा के लिये सैनिकोंको आदेश (द्रोण० १६४।२१-३०)। भीमसेनसे युद्ध और पराजित होकर भागना ( द्रोण० १६६ । ४३-९८ ) । कर्णकी सलाह से शकुनिको पाण्डवोंका वध करनेके लिये भेजना (द्रोण० १७० । ६२-६५)। सात्यकिद्वारा पराजय ( द्रोण० १७१ । २३ ) । द्रोणाचार्य और कर्णको उपालम्भ ( द्रोण० १७२ । ३
| जटासुरके पुत्र अलम्बुषको घटोत्कच के साथ युद्धके लिये आज्ञा देना (द्रोण० १७४ । ९ - ११ ) । कर्णको घटोत्कचके चंगुल से छुड़ाने के लिये अलायुधको प्रेरित करना ( द्रोण० १७७ । ९--१३ ) । अलायुधके वधसे पश्चात्ताप करना ( द्रोण० १७८ । ३६ -४० ) । द्रोणाचार्यको उपालम्भ देना ( द्रोण० १८५ । २–८; द्रोण ० १८५ | २२-२३ ) | नकुलके साथ युद्ध और उनसे परास्त होना (द्रोण० १८७ | ५० - ५५ ) । सात्यकि के साथ संवाद और युद्ध ( द्रोण० १८९ । २३ - ४८ ) । द्रोणाचार्य के मारे जानेपर युद्ध-स्थलसे भागना ( द्रोण० १९३। १७ ) । अश्वत्थामा से द्रोणवधका समाचार सुनाने के लिये कृपाचार्यको आदेश देना ( द्रोण० १९३ ॥ ३५) । अश्वत्थामा से पुनः नारायणास्त्र प्रकट करनेको कहना ( द्रोण० २०० । २५ ) । सात्यकिद्वारा इसकी
( १४७ )
दुर्योधन
મૈં ૪
पराजय ( द्रोण० २०० ५३ ) | अपनी सेनाको आश्वासन देना ( कर्ण० ३ । ७ -- १७) । कर्णसे सेना - पति बनने के लिये प्रार्थना करना ( कर्ण० १० २८३७ ) । कर्णको सेनापतिके पदपर अभिषिक्त करना ( कर्ण ० १० । ४३ ) । युधिष्ठिर के साथ युद्ध में इसकी पराजय ( कर्ण० २८ । ७-८; कर्ण० २९ । ३२ ) । कर्णके कथनानुसार व्यवस्थाके लिये उद्यत होना ( कर्ण० ३१ । ७१-७२ ) । कर्णका सारथ्य करने के लिये शल्यसे प्रार्थना ( कर्ण० ३२ । २ - २९ ) । शल्यके कुपित होकर उठ जानेपर उनकी प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न करना ( कर्ण० ३२ । ५४ - ६२ ) । शल्यसे त्रिपुरोपाख्यानका वर्णन ( कर्ण० ३३ अध्याय से १२१ तक ) । इसके द्वारा कर्णको परशुरामद्वारा दिव्यास्त्र प्रातिका वर्णन ( कर्ण ० ३४ । १२३ – १६२ ) । शल्यको कर्णका सारथि बननेके लिये समझाना ( कर्ण० ३५ अध्याय ) | नकुल सहदेवको अपने पराक्रमसे किंकर्तव्यविमूढ़ कर देना ( कर्ण० ५६ । ७–१८ ) । धृष्टद्युम्न के साथ युद्ध में परास्त होना ( कर्ण० ५६ । ३४३५ ) । अपने सैनिकों को प्रोत्साहन देना ( कर्ण ० ५७ । २-४ ) । भीमसेनद्वारा पराजित होना ( कर्ण० ६१ । ५३ - ६२ ) । कर्णसे अपनी सेनाकी रक्षा के लिये कहना ( कर्ण० ६४ । ४०-४२ ) । इसके द्वारा कुलिन्दराजकुमारका वध ( कर्ण० ८५ । १४ ) । अश्वत्थामाद्वारा किये गये संधिके प्रस्तावको न मानना ( कर्ण० ८८ । ३० - ३३ ) । कर्णकी मृत्युसे दुखी होना ( कर्ण ० ९२ । १५ ) | अपने सैनिकोंको ढाढ़स बँधाना ( कर्ण० ९३ । ५२–५९ ) । संधिके लिये समझाते हुए कृपाचार्यको उत्तर देना और युद्धका ही निश्चय करना ( शल्य ० ५ अध्याय ) । अश्वत्थामा के पास जाकर सेनापति के पद के लिये पूछना ( शल्य० ६ । १७-१८ ) । शल्यसे सेनापति बनने के लिये प्रार्थना ( शल्य० ६ । २५२६ ) । शल्यको सेनापति पदपर अभिषिक्त करना ( शल्य० ७ । ६-७ ) । इसके द्वारा चेकितानका वध ( शल्य० १२ । ३१-३२ ) । भीमसेनद्वारा पराजित होना ( शल्य० १६ । ४२-४४ ) । अपनी सेनाको उत्साहित करना ( शल्य० १९ । ५८-६६ ) । इसका अद्भुत पराक्रम ( शल्य० २२ अध्याय ) । धृष्टद्युम्न द्वारा पराजित होना ( शल्य० २५ | २३ ) । अकेले भागकर सरोवर में प्रवेश करना और मायासे उसका पानी बाँध देना ( शल्य० २९ । ५४ ) । कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा के कहने पर भी युद्धसे उदासीनता प्रकट करना ( शल्य० ३० । १४-१८ ) । जलमें छिपे छिपे युधिष्ठिरसे वार्तालाप करना (शल्य० ३३ । ३८ - ५३ ) | युधिष्ठिर के
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दुर्योधन
( १४८ )
दुर्वासा
ललकारनेपर इसका जलसे बाहर निकलना (शल्य०३२। अपनी पुत्री सुदर्शनाको अग्निदेवके हाथों सौपना (अनु० ३३--३९)। कवच आदिसे सुसजित होकर इसका २।३४)। किसी एक पाण्डवके साथ युद्ध के लिये उद्यत होना दर्वारण-काम्बोज सैनिकोंका नाम । सात्यकिद्वारा इनका (शल्य० ३२ । ६६-७१)। भीमसेनके साथ गदा- वर्णन (द्रोण० ११२ । ४२-४३)। युद्ध के लिये उद्यत होना (शल्य. ३३ । ५२-५५)। दर्वासा-कठोर व्रतका पालन करनेवाले तथा धर्मके विषयमे भीमसेनके साथ गदायुद्धके लिये उद्यत होनेपर अपशुकन अपने निश्चयको सदा गुप्त रखनेवाले एक ब्राह्मण महर्षि (शल्य० ५६ । ८-१४)। भीमसेनके कटु वचनोंका
जो बड़े ही उग्र स्वभावके थे ( आदि. ११०। ४-५)। उत्तर (शल्य. ५६ । ३८--४१)। भीमसेनके साथ
कुन्तीद्वारा इनकी परिचर्या (आदि. ११०।४)। भयङ्कर गदा-युद्ध (शल्य० ५७ अध्याय)। भीमसेनकी इनके द्वारा कुन्तीको देवताओंके वशीकरण-मन्त्रका गदाकी चोटसे जाँघ टूट जानेपर इसका पृथ्वीपर गिरना उपदेश (आदि० ११० । ६)। ये भगवान् शङ्करके (शल्य०५८। ४७-४८)। श्रीकृष्णद्वारा किये गये
अंशभूत श्रेष्ठ द्विज हैं (आदि० २२२ । ५२)। राजा आक्षेपोंका उत्तर देना (शल्य०६१ । २७-३९)। श्वेतकिके शतवर्षीय यज्ञका सम्पादन करने के लिये इनको अपने कार्यपर संतोष प्रकट करना (शल्य०६१ । ५०- भगवान् शङ्करका आदेश और इनका उस आदेशको ५४)। संजयके सामने विलाप करना (शल्य०६४। शिरोधार्य करना (आदि० २२२ । ५५-५८) । इनके ७--२९)। संदेशवाहकोंको संदेश देना (शल्य० ६४ । द्वारा श्वेतकिके यज्ञका सम्पादन (आदि० २२२ । ५९)। ३०--४०)। अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्माके ये इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं (सभा० ७ । सामने अपने कार्यपर संतोष प्रकट करना (शल्य. ६५। ११)। ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते २३-३.)। अश्वत्थामाको सेनापति बनाना (शल्य० हैं (सभा० १५ । २३)। इन्होंने जहाँ भगवान् ६५। ४१)। अश्वत्थामाके कर्मकी प्रशंसा करके प्राण- श्रीकृष्णको वरदान दिया था, वह स्थान वरदानतीर्थके त्याग करना ( सौप्तिक० ९ । ५६-५७ )। कर्णकी नामसे प्रसिद्ध हुआ (वन० ८२ । ६३-६४)। इनके सहायतासे इसके द्वारा कलिङ्गराजकी कन्याके अपहरणकी द्वारा महर्षि मुद्गलके दान-धर्म आदिकी छः बार परीक्षा चर्चा (शान्ति०४ । १३)। राजा दुर्योधनका सजा- (वन० २६० । १२-२१)। इनके द्वारा दुर्योधनको सजाया भवन वीरवर भीमसेनको रहनेके लिये दिया गया
वर प्रदान (वन० २६२ । २३)। इनका पाण्डवोंके (शान्ति० ४४ । ६-७ ) धृतराष्ट्रसे शीलके सम्बन्धमें आश्रमपर जाना (वन० २६३ । १-२)। स्नानके लिये इसके प्रश्नकी चर्चा (शान्ति० १२४ । १८--६४)। गये हुए इनका पूर्ण तृप्तिका अनुभव करनेके कारण व्यासजीके आवाहन करनेपर गङ्गाजलसे भाइयोसहित प्रकट पाण्डवोंके यहाँ न जाकर शिष्योसहित वहींसे पलायन होकर इसका धृतराष्ट्र आदि स्वजनोंसे मिलना (आश्रम ( वन० २६३ । २९)। राजा कुन्तिभोजके यहाँ ३२ । ९)। स्वर्गमें राजा दुर्योधन सूर्यके समान तेजस्वी आगमन और शर्तके साथ निवास (वन० ३०३ । ७-८)।
और वीरोचित शोभासे सम्पन्न हो पुण्यकर्मा देवताओंके इनके द्वारा कुन्तीको अथर्ववेदीय उपनिषदोंमें प्रसिद्ध साथ बैठा था, जिसे युधिष्ठिरने प्रत्यक्ष देखा ( स्वर्गा० मन्त्रका दान ( वन० ३०५ । २०)। पत्नीसहित
श्रीकृष्णद्वारा दुर्वासाको आराधना और इनका उन्हें वर महाभारतमें आये हुए दुर्योधनके नाम-आजमीढ, देना (द्रोण० ११।९)। इनका श्रीकृष्णका आतिथ्य
भारत, भरतशाल, भरतश्रेष्ठ, भारताग्रय, भरतर्षभ, स्वीकार करके उनके क्रोकी परीक्षा करना (अनु. भरतसत्तम, भारतसत्तम, धार्तराष्ट्र, धृतराष्ट्रज, धृतराष्ट्रपुत्रः १५९ । १८-३६)। श्रीकृष्णकी सेवासे प्रसन्न होकर धृतराष्ट्रसूनु, धृतराष्ट्रसुत, धृतराष्ट्रात्मज, गान्धारि, रुक्मिणीसहित उन्हें वर देना तथा श्रीकृष्णने जो इनकी गान्धारीपुत्र, कौरव, कौरवश्रेष्ठ, कौरवनन्दन, कौरवात्मज, जूटनको अपने पैर में नहीं लगाया था, उसे अप्रिय कार्य कौरवेन्द्र, कौरव्य, कौरवेय, कुरु, कुरुश्रेष्ठ, कुरूद्वह, बताना ( अनु० १५९ । ३७-४८)। महापराक्रमी कुरुकुलश्रेष्ठ, कुरुकुलाधम कुरुमुख्य, कुरुनन्दन, कुरुपति, भगवान् शिव ही दुर्वासा नामक ब्राहाण बनकर द्वारकापुरीमें कुरुप्रवीर, कुरुपुङ्गव, कुरुराज, कुरुसत्तमः कुरुसिंह। श्रीकृष्णभवनमें टिके रहे (अनु० १६० । ३७)। कुरूत्तम, कुरुवर्धन, सुयोधन आदि ।
कुन्तीद्वारा क्रोधी एवं तपस्वी दुर्वासाकी आराधना और (२) मनुवंशी सुवीरकुमार दुर्जयके पुत्र (अनु० २ । उनके द्वारा कुन्तीको वरकी प्राप्तिके प्रसंगकी चर्चा
१३)। उनके द्वारा नर्मदानदीके गर्भसे परम सुन्दरी (आश्रम ३० । २-६)। मौसलकाण्डमें यदुवंशसुदर्शनानामक कन्याका जन्म ( अनु० २ । १९)। इनका विनाशके पश्चात् एक जगह बैठे हुए श्रीकृष्णने दुर्वासाके
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दुर्विगाह
उस कथनका स्मरण किया था, जिसे इन्होंने खीर के उच्छिष्ट भागको पैर में न लगानेके कारण इनसे कहा था ( मौसल ० ४। १९ ) ।
दुर्विगाह ( दुर्विष ) - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ११६ | ५ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( शल्य ० २६ । २० ) । (देखिये- दुर्विषह )
( १४९ )
दुर्विभाग - एक देश, जहाँ के उत्तम कुलमें उत्पन्न क्षत्रिय राजकुमारोंने युधिष्ठिरको राजसूययज्ञके अवसरपर बहुत धन अर्पित किया था ( सभा० ५२ । ११ - १७ ) । दुर्विमोचन - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक, भीमसेनद्वारा इसका वध ( शल्य० २६ । १६ ) । दुर्बिरोचन - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ । ९७ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण० १२७ । ६२ )।
दुर्विषह- धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक, इसका दूसरा नाम दुर्विगाह था ( आदि० ११६ । ५ ) | यह द्रौपदीके स्वयंवर में गया था ( आदि० १८५ । १) । यह द्वैतवनमें गन्धर्वोद्वारा बंदी बनाया गया था ( वन० २४२ । १२ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( शल्य० २६ । २० ) ।
दुलिदुह - एक प्राचीन राजा ( आदि० १ । २३३ ) । दुष्कर्ण - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमें से एक ( आदि० ६७ । ९५६ आदि० ११६ । ३ ) । शतानीकद्वारा इसका पराजित होना ( भीष्म० ७९ । ४६ - ५२ ) । भीमसेनद्वारा वध (द्रोण० १५५ । ४० ) ।
दुष्पराजय ( दुर्जय ) - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ११६ । ९ ) । द्वैतवन में गन्धर्वोद्वारा इसका बंदी बनाया जाना ( वन० २४२ । १२ ) । नीलके साथ युद्ध ( द्रोण० २५ । ४५ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण० १३३ । ४१-४२ ) । good (e) - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ । ९६ ) भीमसेनद्वारा इसका वध ( शल्य० २६ । १८-१९ ) ।
दुष्प्रधर्षण - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ । । यह द्रौपदी के स्वयंवर में गया था ( आदि० १८५ । १ ) ।
९४
दुष्यन्त - ( १ ) पूरुवंश के एक सुप्रसिद्ध राजा, चक्रवर्ती सम्राट् ( आदि० ६८ । ३ ) । इनके राज्यकाल में प्रजाजनों की धार्मिकताका वर्णन ( आदि ० ६८ । ६-११ ) । इनकी भगवान् विष्णु के समान शारीरिक शक्ति, सूर्यतुल्य तेज एवं गदायुद्धकी कुशलता आदि० ६८ ।
दूषण
११-१३ ) । इनकी मृगयाका वर्णन ( आदि० ६९। १–३१ ) । इनका कण्वके मनोहर आश्रम में प्रवेश तथा वहाँकी शोभाका निरीक्षण ( आदि० ७० । २४ -५१ ) । कण्वके आश्रम में इनकी शकुन्तलासे भेंट | उसे अपना परिचय देकर उसके प्रति प्रेम प्रकट करना एवं उससे उसका परिचय पूछना ( आदि० ७१ । ३-१३ ) । शकुन्तलाके कण्वपुत्री कहकर परिचय देनेपर इनका मुनिको ऊर्ध्वरेता बताकर इस बातपर संशय प्रकट करना ( आदि० ७१ । १४-१७) । शकुन्तलाका इनसे अपने जन्मका विस्तृत परिचय देना ( आदि० ७१ । १८ से ७२ अध्यायतक ) । इनका शकुन्तलाको अपनी भार्या बनने के लिये प्रेरित करना और विवाह आठ भेद बतलाकर उसके साथ गान्धर्वविवाह का समर्थन करना (आदि० ७३ । १ - १४ ) । शकुन्तला के साथ इनका गान्धर्वविवाह और समागम तथा उसे राजधानी में शीघ्र बुला लेनेके लिये आश्वासन ( आदि० ७३ | १९–२१ और दा० पाठ ) । इनके द्वारा शकुन्तलाके गर्भसे भरतकी उत्पत्ति ( आदि० ७४ । १-२ ) । इनका शकुन्तलाको अस्वीकार करना ( आदि० ७४ । १९२० ) । शकुन्तलाका इनके प्रति धर्मकी याद दिलाना, असत्य भाषण और अधर्मसे भय बताना तथा पत्नी एवं पुत्रकी महिमा बतलाते हुए पुत्रको अङ्गीकार करने के लिये रोषपूर्ण अनुरोध करना ( आदि०७४ । २५७२ ) । इनके द्वारा शकुन्तलाकी भर्त्सना ( आदि० ७४। ७३–८१ ) । इनके प्रति शकुन्तलाद्वारा सत्य - धर्मकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन ( आदि० ७४ । १०११०७) । आकाशवाणीद्वारा इनके समक्ष शकुन्तला की उक्तिका समर्थन करनेपर इनका उसको अङ्गीकार करना ( आदि० ७४ । १०९ - १२६ ) । सौ वर्षोंतक राज्य भोगने के बाद इनका स्वर्गगमन ( आदि० ७४ । १२६ के बाद दा० पाठ ) | ये ईलिनके पुत्र थे, इनकी माताका नाम रथन्तरी था ( आदि० ९४ । १७ ) । ये यमकी सभा में रहकर सूर्यपुत्र भगवान् यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । १५ ) । इन्होंने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५ । ६४ )। ( २ ) पूरुवंशी महाराज अजमीढके द्वारा 'नीली' के गर्भ से उत्पन्न, इनके दूसरे भाईका नाम 'परमेष्ठी' था ( आदि० ९४ । ३२ ) । दुष्यन्त और परमेष्ठी सभी पुत्र 'पाञ्चाल' कहलाये ( आदि० ९४ । ३३ )।
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दूषण - जनस्थाननिवासी एक राक्षस, जो श्रीरामद्वारा मारा। गया ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७९४, कालम २; वन० २७७ । ४४ ) ।
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(१५० )
देवकी
.
दृढ (१) ( दृढवर्मा ) धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( देखिये (आदि० ७५ । २५) । (२) एक राजा, जिन्हें ___ दृढवर्मा)।
पाण्डवोंकी ओरसे रण-निमन्त्रण भेजनेका विचार किया दृढ (२) (दृढक्षत्र ) धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( देखिये
गया था ( उद्योग. ४ । २३)। (३) एक ब्रह्मर्षि, दृढक्षत्र)।
जो सदा दक्षिण दिशामें निवास करते हैं (अनु० १६५। दृढक्षत्र ( दृढ)-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक ( आदि.
४०)। ( दक्षिण दिशावासी ऋषियोंका वर्णन तीन ६ ७ ९९आदि. ११६ । ८)। भीमसेनद्वारा
स्थानों में आता है। सभी जगहोंके नाम किञ्चित् अन्ताके
साथ प्रायः मिलते हैं। इन्हें देखनेसे दृढव्य, दृढव्रत और इसका वध (द्रोण. १५७ । १७-१९)।
दृढायु तीनों नाम एक ही ऋषिके जान पड़ते हैं ) दृढधवा-एक पूवंशीय क्षत्रिय, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें उपस्थित था (आदि० १८५। १५)।
दृढायुध ( चित्रायुध )-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक
( आदि. ६७ । ९९; आदि. ११६।८)। चित्रायुध दृढरथ ( दृढरथाश्रय )-(१) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से
नामसे इसका वध (द्रोण १३६ । २०-२२)। एक ( आदि० ६७ । १०४)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १५७ । १७-१९)। (२) प्रातःसायं
दृढाश्व-इक्ष्वाकुवंशीय महाराज कुवलाश्वके पुत्र । ये धुन्धुस्मरण करनेयोग्य एक नरेश (अनु. १६५। ५२)।
राक्षसकी क्रोधाग्निमें दग्ध होनेसे बच गये थे (वन. दृढरथाश्रय (दृढरथ)-धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि.
२०४।४०)। ११६ । १२)। ( देखिये दृढ़रथ)।
दृढेयु-एक पश्चिम दिशानिवासी ऋषि (अनु० १५० । दृढवर्मा ( दृढ )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक ( आदि०
३६)। ६७ । ९९; आदि. ११६ । ८)। भीमसेनद्वारा इसका
दृढेषुधि-एक प्राचीन राजा ( आदि० । । २३८)। वध (द्रोण. १३७ । २०-३०)।
दृषद्वती-कुरुक्षेत्रकी दक्षिणी सीमापर स्थित एक नदी,
जिसके जलका सेवन वनवासी पाण्डवोंने किया था (वन. दृढव्य-एक महर्षि, जो धर्मराजके सात ऋत्विजोंमेंसे एक
५।२)। इसके तटपर भगवान् शङ्करने युधिष्ठिरको हैं, जो सदा दक्षिण दिशाका आश्रय लेकर रहते हैं
उपदेश दिया था (सभा० ७८ । १५)। दृषद्वतीके (अनु० १५० । ३४-३५)।
उत्तर कुरुक्षेत्रमें रहना स्वर्गनिवासके तुल्य है (वन० दृढवत-एक ब्रह्मर्षि, जो सदा दक्षिण दिशाका आश्रय
८३ । ४, २०४) । दृषद्वतोमें स्नान करके देवता-पितरोंलेकर रहते हैं (शान्ति० २०८ । २८-२९)।
का तर्पण करनेसे मनुष्य अतिरात्र और अग्निष्टोम यज्ञका दृढसंध ( शत्रुञ्जय )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक फल पाता है ( वन० ८३ । ८७-८८)।
(आदि. ६७ । १००, आदि० ११६ । ९)। भीमसेन- दृषदान-पुरुवंशीय राजा संयातिके श्वशुर, इनकी पुत्रीका द्वारा शत्रुञ्जय नामसे इसका वध (द्रोण. १३७ ।
नाम वराङ्गी था ( आदि० ९५ । १४)। २०-३०)।
देवक-(१) इन्द्र के समान कान्तिमान् एक नरेश, जो दृढसेन-पाण्डवपक्षका एक योद्धा, द्रोणाचार्यद्वारा इसका
किसी गन्धर्वराजके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि.६७ । वध (द्रोण० २१ । ५२)।
६८)। ये उग्रसेनके भाई, देवकी के पिता और वसुदेव. दृढस्यु-मद्दर्षि अगस्त्यद्वारा लोपामुद्राके गर्भसे उत्पन्न ।
जीके श्वशुर थे (सभा० २२ । ३६ के बाद दाक्षिणात्य ये अपनी माताके गर्भ में सात वर्षातक पले और बढ़े थे ।
पाठ, पृष्ठ ७३१)। इनकी पुत्री देवकीके स्वयंवरमें सात वर्ष बीतनेपर अपने तेज और प्रभावसे प्रज्वलित
सम्पूर्ण क्षत्रिय एकत्र हुए थे (द्रोण १४४ । ९)। हुए ये उदरसे बाहर निकले । दृढस्यु महाविद्वान्, महा
(२)एक राजा, जिनके यहाँ ब्राह्मणद्वारा शुद-जातीय तेजस्वी और महातपस्वी थे | ये जन्मकालसे ही
एक कन्या थी, जिसका विदुरजीके साथ विवाह हुआ था उपनिषदोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका स्वाध्याय करते से जान
(आदि० ११३ । १२-१३)। (३) एक राजा, जिन्हें पड़े । बाल्यावस्थासे ही इध्म ( समिधा) का भार वहन
पाण्डवोकी ओरसे रण-निमन्त्रण देनेका विचार किया गया करनेके कारण इनका नाम 'इध्मवाह हो गया था
था ( उद्योग ।। १७)। (बन० ९९ । २५-२७)।
देवकी-उग्रसेनके भाई देवककी पुत्री, वसुदेवकी पत्नी और दृढहस्त-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेसे एक (आदि. ६७ । भगवान् श्रीकृष्णकी माता (सभा० २२ । ३६ के बाद १०२, आदि० ११६ । १०)।
दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७३१-७३२)। इनके स्वयंवरमें दृढायु-( १ ) पुरूरवाद्वारा उर्वशीके गर्भसे उत्पन्न सम्पूर्ण क्षत्रिय एकत्र हुए थे (द्रोण० १४४ । ९)।
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देवकुण्ड
देवयानी
देवकुण्ड (देवहद)-(१) एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे देवमत-एक प्राचीन महर्षि, जिनका नारदजोके साथ
मनुप्य अश्वमेध यशका फल और परमसिद्धि पाता है प्राणों के विषयमें संवाद हुआ (आदि० २४ अध्याय)। (वन० ८५ । २०)। (२) कृष्णयेणाके जलसे उत्पन्न देवमित्रा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य. ४६ । हुए रमणीय देवकुण्डमें, जिसे जातिस्मरहद' भी कहते हैं, १४)। स्नान करनेसे मनुष्य जातिस्मर (पूर्वजन्मकी बातोंको
देवमीढ-ययातिपुत्र यदुके वंशमें विख्यात एक यादव, याद करनेवाला) होता है (वन० ८५ । ३७-३८)।
जो शूरके पिता और वसुदेवके पितामह थे (द्रोण. देवकट-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य अश्वमेध
१४४ । ६)। यज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है।
देवयजन-देवताओंका यशस्थान प्रयाग, जहाँ काशिराजकी (वन० ८४ । १४१)।
कन्या अम्याने कठोर व्रतका आश्रय ले स्नान किया था देवग्रह-एक कष्टप्रद देव-सम्बन्धो ग्रह, जिसे जागते या (उद्योग. १८६ । २७ )। सोते में देखकर मनुष्य पागल जो जाता है (वन० २३० ।
देवयाजी-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७.)। देवदत्त-अर्जुनका दिव्य शङ्ख (सभा०३।८)। यह
देवयानी-शुक्राचार्य की प्यारी पुत्री ( आदि. ७६ । शङ्ख मयासुरने विन्दुसरोवरसे लाकर अर्जुनको दिया था
१५)। विना कनके ही गौओंको लोटकर आयी देख (सभा० ३ । १.-.-२१) । श्वेत घोड़ोंसे जुते रथपर
देवयानीके मनमें उनके मारे जाने की आशङ्का और
'कचके बिना मैं जीवित नहीं रह सकती' ऐसा कहकर बैठे हुए अर्जुनने अपना देवदत्त नामक शङ्ख फूंका (भीष्म० २५ । १४-१५)।
उसका पितासे कचको बुलानेका अनुरोध ( आदि. देवदारुवन-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करने का विशेष फल
७६ । २०-३२)। दूसरी बार भी देवयानीके अनु(अनु० २५ । २७)।
रोधसे शुक्राचार्यद्वारा कचको जीवनदान (आदि० ७६ । देवदूत-देवताओंका सुविख्यात दूत, जिसका सायं-प्रातः
४२ )। तीसरी बार पुनः कचको जीवित करनेके स्मरण करनेसे पाप दूर होता है (अनु० १६५ । १४)।
लिये देवयानीका आग्रह (आदि० ७६ । ४५-५०)। देवताओंने देवदूतको आज्ञा दी, तुम युधिष्ठिरको इनके
इसका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध ( आदि. सुहृदोंका दर्शन कराओ (स्वर्गा०२।१४) । राजा
७७ । २-११)। प्रार्थनाके अस्वीकृत होनेपर इसके द्वारा और देवदूत साथ-साथ गये । देवदूत आगे-आगे चला
कचको शाप (आदि० ७७ । १७)। कचद्वारा इसको
शाप ( आदि० ७७ । १९-२०)। इसके द्वारा इसका और राजा उसके पीछे-पीछे ( स्वर्गा० २ । १५.१६)। युधिष्ठिरके यह पूछनेपर कि अभी कितनी दूर चलना है,
वस्त्र पहन लेनेके कारण शर्मिष्ठाको फटकार ( आदि. देवदूत लोट पड़ा और बोला---'बस, यहींतक आपको
७८ । ८)। शर्मिष्ठाद्वारा भर्सनापूर्वक इसका कुएं में आना था' ( स्वर्गा० २ । २८)। युधिष्ठिरके लौट
गिराया जाना ( आदि०७८ । ९-१३) | इसकी राजा
ययातिसे भेंट, वार्तालाप और राजा ययातिके द्वारा इसका जानेकी आज्ञा देनेपर देवदूत लौटकर, देवराज इन्द्रके पाम चला गया ( स्वर्गा० २ । ५१-५३ )।
कपसे उद्धार, कुएँसे निकलने पर इसके द्वारा राजा
ययातिसे अपना पाणिग्रहण करनेके लिये प्रार्थना तथा देवनदी-एक नदी, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी
ब्राह्मणकन्या होनेके कारण यथातिका इसकी प्रार्थनाको उपासना करती है (सभा० ९ । १९)।
अस्वीकार करना ( आदि० ७८ । १४-२४) । घूर्णिका देवपथ-एक तीर्थ, जहाँ जानेसे देवसत्रका पुण्य प्राप्त होता
नामक धायके द्वारा इसका वृषपर्वाके नगरमें न जानेके है (वन० ८५ । ४५)।
लिये अपने पिताको संदेश देना (आदि० ७८ । २५देवपुष्करिणी-एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ जानेमात्रसे मनुष्य २७)। शर्मिष्ठाने मेरी पुत्रीको मारा है, यह सुनकर
कभी दुर्गति में नहीं पड़ता और अश्वमेध यज्ञका फल पाता पिताका इसे खोजते हुए वनमें जाना तथा इसे हृदयसे है ( वन० ८४ । ११८)।
लगाकर सान्त्वना देना (आदि. ७८ । २८-३१)। देवप्रस्थ-उत्तर दिशाके पर्वतीय देशका एक प्राचीन शर्मिष्ठाके द्वारा किये हुए अपमानका इसके द्वारा अपने नगर, जहाँ सेनाविन्दुकी राजधानो थी ( सभा० २७ । पिता शुक्राचार्यके समक्ष वर्णन ( आदि० ७८ । ३१
३६) । शुक्राचार्यका इसके समक्ष अपने शक्तिका देवभ्राट-एक तेजस्वी देवता, जो रविके.
कथन और इसे सान्त्वना-प्रदान ( आदि. ७८ । पिता हैं (आदि०१।४२-४३)।
३७-४१)। शुक्राचार्यका सहनशीलताकी प्रशंसा करते
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.. मोतिपत्र और मभाटके
त्र आराठी
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देवराज
हुए इसको आश्वासन देना ( आदि० ७९ । १-७ ) । इसकी दानवोंके बीच में निवास करनेसे अरुचि, विद्वानों के लिये धनके लोभसे कटुवचन सहने की निन्दा ( आदि० ७९ । ८ - १३ तथा दाक्षिणात्य पाठ ) । शुक्राचार्यका अपनी पुत्री देवयानी के प्रति किये गये अनुचित बर्तावको असह्य बताना और देवयानीको संतुष्ट करने के लिये वृषपर्वाको प्रेरित करना (आदि० ८० । ९-१२ ) । वृषपर्वाके मुहमाँगी वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा करनेपर एक हजार कन्याओंके साथ शर्मिष्ठाके आजीवन अपनी दासी बनकर रहनेके लिये उसके पिता वृषपर्वासे इसकी माँग ( आदि० ८० । १६ ) । शर्मिष्ठाद्वारा दासीभाव स्वीकार करनेपर नगर में जानेके लिये इसकी स्वीकृति ( आदि० ८० । २६ ) । सखियोंके साथ वनमें क्रीड़ा करती हुई शर्मिष्ठासेवित देवयानीका ययातिको दर्शन ( आदि० ८१ । १–७ ) | ययातिके पूछनेपर देवयानीका उन्हें शर्मिलासहित अपना परिचय देना और उनसे अपना पति बनने के लिये प्रार्थना करना ( आदि० ८११८१७ ) । ययातिका ब्राह्मणकी महिमा बताते हुए अपनेको ब्राह्मण कन्यासे विवाहका अनधिकारी बताना और देवयानी के पिताकी आज्ञाके बिना उसे स्वीकार न कर सकनेका निश्चय प्रकट करना ( आदि० ८१ । १८२६) । ययातिके साथ अपने विवाह के लिये इसकी अपने पिता से प्रार्थना (आदि० ८१ । ३० ) । पिताद्वारा इसका यत्रातिको समर्पण ( आदि० ८१ । ३४ ) । इसका ययाति के साथ विधिपूर्वक विवाह एवं पतिगृहगमन ( आदि० ८१ । ३६-३८ ) | देवयानीका विहार और दीर्घकालतक आनन्दोपभोग ( आदि ८२ । १-४ )। इसका गर्भ धारण और प्रथम पुत्रका जन्म (आदि० ८२ ॥
( १५२ )
५
) । शर्मिष्ठा की पुत्र प्राप्ति से देवयानीको चिन्ता और किसी श्रे ऋषिसे उसे संतानकी प्राप्ति हुई यह सुनकर इसका क्रोधरहित हो महलमें लौट जाना ( आदि० ८३ । १ - ७ ) | ययतिद्वारा देवयानीके
यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्रों की उत्पत्ति (आदि० ८३ | ९; ७५ | ३५ ) | ययातिसे शर्मिष्ठाको पुत्र हुए हैं, इस रहस्यका बालकोंद्वारा ही भेदन होनेसे देवयानीका शर्मिष्ठाको फटकारना और ययातिपर रुष्ट हो वहाँसे अपने पिताके घर जाना ( आदि० ८३ । ११ - २६ ) । इसके द्वारा पितासे ययातिके असद्वर्तावका निवेदन और इसके पिताद्वारा राजाको वृद्ध होनेका शापदान ( आदि० ८३ । २८-३१)।
महाभारत में आये हुए देवयानीके नाम - औशनसी, भार्गवी, शुक्रतनया आदि । देवराज-एक राजा, जो या उपस्थित हो सूर्यपुत्र
देवसेना
यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । २६ ) । देवरात - ( १ ) युधिष्ठिरकी सभा में विराजमान होनेवाले
एक राजा ( सभा० ४ । २६) । ( २ ) विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५० ) । वास्तवमें ये ऋचीक ( अजीगर्त ) के महातपस्वी पुत्र शुनःशेप हैं। ये एक यज्ञ में पशु बनाकर लाये गये थे। विश्वामित्रने देवताओं को संतुष्ट करके इन्हें छुड़ाया था, इसलिये ये विश्वामित्र के पुत्रभावको प्राप्त हुए। देवताओंके देने से इनका नाम देवरात हुआ ( अनु० ३ । ६-८ ) । देवल- ( १ ) एक सुप्रसिद्ध ऋषि जो प्रत्यूष नामक वसु पुत्र थे ( आदि० ६६ । २६) । (२) एक देवविद्याके पारङ्गतऋषि, जो महर्षि धौम्पके अग्रज थे और जनमेजयके सर्पसत्र के सदस्य बनाये गये थे ( आदि० ५३ | ८६ आदि० १८२ । २ ) । हस्तिनापुर जाते समय मार्ग में श्रीकृष्ण से इनका मिलना ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) | युद्ध के बाद युधिष्ठिरके पास आना ( शान्ति० १ । ४ ) । अपनी कन्या सुवर्चलाके विवाह के विषय में इनकी चर्चा, अपनी कन्याके स्वयंवर के लिये भुनिकुमारोंको बुलवाना तथा अपनी कन्याको श्वेतकेतु के हाथ में सौंपना (शान्ति० २२० अ० दाक्षिणात्य पाठ ) । देववन-एक पुण्यक्षेत्र, जहाँ बाहुदा और नन्दा नदी बहती हैं (वन० ८७ । २६ ) ।
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देवव्रत - गङ्गाके गर्भ से शान्तनुद्वारा उत्पन्न (आदि०
१०० । २१ ) | ( देखिये 'भीष्म' ) देवशर्मा - एक ऋषि, जो जनमेजय के सर्पसत्र के सदस्य बनाये
ये थे ( आदि० ५३ । ९ ) । ये महाभाग्यशाली ऋषि थे; इनकी पत्नीका नाम रुचि था, जो इस पृथ्वीपर अद्वितीय सुन्दरी थी ( अनु० ४० | १६) । इनका अपने शिष्य विपुलको अपनी पत्नीकी रक्षाका भार सौंपकर यज्ञके लिये जानेको उद्यत होना (अनु० ४० । २२-२३) । विपुलके पूछने पर उसे इन्द्रका स्वरूप बताना ( अनु० ४० | २८-३८ ) । इनका अपने आश्रमपर लौटना और विपुलको वर देना (अनु० ४१ । २८-३४ ) । विपुलको दिव्य पुष्प लाने के लिये भेजना ( अनु० ४२ । १२ ) । विपुलको निर्दोष बताकर समझाना ( अनु० ४३ | ४ - १६) । ये उत्तर दिशाका आश्रय लेकर रहनेवाले ऋषि हैं ( अनु० १६५ । ४६ ) ।
देवस - एक यज्ञका नाम ( वन० ८४ । ६८ ) । देवसम - एक पर्वत, जहाँ अगस्त्य के शिष्यका आश्रम है ( वन० ८८ । १७ ) ।
देवसेना - दक्षप्रजापतिकी पुत्री, दैत्यसेनाकी बहिन, जिसका केशी नामक राक्षसद्वारा अपहरण होनेपर इन्द्रद्वारा उद्धार
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देवस्थान
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( १५३ )
हुआ था ( वन० २२३ । ७ - १५ ) । इसका अपना और अपनी बहिनका परिचय देना तथा इन्द्रके प्रति अपने भावी पति के लक्षणों का वर्णन करना १ – ९ ) । इसका स्कन्द के साथ विवाह ( वन० २२९ । ४८ )।
वन० २२४ ।
देवस्थान - एक प्राचीन ऋषि, जो युद्ध के बाद युधिष्ठिर के पास आये थे ( शान्ति० १ ४ ) । इन्होंने युधिष्ठिरको यज्ञानुष्ठान के लिये प्रेरित किया (शान्ति० २० । २–१४)। इन्होंने युधिष्ठिरको उत्तम धर्म और यज्ञानुष्ठानका उपदेश दिया ( शान्ति० २१ अध्याय ) । इनके तथा अन्य मुनियों के समझानेसे युधिष्ठिरने मानसिक दुःखको त्याग दिया ( शान्ति० ३७ । २७ ) । शरशय्यापर पड़े हुए भीष्म के पास ये भी गये थे ( शान्ति० ४७ । ५ ) । भीष्मका राजधर्मविषयक भाषण सुनकर इन्हें प्रसन्नता हुई ( शान्ति० ५८ । २५ ) । इनके समझाने-बुझानेसे राजर्षि युधिष्ठिरका मन शान्त हुआ और उन्होंने मानसिक शोकजनित दुःख त्याग दिया ( आश्व० १४ । २ ) । देवहव्य- एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रकी सभा में रहकर देवेन्द्रकी उपासना करते हैं ( सभा० ७ । १८ के बाद दा० पाठ ) ।
देवहोत्र - एक ऋषि, जो उपरिचरके यज्ञके सदस्य बनाये गये थे (शान्ति ३३६ । ९ ) ।
देवद - कालञ्जर पर्वतपर स्थित एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ( वन० ८५ । ५६ ) । यहाँके स्नानका विशेष फल ( अनु० २५ । ४०)।
देवातिथि - पूरुवंशीय राजा अक्रोधनके द्वारा कलिङ्गदेशकी राजकुमारी करम्भाके गर्भ से उत्पन्न (आदि० ९५ | २२ ) । इनकी पत्नीका नाम मर्यादा था, जो विदेहराजकी पुत्री थीं। इनके पुत्र का नाम अरिह था ( आदि० ९५ । २३)।
देवाधिप - एक क्षत्रिय राजा, जो अजेय दैत्य निकुम्भके
अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । २६-२७ ) । देवापि - (१) महाराज प्रतीप के प्रथम पुत्रः शान्तनुके अग्रज,
ये धर्माचरणद्वारा कल्याण-प्राप्तिकी इच्छासे वनको चले गये थे । अतः शान्तनु एवं बाह्लीकने ही राज्य प्राप्त किया था ( आदि० ९४ । ६१-६२ ) । धर्मपूर्वक पृथ्वीका शासन करनेवाले महाराज प्रतीपके तीन देवोपम पुत्र हुए देवापि, बाहीक और शान्तनु । देवापि सबसे बड़े थे | ये महान तेजस्वी, धार्मिक, सत्यवादी, पिताकी सेवामें तत्पर साधु पुरुषोंद्वारा सम्मानित तथा नगर एवं जनपद-निवासियों के लिये आदरणीय थे । देवापिने
म० ना० २०
देवीतीर्थं
बालकोंसे लेकर बूढ़ोंतक सभीके हृदयमें स्थान बना लिया था । ये अपने दोनों छोटे भाइयों को बहुत प्रिय थे । उन तीनों बन्धुओंमें अच्छे भाईका सा स्नेहपूर्ण बर्ताव था । देवापि उदार, सत्यप्रतिज्ञ और समस्त प्राणियोंके हितैषी थे; परंतु चर्मरोग से पीड़ित रहा करते थे । पिता प्रतीपने उनके राज्याभिषेककी तैयारी करायी, परंतु नगर और जनपदके लोगों एवं ब्राह्मणोंने आकर रोक दिया । हीनाङ्ग राजाका देवता अभिनन्दन नहीं करते । इसलिये चर्मरोग के दोष से ही वे राज्यके अनधिकारी बताये गये । इससे पिता के नेत्रों में आँसू भर आया । वे देवापिके लिये दुखी हो गये । देवापि चुपचाप वनमें चले गये । बाह्लीक मामाके घर जाकर रहने लगे । अतः बाह्रीककी अनुमतिसे वह राज्य शान्तनुके अधिकारमें आया ( उद्योग० १४९ । १५-२८ ) । देवापि कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत पृथूदक तीर्थमें तपस्या करके ब्राह्मणको प्राप्त हुए थे (शल्य० ३९ । ३७) । ( २ ) पाण्डव पक्षका एक चेदिदेशीय योद्धा, जो कर्णद्वारा निहत हुआ था ( कर्ण० ५६ । ४८ ) । देवारण्य - एक तीर्थ, जहाँ काशिराजकी कन्या अम्बाने कठोर व्रतका आश्रय ले तप किया था ( उद्योग ० १८६ । २७ ) ।
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arga - (१) कौरव-पक्षके एक महारथी योद्धा ( कर्ण० ८५ । ३) । (२) एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने सोनेका छत्र दान करके अपने देशके प्रजाके साथ स्वर्गलोक प्राप्त किया था ( शान्ति० २३४ । २१; अनु० १३७ । ७)।
देवा - एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३५ ) । देविका - ( १ ) शिचिनरेश गोवासनकी पुत्री, जिसे
युधिष्ठिरने स्वयंवर में प्राप्त किया था। इसके गर्भ से उन्होंने यौधेय नामक पुत्र उत्पन्न किया ( आदि० ९५ । ७६ ) । ( २ ) एक तीर्थ, जहाँ ब्राह्मणों की उत्पत्ति सुनी जाती है। देविका में स्नान करके भगवान् महेश्वरका पूजन और उन्हें यथाशक्ति चरु निवेदन करके यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है ( वन० ८२ । १०२ ) । यहाँके स्नानका विशेष फल ( अनु० २५ । ९ ) ।
देवी - ( १ ) वरुण की ज्येष्ठ पत्नी, जिसने बल नामक पुत्र और सुरा नामक कन्याको जन्म दिया था ( आदि० ६६ । ५२) । ( २ ) एक स्वर्गीय अप्सरा, जो अर्जुनके जन्ममहोत्सव नृत्य करने आयी थी (आदि० १२२ । ६२) । देवीतीर्थ कुरुक्षेत्र की सीमा में इस नामके तीन तीर्थ हैं । पहला शंखिनी तीर्थके भीतर है। उसमें स्नान करनेसे उत्तम रूपकी प्राप्ति होती है ( वन० ८३ । ५१ ) ।
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देवीस्थान
दूसरा मधुवटीके अन्तर्गत है । वहाँ देवता और पितरोंकी पूजा करके मनुष्य देवीकी आज्ञाके अनुसार सहस्र गोदानका फल पाता है ( वन० ८३ । ९४ ) । तीसरा मृगधूम तीर्थके बाद आता है । उसमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ( वन० ८३ । १०२ ) । देवीस्थान - एक तीर्थ, जहाँ शाकम्भरी देवीका निवास स्थान है । वहाँ तीन दिनके शाकाहारसे बारह वर्षोंतक शाकाहार करनेका पुण्य फल प्राप्त होता है ( वन० ८४ । १३ ) । treaty - Toshi प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग ० १०१ । ११ ) ।
दैत्यसेना- दक्ष-प्रजापतिकी पुत्री और देवसेना की बहिन, जिसे केशी नामक राक्षसने हर लिया था (वन० २२४ । १) । दैव-एक प्रकारका विवाह ( अपने घरपर देवयज्ञ करके यज्ञान्तमें ऋत्विजको अपनी कन्याका दान करना दैव विवाह कहा गया है | ) यह विवाह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य - इन तीनों वर्णोंमें ही ग्राह्य माना गया है ( आदि० ७३ । ८-१० ) ।
( १५४ )
देवीसम्पत्ति - अभय आदि दिव्य गुणोंकी संज्ञा ( भीष्म ०
४० । १–३ ) । दैवीसम्पत्ति संसारसे मोक्ष दिलानेवाली मानी गयी है ( भीष्म० ४० । ५ ) । दौवालिक - एक देश, जहाँके राजा और निवासी राजसूययज्ञमें युधिष्ठिरके लिये भेंट ले आये थे ( सभा० ५२ । १८)।
द्यु - ( देखिये - 'द्यौ' ) ।
धुति - एक देवी, इनके द्वारा अर्जुनके संरक्षणकी शुभकामना द्रौपदीने की थी ( वन० ३७ । ३३ ) ।
द्युतिमान - (१) मद्रदेश के एक राजा, जिनकी पुत्री विजयाको सहदेवने स्वयंवर में प्राप्त किया था ( आदि० ९५ । ८० ) । ( २ ) शाल्वदेश के एक राजा, जिन्होंने ऋचीकको राज्य प्रदान करके उत्तम लोक प्राप्त किया था ( शान्ति० २३४ । ३३; अनु० १३७ । २३) । (३) इक्ष्वाकुवंशीय मदिराश्वके महाभाग, महातेजस्वी, महान् धैर्यशाली और महाबली पुत्र, जिनके पुत्रका नाम सुवीर था ( अनु० २ । ९ )।
धुमत्सेन - ( १ ) एक प्राचीन नरेश, जो बलवानोंके आदर्श समझे जाते थे ( आदि० १३८ । ५ ) | ये ही शाल्वदेश के धर्मात्मा राजा और सत्यवान् के पिता थे ( वन० २९४ । ७ ) । महाराज अश्वपतिको सत्यवान् के विवाह के लिये स्वीकृति देना ( वन० २९५ | १४ ) । सत्यवान् के साथ वन जानेके लिये सावित्रीकी प्रार्थना स्वीकार करना ( वन० २९६ । २७ ) । इनकी अंधी आँखों में देखनेकी
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द्रुपद
शक्तिका आना और इन महाबली नरेशका अपनी पत्नी शैव्याके साथ ऋषियोंके आश्रमोंमें जाकर सत्यवान्को ढूँढ़ना ( वन० २९८ । २ ) । सत्यवान् के वनसे न लौटने पर इनकी चिन्ता ( वन० २९८ । ८ । शाल्वदेशकी प्रजा के अनुरोधसे इनका राज्याभिषेक ( वन ० २९९ । ११) । सत्यवान् के साथ वार्तालाप (शान्ति ० २६७ अध्याय) । ( २ ) एक पर्वतीय राजा जिसके साथ भगवान् श्रीकृष्णने सहस्रों पर्वतोंको विदीर्ण करके युद्ध किया था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ८२४) । ये युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । ३१ ) । द्यूतपर्व - सभापर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ४६ से ७३ तक ) ।
द्यो ( द्यु ) - आठ वसुओंमेंसे एक (आदि० ९९ । १५) | इनके द्वारा नन्दिनीके गुणोंका वर्णन (आदि० ९९ । १९२० ) । नन्दिनी ( गौ ) के अपहरण के लिये इनसे इनकी पत्नीकी प्रार्थना ( आदि० ९९ । २४ ) । इनके द्वारा नन्दिनीका अपहरण ( आदि० ९९ । २८ ) । वसिष्ठद्वारा इनको दीर्घकाल तक मनुष्यलोकमें रहनेका शाप ( आदि० ९९ । ३२–३९ ) ।
द्रविड़ ( या द्राविड़ ) -- एक दक्षिण भारतीय जनपद,
जिसे दूतोंद्वारा संदेश देकर ही सहदेवने कर देने के लिये विवश कर दिया था ( सभा० ३१ । ७१ ) । द्रविण -- धर नामक वसुके पुत्र ( आदि० ६६ । २१ ) । द्राविड़ - एक जाति जो पहले क्षत्रिय थी, किंतु ब्राह्मणों की कृपादृष्टिसे वञ्चित होने के कारण ( स्वधर्मज्ञानशून्य होकर ) शूद्रभावको प्राप्त हो गयी ( अनु० ३३ । २२-२३ )। द्रुपद - पाञ्चालदेश के राजा यज्ञसेन, जो मरुद्गणोंके अंशसे उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७ । ६८ ) । ये महाराज पृषत्के पुत्र थे (आदि० १२९ । ४१ ) । भरद्वाजमुनिके आश्रममें द्रोणके साथ इनका खेलना और अध्ययन करना ( आदि० १२९ । ४२ ) । पृषत्की मृत्युके पश्चात् इनका उत्तरपाञ्चालके राज्यपर अभिषेक हुआ ( आदि० १२९ । ४३ ) । इनके यहाँ द्रोणका आना और इन्हें अपना सखा या मित्र कहने के कारण इनके द्वारा फटकारा जाना (आदि० १३० । १–११) । द्रोणाचार्यद्वारा द्रुपद - के अग्निवेशके समीप धनुर्वेदाध्ययनसम्बन्धी वृत्तान्तकी भीष्म के समक्ष चर्चा ( आदि० १३० । ४३ ) । अध्ययनावस्था में इनके द्वारा द्रोणको दिये गये आश्वासनकी चर्चा ( आदि० १३० । ४६-४७ ) कौरवोंका आक्रमण सुनकर और उनकी विशाल सेनाको अपनी आँखों देख पाञ्चालराज द्रुपदका भाइयोसहित निकलना और शत्रुओंपर बाणोंकी बौछार करना ( आदि० १३७ । १०-११ ) ।
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इनका घोर युद्ध करके कौरवसेनाको पराजित करना ( आदि. १३७ । १२-२५) । इनका भीमसेन और अर्जुन के साथ युद्ध तथा पराजय । अर्जुनद्वारा इन्हें बंदी बनाकर द्रोणको अर्पण करना (आदि० १३७ । २८६३)। द्रोणका इन्हें आधा राज्य देकर और मित्र बने रहने के लिये कहकर छोड़ना और इनका उनके साथ अटूट मैत्रीकी इच्छा प्रकट करना (आदि० १३७ । ७०-७४) इनके द्वारा किये हुए द्रोणके असम्मानका एक ब्राह्मणद्वारा एकचक्रामें पाण्डवोंके प्रति वर्णन ( आदि. १६५ । ७-१५)। द्रोणविनाशक पुत्रकी प्राप्ति के लिये द्रुपदका ऋषियों और ब्राह्मणोंके आश्रमोंमें घूमना तथा ब्रह्मर्षि याज-उपयाजके पास पहुँचकर उपयाज ऋषिसे अपने उद्देश्य-सिद्धि के लिये प्रार्थना एवं उन्हें दस करोड़ धेनुका प्रलोभन देना ( आदि० १६६ । १-१२)। उपयाजका उनकी प्रार्थनाको अस्वीकार कर देना (आदि. १६६ । १३)। इनका द्रोणकी महिमा बताकर द्रोणान्तक पुत्रके लिये महर्षि याजसे प्रार्थना करना
और उनको एक अर्बुद धेनुका प्रलोभन देना ( आदि. १६६ । २२-३१)। इनको यज्ञकुण्डसे धृष्टद्युम्न' नामक पुत्र एवं कृष्णा' नाम्नी कन्याकी प्राप्ति (आदि. १६६ । ३९-४४ ) । लाक्षागृहमें पाण्डवोंकी मृत्यु होनेका समाचार सुनकर इनका शोक, अर्जुनके लिये इनकी चिन्ता तथा उन्हींके साथ द्रौपदीका विवाह करनेका इनका संकल्प (आदि. १६६ । ५६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ४९३) । अपने पुरोहितद्वारा उनको पाण्डवोंके जीवित रहनेका आश्वासन और द्रौपदीके स्वयंवरके लिये अनुरोध (आदि०१६६ । दा. पाठ, पृष्ठ ४९३) द्रुपदने अर्जुन-को हूँढ़ निकालनेके लिये एक ऐसा दृढ़ धनुष बनवाया था, जिसे दूसरा कोई झुका भी न सके ( आदि. १८४ । ८-९)। इनकी स्वयंवरके समय लक्ष्यवेधके लिये घोषणा (आदि. १८४ । ११)। स्वयंवरमें आये हुए राजाओंद्वारा इनपर आक्रमण और पाण्डवोंद्वारा इनकी रक्षा (आदि. १८८। १२-१४; आदि० १८९ अध्याय)। अर्जुनके साथ कुम्भकारके घर द्रौपदीके चले जानेपर उसके सम्बन्धमें इनकी चिन्ता ( आदि. १९१ । १४-१८)। चिन्तित हुए द्रुपदको धृष्टद्युम्नका आश्वासन देना ( आदि. १९२ । ३-१३)। पाण्डवोंका परिचय जानने के लिये इनका अपने पुरोहितको आदेश ( आदि० १९२ । १४ )। पाण्डवोंका परिचय पानेके लिये इनका युधिष्ठिरसे प्रश्न (आदि० १९५। २-७)। युधिष्ठिरका द्रुपदको आश्वासन देना, 'द्रौपदीका विवाह किसके साथ हो'-इस प्रश्नको लेकर युधिष्ठिरके साथ इनका वार्तालाप और एक स्त्रीके अनेक पुरुषों के साथ
विवाहका विरोध (आदि. १९४ । ८-३२)। व्यासजीके पूछनेपर द्रौपदीके विवाह के सम्बन्धमें इनकी अपनी सम्मति (आदि. १९५ । ७-९) । पाण्डवों एवं द्रौपदीके पूर्वजन्मकी कथा सुनाकर व्यासद्वारा इनको दिव्य दृष्टिका दान (आदि० १९६ अध्याय)। इनके द्वारा पाण्डवोंको विपुल धनराशिकी दहे जरूपमें भेंट (आदि० २०६ । ९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। दिग्विजयके समय कर्णद्वारा इनकी पराजय ( वन. २५४ । ३)। धौम्य ऋषि पाण्डवोंद्वारा स्थापित अग्रिको लेकर उसकी रक्षाके लिये द्रुपदके ही यहाँ भेजे गये थे (विराट० ४ । २-३) । उपप्लव्य नगरमें अभिमन्युके विवाहमें इनका आगमन (विराट. ७२ । १७ )। राजाओंके पास रण-निमन्त्रण भेजने के लिये इनका प्रस्ताव (उद्योग. ४ । ८--२४)। अपने पुरोहितको दूत बनाकर कौरव-सभा भेजनेका प्रस्ताव (उद्योग० ४। २५)। पुरोहितको दौत्य-कर्मके लिये इनका अनुमति देना (उद्योग०६।१७)। एक अक्षौहिणी सेना लेकर इनका पाण्डवोंके पास आना ( उद्योग० ५७ । ४-५)। ये पाण्डव-सेनाके सात सेनापतियोंमेंसे एकके पदपर अभिषिक्त हुए थे ( उद्योग० १५७ । ११-१२)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर देना ( उद्योग १६३ । ४१)। संतान प्राप्तिके लिये इन्हें महादेवजीसे वर-प्राप्ति ( उद्योग. १८७ । ५-६ ) । हिरण्यवर्माकी चढ़ाईका समाचार पाकर इनका पत्नीसे संकट निवारणका उपाय पूछना (उद्योग० १९० । १४--२१)। रानीकी सम्मतिसे देवाराधन करना (उद्योग० १९१ । ९)। हिरण्यवर्माको शिखण्डीकी परीक्षाके लिये संदेश देना (उद्योग. १९२ । २७) । शिखण्डीको द्रोणाचार्यके पास भेजकर उनसे धनुर्वेदकी शिक्षा दिलाना ( उद्योग. १९२ । ६०)। प्रथम दिनके संग्राममें जयद्रथके साथ द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म०४५। ५५-५७) । द्रोणाचार्यसे पराजित होना (भीष्म. ७७ । ४८; भीष्म० १०४ । .२४-२५) । अश्वत्थामाके साथ इन्द्र-युद्ध (भीष्म. ११०।१६, भीष्म १११।२२-२७)। द्रोणाचार्यके साथ युद्ध (द्रोण० १४ । २६)। भगदत्तके साथ युद्ध (द्रोण. १४।४०-४२)। इनके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । १२) । इनका बाहीकके साथ युद्ध (द्रोण० २५। १८-१९)। वृषसेनद्वारा इनकी पराजय (द्रोण. १६८ । २४) । द्रोणाचार्यद्वारा इनका वध (द्रोण० १८६ । ४३) । इनका श्राद्धकर्म ( शान्ति. ४२।५)। व्यासजीके आवाहन करनेपर अन्य परलोकवासी वीरोंके साथ ये भी गङ्गाजीके जलसे प्रकट हुए ये (आश्रम० ३२ । ८)। ये स्वर्गमें जाकर विश्वेदेवोंमें मिल गये (स्वर्गा० ५। १५)।
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( १५६ )
द्रोण
महाभारतमें आये हुए द्रुपदके नाम---धृष्टद्युम्नपिता,
पाञ्चाल, पाञ्चालनृप, पाञ्चालपति, पाञ्चालराज, पाञ्चाल्य, पार्षत, पृषदात्मज, सौमकि, यज्ञसेन आदि । द्रम-(१) एक प्राचीन राजा (आदि.१। २३३)।
(२) महाभारतकालका एक राजा, जो शिथि नामक दैत्यके अंशसे प्रकट हुआ था (आदि० ६७ । ८)। (३) एक किन्नरोंके स्वामी, जो कुबेर-सभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं (सभा० १० । २९)। ये भीष्मकपुत्र रुक्मीके गुरु थे ( उद्योग० १५८।३)। इन्होंने रुक्मीको विजय नामक धनुष दिया था (उद्योग. १५८ । ८)। द्रुमसेन-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो गविष्ठ नामक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि. ६६ । ३५)। यह शल्यका चक्र रक्षक था । युधिष्ठिरद्वारा इसका वध हुआ (शल्य. १२ । ५३)। (२) कौरव पक्षका योद्धा,
धृष्टद्युम्नद्वारा इसका वध (द्रोण० १७० । २२)। द्रुहा-(१) ययातिके पुत्र, इनकी माताका नाम शर्मिष्ठा
था (आदि० ७५ । ३५; आदि० ८३ । १०)। पिताद्वारा इनसे यौवनकी याचना तथा इनका पिताको अपनी युवावस्था देनेसे इनकार करना; अतः कुपित हुए पिताद्वारा इनको कभी भी प्रिय मनोरथकी सिद्धि न होने, अति दुर्गम देशोंमें रहने तथा राज्याधिकारसे वञ्चित होकर भोज' कहलानेका शाप (आदि० ८४ । २०-२२)। (२) पूरुवंशी राजा मतिनारके चार पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ९४ । १४)। द्रोण-(१) गङ्गाद्वारनिवासी महर्षि भरद्वाजके पुत्र, जो । बृहस्पतिके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि० ६७ । ६९)। एक दिन भरद्वाज मुनि गङ्गाजीमें स्नान करने के लिये गये, वहाँ घृताची अप्सरा पहलेसे ही स्नान करके वस्त्र बदल रही थी। उसका वस्त्र खिसक गया था। उस अवस्थामें उसे देखकर मुनिका वीर्य स्खलित हो गया । मुनिने उसे उठाकर एक द्रोण ( यज्ञ-कलश) में रख दिया था । उस द्रोणसे उत्पन्न होनेके कारण ही उस बालकका नाम 'द्रोण' हुआ । इन्होंने सम्पूर्ण वेदों और वेदाङ्गोंका अध्ययन किया था (आदि. १२९ । ३३-३८)। परशुरामजीसे इनका समस्त अस्त्र-विद्याओंका अध्ययन (आदि. १२९ । ६६)। महर्षि अग्निवेशके आश्रममें इनका द्रुपदके साथ अध्ययन ( आदि० १३०। ४०४२) । द्रुपदद्वारा इनको छात्रावस्थामें आश्वासन (आदि० १३० । ४६) । शरद्वान्की पुत्री कृपीसे इनका विवाह ( आदि. १३०। ४९)। कृपीके गर्भसे इनके द्वारा अश्वत्थामाका जन्म (आदि० १३०। ५०)।
धनकी याचनाके लिये इनका द्रुपदके यहाँ जाना (आदि० १३० । ६२) । द्रुपदद्वारा इनका तिरस्कार ( आदि. १३० । ६४-७३)। द्रुपदसे तिरस्कृत होकर इनका हस्तिनापुरमें आकर कृपाचार्यके घर गुप्तरूपसे बास करना (आदि०१३० । ११)। इनका कौरव कमारोंकी वीटा (गुल्ली ) एवं अपनी अँगूठीको कुएँ मेंसे निकालना ( आदि. १३० । २९ )। कौरव-कुमारोंद्वारा भीष्मके प्रति इनके पराक्रमकी प्रशंसा ( आदि० १३० । ३६ )। भीष्मद्वारा इनका मत्कार एवं कौरव-राजकुमारोंको पढ़ानेके लिये इनसे अनुरोध ( आदि० १३० । ३९--७९)। इनका अर्जुनके प्रति अधिक वात्सल्य (आदि. १३१ । ७-८)। इनके द्वारा कौरवों एवं पाण्डवोंकी शिक्षा ( आदि० १३१ । ९)। इनके समीप अध्ययनके लिये कर्णका आगमन (आदि. १३१ । ११)। ये राजकुमारोंको तो कमण्डलु भर लानेको कहते और अश्वत्थामाको घड़ा भरनेको देते, वह जल्दी घड़ा भरकर आ जाता तो उसे अकेलेमें कोई अस्त्र-संचालनकी उत्तम विधि बताते ये (आदि. १३१ । १६-१७) । अर्जुनको अद्वितीय धनुर्धर बनानेके लिये इनका आश्वासन (आदि. १३१ । २७) । इनके द्वारा कौरवोंको विविध अस्त्रोंकी शिक्षा (आदि० १३१ । २९)। इनकी अनुपम अस्त्र-विद्याको सुनकर सहस्रों राजाओं तथा राजकुमारोंका इनके समीप अध्ययनके लिये आगमन (आदि. १३१ । ३०)। इनका धनुर्वेदके अध्ययनके लिये आये हुए निषादपुत्र एकलव्यको पढ़ाने के लिये इनकार करना ( आदि. १३१ । ३२ ) । अर्जुनकी प्रसन्नताके लिये इनका एकलव्यसे अँगूठा काटकर गुरुदक्षिणा देनेके लिये कहना ( आदि. १३१ । ५६ )। इनके द्वारा कौरव आदि समस्त छात्रोंकी परीक्षा ( आदि. १३१ । ६९)। ग्राहद्वारा इनपर आक्रमण और अर्जुनद्वारा ग्राहको मारकर इनका संकटसे उद्धार । इससे संतुष्ट हुए आचार्य द्रोणका अर्जुनको ब्रह्मशिर अस्त्रका दान (आदि. १३२ । १२१८)। राजकुमारोदारा अस्त्रकलाके प्रदर्शनके लिये इनकी धृतराष्ट्रसे अनुमति-याचना (आदि. १३३ । ३)। इनके द्वारा राजकुमारोंके अस्त्र-कौशल-प्रदर्शनके लिये विशाल प्रेक्षा-गृह ( रङ्ग-भवन ) का निर्माण ( आदि. १३३ । ८-१४)। समस्त दर्शकोंके जुट जानेपर आचार्य द्रोणका अपने पुत्रके साथ प्रेक्षा-गृहमें प्रवेश ( आदि. १३३ । १५-२०)। द्रोणद्वारा देवपूजन
और ब्राह्मणोंसे मङ्गल कार्य-सम्पादन (आदि. ११३ । २१)। इन्हें दक्षिणारूपमें सुवर्ण, मणि, रत्न और नाना प्रकारके वस्त्रकी प्राप्ति ( आदि. १३३ । २१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। राजकुमारोंद्वारा आचार्य द्रोणकी
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द्रोण
( १५७ )
द्रोण
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यथोचित पूजा ( आदि. १३३ । २३ के बाद दाक्षिणात्य पाट)। इनकी आज्ञासे राजकुमारोंका अस्त्र-कौशलप्रदर्शन (आदि० १३३ । २३ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। भीम और दुर्योधनके गदा-युद्धको रोकनेके लिये इनका अश्वत्थामाको आदेश (आदि० १३४ । ४)। इनके द्वारा रङ्गभूमिमें अर्जुनकी प्रशंसा और उनकी ओर दर्शकोंकी दृष्टिको आकर्षित करना (आदि. १३४ । ७)। आचार्यको प्रणाम करके इनकी आज्ञा ले कर्णद्वारा भी अस्त्र-कौशल-प्रदर्शन (आदि० १३५ । १२) । द्रुपदको बंदी बनाकर लाने के लिये इनका शिष्योंको आदेश देना और अर्जुनद्वारा बंदी बनाकर लाये हुए उपदको उनका आधा राज्य देकर उन्हें छोड़ देना (आदि. १३७ अध्याय)। ब्रह्मशिर नामक अस्त्रकी परम्परा तथा उसके उपयोगका नियम बतलाकर इनका वह अस्त्र अर्जुनको देना और युद्धभूमिमें विरोधी होनेपर अपने साथ भी लड़नेके लिये उनसे वचन लेना (आदि. १३८ । ९--१४)। इनके जन्म, अध्ययन तथा द्रुपदद्वारा प्राप्त हुए तिरस्कारका एकचक्रा नगरीमें ब्राह्मणद्वारा पाण्डवोंके प्रति वर्णन(आदि. १६५ । १-१५)। धृष्टद्युम्नको अस्त्र-शिक्षा देनेकी इनकी उदारता ( आदि० १६५१५५)। द्रौपदी तथा पाण्डवोंके लिये उपहार भेजने द्रौपदीसहित उनको आदरपूर्वक द्रुपदनगरसे बुलाने एवं उनका आधा राज्य उन्हें दे देने के लिये इनका धृतराष्ट्रसे अनुरोध (आदि० २०३ । १----१२)। कर्णको इनकी फटकार ( आदि० २०३ । २६-२८)। ये युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें आये थे (सभा० ३४ । ८)। युधिष्ठिरका आचार्यके चरणोंमें प्रणाम करना और अपने यज्ञमें उनसे अनुग्रह करनेको कहना (सभा० ३५ । १-२)। राजसूय-यज्ञमें कौन काम हुआ और कौन नहीं हुआ' इसकी देख-रेखका कार्य द्रोण और भीष्मको सौंपा गया था (सभा० ३५ । ६)। युधिष्ठिर और शकुनिमें जुएका खेल आरम्भ होनेपर धृतराष्ट्रको आगे करके वहाँ द्रोणाचार्य भी आये थे (सभा० ६० । २)। आचार्य द्रोण जुआ खेलना पसंद नहीं करते थे ( वन० ९ । २)। इनमें चारों अङ्गोंसे पूर्ण धनुर्वेद विद्यमान था ( वन० ३७ । ४)। पाण्डवोंकी खोजके विषयमें दुर्योधनको इनकी सम्मति (विराट० २७ अध्याय)। बृहन्नला-वेषमें युद्ध के लिये आते हुए अर्जुनके पराक्रमका इनके द्वारा वर्णन (विराट. ३९ अध्याय)। अर्जुनका शङ्खनाद सुनकर उन्हें अर्जुन ही समझकर कौरवोंसे अपशकुनोंका वर्णन (विराट० ४६ । २४-३३)। इनके द्वारा दुर्योधनकी रक्षाका प्रयत्न (विराट० ५१ । १८--२१)। अर्जुनके साथ इनका युद्ध और घायल होकर पलायन (विराट० ५८ अध्याय)।
इनके द्वारा भीष्मकी बातोंका अनुमोदन ( उद्योग ४९ । ४४-३६)। श्रीकृष्णके कथनका समर्थन करते हुए दुर्योधनको समझाना (उद्योग० १२५ । १०--
७)। दुर्योधनको पुनः समझाना ( उद्योग. १२६ अध्याय)। दुर्योधनको युद्ध न करने के लिये समझाना (उद्योग० अध्याय १३८ से १३९ तक)। भीष्मद्वारा कहे गये कर्णके निन्दासूचक वाक्योंका इनके द्वारा समर्थन (उद्योग १६८ । ८-९)। दुर्योधनके पूछनेपर एक मासमें पाण्डव. सेनाके नाश करनेकी अपनी शक्तिका कथन ( उद्योग. १९३ । १८)। आचार्य द्रोणके रथ और घोड़ोंका वर्णन (भीष्म २० । ११)। युधिष्ठिरको युद्धकी आशा देकर उनकी शुभकामना करना और उन्हें अपनी मृत्युका उपाय बतलाना (भीष्म० ४३ । ५३-६६)। प्रथम दिनके संग्राममें धृष्टद्युम्नके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ४५।३१-३४)। धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध में इनका अद्भुत पराक्रम ( भीष्म० ५३ अध्याय)। द्रुपदपर विजय और अद्भूत पराक्रम प्रकट करना (भीष्म ७७ । ४८-६७)। इनके द्वारा धृष्टद्युम्नकी पराजय (भीष्म ७७ । ६९-७०)। इनके द्वारा विराट-पुत्र शङ्खका वध और विराटकी पराजय (भीष्म ८२ । २३.२४)। भीमसेनके प्रहारसे इनका मूञ्छित होना (भीष्म० ९४ । १९) । अर्जुनके साथ इनका युद्ध (भीष्म० १०२। ६-२२)। इनके द्वारा द्रुपदकी पराजय (भीष्म० १०४ । २४-२५ ) | युधिष्ठिरके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११० । १७ भीष्म० १११। ५०-५२) । अश्वत्थामासे अशुभ उत्पातोंका वर्णन और उसे भीष्मकी रक्षाके लिये धृष्टद्युम्नसे युद्ध करनेका आदेश ( भीष्म० ११२ अध्याय )। धृष्टद्युम्नके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११६।४५-५४)। भीष्मके गिरनेके बाद प्रधान सेनापतिके पदपर इनका अभिषेक (द्रोण. ७।५)। धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध (द्रोण. ७ । ४८-- ५४)। इनका अद्भुत पराक्रम और मृत्युकी चर्चा (द्रोण. ८।८-३२)। युधिष्ठिरको जीवित पकड़नेके लिये दुर्योधनको वर देना (द्रोण. १२ । २०-२०)। इनका अद्भुत पराक्रम (द्रोण. १३ । १९-२९ द्रोण. १४। १-१९)। द्रुपदपर आक्रमण (द्रोण. १४ । २६)। इनके द्वारा कुमारकी पराजय (द्रोण. १६ । २५)। युगन्धरका वध (द्रोण० १६। ३.)। इनके द्वारा व्याघ्रदत्त और सिंहसेनका वध (द्रोण. १६ । ३७)। अर्जुनके साथ युद्ध और अपनी सेनाको लौटा लेना (द्रोण०१६ । ५०-५१)। दुर्योधनसे अर्जुनको युद्धस्थलसे दूर हटानेके लिये कहना (द्रोण० १७ । ३-१०)। इनके द्वारा वकका वध (द्रोण० २१ ।
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द्रोण
( १५८ )
दाणा
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१६)। सत्यजित्का वध (द्रोण. २१ ।२१)। ६८-७१)। भीमसेनद्वारा इनकी पराजय (द्रोण. शतानीकका वध (द्रोण. २१ । २८)। दृढ़सेनका १२७ । ५३-५४)। भीमसेनद्वारा आठ बार रथसहित वध (द्रोण. २१ । ५२)। क्षेमका वध (द्रोण० इनका फेंका जाना (द्रोण. १२८ । १८-२१)। २१ । ५३)। इनके द्वारा वसुदानका वध (द्रोण. दुर्योधनको द्युतका परिणाम दिखाते हुए युद्ध के लिये २१ । ५५)। क्षत्रदेवका वध (द्रोण० २१ । ५६)। भेजना (द्रोण. १३० । १३-२४) । दुर्योधनके पाण्डवसेनाको क्षुभित करके धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध (द्रोण. उपालम्भ देनेपर उसे उत्तर देना ( द्रोण० १५१ ३१ । ८-१८ )। इनके द्वारा पाण्डवसेनाका संहार अध्याय)। पाण्डवसेनापर आक्रमण और उसका संहार (द्रोण. ३२ । ४१-४३)। दुर्योधनसे पाण्डवपक्षके (द्रोण. १५४ अध्याय )। इनके द्वारा केकयों, किसी महारथीको मारनेकी प्रतिज्ञा (द्रोण. ३३ । धृष्टद्युम्नके सभी पुत्री तथा सारथिसहित राजा शिविका १०-१५)। इनके द्वारा चक्रव्यूहका निर्माण (द्रोण. वध (द्रोण० १५५ । १४-१९)। युधिष्ठिरके साथ ३४ । १३-२५) । अभिमन्युके पराक्रमकी प्रशंसा युद्ध में पराजित होना (द्रोण० १५७ । २८-४३)। करना (द्रोण० ३९ । ११-१३)। कर्णके पूछनेपर अर्जुन और भीमसेनके साथ युद्ध (द्रोण० १६१ अभिमन्युकी प्रशंसा करते हुए उसके वधका उपाय अध्याय ) । युधिष्ठिरके साथ युद्धमें मूर्छित होना बतलाना (द्रोण० ४८। १९-३१)। इनके द्वारा (द्रोण. १६२ ४९)। धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध (द्रोण. अभिमन्युके तलवारका काटा जाना (द्रोण. ४८। ७० । २-११)। दुर्योधनको अर्जुनकी प्रशंसासे गर्भित ३७-३८)। अर्जुनके भयसे भीत जयद्रथको आश्वासन उत्तर (द्रोण०१८५।१०-२०)। दुर्योधनको व्यङ्गयपूर्ण देना (द्रोण. ७४ । २५-३३)। जयद्रथको आश्वासन उत्तर : द्रोण० १८५। २४-३७)। इनके द्वारा द्रुपदके (द्रोण० ८७ । १५)। इनके द्वारा चक्रशकटव्युहका तीन पौत्र, द्रुपद और विराटका वध (द्रोण० १८६।३३निर्माण करके जयद्रथकी रक्षाकी व्यवस्था (द्रोण. ८७ । ४३)। इनका अर्जुनके साथ घोर युद (द्रोण० १८८ । २२)। अर्जुनके साथ युद्ध (द्रोण. ९१।११-२९)। २४-५३)। अश्वत्थामाकी मृत्यु सुनकर जीवनसे निराश दुर्योधनका उपालम्भ सुनकर उसे ही अर्जुनके साथ होना (द्रोण. १९० । ५७-५९)। धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध करनेके लिये भेजना (द्रोण. ९४ । १९-२६)। भयंकर युद्ध (द्रोण. १९१ अध्याय)। अस्त्र त्यागकर दिव्य कवचकी उत्पत्तिका प्रसंग बताकर दुर्योधनके योगधारणाद्वारा इनका ब्रह्मलोकगमन (द्रोण० १९२ । शरीरमें कवच बांधना (द्रोण. ९४ । ३९-६८)। ४३-५३)। धृष्टद्युम्नद्वारा इनके सिरका काटा जाना धृष्टद्युम्न के साथ घोर युद्ध (द्रोण अध्याय ९५से ९७ तक)। (द्रोण०१९२ । १२-६३)। अश्वत्थामाके जन्मकालमै सात्यकिके साथ घोर संग्राम (द्रोण ९८ अध्याय)। इनके द्वारा ब्राहाणों के लिये एक हजार गौओंका दान किये इनका युधिष्ठिरके साथ युद्ध और उन्हें पराजित करना
जानेकी चर्चा (द्रोण. १९६ । २९-३०)। महाराज (द्रोण० १०६ । १८-४७)। इनके द्वारा पाण्डवसेना- पृषदश्वसे इन्हें खड्ग की प्राप्तिका प्रसंग (शान्ति. १६६ । का संहार और सात्यकिका घायल होना (द्रोण.११०।
८१)। इनके लिये श्राद्धकर्मका सम्पादन (शान्ति. १-३५)। सात्यकिके साथ युद्ध (द्रोण. ११३ । ४२ । ३)। ये इन्द्रियसंयम और तपसे ही वेदोंके विद्वान् २१-३३)। सात्यकिद्वारा इनकी पराजय (द्रोण.
एवं समाजमें प्रतिष्ठित हुए । तपस्याके द्वारा ही ये अपनी ११७ । ३०)। सात्यकिसे पराजित होकर भागे हुए
प्रकृतिको प्राप्त हुए (शान्ति. २९६ । १५-१६)। दुःशासनको फटकारना (द्रोण. १२२१२-२७)।
व्यासजीके आवाहन करनेपर परलोकवासी कौरव-पाण्डव इनके द्वारा वीरकेतुका वध (द्रोण. १२२ । ४१)।
वीरोंके साथ ये भी गङ्गाजलसे प्रकट हुए थे (आश्रम० ३२ । चित्रकेतु, सुधन्वा, चित्रवर्मा और चित्ररथका वध ७)। ये मृत्युके पश्चात् स्वर्गमें गये, बृहस्पतिके समीप ( द्रोण. १२२ । ४८-४९ ) । धृष्टद्युम्नके प्रहारसे देखे गये और वहाँ कुछ कालके पश्चात् बृहस्पतिके अंशमें मूछित होना (द्रोण. १२२ । ५६ ) । धृष्टद्युम्नपर मिल गये ( स्वर्गा० ४ । २१, स्वर्गा० ५। १२ )। इनकी विजय ( द्रोण० १२२ । ७१-७२ )। इनके महाभारतमें आये हुए द्रोणाचार्यके नाम-आचार्य, द्वारा बृहत्क्षत्रका वध (द्रोण. १२५। २२)। पुत्र- आचार्यमुख्य, भारद्वाज, भरद्वाजसुत. भरद्वाजात्मज, सहित धृष्टकेतुका वध (द्रोण० १२५ । ३९-४१)। भारताचार्य, शोणाश्व, शोणाश्ववाह, शोणहय, गुरु, रुक्मरथ जरासंधकुमार सहदेवका वध (द्रोण० १२५। १५)। आदि । (२) मन्दपालऋषिके द्वारा जरिता (पक्षिणी) के धृष्टद्युम्नकुमार क्षत्रधर्माका वध (द्रोण. १२५ । गर्भसे उत्पन्न चार पुत्रों में से एक (आदि० २२८ । ६६ )। चेकितानकी पराजय (द्रोण. १२५। १७)। द्रोण ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ होगा—ऐसा पिताका
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द्रोणपर्व
( १५९ )
द्रौपदी
इसके विषयमें भविष्य कथन (आदि० २२९ । ९१०)। इसके द्वारा अग्निदेवकी स्तुति (आदि० २३३ । १५-१९) । अग्निकी कृपाद्वारा खाण्डवदाहसे इसकी
भाइयोसहित रक्षा (आदि० २३१ ।२०-२३)। द्रोणपर्व-महाभारतका एक मुख्य पर्व । द्रोणवधपर्व-द्रोणपर्वका एक अवान्तरपर्व (अध्याय १८४से
१९२ तक)। द्रोणशर्मपद-एक तीर्थ, यहाँ स्नान करनेका विशेष फल
(अनु० २५ । २८)। द्रोणाभिषेकपर्व-द्रोणपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
से १६ तक )। द्रौपदी-महाराज द्रुपदकी सती-साध्वी पुत्री कृष्णा, जो शची
देवीके अंशसे उत्पन्न हुई थीं ( आदि० ६७ | १५७)। महर्षि याजद्वारा अग्निमें आहुति डालनेपर यज्ञकुण्डसे कुमार धृष्टद्युम्नके बाद इनका प्राकटय हुआ । अतः ये धृष्टद्युम्नकी बहिन हुई (आदि०१६६ । ३९-४४)। इन्हें पाञ्चाली कहा जाता था। इन्हें पाण्डवोंने पत्नीरूपमें प्राप्त किया तथा इनके गर्भसे उनके पाँच पुत्र हुए । युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे सुतसोम, अर्जुनसे श्रुतकीति, नकुलसे शतानीक और सहदेवसे श्रुतकर्माका जन्म हुआ था (आदि. ९५। ७५)। इनके अनुपम सौन्दर्यका वर्णन (आदि. १६६ ॥४५-४७)। इनके जन्मके समयको आकाशवाणी-इस कन्याका नाम कृष्णा है। यह समस्त युवति योंमें श्रेष्ठ एवं सुन्दरी है । क्षत्रियोंका संहार करने के लिये प्रकट हुई है। यह यथासमय देवताओंका कार्य सिद्ध करेगी। और इसके द्वारा देवताओंको महान् भय प्राप्त होगा ( आदि. १६६ । ४८-४९)। ब्राह्मणोंद्वारा इनका नामकरण (आदि०१६६ । ५४)। व्यासजीका द्रौपदीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना भगवान् शंकरद्वारा इन्हें पाँच पति प्राप्त होने का वरदान ( आदि. १६८ अध्याय)। इनके स्वयंवर में विभिन्न देशोंसे आये हुए राजाओंका धृष्टद्युम्नद्वारा इनको परिचय-प्रदान (आदि. १८५ अध्याय)। सूतजातिके पुरुषको अपना पति न बनानेके विषयमें इनकी घोषणा (आदि० १८६ । २३) । इनका अर्जुनके गलेमें जयमाला डालना (भादि० १८७ । २५ के बाद दा० पाठ) । अर्जुन और भीमसेनके साथ इनका कुम्भकारके घरमें जाना (आदि. १८९ । ४१४-७)। घर जाकर पाण्डवोका मातासे द्रौपदीको भिक्षा बताना और माताका बिना देखे ही उसे पाँचोंको उपयोगमें लाने की आज्ञा देना (आदि. १९०। १२)। कुम्भकारके घर जानेपर इनके सम्बन्धमै द्रुपदके ऊहापोह और चिन्ता (आदि० १११ । १४-१८)।
व्यासद्वारा द्रुपदको इनके पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनाना
और इन्हें स्वर्गलोककी लक्ष्मी बताना ( आदि.१९६ अध्याय)। धौम्य मुनिद्वारा क्रमशः प्रत्येक पाण्डवके साथ विधिपूर्वक इनके विवाह-संस्कारका सम्पादन (आदि०१९७ अध्याय)। कुन्तीद्वाग इनको आशीर्वाद तथा शिक्षा ( आदि. १९८ । ४-१२)। हस्तिनापुर जाते समय इनको द्रुपदद्वारा दहेज रूपमें विपुलधनराशिकी भेंट (आदि० २०६ । ९ के बाद दा० पाठ)। धृतराष्ट्रकी पुत्रवधुओंद्वारा इनका स्वागत (आदि० २०६ । २२ के बाद दा. पाठ)। सुभद्राके आनेपर इनका अर्जुनके प्रति प्रणयकोष (आदि. २२० । १६.१.)। इनके समीप सुभद्राका गोपीवेषमें आगमन (आदि. २२० । १९)। दुःशासनद्वारा बलपूर्वक केश पकड़कर इनका सभामें लाया जाना (सभा० ६.|३१)। भरी सभामें अपने हारे जानेके सम्बन्धमें इनका समस्त सभासदोंसे प्रश्न ( सभा० ६७ । ४-५२)। दुःशासनद्वारा वन खींचे जानेपर इनका आर्तभावसे भगवान्को पुकारना ( सभा० ६८ । ४१-४३ )। इनकी लाज बचानेके लिये भगवान् श्रीकृष्णका स्वयं चीररूप होना और नये-नये चीर प्रकट करना ( सभा० ६८ । ४५-४८)। कौरवोंकी सभामें इनका चेतावनीयुक्त विलाप (सभा० ६९ अध्याय)। इनको धृतराष्ट्रसे वरप्राप्ति (सभा. ७१।२८-३२)। इनका कुन्तीसे वनगमनके लिये विदा लेना (सभा०७९ । १-२)। किर्मारकी मायासे भयभीत होकर मूच्छित होना (वन०११ । १६-१८)। इनके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा उनसे अपने प्रति किये गये अपमान और दुःखका वर्णन ( वन० १२ । ५०-१२७)। युधिष्ठिरका क्रोध उभाड़नेके लिये इनके संतापपूर्ण वचन ( वन० २७ अध्याय)। प्रह्लाद-बलिसंवादका वर्णन करके इनका युधिष्ठिरके क्रोधको उभाड़ना (वन० २८ अध्याय)। इनका युधिष्ठिरकी बुद्धि, धर्म एवं ईश्वरके न्यायपर आक्षेप (वन०३० अध्याय)। युधिष्ठिरको पुरुषार्थ करनेके लिये जोर देना (वन० ३२ अध्याय )। तपके लिये जाते हुए अर्जुनके प्रति इनकी शुभाशंसा (वन० ३७ । २४-३५)। इनकी अर्जुनके लिये चिन्ता (वन०८०। १२-१५)। गन्धमादनकी यात्रामें इनका मूञ्छित होना (वन. १४४ । ४)। इनकी भीमसेनसे सौगन्धिक पुष्पोंकी माँग (वन० १४६ । ७)। जटासुरद्वारा इनका हरण और भीमसेनका उसे मारकर इनकी तथा भाइयोंकी रक्षा करना (वन० १५७ अध्याय)। इनका आर्टिषेणके आश्रममें भीमसेनसे उस पर्वतपर रहनेवाले राक्षसोको मारनेका
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द्रौपदी
( १६० )
द्रौपदी
अनुरोध ( वन० १६० । १२-२४)। सत्यभामासे जाते समय पतियोंको पुकारना ( विराट. २३ । १२
१४)। बृहन्नलारूपधारी अर्जुनसे मिलना (विराट २३३ । १० से २३४ अध्यायतक ) । दुर्वासाके २४ । २१)। महलसे निकल जानेके लिये कहनेपर आतिथ्यके लिये चिन्तित होकर श्रीकृष्णकी स्तुति करना तेरह दिन और रहनेके लिये रानी सुदेष्णासे प्रार्थना (वन० २६३। ८-१६)। द्रौपदीपर संकट जानकर करना (विराट. २४ । २९ )। उत्तरसे बृहन्नलाभक्तवत्सल भगवान्का आना और द्रौपदीका उनसे रूपधारी अर्जुनको सारथि बनानेका प्रस्ताव करना दुर्वासाके आगमन आदिका वृत्तान्त निवेदन करना (विराट. ३६ । १६-१९)। शान्तिदत बनकर (वन० २६३। १७-१९)। श्रीकृष्णका अपनेको जानेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णसे केशाकर्षणकी याद भूखा बताकर द्रौपदीसे भोजन माँगना तथा द्रौपदीका
दिलाते हुए अपमा दुःख सुनाना और युद्ध की ही सम्मति लज्जित होकर यह बताना कि खानेके लिये कुछ नहीं देना (उद्योग०८२। ४-४१)। विलाप करती हुई बचा है (वन० २६३ । २०-२१)। 'कृष्णे! परिहासन सुभद्रा और उत्तराके पास आना तथा शोकसे मूच्छित कर । मुझे बटलोई लाकर दिखा' श्रीकृष्णके इस प्रकार होना (द्रोण. ७८ । ३६-३७)। पुत्रोंके वधका आग्रह करनेपर द्रौपदीका बटलोई लाकर उन्हें देना और समाचार सुनकर विलाप करना और अश्वत्थामाके वधके उसके कण्ठमें लगे हुए तनिकसे शाकको खाकर श्रीकृष्णका लिये आग्रह करना ( सौप्तिक. ११।१०-१५)। द्रौपदीसे यह कहना कि इस शाकसे सम्पूर्ण विश्वके आत्मा भीमसेनको अश्वत्थामाके वधके लिये प्रेरित करना यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरि तृप्त एवं संतुष्ट हो' (सौप्तिक० ११।२२-२७ )। भीमसेनके वचनोंसे (वन० २६३ । २२-२५)। जयद्रथद्वारा भेजे हुए शान्त होकर युधिष्ठिरको अश्वत्थामाकी मणि धारण करनेकोटिकास्यको उत्तर देना (वन० २६६ अध्याय)। को देना (सौप्तिक. १६ । २४ )। कुन्तीके पास जयद्रथको फटकारना (वन० २६७ । १९, २६८१२- पहुँचकर विलाप करना (स्त्री०१५। ३७-३८)। राजदण्ड
९)। जयद्रथके सामने पाण्डवोंके पराक्रमका वर्णन धारण करने के लिये युधिष्ठिरको समझाना (शान्ति० १४ . (वन० २७० अध्याय )। युधिष्ठिरके पूछनेपर विराट- अध्याय)। पाण्डवोंके नगरमें प्रवेश करते समय हस्तिनानगरमें खयं सैरन्ध्रीरूपमें रहनेकी बात बताना (विराट. पुरकी स्त्रियोंद्वारा पाञ्चालीके पतिसेवन, अमोघ पुण्य-कर्म ३।१८)। सैरन्ध्रीवेषमें इनका विराटपत्नी सुदेष्णासे तथा सकल व्रतचर्याकी प्रशंसा (शान्ति० ३८ । ५-६)। अपनेको महलमें रखनेका अनुरोध (विराट. ९। सुभद्रा और बलदेवके साथ हस्तिनापुरमें पधारे हुए ८)। कीचकको धर्मकी बातें कहकर समझाना श्रीकृष्णका द्रौपदी आदिसे मिलना ( आश्व० ६७ । (विराट. १४ । ३४-३७)। कीचकको फटकारना ४-५)। श्रीकृष्णके सूतिकागृहमें प्रवेश करते समय (विराट. १४ । ४७-५२)। कीचकके घर सुदेष्णा- द्रौपदीका उत्तराके पास जाकर उसे सूचित करना कि के भेजनेसे सुरा लानेके लिये जाना (विराट. १५। तुम्हारे श्वशुर भगवान् मधुसूदन पधार रहे है ( आश्व. १७)। कीचकके भरी सभामें लात मारनेपर इनका राजा ६८। ९)। श्रीकृष्णके द्वारा अर्जुनकी पिंडलियाँ मोटी विराटको उलाहना देना और फटकारना (विराट. १६ । बतायी जानेके कारण द्रौपदीने भगवान् श्रीकृष्णकी ओर १८-१२ के बाद दा० पाठविराट०१६ । २१ के बाद दा० तिरछी चितवनसे ईर्ष्यापूर्वक देखा और श्रीकृष्णने द्रौपदीके पाठ)। सुदेष्णाके पूछनेपर रोनेका कारण बताना उस प्रेमपूर्ण उपालम्भको सानन्द ग्रहण किया ( आश्व० (विराट. १६ । ४९)। रातमें भीमसेनके पास जाना ८७ । ११)। चित्राङ्गदा और उलूपीका द्रौपदीके चरण ( विराट. १७ । ७-८)। भीमसेनसे अपना दुःख छूना और द्रौपदीका अपनी ओरसे उन्हें नाना प्रकारके बताना और कीचकको मार डालनेके लिये आग्रह करना उपहार देना ( आश्व० ८८ । २-४)। श्रीकृष्णका (विराट. १८ अध्याय )। पाण्डवोंके दुःखसे दुखी ___ द्रौपदी आदिसे मिलकर द्वारका जानेके लिये रथपर आरूढ़ होकर भीमसेनके सम्मुख विलाप करना (विराट. १९ होना ( आश्व० ९२ । वैष्णवधर्म, पृष्ठ ६३८१ )। अध्याय )। भीमसेनसे अपना दुःख निवेदन करना द्रौपदीके द्वारा कुन्ती और गान्धारीकी सेवा ( आश्रम (विराट० २० अध्याय)। कीचकद्वारा अपनेपर बीती। १।९)। वनमें जाते हुए धृतराष्ट्र, गान्धारी और हुई घटनाका भीमसेनसे वर्णन करना और कीचकके वध- कुन्तीके पीछे द्रुपदकुमारी कृष्णा आदिका जाना और के लिये आग्रह करना (विराट० २१ । १८-४८)। विलाप करना ( आश्रम० १५ । १०-११)। कुन्तीका कीचकको नृत्यशालामें मिलने के लिये संकेत देना (विराट. युधिष्ठिरको बहू द्रोपदीका सदा प्रिय करते रहनेके लिये २२ । १६-१७)। उपकीचकोंद्वारा श्मशानमें ले जाये आदेश देना ( आश्रम० १६ । १५)। रोती हुई
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द्रौपदी सत्यभामा संवादपर्व
द्वारका (द्वारवती या द्वारावती)
सुभद्रासहित द्रौपदीका अपनीसासके पीछे जाना (आश्रम १६ । ३०)। द्रौपदीका युधिष्ठिरसे अपनी सासके दर्शनकी इच्छा प्रकट करना और अन्तःपुरकी सभी स्त्रियोंको कुन्ती एवं गान्धारीके दर्शनके लिये उत्सुक बताना ( आश्रम. २२ । १४-२२)। द्रौपदी आदिका कुन्ती, गान्धारी और धृतराष्ट्रको प्रणाम करना (आश्रम २४ । १९)। संजयका ऋषियोंसे द्रौपदीका परिचय देते समय इन्हें मूर्तिमती लक्ष्मी बताना (आश्रम० २५ । ९)। द्रौपदीका अपने पतियोंके साथ महाप्रस्थानके पथपर अग्रसर होना (महाप्रस्था० १ । १९-२०)। मार्गमें द्रौपदीका गिरना और भीमसेनके पूछनेपर युधिष्ठिरका इनके पतनका कारण बताना (महाप्रस्था. २। ३-६ )। स्वर्गलोकमें युधिष्ठिरका दिव्यकान्तिसे सूर्यदेवकी भाँति प्रकाशित होती हुई द्रौपदीका दर्शन करना और इन्द्रका स्वर्गलोककी लक्ष्मी बताकर इनका
और इनके पुत्रोंका परिचय देना (स्वर्गा०४।१०-१४)। महाभारतमें आये हुए द्रौपदीके नाम-पाञ्चाली, कृष्णा, याज्ञसेनी, द्रुपदात्मजा, द्रुपदसुता, पाञ्चालराजदुहिता
आदि । द्रौपदी-सत्यभामासंवादपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर
पर्व ( अध्याय २३३ से २३५ तक)। द्रौपदीहरणपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
२६२ से २७१ तक)। द्वयक्ष-एक भारतीय जनपद: जहाँके राजा युधिष्ठिरके लिये भेंट लेकर आये थे ( सभा० ५१ । १७)।
ही उस गढ़का प्रधान फाटक था। कम-से-कम अठारह रण-दुर्मद क्षत्रिय वीर उस दुर्गकी सुरक्षामें सदा संलग्न रहते थे। ( सभा० १४ । ५०-५५ ) । द्वारका पुरुषोत्तम श्रीकृष्णका प्रधान निवासस्थान थी। वह अमरावतीपुरीसे भी अधिक रमणीय थी। वहाँ वृष्णिवंशियोंके बैठने के लिये एक सुन्दर सभा थी, जो दाशाहीके नामसे प्रसिद्ध थी । उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक योजन थी। उसमें बलराम और श्रीकृष्ण आदि सभी वृष्णि और अन्धक वंशके लोग बैठते और सम्पूर्ण लोक-जीवनकी रक्षामें दत्तचित्त रहते थे ( सभा०३८ । पृष्ठ ८०६)। द्वारकाके रमणीय राजसदन सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाशमान तथा मेरुपर्वतके शिखरोंकी भाँति गगनचुम्बी थे। उन भवनोंसे विभूषित द्वारकापुरीकी रचना साक्षात् विश्वकर्माने की थी। इसके चारों ओर बनी हुई चौड़ी खाइयाँ इसकी शोभा बढ़ाती थी। यह पुरी ऊँची श्वेत चहारदीवारीसे घिरी थी। वहाँ नन्दनवन, मिश्रकवन, चैत्ररथवन और वैभ्राज नामक वन शोभा देते थे । रमणीय द्वारकापुरीकी पूर्वदिशामें उत्तुङ्ग शिखरोंवाला रैवतकपर्वत उस पुरीका आभूषणरूप जान पड़ता था । दक्षिण लतावेष्ट, पश्चिममें सुकक्ष और उत्तरमे वेणुमन्त नामक पर्वत इसकी शोभा बढ़ाते थे। इन पर्वतोंके चारों ओर अनेकानेक मनोहर वन-उपवन वहाँकी श्रीवृद्धि करते थे। पुरीकी पूर्वदिशामें एक रमणीय पुष्करिणी थी, जिसका विस्तार सौ धनुष था। महापुरी द्वारका पचास दरवाजोंसे सुशोभित थी। सुन्दर-सुन्दर महल और अट्टालिकाएँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं । तीखे यन्त्र, शतघ्नी ( तोप ), विभिन्न यन्त्रोंके समुदाय और लोहेके बने हुए बड़े-बड़े चक्र उस पुरीकी रक्षाके लिये लगाये गये थे। पुरीका विस्तार छानये योजन था। उसमें जाने के लिये आठ बड़ी बड़ी सड़के थी और सोलह बड़े-बड़े चौराहे शोभा पा रहे थे। शुक्राचार्यकी नीति के अनुसार उस नगरीका निर्माण किया गया था (सभा० ३८ । पृष्ठ ८१२ से १७ तक)। तीर्थयात्राके अवसरपर यहाँ अर्जुन पधारे थे और उनके स्वागतका बहुत ही सुन्दर आयोजन किया गया था। यहींसे उन्होंने सुभद्राका अपहरण किया था ( आदि० अध्याय २१७ से २१९ तक ) । द्वारकापुरीपर शाल्वका आक्रमण और वृष्णिवंशी वीरों तथा भगवान् श्रीकृष्णद्वारा शाल्वराजका सेनासहित संहार करके इस पुरीकी रक्षा (वन० अध्याय १५ से २२ तक)। ( पुराणान्तरोंके वर्णनके अनुसार मोक्षदायिनी सात पुरियों से एक यह भी है । विभिन्न पुराणों में इसकी महिमाका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है।) द्वारका और वहाँका पिण्डारक
द्वादशभूज-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य४५/५७)।
द्वादशाक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५। ५८)।
द्वापरयुग-सत्ययुगसे तृतं य युग । हनुमानजीद्वारा इस
युगके धर्मका वर्णन (वन० १५५ । २७-३२) । द्वारका ( द्वारवती या द्वारावती )-रैवतक पर्वतसे
सुशोभित रमणीय कुशस्थली, जहाँ जरासंधसे वैर हो जानेपर समस्त यादव श्रीकृष्णकी सम्मतिसे एकत्र होकर रहने लगे। कुशस्थली दुर्गकी ऐसी मरम्मत करायी गयी थी कि वह देवताओंके लिये भी दुर्गम हो गया था। उस दुर्गमें रहकर स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती थीं । फिर वृष्णिकुलके महारथियोंकी तो बात ही क्या थी । रैवतककी दुर्गमताका विचार करके यदुवंशी वहाँ निर्भय एवं प्रसन्न रहते थे। रैवतक या गोमान दुर्गकी लम्बाई तीन योजनकी है । वहाँ एक-एक योजनपर सेनाओंकी तीन-तीन दलोंकी छावनी थी। प्रत्येक योजनके अन्तमें सौ-सौ द्वार थे, जो सेनाद्वारा सुरक्षित थे। वोरोंका पराक्रम
म. ना. २१
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द्वारपालपुर
( १६२ )
धनुर्वेद
क्षेत्र परम पावन तीर्थ हैं । इन तीर्थोकी यात्रा करने- इसलिये द्वैपायन नामसे प्रसिद्ध हुए (आदि. ६३ । वालोंको नियमसे रहना और नियमित भोजन करना ८६)। (देखिये व्यास)। (२) कुरुक्षेत्रका एक चाहिये । यहाँके पिण्डारक-तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सरोवर, जिसमें दुर्योधन भागकर छिपा था (शल्य. अधिकाधिक सुवर्णकी प्राप्ति होती है (वन० ८२ । ३०। ४७)। ६५)। यहीं राजा नृगका गिरगिटकी योनिसे उद्धार हुआ था (अनु. ७०।७)। यही यदुवंशके विनाशके
धनंजय-(१) एक प्रमुख नाग, जो कश्यप और कद्रकी लिये साम्बके पेटसे मूसल पैदा होनेका शाप ऋषियोंद्वारा
संतान है ( आदि० ३५ । ५)। यह वरुणकी सभामें प्राप्त हुआ था (मौसल.। १९-२१)। श्रीकृष्णके
उपस्थित हो भगवान् वरुणकी उपासना करता है (सभा० परमधाम पधारनेपर द्वारकावासी स्त्री-पुरुषोंके द्वारा इस
९।९)। यह त्रिपुर-दाहके समय भगवान् शिवके रथमें पुरीके खाली कर दिये जानेपर समुद्र ने इसे डुबो दिया
घोड़ोंके केसर बाँधनेकी रस्सी बनाया गया था (कर्ण. (मौसल. ७ । ४१-४२)।
३४ । २९-३०)। (२) अर्जुनका एक नाम, सम्पूर्ण द्वारपालपुर-एक प्राचीन नगर, जिसे नकुलने अपने अधि
देशोंको जीतकर कररूपमें धन लेकर धनके ही बीचमें कारमें कर लिया था (सभा० ३२ । ११-१२)।
स्थित होनेके कारण अर्जुनका नाम धनंजय हुआ था द्वित-एक प्राचीन महर्षि, जो गौतमके पुत्र तथा एकत और (विराट० ४४ । १३)। ( देखिये अर्जुन ) । (३) त्रितके भाई थे । इनका लोभवश अपने भाई त्रितको शिवजीद्वारा स्कन्दको दी हुई असुर-सेनाका नाम (शल्य.
कूपमें गिरा छोड़कर एकतके साथ घरको जाना और ४६ । ४७)। त्रितके शापसे भेड़िया होकर लंगूरों, रीछों और वानरोंको
धनद-कुबेरकी सभाका एक यक्ष, जो भगवान् कुबेरकी उत्पन्न करना ( शल्य. ३७ अध्याय )। ये पश्चिम
सेवामें संलग्न रहता है (सभा०१०।१५)। दिशाका आश्रय लेकर रहनेवाले ऋषि हैं ( शान्ति. २०८ । ३१)। ये प्रजापतिके पुत्र माने गये हैं । इन्हें धनदा
धनदा-स्कन्द की अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । १३)। उपरिचरवसुके यज्ञका सदस्य बनाया गया था (शान्ति० धनी-कप नामक दानवोंका दूत, इसके द्वारा ब्राह्मणोंके ३३६ । ६)।
पास जाकर कपोंके सदाचारका वर्णन (अनु० १५७ । द्विमूर्धा-एक राक्षस, जो असुरोंके पृथ्वीदोहनके समय दोग्धा ८-१४)।
(दुहनेवाला ) बना था ( दोण० ६९ । २०)। धनुर्ग्रह (धनुग्रह या धनुधर )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से द्विविद-किष्किन्धानिवासी एक वानर, जिसके साथ सहदेवने एक (आदि० ६७ । १०३, आदि. ११६ । ११)। सात दिनोंतक युद्ध किया था तो भी वे उसे हरा न सके
भीमसेनद्वारा इसका वध ( कर्ण० ८४ । २-६)। (सभा० ३१ । १८-१९) । इसने सहदेवको नाना धनुर्वक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्यः ४५ । ६२)। प्रकारके रत्नोंकी भेंट दी थी (सभा० ३१ । २०)।
धनुर्वेद-वह शास्त्र, जिसमें धनुष आदि अस्त्र-शस्त्रोंको यह सुग्रीवका मन्त्री था (वन० २८० । २३) । इसके
चलानेकी विद्याका निरूपण हो, चार पादोंसे युक्त अस्त्र-शस्त्र संरक्षणमें रहकर श्रीरामका कार्य करनेके लिये वानर सेनाने कूच
विद्या । [ भारतवर्षमें इस विद्याके बड़े-बड़े ग्रन्थ थे, जिन्हें किया था (वन० २८३ । १९)। इसने कभी श्रीकृष्णको
क्षत्रियकुमार अभ्यासपूर्वक पढ़ते थे। मधुसूदन सरस्वतीने पकड़नेकी इच्छा रखकर सौभ विमानके द्वारसे इनपर
अपने प्रस्थानभेद नामक ग्रन्थमें धनुर्वेदको यजुर्वेदका उपवेद पत्थरोंकी वर्षा का था ( उद्योग० १३० । ४१-४२)।
लिखा है। आजकल इस विद्याका वर्णन कुछ ग्रन्थों में थोड़ा बहुत दीपक-गसड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग० १०१।। मिलता है। जैसे----शुक्रनाति, कामन्दकी नोति, अग्निपुराण,
वीर-चिन्तामणि, वृद्धशार्ङ्गधर, युद्धजयार्णव, युक्ति-कल्पतरु, देतवन-एक वन और सरोवर, यहाँ वनवासके समय
नीतिमयूष इत्यादि । 'धनुर्वेद संहिता' नामक एक पाण्डवोंने निवास किया था ( वन० २४ । १३)। यह अलग पुस्तक भी मिलती है, परंतु उसकी प्राचीनता सरस्वतीके तटपर अवस्थित था ( वन० २४ । २०)। और प्रामाणिकतामें संदेह है । अग्निपुराणमें ब्रह्मा और तीर्थयात्राके समय बलरामजीने यहाँ पदार्पण किया था
महेश्वर इस वेदके आदि प्रकटकर्ता कहे गये हैं। परंतु (शल्य० ३७ । २७)।
मधुसूदन सरस्वती लिखते हैं कि विश्वामित्रने जिस वैपायन(१)-महर्षि पराशरके द्वारा सत्यवतीके गर्भसे उत्पन्न धनुर्वेदका प्रकाश किया था, यजुर्वेदका उपवेद वही है।' मनिवर वेदव्यास, जो यमुनाके द्वीपमें छोड़ दिये गये, उन्होंने अपने प्रस्थानभेदमें विश्वामित्रकृत इस उपवेदका
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धन्वन्तरि
( १६३ )
धनुर्वेद
कुछ संक्षिप्त व्यौरा भी दिया है। उसमें चार पाद हैं- है; जैसे-आरामुख, क्षुरप्र, गोपुच्छ, अर्धचन्द्र, दीक्षापाद, संग्रहपाद, सिद्धिपाद और प्रयोगपाद । प्रथम सूचीमुख, भल्ल, वत्सदन्त, द्विभल्ल, कार्णिक, काकतुण्ड दीक्षापादमें धनुर्लक्षण (धनुषके अन्तर्गत सब हथियार इत्यादि । तीरमें गति सीधी रखनेके लिये पीछे पंखोंका लिये गये हैं) और अधिकारियोंका निरूपण है । धनुर्वेदके लगाना भी आवश्यक बताया गया है। जो बाण सारा चार भेद इस प्रकार हैं-मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त तथा
लोहेका होता है, उसे 'नाराच' कहते हैं । यन्त्रमुक्त । छोड़े जानेवाले बाण आदिको 'मुक्त' उक्त ग्रन्थमें लक्ष्यभेद, शराकर्षण आदिके सम्बन्धमें कहते हैं। जिन्हें हाथमें लेकर प्रहार किया जाय, उन बहुत-से नियम बताये गये हैं। रामायण, महाभारत आदिमें खड्ग आदिको 'अमुक्त' कहते हैं। जिस अस्त्रको चलाने शब्दभेदी बाण मारनेतकका उल्लेख है। अन्तिम हिंदूसम्राट
और समेटनेकी कला मालूम हो, वह अस्त्र 'मुक्तामुक्त' महाराज पृथ्वीराजके सम्बन्धमे भी प्रसिद्ध है कि वे कहलाता है। अथवा जिसे छोड़नेके बाद फिर ले लिया जाय शब्दभेदी बाण मारते थे । [-हिंदी-दशब्दसागरसे ] वह भाला, बरछा आदि मुक्तामुक्त है, जो किसी
शरद्वान् धनुर्वेदके पारङ्गत विद्वान् और शिक्षक थे। यन्त्रके सहारे छोड़ा जाय जैसे तोपसे गोला, वह अस्त्र
इनसे कृपाचार्यने धनुर्वेद पढ़ा और अपने शिष्योंको पढ़ाया प्यन्त्रमुक्त' कहा गया है। अधिकारीका लक्षण कहकर
(आदि. १२९ । ३-५, २१, २२, २३)। द्रोणाचार्यने फिर दीक्षा, अभिषेक, शकुन आदिका वर्णन है ।
यह विज्ञान परशुरामसे प्राप्त किया और कौरव-पाण्डवोंको संग्रहपादमें आचार्यका लक्षण तथा अस्त्र-शस्त्रादिके
इसकी शिक्षा दी ( आदि० १२९ । ६६, आदि. १३॥ लक्षणका संग्रह है। तृतीय पादमें सम्प्रदायसिद्ध विशेष
९)। अग्निवेश धनुर्वेदमें अगस्त्यके शिष्य थे ( आदि. विशेष शस्त्रोंके अभ्यास, मन्त्र, देवता और सिद्धि आदि
१३८ । ९) । इसे युधिष्ठिरने कौरवदलके भीष्म द्रोण, विषय हैं। प्रयोग नामक चतुर्थ पादमें देवार्चन, सिद्धि,
कृप, अश्वत्थामा एवं कर्णमें ही पूर्णतः प्रतिष्ठित बताया अस्त्र-शस्त्रादिके प्रयोगोंका निरूपण है।
था (वन० ३७ । ४)। धनुर्वेदके दस अङ्ग और चार शस्त्र, अस्त्र, प्रत्यस्त्र और परमास्त्र—ये भी धनुर्वेदके
चरण हैं। (शल्य०६।१४ की टिप्पणी; ४१२९)। चार भेद हैं। इसी प्रकार आदान, संधान, विमोक्ष और चारों पादोंसे युक्त धनुर्वेद मूर्तिमान् होकर भगवान् स्कन्दकी संहार -इन चार क्रियाओंके भेदसे भी धनुर्वेदके चार भेद सेवामें उपस्थित हुआ था (शल्य. ४४ । २२)। होते हैं। वैशम्पायनके अनुसार शार्ङ्गधनुषमें तीन जगह धनष-एक प्राचीन ऋषि, जो उपरिचर वसुके यज्ञके सदस्य झुकाव होता है; पर वैणव अर्थात् बाँसके धनुषका बनाये गये थे ( शान्ति० ३३६ । ७)। झुकाव बराबर क्रमसे होता है। शाङ्गधनुष साढ़े छः धनषान-एक प्राचीन ऋषि जिन्होंने बालधिऋषिके पुत्र हाथका होता है और अश्वारोहियों तथा गजारोहियोंके मेधावीका ऋषियोंका अपमान करनेके कारण विनाश कर कामका होता है । रथी और पैदलके लिये बाँसका ही दिया (वन० १३५ । ५. ५३)। धनुष ठीक है । अग्निपुराणके अनुसार चार हाथका सन्तरि-देवताओंके वैद्य, जो पुराणानुसार समुद्र-मन्थनके धनुष उत्तम, साढ़े तीन हाथका मध्यम और तीन हाथका
समय और सब वस्तुओंके साथ समुद्रसे निकले थे। हरिअधम माना गया है। जिस धनुषके बाँसमें नौ गाँठे हों; वंशमें लिखा है कि जब ये समुद्रसे निकले, तब तेजसे उसे 'कोदण्ड' कहना चाहिये । प्राचीनकालमें दो दिशाएँ जगमगा उठी। ये सामने विष्णुको देखकर ठिठक डोरियोंकी गुलेल भी होती थी, जिसे उपलक्षेपक' कहते रहे । इसपर विष्णु भगवान्ने इन्हें अब्ज कहकर पुकारा। थे । डोरी पाटकी और कनिष्ठा अँगुलीके बराबर होनी
भगवान्के पुकारनेपर इन्होंने उनसे प्रार्थना की कि यशमें चाहिये । बाँस छीलकर भी डोरी बनायी जाती है । मेरा भाग और स्थान नियत कर दिया जाय । विष्णुने हिरन या भैंसेकी ताँतकी डोरी भी बहुत मजबूत बन कहा, भाग और स्थान तो बँट गये हैं, पर तुम दूसरे सकती है । ( वृद्धशार्ङ्गधर )
जन्ममें विशेष सिद्धि-लाभ करोगे । अणिमादि सिद्धियाँ तुम्हें बाण दो हाथसे अधिक लंबा और छोटी अँगुलीसे अधिक गर्भसे ही प्राप्त रहेगी और तुम सशरीर देवत्व लाभ मोटा न होना चाहिये । शर तीन प्रकारके कहे गये हैं, करोगे । तुम आयुर्वेदको आठ भागोंमें विभक्त करोगे । जिसका अगला भाग मोटा हो, वह स्त्रीजातीय है। द्वापरयुगमें काशिराज धन्वने पुत्रके लिये तपस्या और जिसका पिछला भाग मोटा हो, वह पुरुष जातीय और अब्जदेवकी आराधना की। अब्जदेवने धन्वके घर स्वयं जो सर्वत्र बराबर हो, वह नपुंसकजातीय कहलाता है। अवतार लिया और भरद्वाज ऋषिसे आयुर्वेद-शास्त्रका स्त्री जातीय शर बहूत दूरतक जाता है, पुरुषजातीय अध्ययन करके प्रजाको रोगमुक्त किया । भावप्रकाशमें भिदता खूब है और नपुंसकजातीय निशाना साधने के लिखा है कि इन्द्रने आयुर्वेद-शास्त्र सिखाकर धन्वन्तरिको लिये अच्छा होता है। बाणके फल अनेक प्रकारके होते लोकके कल्याणके लिये पृथ्वीपर भेजा । धन्वन्तरि काशीमें
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धमधमा
( १६४ )
धर्मव्याध
उत्पन्न हुए और ब्रह्माके वरसे काशीके राजा हुए लिया था (द्रोण. २०१। ५७ )। इन्होंने अपनी पत्नी (हिंदी-शब्द-सागरसे)। ( पुराणान्तरोंके कथनानुसार श्री' के गर्भसे अर्थ नामक पुत्र उत्पन्न किया (शान्ति. ये भगवान्के अवतार हैं।) समुद्र-मन्थनके समय ये ५९ । १३२-१३३)। ये तनु नामक मुनिके रूपमें अमृतका कलश हाथमें लेकर प्रकट हुए थे ( आदि०१८ । उत्पन्न हुए थे (शान्ति० १२८ । २२-२३)। जापक ३८)। वलिवैश्वदेवके समय ईशानकोणमें इन्हें बलि ब्राह्मणके साथ इनका संवाद (शान्ति. १९९ । २०देनी चाहिये (अनु० ९७ । १०-१२)।
२८)। मृगरूपसे सत्य नामक ब्राह्मणकी परीक्षा ली धमधमा-स्कन्दकी अनचरी मातृका (शल्य० ४६ । २०)।
(शान्ति० २७२ । १७)। ब्राह्मणरूप धारण करके धर-(१) धर्मद्वारा धूम्राके गर्भसे उत्पन्न प्रथम वसु
सुदर्शनकी परीक्षा ली (अनु०२।७९)। भैसेके रूपसे (आदि.६६ । १९)। (२) युधिष्ठिरका सम्बन्धी
महर्षि वत्सनाभकी वर्षासे रक्षा करना (अनु. १२ और सहायक राजा (द्रोण० १५८ । ३९)।
अध्याय दाक्षिणात्य पाठ ) । इनके द्वारा धर्मके रहस्यका धर्म-सम्पूर्ण लोकोको सुख देनेवाले एक देवता, जो ब्रह्मा
वर्णन ( अनु. १२६ । २४ --२८ ) । ब्राह्मणरूपमें
राजा जनकसे इनका संवाद और अन्तमें प्रसन्न होकर जीके दाहिने स्तनसे उत्पन्न हुए थे (आदि० ६६ ।
इनका अपना परिचय देना तथा राजाकी प्रशंसा करना ३.)। ये भगवान् सूर्यके भी पुत्र कहे गये हैं (आदि.
(आश्व० ३२ अध्याय ) । ब्राह्मणरूप धारण करके ६७ । ८६ )। दक्ष-प्रजापतिकी कीर्ति आदि दस पुत्रियाँ
इन्होंने ब्राह्मणपरिवारकी परीक्षा ली ( आश्व० ९० इनकी पत्नी थीं (आदि० ६६ । १३-१५)। आठौं
अध्याय)। क्रोधरूपमें जमदग्निकी परीक्षा ली ( आश्व० वसु इनके पुत्र थे ( आदि० ६६ । १७)। इनके तीन
९१ । ४२-५२)। माण्डव्यके शापसे धर्म ही विदुर श्रेष्ठ पुत्र हैं--शम, काम और हर्ष (आदि० ६६ ।
हुए थे (आश्रम० २८ । १२) । धर्म, विदुर और ३२ ) । शूद्रयोनिमें जन्म लेनेके लिये इनको
युधिष्ठिरकी एकता ( आश्रम २८ । २१)। पाण्डवोंके अणीमाण्डव्यका शाप ( आदि० ६३ । ९५-९६ )।
महाप्रस्थानके समय कुत्तेका रूप धारण करके उनके पीछेइन्हींके अंश विदुर और युधिष्ठिर थे (आदि०
पीछे गये (महाप्रस्था० ३ । १७)। विदुर और युधिष्ठिर ६७ । ८६, ११०)। इनके द्वारा कुन्तीके गर्भसे युधिष्ठिरका जन्म ( आदि. १२२ । ७) । जब द्रौपदी
__ मृत्युके पश्चात् धर्ममें ही विलीन हुए थे ( स्वर्गा० ५। का वस्त्र खींचा जा रहा था, उस समय धर्मस्वरूप
२२)। श्रीकृष्णने अव्यक्त रूपसे उसके वस्त्र में प्रवेश करके भाँति- महाभारतमें आये हुए धर्मके नाम-धर्मराज, वृष, यम भातिके सुन्दर वस्त्रोद्वारा द्रौपदीको आच्छादित कर लिया आदि। (सभा०६८। ४६) । धर्मतीर्थमें इन्होंने तपस्या की धर्मतीर्थ--(१) धर्मकी तपस्याका स्थानभूत एक तीर्थ, थी (वन० ८४ । १)। ये धर्मप्रस्थमें सदा निवास करते हैं जहा स्नान करनेसे मनुष्य धर्मशील और एकाग्रचित्त होता (वन० ८४ । ९९)। वैतरणीके तटपर इन्होंने यज्ञ है तथा अपने कुलकी सातवीं पीढ़ीतकके लोगोंको पवित्र किया था ( वन० ११४ । ४ )। इनका मृगरूपसे ___ कर देता है (वन० ८४ । १)। (२) एक परम ब्राह्मणका अरणि-काष्ठ लेकर भागना ( वन० ३११ । पवित्र ब्रह्मसेवित तीर्थ, जहाँ जाकर स्नान करनेवाला ९)। यक्ष-रूपसे नकुल, सहदेव, अर्जुन और भीमसेनको वाजपेय यज्ञका फल पाता है और विमानपर बैठकर पूजित मूञ्छित करना (वन० ३१२ अध्याय) । युधिष्ठिरके
होता है (वन.८४ । १६२)। साथ प्रश्नोत्तर ( वन० ३१३ । ४५–१३२ )। धर्मद--स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५। ७२)। युधिष्ठिरके उत्तरसे प्रसन्न होकर इनके द्वारा चारों धर्मनेत्र--पूरवंशीय महाराज कुरुके प्रपौत्र एवं धृतराष्ट्रके पाण्डवोंको जीवनदान (वन० ३१३ । १३३) । धर्मके
र पुत्र (आदि० ९४ । ६०)। पास पहुँचनेके द्वार-अहिंसा, समता, शान्ति, दया और अमत्सर ( वन० ३१४ । ८)। धर्मरूपमें प्रकट होकर धर्मप्रस्थ-एक तीर्थ, जहाँ धर्मराजका नित्य निवास है। वहाँ इनका युधिष्ठिरको वरदान देना (वन० ३१४ । १२-- कूपजलसे देवता-पितरोंका तर्पण करनेसे मनुष्य पापमुक्त २५) । वसिष्ठका रूप धारण करके विश्वामित्रकी परीक्षा हो स्वर्गलोकको जाता है (वन० ८४ । ९९ )। लेना ( उद्योग. १०६ । ४.-१७ ) । ब्रह्माजीकी धर्मव्याध-मिथिलापुरीमें रहनेवाला एक धर्मपरायण व्याध । आमासे धर्मने दैत्यों और दानवोंको अपने पाशमें बाँधकर इसके द्वारा वर्णधर्मका वर्णन (वन०२०७।२०-२८)। वरुणके अधिकारमें दे दिया ( उद्योग० १२८ । ४५- शिष्टाचारका वर्णन (वन० २०७ । ६२-९८)। हिंसा ४६)। भगवान् नारायणने धर्मके पुत्ररूपसे अवतार और अहिंसाका विवेचन ( वन० २०८ अध्याय)।
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धर्मारण्य
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( १६५ )
धर्मकर्मविषयक मीमांसा ( वन० २०९ अध्याय ) । विषयसेवन से हानि और ब्राह्मीविद्या का वर्णन ( वन० २१० अध्याय ) । इन्द्रियनिग्रहका वर्णन ( वन० २११ अध्याय )। तीनों गुणोंके स्वरूप और फलका निरूपण ( वन० २१२ अध्याय ) । प्राणवायुकी स्थितिका प्रतिपादन ( वन० २१३ अध्याय ) । माता-पिता की सेवाका दिग्दर्शन ( वन० २१४ अध्याय ) । अपने पूर्वजन्मकी कथा (वन० २१५ अध्याय ) । कौशिक ब्राह्मणको माता-पिता की सेवाका उपदेश देकर विदा करना ( वन० २१६ । ३२ ) ।
धर्मारण्य - ( १ ) एक प्राचीन तीर्थभूत वन, जहाँ प्रवेश करने मात्र से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है ( वन० ८२ । ४६ ) | ( २ ) एक ब्राह्मण, इसका पद्मनाभ नामक नागको अपना परिचय देना ( शान्ति ० ३६१ । ५) पद्मनाभसे सूर्यमण्डलकी बात पूछना ( शान्ति० ३६२ । १ ) । उञ्छतका पालन करनेका निश्चय करके इसका नागराजसे विदा माँगना ( शान्ति ० ३६४ । ७-१० ) । च्यवन ऋषिसे उञ्छत्रतकी दीक्षा लेना ( शान्ति० ३६५ | २ ) ।
धर्मे -- पूरुपुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी नामक अप्सराके
गर्भ से उत्पन्न (आदि० ९४ । ६१ ) । धवलगिरि ( या श्वेत पर्वत)— एक पर्वत, जहाँ अर्जुनने
अपनी सेनाका पड़ाव डाला था ( सभा० २७ । २९ ) । धाता - ( १ ) बारह आदित्योंमेंसे एक, इनकी माताका
नाम अदिति और पिताका कश्यप है ( आदि० ६५ । १५) । खाण्डववन- दाइके समय श्रीकृष्ण और अर्जुनके साथ होनेवाले युद्धमें देवताओंकी ओरसे ये भी पधारे थे (आदि० २२६ । ३४ ) । इनके द्वारा स्कन्दको पाँच पार्षद प्रदान किये गये थे, जिनके नाम थे-- कुन्द, कुसुम, कुमुदः डम्बर और आडम्बर ( शल्य० ४५ । ३९) । (२) ब्रह्माजी के पुत्र इनके दूसरे भाईका नाम विधाता है । दोनों मनुके साथ रहते हैं ( आदि० ६६ । ५० ) । हस्तिनापुर जाते समय मार्गमें श्रीकृष्णसे इनकी भेंट
( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । धात्रेयिका - द्रौपदीकी दासी, जिसने पाण्डवोंसे जयद्रथद्वारा द्रौपदीके अपहरणका समाचार बताया था ( वन० २६९ । १६—२२ ) ।
धाम --श्रीगङ्गा-महाद्वारकी रक्षा करनेवाले मुनि, जो उत्तर दिशामें स्थित हैं ( उद्योग० १११ । १७ ) । धारण --- ( १ ) चन्द्रवत्सकुलमें उत्पन्न एक कुलाङ्गार नरेश ( उद्योग० ७४ । १६ ) | ( २ ) एक कश्यपवंशीय नाग ( उद्योग० १०३ । १६ ) ।
धूत्तं
धारा -- एक तीर्थ, जहाँकी यात्रा सब पापोंसे छुड़ानेवाली है । वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य कभी शोकमें नहीं पड़ता है ( चन० ८४ । २५ ) ।
धिषणा - एक देवी, जिसने स्कन्दके अभिषेकके समय
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पदार्पण किया था ( शल्य ० ४ ५ । १४ ) ।
धीमान् -- पुरूरवाके द्वितीय पुत्र (आदि० ७५ | २४ )। धीरोष्णी -- एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३२ ) । धुन्धु - (१ ) एक राक्षस, जो मधुकैटभका पुत्र था ( वन० २०२ । १८ ) । इसकी तपस्या और वरप्राप्ति ( वन० २०४ । २-४ ) । इसके द्वारा महाराज कुवलाश्वके पुत्रोंका दग्ध होना ( वन० २०४ । २६ ) । राजा कुवलाश्वद्वारा इसका वध ( वन० २०४ । ३२ ) । ( २ ) एक राजा, जिसने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया (अनु० ११५ | ६६ )। धुन्धुमार--सूर्यवंशी महाराज बृहदश्वके पुत्र कुवलाश्व ( द्रोण० ९४ । ४२ ) । इन्हें ऐलविलद्वारा खङ्गकी प्राप्ति हुई ( शान्ति० १६६ | ७६ | अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु० ९४ । २१ ) । ( देखिये कुवलाश्व ) ।
धुरन्धर --- एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४१ )। धूतपापा -- एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९।१८ ) ।
धूमपा -- पितरों और ऋषियोंका समुदाय । ये लोग दक्षके
यज्ञमें पधारे थे ( शान्ति० २८४।८-९
धूमावती - एक पवित्र तीर्थ, जहाँ तीन रात्रि उपवास करनेसे मनोवाञ्छित कामना प्राप्त होती है ( वन० ८४ | २२)।
धूमिनी - पूरुवंशी राजा अजमीढ़की रानी, इनके गर्भसे अजमीद्वारा महाराज ऋक्षका जन्म हुआ था ( आदि० ९४ । ३२ ) ।
धूमोर्णा - ( १ ) यमराजकी भार्या (वन० ११७ । ९ ) । ( २ ) महर्षि मार्कण्डेय की पत्नी ( अनु० १४६ । ४ ) । धूम्र - ( १ ) एक ऋषि, जो इन्द्रकी सभा में विराजमान होते
( सभा० ७ । १७ के बाद दा० पाठ )। (२) स्कन्दका सैनिक ( शल्य० ४५ । ६४ ) ।
धूम्रा - दक्षप्रजापति की पुत्री और धर्मकी पत्नी, जो ध्रुव तथा घरकी माता है ( आदि० ६६ । १९ ) । धूम्राक्ष- एक राक्षस, जिसका हनुमानूजीके द्वारा वध हुआ ( वन०२८६ । १४ ) ।
धूर्त्त - एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३८ ) ।
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धूत्तक
धृतराष्ट्र
धूर्त्तक-कौरव्यकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
सर्पसत्र में जल मरा था (आदि. ५७ । १३)। धृतराष्ट्र--(१)राजा विचित्रवीर्यके क्षेत्रज पुत्र, विचित्रवीर्यकी पत्नी अम्बिकाके गर्भसे व्यासद्वारा उत्पन्न, ये जन्मसे अन्धे थे ( आदि० १ । ९५, आदि०६३ । ११३, आदि० १०५ । १३)। भीष्मद्वारा इनका पुत्रवत् पालन एवं इनके उपनयनादि संस्कारोंका सम्पादन(आदि० १०८ । १७-१८)।इनकी शारीरिक शक्ति एवं शिक्षा (आदि० १०८ । १९.२१)। जन्मान्ध होनेके कारण इनका राज्य-प्राप्तिसे वञ्चित होना (आदि. १०८ । २५)। गान्धारीके साथ विवाह (आदि १०९ । १६)। इनके द्वारा सौ अश्वमेध यज्ञका सम्पादन तथा प्रतियज्ञ- में लाख-लाख स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणाका दान (आदि. ११३ । ५)। इनके द्वारा गान्धारीके गर्भसे सौ पुत्र होनेका वृत्तान्त (आदि. ११४१२-२५)। दुर्योधनके जन्मकालिक अमङ्गलसूचक लक्षणों या अपशकुनोंको देखकर उसे त्याग देनेके लिये इनको विदुरकी सलाह (आदि. ११४ । ३४-३९)। इनके द्वारा वैश्यजातीय स्त्रीके गर्भसे युयुत्सुका जन्म (आदि०११४ । ४३)। इनकी पुत्री दुःशलाके जन्मकी कथा ( आदि. ११५ अध्याय ) । इन्होंने अपने सभी पुत्रोंका विवाहसंस्कार कराया (आदि० ११६ । १७)। अपनी पुत्री दुःशलाका विवाह सिन्धुराज जयद्रथके साथ किया (आदि. ११६ । १८)। पाण्डुके शापग्रस्त होकर वानप्रस्थ लेनेपर इनका शोक (आदि० ११८ । ४५)। इनके द्वारा राजोचित ढंगसे पाण्डु तथा माद्रीके अन्त्येष्टि-संस्कार करानेके लिये विदुरको आदेश ( आदि० १२६ । १-३)। युधिष्ठिरका युवराज-पदपर अभिषेक ( आदि० १३८ । १-२ ) । पाण्डवोंकी उन्नति देखकर इनकी चिन्ता और इनके प्रति कणिकद्वारा कुटनीतिका उपदेश ( आदि. १३९ । ३-९२)। पाण्डवोंको वारणावत जानेके लिये इनका आदेश (आदि. १४२ । १०)। वारणावतनिवासियोंका इनको पाण्डवों एवं पुरोचनके जलनेका संदेश देना (आदि. १४९ । ९)। पाण्डवोंके लिये इनका मिथ्या विलाप ( आदि. १४९। १०)। इनके द्वारा पाण्डवोंको जलाञ्जलि-दान ( आदि. १४९ । १५)। इनका पाण्डवोंके प्रति प्रेमका दिखावा (आदि. १९९ । २२ के बादसे २५ तक)। इनका पाण्डवोंके विषयमें दुर्योधनसे वार्तालाप ( आदि० २०० । १-२०)। द्रुपदनगरसे बुलाकर पाण्डवोंको आधा राज्य देने के लिये इनसे भीष्मका आग्रह (आदि० २०२ अध्याय)। द्रौपदी एवं पाण्डवोंके लिये उपहार भेजने उनको आदरपूर्वक द्रुपदनगरसे बुलाने एवं पाण्डवोंका
आधा राज्य दे देनेके लिये इनसे द्रोणाचार्यका अनुरोध (आदि० २०३।१-१२)। पाण्डवोंका पराक्रम बतला कर उन्हें द्रुपदनगरसे बुलाने एवं उनका आधा राज्य दे देनेके लिये इनसे विदुरकी सलाह ( आदि. २०४। १५-३०)। पाण्डवोंको उनकी माता तथा द्रौपदीके साथ ले आनेके लिये इनका विदुरको आदेश (आदि. २०५ । ४)। द्रुपदनगरसे आते हुए पाण्डवोंकी अगवानीके लिये इनका कौरवोंको आदेश (आदि. २०६ । १२)। इनके द्वारा युधिष्ठिरका आधे राज्यपर अभिषेक और उन्हें भाइयोसहित खाण्डवप्रस्थमें रहनेका आदेश (आदि० २०६ । २३ के बाद दा० पाठ)। ये युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें गये थे (सभा० ३४ । ५)। इनका दुर्योधनसे उसकी चिन्ताका कारण पूछना (सभा० ४९ । ६-११ के बाद दा० पाठ)। इनका युधिष्ठिरको बुलानेके लिये विदुरको भेजना (सभा. ४९ । ५५-५९)। इनका दुर्योधनको वैर-विरोध होनेके कारण जूआ न खेलनेकी सलाह देना (सभा० ५० । १२)। पाण्डवोंके साथ विरोध न करनेके लिये इनका दुर्योधनको समझाना (सभा० ५४ अध्याय)। इनके द्वारा तक्रीड़ाकी निन्दा(सभा० ५६ १२)। पाण्डवोंको धतक्रीड़ामें सम्मिलित होनेके लिये बुलानेके हेतु इनका विदुरको आदेश (सभा० ५६ । २१)। इनका विदुरके साथ वार्तालाप (सभा० ५७ अध्याय )। द्यूतक्रीड़ाके अवसरपर इनको विदुरकी चेतावनी (सभा० ६३ अध्याय)। इनका द्रौपदीको वरदान ( सभा० ७१ । ३१-३३)। इनके द्वारा युधिष्ठिरको सारा धन लौटाकर और आश्वासन दे उन्हें इन्द्रप्रस्थ लौट जानेका आदेश (समा० ७३ अध्याय)। इनकी पुनः जूएके लिये स्वीकृति (सभा० ७४ । २४)। इन्हें गान्धारीकी चेतावनी (सभा०७५ अध्याय)। प्रजाके शोकके विषयमें इनका विदुरसे संवाद (सभा०८० ३५के बाद । दा०पाठ) इनकी चिन्ता तथा संजयसे बातचीत (सभा०८१ अध्याय)। इनके द्वारा विदुरकी सलाहका विरोध (वन ४ । १८-२१)। विदुरको बुलानेके लिये इनका संजयको आदेश (वन०६।५-१०)। इनकी विदुरसे क्षमाप्रार्थना (वन०६।२१)। इनका पाण्डवोंके विषयमें मैत्रेयजीसे प्रश्न करना (वन०१०।९)। इनका संजय के सम्मुख पुत्रोंके लिये चिन्ता करना (वन० ४८ अध्याय)। इनका पाण्डवोंका पराक्रम सुनकर संतप्त होना ( बन० ४९ । १४-२३) । इनका पाण्डवोंके पराक्रम सुनकर भयभीत होना (वन० ५५ । ४५.४६)। पाण्डवोंका समाचार सुनकर इनके खेदयुक्त और चिन्तापूर्ण उद्गार (वन २३६ अध्याय)। इनका दुर्योधन
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धृतराष्ट्र
( १६७ )
धृतराष्ट्र
को घोषयात्राके लिये अनुमति देना ( वन० २३९ । २२)। द्रुपद-पुरोहितको सत्कारके साथ विदा करना (उद्योग०२१ ।२१)। संजयसे पाण्डवपक्षके वीरोंका वर्णन करते हुए संजयको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजना (उद्योग० २२ अध्याय)। संजयकी बात सुनकर चिन्ताके कारण जागरण और विदुरको बुलवाकर उनसे कल्याणकी बात पूछना (उद्योग. ३३ । ९-११)। इनका संजयसे युधिष्ठिरके सहायकोंके विषयमें प्रश्न (उद्योग० ५०। ९)। भीमसेनके पराक्रमसे डरकर इनका विलाप करना (उद्योग. ५१ अध्याय) । इनके द्वारा अर्जुनके पराक्रमसे प्राप्त होनेवाले भयका वर्णन (उद्योग० ५२ अध्याय)। कौरवसभामें युद्धसे भय दिखाकर शान्तिका प्रस्ताव (उद्योग० ५३ । १४-१५)। पाण्डवोंकी युद्ध-तैयारी सुनकर इनका विलाप ( उद्योग ५७ । २६-३५)। दुर्योधनको पाण्डवोंसे संधि कर लेनेके लिये समझाना ( उद्योग० ५४ । २-९)। भीमके पराक्रमका वर्णन करके अपने पक्षके अन्य राजाओंको भय दिखाना (उद्योग० ५८ । १९-२८ )। अपने पक्षकी अपेक्षा पाण्डव-पक्षको अधिक शक्तिशाली समझकर दुर्योधनको संधिके लिये समझाना ( उद्योग० ६० अध्याय)। इनके द्वारा दुर्योधनको संधिकी सलाह (उद्योग० ६५ अध्याय)। संजयसे दोनों पक्षों के बलाबलके विषयमें प्रश्न ( उद्योग० ६७ । ४-५)। इनके द्वारा श्रीकृष्णका गुणगान ( उद्योग. ७१ अध्याय)। श्रीकृष्णके सत्कारके लिये दुर्योधनको आज्ञा देना (उद्योग. ८५। ७-१०)। विदुरसे श्रीकृष्णकी अगवानी करने, भेंट देने तथा उन्हें दुःशासनके महलमें ठहरानेका विचार प्रकट करना (उद्योग० ८६ अध्याय)। श्रीकृष्णको कैद करनेकी बात सुनकर दुर्योधनका विरोध करना ( उद्योग० ८८ । १७-१८)। इनके द्वारा राजमहलमें श्रीकृष्णका आतिथ्य (उद्योग. ८५ । १८-१९ )। दर्योधनको समझाने के लिये श्रीकृष्णसे अनुरोध ( उद्योग. १२४ । २-७)। दुर्योधनको समझाना ( उद्योग १२५ । २३-२७)। गान्धारीसे दुर्योधनकी उद्दण्डता बताना (उद्योग. १२९ । ७-८) । श्रीकृष्णको कैद करनेसे दुर्योधनको रोकना ( उद्योग. १३० । ३४३१)। श्रीकृष्ण के विश्वरूप-दर्शनके लिये उनसे आँखकी याचना और नेत्र पाकर भगवत्स्वरूप-दर्शनसे कृतार्थ होना (उद्योग. १३१ । १८-२१)। कुरुक्षेत्रमें कौरव- पाण्डवके पड़ाव पड़ जानेपर आगेके समाचारके विषयमें संजयसे पूछना ( उद्योग. १५९ । ३)। व्यासजीसे विजयसूचक लक्षणोंके विषयमें पूछना ( भीष्म० ३। ६४)। संजयसे पृथ्वीकी महिमा पूछना (भीष्म०४।।
३-८)। संजयसे भीष्मकी मृत्युका समाचार सुनकर इनका विलाप ( भीष्म १४ अध्याय ) । संजयसे इनका युद्धका सारा वृत्तान्त सुनना ( भीष्मपर्वसे शल्यपर्व तक) अपनी सेनाको मारी जाती सुनकर इनकी चिन्ता (भीष्म ७६ अध्याय) । द्रोणाचार्यकी मृत्यु सुनकर इनका शोकसे व्याकुल होना (द्रोण. अध्याय ९ से १० तक)। इनके द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महिमाका वर्णन (द्रोण. ११ अध्याय ) । अर्जुनकी जयद्रथवधकी प्रतिज्ञापर इनका विलाप करना (द्रोण० ८५ अध्याय )। सात्यकिद्वारा अपनी सेनाका संहार सुनकर विषाद करना (द्रोण० ११४।१-४६)। इनके द्वारा भीमसेनके बलका वर्णन और अपने पुत्रोंकी निन्दा (द्रोण० १३५। १-२४)। संजयसे कर्णद्वारा अर्जुनपर शक्ति न छोड़े जानेका कारण पूछना (द्रोण. १८२१-१०)। कर्णकी मृत्यु सुनकर शोकाकुल होना ( कर्ण० ४ अध्याय ) । कर्णकी मृत्यु सुनकर विलाप करना और उसके वधका विस्तृत वर्णन करने के लिये संजयसे कहना (कर्ण० अध्याय ८ से १ तक)। कर्णवधका समाचार सुनकर मोहित होना (कर्ण० ९६ । ५४ ) । शल्य और दुर्योधनके वधका समाचार सुनकर मूर्छित होना (शल्य.
। ३५-४०)। इनका विलाप करना और युद्धका समाचार पूछना (शल्य. २ अध्याय) । युद्धकी समाप्तिपर इनका विलाप (स्त्री. १ । १०--२१)। व्यासजीसे अपना दुःख बताकर विलाप करना (स्त्री०८। ६-११)। संजयकी बात सुनकर इनका मूर्छित होना (स्त्री०९।८)। स्त्रियों और प्रजालोगोंके साथ रणभूमिमें जानेके लिये नगरसे बाहर निकलना (स्त्री० १० । १६)। भीमसेनकी लोहमयी मूर्तिको तोड़ना (स्त्री. १२। १७)। पाण्डवोंको हृदयसे लगाना ( स्त्री०१३। १७) । युधिष्ठिरसे मरे हुए लोगोंकी संख्या और गतिक विषयमें प्रश्न करना (स्त्री० २६॥ ८, ११, १८)। युधिष्ठिरसे मरे हुए लोगोंके दाह-संस्कार करनेको कहना (स्त्री. २६।२१-२३)। युद्ध में मारे गये सगे-सम्बन्धियोंका श्राद्ध करना (शान्ति० ४२ । २-३) । दुर्योधनको शीलका उपदेश (शान्ति० १२४ अध्याय)। शोकविह्वल युधिष्ठिरको समझाना ( आश्व० १ । ८---२० ) । भाइयोसहित युधिष्ठिर तथा कुन्ती आदि देवियोंके द्वारा गान्धारीसहित धृतराष्ट्रकी सेवा ( आश्रम १ अध्याय)। पाण्डवोंका गान्धारीसहितधृतराष्ट्र के अनुकूल बर्ताव(आश्रम २ अध्याय)। भीमकी मर्मभेदिनी बातोसे व्यथित हुए धृतराष्ट्रका गान्धारीसहित वनमें जानेका उद्योग एवं युधिष्ठिरसे अनुमति देनेके लिये अनुरोध (आश्रम० ३ । १-४०)। राजा धृतराष्ट्रका उपवाससे दुर्बल होनेके कारण बोलनेमात्रसे
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धृतराष्ट्र
( १६८ )
धृतराष्ट्र
थककर गान्धारीका सहारा ले अचेत-सा होकर लेट जाना, धर्मरूपताका प्रतिपादन तथा इनसे अभीष्ट वस्तु माँगनेके राजा युधिष्ठिरके हाथ फेरनेसे इनका सचेत होना और उनसे लिये आदेश प्रदान करना ( आश्रम० २८ अध्याय)। पुनः हाथ फेरने और हृदयसे लगानेके लिये कहना धृतराष्ट्रका व्यासजीसे अपने मानसिक शोक एवं अशान्तिका (आश्रम० ३ । ६१-७३)। इनका युधिष्ठिरको हृदयसे वर्णन करना ( आश्रम २९ । २३-३४) । व्यासजीका लगाकर उनका मस्तक सूंघना और उनसे तपस्याके लिये धृतराष्ट्र आदिके पूर्वजन्मका परिचय देना तथा उनकी पुनः अनुमति माँगना । युधिष्ठिरका इनसे अन्न ग्रहण आज्ञासे इन सबका गङ्गातटपर जाना (आश्रम० ३१ करने के लिये कहना और इनका वनमें जानेकी अनुमति अध्याय) । व्यासजीकी कृपासे दिव्य दृष्टि पाकर धृतराष्ट्रका दे देनेकी शर्तपर ही भोजन करनेको उद्यत होना गङ्गाजलसे प्रकट हुए अपने पुत्रों और सगे-सम्बन्धियोंका (आश्रम० ३ । ७५-८६)। व्यासजीके समझानेपर दर्शन करना एवं प्रसन्न होना (आश्रम ३२ अध्याय)। युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको वनमें जानेकी अनुमति देना और व्यासजीकी आज्ञासे धृतराष्ट्र आदिका पाण्डवोंको विदा उनसे भोजन करनेको प्रार्थना करना ( आश्रम ४ करना (आश्रम० ३६ अध्याय)। कुन्ती, गान्धारीअध्याय)। धृतराष्ट्रद्वारा राजा युधिष्ठिरको राजनीतिका सहित धृतराष्ट्रकी तीव्र तपस्या एवं गङ्गाद्वारके वनमें उपदेश (आश्रम० अध्याय ५ से ७ तक)। धृतराष्ट्रका इनका दावानलसे दग्ध हो जाना (आश्रम० ३७ । कुरुजाङ्गलदेशकी प्रजासे वनमें जानेकी आशा माँगना १०-३२)। धृतराष्ट्र आदिकी हड्डियोंका गङ्गामें प्रवाह और अपने अपराधोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करना (आश्रम तथा इनका श्राद्ध-कर्म (आश्रम० ३९ अध्याय)। अध्यायमसेएतक)। प्रजाकी ओरसे साम्ब नामक ब्राह्मणका स्वर्गलोकमें जानेपर गान्धारीसहित धृतराष्ट्रका धनाध्यक्ष धृतराष्ट्रको उत्तर देना ( आश्रम 10 अध्याय)। कुबेरके दुर्लभलोकोंको प्राप्त करना (स्वर्गा० ५ ५ ५४ )। धृतराष्ट्रका युधिष्ठिरसे श्राद्ध करनेके लिये धन माँगना महाभारतमें आये हुए धृतराष्ट्रके नाम-आजमीढ, (आश्रम० ११ ११-६)। युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको अम्बिकासुत, आम्बिकेय, भारत, भरतशार्दूल, भरतश्रेष्ठ, यथेष्ट धन देनेकी स्वीकृति प्रदान करना (आश्रम भरतर्षभ, भरतसत्तम, कौरव, कौरवश्रेष्ठ, कौरवराज) १२ । ४५)। विदुरका धृतराष्ट्रको युधिष्ठिरका उदारता- कौरवेन्द्र, कौरव्यः कुरुशार्दूल, कुरुश्रेष्ठ, कुरूद्वह, पूर्ण उत्तर सुनाना (आश्रम १३ अध्याय)। गजा कुरुकुलश्रेष्ठ, कुरुकुलोद्वहः कुरुमुख्य, कुरुनन्दन, धृतराष्ट्र के द्वारा मृत व्यक्तियोंके लिये श्राद्ध एवं विशाल कुरुप्रवीर, कुरुपुङ्गव, कुरुराज, कुरुसत्तम, कुरुवंशदानयज्ञका अनुष्ठान (आश्रम० १४ अध्याय)। विवर्धन, कुरुवीर, कुरुवृद्ध, कुरुवृद्धवर्य, वैचित्रवीर्य, गान्धारीसहित धृतराष्ट्रका वनको प्रस्थान, कुन्तीका प्रज्ञाचक्षु आदि। गान्धारीका हाथ अपने कंधेपर रखकर जाना, पाण्डवों, (२) कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न हुआ एक नाग द्रौपदी आदि स्त्रियों और पुरवासियोंका रोते हुए इनके (आदि. ३५ । १३ ) । यह वरुणकी सभा पीछे-पीछे जाना (आश्रम. १५ अध्याय)। राजा उपस्थित होकर उनकी उपासना करता है (सभा० धृतराष्ट्रका पुरवासियोंको लौटाना, कृपाचार्य और युयुत्सुको ९ । ९) । नागोद्वारा पृथ्वीके दोहनके समय युधिष्ठिरके हाथों सौंपना ( आश्रम० १६ । २-५)। यह दोग्धा बनाया गया था (द्रोण० ६५ । २२)। कुन्तीसहित गान्धारी और धृतराष्ट्र आदिका वनके मार्गमें । इसे शिवजीके रथके ईषादण्डम स्थान दिया गया था गङ्गातटपर निवास करना (आश्रम०१८।१६-२५)। (कर्ण० ३४ । २८)। बलरामजीके शरीरत्यागके धृतराष्ट्र आदिका गङ्गातटसे कुरुक्षेत्रमें जाना और शतयूपके उन भगवान् अनन्त नागके स्वागतके लिये यह प्रभासआश्रमपर निवास करना (आश्रम० १९ अध्याय)। क्षेत्रके समुद्रमें आया था (मौसल. ४ । १५) । नारद जीका धृतराष्ट्रकी तपस्याविषयक श्रद्धाको बढ़ाना (३) एक देवगन्धर्व, जो कश्यपपत्नी मुनिका पुत्र है
और इन्हें मिलनेवाली गतिका भी वर्णन करना (आश्रम (आदि. ६५ । ४२)। यह अर्जुनके जन्ममहोत्सवमें २० अध्याय)। धृतराष्ट्र आदिके लिये पुरवासियों तथा आया था (आदि. १२२ । ५५)। इसे देवराज पाण्डवोंकी चिन्ता ( आश्रम० २१ अध्याय)। पाण्डवों इन्द्र ने अपना दूत बनाकर मरुत्तके पास यह कहने के तथा पुरवासियोंका वनमें जाकर कुन्ती और गान्धारीसहित लिये भेजा था कि राजन् ! तुम बृहस्पतिको आचार्य धृतराष्ट्रके दर्शन करना (आश्रम० २५ अध्याय)। बनाओ ( संवर्त को नहीं)। अन्यथा तुमपर वज्रका
और युधिष्ठिरकी बातचीत (आश्रम०२६ । प्रहार करूँगा।' धृतराष्ट्रन वहाँ जाकर इन्द्रका संदेश १-१७)। धृतराष्ट्रके पास महर्षि व्यासका आगमन, 'सुनाया था ( आश्व०१०।२-८) गन्धर्वराज धृतराष्ट्र इनसे कुशल पूछते हुए उनके द्वारा विदुर और युधिष्ठिरकी ही भूतलपर धृतराष्ट्र के रूपमें उत्पन्न हुआ था (म्बर्गा.
ग
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धृतराष्ट्री
धृष्टद्युम्न
४ । १५)। (४) भरतवंशी महाराज कुरुके पौत्र एवं जनमेजयके प्रथम पुत्र (आदि. ९४ । ५६)। इनके कुण्डिक आदि बारह पुत्र थे (आदि० ९४ । ५८- ६०)। धृतराष्ट्री-ताम्राकी पुत्री, इसने सभी प्रकारके हंसों, कलहंसों तथा चक्रवाकोंको जन्म दिया था ( उद्योग० ८३ । ५६,
५८)। धृतवती ( या घृतवती)-एक प्रमुख नदी, जिसका जल
भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म० ९ । २३, ३१)। धृतवर्मा-त्रिगर्तराज सूर्यवर्मा और केतुवर्माका भाई, जिसने सूर्यवर्माके पराजित होने और केतुवर्माके मारे जानेपर स्वयं ही आगे बढ़कर अश्वमेधीय अश्वकी रक्षाके लिये आये हुए अर्जुनके साथ लोहा लिया था। इसके द्वारा अर्जुनपर बाणवर्षा । बाण चलाने में उसके हाथोंकी फुर्ती देखकर अर्जुनद्वारा मन-ही-मन उसकी प्रशंसा, उसके तेजस्वी बाणसे अर्जुनके हायमें गहरी चोट लगनेके कारण गाण्डीव धनुषका गिर जाना; इससे धृतवर्माका अट्टहास करना, तब रोषमे भरे हुए अर्जुनका बाणोंकी वर्षा करना, धृतवर्माको बचाने के लिये त्रिगर्त योद्धाओंका अर्जुनपर धावा बोलना और अर्जुनद्वारा अठारह त्रैगर्त वीरोंके मारे जानेपर धृतवर्मा आदि सभी त्रिगौका दास बनकर अर्जुनकी शरणमें आना ( आश्व०७४ । १६-३३)। धृतसेन-कौरवपक्षका एक राजा (शल्य० ६ । ३)।। धृति-(१) दक्ष प्रजापतिकी एक पुत्री, जो धर्मकी पत्नी
थीं (आदि०६६ । १४)। नकुल तथा सहदेवकी माता माद्री इन्हींका अवतार मानो जाती हैं ( आदि.६७। १६०)। (२) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ११॥ ३०)। धृतिमान् -कुशदीपका पाँचवाँ वर्ष ( खण्ड ) (भीष्म०
१२।१३)। धृतिमान् ( अङ्गिरा)-एक अग्नि, जिनके लिये दर्श तथा पौर्णमास यागोंमें हविष्य-समर्पणका विधान पाया जाता है, उन अग्निदेवका नाम विष्णु है। वे अङ्गिरा-गोत्रीय माने गये हैं और भानुके तीसरे पुत्र हैं (वन० २२१ । १२)। धृष्टकेतु-चेदिराज शिशुपालका पुत्र, जो हिरण्यकशिपुके पुत्र
अनुहादके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ७)। शिशुपालके मारे जानेपर उसके पुत्र धृष्टकेतुको चेदिदेशके राजसिंहासनपर अभिषिक्त किया गया ( सभा० ५५ । ३६) । इसका वनमें पाण्डवोंसे मिलनेके लिये आना (वन १२ । २)। इसका अपनी बहिन करेणुमतीको लेकर अपनी नगरीको प्रस्थान ( वन० २२ । ५०)।
म० ना० २२
इसका पुनः वनमें पाण्डवोंसे भेंट करना (वन० ५१ । १७)। पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण-निमन्त्रण दिया गया ( उद्योग०४।८ उद्योग. ४ । २०)। यह एक अक्षौहिणी सेनाके साथ पाण्डवोंके पास आया ( उद्योग० १९।७)। संजयद्वारा इसकी वीरताका वर्णन (उद्योग० ५०। ४४)। युधिष्ठिरकी सेनाके सात सेनापतियों से एकके पदपर इसका अभिषेक किया गया था ( उद्योग. १५७ । ११-१३।। प्रथम दिनके संग्राममें बाहीकके साथ इसका युद्ध (भीष्म० ४५ । ३८-४१)। भूरिश्रवाके साथ इसका युद्ध और पराजय ( भीष्म. ८४ । ३९)। पौरवके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११६ । १३-२४) । धृतराष्ट्रद्वारा इसकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०।४३)। कृपाचार्यके साथ युद्ध (द्रोण. १४ । ३३-३४ )। इसके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । २३-२४)। अम्बष्ठके साथ युद्ध (द्रोण. २५ । ४९-५०)। इसका वीरधन्वाके साथ युद्ध ( द्रोण. १०६ । १०)। इसके द्वारा वीरधन्वाका वध (द्रोण. १०७ । १७)। इसका द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और उनके द्वारा पुत्रसहित इसका वध (द्रोण० १२५ । २३-११)। व्यासजीके आवाहन करनेपर परलोकवासी कौरव-पाण्डव वीरोंके साथ यह भी गङ्गाजलसे प्रकट हुआ था (आश्रम ३२/१५)। स्वर्गलोकमें जाकर यह विश्वेदेवों में मिल गया था (स्वर्गा० ५। १५-१८)। महाभारतमें आये हुए धृष्टकेतुके नाम-चैध चेदिज)
चेदिप, चेदिपति, चेदिपुङ्गव, चेदिराट , चेदिराज, औडाणलि. शिपालमत. शिशलात्मज आदि ।
धृष्टद्युम्न-पाञ्चालराज दुपदके अग्नितुल्य तेजस्वी पुत्र । यज्ञ. कर्मका अनुष्ठान होते समय प्रज्वलित अग्निसे धृष्टद्युम्नका प्रादुर्भाव हुआ। ये द्रोणाचार्यका विनाश करने के लिये धनुष लेकर प्रकट हुए थे। फिर उसी वेदीसे द्रौपदी प्रकट हुई थी; अतः इन्हें उसका अग्रज बन्धु' कहा जाता है (आदि. ६३ । १०४-११०)। ये अग्निके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि०६७ । १२६) । याजने दुपदकी रानीको यज्ञका हविष्य ग्रहण करनेके लिये बुलाया । महारानीने शुद्ध होकर आनेकी इच्छा प्रकट की और थोड़ी देरतक महर्षिको प्रतीक्षाके लिये कहा। परंतु याजने कहा- 'रानी ! इस हविष्यको याजने तैयार किया और उपयाजने इसका संस्कार किया है। फिर इससे संतानकी उत्पत्तिरूप अभीष्टकी सिद्धि कैसे नहीं होगी ? तुम इसे लेने आओ या न आओ।' इतना कहकर ज्यों ही याजने उस संस्कारयुक्त हविष्यकी अग्निमें आहति दी, त्यों ही उस प्रज्वलित अग्निसे ये एक तेजस्वी कुमार
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धृष्टद्युम्न
( १७० )
धृष्टद्युन्न
रूपसे प्रकट हुए (आदि० १६६ । ३६--३९)। ९९)। अश्वत्थामाके साथ युद्ध (भीष्म० ६१ ।१९)। इनके अङ्गोंकी कान्ति अग्निकी ज्वालाके समान
पौरव-पुत्र दमनका वध ( भीष्म० ६१ । २०)। शल्यके उद्भासित हो रही थी। इनके मस्तक पर किरीट, अङ्गोमें
पुत्रका वध (भीष्म० ६१ । २९) । शल्यके साथ उत्तम कवच तथा हाथोंमें खड्ग, बाण और धनुष शोभा
युद्ध और घायल होना (भीष्म० ६२ । ८-१२)। पाते थे । ये गर्जना करते हुए एक श्रेष्ठ रथपर जा चढ़े
इनके द्वारा मकरव्यूहका निर्माण (भीष्म० ७५ | ४मानो युद्ध की यात्राके लिये जा रहे हों, इससे पाञ्चालोंको
१२)। प्रमोहनास्त्रद्वारा धृतराष्ट्र पुत्रोंपर इनकी विजय बड़ी प्रसन्नता हुई । ये साधु-साधु' कहकर इन्हें शाबाशी
(भीष्म० ७७ । ४५) द्रोणाचार्यद्वारा पराजित होना देने लगे (आदि. १६६ । ४०-४१ )। इनके जन्म
(भीष्मः ७७ । ६९-७० ) । इनके द्वारा दुयोधनकी के समय आकाशवाणी हुई थी- यह कुमार पाञ्चालोका
पराजय ( भीष्म० ८२ । ५३ ) । विन्द-अनुविन्दके साथ भय दूर करेगा; द्रोणवधके लिये इसका प्राकटय हुआ
युद्ध (भीष्म० ८६ । ६४-६५) । कृतवर्माके साथ है (आदि. १६६ । ४२-४३ )। इनका धृष्टद्युम्न
द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म. ११०। ९-१०; भीष्म० १११। नाम होने का कारण ( आदि. १६६ । ५२)। द्रोणा
४०-४४)। भीष्मवध के लिये अपनी सेनाको प्रोत्साहन चार्यद्वारा इनकी शिक्षा (आदि० १६६ । ५५)।
(भीष्म० ११०। २०-२३)। भीष्मके साथ युद्ध द्रौपदीके स्वयंवरमें इनकी घोषणा ( आदि०१८४ । (भीष्म० ११४ । ३९) द्रोणाचार्यके साथ द्वन्द्वयुद्ध ३५-३६)। इनका द्रौपदीको स्वयंवरमें आये हुए
(भीष्म०११६। ४५-५३; द्रोण० ७ । ४८-५४ )। राजाओंका परिचय देना (आदि० १८५ अध्याय)।
धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०। ४०इनके द्वारा गुप्तरूपसे पाण्डवोंके व्यवहारोंका निरीक्षण
४२, ६०-६२)। सुशर्मा के साथ युद्ध (द्रोण. १४ । (आदि. १९१ । १-१२)। द्रौपदीके सम्बन्धमें
३७-३९)। द्रोणाचार्यसे भयभीत युधिष्ठिरको आश्वासन चिन्तित हुए द्रुपदको इनका आश्वासन देना (आदि. (द्रोण. २०। २२-२३)। दुर्मुखके साथ युद्ध १९२ । १२ )। व्यासजीके पूछनेपर द्रौपदीके विवाह के
(द्रोण. २० । २६-२९) । इनके रथके घोड़ोंका वर्णन सम्बन्धमें इनकी सम्मति ( आदि० १९५ । १०)। (द्रोण. २३। ४)। द्रोणपर आक्रमण (द्रोण. ३१ । युधिष्ठिरके यहाँसे राजा विराटके विदा होनेपर धृष्टद्युम्न उन्हें १७)। इनके द्वारा चन्द्रवर्मा और निषधराज बृहत्क्षत्रका पहँचाने गये थे। (सभा०४५। ४७)। दुर्योधन
वध (द्रोण. ३२ । ६५-६६)। द्रोणाचार्यके साथ द्वारा इनकी स्थिरताका वर्णन (सभा० ५३ । १९)।
घोर युद्ध (द्रोण. ९५ तथा ९७ अध्याय) द्रोणाचार्यको इनके द्वारा रोती हुई द्रौपदीको आश्वासन (वन १२।
मूञ्छित करके उनके रथयर चढ़ जाना (द्रोण. १२२ । १३४-१३५)। इनका द्रौपदीकुमारों को साथ लेकर अपनी
५६-५८)। द्रोणाचार्यद्वारा पराजय (द्रोण. १२२ । राजधानीको प्रस्थान (वन० २२ । ४९) । इन्होंने ७१-७२)। भीमसेनके कहने से युधिष्ठिर की रक्षाका भार काम्यकवनमें जाकर पाण्डवोंसे भेंट की (वन. ५१ । स्वीकार करना (द्रोण. १२७ । १०-११)। अश्वत्थामा१७)। उपल्लव्य नगरमें अभिमन्युके विवाहमें इनका के साथ युद्ध में पराजित होना (द्रोण. १६०।११आगमन (विराट. ७२ । १८)। संजयद्वारा इनकी ५३) द्रोणाचार्यके साथ युद्ध (द्रोण. १७०।२-१२)। वीरताका वर्णन (उद्योग. ५० । १६)। ये पाण्डव
इनके द्वारा द्रुमसेनका वध (द्रोण०७०।२२)। दलके प्रधान सेनापति चुने गये थे ( उद्योग० १५७ । कौरवसेनाकी पराजय (द्रोण. १७१। ४९-५२) । १३)। इनका उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर देना
कर्णद्वारा पराजित होना (द्रोण. १७३ । ७)। द्रोणा(उद्योग० १६३ । ४५-४७)। इनके द्वारा अपने चार्यके वधकी प्रतिज्ञा (द्रोण. १८६ । ४६)। दुःशासनपक्षके महारथियोंको समान प्रतिपक्षीके साथ युद्ध करनेका
को हराकर द्रोणाचार्यपर आक्रमण (द्रोण० १८९ । - आदेश और उनका नामनिर्धारण ( उद्योग. १६४ । ६)। द्रोणाचार्य के साथ भयंकर संग्राम (द्रोण. ५-१०)। प्रथम दिनके संग्राममें द्रोणाचार्य के साथ अध्याय १९१ से १९२।२६-३५ तक)। इनके द्वारा द्रोणाइनका द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म० ४५। ३१-३४)। भीष्म- चार्यका सिर काटा जाना (द्रोण० १९२ । ६२-६३)। के साथ युद्ध (भीषम ४७ । ३.)। दूसरे दिनके इनका अर्जुनके समक्ष द्रोणवधरूपी अपने कृत्यका समर्थन युद्ध के लिये इनके द्वारा क्रौञ्चारुणब्यूहका निर्माण करना (द्रोण. १९७ । २४-४४)। सात्यकिके कटु(भीष्म० ५० । ४२-५७)। द्रोणाचार्य के साथ घोर वचनोंका उत्तर देना (द्रोण०,१९८ । २५-४५)। युद्ध ( भीष्म ५३ अध्याय)। कलिङ्गोंसे युद्ध करते। अश्वत्थामाद्वारा पराजय (द्रोण. २००।४३)। इनके समय भीमसेनकी रक्षामें पहुँचना (भीष्मः ५४ । द्वारा गजसेनाका संहार ( कर्ण० २२ । २-७)।
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धृष्णु
( १७१ )
ध्रुव
कृपाचार्यसे भयभीत होना (कर्ण० २६ । १६-१८)। अनुश्रान करके उनका विवाह कार्य सम्पन्न कर दिया। कृतवर्माको मूच्छित करना (कर्ण०५४।४० के बाद दा. इसी प्रकार क्रमशः सभी पाण्डवों का विवाह द्रुपदकुमारी पाठ)। दुर्योधनको युद्ध में परास्त करना (कर्ण० ५६।। कृष्णाके साथ कराया ( आदि. १९७ । ११-१४)। ३४-३५)। कर्ण के साथ युद्ध (कर्ण० ५९ । ७-१४)।
इन्होंने पाण्डवोंके पुत्रोंके उपनयनादि संस्कार कराये अश्वत्थामाके साथ युद्ध में जीते-जी पकड़ा जाना (कर्ण० थे (आदि. २२० । ८७)। युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें ५९ । ३१-५३)। दुःशासनके काबूमें पड़ जाना ( कर्ण.
ये होता थे (सभा० ३३ । ३५)। इन्होंने युधिष्ठिरका ६१ । ३३)। कृपराच र्यके साथ युद्ध (शल्य० ११॥३८) अभिषेक किया ( सभा० ५३ । १०)। पाण्डवोके इनके द्वारा शाल्वके हाथीका वध (शल्य. २० ।
वनगमनके समय महर्षि धौम्य हाथमें शा लेकर उनके २५)। इनके द्वारा दुर्योधन की पराजय (शल्य. २५।
आगे-आगे जाते तथ मार्गमें यमसाम और रुद्रसामका २३)। अश्वत्थामाद्वारा इनका रात्रिमें वध ( सौप्तिक० गान करते थे (सभा० ८.१८)। इनकी सूर्योपासना८ । २६ )। इनका दाह-संस्कार (स्त्री० २६ । ३४)।
के लिये युधिष्ठिरको प्रेरणा (वन. ३ | ५-१२)। इनका श्राद्धकर्म (शान्ति० ४२। ४-५)। स्वर्गमें
इनके द्वारा सूर्यके अष्टोत्तरशत नामोंका वर्णन (वन जाकर ये अग्नि के स्वरूपमें मिल गये (स्वर्गा०५।२१)।
३। १६-१८)। किरिकी मायाका नाश (वन
११ । २०)। इनके द्वारा युधिष्ठिरके प्रति तीर्थोंका महाभारतमें आये हुए धृष्टद्युम्नके नाम-द्रौपदि द्रोण
वर्णन (वन० अध्याय ८७ से ९० तक)। युधिष्ठिरके हन्ता, पाञ्चाल, पाञ्चालदायाद, पाञ्चालकुलवर्धन, पाञ्चालमुख्य, पाञ्चाल पुत्र, पाञ्चालराट, पाञ्चालराज, पाञ्चालतनय,
प्रति ब्रह्मा, विष्णु आदिके स्थानों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी
गतिका वर्णन (वन० १६३ अध्याय) । द्रौपदीका पाञ्चाल्य, पाञ्चाल्यपुत्र, पार्षत, यज्ञसेनसुत, याज्ञसेनि
अपहरण करनेपर जयद्रथको फटकारना और द्रौपदीकी आदि।
रक्षाके लिये प्रयत्न करना ( वन० २६८ । २६.२७)। धृष्णु-(१) वैवस्वत मनुके द्वितीय पुत्र ( आदि. ७५ ।
अज्ञातवासके लिये चिन्तित हुए युधिष्ठिरको समझाना १५)। (२) एक प्रजापति, जो कविके पुत्र हैं।
(वन० ३१५। ११-२१)। पाण्डवों को राजाके यहाँ इनको शुभलक्षण एवं ब्रह्मज्ञानी माना गया है (अनु.
रहनेका ढंग बताना (विराट. ४ | ७-५१)। अज्ञात८५ १३३)।
वासके लिये यात्रा करते समय पाण्डवोंकी अग्निहोत्रधेनुक-(१) एक भयङ्कर दैत्य, जो तालवनमें निवास
सम्बन्धी अग्निको प्रज्वलित करके धौम्यने उनकी समृद्धिकरता था और गधेका रूप धारण करके रहता था। इसे
वृद्धि, राज्यलाभ तथा भूलोक-विजयके लिये वेद-मन्त्र बलदेवजीने मार गिराया था ( सभा० ३८ । २९ के
पढ़कर हवन किया । जब पाण्डव चले गये, तब जपयज्ञ बाद, पृट ८००, कालम २)। (२) एक भारतीय
करने वालोंमें श्रेष्ठ धौम्यजी उस अग्निहोत्रसम्बन्धी जनपद (भीष्म० ५० । ५१)।
अग्निको साथ लेकर पाञ्चालदेशमें चले गये (बिराट. ४ । धेनुकाश्रम-एक तीर्थ, यहाँ मृत्युने तप किया था (द्रोण.
५४-५७)। इन्होंने युद्ध में मारे गये पाण्डवपक्षके सगे५४ । ८; शान्ति० २५८ । १५)।
सम्बन्धी जनोंका दाहकर्म कराया था (स्त्री. २६ । धेनुतीर्थ-एक त्रिभुवनविख्यात तीर्थ, वहाँ तिलमयी धेनुका २४-३०)। युधिष्ठिरद्वारा धार्मिक कार्योंके लिये नियुक्ति
दान करनेसे सब पापोंसे छुटकारा मिलता है और सोम- (शान्ति०४१।१४)। इनके द्वारा धर्मके रहस्यका लोककी प्राप्ति होती है (वन० ८४ । ८७ )।
वर्णन (अनु. १२७ । १५-१६) । (२) एक धौतमूलक-चीनोंके कुळमें उत्पन्न हुआ एक कुलाङ्गार
ऋषि, जिन्होंने रातमें सत्यवान्के न लौटनेपर उनके पिता नरेश ( उद्योग० ७४ । १४)।
राजा धुमत्सेनको सत्यवान्के जीवित होनेका विश्वास धौम्य-(१) उत्कोचक तीर्थमें तपस्या करनेवाले एक
दिलाया था ( वन० २९८ । १९ )। हस्तिनापुरके
मार्गमें श्रीकृष्णसे इनकी भेंट ( उद्योग० ८३ । ६४ के मर्षि, देवल ऋषिके अनुज, पाण्डवोंके पुरोहित (भादि. १८१ । २)। पाण्डवोंद्वारा इनका पुरोहितरूपमें वरण
बाद दा. पाठ)। ये शिवभक्त उपमन्यु ऋषिके छोटे
भाई हैं (अनु०१४ । ११२)। ( आदि. १८२। ६)। इन्होंने वेदीपर प्रज्वलित अग्निकी स्थापना करके उसमें मन्त्रोंद्वारा आहुति दी और धौन-एक प्राचीन ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मयुधिष्ठिरको बुलाकर कृष्णाके साथ उनका गठबन्धन कर जीके पास आये थे (शान्ति. ४७ । ११)। दिया । उन दोनों दम्पतिका पाणिग्रहण कराकर उनसे ध्रुव-(१) धर्मद्वारा धूम्राके गर्भसे उत्पन्न द्वितीय वसु अग्निकी परिक्रमा करवायी और अन्य शास्त्रोक्त विधियोंका (आदि.६६ । १९)। (२) नहुषके पुत्र । ययाति.
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ध्रुवक
( १७२ )
नकुल
के भ्राता ( आदि० ७५ । ३०)। (३) एक राजा, जो यमसभामें बैठकर सूर्यपुत्र यमकी उनासना करते हैं (सभा०८। १०)। (४) कौरवपक्षका एक योद्धा। भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण० १५५ । २७)। (५) युधिष्ठिरका सम्बन्धी और सहायक राजा (द्रोण. १५८ । ३९)। (६) प्रातःसायं स्मरण करनेयोग्य एक राजा, जो महारान उत्तानपादके
पुत्र थे ( अनु० १५० । ७८)। ध्रुवक-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य. ४५। ६५)। ध्रुवरत्ना-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ४)। ध्वजवती-सूर्यदेवकी आज्ञासे आकाशमें ठहरनेवाली
हरिमेधामुनिकी कन्या ( उद्योग० ११० । १३)। ध्वजिनी-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६१)।
नकुल-(१)पाण्डुके क्षेत्रज पुत्र । अश्विनीकुमारोंके द्वारा माद्रीके गर्भसे उत्पन्न दो पुत्रों से एक ये दोनों भाई जुड़वें उत्पन्न हुए थे। दोनों ही सुन्दर तथा गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर रहनेवाले थे ( आदि०१।११४, आदि० ६३ । ११७; आदि० ९५। ६३)। अनुपम रूपशाली तथा परम मनोहर नकुल और सहदेव अश्विनीकुमारोंके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि० ६७ । १११-११२)। इनकी उत्पत्ति तथा शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंद्वारा इनका नामकरण संस्कार ( आदि. १२३ । १७-२१)। वसुदेवके पुरोहित काश्यपद्वारा इनके उपनयन आदि संस्कार तथा राजर्षि शुकद्वारा इनका अस्त्रविद्याका अध्ययन और ढाल-तलवार चलानेकी कलामें निपुणता प्राप्त करना ( आदि. १२३ । ३१ के बाद दा. पाठ)। पाण्डुकी मृत्युके पश्चात् माद्रीका अपने पुत्रों नकुलसहदेवको कुन्तीके हाथोंमें सौंपकर पतिके साथ चितापर आरूढ़ होना ( आदि. १२४ अध्याय)। शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंका पाँचों पाण्डवोंको कुन्तीसहित हस्तिनापुर ले जाना और उन्हें भीष्म आदिके हाथोंमें सौंपना (आदि० १२५ अध्याय)। द्रोणाचार्यका पाण्डवोंको नाना प्रकारके दिव्य एवं मानव अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा देना (आदि. १३१ । ९)। द्रुपदपर आक्रमण करते समय अर्जुनका माद्रीकुमार नकुल और सहदेवको अपना चक्ररक्षक बनाना ( आदि. १३७ । २७)। द्रोणद्वारा सुशिक्षित किये गये नकुल विचित्र प्रकारसे युद्ध करनेमें कुशल होनेके कारण अपने भाइयोको बहुत प्रिय थे और अतिरथी कहलाते थे (आदि० १३८ । ३.)। धृतराष्ट्रके आदेशसे कुन्तीसहित पाण्डवोंकी वारणावत-यात्रा, वहाँ उनका स्वागत और लाक्षागृहमें निवास (भादि० अध्याय
१४२ से ११५ तक)। लाक्षागृहका दाह और पाण्डवोंका सुरंगके रास्ते निकल जाना, भीमका नकुलसहदेवको गोद में लेकर चलना (आदि. १४७ अध्याय)। पाण्डवोंको व्यासजीका दर्शन और उनका एकचक्रा नगरीमें प्रवेश (आदि० १५५ अध्याय ) । पाण्डवोंकी पाञ्चालयात्रा (आदि० १६९ अध्याय)। इनका द्रुपदकी राजधानीमें जाकर कुम्हारके यहाँ रहना ( आदि. १८४ अध्याय)। पाँचों पाण्डवोंका द्रौपदीके साथ विवाहका विचार ( आदि० १९० अध्याय ) । पाँचों पाण्डवोंका कुन्तीसहित द्रुपदके घरमें जाकर सम्मानित होना (आदि० १९३ अध्याय) । पाँचों भाइयोंका द्रौपदीके साथ विवाह (आदि० १९७ अध्याय) विदुरके साथ पाण्डवोंका हस्तिना. पुरमें आना और आधा राज्य पाकर इन्द्रप्रस्थ नगरका निर्माण करना ( आदि. २०६ अध्याय ) । पाँचों भाइयोंका द्रौपदीके विषयमें नियम-निर्धारण ( आदि. २११ अध्याय )। नकुलद्वारा द्रौपदीके गर्भसे शतानीकका जन्म ( आदि० २२० । ७९; आदि० ९५ । ७५)। इनका चेदिराजकी कन्या करेणुमतीके साथ विवाह और इनके द्वारा उसके गर्भसे निरमित्रका जन्म (आदि० ९५ । ७९)। इनके द्वारा पश्चिमदिशाके देशोंपर विजय । नकुलके जीतकर लाये हुए खजानेका बोझ दस हजार ऊँट बड़ी कठिनाईसे ढोकर ला सके थे (सभा० ३२ अध्याय ) । राजसूय यज्ञके बाद ये गान्धारराज सुबल और उनके पुत्रोंको पहुँचाने गये थे (सभा०४५। ४९)। युधिष्ठिरके द्वारा ये जूएके दाँवपर रखे और हारे गये थे (सभा. ६५ । १२)। ये अपने शरीरमें धूल लपेटकर वनकी ओर गये थे (सभा० ८० । १८)। इनकी अर्जुनके लिये चिन्ता (वन० ८० । २३-२६)। जटासुरने इनका अपहरण किया था (वन० १५७ । १०)। इनके द्वारा क्षेमङ्कर, महामुख और सुरथका वध (वन० २७१ । १६-२२)। द्वैतवनमें जल लानेके लिये जाना और सरोवरपर गिरना ( वन० ३१२ । १३)। इनका विराट-नगरमें ग्रन्थिक नामसे रहनेकी बात बताना (विराट. ३ । ४)। इनके 'नकुल' नामकी निरुक्ति (विराट० ५। २५)। राजा विराटके यहाँ रहनेके लिये उनसे प्रार्थना करना (विराट. १२। ८ के बाद दा० पाठ )। इनका त्रिगतोंके साथ युद्ध (विराट. ३३।३४)। दूत बनकर जानेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णसे इनका समयोचित कर्तव्य करनेके लिये निवेदन ( उद्योग० ८० अध्याय)। द्रुपदको प्रधान सेनापति बनानेके लिये इनका प्रस्ताव ( उद्योग० १५१ । १६)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर (उद्योग०१६३ । ३८ ) । कवच उतारकर कौरवसेनाकी ओर
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नकुल
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( १७३ )
पैदल ही जाते हुए युधिष्ठिरसे इनका प्रश्न करना ( भीष्म० ४३ । १८ ) । प्रथम दिनके संग्राम में दुःशासन के साथ द्वन्द्व-युद्ध ( भीष्म० ४५ । २२ - २४ ) । शल्य के साथ युद्धमें इनका घायल होना ( भीष्म० ८३ | ४५ के बाद दा० पाठ ) । इनके द्वारा अश्वसेनाका संहार ( भीष्म० ८९ । ३२-३४ ) । इनका शकुनिके साथ युद्ध ( भीष्म० १०५ । ११-१२ ) । विकर्णके साथ T द्वन्द्व-युद्ध ( भीष्म० ११० । ११-१२; भीष्म० १११ । ३४-३६ ) | धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन ( द्रोण० १० । २९-३० ) । शल्यके साथ युद्ध ( द्रोण० १४ । ३१-२२ ) । इनके रथ के घोड़ोंका वर्णन द्रोण० २३ । ७ ) । शकुनिके साथ इनका युद्ध ( भीष्म० ९६ । २१२५ ) । विकर्णके साथ इनका युद्ध ( द्रोण० १०६ । १२ ) । इनके द्वारा विकर्णकी पराजय ( द्रोण० १०७ । ३० ) । इनके द्वारा शकुनिकी पराजय (द्रोण० १६९ । १६ ) । दुर्योधनको युद्ध में पराजित करना ( द्रोण ० १८७ | ५०-५५ ) | धृष्टद्युम्न की रक्षामें जाना ( द्रोण० ) । इनके द्वारा भगदत्तके पुत्रके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ५ । २८ ) । इनके द्वारा अङ्गराजका वध (कर्ण० २२ । १८ ) । कर्णसे पराजित हो भागना और उसके द्वारा जीवित छोड़ा जाना (कर्ण ० २४ । ४५-५१ ) । सुषेणके साथ युद्ध (कर्ण० ४८ । ३४-४० ) । दुर्योधनके साथ युद्ध में घायल होना ( कर्ण ० ५६ । ७ - १८ ) । वृषसेन के साथ युद्ध ( कर्ण ० ६१ । ३६- ३९ ) । कर्णद्वारा
१८९ । ७
पराजय ( कर्ण० ६३ । १३ ) । वृषसेन के साथ युद्ध ( कर्ण ० ८४ । १९ - ३५ ) । इनके द्वारा कर्णके तीन पुत्रों (चित्रसेन, सत्यसेन और सुषेण ) का वध ( शल्य ० १० । १९-५०) । शल्यके साथ युद्ध (शल्य० अध्याय १३ तथा १५ अध्याय) । युधिष्ठिरको आज्ञासे द्रौपदीको बुलाने के लिये जाना ( सौप्तिक ० १० । २८ ) गृहस्थधर्मकी प्रशंसा करते हुए राजा युधिष्ठिर को समझाना ( शान्ति० १२ अध्याय ) | युधिष्ठिरद्वारा सेनाध्यक्षके पदपर नियुक्ति ( शान्ति ० ४१ । १२ ) । युधिष्ठिरद्वारा इन्हें दुर्मर्षणके राजभवनकी प्राप्ति ( शान्ति० ४४ । १० - ११ ) । भीष्मजी से खड्गकी उत्पत्ति आदिके विषय में इनका प्रश्न (शान्ति० १६६ । २ - ६ ) । युधिष्ठिरके पूछने पर इनका त्रिवर्ग में अर्थकी प्रधानता बताना ( शान्ति ० १६७ । २२-२९ ) । अश्वमेधयश के समय ये भीमसेनके साथ नगरकी रक्षा कार्यमें नियुक्त थे ( आश्व० ७२ । १९ ) । कुन्तीका वन जाते समय इन्हें युधिष्ठिरको सौंपना ( आश्रम ० १६ । १५ ) । वनमें मिलनेके लिये आये हुए नकुलको देखकर कुन्ती बड़ी उतावलीके साथ आगे बढ़ी थीं ( आश्रम ० २४ । ११ ) | संजयका
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नन्द (नन्दक )
ऋषियोंसे इनका परिचय देना ( आश्रम० २५ । ८ ) । इनकी पत्नीका परिचय देना ( आश्रम ० २५ । १४ ) । महाप्रस्थानके पथमें इनका गिरना और भीमसेनके पूछने पर युधिष्ठिरका इनके पतनका कारण बताना ( महाप्र० २ ॥ १२- १७) । स्वर्ग में जानेपर युधिष्ठिरका इन्हें देखने की इच्छा प्रकट करना ( स्वर्गा० २ । १० ) । युधिष्ठिर ने नकुल, सहदेवको तेजस्वी रूप में अश्विनीकुमारों के स्थानपर विराजमान देखा ( स्वर्गा ० ४ । ९ ) । ( २ ) युधिष्ठिर के अश्वमे यज्ञको तुच्छ बतानेवाला एक नेवला ( आश्व० ९० अध्याय ) ।
नग्नजित् - ( १ ) एक क्षत्रिय राजा, जो 'इषुपाद' नामक दैत्यके अंश से उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । २१ ) | यह दिग्विजय के समय कर्णद्वारा पराजित हुआ था ( वन० २५४ । २१ ) | यह गान्धारदेशका ही एक राजा था, भगवान् श्रीकृष्णने इसके समस्त पुत्रको पराजित किया था ( उद्योग ० ४८ । ७५) । (२) एक दैत्य, जो प्रह्लादका शिष्य था और भूतलपर राजा 'सुबह' के रूपमें उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६३ । ११ ) । ननिका - जिसमें ऋतुधर्म ( रजोधर्म ) का प्राकट्य न हुआ हो, ऐसी कुमारी कन्या ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ० ७९३ ) ।
नदीज़ एक प्राचीन राजा । पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रणनिमन्त्रण भेजने का निश्चय हुआ या ( उद्योग० ४ । १५)।
नन्द (नन्दक ) - ( १ ) धृतराष्ट्रका पुत्र ( आदि० ६७ । ९६ आदि० ११६ । ५ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( कर्ण ० ५१ । १९ ) । ( २ ) एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग ० १०३ । १२) । ( ३ ) गोकुल एवं नन्दगाँवमें रहनेवाले गोपके राजा ( नन्दबाबा ), जो भगवान् श्रीकृष्ण के पालक पिता थे ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ) । वसुदेवजीने अपने नवजात बालक श्रीहरिको नन्दगोपके घरमें छिपा दिया था । श्रीकृष्ण बहुत वर्षोंतक नन्दगोपके ही घरमें रहे ( सभा ० ३८ | पृष्ठ ७९८ ) । नन्दगोपके कुलमें यशोदाके गर्भसे एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जो साक्षात् जगज्जननी दुर्गाका स्वरूप मानी जाती है । युधिष्ठिरने विराटनगरमें जाते समय उसका चिन्तन किया और देवीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें वर दिया ( विराट० ६ अध्याय 1 अर्जुनने दुर्गा की स्तुति करते समय नन्दगोपके कुलमें उत्पन्न दुर्गास्वरूपा उस कन्याका स्तवन किया और देवीद्वारा उन्हें विजयसूचक आशीर्वाद प्राप्त हुआ (भीष्म ० २३ अध्याय) । ( ४ ) युधिष्ठिरकी ध्वजापर बजनेवाले
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नन्दक
( १७४ )
नन्दिनी
दो मृदङ्गोंमेंसे एकका नाम, दूसरे मृदङ्गका नाम प्रतिदिन वहाँ तेज हवा चलती और रोज रोज मेघ वर्षा उपनन्दक यः (वन० २७० । ७)। (५) स्कन्दका करता था । सबेरे-शाम उस पर्वतपर अग्निदेव प्रज्वलित एक सैनिक (शल्य ४५। ६४)। (६) स्कन्दका दिखायी देते थे । वहाँ मक्खियाँ ले गोंको डंक मारती थीं। एक सैनिक (शल्य०४५। ६५)। (७) भगवान् यह सब ऋषभ नामक प्राचीन तपस्वी ऋषिके आदेशसे विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । ६९)।
होता है..ऐसा लोमशजीने बताया । नन्दाके तटपर पहले
देवतालोग आये थे। उस समय उनके दर्शन की इच्छासे नन्दक-(१) एक कश्यपवंशी नाग (उद्योग० १०३ ।
मनुष्य सहसा वहाँ आ पहुँचे । देवता यह नहीं चाहते थे; ११)।(२)(नन्द-)धृतराष्ट्रका एक पुत्र, जो द्रौपदीके
अतः उन्होंने उस पर्वतीय प्रदेशको जनसाधारणके लिये स्वयंवर में गया था (आदि० १८५।३)। इसे भीमसेनने गहरी चोट पहुँचायी थी (भीष्म० ६४ । १५)
दुर्गम बना दिया । तबसे साधारण मनुष्योंके लिये इस
ऋषभकूट या हेमकूट पर्वतपर चढ़ना तो दूर रहा, इसे ( देखिये नन्द नं०१) । (३) भगवान् श्रीकृष्णका
देखना भी कठिन हो गया । जिसने तपस्या नहीं की है। खड्ग (अनु. १४७ । १५)।
वह इस महान् पर्वतका दर्शन नहीं कर सकता । यहाँ नन्दन-(१) स्वर्गका एक दिव्य वन, जो अप्सराओंसे
___ अब भी देवता ऋषि निवास करते हैं। इसीलिये सायंसेषित है (वन० ४३ । ३)। नन्दनवनमें जानेके अधि
प्रातः अग्नि प्रज्वलित होती है । यहाँ नन्दामें गोता काग-जो सब प्रकारकी हिमाका त्याग करके जितेन्द्रिय
लगानेसे मनुष्योंका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है । भावसे आवर्तनन्दा और महानन्दा तीर्थका सेवन करता
युधिष्ठिरने वहाँ स्नान करके कौशिकी ( कोसी) तीर्थकी है, उसकी स्वर्गस्थ नन्दनवनमें अप्सराएँ सेवा करती हैं
यात्रा की थी (वन० ११०।१-२१)। इस तीर्थमें (अनु० २५ । ४५)। जो लोग नृत्य और गीतमै । मृत्युने तपस्या की थी (द्रोण. ४५। २०-२१)। निपुण हैं, कभी किसीसे याचना नहीं करते तथा सजनोंके
नन्दाश्रम-एक तीर्थ, जहाँ काशिराजकी कन्या अम्बाने साथ विचरण करते हैं ऐसे लोगोंके लिये ही यह नन्दनवन
कठोर व्रतका आश्रय ले स्नान किया था ( उद्योग. है (अनु.१०२। २४) । (२) अश्विनीकुमारों
१८६ । २६)। द्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों से एक । दूसरेका नाम वर्धन था (शल्य. ४५। ३८)। (३) स्कन्दका नन्दि-एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मकालिक महोत्सवमें एक सैनिक (शल्य. ४५। ६८) । (४) भगवान् साम्मालत हुए थे (आदि. १२२ । ५६)। शिवका एक नाम ( अनु० १७ । ७६ )। (५) नन्दिकुण्ड-यहाँ स्नानसे भ्रूणहत्या-जैसे पाप भी निवृत्त हो
भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु. १४९ । ६१)। जाते हैं (अनु. २५ । ६०)। नन्दा-(१) धर्मके तीसरे पुत्र हर्षकी पत्नी (आदि०६६। नन्दिग्राम-अयोध्या (फैजाबाद ) से लगभग चौदह मील ३३ ) । (२) ( अनुमानतः ) नैमिवारण्यके दक्षेणका एक ग्राम, जो भरतकुण्डके समीप है । भरतजी आसपास वहाँसे पूर्व दिशामें स्थित एक नदी, इसके पास यही चरणपादुकाका सेवन करते हुए चोदह वर्षोंतक ठहरे ही अपरनन्दा भी है । अर्जुन पूर्व दिशाके तीर्थोंमें भ्रमण रहे ( वन० २७७ । ३९)। करते हुए नन्दा और आरनन्दाके तटपर आये थे (आदि० नन्दिनी-(१) कश्यपके द्वारा देवी सुरभिके गर्भसे उत्पन्न २१४ । ६७) । धौम्यने पूर्व दिशाके तीर्थोके वर्णनके एक गौ, जो नन्दिनीके नामसे विख्यात थी ( आदि. प्रसङ्गमें युधिष्ठिरके समक्ष इसका उल्लेख इस प्रकार किया ९९ । ८)। यह गौ समस्त जगत्पर अनुग्रह करनेके है--कुण्डोद नामक रमणीक पर्वत बहुत फल-मूल और लिये प्रकट हुई थी और सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवालों में जलसे सम्पन्न है । जहाँ प्यासे हुए निषधनरेश नलको जल श्रेष्ठ थी। वरुणपुत्र धर्मात्मा वसिष्ठने इसे अपनी होम
और शान्ति उपलब्ध हुई थी, वहीं तपस्वीजनोंसे सुशोभित धेनुके रूपमें प्राप्त किया था (आदि. ९९ । ९)। पवित्र देववन नामक क्षेत्र है। जहाँ पर्वतके शिखरपर बाहुदा मुनियोंद्वारा सेवित पवित्र एवं रमणीय तापस वनमें यह गौ और नन्दा नदियाँ बहती हैं (वन०८७॥ २५-२७)। निर्भय होकर चरती रहती थी। इस नन्दिनी नामक गायभाइयोसहित युधिष्ठिरने लोमशजीके साथ नन्दा और अपर- की शील समत्ति देखकर एक वसुपत्नी आश्चर्यचकित हो नन्दाकी यात्रा की । वे हेमकूट पर्वतपर आये और वहाँ उठी (मादि०९९ । १०-१४)। वसुपत्नीने आने अद्भुत बातें देखीं । वहाँ हवाके बिना भी बादल उत्पन्न पतिको वह गौ दिखायी । वसुने अपनी पत्नीसे उसके होते और अपने आप हजारों ओले गिरने लगते थे। गुणोंका वर्णन करते हुए कहा-'यह उत्तम गौ दिव्य है । खिन्न मनुष्य उस पर्वतपर चढ़ नहीं सकते थे । प्रायः यह उन्हीं महर्षि वशिष्ठकी धेनु है, जिनका यह तपोवन :
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नन्दिवर्धन
नर
जो मनुष्य इसका दूध पी लेगा, वह दस हजार वर्षांतक युवावस्थाके साथ जीवित रहेगा' (आदि०९९ । १५२०)। यो नामक वसुके द्वारा नन्दिनीका अपहरण (आदि. ९९ । २८)। इसका अपहरण करनेके कारण वशिष्ठद्वारा वसुओंको शाप (आदि. ९९ । ३२)। इसके लिये विश्वामित्रकी वशिष्ठसे याचना (आदि० १७४ । १६-१७)। विश्वामित्रद्वारा इसका अपहरण (आदि. १७४ । २२)। अपने विभिन्न अङ्गोंसे हूण, यवनः किगत भादि म्लेच्छों की सुष्ठि करके इसका विश्वामित्रकी सेनाको पराजित करना ( आदि. १७४ । ३२४३)। इसके द्वारा विश्वामित्रकी सेनाके नष्ट होनेका वर्णन ( शल्य. ४० । २१-२२ ) । (२) एक तीर्थ, जहाँ देवसेवित एक कूप है, वहाँ स्नान करनेसे नरमेध-यज्ञका पूर्ण फल प्राप्त होता है (वन०८४ ।
नन्दिवर्धन-मात्यकिके शङ्कका नाम (शल्य. ६१ । ७१
के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। नन्दिवेग-एक क्षत्रियवंश, जिसमें शम' नामवाला कुलाङ्गार नरेश उत्पन्न हुआ था ( उद्योग० ७४ ।
१७)। नन्दिसेन ब्रह्माद्वारा स्कन्दको दिये गये चार पार्षदों से
एक, शेष तीन पार्षद-लोहिताक्ष, घण्टाकर्ण और कुमुदमाली थे (शल्य० ४५ । २४)। नन्दीश्वर-भगवान् शिवके एक दिव्य पार्षद । ये कुबेरकी सभामें उपस्थित होनेवाले भगवान् शिवके वाहन हैं (सभा.
१० । ३४)। नप्ता-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३७)। नभकानन एक दक्षिण भारतीय जनपद ( भीष्म० ५ ।
५९)। नभोद-एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३४)। नमुचि-कश्यपद्वारा दनुके गर्भसे उत्पन्न हुआ एक दानव
(आदि० ६५। २२)। इन्द्रद्वारा इसका वध (वन. २५ । १०; वन० २९२ । ४)। रथारूढ़ इन्द्रद्वारा नमुचिकी पराजयकी चर्चा ( वन० १६८ । ८१)। इन्द्रद्वारा प्रतिज्ञाभन करके मारे जानेपर इसके सिरका उनके पीछे लग जाना (शल्य० ४३ । ३७-३८)। अरुणा-सङ्गममें गोता लगानेसे उस मस्तककी सद्गति (शल्य. ४३ । ४५ ) । इन्द्र के प्रश्नोंका उत्तर (शान्ति० २२६ । ४-२३)। नर-(१) एक भगवत्स्वरूप देवता, जो भगवान् नारायणके सखा है और पाण्डुपुत्र अर्जुनको जिनका अवतार बताया
गया है (आदि० १, प्रथम श्लोक मङ्गलाचरण)। दैत्योंको अमृतसे वञ्चित करके जब देवताओंको अमृत पिलाया गया, उस समय होनेवाले देवासुर-संग्राममें नारायणसहित भगवान् नरने देवपक्षकी ओरसे आकर अपने दिव्य धनुषसे असुरोंका संहार किया था। उस महाभयङ्कर संग्राममें भगवान् नरने उत्तम सुवर्णभूषित अग्रभागवाले पंखयुक्त बाणोंद्वारा पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्गको आच्छादित कर दिया। अन्ततोगत्वा वह अमृत की निधि किरीटधारी भगवान् नरको रक्षा के लिये सौंप दी गयी (आदि. १९ । १९३.)। द्रौपदीने अपनी लाज बचानेके लिये कौरव-सभामें भगवान् श्रीकृष्ण और नरको पुकारा था ( सभा० ६८ । ४६)। ये एक प्राचीन ऋषि हैं । इन्होंने बदरिकाश्रममें अनेक सहस्र वर्षोंतक तप किया है (वन. ४०।१)। इन्द्रद्वारा इनके अवतारका वर्णन ( बन० ४७ । १०)। जो बदरिकाश्रममें भगवान् नारायणके साथ रहकर तपस्या करते हैं, वे देवेश्वर नर ही अर्जुन हैं (वन० २७२ । २९) । इनके द्वारा दम्भोद्भवकी पराजय और पराजित हुए दम्भोद्भवको इनका उपदेश (उद्योग. ९६ । ३४--३८) । ग्रीवासे प्राणोंका निष्क्रमण होनेपर मनुष्य मुनियोंमें श्रेष्ठ नरका सांनिध्य प्राप्त करता है (शान्ति० ३१७ । ५)। स्वायम्भुव मन्वन्तरके सत्ययुगमें प्रकट हुए भगवान् वासुदेवके चार अवतारों में एक भगवान् नर हैं, जो अपने भाई नारायणके साथ बदरिकाश्रममें जाकर एक सुवर्णमय रथपर आसीन हो तपस्या करते हैं (शान्ति० ३३४ । ९-१०)। नारद और नर-नारायणका संवाद (शान्ति० ३३४ । १३-४५)। भगवान् शङ्करने जो प्रज्वलित त्रिशूल चलाया था, वह दक्ष-यज्ञका विध्वंस करके भगवान् नारायणकी छातीमें आ लगा । तब नारायणने हुंकार किया और वह त्रिशूल लौटकर रुद्रके हाथमें आ पहुँचा । तब रुद्रने नर और नारायणपर आक्रमण किया । नारायणने अपने हाथसे रुद्रका गला दबा दिया, अतः वे नीलकण्ठ हो गये । इसके बाद नरने उनपर सीक चलायी । वह परशु बनकर चली । रुद्रने उसे खण्डित कर दिया । अतः ये खण्डपरशु' कहलाये ( शान्ति. ३४२ । ११०-११७)। श्वेतद्वीपसे लौटे हुए नारदके साथ श्रीनर-नारायणकी बात-चीत (शान्ति० ३४३ अध्याय)। (२) एक गन्धर्व, जो कुबेरकी सभामें रहकर धनाध्यक्षकी उपासना करते हैं ( सभा० १० । १४) । (३) एक दक्षिण भारतीय जनपद ( भीम ९ । ६०)। () एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने जीवन में कभी मांस नहीं या था ( अनु० ११५। ६४)।
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नरक
( १७६ )
नरक - ( १ ) दनुका एक पुत्र जो प्रसिद्ध दानवकुलका प्रवर्तक हुआ ( आदि० ६५ | २८ ) । यह वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० ९ । १२ ) । इसे इन्द्र परास्त किया था ( वन० १६८ । ८१) । ( २ ) एक जनपद, जहाँके शासक राजा भगदत्त थे ( सभा ० १४ । १४ । (३) ( नरकासुर ) एक असुर, जो पृथ्वीका पुत्र होनेके कारण भौम या भौमासुरके नामसे विख्यात था, यह प्राग्ज्योतिषपुरका राजा था । पृथ्वीके भीतर मूर्तिलिङ्गमय इसका निवास था ( सभा०३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ८०४ ) । इसके द्वारा त्वष्टाकी पुत्री कशेरुको मूर्च्छित करके उसका अपहरण ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८०५ ) । गन्धर्वो देवताओं और मनुष्योंकी कन्याओं तथा सात अप्सराओंका अपहरण (सभा० ३८ । पृष्ठ ८०५) । इस तरह सोलह हजार कुमारियोंको एकत्र करके मणिपर्वतपर औदका नामक स्थानमें भौमासुरने कैद कर रक्खा था। मुरके दस पुत्र तथा प्रधान प्रधान राक्षस उस अन्तःपुरकी रक्षा करते थे । नरकासुर के चार राज्यपाल थे - हयग्रीव, निशुम्भ, पञ्चजन तथा मुर ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८०५ ) । इसने देवमाता अदितिके कुण्डलोंका भी अपहरण किया था। इसके राज्यकी सीमापर मुर दैत्यके बनाये हुए छः हजार पाश लगाये गये थे, जिनके किनारोंके भागों में छुरे लगे थे । श्रीकृष्णने इन पाशको काटकर और मुरको मार राज्यकी सीमा में प्रवेश किया था। इसके बाद बड़ेबड़े पर्वतोंके चट्टानोंके ढेर से एक बाड़-सी लगायी गयी थी। इस घेरेका रक्षक निशुम्भ था । इसे भी मारकर श्रीकृष्ण आगे बढ़े थे । औदकाके अन्तर्गत लोहित गङ्गाके बीच विरूपाक्ष तथा पञ्चजन नामसे प्रसिद्ध पाँच भयंकर रासक्ष उस राज्यके रक्षक थे। उनको भी मारकर श्रीकृष्णको आगे जाना पड़ा । इसके बाद प्राग्ज्योतिषपुर नामक नगर आता था। वहाँ श्रीकृष्णको दैत्योंके साथ विकट युद्ध करना पड़ा । देवासुर संग्रामका दृश्य छा गया । इस तहरे आठ लाख दानवोंको मारकर भगवान् पातालगुफा में गये। वहीं नरकासुर रहता था। वहाँ जाकर श्रीकृष्णने कुछ देर युद्ध करनेके बाद चक्रसे उस असुरका मस्तक काट डाला । भगवान् श्रीकृष्णने पृथ्वीके उस पुत्रको ब्रह्मद्रोही, लोककण्टक और नराधम बताया ( सभा० ३८ | पृष्ठ ८०७ ) । भगवान् विष्णुद्वारा इसके वधकी चर्चा ( वन० १४२ । २७ ) । उद्योगपर्वमें पुनः उस प्रसङ्गका यो वर्णन है—असुरोका प्राग्ज्योतिषपुर नामसे प्रसिद्ध एक भयंकर किला था, जो शत्रुओंके लिये अजेय था । वहाँ भूमिपुत्र महाबली नरकासुर निवास करता था । उसने देवमाता अदितिके सुन्दर मणिमय
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नल
कुण्ड हर लिये थे । देवता उसे युद्ध में पराजित न कर सके । देवताओंने श्रीकृष्णसे उसके वधके लिये प्रार्थना की। श्रीकृष्णने निर्मोचन नगरकी सीमापर जाकर सहसा मुरके छः हजार लोहमय पाश काट दिये। फिर मुरका वध और राक्षस समुदायका नाश करके उन्होंने निर्मोचन नगर में प्रवेश किया | वहीं नरकासुर के साथ उनका युद्ध हुआ | श्रीकृष्ण के हाथसे वह असुर मारा गया ( उद्योग ० ४८ | ८०-८४ ) | पृथ्वी देवीके अनुरोधसे श्रीकृष्णने उसके पुत्र नरकासुर के लिये वैष्णवास्त्र प्रदान किया था । वह अस्त्र नरकासुर के पुत्र भगदत्तको भी पितासे प्राप्त हुआ था ( द्रोण० २९ । ३०-३६ ) ।
नरराष्ट्र - एक देश या राज्य, जिसे सहदेवने जीता था ( सभा० ३१ । ६ ) ।
1
नरिष्यन्त - वैवस्वत मनुके पुत्र ( आदि० ७५ । १५ ) । नर्मदा - दक्षिण भारत ( मध्यप्रदेश ) की एक प्रसिद्ध नदी, जो अमरकण्टकसे निकलकर भड़ौचके पास खंभातकी खाड़ी में गिरती है | यह वरुणकी सभा में रहकर उनकी उपासना करती है ( सभा० ९ । १८ ) । भाइयों सहित युधिष्ठिरने नर्मदाकी यात्रा की थी ( वन० १२१ । १६ ) । लोमशने इन्हें बताया-- -- वैदूर्य पर्वतका दर्शन करके नर्मदा में उतरनेसे मनुष्य देवताओंके समान पवित्र प्राप्त कर लेता है । नर्मदातटवर्ती वैदूर्य पर्वतपर सदा त्रेता और द्वापरकी संधिके समान समय रहता है । इसके निकट जाकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । यह शर्याति यज्ञका स्थान है । यहीं इन्द्रने अश्विनीकुमारोंके साथ बैठकर सोमगन किया था ( वन० १२१ । १९-२१ ) | यह अग्निकी उत्पत्तिका स्थान है ( वन० २२२ । २४ ) । यह माहिष्मतीके राजा दुर्योधनकी पत्नी बनी थी । राजाने इसके गर्भ से एक परम सुन्दरी कन्या उत्पन्न की थी, जो नाम और रूप दोनोंसे सुदर्शना थी (अनु० २ । १८-१९ ) । इसके जलमें स्नान करके एक पश्चतक निराहार रहनेवाला मनुष्य जन्मान्तर में राजकुमार होता है ( अनु० २५ । ५० ) । नर्मदाने किसी समय मान्धाताके पुत्र पुरुकुत्सको अपना पति बनाया था ( आश्रम० २० । १२-१३ ) । नल- ( १ ) एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्र-सभामें विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । १७ ) । ( २ ) एक प्राचीन नरेश, जो युद्ध में पराजित नहीं होते थे ( आदि० १ | २२६-२३५ ) | ये निषधके राजा वीरसेनके पुत्र थे
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चन० ५२ । ५६ | बृहदवद्वारा इनके गुणों का वर्णन ( वन० ५३ । २-४ ) । इनका बहुत से सुवर्णमय पंखोंसे विभूषित हंसों को देखकर उनमेंसे एकको पकड़ना
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ल
(१७७ )
नवतन्तु
amnner-na-manuman.
annaaranorman-runnamrunarun--
(वन० ५३ । १९ )। आप मुझे छोड़ दें । मैं (वन० ७१ । १६)। इनकी अश्वसंचालनकी कला आपका प्रिय करूँगा। दमयन्तीके समक्ष आपके गुण (वन० ७१।२३)। इन्हें ऋतुपर्णद्वारा युतविद्याकी बताऊँगा, जिससे वह आपके सिवा दूसरेका वरण नहीं प्राप्ति (वन० ७२ । २९)। इनके शरीरसे कलियुगका करेगी। इसके ऐसा कहनेपर नलका उसे छोड़ देना (वन० निष्क्रमण (वन० ७२ । ३०) । इनका दमयन्तीकी ५३ । २०-२२)। हमका दमयन्तीके समक्ष नलके दासी केशिनीसे वार्तालाप (वन० ७४ अध्याय)। गुणोंका वर्णन और उसका नलके प्रति अनुराग (वन० दमयन्तीके आदेशसे केशिनीद्वारा बाहुककी परीक्षा, ५३ । २७-३२, वन. ५४ । १-४) । स्वयंवरका इनकी अपने पुत्र-पुत्रीसे भेंट और उनके प्रति वात्सल्य समाचार सुनकर दमयन्तीमें अनुरक्त हुए राजा नलका (वन० ७५ अध्याय) । इनका बाहुकरूपसे दमयन्तीके विदर्भ देशको प्रस्थान ( वन० ५४ । २७)। इन्द्र महलमें जाकर उससे वार्तालाप करना तथा पुनः नलरूपमें आदि लोकपालोद्वारा दूत बननेके लिये इनसे अनुरोध प्रकट होना (वन० ७६ । ६-४२) । इनका दमयन्तीसे ( वन० ५४ । ३१)। इनका दूत बनकर दमयन्तीके मिलन (वन०७६ । ४६)। इनका ऋतुपर्णके साथ महलमें जाना और दमयन्तीको देवताओंका वरण करनेके वार्तालाप तथा उन्हें अश्वविद्याका दान (वन० ७७ । लिये समझाना ( वन० ५५ । "-२५, वन० ५६ । १०-१७)। इनका पुष्करको जूएमें हराना (वन० ७८। १-१२ ) । दमयन्तीका नलको ही वरण १९)। इनके द्वारा पुष्करको सान्त्वना ( बन० ७८ । करनेका निश्चय प्रकट करना और नलका २०--२६)। इनके आख्यानके कीर्तनका महत्त्व दूतत्व करके लौटकर दमयन्तीका संदेश लोकपालोको (वन० ७९ । १०, १५-१७ )। ये यमसभामें सुनाना (वन० ५६ । १५-३०)। स्वयंवरमें दमयन्ती- उपस्थित हो सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते है (सभा० द्वारा नलका पतिरूपमें वरण और लोकपालोदारा नलको । ११)। ये देवराज इन्द्रके विमानमें बैठकर अर्जुन वरकी प्राप्ति ( वन० ५७ । १-३८)। दमयन्तीके तथा कौरवोंमें होनेवाले युद्धको देखनेके लिये आये थे साथ विवाह-संस्कार ( वन० ५७ । ४१)। नलका (विराट० ५६ । १०)। गोदान-महिमाके विषयमें इनका नगरको लौटना प्रजापालन, यज्ञ तथा दमयन्तीके साथ नाम निर्देश ( अनु० ७६ । २५)। विहार करना, दमयन्तीके गर्भसे इन्हें इन्द्रसेन नामक महाभारतमें आये हए नलके नाम-नैषध, निषधाधिप, पुत्र और इन्द्रसेना नामवाली कन्याकी प्राप्ति (वन० निषधाधिपति, निषधराजेन्द्र, निषधेश्वर, पुण्यश्लोक, ५७ । ४२-४६)। देवताओद्वारा नलके गुणोंका गान वीरसेनसुत आदि। तथा इनपर कलियुगका कोप (वन० ५८ अध्याय)। (३) एक वानरसेनापति, जो देव शिल्पी विश्व नलमें कलिका प्रवेश और इनका पुष्करके साथ जूआ कर्माका पुत्र था (वन० २८३ । ४१) । इसके खेलना ( वन० ५९ अध्याय)। इनका जूएमें हारकर द्वारा समुद्रपर सौ योजन लंबे और दस योजन दमयन्तीके साथ वनको प्रस्थान (वन०६१।६)। चौड़े सेतु का निर्माण (वन० २८२ । ४३-४४)। हनका पक्षियों को पकड़ने के लिये उनके ऊपर वस्त्र फेंकना इसका तुण्ड नामक राक्षसमे युद्ध (वन० २८५।५)। (वन०६१।१४) । इनका सोती हुई दमयन्तीके नलकबर-धनाध्यक्ष कुबेरके पुत्र, जो कुबेरकी सभामें आधे वस्त्रको फाड़कर पहनना, उसे वनमें अकेली छोड़कर उपस्थित होते हैं (सभा० १० । १९)। ( इनके जाना और पुनः लौटकर विलाप करना (वन० ६२ । भाईका नाम मणिग्रीव था) इन्हें ने अपनी प्रेयसी रम्भापर १८-२४)। नलका दमयन्तीको सोती छोड़कर बार
बलात्कार करने के कारण रावणको यह शाप दिया था कि बार जाना और लौटना तथा कलिसे आकर्षित हो करुण तू न चाहनेवाली किसी स्त्रीका स्पर्श नहीं कर सकेगा' विलाप करके चल देना (वन० १२ । २६-२९)। (वन० २८० । ५९-६०)। इनके द्वारा कर्कोटक नागकी दावानलसे रक्षा (वन. नलसेतु-नलद्वारा बनाया हुआ सेतु (वन०२८३ । ६६ । ९)। कर्कोटकका नलको इँसकर उनके रूपको ४५)। बदल देना और इन्हें आश्वासन देना एवं पहलेके रूपकी नलिनी-गङ्गाकी सात धाराओंमेंसे एक धारा (भीष्म०६। प्राप्तिके लिये एक वस्त्र प्रदान करना (वन० ६६ । ११ ४८)। --२६ )। इनकी अयोध्यानरेश ऋतुपर्णके यहाँ बाहुक नलोपाख्यानपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय नामसे अश्वाध्यक्ष-पदपर नियुक्ति, इनकी दमयन्तीके लिये ५२ से ७९ तक)। चिन्ता तथा जीवलसे वार्ता (वन० ६७ अध्याय)। नवतन्तु-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु. ४। इनके द्वारा ऋतुपर्णको अच्छे अश्वका परिचय देना ५०)।
म. ना०२३
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नवराष्ट्र
( १७८ )
नागशत
नवराष्ट्र-एक देश, जिसे अर्जुनने अज्ञातवासके लिये चुना इनका ऋषियोपर अत्याचार (अनु० ९९ । १०-१३)।
था (विराट.१।१३)। (कुछ लोगोंके मतमें बम्बई भृगुजीके शापसे इनका स्वर्गसे पतन (अनु० १००। प्रदेशके अन्तर्गत भड़ौंच नामक जिले में स्थित 'नवसारी' २५)। मांसभक्षण निषेधसे इन्हें परावरतत्वका ज्ञान नामक स्थान ही नवराष्ट्र है।)
(अनु० ११५। ६०)। नहुष-(१) कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न हुआ एक प्रमुख महाभारतमें आये हुए नहुषका नाम-देवरान, देवराट
देवेन्द्र, जगत्पति, नाग, नागेन्द्र, सुराधिपतिः सुरपति, स्वर्भानुकुमारीके गर्भसे उत्पन्न पाँच पुत्रों से एक सुरेश्वर, सुरेन्द्र आदि । (आदि० ७५ । २५)। इनके पराक्रम और गुणोंका
नाकुल-भारतवर्षका एक जनपद ( भीष्म० ५०।५३)। वर्णन (आदि.७५ । २७-२८)। अपने इन्द्रत्वकालमें इनके द्वारा ऋषियोंके बाहन बनाये जानेकी चर्चा
नागतीर्थ-(१) कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, (आदि. ७५ । २९ )। इन्होंने तेज, तप, ओज
जिसका सेवन करनेसे मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और पराक्रमद्वारा देवताओंको तिरस्कृत करके इन्द्रपदका
और नागलोकमें जाता है (वन० ८३।१४)। (२) उपभोग किया था( आदि.७५ । २९-३०)। इनके
गङ्गाद्वार एवं कनखलके समीप नागराज कपिलका एक पुत्रोंके नाम–यति, ययाति, संयाति, आयाति, अयति
तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र कपिलादानका और ध्रुव थे ( आदि.७५ । ३०-३१)। ये यमराजकी
फल प्राप्त होता है (वन० ८४ । ३३)। सभामें उपस्थित होते हैं (सभा० ८।८)। अजगर- नागदत्त-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक (आदि० ६७ । योनिमें पड़े हुए इनके द्वारा भीमसेनका पकड़ा जाना १०२)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १५७ । (वन० १७८ । २८)। भीमसेनके पूछनेपर उनसे १९)। अपना परिचय देना (वन. १७१ । १०-२४)। नागद्वीप-सुदर्शन द्वीपके भीतरका एक द्वीप, जो चन्द्रमण्डलयुधिष्ठिरके साथ इनके प्रश्नोत्तर (बन. १८०। ६ से की शशाकृतिमें कानके रूपमें दीखता है (भीष्म०६ । १४१ । ४३ तक)। इनका शापमुक्त होकर पुनः ५५)। स्वर्गगमन (वन० १८१४)। इन्हें ने कभी वैष्णव नागधन्वातीर्थ-सरस्वती-तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ याज किया था और उससे पवित्र हो स्वर्गलोककी यात्रा वासुकिका निवासस्थान है। यहीं इनका नागराजके पदपर की थी ( वन , २५७ । ५)। ये इन्द्रके विमानपर
अभिषेक हुआ था। इस तीर्थका विशेष वर्णन (शल्य. बैठकर अर्जुनका युद्ध देखनेके लिये आये थे (विराट.
३७ । ३०-३३)। ५६ । ९)। देवताओंके अनुरोधसे इन्द्र-पदपर इनका
नागपूर-नैमिषारण्यमें गोमती-तटपर स्थित एक नगर, जो अभिषेक (उद्योग०११।९)। शचीको देखकर कामासक्त
पद्मनाभ नामक नागका निवासस्थान या (शान्ति. होना ( उद्योग. ११।१८-१९)। शचीके विषयमें देवनाओंको इनका उत्तर (उद्योग० १२१६-८)। शचीको कुछ कालकी अवधि देना ( उद्योग. १३ । ७)।
नागलोक-नागोंका लोक ( उद्योग. ९९। ।)। सप्तर्षियोंको वाहन बनाना (उद्योग १५ । २२)।
इस लोकके राजा वासुकि हैं (आदि. १२७ । ६०)। यहाँ महर्षि अगस्त्यद्वारा इन्हें शाप और इनका स्वर्गसे पतन
एक कुण्ड है, जिसका रस पीनेसे एक व्यक्तिमें एक हजार (उद्योग. १७ । १४-१८)। आयुसे खङ्गकी प्राप्ति
हाथियों के समान बल हो जाता है (आदि. १२७ । ६८) (शान्ति. १६६ । ७४)। इन्हें पापकी प्राप्ति और
इस लोककी स्थिति भूतलसे हजारों योजन दूर है ( आश्व० ऋषियोद्वारा इनका उद्धार (शान्ति० २६२ । ४८.५०)।
५८ । ३२ ३३)। यह लोक सहस्रों योजन विस्तृत है । इनकी इन्द्रपद-प्राप्सिसे लेकर अन्ततककी कथा (शान्ति.
इसके चारों ओर दिव्य परकोटे बने हुए हैं। जो चारों ३४२।४४-५२)। च्यवन ऋषिसे उनके मूल्यके विषयमें
ओर सोनेकी ईटों और मणि-मुक्ताओंसे अलंकृत हैं। वहाँ संवाद और इनका गौके मूल्यपर संतुष्ट करना ( अनु०
स्फटिक मणिकी बनी सीढ़ियोंसे सुशोभित बहुत सी बावड़ियाँ ५१।४-२५)। च्यवनद्वारा इन्हें वर-प्राप्ति ( अनु०
निर्मल जलवाली अनेकानेक नदियाँ नाना प्रकारके पक्षियों५१ । ४४ ) । इन्होंने लाखों की संख्यामें गौओंका दान
से सुशोभित मनोहर वृक्ष देखनेमें आते हैं। नागलोकका किया था। इससे इन्हें देवदुर्लभ स्थानकी प्राप्ति हुई
बाहरी दरवाजा सौ योजन लंबा और पाँच योजन चौड़ा (अनु. ८५। ५-६)। अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी
है (आश्व० ५८ । ३७-४०)। होनेपर इनका शपथ खाना (अनु. ९४ । २८)। नागशत-एक पर्वत, जहाँ तपस्याके लिये जाते समय दोनों
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नागाशी
नारद
पत्नियोसहित राजा पाण्डु पधारे थे ( आदि० ११८।। इन्होंने सात दिनमें पृथ्वीको जीता था । ये शीलवान
और दयालु थे। अतः इनके गुणोंपर विकी हुई पृथ्वी नागाशी-गरुड़की एक प्रमुख संतान ( उद्योग० १०१।
स्वयं इनके पास आयी थी (शान्ति० १२४। १६.१७)। ९)।
अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होने पर शय खाना ( अनु. नागोछेद-जहाँ सरस्वती अदृश्य भावसे रहती है। उस
९४ । ३१)। इन्होंने जीवन में कभी मास नहीं खाया
था । इन्हें मांसभक्षण-निषेधके कारण परावरतत्त्वका ज्ञान विनशन तीर्थके अन्तर्गत एक तीर्थ, जिसमें सरस्वतीके
हो गया था और अब ये ब्रह्मलोकमें विराज रहे हैं जलका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। उसमें स्नान करनेसे नाग
(अनु. ११५ । ५८-६८)। लोककी प्राप्ति होती है (वन० ८२१११२)।
नाभागारिष्ट-वैवस्वतमनुके पुत्र ( आदि० ७५ । १७)। नाचिक-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु०४ ।
नारद (१) एक देवर्षि, जो ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। ५८)।
ये जनमेजयके सदस्य बने थे ( आदि. ५३।८)। नाचिकेत-एक प्राचीन ऋषि, जो उद्दालकिके पुत्र थे।
ये ही कालान्तरमें देवगन्धर्व होकर कश्यपद्वारा मुनि' के (अनु. ७१।२)। यशपरायण पिताका नाचिकेतको अपनी सेवामें रहनेकी आज्ञा देना । यज्ञका नियम पूर्ण
गर्भसे उत्पन्न हुए हैं ( आदि० ६५ । ४४ )। इन्होंने
तीस लाख श्लोकोंवाला महाभारत देवताओंको सुनाया था होनेपर पिताने पुत्र नाचिकेतको नदीतटपर रखे हुए फूल,
( आदि.१ । १०६-१०७ स्वर्गा० ५। ५६)। फल और समिधा आदि लानेका आदेश देना । नाचिकेत
इन्होंने दक्षके पुत्रों को सांख्यज्ञानका उपदेश दिया था, का नदीतटपर उन वस्तुओंके न मिलनेसे निराश लौटना।
जिससे वे सब के सब विरक्त होकर घरसे निकल गये थे भूखसे पीड़ित पिताका रोषवश पुत्रको यमराजके यहाँ
( आदि. ७५। ७-८)। ये अर्जुनके जन्म-समयमें जाने की बात कहना और पिताके इस शापसे नाचिकेतका
पधारे थे ( आदि. १२२ । ५७)। द्रौपदीके स्वयंवरमें मृत्युको प्राप्त होना (अनु०७१।२-८)। पिताका
अन्य गन्धों और अप्सराओंके साथ गये थे (आदि. पुत्र के लिये दुखी होकर विलाप करना एवं यमराजके
१८६ । .)। द्रौपदीके निमित्त पाण्डवोंका आपसमें यहाँसे लौटकर नाचिकेतका पुनः जीवित होना (अनु.
कोई मतभेद न हो- इस उद्देश्यसे इनका इन्द्र प्रस्थमें ७१।९-१२)। पिताके पूछनेपर नाचिकेतका यमके द्वारा
आगमन (आदि० २०७ । ९)। इनके गुण, प्रभाव प्राप्त हुए स्वागत-सत्कार तथा वहाँके पुण्यलोक-दर्शनका
एवं रहस्यका विशद वर्णन (आदि. २०७। ९ के बाद समाचार बताना (अनु० ७१ । १३-५६)।
दा. पाठ)। इनके द्वारा पाण्डवोंके प्रति सुन्द और नाचीन-एक देश (सभा० ३८ । २९ के बाद दा.
उपसुन्दकी कथाका वर्णन करके द्रौपदीके विषयों परस्पर पाठ)।
फूटसे बचनेके लिये कोई नियम बनानेकी प्रेरणा (आदि. नाटकेय-एक देश ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा०
अध्याय २०८ से १२१ तक)। इनका वर्गा आदि पाठ)।
शापग्रस्त अप्सराओंको आश्वासन और दक्षिण समुद्रके नाडीजल-(१) इन्द्रद्युम्न-सरोवरपर रहनेवाला एक चिर- समीपवर्ती तीथ में रहने का आदेश देना ( आदि० २१६ ।
जीवी बक (वन० १९९ । ७)। (२) एक बकराज, १७) । इनके द्वारा युधिष्ठिरको प्रश्नके रूपमें विविध जो कश्यपजीका पुत्र और ब्रह्माजीका मित्र था। इसका दूसरा मङ्गलमय उपदेश (सभा० ५ अध्याय)। इनके द्वारा नाम राजधर्मा था । देवकन्याके गर्भसे जन्म लेनेके
इद्र, यम, वरुण, कुबेर तथा ब्रह्माजीकी सभाका वर्णन कारण इसके शरीरकी कान्ति देवताके समान दिखायी ( सभा० अध्याय ५ से १५ तक ) । इनका देती थी । यह बड़ा विद्वान् और दिव्य तेजसे सम्पन्न हरिश्चन्द्र की संक्षिप्त कथा सुनाकर युधिष्ठिरको राजसूय था। (शान्ति. १६९ । १९-२०) (विशेष देखिये यज्ञ करने के लिये पाण्डुका संदेश सुनाना (सभा० १२ । राजधर्मा)।
२३-३४) । बाण सुरद्वारा अनिरुद्धके कैद होने की नाभाग वैवस्वतमनुके एक पुत्र ( आदि. ७५। १५)। श्रीकृष्णको सूचना देना (सभा० ३८ । २९ के बाद
ये यमकी सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं दा० पाठ, पृष्ठ ८२२, कालम १ )। राजसूययज्ञमें (सभा० ८। १९)। इन्होंने समुद्रपर्यन्त पृथ्वीको अवभृथ-स्नानके समय इन्होंने युधिष्ठिरका अभिषेक किया जीतकर सत्यके द्वारा उत्तम लोकोंपर विजय पायी थी (सभा० ५३ । १०)। कौरवोंके विनाशके विषयमें (वन० २५। १२ )। इन्होंने दक्षिणाके रूपमें नारदकी भविष्यवाणी ( सभा० ८० । ३३-३५)। सारा राष्ट्र ब्राह्मणों को दे दिया था(शान्ति०९६ । २२)।
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नारद
( १८० )
नारद
दिया था ( वन० ३ । ७८ )। इनका शाल्बको मारनेके वर्णन (द्रोण० ५७ अध्याय ) । शिबिके यज्ञ और दान लिये उद्यत प्रद्युम्नके पास आकर देवताओंका संदेश की महत्ताका वर्णन (द्रोण ५८ अध्याय) । श्रीरामके सुनाना ( बन० १९ । २२-२४ ) । इन्द्रलोकमें चरित्रका वर्णन (दोण. ५९ अध्याय)। राजा भगीअर्जुनके स्वागतमें अन्य गन्धोंके साथ ये भी पधारे थे। रथके चरित्रका वर्णन (दोण० ६० अध्याय)। महा (वन० ४३ । १४)। इनके द्वारा इन्द्र के प्रति दमयन्ती- राज दिलीपके उत्कर्षका वर्णन (द्रोण० ६१ अध्याय)। स्वयंवरकी सूचना (वन० ५४ । २०-२४) । इनका मान्धाताकी महत्ताका वर्णन (द्रोण० ६२ अध्याय )। युधिष्ठिरको तीर्थयात्राका प्रसङ्ग सुनाकर अन्तर्धान होना महाराज ययातिका वर्णन (द्रोण. ६३ अध्याय)। ( वन०1१।१२ से ८५ अध्यायतक)। राजा सगरको राजा अम्बरीषके चरित्रका वर्णन (द्रोण०६४ अध्याय)। उनके पुत्रोंकी मृत्युका समाचार सुनाना (वन० १०७।। राजा शशविन्दुके दानका वर्णन (द्रोण० ६५ अध्याय)। ३३ ) । अर्जुनको दिव्यास्त्र-प्रदर्शनसे रोकना (वन. राजा गयके चरित्रका वर्णन (द्रोण० ६६ अध्याय)। १७५ । १८-२३ )। काम्यकवनमें पाण्डवोंके पास राजा रन्तिदेवके अतिथिसत्कारका वर्णन (द्रोण० ६७ इनका आगमन और मार्कण्डेय मुनिसे कथा सुननेका अध्याय) । राजा भरतके चरित्रका वर्णन (द्रोण०६८ अनुमोदन करना ( वन० १८३ । ४७-४९)। सुहोत्र अध्याय) । राजा पृथुके चरित्रका वर्णन (दोण ६९
और शिबिमें इनका शिबिको ही बढ़कर बताना ( वन० अध्याय)! परशुरामजीका चरित्र सुनाना (द्रोण. ७० १९४ । ३-७)। राजा अश्वपतिसे सत्यवान्के गुण-दोषका अध्याय)। संजयके मरे हुए पुत्रको जीवित करके उन्हें देना वर्णन करके उनके साथ सावित्रीके विवाहके लिये सम्मति (बोण०७१ । ८)। रणक्षेत्रमें अर्जुनद्वारा बाणोंके देकर विदा होना ( वन० २९४ । ११-३२)। प्रहारसे प्रकट किये हुए सरोवरको देखनेके लिये नारदजी शान्ति-दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णकी वहाँ पधारे थे (द्रोण० ९९ । ६१)। रात्रियुद्ध में कौरवपरिक्रमा करना ( उद्योग. ८३ । २७ ) । पाण्डव-सेनाओंमें दीपकका प्रकाश करना (द्रोण. १६३ । पुत्रीके लिये वरकी खोजमें जाते समय मातलिको वरुण- १५)। वृद्धकन्याको विवाह करनेके लिये प्रेरित करना लोकमें ले जाना और वहाँ आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखाना (शल्य ५२ । १२.१३)। बलरामजीसे कौरवोंके विनाश( उद्योग. ९८ अध्याय) । मातलिको पाताल-लोकमें का समाचार बताना (शल्य० ५४ । २५-३४)। ले जाना (उद्योग. ९९ अध्याय)। मातलिसे हिरण्यपुर- अश्वत्थामा और अर्जुनके ब्रह्मास्त्रको शान्त करनेके लिये का वर्णन और दिग्दर्शन (उद्योग० १०० अध्याय)। प्रकट होना (सौप्तिक० १४ । ११)। युद्धके पश्चात् मातलिको गरुडलोकमें ले जाना ( उद्योग० १.१ युधिष्ठिरके पास आकर उनसे कुशल-समाचार पूछना अध्याय)। मातलिसे संतानसहित सुरभि तथा रसातलका (शान्ति० ।। १०-१२) । युधिष्ठिरसे कर्णको वर्णन (उद्योग० १०२ अध्याय)। मातलिसे नागलोकका शाप प्राप्त होनेका प्रसंग सुनाना (शान्ति. अध्याय वर्णन (उद्योग. १०३ अध्याय)। आर्यकके सम्मुख २ से ३ तक ) । कर्णके पराक्रमका वर्णन मातलिकी कन्याके विवाहका प्रस्ताव (उद्योग० १०४।। (शान्ति. अध्याय ४ से ५ तक)। इनके द्वारा -७) । दुर्योधनको समझाते हए धर्मराजद्वारा विश्वामित्र- संजयके प्रति कहे हुए षोडश-राजकीयोपाख्यानका की परीक्षा और विश्वामित्रको गुरुदक्षिणा देनेके लिये श्रीकृष्णद्वारा युधिष्ठिरके समक्ष वर्णन (शान्ति. २९ गालवके हठका वर्णन ( उद्योग. १०६ अध्यायसे १२३- अध्याय)। श्रीकृष्णद्वारा पर्वत ऋषिके साथ इनके विचरने २२ तक)। भीष्मको परशुरामजीके ऊपर प्रस्वापनास्त्रके और परस्पर शाप आदिका वर्णन ( शान्ति० ३० प्रयोगसे मना करना ( उद्योग० १८५ । ३-४)। पुत्र- अध्याय)। इनका युधिष्ठिरको सुंजयपुत्र सुवर्णष्ठीवीका शोकसे दुखी अकम्पनको इनके द्वारा सान्त्वना (द्रोण. वृत्तान्त सुनाना (शान्ति० ३१ अध्याय)। शरशय्यापर ५२ । ३७ से द्रोण० ५४ । ४४-५० तक)। राजा पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये अन्य ऋषियोंके साथ सुंजयसे उनकी कन्याको माँगना (द्रोण. ५५ । १२)। इनका भी जाना (शान्ति. ४७ । ५) । युधिष्टिर महर्षि पर्वतके शापके बदले उन्हें शाप देना (द्रोण. आदिको भीष्मजीसे धर्मविषयक प्रश्नके लिये प्रेरणा देना ५५ । १७) । राजा संजयको पुत्र-प्राप्तिका वर देना (शान्ति० ५४ । ८-१०)। जाति-भाइयोंमें फूट न (द्रोण. ५५ । २३ के बाद)। पुत्रशोकसे दुखी सुंजय- पड़नेके विषयमें श्रीकृष्णके प्रश्नोंका उत्तर (शान्ति. को मरुत्तका चरित्र सुनाकर समझाना (द्रोण. ५५ । ८१ अध्याय)। सेमलवृक्षकी प्रशंसा ( शान्ति. ३६-५०)। राजा सुहोत्रकी दानशीलताका वर्णन १५४ । १०-३१) । सेमलवृक्षका अहंकार देखकर उसे करना (द्रोण. ५६ अध्याय)। पौरवकी दानशीलताका फटकारना (शान्ति. १५५ । ९-१८)। वायुदेवके
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नारद
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( १८१ )
अध्याय
पास जाकर सेमलवृक्षकी बात कहना ( शान्ति० १५६ । २-४ ) । भगवान् विष्णुसे कृपा-याचना ( शान्ति० २०७ | ४६ के बाद ) । भगवान् विष्णुका स्तवन ( शान्ति० २०९ । दाक्षिणात्य पाठ | इन्द्रके साथ लक्ष्मीका दर्शन (शान्ति० २२८ । ११६ ) । पुत्रशोकसे दुखी अकम्पनको समझाना ( शान्ति० २५६ से २५८ तक ) । महर्षि असितदेवलसे सृष्टिविषयक प्रश्न ( शान्ति० २७५ । ३ ) । महर्षि समनसे उनकी शोकहीनताका कारण पूछना ( शान्ति ० २८६ । ३-४ ) । गालवमुनिको श्रेयका उपदेश देना ( शान्ति ० २८७ । १२ -- ५९ ) । व्यासजीके पास आना और उनकी उदासीका कारण पूछना ( शान्ति० ३२८ ।
०
१२–१५ ) | व्यासजीको पुत्रके साथ वेदपाठ करनेको कहना ( शान्ति० ३२८ । २०-२१ ) । शुकदेवजीको वैराग्य और ज्ञान आदि विविध विषयका उपदेश ( शान्ति • अध्याय ३२९ से ३३१ तक ) । नरनारायण के समक्ष सबसे श्रेष्ठ कौन है, इस बातकी जिज्ञासा ( शान्ति० ३३४ । २५-२७ ) । श्वेतद्वीपका दर्शन और वहाँ के निवासियोंका वर्णन ( शान्ति० ३३५ । ९-१२ ) । दो सौ नामद्वारा भगवान्की स्तुति ( शान्ति ० ३३८ अध्याय ) । श्वेतद्वीपमें भगवान् का दर्शन ( शान्ति ० ३३९ ! १–१० ) । श्वेतद्वीपसे लौटकर नर-नारायण के पास जाना और उनके समक्ष वहाँके दृश्यका वर्णन करना ( शान्ति० ३४३ । ४७-६६ ) । मार्कण्डेयजीके विविध प्रश्नों का उत्तर देना ( अनु० २२ | दाक्षिणात्य पाठ ) । श्रीकृष्ण के पूछने पर पूजनीय पुरुषोंके लक्षण और उनके आदर-सत्कार से होनेवाले लाभका वर्णन करना ( अनु० ३१ । ५-३५ ) । पञ्चचूड़ा अप्सरासे स्त्रियोंके स्वभावके विषय में प्रश्न ( अनु० ३८ । ६ ) । भीष्मजीसे अन्नदान की महिमाका वर्णन ( अनु० ६३ । ५ – ४२ ) । देवकी देवीको विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न वस्तुओंके दानका महत्त्व बताना ( अनु० ६४ । ५- ३५ ) । अगस्त्यजीके कमलोंको चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु० ९४ । ३० ) । पुण्डरीकको श्रेयके लिये भगवान् नारायणकी आराधनाका उपदेश देना ( अनु० १२४ । दाक्षिणात्य पाठ ) । इनके द्वारा हिमालय पर्वतपर भूतगणसहित शिवजीकी शोभाका वर्णन ( अनु० १४० अध्याय ) । संवर्तको पुरोहित बनाने के लिये मरुत्तको सलाह देना ( आश्व० ६ । १८-१९ ) । मरुत्तको संवर्तका पता बताना ( आश्व० ६ । २० - २६ ) | महर्षि देवमतके प्रश्नों का उत्तर देना ( आश्व० २४ अध्याय ) । युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञमें इनको उपस्थिति ( आश्व० ८८ । ३९ ) । नारदजीका प्राचीन ऋषियोंकी तपः सिद्धि
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नारायण
का दृष्टान्त देकर धृतराष्ट्रकी तपस्याविषयक श्रद्धाको बढ़ाना और शतयूपके पूछनेपर धृतराष्ट्रको मिलनेवाली गतिका वर्णन करना ( आश्रम ० २० अध्याय ) । इनका युधिष्ठिरके समक्ष वनमें कुन्ती, गान्धारी और धृतराष्ट्रके दावानलसे दग्ध होनेका समाचार बताना ( आश्रम० ३७ | १–३८ ) । धृतराष्ट्र लौकिक अग्निसे नहीं, अपनी ही अग्निसे दग्ध हुए हैं—यह युधिष्ठिर को बताना और उनके लिये जलाञ्जलि प्रदान करनेकी आज्ञा देना ( आश्रम ० ३९ । १--९ ) । साम्ब के पेट से भूसल पैदा होने का शाप देनेवाले ऋषियों में ये भी थे ( मीसल० १ । १५ - २२ ) । इनके द्वारा युधिष्ठिरकी प्रशंसा ( महाप्र० ३ । २६ --२९ ) । महाभारतमें आये हुए नारदजीके नाम - ब्रह्मर्षि, देवि परमेष्ठिज, परमेष्ठी, परमेष्ठिपुत्र और सुरर्षि आदि । ( २ ) विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेसे एक ( अनु० ४ । ५३)।
नारदागमनपर्व - आश्रमवासिकपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ३७ से ३९ तक ) ।
नारदी - विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५९ ) ।
नाराच - बाणविशेष ( आदि० १३८ । ६ ) | ( सीधे बाणको नाराच कहते हैं । उसका अग्रभाग तीखा होता है । )
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नारायण भगवान् विष्णु तथा उनके अवतारभूत धर्मपुत्र नारायण, जो अपने भाई नरके साथ बदरिकाश्रममें सुवर्णमयरथपर बैठकर तपस्या करते हैं । ये स्वायम्भुव मन्वन्तर में धर्मके यहाँ चार स्वरूपों में अवतीर्ण हुए थे— नर नारायण, हरि और कृष्ण ( शान्ति० ३३४ । ९-१२ ) । इनका देवताओंको समुद्र मन्थनका आदेश
आदि० १७ । ११ - १३ ) । मोहिनीरूप धारण करके देवताओंको अमृत पिलाना ( आदि० १८ । ४५-४६ के बाद दा० पाठ ) । इनके द्वारा राहुके मस्तकका उच्छेद तथा देवासुर संग्राम में असुरोंका संहार ( आदि० १९ । ५–१०, १९२४ | इन्होंने गरुड़को अपना वाहन बनाया और ध्वजमें स्थान दिया ( आदि० ३३ | १३-१७ ) । इनके कृष्ण और श्वेत केश श्रीकृष्ण और बलराम के रूपमें प्रकट हुए थे ( आदि० १९६ । ३२३३ ) | ये ब्रह्माजीकी समामें विराजमान होते हैं। ( सभा० ११ । ५२-५३ ) । भीष्मद्वारा इनके स्वरूप एवं महिमाका वर्णन तथा इनके द्वारा मधु कैटभ दैत्यके वध प्रसंगका वर्णन ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८१ से ७८४ तक ) । इनके वाराह, नृसिंह
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नारायणस्थान
( १८२ )
निधि
आदि अवता का संक्षेपसे तथा श्रीकृष्णावतारका कुछ वहाँ रहकर जनार्दनकी उपासना करते हैं, वहाँ भगवान् विस्तारसे वर्णन (सभा० ३८ । पृष्ठ ७८४ से ८२६ विष्णु शालग्राम नामसे प्रसिद्ध हैं । ( सम्भवतः यह स्थान तक)। इन्द्रद्वारा इनके अवतारका वर्णन (वन० ४७ । नेपालराज्यान्तर्गत शालग्रामी या गण्डकीके उद्गमके निकट १०)। इनके द्वारा इन्द्रको सान्त्वना तथा नरकासुरका है। जहाँसे शालग्राम-शिलाका प्राकट्य होता है । ) वहाँ
न० १४२ । २५-२७) । इनका वाराह अवतार भगवान विष्णके समीप यात्रा करके मध्य अश्वमेध यशऔर पृथ्वीका उद्धार ( वन० १४५। ४५-४७)। का फल पाता है और विष्णुधाममें जाता है (वन प्रलयकालमें बालमुकुन्द रूपमें मार्कण्डेयको अपने स्वरूप- ८३ । १२५)। का परिचय देना (वन.१८९ । १-४९)। इन्होंने नारायणाश्रम-एक तीर्थ (वन० १२९ । ६)। कुवलाश्वमें अपने तेजको स्थापित किया (वन. २०४ ।
नारायणास्त्रमोक्षपर्व-द्रोणपर्वका एक अवान्तर पर्व १३)। इनके द्वारा स्कन्दको पार्षद-प्रदान (शल्य. ४५। ३७ )। इन्द्र रूपसे मन्धाताको दर्शन दिया
(अध्याय १९३ से २२० तक)। (शान्ति० ६४ । १४)। इन्द्ररूप धारण करके राज
नारीतीर्थ-प्राचीनकालके पाँच तीर्थ, जिन्हें कुछ कालतक धर्मके विषयमें मान्धाताके साथ इनका संवाद ( शान्तिः तापसीने छोड़ रक्खा था। उनके नाम हैं-- अगस्त्यतीर्थ, ६४।१६-३०शान्ति०६५ अध्याय)।नारदजीके पूछनेपर
सोभदनीय, पौलोमतीर्थ, कार धमतीर्थ और भारद्वाज इनका अपने आराध्य त्रिगुणातीत पुरुष सनातन परमात्मा
तीर्थ। इन तीयोंके समीप अर्जुनका अगमन । उनका सौभद्रको ही सर्वश्रेष्ठ बताना (शान्ति० ३३४ । २८--४५)।
तं थमें गोता लगाना और शापवश ग्राहरूपमें वहाँ रहनेराजा उपरिचरपर कृपा (शान्ति० ३३७ । ३३-३५)।
वाली वनामक अप्सराका रद्धार । वर्गाका अर्जुनको नारदजीको अपने चतु!ह स्वरूपोका परिचय कराना
पाँच अप्सराओं को प्राप्त हुए शापकी विस्तृत कथा (शान्ति० ३३९ । १९-७६)। अपने भावी अवतारों- सुनाना ( आदि. २१५ अध्याय)। वर्गाकी प्रार्थनासे का वर्णन करना (शान्ति० ३३९ । ७७--१०८)।
अर्जुनद्वारा शेष चार अप्सराओंका उद्धार और उक्त ब्रह्मादि देवताओंको प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि धर्मोंका उपदेश
पाँचौ त र्थोकी नारीतीर्थक न.मसे प्रसिद्धि (आदि० २०६। देना (शान्ति० ३४० । ४९-८९ )। शिवजीके साथ १-२२) । इन तीयोंमें भाइयोसहित युधिष्ठिरका युद्ध और विजय (शान्ति० ३४२ । ११०-११६)। आगमन, स्नान और गोदान (वन० ११८ । ४-७)। नारदजीसे वासुदेवजीका माहात्म्य बतलाना (शान्ति. नाव्याश्रम-राजा लोमपादद्वारा निर्मित आश्रम । जिस ३४४ अध्याय)। नारदजीसे भगवान् वाराहकृत पितरोंके नौकासे उनके राज्यमें ऋष्यशृङ्ग आये थे, उसीके नामपर पूजनकी मर्यादाका वर्णन करना (शान्ति. ३४५ । इसका नामकरण हुआ (वन. ११३।९)। १२--२८ ) । इनस मधु आर कटभको नासत्य-अश्विनीकुमारों से एकका नाम (शान्ति. उत्पत्ति ( शान्ति० ३४७ । २४-२६ ) । २०८।१७)। ब्रह्माजीद्वारा नारायणकी स्तुति, इनका हयग्रीवरूपसे प्रकट होकर मधु-कैटभद्वारा अपहृत हुए वेदोंको ढूँढ़
निकुम्भ (१) प्रह्लाद जीका तृतीय पुत्र (आदि० ६५ । लाना और मधु कैटभके साथ युद्ध करके उन दोनोके वध
१९)। (२) एक विख्यात दानव (आदि० ६५ ।
२६)। (३) हिरण्यकशिपुके कुलमें उत्पन्न एक दैत्य, द्वारा ब्रह्माजीका शोक दूर करना (शान्ति. ३४७ ।
सुन्द-उपसुन्दका पिता (आदि. २०८ । २-३ )। ६९-७१)। इनकी महिमाका वर्णन (शान्ति० ३४७ ।
(४) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५ । ५६)। ८०-५६)। पौष मासमें नारायणके पूजनसे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलका वर्णन (अनु. १०९ । ४)। इनके सहस्र ।
निखर्वट-एक राक्षस, जिमने तार नामक वानरके साथ युद्ध नामोका वर्णन (अनु. १५९ अध्याय)। श्रीकृष्ण इस
किया (वन० २८५ । ९)। लोकसे तिरोहित होनेके बाद अपने नारायण-स्वरूपमें निचन्द्र-एक दानव ( आदि० ६५ । २६)। प्रतिष्ठित हुए (स्वर्गा० ५। २४)।
निचिता-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा महाभारतमें आये हुए नारायणके नाम-कृष्ण, वासुदेव पाती है (भीष्म० ९।१८)। महापुरुष, विष्णु आदि ।
नितम्भू-एक दिव्य महर्षि, ये शरशय्यापर पड़े हुए कालनारायणस्थान ( या शालिग्रामतीर्थ)-एक परम की बाट जोहनेवाले भी मजीको देखनेके लिये आये थे
पवित्र तीर्थ, जहाँ भगवान् विष्णु सदा निवास करते हैं। (अनु. २६ । ।)। ब्रह्मा आदि देवता,तपोधन ऋष, आदित्य, वसु तथा रुद्र भी निधि-शङ्ख' नामक निधि, जिसका दान करके राजा
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निबिड
( १८३ )
निषङ्गी
-
ब्रह्मदत्त परमगतिको प्राप्त हुए थे ( अनु० १३७ । निर्मोचन-एक नगर, जो मुरदैत्यकी राजधानी था (उद्योग
४८ । ८३)। निबिड-क्रौञ्चद्वीपका एक पर्वत ( भीष्म० १२ । १९)। निवातकवच दैत्योंका एक दल, इन्द्रद्वारा इनका वर्णन
(वन० ४७ । १५)। इनका अर्जुनके साथ युद्ध और निमि-(१) एक प्राचीन राजा, विदेह देशके अधिपति
संहार ( वन अध्याय १६९ से १७२ तक)। (आदि. १।२३४)। ये यमराजकी सभामें रहकर
अवान्तर पर्व सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८।९)। निवातकवचयुद्धपर्व-वनपर्वका एक इनके द्वारा ब्राह्मणको गज्य-दान (वन० २३४ । २६)।
का (अध्याय १६५ से १७५ तक)। इन्होंने वन में कभी मांस नहीं खाया था (अनु. निशठ-(१) एक वृष्णिवंशी राजकुमार, जो रैवतक पर्वत११५। ६५)। (२) अत्रिकुलमें उत्पन्न एक ऋषि,
के उत्सवमें सम्मिलित था (आदि. ३१८ । १०)। जो दत्तात्रेयके पुत्र थे ( अनु० ९१ । ५)। इन्होंने
(हरिवंशके अनुसार यह बलराम और रेवतीका पुत्र है।) अपने पुत्र श्रीमान्को पिण्डदान दिया (अनु० ९१ ।
यह सुभद्राके लिये दहेज लेकर खाण्डवप्रस्थमें आया था १४-१५)। इनके द्वारा स्मरण करनेपर इनके समक्ष
(आदि० २०।३१) । युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें सम्मिलित वंशप्रवर्तक अत्रिमुनिका प्रकट होना ( अनु० ९१ ।
हुआ था (सभा. ३४ । १६)। उपप्लव्यनगरमें १४)। (३) विदर्भराजके पुत्र, जिन्होंने महात्मा
अभिमन्युके विवाहमें उपस्थित हुआ था (विराट० ७२ । अगस्त्यको अपनी कन्याका दान करके स्वर्गलोक प्राप्त
२२ )। अश्वमेध यज्ञमें श्रीकृष्णके साथ निशठका भी किया था ( अनु० १३७ | ११)!
आगमन हुआ था ( आश्व० ६६ । ४)। यह मृत्युके
पश्चात् विश्वेदेवोंमें मिल गया था (स्वर्गा० ५। १६निमेष-गरुडकी एक प्रमुख संतान ( उद्योग० १०१।
१८)। (२) एक प्राचीन राजा, जो यम-सभामें रहकर
सूर्यपुत्र यमकी उपासना करता है (सभा० ८ । नियति ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करनेवाली एक देवी ( सभा. ११। ४३ )।
निशा-भानु (मनु) नामक अग्निकी तीसरी भार्याः नियुतायु-श्रुनायुक पुत्र, जो अर्जुनद्वारा मारा गया जिसने रोहिणी नामक कन्या और अग्नि एवं सोम नामक (द्रोण ९४ । २९)।
पुत्रको जन्म दिया था। (इसने पाँच अग्निस्वरूप पुत्र नियोधक-एक दंगली पहलवानका नाम ( विराट०
और उत्पन्न किये थे-वैश्वानर, विश्वपति, संनिहित, २।९)।
कपिल और अग्रणी ।) निरमित्र-(१) नकुलका पुत्र, इसकी माता करेणुमती निशाकर-गरुडकी प्रमुख संतानों से एक (उद्योग० १०१।
थी ( आदि. ९५। ७९)। (२) एक त्रिगर्तराज- १४)। कुमार, जो सहदेवद्वारा मारा गया था (द्रोण. १०७। निशम्भ-नरकासुरके चार प्रमुख राज्यपालोमैंसे एक २६)।
जो भूतलसे लेकर देवयानतकका मार्ग रोककर खड़ा रहता निरविन्द-एक पर्वत, यहाँ स्नान और पिण्डदानका फल था । श्रीकृष्णद्वारा इसका वध (सभा० ३८ । २९ के बाद (अनु० २५ । ४२)।
दा० पाठ , पृष्ठ ८०५)। निरामय-एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३७)।
निश्चीरा-एक त्रिलोकविख्यात नदी, जिसकी यात्रा करने
से अश्वमेध यज्ञका फल मिलता और यात्री भगवान् विष्णुनिरामया-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा
के लोकमें जाता है। निश्चीरासंगममें दानका फल इन्द्र पीती है ( भीष्म० ९ । ३३)।
लोककी प्राप्ति है ( वन० ८४ । १३८-१३९)। निरामर्द-एक प्राचीन राजा (आदि० १ । २३७)। निश्च्यवन-बृहस्पतिके दूसरे पुत्र, जो यश वर्चस् और कान्तिनिति-(१) ग्यारह रुद्रों से एक, ब्रह्माजीके पौत्र एवं से कभी च्युत नहीं होते, ये केवल पृथ्वीकी स्तुति करते
स्थाणुके पुत्र (आदि० ६६ । २)। ये अर्जुनके जन्म- हैं । निधाप, निर्भल, विशुद्ध तथा तेजःपुञ्जसे प्रकाशित हैं। महोत्सवमें पधारे थे ( आदि. १२२ । ६८)। (२) इनके पुत्रका नाम सत्य है (वन० २१९ ॥१२. अधर्मकी स्त्री, इससे नैर्ऋत नामवाले तीन भयङ्कर राक्षस १३)। उत्पन्न हुए, जिनके नाम हैं-भय, महाभय एवं मृत्यु निषङ्गी-धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( आदि०६७।१०३)। (आदि. ६६ । ५४-५५)।
भीमसेनद्वारा इसका वध ( कर्ण० ८४ । ४-६)।
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निषध
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( १८४ )
निध - ( १ ) भरतवंशी महाराज कुरुके पौत्र एवं जनमेजयके चतुर्थ पुत्र, जो धर्म और अर्थ में कुशल तथा समस्त प्राणियों के हित में संलग्न रहनेवाले थे ( आदि० ९४ । ५६) । (२) एक पर्वत, जो हरिवर्ष और इलावृतवर्ष के बीचमें है । अर्जुनने दिग्विजयके समय यहाँके निवासियोंको जीतकर अपने अधीन किया था ( सभा० २८ । ६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७४६ ) । एक पर्वत, जो हिमवान् और हेमकूटसे भी आगे है। मार्कण्डेयजीने भगवान् बालमुकुन्दके उदरदेशमें इसका दर्शन किया था ( वन० १८८ । ११२) । ( आधुनिक मतके अनुसार मन्त्रमादन के पश्चिम और काबुल नदीके उत्तरका पर्वत हिंदूकुश ही 'निषेध' है ) । ( ३ ) प्राचीन देश, जहाँ वीरसेन नामसे प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे । इन्हींके पुत्र नल हुए ( वन० ५२ । ५५ ५ ) । निषाद - ( १ ) एक भारतीय जनपद ( भीष्मः ९ । ५१ ) । ( २ ) की दाहिनी जाँघसे उत्पन्न एक पुरुष, जो ऋषियोंके निषीद (बैठ जाओ ) कहने से 'निषाद' कहलाया तथा जिससे वनमें रहनेवाले निपादकी उत्पत्ति हुई ( शान्ति ० ५९ । ९७ )।
1
निषादनरेश एक राजा, जो कालेय एवं क्रोधहन्तासंज्ञक दैत्यके अंश से उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ५० )।
निष्कुट - एक प्राचीन प्रदेश, जहाँके अधिपतियों को अर्जुनने जीता था ( सभा० २७ । २९ ) ।
निष्कुटिका - स्कन्दको अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । १२)।
निष्कृति एक अग्नि, जो बृहस्पति के पुत्र हैं और लोगों को संकट से निष्कृति ( छुटकारा ) दिलाने के कारण 'निष्कृति' नामसे प्रसिद्ध हैं (वन० २२९ । १४ ) । निष्ठानक - कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न हुए एक प्रमुख नागका नाम (आदि० ३५ । ९ )। निष्ठुरिक-एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ । १२)
निसुन्द - एक दैत्य, जो श्रीकृष्णद्वारा मारा गया था ( वन० १२ । २९ ) ।
नीथ - एक वृष्णिवंशी राजकुमार ( वन० १२० | १९ ) । नीप- ( १ ) एक प्राचीन जनपद, जहाँके राजा राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरको भेंट देनेके लिये आये थे ( सभा० ५१ । २४ ) | ( २ ) एक क्षत्रियवंश, जिसमें जनमेजय नामक कुलाङ्गार राजा प्रकट हुआ था ( उद्योग० ७४ । १३ ) ।
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नीली
नील- ( १ ) कश्यप और कसे उत्पन्न हुआ प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । ७) । ( २ ) ( दुर्योधन ) माहिष्मती नगरीके एक राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७ । ६१) । ये द्रौपदीके स्वयंवर में गये थे ( आदि० १८५ । १० ) । सहदेवके साथ इनका भीषण युद्ध ( सभा० ३१ । २१ ) । अग्निदेवद्वारा राजा नीलकी सहायता ( सभा० ३१ । २३) । इनके द्वारा अग्निदेवको अपनी कन्याका दान ( सभा० ३१ । ३३ ) । अग्निदेवद्वारा राजा नीलकी सेनाको अभय-दान ( सभा० ३१ । ३५ ) । पराजित नीलद्वारा सहदेवका पूजन ( सभा० ३१ । ५८-५९ कर्णने दिग्विजय के समय इन्हें पराजित किया था (वन ०२५४ | १५) पाण्डवोंकी ओर से इन्हें रणनिमन्त्रण भेजनेका विचार किया गया था (उद्योग ० ४ । १६ ) । दुर्योधनकी सहायता में इनका सेनासहित आगमन ( उद्योग० १९ । २३-२४)। दुर्योधन सेना में एक रथियोंकी गणनामें इनका भी नाम था ( उद्योग ० १६६ । ४ ) । इन्होंने नर्मदाको भार्यारूप में पाकर उसके गर्भ से सुदर्शना नामक कन्या उत्पन्न की, जिसे अग्निदेव चाहने लगे । राजाने इस बातको जानकर वह कन्या उनके साथ ब्याह दी। उससे सुदर्शन नामक पुत्र हुआ ( अनु० २ अध्याय ) | ( ३ ) एक पर्वत, जो उत्तर में गन्धमादन और मन्दराचलके बाद आता है ( वन० १८८ । ११३ ) । गङ्गाद्वारमें भी एक नील पर्वत है, जहाँ स्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गको जाता है ( अनु० २५ | १३) । ( ४ ) एक वानर सेनापति, इसके द्वारा दूषण के छोटे भाई प्रमार्थाका वध ( वन० २८७ । २७ ) | ( ५ ) पाण्डवपक्षका एक योद्धा, जो उदार रथी, सम्पूर्ण अस्त्रोंका ज्ञाता और महामनस्वी था ( उद्योग० १७१ । १५ ) । अनूपदेशका राजा, जिसे अश्वत्थामाने मूच्छित किया था ( भीष्म० ९४ । ३६ ) । इसके रथ के घोड़ोंका वर्णन ( द्रोण० २३ | ६५ ) | दुर्जयके साथ युद्ध ( द्रोण० २५ । ४५ ) । अश्वत्थामाद्वारा वध ( द्रोण० ३१ । २५ ) | इसके कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी कन्याके स्वयंवर में जाने की चर्चा ( शान्ति ० ४ । ६ ) । नीलगिरि - भद्राश्व वर्षकी सीमापर स्थित एक पर्वत, जिसे लाँघनेर रम्यक वर्ष आता है ( सभा० २८ । ६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७४९ ) ।
नीला एक मुख्य नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं। ( भीष्म० ९ । ३१ ) ।
नीली- महाराज अजमीढकी द्वितीय पत्नी । इनके गर्भ से दुष्यन्त तथा परमेष्ठीका जन्म हुआ था ( आदि० ९४ । ३२) ।
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नवाग
पक्षालिका
नीवारा-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय जनता १)। नैमिषारण्यमें आकर अर्जुनने उत्पलिनी (कमलपीती है (भीष्म० ९ । १८)।
मण्डित गोमती ) नदीका दर्शन किया (आदि० २१४ । नृग-एक प्रसिद्ध एवं प्राचीन दानी राजा, जो यमराजकी ६)। इस सिद्धसेवित पुण्यमय तीर्थमें देवताओंके साथ समामें विराजमान होते हैं (सभा०८।८)। नृगने
ब्रह्माजी नित्य निवास करते हैं। नैमिषकी खोज करनेवाले वाराहतीर्थमें पयोष्णी नदीके तटपर यज्ञ किया था, जिसमें पुरुषका आधा पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है और उस इन्द्र सोमपान करके मस्त हो गये थे और प्रचुर दक्षिणा तीर्थ में प्रवेश करते ही वह सारे पापोंसे छुटकारा पा पाकर ब्राहाणलोग भी हर्षोल्लाससे परिपूर्ण हो गये थे जाता है । वहाँ तीर्थसेवनमें तत्पर हो एक मासतक (वन० ८८ । ५-६, वन० १२१ । १-२) । इन्हें
निवास करना चाहिये । पृथ्वीर जितने तीर्थ हैं, वे सभी भारतवर्ष बहुत प्रिय था (भीष्म०९।७-९)। ये
नैमिषमें विद्यमान हैं । जो वहाँ स्नान करके नियम-पालनशौर्यसे सुयश एवं सम्मानके भागी होकर उत्तम लोकोंको
पूर्वक नियमित भोजन करता है, वह गोमेध यज्ञका फल प्राप्त हुए थे (भीष्म० १७ । ९-१०)। श्रीकृष्ण
पाता और अपने सात पीढ़ियोका उद्धार कर देता है। द्वारा गिरगिटकी योनिसे उद्धार (अनु०७० । ७)।
जो नैमिषमें उपवासपूर्वक प्राणत्याग करता है, वह समस्त श्रीकृष्णके पूछनेपर इनका अपनी आत्मकथा सुनाना
पुण्यलोकॊमें आनन्दका अनुभव करता है। नैमिषतीर्थ (अनु०७०।१०-२८)। श्रीकृष्णकी आज्ञासे इनका
नित्य पवित्र और पुण्यजनक है। (वन० ८४ । ५९स्वर्गलोकमें गमन (अनु०७० । २९)। गोदानमहिमाके
६४)। देवर्षिसेवित प्राची दिशामें नैमिष नामक तीर्थ प्रसंगमें इनका नामनिर्देश (अनु० ७६ । २५)।
है, जहाँ भिन्न-भिन्न देवताओंके पृथक पृथक पुण्यतीर्थ मांस-भक्षणका निषेध करनेके कारण इनको परावरतत्त्वका
हैं। वहाँ देवर्षिसेवित परम रमणीय पुण्यमयी गोमती शान ( अनु० ११५ । ६०)।
नदी है। देवताओंकी यज्ञभूमि और सूर्यका यज्ञ-पात्र
विद्यमान है (वन० ८७ । ६-७)। भाइयोसहित नृत्यप्रिया-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ ।
राजा युधिष्ठिरने नमिषारण्य तीर्थमें आकर गोमतीके पुण्य १०)।
तीर्थों में स्नान, गोदान एवं धन दान किया (वन० नृसिंह-भगवान् विष्णुके अवतार । इनके द्वारा हिरण्य
९५ । १-२)। कशिपुके वधकी कथा (सभा० ३८।२९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८५ से ७८९ तक)।
नैमिषकक्ष-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक प्राचीन तीर्थ,
जिसका निर्माण नैमिषारण्यनिवासी मुनियोंने किया था। नेपाल-हिमालयकी तराईका एक जनपद । कर्णने अपनी
वहाँ स्नान करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है दिग्विजयके समय यहाँके राजाको जीता था (वन
(वन० ८३ । १०९)। २५४ । ७)। . नेमिहंसपथ-एक स्थान, जो श्रीकृष्णके ही राष्ट्रभूत
नैमिषेय-एक तीर्थ, जहाँ नैमिषारण्यवासी मुनियोंके दर्शनार्थ आनर्तदेशके भीतर अक्षप्रपतनके समीप था । यहीं
__ सरस्वतीकी धारा पश्चिमसे पूर्वको लौट आयी थी। यहाँ भगवान् श्रीकृष्णने गोपति एवं तालकेतुका वध किया
सरस्वतीकी धारा पलटनेका विशेष विवरण (शल्य०३७ । था (सभा०३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८२४)।
. ३५-५७)। नैकपृष्ठ-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४१)।
नैऋत-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५१)। नैगमेय-(१) कुमार कार्तिकेयके तृतीय भ्राता । पिताका
नैति-एक राक्षस । पृथ्वीके प्राचीन शासकोंमें इसका
नाम है ( शान्ति० २२७ । ५२)। नाम अनल (आदि. ६६ । २४) । (२) कुमार औकी-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । २९)। कार्तिकेयकी चार मूर्तियोमेसे एक मूर्ति । दोके नाम थेशाख और विशाख (शल्य ४४।३७)।
नौबन्धन-हिमालयका एक शिखर । यहाँ मत्स्य भगवानके
सींगसे खोलकर सप्तर्षियोंने नौका बाँधी थी (वन. नैमिष-( इसे नैमिष एवं नैमिषारण्य भी कहा जाता है। आजकल लोग इसे नीमसार' कहते हैं। यह स्थान
१८७ । ५०)। सीतापुर जिलेमें है। ) नैमिषारण्य तीर्थ में औनको अपना न्यग्रोधतीर्थ-उत्तराखण्डका दृषद्वती-तटवर्ती एक आश्रम द्वादश वार्षिक यज्ञ किया था (भादि.१।१: आदि (वन० ९०।१५)। ४.)। ऋषियोंकी प्रेरणासे सौतिने यहाँ महाभारतकी सम्पूर्ण कथा सुनायी थी (आदि० १।९-२५)। पक्षालिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । इस तीर्थ में देवताओंने यज्ञ किया था (आदि. १९६। १९)।
म० ना० २४
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पङ्कजित्
पथिकृत
पङ्कजित्-गरुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग० करके महान् पुण्यसे युक्त हो मनुष्य सत्पुरुषोंके लोकमें १०१।१०)।
प्रतिष्ठित होता है (वन०८३ । १६२)। पङ्कदिग्धाङ्ग-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६८)। पञ्चवीर्य-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३६ )। पञ्चक-इन्द्रद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । पञ्चशिख-एक प्राचीन ऋषि, जो कपिलाके पुत्र और
दूसरेका नाम उत्क्रोश था (शल्य० ४५। ३५)। आसुरिके शिष्य थे ( शान्ति० २१८ । ६)। इनका पञ्चकर्पट-एक पश्चिम भारतीय जनपद, जिसे नकुलने पञ्चशिख नाम पड़नेका कारण ( शान्ति० २१८ । जीता था (सभा० ३२ । ७)।
११-१२) । मिथिलानरेश जनदेवको इनका उपदेश पञ्चगङ्गा-एक तीर्थ, जहाँ मृत्युने तपस्या की थी (द्रोण.
(शान्ति० २१८। २२ से २१९ । ५२ तक)।
जरा-मृत्युकी निवृत्तिके विषयमें जनकको इनका उपदेश ५४ । २३)।
(शान्ति. ३१९ । ६-१५)। पश्चगण-उत्तर दिशाका एक जनपद, जिसे अर्जुनने जीता
पश्चाल-एक भारतीय जनपद ( भीष्म. ९ । ४१; था (सभा० २७ । १२)।
भीष्म०९।४७)। पञ्चचूड़ा-पाँच जूडोवाली एक अप्सरा (वन० १३४ । १२)। जो शुकदेवजीको परमपदकी प्राप्तिके लिये पटच्चर-एक भारतीय जनपद और वहाँके निवासी राजा ऊपर की ओर जाते देख आश्चर्यचकित हो उठी थी
एवं राजकुमार आदि; इस देशके लोग जरासंधके भयसे (शान्ति. ३३२ । १९-२०)। इसने नारदजीके समक्ष
दक्षिणको भाग गये थे ( सभा० १४ । २६)। नारी-स्वभावका वर्णन किया था (अनु० ३८।११-३०)।
सहदेवने इन्हें दक्षिणदिग्विजयके समय जीता था
(सभा० ३१ । ४)। ये लोग युधिष्ठिरके पक्षमें लड़ने पञ्चजन-पञ्चजन' नामसे प्रसिद्ध पाँच असुर, जो
आये थे और उन्हीं के साथ क्रौञ्चव्यूहके पृष्ठभागमें खड़े नरकासुरके अनुयायी थे । भगवान् श्रीकृष्णने इनका
थे (भीष्म० ५० । ४८)। वध किया था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७९८)।
पटवासक-धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
सर्पसत्रमें जल मरा था ( आदि० ५७ । १८)। पञ्चनद-पश्चिमोत्तर भारतका एक प्रदेश, जिसे आजकल पंजाब कहते हैं। इसे पश्चिम-दिग्विजयके समय नकलने पटुश-एक राक्षस, जिसने श्रीरामसेनाके पनस नामक जीता था ( सभा० ३२ । ११)। इस प्रान्तमें पाँच वानरके साथ युद्ध किया था ( वन० २८५ । ९)। प्रसिद्ध नदियाँ विपाशा (व्यास ), शतद्रू (सतलज), पण्डितक ( या पण्डित)-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक इरावती ( रावी), चन्द्रभागा (चनाब ) और वितस्ता ( आदि. ६७ । १०१)। भीमसेनद्वारा इसका वध ( झेलम ) बहती हैं। इसलिये इसे पञ्चनद या पञ्चाब (भीष्म ८८ । २४-२५)। कहा गया है ।
पतत्रि-कौरवपक्षका एक योद्धा, इसका भीमसेनद्वारा पञ्चनद-(१) एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य रथहीन होना ( कर्ण ४८।३०)। पञ्चमहायज्ञोंका फल पाता है ( वन० ८२ ॥ ८३)।
पतन-राक्षसों और पिशाचोंके दल (वन० २८५ । १-२)। (२) कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, जहाँ कोटि
पताकी-कौरवदलका एक योद्धा, जिसे साथ लेकर अर्जुनपर तीर्थमें स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है
आक्रमण करनेके लिये दुर्योधनका शकुनिको आदेश (वन० ८३ । १६-१७)।
(द्रोण० १५६ । १२२)। पश्चमी-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं
पतिव्रतामाहात्म्यपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय (भीष्म० ९ । २६)।
२९३ से २९९ तक)। पञ्चयज्ञा-एक प्राचीन तीर्थ, जहाँकी यात्रा करनेसे मनुष्य
पत्ति-सेनाका परिमाणविशेष (आदि० २। १९)। स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है (वन० ८४ । १०-११)।
पत्तोर्ण-एक क्षत्रियनरेश, जो युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें भेंट पञ्चरात्र-एक आगम या शास्त्र, जिसके विशेषज्ञ पञ्चशिख
लेकर आये थे (सभा० ५२ । १८)। मुनि बताये गये हैं (शान्ति. २१८।११-१२)।
पथिकृत-एक अग्नि; यदि दर्श और पूर्णमास याग बीचमें पञ्चवक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७६)। ही बंद हो जाय तो इनके लिये अष्टाकपाल पुरोडाश पञ्चवटी-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, जिसकी यात्रा देनेका विधान है (वन० २२१॥३०)।
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पदाति
( १८७ )
परमक्रोधी
पदाति-कुरुकुमार जनमेजयके सातवें पुत्र ( आदि० ९४। पयस्य-महर्षि अङ्गिराके वारुणसंज्ञक आठ पुत्रों से एक ५७)।
(अनु. ८५ । १३.)। पद्म (प्रथम)-(१) कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न पद्मनामक पयोदा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ ।
एक प्रमुख नाग (आदि. ३५। १०)। (२) २८)। (द्वितीय) कश्यप और कद्रुसे उत्पन्न पद्मनामका दूसरा नाग पयोष्णी-एक परम पवित्र नदी, जो विन्ध्यपर्वतसे निकल( आदि० ३४ । १०)। ये दोनों पद्म वरुणकी सभा कर दक्षिण दिशाकी ओर बहती है । राजा नलने इसे उपस्थित होते हैं (सभा०९।८)। (३) एक
समुद्रगामिनी बताकर दमयन्तीको इसका और विन्ध्यराजा, जो यम-सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना
पर्वतका दर्शन कराया था ( वन० ६१। २२)। करता है (सभा० ८।२१)। (४) एक निधि, जो
सरिताओंमें श्रेष्ठ पयोष्णीमें जाकर स्नान एवं देवताकुबेरकी सभामें उपस्थित रहती है (सभा० १०३९)।
पितरोंका पूजन करनेसे तीर्थसेवीको सहस्र गोदानका फल (५) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ५६)।
मिलता है (वन० ८५ । ४०)। राजा नृगने पयोष्णीके पनकूट-भगवान् श्रीकृष्णके एक प्रासादका नाम (सभा०
तटपर उत्तम वाराहतीर्थमें यज्ञ किया था, जिसमें सोम ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ८१५)। (इस मवनमें
पीकर इन्द्र और दक्षिणा पाकर ब्राह्मण मस्त हो गये भगवान की प्रेयसी श्रीसुप्रभाजी रहती थीं।)
थे (बन. ८८। ४-६, वन० १२१ । १-२) !
पयोष्णीका जल हाथसे उठाया गया हो, धरतीपर पड़ा हो पद्मकेतन-गरुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक (उद्योग०१०१।
या वायुके वेगसे उछलकर शरीरपर पड़ गया हो, वह ११)।
जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त किये हुए समस्त पापोंको हर लेता पद्मनाभ-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि.
है। यहाँ भगवान् शङ्करका शृङ्गनामक वाद्यविशेष है। ६७ । ९६) । (२) नैमिषारण्यमें गोमती-तटपर
जिसके दर्शनसे मनुष्यको शिवधामकी प्राप्ति होती है । इसका नागपुरमें निवास करनेवाला एक नाग (शान्ति०३५५ ।
माहात्म्य दूसरी सभी नदियोंसे बढ़कर है (वन० ८८ । ४)। इसके गुणोंका वर्णन (शान्ति० ३५५। ५
७-९)। धर्मराज युधिष्ठिर लोमशजी, भाइयों और ११)। इसका अपनी पत्नीसे धर्मविषयक वार्तालाप
सेवकोंके साथ विदर्भनरेशद्वारा पूजित उत्तम तीर्थोंवाली (शान्ति० ३५९ अध्याय)। अभिमान और रोष
पुष्यसलिला पयोष्णीके तटपर गये थे। उसके जलमें छोड़कर ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये उद्यत होना
यशसम्बन्धी सोमरसका सम्मिश्रण हुआ था। धर्मराजने (शान्ति. ३६१।४-१२) । ब्राह्मणके पूछनेपर
पयोष्णीके तटपर जाकर उसका जल पीया और वहाँ सूर्यमण्डलकी कथा सुनाना (शान्ति० ३६२ अध्याय)।
निवास किया (वन० १२०।३१-३२)। अमूर्तरयाके पद्मसर-एक सरोवर, जहाँ खाण्डवप्रस्थसे गिरिव्रजकी ओर पुत्र राजा गयने इसके तटपर सात अश्वमेध यज्ञ करके जाते समय मार्गमें श्रीकृष्ण, अर्जुन और मीमसेन पहुँचे सोमरसके द्वारा वज्रधारी इन्द्रको संतुष्ट किया था (वन. थे (सभा० २० । २६)।
१२५ । ३)। यह भारतकी उन प्रमुख नदियोमेसे पद्मसीगन्धिक-चेदिदेशके पास वनप्रान्तमें स्थित एक
है, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म. ९ कमलमण्डित सरोवर, जहाँ व्यापारियोंके एक दलपर जंगली
हाथियोंने आक्रमण किया था (वन०६५। २-८)। पर-(१) एक प्राचीन राजा ( आदि. १।२३४)। पद्मावती-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य ४६ (२) विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु.
२०)।
पनस-एक वानर-यूथपति, जो सत्तावन करोड सेना साथ परतङ्गण-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९।६४)।
लेकर श्रीरामचन्द्रजीके पास आया था (वन २८३। परपुरञ्जय-एक हैहयवंशी राजकुमार, इसके द्वारा हिंसक ६)। इसने पटुश नामक राक्षसके साथ युद्ध किया था
पशुके धोखेमें एक ऋषिकी हत्या (वन. १८४ । (वन० २८५ । ९)।
५)। अरिष्टनेमिद्वारा इसके ब्रह्महत्याके भ्रमका निवापम्पासरोवर--ऋष्यमूक पर्वतके पासका एक सरोवर, जिसके
__रण (वन० १८४ । १४)। समीप अपने चार मन्त्रियोंके साथ सवर्ण-मालाधारी परमकाम्बोज-पश्चिमोत्तर भारतका एक जनपद, जिसे अजेनने वानरराज वालीके भाई सुग्रीव निवास करते थे (वन जीता था (सभा० २७ । २५)। २७९ । ४४)।
परमक्रोधी-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३२)।
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परमेष्ठी
( १८८ )
परावसु
परमेष्ठी-महाराज अजमीढ़के द्वारा नीलीके गर्भसे उत्पन्न वर्णन ( उद्योग. १७९ । ३-४)। भीष्मके साथ युद्धाद्वितीय पुत्र, इनके सभी पुत्र पाञ्चाल कहलाये (आदि. रम्भ ( उद्योग. १७९ । १९ से १८५ अध्याय तक)। ९४ । ३२-३३)।
देवता, पितर और गङ्गाके आग्रहसे इनका युद्ध बंद करके परशुराम-महर्षि जमदग्निके पुत्र, माताका नाम रेणुका, भष्मपर सतुष्ट होना (उद्योग० १८५ । ३६) । अम्बाइनके द्वारा समन्तपञ्चक क्षेत्रका निर्माण ( आदि से अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए जाने के लिये ४) । क्षत्रियोंके रुधिरसे पितरोंका तर्पण तथा पितरों- कहना ( उद्योग० १८६ । ३)। संजयको समझाते हुए द्वारा इनको वरदान (आदि० २ । ५-७)। इन्होंने नारदजीद्वारा इनके चरित्रका वर्णन (द्रोण. ७० इक्कीस बार इस पृथ्वीको क्षत्रियोंसे शून्य किया और अन्तमें अध्याय)। शिवसे वरदान पाना और दानवोंका वध महेन्द्र पर्वतपर उत्तम तपस्या की (आदि०६४।४)। इनके करना (कर्ण० ३४ । १४९-१५५) । ब्राह्मणरूपधारी द्वारा महर्षि कश्यपको समस्त पृथ्वीका दान (आदि. कर्णका रहस्य खुल जानेपर इनके द्वारा उसको शाप-दान १२९ । ६२ ) । द्रोणको सम्पूर्ण अस्त्रोंकी शिक्षा
(कर्ण० ४।९)। इनके देखनेमात्रसे दंशनामक राक्षस(आदि. १२९ । ६६)। द्रोणको ब्रह्मास्त्रका दान
का कीट-योनिसे उद्धार ( शान्ति० ३ । १४)। कर्णको (आदि. १६५। १३)। ये यमसभामें उपस्थित होते हैं शाप (शान्ति०३ । ३०-३२)। इनके जन्मका प्रसंग (सभा०८ । १९)। इनके द्वारा जम्भासुरके मस्तकका (शान्ति.१९ । ३१-३२) । तपस्याद्वारा महादेवजीसे भेदन और शतदुन्दुभि नामक दैत्यका विनाश । इनके
कुठार प्राप्त करना (शान्ति. ४९ । ३३)। हैहयराज द्वारा इक्कीस बार क्षत्रियोंका विनाश हुआ और सहस्र
अर्जुनकी भुजाओंका छेदन (शान्ति० ४९ । ४८)। बाहु अर्जुन मारा गया। शाल्वके साथ इनका भयानक
कार्तवीर्यके वंशका संहार (शान्ति० ४९ । ५२-५३)। युद्ध, शाल्वके सौभवमानको नष्ट न कर सकनेके
यज्ञान्तमें सारी पृथ्वी दक्षिणारूपमें कश्यपको दान (शान्ति. सम्बन्ध इनके प्रति नग्निका कुमारिकाओंके वचन (सभा० ३८ । २९ के बाद, पृष्ठ ७९२ से ७९५ तक )। ये
४९ । ६३-६४)। शूर्पारक क्षेत्रमें निवास (शान्ति० युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें गये थे और इनके सहित ऋषिोंने
४९ । ६६-६७)। मुचुकुन्दको कपोत और बहेलियेकी युधिष्ठिरका अभिषेक किया ( सभा० ५३ । ११)।
कथा सुनाना (शान्ति० अध्याय १४३ से १४९ तक)। परशुरामजीने भृगुतुङ्ग पर्वतपर युधिष्ठिरको उपदेश दिया
इनके द्वारा ब्राह्मणको पृथ्वी-दान (शान्ति. २३४ । था (सभा० ७८ । १५)। लोमशजीद्वारा युधिष्ठिरके
२६)। शिव-महिमाके विषयमें युधिष्ठिरको अपना अनुप्रति इनके चरित्रका वर्णन (वन. ९९। ४०-७१)। भव सुनाना (अनु. १८ । १२-१५)। वशिष्ठ आदि पिताकी आज्ञासे इनका अपनी माताका वध करना
ऋषियोंसे अपनी शुद्धिका उपाय पूछना (अनु० ८४ । ( वन० ११६ । ११)। इनको पिताका वरदान ३९-४०)। इनके द्वारा भूमिदान (अनु. १३७ । (वन०११६ । १८)। इनके द्वारा कार्तवीर्य अर्जनका १२)। कार्तवीर्य अर्जुनका वध (आश्व० २९।११)। वध ( वन० ११६ । २५) । कुपित हुए इनका
इक्कीस बार क्षत्रियोंका संहार (आश्व० २९ । १८)। इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियोंसे सूनी करना (वन.
पितरोंके समझानेसे युद्धसे विरत होना और तपस्याद्वारा ११७ । ९)। इनका यज्ञ और कश्यप आदि ब्राह्मणों- परमसिद्धिकी प्राप्ति (आश्व० १० अध्याय)। को भूमिदान ( वन० ११७ । ११)। ये कर्णके परशुरामकुण्ड-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित और परशुरामगुरु थे ( वन० ३०२।९)। हस्तिनापुर जाते समय द्वारा स्थापित पाँच कुण्ड, जो सुप्रसिद्ध तीर्थ हैं। इनकी मार्गमें इनका श्रीकृष्णसे मिलना और वार्तालाप करना उत्पत्ति और महत्ता (वन० ८३ | २६-३८)। (उद्योग० ८३ । ६४ के बादसे ७२ तक)। कौरव
परशुवन-एक नरक (शान्ति० ३२१ । ३२ )। सभामें दम्भोद्भवका उदाहरण देते हुए नर-नारायणस्वरूप
परहा एक प्राचीन राजा (आदि० १ । २३०)। श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महिमाका वर्णन ( उद्योग. ९६ अध्याय)। अम्बाका कार्य करने के लिये उसे सान्त्वना
परान्त-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४७)। देना ( उद्योग. १७७ । ३२-३१) । अम्बाके साथ परावसु-एक ऋषि, जो रेभ्य मुनिके पुत्र और अर्वावसुके हस्तिनापुर जाकर भीष्मसे उसे ग्रहण करनेको कहना बड़े भाई थे । हिंसक पशुके धोखेमें इनके द्वारा पिताका (उद्योग. १७८ । ३०)। भीष्मके अस्वीकार करनेपर वध और उनका अन्त्येष्टि-संस्कार ( वन० १३८ । उन्हें मार डालनेकी धमकी देना ( उद्योग. १७८। २-७)। इनका अपने छोटे भाई अर्वावसुको अपनी ३५-३६)। भीष्मके साथ युद्धके लिये कुरुक्षेत्रमें जाना की हुई ब्रह्महत्याके निवारणके लिये व्रत करनेकी आज्ञा (उद्योग० १७८ । ६६)। इनके संकल्पमय रथका देना और उनका भाईकी आजाको स्वीकार करना (वन.
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परावह
परीक्षित् (परीक्षित् )
१३८1८-१०)। देवताओद्वारा बृहद्युम्न के यज्ञसे इनका निकलवाया जाना (वन० १३८ । २०)। अर्वावसुके प्रयत्नसे इनका निर्दोष सिद्ध होना (वन० १३८ । २१)। इनके द्वारा परशुरामजोपर आक्षेप ( शान्ति० ४९। ५७-५९)। ये अङ्गिराके वंशज माने जाते हैं (शान्ति. २०८ । २६)। इन्होंने उपरिचरके यज्ञकी सदस्यता स्वीकार की (शान्ति० ३३६ । ७)। ये इन्द्रसभाके
सदस्य हैं (सभा०७। १७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। परावह-वायुके सात भेदोंमेंसे एक । यह सप्तम वायु है। इसके स्वरूप और शक्तिका वर्णन (शान्ति० ३२८ ।
५२)। पराशर-(१) धृतराष्ट्र के वंशमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें स्वाहा हो गया ( आदि. ५७ ।। १९)। (२) महर्षि शक्तिके द्वारा अदृश्यन्तीके गर्भसे उत्पन्न एक ऋषि, जो वसिष्ठ मुनिके पौत्र थे (आदि० १७७।१)। राक्षसभावापन्न कल्माषपादद्वारा इनके पिता शक्तिका वध ( आदि. १७५ । ४०)। बारह
च ( आदि० १७५ । ४०)। बारह वर्षोंतक माताके गर्भमें इनका वेदाभ्यास ( आदि. १७६ । १५) । इनका पराशर' नाम होनेका कारण (आदि० १७७ । ३)। अपनी माताके मुँहसे राक्षसद्वारा अपने पिताकी मृत्युका समाचार सुनकर सम्पूर्ण जगत्के विनाशके लिये इनका संकल्प ( आदि. १७७ । ५-९)। भृगवंशी और्वकी कथा सुनाकर वशिष्ठद्वारा इनके जगद्विनाशक संकल्पका निवारण (आदि. १७७ । ११ से अध्याय १८० । १ तक)। इनके द्वारा राक्षससत्रका अनुष्ठान, पुलस्त्य आदि महर्षियोद्वारा इनके राक्षसयज्ञका निवारण ( आदि० १८०। ८-११)। सत्यवतीके रूपके प्रति इनका आकर्षण ( आदि. ६३ । ७०७१)। इनका सत्यवतीको योजनगन्धा होने का वरदान देना (आदि० ६३ । ८०-८२)। इनके द्वारा सत्यवतीके गर्भसे व्यासका जन्म (आदि० ६३ । ८४)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखनेके लिये उनके पास गये थे (शान्ति० ४७। १०)। इन्होंने दयावश सौदासके पुत्रकी रक्षा की थी (शान्ति० ४९ । ७७)। इनके द्वारा जनकको कल्याण-प्राप्तिके साधनका उपदेश (शान्ति० २९० अध्याय) । शिवमहिमाके विषयमें युधिष्ठिरको अपना अनुभव बताना (अनु० १८ । ४०४५)। इनका अपने शिष्योंको विविध ज्ञानपूर्ण उपदेश ( अनु. ९६ । २१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ५७७४ से ५७८६ तक)। पराशरमतानुसार सावित्री
मन्त्रका वर्णन (अनु० १५० अध्याय)। परिक्षित् (परीक्षित्)-(१) कुरुकुमार अविशित्के
प्रथम पुत्र । इनके कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा भीमसेन नामके छः पुत्र थे । ये सभी धर्म और अर्थके ज्ञाता थे (आदि० ९४ । ५२-५४)। (२) कुरुकुमार अनश्वाके पुत्र । इनकी माताका नाम 'अमृता' था । इनके द्वारा सुयशाके गर्भसे भीमसेनका जन्म हुआ था (आदि. ९५ । ४१-४२)। (३) एक पाण्डुवंशीय सम्राट, जो सुभद्राकुमार अभिमन्यु और उत्तराके पुत्र थे (आश्व० ६६ अध्याय)। इनके जन्मकालमें भगवान् श्रीकृष्ण हस्तिनापुरमें विद्यमान थे ( आश्व० ६६ । ८)। ये ब्रह्मास्त्रसे पीड़ित होनेके कारण चेष्टाहीन शवके रूपमें उत्पन्न हुए; अतः स्वजनोंका हर्ष और शोक बढ़ानेवाले हो गये थे (आश्व० ६६ । ९)। इन्हें जीवित करनेके लिये कुन्तीकी श्रीकृष्णसे प्रार्थना ( आश्व० ६६ । १५२८)। इन्हें जिलाने के लिये रोती हुई सुभद्राकी श्रीकृष्णसे प्रार्थना ( आश्व० ६७ अध्याय) । श्रीकृष्णका प्रसूतिकागृहमें प्रवेश, उत्तराका विलाप और अपने पत्रको जीवित करनेके लिये उसकी प्रार्थना ( आश्व० ६८ अध्याय)। उत्तराका विलाप और भगवान् श्रीकृष्णका उसके मृत बालकको जीवनदान देना (भाश्व० ६९ अध्याय)। श्रीकृष्णद्वारा परीक्षित्का नामकरण । उत्तराका इन्हें गोदमें लेकर श्रीकृष्णको प्रणाम करना और श्रीकृष्णका शिशु परीक्षितके लिये बहुत-से रत्न उपहारमें देना ( आश्व०७०।९-१२)। इनकी एक मासका अवस्था होनेपर पाण्डवोंका हिमालयसे धन लेकर आना (आश्व० ७० । १३-१४)। युधिष्ठिरद्वारा परीक्षित्का कुरुदेशके राज्यपर अभिषेक (महाप्रस्थान० ५। ७-८)। कृपाचार्यकी पूजा करके युधिष्ठिरका पुरवासियोसहित परीक्षित्को शिष्यभावसे उनकी सेवामें सौंपना ( महाप्रस्थान ५। १४-१५)। इनका माद्रवतीके साथ विवाह और उसके गर्भसे जनमेजय आदिका जन्म (आदि. ९५ । ८५)। इनके तीन पुत्र और थे-श्रुतसेन, उग्रसेन
और भीमसेन (आदि० ३।१७)। ये अपने प्रपितामह पाण्डुकी भाँति शिकार खेलनेके शौकीन थे (आदि. ४० । १०-११)। इनका एक दिन मृगयाके लिये एक गहन वनमें जाकर एक हिंसक पशुको बींधना और उस पशुका अदृश्य हो जाना (आदि० ४० । १३-१६)। थके-माँदे और प्यासे हुए राजाका शमीक मुनिके आश्रमपर आना, अपने बाणोंसे बिंधे हुए पशुका पता पूछना और ध्यानस्थ मुनिके उत्तर न देनेपर कुपित हुए नरेशका उनके कंधेपर एक मरा हुआ साँपको डाल देना (आदि. ४० । १७-२१)। राजाके दुर्व्यवहारसे दुखी हुए ऋषिकुमार कृशका शमीकपुत्र शृङ्गीऋषिको उनके विरुद्ध
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परिघ
( १९० )
उत्तेजित करना ( आदि० ४० । २७-३२)। शृङ्गी. परिवह-छठा वायुतत्त्व, इसके स्वरूप और शक्तिका वर्णन ऋषिका कृशसे राजा परीक्षित्के दुर्व्यवहारकी बात जानकर (शान्ति०३२८ । ४८ )। उन्हें शाप देना और शमीकका अपने पुत्रको शान्त करते परिख्याध-पश्चिम दिशामें रहनेवाले एक महर्षि (शान्ति. हुए शापको अनुचित बताना (आदि० ४१ अध्याय)। २०८।३०)। शमीकमुनिके भेजे हुए गौरमुखका राजा परीक्षित्के पास आना और शृङ्गीऋषिके दिये हुए शापकी बात बताकर
परिश्रुत-(१)स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५ । उनसे आत्मरक्षाके लिये प्रयत्न करनेको कहना ( आदि० ६०)(२) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६१) ४२ । १३–२२)। राजा परीक्षित्का पश्चात्ताप करना, पर्जन्य-एक देवगन्धर्व, जो कश्यपद्वारा मुनिके गर्भसे उत्पन्न मन्त्रियोंकी सलाहसे एक ही खंभेका ऊँचा महल बनवाना हुए थे ( आदि०६५। ४४)। ये अर्जुनके जन्मो.
और रक्षाके लिये मन्त्र, औषध आदिकी आवश्यक त्सवमें पधारे थे (आदि० १२२१५६ )। व्यवस्था करना (आदि. ४२ | २३-३२)। परीक्षित्की रक्षाके लिये आते हए काश्यपको लौटाकर तक्षकका पर्णशाला-यामुनपर्वतकी तलहटीमें बसा हुआ ब्राह्मणोंका एक छलसे परीक्षितके पास पहुँचकर उन्हें डंस लेना ( आदि गाँव, जहाँ शर्मी नामक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे ( अनु. ४३ अध्याय)। इनकी मृत्युसे दुखी हुए मन्त्रियोंका ६८ । ४-६ )। रोदन और इनके अल्पवयस्क पुत्र जनमेजयका राज्या- पर्णाद-(१) एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें भिषेक ( आदि० ४४ । १-६) । जनमेजयके विराजते थे ( सभा० ४ । १३)। हस्तिनापुर जाते पूछनेपर मन्त्रियोंद्वारा इनके धर्ममय आचार समय मार्गमें श्रीकृष्णसे इनकी भेंट (उद्योग०८३ । तथा उत्तम गुणोंका वर्णन (आदि० ४९ । ३-१८)। ६४ के बाद दा० पाठ ) । (२)एक विदर्भनिवासी तक्षकद्वारा इनकी मृत्यु होनेका पुनः वर्णन (आदि. ब्राह्मण । इनका बाहुक नामधारी राजा नलका समाचार अध्याय ४९ से ५० तक)। व्यासजीकी कृपासे जनमेजय- दमयन्तीसे कहना (वन० ७० । २-१३)। इन्हें को अपने परलोकवासी पिता परीक्षित् का दर्शन । उनका दमयन्तीद्वारा पुरस्कार-दान (वन० ७० । १९)।
अपने पिताको अवभृथ-स्नान कराना । तत्पश्चात् परीक्षित्- (३) विदर्भनिवासी सत्य नामक ब्राह्मणके यशमें होताका • का अदृश्य हो जाना (आश्रम० ३५। ६-९)। काम करनेवाले ऋषि ( शान्ति० २७३ । ८)। महाभारतमें आये हुए परीक्षित्के नाम-अभिमन्युसुत,
पर्णाशा-पश्चिमोत्तर भारतकी एक नदी, जो वरुणकी सभामें अभिमन्युज, भरतश्रेष्ठ, किरीटितनयात्मज, कुरुश्रेष्ठ,
उपस्थित होती है ( सभा० ९ । २१)। ( कोई-कोई कुरु-नन्दन, कुरुराज, कुरुवर्धन, पाण्डवेय आदि ।
इसे राजपूतानेके अन्तर्गत 'बनास नदी' मानते हैं, जो (४) अयोध्याके एक इक्ष्वाकुवंशी नरेश (वन. १९२३)।
चर्मण्वती या चम्बलकी सहायक है।) यह उन प्रमुख इनका मण्डूकराजकी कन्या सुशोभनासे विवाह (वन.
नदियोंमेंसे है, जिनका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म १९२ । १२) । इनके द्वारा सुशोभनाके बावड़ीमें
९ । ३१)। इसने वरुणद्वारा श्रुतायुध नामक पुत्रको डूब जानेपर मण्डूकों को मार डालनेका आदेश (वन०
जन्म दिया और वरुणसे प्रार्थना की कि मेरा यह पुत्र १९२ । २२ -२४) । मण्डूकराजद्वारा पुनः इन्हें
शत्रुओंके लिये अवध्य हो।' तब वरुणने कहा कि 'मैं सुशोभनाकी प्राप्ति (वन. १९२ । ३५) । सुशोभनाके
इसके लिये हितकारक वरके रूपमें यह दिव्यास्त्र प्रदान गर्भसे इन्हें पुत्रकी प्राप्ति और इनका वनगमन (वन०
करता हूँ, जिसके द्वारा तुम्हारा यह पुत्र अवध्य होगा' १९२ । ३८)। (५) एक प्राचीन नरेश, जो कुरु
(द्रोण । ९२ | ४४-४६ )। वंशी अभिमन्युपुत्र परीक्षित्से भिन्न थे। इन्द्रोत मुनिद्वारा इनके पुत्र जनमेजयकी ब्रह्महत्याका निवारण पर्वण-राक्षसों और पिशाचोंके दल (वन. २८५ । (शान्ति० अध्याय १५० से १५१ तक)। परिघ-(१) अंशद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदों- पर्वत-प्राचीन ऋषि या देवर्षि, जो जनमेजयके सर्पसत्र में मेंसे एक । चारके नाम इस प्रकार हैं-वट, भीम, दहति सदस्य बने थे (आदि० ५३ । ८)।(ये और
और दहन । (२) विडालोपाख्यानमें वर्णित व्याधका नारद अनेक स्थलोंपर साथ-साथ वर्णित हुए हैं। इन नाम ( शान्ति० १३८ । ११७ )।
दोनोंको गन्धर्व भी माना जाता है और देवर्षि भी।) पर्वत परिबर्ह-रुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक (उद्योग और नारद द्रौपदीके स्वयंवरके अवसरपर आकाशमें दर्शक १०१ । १३)।
बनकर उपस्थित थे ( आदि. १८६ । ७)। ये
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पर्व संग्रहपर्व
युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा ४ । १५ ) । ये इन्द्रसभा में भी रहते हैं (सभा ० ७ । १०) । गन्धर्वरूपसे कुबेरकी सभा में भी विराजते हैं (सभा० १० | २६ ) | ये नारदजीके साथ इन्द्रलोक में गये थे ( वन० ५४ । १४ ) । काम्यकवनमें पाण्डवोंके पास जाकर इन्होंने उन्हें शुद्धभावसे तीर्थयात्रा करनेके लिये आज्ञा दी थी वन० ९३ | १८-२० ) । राजा संजयकी कन्याको देखकर उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करना ( द्रोण० ५५ । ९ - १० ) । उस कन्याका नारदजीद्वारा वरण हो जानेसे कुपित हुए इनके द्वारा नारदजीको शाप (द्रोण०५५ १४) । इनका रात्रियुद्ध में कौरव-पाण्डव सेनाओंमें दीपकका प्रकाश करना ( द्रोण० १६३ । १५ ) । ये नारदजीके भानजे थे- इन दोनों मुनियोंके उपाख्यानका श्रीकृष्णद्वारा वर्णन (शान्ति० ३० अध्याय ) । इनका राजा संजयको पुत्रप्रासिका वर देना ( शान्ति० ३१ । १६-१९ ) । अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु० ९४ । ३४ ) । पर्वसंग्रह पर्व - आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय २ ) ।
पलाला - सात शिशु-माताओंमेंसे एक ( वन० २२८ । १०)।
पलाशवन - एक तीर्थभूत वन, जहाँ जमदग्निने यज्ञ किया
था । उस यज्ञमें श्रेष्ठ नदियाँ मूर्तिमती हो अपना अपना जल लेकर उन मुनिश्रेष्ठ के पास आयी थीं । उन्होंने वहाँ मधुसे ब्राह्मणोंको तृप्त किया था ( वन० ९४ । १६१९)। पलित-विडालोपाख्यानमें वर्णित एक चूहेका नाम (शान्ति ० १३८ । २१ ) । इसका लोमश नामक बिलावके साथ संवाद ( शान्ति० १३८ । ३४ - १९८ ) । पवनहद - कुरुक्षेत्र की सीमा में स्थित एक मरुद्गणतीर्थं । वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है ( वन० ८३ । १०५ ) ।
( १९१ )
१५
1
पवित्रपाणि- एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ 1 ये इन्द्र-सभाके भी सभासद हैं ( सभा० ७ । १२ ) । पवित्रा भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके वासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २१ ) ।
पशु - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ३७ ) । पशुदा - स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । २८ ) ।
पशु भूमि - पशुपतिनाथका निकटवर्ती स्थान ( नेपाल ) । इस देशपर भीमसेनकी विजय ( सभा० ३० । ९ ) ।
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पाञ्चाल
पशुसख - सप्तर्षियों का सेवक एक शूद्र, जिसकी स्त्रीका नाम गाथा (अनु० ९३ । २२ ) । इसका वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष बताना (अनु० ९३ । ४७ ) । यातुधानी से अपने नामकी व्याख्या करना ( अनु० ९३ । १०० ) । मृणालकी चोरी के विषयमें शपथ खाना (अनु०९३ । १३१ ) । पश्चिम दिशा- चार दिशाओंमेंसे एक, इसका विशेष वर्णन ( उद्योग० ११० अध्याय) |
पह्नव - ( १ ) एक पश्चिम भारतीय जनपद ( भीष्म ०९ । ६८) । ( २ ) एक म्लेच्छ जाति, जो नन्दिनी नामक गौकी पूँछसे प्रकट हुई थी ( आदि० १७४ । ३६ ) । नकुलने इस देश और जातिके लोगोंको जीता था ( सभा० ३२ । १७ ) | ये लोग युधिष्ठिर के राजसूययज्ञमें उपहार लाये थे ( सभा० ५२ । १५ ) । ये मान्धाताके राज्य में निवास करते थे ( शान्ति० ६५ । १३-१४ )। पांशु - एक प्राचीन देश, जहाँसे राजा वसुदानने छन्बीस हाथी, दो हजार घोड़े और अन्य भेंट-सामग्री पाण्डवको समर्पित की थी ( सभा० ५२ । २७-२८ ) ।
पाक- एक असुर, जिसे इन्द्रने मारा था ( शान्ति० ९८ । ५०)।
पाखण्ड - एक दक्षिण भारतीय जनपद, जिसे सहदेवने दूतोंद्वारा ही वशमें कर लिया ( सभा० ३१।७० ) । पाञ्चजन्य- (१) रैवतक पर्वतका समीपवर्ती वन, जिसकी बड़ी शोभा होती है ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ८१३) । ( २ ) भगवान् श्रीकृष्णका शङ्ख ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ८१८ ) । शाल्वके साथ युद्ध करते समय श्रीकृष्णद्वारा पाञ्च जन्य शङ्खका बजाया जाना ( वन० २० । १३ ) । कुरुक्षेत्र समराङ्गणमें भगवान् श्रीकृष्णने अपना पाचजन्य नामक शङ्ख बजाया था ( भीष्म० २५ । १५ ) । (३) पाँच ऋषियोंके अंश से उत्पन्न एक अग्नि । इसका दूसरा नाम तप था ( वन० २२० । ५, ११ ) । पाञ्चरात्र - एक उत्तम शास्त्र, जिसके जाननेवाले महर्षि राजा
उपरिचर वसुके यहाँ रहते थे । इसकी उत्पत्तिका प्रसंग ( शान्ति० ३३५ । २५-५५ ) ।
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पाञ्चाल - ( १ ) एक प्राचीन देश । द्रुपद यहीं के राजा थे । द्रौपदीको प्राप्त करने के बाद पाण्डवोंने यहाँ सालभर तक निवास किया था ( आदि० ६१ । ३१ ) । ( विशेष देखिये पञ्चाल ) (२) एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने वामदेवके बताये हुए ध्यानमार्ग से भगवान् की आराधना करके उन्हींके कृपाप्रसादसे वेदका क्रमविभाग प्राप्त किया था ( शान्ति० ३४२ । १०२-१०३ ) ।
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पाश्चाली
( १९२ )
पाण्डव
पाश्चाली-राजा द्रुपदकी पुत्री, जो अग्निकुण्डसे उत्पन्न
हुई थी (आदि. १६६।४४)। (देखिये--द्रौपदी)। पाञ्चाल्य-उत्तराखण्डका एक तीर्थभूत आश्रम (वन०९०।
११-१२)। पाटलावती-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल
भारतके लोग पीते हैं ( भीष्म० ९ । २२)। पाणिकूर्च-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७६)। पाणिखात-कुरुक्षेत्रकी सीमा में स्थित एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके देवता-पितरोंका तर्पण करनेसे अग्निष्टोम, अतिरात्र
और राजसूय यज्ञोका फल मिलता है (वन००३ । ८९)। पाणिमान्-एक नाग, जो वरुणकी सभामें उपस्थित हो उनकी
उपासना करता है ( सभा० ९ । १०)। पाणीतक-पूषाद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक।
दूसरेका नाम कालिक था ( शल्य० ४५ । ४३)। पाण्डर-ऐरावतकुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो जनमेजय
के सर्पसत्रमें जल मरा था ( आदि० ५७ । ११)। पाण्डव-पाण्डुके पुत्र | युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल
तथा सहदेव-ये पाँचों पाण्डव कहलाते थे । शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंद्वारा पाण्डवोंके नामकरण संस्कार (आदि. १२३ । १९-२२)। वसुदेवके पुरोहित काश्यपके द्वारा इनके उपनयनादि संस्कार और राजर्षि शुकद्वारा इनका विविध विद्याओंमें पारङ्गत होना (आदि० १२३ । ३१ के बाद, पृष्ट ३६९)। पाण्डुके निधनपर इनका विलाप (आदि० १२४ । १७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ३७२)। शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंद्वारा इनको हस्तिनापुर पहुँचाकर भीष्म आदि कौरवोंको इनके जन्मोंका वृत्तान्त सुनाना (आदि० १२५ । २२-२८)। कृपाचार्यसे इनका अध्ययन (आदि. १२९ । २३)। द्रोणाचार्यसे इनका अध्ययन (आदि. १३१ । १)। एकलव्यकी धनुर्विद्यासे इनका विस्मित होना (आदि० १३१ । ४१)। दुपदपर इनका आक्रमण और विजय (आदि. १३७ । ३६-६३)। धृतराष्ट्र के आदेशसे पाण्डवोंका वारणावत जाना (आदि० १४२ । ६-१९)। विदुरद्वारा इनको कौरवोंके कुचक्रसे बचनेका संकेत (आदि. १४४ । १९२६) । वारणावतनिवासियोंद्वारा इनका स्वागत (आदि. १४५।१-५) । सुरंगद्वारा लाक्षागृइसे निकलकर इनका पलायन (आदि० १४७ । ११-१८) । विदुरजीके भेजे हुए नाविकके द्वारा इनका गङ्गापार होना (आदि. १४८ । १३)। इनको व्यासजीका आश्वासन तथा एक मासतक एकचक्रा नगरीमें ठहरनेका आदेश
नगरीमें इनकी भिक्षावृत्ति (आदि. १५६ । ४)। इनके प्रति एक ब्राह्मणद्वारा द्रोण तथा द्रुपदके पारस्परिक विरोधकाः धृष्टद्युम्न एवं द्रौपदीके जन्म और उनके स्वयंवरका वर्णन (आदि० अध्याय १६४ से १६६ तक)। इनके विषयमें द्रुपदका शोक ( आदि. १६६ । ५६ के बाद) । द्रौपदीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनाकर इनको पञ्चाल देश जाने के लिये व्यासजीकी आज्ञा ( आदि. १६८ । ६--१५)। चित्ररथ गन्धर्वद्वारा इनको दिव्य अश्वोंकी प्राप्ति (आदि. १६९ । ४८)। इनका धौम्यके आश्रममें जाना और इनके द्वारा उनका पुरोहितके रूपमें वरण (आदि. १८२ । ६) । इनकी पञ्चालयात्रा (आदि० १८३ अध्याय) द्रुपदके नगरमें इनका कुम्भकारके घरमें निवास (आदि० १८४ । ६)। ब्राह्मणवेशमें इनका द्रौपदीके स्वयंवरमें प्रवेश (आदि. १८४ । २७)। स्वयंवरमें श्रीकृष्णद्वारा इनका पहचाना जाना ( आदि। १८५। ९) । द्रौपदीरुप भिक्षाका मिलकर उपभोग करनेके लिये इनको माताका आदेश (आदि० १९० । २)। इनसे मिलने के लिये बलरामसहित श्रीकृष्णका कुम्भकारके घरमें आगमन ( आदि० १९० । १८)। धृष्टद्युम्नद्वारा गुप्तरूपसे इनके व्यवहारोंका निरीक्षण (आदि० १९१ । १-२) । द्रुपदद्वारा इनके शील. स्वभावकी परीक्षा ( आदि० १९३ । ४-१०)। व्यासद्वारा इनके पूर्वजन्मके दिव्य वृत्तान्तका द्रुपदके प्रति वर्णन ( आदि. १९६ अध्याय ) । धौम्यमुनिद्वारा इनका क्रमशः द्रौपदीके साथ विधिपूर्वक विवाह ( आदि० १९७ अध्याय)। द्रौपदोंके विवाहोपलक्षमें इनको श्रीकृष्णद्वारा बहुमूल्य वस्तुओंकी भेंट (आदि० १९८ । १३)। पाण्डवोंके विवाहसे दुर्योधन आदिकी चिन्ता, धृतराष्ट्रका पाण्डवोंके प्रति प्रेमका दिखावा और दुर्योधनकी कुमन्त्रणा (आदि० १९९ अध्याय)। पाण्डवोंको पराक्रमसे दबानेके लिये कर्णकी सम्मति (आदि० २०१ अध्याय)। भीष्मकी दुर्योधनसे पाण्डवोको आधा राज्य देनेकी सलाह(आदि० २०२ अध्याय) द्रोणाचार्यकी पाण्डवौंको उपहार भेजने और उन्हें बुलानेकी सम्मति (आदि० २०३ । १-१२) । धृतराष्ट्रकी आज्ञासे विदुरका द्रुपदके यहाँ जाकर पाण्डवोंको भेंट देना और उन्हें हस्तिनापुर भेजनेके लिये द्रुपदसे प्रस्ताव करना (आदि० २०५ अध्याय) पाण्डवोंका हस्तिनापुर आनाऔर आधा राज्य पाकर इन्द्रप्रस्थ नगरका निर्माण करना (आदि० २०६।१-५१)। पाण्डवोंके यहाँ नारदजीका आगमन और द्रौपदीको लेकर उनमें फूट न होइसके लिये कुछ नियम बनानेकी प्रेरणा देकर सुन्द और उपसुन्दकी कथाको प्रस्तावित करना तथा पाण्डवोका द्रौपदीके विषयमें नियमनिर्धारण (आदि० अध्याय १०७ से २११
ब्राह्मणके घरमें निवास (आदि. १५६ । २)। उस
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अध्यायतक ) | भगवान् श्रीकृष्णकी द्वारकायात्रा और पाण्डवोंका उन्हें पहुँचाना ( सभा० २ अध्याय ) । पाण्डवों का मयनिर्मित सभाभवन में प्रवेश और निवास ( समा० ४ अध्याय ) । नारदजीका पाण्डवोंसे मिलने के लिये आना और पाण्डवोंद्वारा उनकी पूजा ( सभा० ५ । १२ - १६ ) । पाण्डवों पर विजय प्राप्त करनेके लिये शकुनि और दुर्योधनकी बातचीत ( सभा० ४८ अध्याय ) । पाण्डवोंकी हस्तिनापुरयात्रा ( सभा० ५८ । १९(३८ ) । जू में पाण्डवोंकी पराजय ( सभा० ६५ अध्याय ) | द्रौपदीद्वारा पाण्डवोंकी दास्यभावसे मुक्ति ( सभा० ७१ । २८-३३ ) । धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको सारा धन लौटाकर विदा करना ( सभा० ७३ अध्याय ) | दुर्योधनका पुनः द्यूतक्रीड़ाके लिये पाण्डवोंको बुलाने का अनुरोध और धृतराष्ट्रद्वारा उसकी स्वीकृति ( सभा० ७४ अध्याय ) । दुःशासनद्वारा पाण्डवोंका उपहास ( सभा० . ७७ । २ - १४ ) । वनगमन के समय पाण्डवोंकी चेष्टा के विषय में धृतराष्ट्र और विदुरका संवाद ( सभा० ८० । १--१८ ) । पाण्डवोंका वनगमन, पुरवासियोंद्वारा उनका अनुगमन और पाण्डवोंका प्रमाणकोटितीर्थ में रात्रिवास ( वन० १ अध्याय ) । पाण्डवों का काम्यकवनमें प्रवेश, विदुरजीका वहाँ जाकर उनसे मिलना और उनसे बातचीत करना ( वन० ५ अध्याय ) । पाण्डवोंका वध करनेके लिये दुर्योधन आदिकी वनमें जाने की तैयारी और व्यासजीका आकर उनको रोकना ( वन० अध्याय ७ से ८ तक ) । व्यासजी की पाण्डवों के प्रति दयाका कारण चन० ९ । २०-२३ ) । मैत्रेयजीका धृतराष्ट्र और दुर्योधनसे पाण्डवोंके प्रति सद्भाव करनेका अनुरोध ( वन० १० ११-२८ ) । भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके वीरों सहित श्रीकृष्णका पाञ्चालराजकुमार धृष्टद्युम्नका, चेदिराज धृष्टकेतुका तथा केकय राजकुमारोंका पाण्डवोंसे मिलने के लिये वन में आना और इन सबकी बातचीत ( वन० अध्याय १२ से २२ तक ) । पाण्डवोंका द्वैतवनमें जानेके लिये उद्यत होना और प्रजावर्गका उनके लिये व्याकुल होना ( वन० २३ अध्याय ) । पाण्डवोंका द्वैतवनमें जाना ( वन० २४ अध्याय ) | महर्षि मार्कण्डेयका पाण्डवोंको धर्माचरणका आदेश देना ( वन० २५ अध्याय ) | दल्भ्यपुत्र बकका पाण्डवों को ब्राह्मणों की महिमा बताना (वन० २६ अध्याय ) | द्रौपदीसहित पाण्डवोंका परस्पर संवाद तथा उनका पुनः काम्यकवन में जाना ( वन० अध्याय २७ से ३६ तक ) । बृहदश्वका पाण्डवोंको नलोपाख्यान सुनाकर युधिष्ठिरको द्यूतविद्या और अश्वविद्याका रहस्य बताना ( वन० अध्याय ५२ से ७९ तक ) | अर्जुन के लिये द्रौपदीसहित पाण्डवोंकी चिन्ता
म० ना० २५
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पाण्डव
( वन ८० अध्याय ) । नारदजीका पाण्डवोंको तीर्थयात्रा - की महिमा बताना और पुलस्त्यवर्णित तीर्थयात्राका प्रसङ्ग सुनाना ( वन० अध्याय ८१ से ८५ तक ) । धौम्यद्वारा पाण्डवों के प्रति विभिन्न दिशाओंके तीर्थोंका वर्णन ( बन० अध्याय ८६ से ९० तक ) | महर्षि लोमशका स्वर्गसे आकर पाण्डवोंको अर्जुनके समाचार बताना और इन्द्रका संदेश सुनाना ( वन० ९१ अध्याय ) । पाण्डवोंका अपने अधिक साथियोंको विदा करके लोमशजी के साथ तीर्थयात्रा के लिये प्रस्थान करना
वन० अध्याय ९२ से ९३ तक ) । पाण्डवोंका विभिन्न तीथों में जाना और लोमशजीसे उनके माहात्म्य सुनना वन० अध्याय ९४ से १३८ तक | पाण्डवोंकी उत्तराखण्डयात्रा ( वन० अध्याय १३९ से १४२ तक ) । गन्धमादनकी यात्रा के समय पाण्डवोंका आँधी-पानीसे सामना और घटोत्कचकी सहायता से इनका गन्धमादनपर पहुँचना ( वन० अध्याय १४३ से १४५ तक ) । पाण्डवोंका गन्धमादनमें निवास, सौगन्धिकसरोवर एवं कदलीवन के दर्शन, भीमकी हनुमानूजीसे भेंट, जटासुरवध वृषपर्वाके यहाँ होते हुए इनका राजर्षि आर्ष्टिषेणके आश्रमपर जाना, कुबेरसे इनकी भेंट तथा धौम्यका इन्हें मेरुपर्वत के शिखरोंपर स्थित ब्रह्मा, विष्णु आदिके स्थानोंका लक्ष्य कराना ( वन० अध्याय १४६ । से १६३ तक ) । पाण्डaint अर्जुनके लिये उत्कण्ठा और अर्जुनका गन्धमादनपर आकर अपने भाइयोंसे मिलना ( वन० अध्याय १६४ से १६५ तक ) । इन्द्रका पाण्डवोंके पास आना और युधिष्ठिरको सान्त्वना देकर लौटना ( वन० १६६ अध्याय ) । पाण्डवोंका अर्जुनके मुख से उनकी यात्राका वृत्तान्त सुनना ( वन० अध्याय १६७ से १७३ तक ) । पाण्डवोंका गन्धमादनसे प्रस्थान और द्वैतवन में प्रवेश ( वन० अध्याय १७४ १७७ तक ) । पाण्डवोंका पुनः द्वैतवनसे काम्यकवन में प्रवेश और वहाँ इनके पास भगवान् श्रीकृष्ण, मुनिवर मार्कण्डेय तथा नारदजी का आगमन ( वन० अध्याय १८२ से १८३
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क) | पाण्डवों का मार्कण्डेयजीके मुखसे नाना प्रकारके आख्यान और उपदेश सुनना ( वन० अध्याय १८४ से २३२ तक ) । पाण्डवोंका गन्धर्वोको परास्त करके दुर्योधन आदिको उनकी कैद से छुड़ाना ( वन० अध्याय २४४ से २४५ तक ) । पाण्डवोंका आश्रमपर आकर द्रौपदीहरणका समाचार सुन जयद्रथका पीछा करना ( वन० २६९ अध्याय ) । द्रौपदीका पाण्डवोंका पराक्रम वर्णन करना ( वन० २७० अध्याय ) । पाण्डवोंद्वारा जयद्रथकी सेनाका संहार ( वन० २७१ अध्याय ) | मार्कण्डेयजीका पाण्डवको श्रीराम और सावित्रीका
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पाण्डव
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( १९४ )
उपाख्यान सुनाना (वन० अध्याय २७४ से २९९ तक ) । ब्राह्मणकी अरण एवं मन्थनकाष्ठका पता लगाने के लिये पाण्डवोंका मृगके पीछे दौड़ना और दुखी होना ( वन० ३११ अध्याय ) | पानी लानेके लिये गये हुए चार पाण्डवोंका सरोवर के तटपर अचेत होकर गिरना ( वन० ३१२ अध्याय ) | युधिष्ठिर के उत्तरसे संतुष्ट हुए यक्षका चारों पाण्डवों के जीवित होनेका वरदान देना और उन सबको जिलाकर उसका धर्मके रूपमें प्रकट हो युधिष्ठिरको वर देना (वन० अध्याय ३१३ से ३१४ तक ) । अज्ञातवासके निमित्त पाण्डवका परस्पर परामर्शके लिये बैठना ( वन० ३१५ अध्याय | द्रौपदीसहित पाण्डवोंका विराटनगर में अज्ञातवास तथा उनके द्वारा त्रैगर्तों एवं कौरवोंको पराजित करके विराटके गौओं की रक्षा ( विराट० अध्याय १ से ६८ तक ) । अपने घर में पाण्डवका परिचय पाकर राजा विराटके द्वारा उनका सत्कार और इन्हें अपना राज्य समर्पित करके इनकी रुचिके अनुसार उनका अर्जुनकुमार अभिमन्युके साथ उत्तराका विवाह करना ( विराट० अध्याय ६९ से ७२ तक ) । द्रुपदके संदेशसे राजाओंका पाण्डवपक्षकी ओरसे युद्धके लिये आगमन ( उद्योग० ५ अध्याय ) । पाण्डवपक्ष में आयी हुई सेनाका संक्षिप्त विवरण ( उद्योग० १९ । ११४ ) | दुर्योधनद्वारा पाण्डवोंके अपकर्षका वर्णन ( उद्योग० ५५ अध्याय ) | संजयद्वारा पाण्डवोंकी युद्धकी तैयारीका वर्णन ( उद्योग० ५७ । २-२५ ) । कुन्तीका विदुलोपाख्यान सुनाकर पाण्डवोंके लिये शौर्यका संदेश देना ( उद्योग० अध्याय १३२ से १३७ तक ) । पाण्डवपक्ष के सेनापतिका चुनाव, पाण्डवसैन्यका कुरुक्षेत्र में प्रवेश, पड़ाव तथा शिविर निर्माण ( उद्योग० अध्याय १५१ से १५२ तक ) | बलरामजीका पाण्डवोंसे विदा लेकर तीर्थयात्रा के लिये प्रस्थान ( उद्योग० १५७ अध्याय ) । दुर्योधनका उलूकको दूत बनाकर पाण्डवों के पास संदेश भेजना ( उद्योग० १६० अध्याय ) । पाण्डवोंके शिविर में पहुँचकर उलूकका दुर्योधनके संदेशको सुनाना (उद्योग ० १६१ अध्याय ) । पाण्डवपक्षकी ओरसे दुर्योधन के संदेशका उत्तर । पाँचों पाण्डवोंका संदेश लेकर उलूकका लौटना ( उद्योग० १६३ अध्याय ) । पाण्डवसेनाका युद्धके मैदानमें जाना ( उद्योग० १६४ अध्याय ) | पाण्डवपक्ष के रथी - अतिरथी आदिका वर्णन ( उद्योग० अध्याय १६९ से १७२ तक ) । पाण्डवसेनाका युद्धके लिये प्रस्थान (उद्योग० १९६ अध्याय) । पाण्डवोंका कौरवोंके साथ युद्ध ( भीष्मपर्व से शल्यपर्वतक ) । पाण्डवोंका मणि देकर द्रौपदीको शान्त करना ( ऐषीक ० १६ अध्याय) । पाण्डवोंका धृतराष्ट्रसे मिलना, धृतराष्ट्र के द्वारा भीमकी
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पाण्डु
लोहमयी प्रतिमाका भङ्ग होना तथा श्रीकृष्ण के फटकारने से शान्त हुए धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको हृदयसे लगाना ( स्त्री० अध्याय १२ से १३ तक ) । पाण्डवको शाप देनेके लिये उद्यत हुई गन्धारीको व्यासजीका समझाना ( स्त्री० १४ अध्याय ) । पाण्डवका गान्धारीकी आज्ञा लेकर अपनी माता से मिलना ( स्त्री० १५ । ३२-३५ ) । व्यासजी तथा भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञासे पाण्डवोंका नगरमें प्रवेश तथा पुरवासियोंद्वारा इनका सत्कार (शान्ति० अध्याय ३७ से ३८ तक ) । पाण्डवोंके रहनेके लिये विभिन्न भवनों का विभाजन ( शान्ति० ४४ अध्याय ) | युधिष्ठिर आदि पाण्डवों का भीष्मजीका उपदेश सुनना ( शान्ति० अध्याय ५६ से अनु० १६५ अध्यायतक ) | पाण्डवों का भीष्मजीको जलाञ्जलि देना ( अनु० १६८ अध्याय ) | पाण्डवों का हिमालयसे धन लेकर आना ( आश्व० अध्याय ६३ से ६५ तक ) । पाण्डवोंका हस्तिनापुर के समीप आगमन, श्रीकृष्ण आदिके द्वारा इनका स्वागत तथा इनका नगरमें आकर सबसे मिलना ( आश्व० अध्याय ७० से ७१ तक ) । पाण्डवोंका धृतराष्ट्र और गान्धारीके अनुकूल बर्ताव (आश्रम ० अध्याय १ से २ तक ) । गान्धारी और धृतराष्ट्र के साथ वनको जाती हुई कुन्तीखे घरको लौटने के लिये पाण्डवोंका अनुरोध और कुन्तीद्वारा उनके अनुरोधका उत्तर (आश्रम० अध्याय १६ से १७ तक) । धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्तीके लिये पाण्डवोंकी चिन्ता, इनका कुरुक्षेत्र में पहुँचना तथा कुन्ती, गान्धारी एवं धृतराष्ट्र के दर्शन करना ( आश्रम ० अध्याय २१ से २४ तक | संजयका ऋषियोंसे पाण्डवोंका परिचय देना ( आश्रम० २५ अध्याय ) | द्रौपदीसहित पाण्डवों का महाप्रस्थान ( महाप्र०१ अध्याय ) । मार्ग में द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेनका गिरना तथा युधिष्ठिरका प्रत्येक के गिरने का कारण बताना ( महाप्र० २ अध्याय ) | पाण्डवका स्वर्ग में पहुँचकर धर्म आदि अपने मूल स्वरूपोंमें मिलना ( स्वर्गा० ४ । २–१३, स्वर्गा० ५। २२ ) । पाण्डवप्रवेशपर्व - विराटपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय १ से १२ तक ) ।
पाण्डु - ( १ ) विचित्रवीर्यके क्षेत्रज पुत्र । महर्षि व्यासके द्वारा विचित्रवीर्य पत्नी अम्बालिका के गर्भ से उत्पन्न (आदि० ६३ | ११३; आदि० १०५ | २१ ) । पाण्डुकी वंशपरम्पराका वर्णन ( आदि० ९५ । ५८-८७ 1 ) । इनके रंग-रूप तथा पाण्डु नाम होनेका कारण (आदि० १०५ । (१७-१८) । ये पाण्डवोंके पिता थे ( आदि० १०५ | (२२) । भीष्मद्वारा इनका पालन-पोषण एवं उपनयनादिसंस्कार ( आदि० १०८ । १७-१८ ) । इनका अध्ययन
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पाण्डु
पाण्ड्य
तथा धनुर्विद्यामें इनकी अद्वितीयता (आदि. १०८ ।। महिमा सुनाकर किसी श्रेष्ठ देवताके आवाहनके लिये १९-२१)। धृतराष्ट्र के जन्मान्ध होनेके कारण इनका इनसे आज्ञा माँगना (आदि० १२१ । १०-१६)। राजपदपर अभिषेक (आदि० १०८ । २५)। कुन्ती- धर्मराजके आवाहनके लिये इनका कुन्तीको आदेश द्वारा स्वयंवरमें इनका वरण और उनके साथ इनका (आदि० १२१ । १७-२०)। बली पुत्रकी कामनासे विधिपूर्वक विवाह ( आदि० १११ । ८-९)। भीष्मके वायुदेवके आवाहनके लिये कुन्तीको इनकी आज्ञा प्रयत्नसे माद्रीके साथ इनका विवाह (आदि० ११२। (आदि० १२२ । १० के बाद दा० पाठ)। इनके द्वारा १८)। इनकी दिग्विजययात्रा ( आदि० ११२। सर्वोत्तम पुत्र-प्राप्सिके लिये इन्द्र की आराधना और इन्द्र२१) । दशापर इनका पहला आक्रमण और विजय द्वारा इनको आश्वासन (आदि० १२२ । २६-२८)। (आदि. ११२ । २५)। इनके द्वारा मगधराज दीर्घका सर्वश्रेष्ठ पुत्रके हेतु इन्द्रके आवाहनके लिये इनकी कुन्तीवध ( आदि० ११२ । २७)। विदेहवंशी क्षत्रियोंकी को प्रेरणा (आदि. १२२ । ३४ )। कुन्तीद्वारा पुत्रपराजय (आदि. ११२ । २८)। काशी, सुझ तथा प्राप्तिके लिये इनसे माद्रीकी प्रार्थना ( आदि० १२३ । पुण्ड्रदेशोंपर इनकी विजय (आदि. ११२। २९)। ६)। माद्रीके पुत्रलाभके लिये इनका कुन्तीसे अनुरोध विभिन्न देशोंको जीतकर लाये हुए धनसमूहका इनके द्वारा (आदि० १२३ । ९-१४ )। माद्रीके साथ समागम अपने बन्धु बाधवोंमें वितरण (आदि. ११३ । १-२)। करके इनकी असामयिक मृत्यु ( आदि० १२४ । इनके पराक्रमसे धृतराष्ट्रद्वारा सौ अश्वमेधयज्ञोंका अनुष्ठान १२)। इनके परलोकवासी होनेपर कुन्ती, माद्री तथा तथा प्रति यज्ञमें लाख-लाख स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणाका दान पाण्डवोंका विलाप ( आदि. १२४ । १७-२२ )। (आदि. ११३। ५)। इनका वनविहार (आदि. इनके आकस्मिक निधनपर शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंको ११३ । ७-११)। अपनी मृगीरूपधारिणी पत्नीके साथ शोकका अनुभव ( आदि० १२४ । २२ के बाद दा० मृगरूप धारण करके मैथुन करनेवाले किंदम ऋषिका इनके पाठ)। काश्यप ऋषिद्वारा इनका अन्त्येष्टि-संस्कार द्वारा वध (आदि. ११७ । ३४)। इनको मृगरूपधारी (आदि० १२४ । ३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। किंदम ऋषिका शाप ( आदि. ११७ । २७)। कौरवोद्वारा राजोचित ढंगसे इनका अस्थिदाह ( आदि. महर्षि किंदमकी मृत्युके कारण इनका पश्चात्ताप एवं १२६ । ५-२३)। कौरवोद्वारा इनको जलाञ्जलि-दान संन्यास लेकर अवधूतकी तरह रहनेका अपना निश्चय (आदि० १२६ । २८-२९)। इनके देहावसानपर हस्तिना( आदि०११८ । २-२२)। वानप्रस्थाश्रममें रहकर । पुरके नागरिकोंका शोक ( आदि० २२७ । ४)। तपस्या करनेके लिये इनसे कुन्तीका हठ (आदि. ११८ । ये यमकी सभामें उपस्थित होते हैं ( सभा० ८। ३०)। वानप्रस्थाभममें पालन करनेके लिये इनके कठोर २५)। इन्होंने देवर्षि नारदद्वारा राजसूययश करनेके नियम ( आदि. ११८। ३२-३७)। इनके द्वारा लिये युधिष्ठिरको संदेश भेजवाया था ( सभा० १२ । अपने तथा पत्नियोंके भूषणोंका ब्राह्मणोंको दान (आदि. २४-२६)। इनका इन्द्रलोकमें निवास (आश्रम ११८ । ३९)। वानप्रस्थ लेनेके विषयमें सेवकोंद्वारा २० । १७)। अपनी दोनों पत्नियों-कुन्ती और इनका धृतराष्ट्रको संदेश (आदि. ११८ । ४०)। माद्रीके साथ इनका इन्द्रभवनमें जाना (स्वर्गारोहण कालकूट, हिमालय, गन्धमादन आदि पर्वतोंको लाँघकर ५।१५)। तपस्याके लिये इनका पत्नियोंस हत शतशृङ्गपर्वतपर जाना
महाभारतमें आये हुए पाण्डुके नाम-भारत, भरतर्षभ ( आदि. ११४ । ५०) । इनको ब्रह्मलोक जानेके लिये भरतमत्तम, कौरव, कौरवनन्दन, कौरवर्षभ, कौरव्य,
ऋषियोंद्वारा निषेध ( आदि. ११९ । १४-१५)। कौरव्यदायाद, कौसल्यानन्दवर्धन, कुरूद्वह, कुरुकुलोद्वह, पितृ ऋणसे उद्धार होनेके लिये इनकी शतशृङ्गनिवासियोंसे कुरुनन्दन, कुरुपति, कुम्प्रवीर, नागपुराधिप, नागपुरप्रार्थना ( आदि० ११९ । १५-२३)। ऋषियोंद्वारा सिंह आदि । इन्हें पुत्रप्राप्तिका आश्वासन ( आदि० ११९ । २३- (२) कुरुकुमार जनमेजयके द्वितीय पुत्र (आदि० २६)। इनके द्वारा दत्तक आदि पुत्र-भेदोंका विश्लेषण ९४ । ५६)। तथा किसी श्रेष्ठ पुरुषसे संतानोत्पादनके लिये कुन्तीको पाण्डर-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५ । ७३)। आदेश (आदि० ११९ । २७-३७)। मानसिक संकल्पसे
दि० ११९। २७-३७)। मानासक सकल्पसे पाण्डुराष्ट्र-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४४)। पुत्रोत्पादनके लिये इनसे कुन्तीकी प्रार्थना (आदि०१२०१ पाण्ड्य-दक्षिण भारतका एक जनपद तथा वहाँके एक ३७)। इनके द्वारा ब्राह्मणसे संतानप्राप्तिके लिये पुनः. राजा, जो कभी श्रीकृष्णद्वारा मारे गये थे (द्रोण० २३ । कुन्तीसे आग्रह तथा कुन्तीका दुर्वासासे प्राप्त हुए मन्त्रकी ६९)। इनके पुत्रका नाम मलयध्वज था । मलयध्वज
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पाताल
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( १९६ )
अविद्या पारंगत होकर अपने पिताके वधका बदला लेनेके लिये द्वारकापुरीको विध्वंस करना चाहते थे; परंतु इनके सुहृदोंने इन्हें ऐसा दुःसाहस करनेसे रोक दिया, तबसे वैर छोड़कर ये अपने राज्यका शासन करते थे । महाभारतकालमें ये ही पाण्ड्यदेश के शासक थे ( द्रोण० २३ । ७०-७२ । ये द्रौपदीके स्वयंवर में गये थे (आदि० १८६ । १६ )। ये युधिष्ठिरकी सभा में बैठा करते थे ( सभा० ४ । २४ ) । इन्होंने राजसूय यज्ञमें भेंट अर्पण की थी ( सभा० ५२ । ३५ ) | ये अपनी सेना के साथ युधिष्ठिरकी सेवामें आये थे ( उद्योग० १९ । ९ ) । इनके रथपर मागर के चिह्न से युक्त ध्वजा फहराती थी । बलवान् राजा पाण्ड्यने अपने दिव्य धनुषकी टङ्कार करते हुए वैदूर्यमणिकी जालीसे आच्छादित चन्द्रकिरण के समान वेत घोड़ोंद्वारा द्रोणाचार्य र भावा किया था ( द्रोण० २३ । ७२-७३ ) । इनका वृषसेनके साथ युद्ध ( द्रोण० २५ । ५७ ) । इनका महान् पराक्रम और अश्वत्थामाद्वारा वध ( कर्ण ० २० । ४६ ) । पाताल - नागलोकके नाभिस्थान में स्थित एक प्रदेश या नगर; इसका नारदजीद्वारा विशेष वर्णन ( उद्योग० अध्याय ९९ से १०० तक )
पापहरा - एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २२ ) ।
पारद - ( १ ) एक प्राचीन जातिका नाम ( आधुनिक मतके अनुसार यह उत्तर-बलूचिस्तानकी एक जाति थी ) । इस जाति के लोग भाँति-भाँति की भेंटें लेकर युधिष्ठिर के राजसूययज्ञमें आये थे ( सभा० ५१ । ५२ ) । ( २ ) एक देश, जहाँके लोग द्रोणाचार्यके साथ भीष्मजी के पीछे-पीछे
चल रहे थे ( भीष्म० ८७ । ७) । पारशव-शूद्रा के गर्भ से ब्राह्मणद्वारा उत्पन्न बालक । इसीलिये
विदुरजी भी पारशव कहलाते थे (आदि० १०८ । २५; अनु० ४८ । ५ ) ।
पारसिक - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६६ ) । पारा - कौशिकी नदीका नामान्तर ( आदि० ७१ । ३२ ) । पारावत- ऐरावत के कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
सर्पसत्र में जल मरा था ( आदि० ५७ । ११ ) । पाराशर्य - एक मुनि, जो व्याससे भिन्न हैं । ये युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे ( सभा ० ४ । १३ ) | ये ही इन्द्रसभाके भी सदस्य हैं ( सभा० ७ । १३ ) । हस्तिनापुर जाते समय मार्ग में श्रीकृष्णसे भेंट ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दा० पाठ ) । पारिजात - ( १ ) समस्त कामनाओंको देनेवाला एक दिव्य वृक्ष, जो समुद्र मन्थनसे प्रकट हुआ था ( आदि० १८ ।
पार्वती
३६ के बाद दा० पाठ) । ( २ ) ऐरावतकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में जल मरा था ( आदि० ५७ । ११ ) ।
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पारिजातक - एक जितात्मा मुनि, जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १४ ) ।
पारिप्लव-कुरुक्षेत्रकी सीमा में स्थित एक तीर्थ, जिसके सेवनसे अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञोंका फल मिलता है ( वन० ८३ । १२ ) ।
पारिभद्रक - कौरव पक्षके वीर योद्धाओंका एक दल, जो सम्भवतः परिभद्र देशका निवासी था ( भीष्म० ५१ । ९)।
पारियात्र - एक पर्वत, जिसका अधिष्ठाता चेतन कुबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० १० । (३१) । मार्कण्डेयजीने भगवान् बालमुकुन्दके उदरमें इस पर्वतका दर्शन किया था ( वन० १८८ । ११५ ) । यहाँ महर्षि गौतमका महान् आश्रम था ( शान्ति० १२९ । ४)।
पार्थ - कुन्तीके पुत्रोंका नाम ( इन्हें कौन्तेय भी कहते हैं ) । इनकी उत्पत्तिकी कथाका दिग्दर्शन ( आदि० १ ।
१४ ) | ( यद्यपि यह शब्द कुन्तीके तीन पुत्रोंका ही मुख्यतया वाचक है तथापि कहीं कहीं माद्रीकुमार नकुलसहदेव के लिये भी इसका प्रयोग हुआ है । प्रायः यह युधिष्ठिर तथा अर्जुन के लिये ही प्रयुक्त हुआ है । उद्योग० १४५ । ३ में 'पार्थ' नामका प्रयोग कर्णके लिये भी आया है । )
पार्वती - पर्वतराज हिमवान्की पुत्री तथा भगवान् शिवकी धर्मपत्नी ( आदि० १८६ । ४) । ये ब्रह्माजी की सभा में भी विराजमान होती हैं ( सभा० ११ । ४१ ) | द्रौपदीद्वारा अर्जुनकी रक्षा के लिये देवी उमाका कीर्तन एवं स्मरण ( वन० ३७ । ३३ ) । युधिष्ठिरद्वारा इनके दुर्गारूपका स्तवन और इनका दर्शन देकर उन्हें अनुगृहीत करना ( विराट० ६ अध्याय ) अर्जुनद्वारा इनके दुर्गारूपका स्मरण और स्तवन । इनका प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें वर देना ( भीष्म० २३ । ४ – १६ )। एक समय ये भगवान् शङ्करको जो पाँच शिखावाले बालकके रूपमें प्रकट हुए थे, गोद में लेकर आयीं और देवताओंसे बोलीं, पहचानो यह कौन है ? (द्रोण० २०२ । ८४ ) । इनके द्वारा स्कन्दको पार्पद-प्रदान ( शल्य० ४५ । ५१-५२ ) । दक्षयज्ञके विषय में शिवजीके साथ इनका वार्तालाप ( शान्ति० २८३ । २३ – २९ ) । दक्षयज्ञमें शिवजीका भाग न देखकर इनकी चिन्ता ( शान्ति ० २८४ । २३ ) । उशना पर कुपित हुए शिव
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पार्वतीय
जीको शान्त करना ( शान्ति० २८९ । ३५ ) । श्रीकृष्णको आठ वर देना ( अनु० १५ । ७-८ ) । देवताओंको संतानहीन होनेका शाप देना (अनु० ८४ । ७४-७५ ) । परिहास शिवजीकी दोनों आँखें हाथों से बंद करना ( अनु० १४० । २६ ) । शङ्करजी के साथ संवाद ( अनु० १४० । ४० से १४५ अध्यायतक ) । गङ्गा आदि नदियोंसे स्त्री-धर्मके विषय में सलाह लेना ( अनु० १४६ । २२ – २६ ) । इनके द्वारा स्त्री-धर्मका वर्णन (अनु० १४६ । ३३ – ५९ ) । ये मुञ्जवान् पर्वत पर भगवान् शिव के साथ रहती हैं ( आश्व० ८ । १–३)।
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महाभारत में आये हुए पार्वती के नाम - अम्बिका, आर्या, उमा, भीमा, शैलपुत्री, शैलराजसुता, शाकम्भरी, शर्वाणी, देवेशी, देवी दुर्गा, गौरी, गिरिसुता, गिरिराजात्मजा, काली, महाभीमा, महादेवी, महाकाली, महेश्वरी, माहेश्वरी, पर्वतराजकन्या, रुद्राणी, रुद्रपत्नी, त्रिभुवनेश्वरी आदि ।
उत्पन्न
पार्वतीय ( पर्वतीय ) - ( १ ) महाभारतकालका एक राजा, जो कुक्षि नामक दानव के अंशसे हुआ था (आदि० ६७ | ५६ ) । ( २ ) एक भारतीय जनपद और यहाँ के निवासी । ये युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञमें उपहार लेकर आये थे ( सभा० ५२ । ७ ) । जयद्रथकी सेनामें आये हुए पार्वनीयोंका अर्जुनद्वारा संहार ( वन० २७१ | ८ } | पार्वतीय योद्धा दुर्योधन - की सेना में भी थे ( उद्योग० ३० । २४ ) । भारतीय जनपदों में पार्वतीयकी गणना ( भीष्म० ९ । ५६ ) । भगवान् श्रीकृष्णने कभी पार्वतीय देशपर विजय पायी थी ( द्रोण ० ११।१६ ) । पार्वतीय योद्धा कौरवदलमें शकुनि और उलूकके साथ रहा करते थे ( कर्ण० ४६ । १३ ) । पाण्डववीरोंद्वारा इनका युद्ध में संहार ( शल्य० १ । २७ ) ।
पार्वतेय - एक राजर्षि, जो कपट नामक दैत्यके अंश से उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७ । ३० ) । पार्श्वरोम - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५६ ) । पार्ष्णिमा - एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३० ) । पाल-वासुकिके कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
सर्पसत्र में दग्ध हुआ था ( आदि० ५७ । ५ ) । पालिता - स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । ३)।
पावक - भरत नामक अग्निके पुत्र, इनका दूसरा नाम 'महान् ' था ( वन० २१९ । ८ ) ।
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पिच्छल
पावन - ( १ ) कुरुक्षेत्र की सीमा में स्थित एक तीर्थ, जहाँ देवता- पितरोंका तर्पण करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है ( वन० ८३ । १७५) । ( २ ) एक विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३० ) ।
पाश - वरुणके दिव्य अस्त्र, जिनका वेग कोई रोक नहीं सकता ( वन० ४१ । २९ ) । पाशाशिनी - भारतकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके निवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २२ ) । पाशिवाट - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ६४ ) ।
पाशी - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ११६ । ८ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( कर्ण० ८४ । ५-६)।
पाशुपत - भगवान् शङ्करका परम प्रिय, सर्वश्रेष्ठ एवं अनुपम प्रभावशाली दिव्यास्त्र ( वन० ४० | १५ ) । भगवान् शिवद्वारा इसका अर्जुनको उपदेश ( वन० ४० | २० ) । इसके उग्रस्वरूप तथा प्रभावका वर्णन ( अनु० १४ । २५८ - २७५ ) । पाषाणतीर्ण - एक तीर्थ, जो शूर्पारक क्षेत्रमें जमदग्निकी वेदपर स्थित है ( वन० ८८ । १२ ) । पिङ्गतीर्थ - एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ आचमन करके ब्रह्मचारी और जितेन्द्रिय मनुष्य सौ कपिलाओंके दानका फल प्राप्त कर लेता है ( वन० ८२ । ५७ ) । पिङ्गल - ( १ ) कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । ९ ) । (२) एक ऋषि, जो जनमेजयके सर्पसत्र में अध्वर्यु थे ( आदि० ५३ । ६) । ( ३ ) इस नामके दूसरे ऋषि जो जनमेजयके सर्पसमें सदस्य थे ( आदि० ५३ । ७) । ( ४ ) एक यक्षराज, जो भगवान् शिवका सखा है और श्मशानभूमिमें ही ( उसकी रक्षाके लिये ) निवास करता है । यह सम्पूर्ण जगत्को आनन्द देनेवाला है ( वन० २३१ । ५१ ) ।
पिङ्गलक-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी सेवा करता है ( सभा० १० । १७.) । पिङ्गलराज - श्मशान में निवास करनेवाला एक यक्षराज, जो भगवान् शिवका सखा है ( वन० २३१ । ५१ )। पिङ्गाक्षी - ( १ ) स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य०
४६ । १८ ) । (२) स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । २१ ) ।
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पिच्छल - वासुकिवंश में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था ( आदि ० ५७ । ६ ) ।
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पिच्छिला
( १९८ )
पुण्डरीक
पिच्छिला-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पिप्पलाद-एक प्राचीन ऋषि, शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मपीते हैं ( भीष्म०९।२९ )।
जीके पास आनेवाले ऋषियोंमें ये भी थे (शान्ति. पिञ्जरक-कश्यप और कद्रसे उत्पन्न एक प्रमुख नाग ४७ । ९)।
(आदि. ३५। ६ उद्योग०१०३११)। पिशङ्क-धृतराष्ट्र के वंशमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके पिजला-भारतकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँको सर्पसत्र में जल मरा था ( आदि. ५७।१७)। प्रजा पीती है (भीष्म० ९ । २७)।
पिशाच-(१) भूतयोनिविशेष | इनका प्राकट्य अण्डसे पिठर-एक दैत्य, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी
हुआ था (आदि.१।३५)। ये कुबेरकी सभामें रहउपासना करता है (सभा० ९ । १३)।
कर उनकी सेवा करते हैं (सभा० १०।१६)।
ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं पिठरक ( पीठरक)-कश्यपवंशी प्रमुख नाग (आदि०
(सभा०११।४९) । गोकर्ण तीर्थमें रहकर शिवजीकी ३५ । १४; उद्योग० १०३ । १४)। यह जनमेजयके
आराधना करते हैं (वन० ८५ । २५)। मरीचि आदि सर्पसत्र में जल मरा था (आदि. ५७ । १५)।
महर्षियोंने पिशाच आदि सब भूतोंकी सृष्टि की थी (वन. पिण्डसेक्का-तक्षक-कुलका एक नाग, जो सर्पसत्रमें जल
२७२।१६)। इन्होंने रावणको अपना राजा बनाया मरा था (आदि०५७।८)।
था (वन० २७५ । ३८)। पिशाच रक्त पीने और पिण्डारक (पिण्डार)-(१) एक कश्यपवंशी प्रमुख कच्चा मांस खानेवाले होते हैं (द्रोण० ५०। ९-१३)।
नाग (आदि० ३५ । ११, उद्योग० १०३।१४)। अलम्बुपके रथमें घोड़ोंकी जगह पिशाच जुते हुए थे यह धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न हुआ और जनमेजयके सर्प
(द्रोण. १६७ । ३८)। इन्होंने घटोत्कचके साथ रहकर सत्रमें जल मरा था (आदि० ५७ । १७)। (२) उसकी सहायता की थी और कर्णपर आक्रमण किया था सुराष्ट्र देशमें द्वारकाके निकटका एक तीर्थ, जिसमें स्नान
(द्रोण० १७५ । १०९)। खाण्डववन-दाहके समय करनेसे अधिकाधिक सुवर्णकी प्राप्ति होती है ( वन. अर्जुनने इन्हें जीता था (कर्ण० ३७ । ३७) । अर्जुन ८२ । ६५)। यह तीर्थ तपस्वीजनोंदारा सेवित और और कर्णके युद्धके अवसरपर ये उपस्थित थे (कर्ण. कल्याणस्वरूप है (वन० ८८ । २१)। जो मानव ८७ । ५०)। मुञ्जवान् पर्वतपर तपस्या करते हुए पिण्डारक तीर्थमें स्नान करके वहाँ एक रात निवास पार्वतीसहित शिवजीकी पिशाच आदि आराधना करते हैं करता है, वह प्रातःकाल होते ही पवित्र होकर अग्नि- (आश्व० ८। ५-६) । महाभारतकालमें पिशाचलोग प्टोम यज्ञका फल प्राप्त कर लेता है (अनु० २५।। पृथ्वीके राजा होकर उत्पन्न हुए थे (आश्रम०३१ । ५७)।
६)।(२)एक यक्षका नाम (समा०१०।१६)। पितामहसर-एक सरोवर, जो गिरिराज हिमालयके निकट (३) एक भारतीय जनपद, इस जनपदके योद्धा
है, इसमें स्नान करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता युधिष्ठिरकी सेनामें क्रौञ्चव्यूहके दाहिने पक्षकी जगह खड़े है (वन० ८४ । १४८)।
किये गये थे ( भीष्म ५०। ५.)। दुर्योधनकी सेनामें पितृग्रह-पितृसम्बन्धी ग्रह (वन० २३० । ४८)।
राजा भगदत्तके साथ पिशाचदेशीय सैनिक थे (भीष्म
८७।८)। श्रीकृष्णने किसी समय पिशाच देशके पिनाक-शिवजीका धनुष (सभा० ३८ । २९ के बाद
योद्धाओंको परास्त किया था (द्रोण. ११ । १६)। दाक्षिणात्य पाठ)। इसकी उत्पत्तिका वर्णन (अनु. १४१। दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ५९१५) भगवान शंकरके पिशाचग्रह-पिशाचसम्बन्धी ग्रह (वन०२३० । ५२)। पाणि ( हाथ ) से आनत होकर (मुड़कर) उनका
उनका पीठ-एक असुर, यह श्रीकृष्णद्वारा मारा गया था (सभा.
पाठ-एक असुर, यह धाकृष्ण त्रिशूल धनुषाकार हो गया; अतः उसका नाम ३८ 1 पृष्ठ ८२५, कालम १, द्रोण. ११।५)। पिनाक हुआ (शान्ति० २८९ । १८)।
पुच्छाण्डक-तक्षककुलका एक नाग, जो जनमेजयके पिनाकी-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक, ये ब्रह्माजीके पौत्र तथा सर्पसत्रमें जल मरा था ( आदि० ५७ । ८)। स्थाणुके पुत्र हैं ( आदि० ६६ । १-२; शान्ति० २०८। पुञ्जिकस्थला-दस प्रधान अप्सराओंमेंसे एक । इसने २०)। अर्जुनके जन्मकालमें ये वहाँ पधारे थे ( आदि. अर्जुनके जन्म-महोत्सवमें गान किया था (आदि. १२२ । १२२ । ६८)।
६४)। यह कुबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना पिप्पलस्थान-जम्बूद्वीपके अन्तर्गत एक भूभागविशेष
करती है (सभा० १० । १०)। (भीष्म०६।२)।
पुण्डरीक-(१) एक महायज्ञ (सभा. ५ । १००%
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पुण्डरीका
( १९९ )
पुरुमित्र
धन० ३० । १७) । (२) कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित पुत्-एक नरक, जिससे पिताका उद्धार करनेके कारण बेटेको एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे पुण्डरीक यज्ञका फल 'पुत्र' कहा जाता है (आदि. ७४ । ३९)। मिलता है ( बन० ८३ । ८३)। (३) कश्यपवंशी पुत्रदर्शनपर्व-आश्रमवासिकपर्वका एक अवान्तर पर्व एक नाग (उद्योग० १०३ । १३)। (४) एक (अध्याय २९ से ३६ तक)। दिग्गज (द्रोण० १२१ । २५)। (५) एक तीर्थसेवी पत्रिकासुत-पुत्रीका पुत्र, यह भी प्रणीत' के समान ही ब्राह्मण, जिन्होंने नारदजीसे श्रेयके विषयमें प्रश्न किया
माना गया है (इसे छः प्रकारके बन्धुदायादमेंसे एक था । इनको भगवान् नारायणका प्रत्यक्ष दर्शन और
समझना चाहिये) (आदि. ११९ । ३३)। उनके साथ परमधामकी प्राप्ति (अनु. १२४ । दाक्षिणात्य
पुनश्चन्द्रा-एक तीर्थ, जो शूर्पारकक्षेत्रमें जमदनिकी वेदीपर पाठ)।
स्थित है (वन० ८८ । १२)। पुण्डरीका-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधार
पुरन्दर-(१) देवराज इन्द्रका एक नाम ( देखिये इन्द्र)। कर नृत्य किया था (आदि. १२२ । ६३)।
(२) तप या पाञ्चजन्य नामक अग्निके एक पुत्र । पुण्डरीकाक्ष-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम, पुण्डरीक- तपके तपस्याजनित महान् फलको प्राप्त करनेके लिये
अविनाशी परमधाममें स्थित हो अक्षतभावसे विराजमान मानो इन्द्र ही पुरन्दर' नामसे उनके पुत्र होकर प्रकट होनेसे भगवान्को पुण्डरीकाक्ष' कहते हैं ( अथवा
हुए (वन० २२१ । ३)। पुण्डरीक-कमलके सदृश अक्षि (नेत्र ) धारण करनेके
पुरमालिनी-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते कारण भी वे पुण्डरीकाक्ष' कहे गये हैं।) ( उद्योग
हैं (भीष्म० ९।२१)। ७० । ६)।
पुरावती-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके पुण्डरीयक-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३४)।
वासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २४)। पुण्ड-(१) एक प्राचीन राजा ( आदि० १ । २३४)। परिका-एक प्राचीन नगरी, जहाँ पूर्वकालमै पौरिक नामक (२) एक प्राचीन देश, जिसे महाराज पाण्डुने जीता था राजा राज्य करता था (शान्ति० १११ । ३)। (आदि०११२।२९) (आधुनिक मान्यताके अनुसार मालदाका जिला, कोसी नदीके पूर्व पूर्णियाका कुछ अंश और
पुरु-(१) एक प्राचीन क्षत्रियनरेश, जो युधिष्ठिरकी
समामें विराजमान होते थे ( सभा० ४ । २७ )। दीनाजपुरका कुछ भाग तथा राजशाहीका सम्मिलित।
(२) एक पर्वत, जहाँ पूर्वकालमें पुरूरवाने यात्रा की थी भूभाग 'पुण्ड्र' जनपदके अन्तर्गत रहा है।) पुण्ड्रदेशके निवासी राजा युधिष्ठिरके लिये भेंट लेकर आये थे।
(वन० ९० । २२)। (सभा० ५२। १६)। कर्णने भी इस देशको दिग्विजयके पुरुकुत्स-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र भगवान् समय जीता था (कर्ण०८ । १९) । (कहते हैं, पौण्डक यमकी उपासना करते है ( सभा०८।१३)। ये वासुदेव इसी देशका राजा था ।) अश्वमेधीय अश्वकी
मान्धाताके पुत्र तथा नर्मदाके पति थे एवं कुरुक्षेत्रके रक्षाके समय अर्जुनने भी इस देशको जीता था ( आश्व०
वनमें तपस्या करके सिद्धिको प्राप्त हो स्वर्गलोकमें गये थे ८२ १ २९-३०)।
(आश्रम० २० । १२-१३)। पुण्ड्रक-एक प्राचीन क्षत्रिय नरेश, जो युधिष्ठिरकी सभामें पुरुजित्-एक अत्रियनरेश, जो कुन्तिभोजके पुत्र और बैठते थे (सभा० ४ । २३)।ये राजसूय-यज्ञमें कुन्तीक भाई थे। इनके दूसरे भाइका नाम कुन्तिभोज युधिष्ठिर के लिये भेंट लेकर आये थे ( सभा० ५२ था (सभा० १४ । १६-१७ कर्ण०६ । २२)। १८)।
इनके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । ४६) । दुर्मुखके पुण्य-महर्षि विभाण्डकके आश्रमका नाम (वन०११॥
साथ इनका युद्ध (द्रोण० २५ । ४०-४१)। द्रोणाचार्य
द्वारा इनके मारे जानेकी चर्चा (कर्ण०६।२२-२३)। २३)।
ये यमराजकी सभामें उनकी उपासना करते थे (सभा. पुण्यकृत्-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३०)।
८ । २०)। पुण्यतोया-एक नदी, जिसे मार्कण्डेयजीने भगवान् बाल- परुमित्र-धृतराष्ट्र के ग्यारह महारथी पुत्रों से एक (आदि मुकुन्दके उदरमें भ्रमण करते समय देखा था (वन० ६३ । ११९ ) जूएके समय यह भी उपस्थित था १८८।१०४)।
( समा० ५८ । १३)। अभिमन्युद्वारा घायल हुआ पुण्यनामा-स्कन्दका एक सैनिक (शक्य०४५। ५९)। था ( भीष्म ७३ । २४)। संजयद्वारा जीवित
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पुरुमीढ
( २०० )
पुलह
योद्धाओंकी गणनामें इसका भी नाम था ( कर्ण
७।१४)। पुरुमीढ--सम्राट् सुहोत्रके तृतीय पुत्र, माताका नाम
ऐक्ष्वाकी। इनके दो भाई और थे अजमीढ और सुमीढ
(आदि० ९४ । ३०)। पुरुषादक-एक प्राचीन देश (सभा० ५१ । १७)। पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम । ये सर्वत्र परिपूर्ण हैं तथा सबके निवासस्थान है। इसलिये पुरुष हैं। सब पुरुषों में उत्तम होनेके कारण पुरुषोत्तम कहलाते हैं
( उद्योग०७० । ११-१२)। पुरूरवा-(१) ये (चन्द्र पुत्र ) बुधके द्वारा इलाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे (आदि. ७५ । १८-१९ द्रोण. १४४ । ४)। ब्राह्मणोंके प्रति इनका अत्याचार ( आदि० ७५ । २०-२१ ) । ब्राह्मणोंद्वारा इनका विनाश ( आदि. ७५ । २२) । उर्वशीके गर्भसे इनके द्वारा क्रमशः आयु, धीमान्, अमावसु, दृढ़ायु, वनायु और शतायु नामक छः पुत्रोंका जन्म (आदि०७५ । २४-२५)। इनका वायुदेवसे चारों वर्णोंकी उत्पत्ति तथा ब्राह्मणकी श्रेष्ठताके विषयमें प्रश्न करना ( शान्ति० ७२ । ३)। पुरोहितके विषयमें कश्यपजीके साथ इनका संवाद (शान्ति० ७३ । ७-३२)। इक्ष्वाकुद्वारा इन्हें खड्गकी प्राप्ति हुई थी
और इन्होंने उसे आयुको प्रदान किया था (शान्ति. १६६ । ७३-७४) । ब्राह्मणोंके आशीर्वादसे इनकी स्वर्ग: प्राप्तिकी चर्चा ( अनु० ६।३१ ) । गोदान-महिमाके प्रसङ्गमें इनका नामनिर्देश ( अनु० ७६ । २६)। इन्होंने अपने जीवन में कभी मांस नहीं खाया ( अनु० ११५ । ६५)। (२) दीप्ताक्षवंशका एक कुलपांसन
राजा (उद्योग०७४ । १५)। पुरोचन-यह दुर्योधनका मन्त्री था । दुर्योधन का इसको 'वारणावत' नगरमें लाक्षागृह बनवानेका आदेश देकर भेजना ( आदि० १४३ । २-१७ )। इसके द्वारा लाक्षागृहका निर्माण ( आदि. १४३।११)। इसका पाण्डवोंको अपने डेरेपर लाकर स्वागत-सत्कार करके आदरपूर्वक निवास देना ( आदि० १४५। ९-१०)। पाण्डवोंसे उस नये गृह (लाक्षागृह ) की चर्चा करके उनको सेवक-सामग्रियोसहित उसमें ( लाक्षागृहमें ) लाकर ठहराना ( आदि. १४५ | ११-१२)। इसका लाक्षागृह में दग्ध होना ( आदि०६१ । २३, आदि. १४९ । २)। पुलस्त्य-ये ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं ( आदि० ६५ ।
१०; वन० २७४ । १२)। छः शक्तिशाली महर्षियोंमें इनका भी नाम है (आदि. ६६ । ४) । बुद्धिमान्
पुलस्त्य मुनिके पुत्र राक्षस, वानर, किन्नर और यक्ष हैं ( आदि. ६६ । ७) । ये अर्जुनके जन्ममहोत्सवमें भी पधारे थे (आदि० १२२ । ५२ ) । पराशरजीके राक्षस-सत्रमें महर्षियों के साथ इनका आना
और पराशरजीको समझाकर उस सत्रको बंद करनेके लिये कहना ( आदि० १८० । ९-२०)। ये इन्द्रकी सभामें बैठते हैं (सभा० ७ । १७)। ये ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं (सभा० ११ । १९)। इनके द्वारा भीष्मसे विभिन्न तीर्थों का फलादेशपूर्वक वर्णन ( वन० अध्याय ८२ से ८५ । ११॥ तक)। इनकी पत्नीका नाम गौ था। उनके गर्भसे इनके द्वारा वैश्रवण (कुबेर ) का जन्म हुआ था (वन० २७४ । १२)। इन्होंने अपने आधे शरीरसे विश्रवा नामक पुत्र उत्पन्न किया था (आदि० २७४ । १३.१४)। स्कन्दके जन्ममहोत्सवके अवसरपर ये भी पधारे थे (शल्य. ४५ । ९) । शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मके पास आये हुए ऋषियोंमें ये भी थे (शान्ति० ४७ । १०) । इक्कीस प्रजापतियोंमें भी इनका नाम है (शान्ति० ३३४ । ३५) । चित्रशिखण्डी नामवाले सात ऋषियोंमें एक ये भी हैं ( शान्ति. ३३५ । २९) । ये आठ प्रकृतियों से एक हैं (शान्ति० ३४० । ३४-३५)। प्रयाणके समय भीष्मजीके पास ये भी आये थे ( अनु० २६ । ४)। (महाभारतमें इनके ब्रह्मर्षि, ब्रह्मयोनि और विप्रर्षि
आदि नामोंका भी उल्लेख मिलता है।) पुलह-ये ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं (आदि० ६५ । १०;
वन० २७४ । १२)। छः शक्तिशाली महर्षियोंमें इनका भी नाम है ( आदि० ६६ । ४)। पुलहके शरभ, सिंह, किम्पुरुष, व्याघ्र, रोछ, ईहामृग (भेड़िया) जातिके पुत्र हुए (आदि० ६६ । ८)। ये अर्जुनके जन्मसमय पधारे थे (आदि० १२२ । ५२)। पराशरजीके राक्षससत्रमें महर्षियोंके साथ इनका आगमन (आदि० १८०।९)। ये इन्द्र की सभामें विराजते हैं (सभा०७।१७)। ब्रह्माजीकी सभामें रहकर ये उनकी उपासना करते हैं ( सभा० ११ । १८) । अलकनन्दा गङ्गाके तटपर ये जप और स्वाध्याय करते हैं (वन० १६२।६)। स्कन्दके जन्ममहोत्सवमें ये भी पधारे थे (शल्य० ४५ । ९)। इक्कीस प्रजापतियोंमें एक ये भी हैं (शान्ति० ३३४ । ३५)। चित्रशिखण्डी नामक सात ऋषियोंमें भी इनका नाम है (शान्ति० ३३५ । २९)। आठ प्रकृतियोंमें इनका नाम है (शान्ति० ३४० । ३४-३५)। प्रयाणके समय
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पुलिन्द
( २०१ )
पुष्कर
भीमजी के पास आये हुए ऋषियोंमें ये भी थे ( अनु० पुष्कर - ( १ ) क्षेत्र । तीर्थगुरु ( आदि० २२० | १४)। २६ । ४ ) ।
( यह तीर्थ अजमेर से छः कोसकी दूरीपर उत्तर दिशामें है । इसके सम्बन्धमें पुराणोंमें ऐसी प्रसिद्धि है कि ब्रह्माजीने इस स्थानपर यश किया था। यहाँ ब्रह्माजीका एक मन्दिर है । पद्म और नारदपुराण में इस तीर्थका बहुत कुछ माहात्म्य मिलता है । पद्मपुराण में लिखा है कि एक बार पितामह ब्रह्मा हाथमें कमल लिये यज्ञ करने की इच्छासे इस सुन्दर पर्वतप्रदेशमें आये और यहाँ कमल उनके हाथसे गिर पड़ा । उसके गिरने से ऐसा शब्द हुआ कि सब देवता काँप उठे । जब देवता ब्रह्मासे पूछने लगे, तब ब्रह्माने कहा - बालकोंका घातक वज्रनाभ असुर रसातलमें तप करता था। वह तुमलोगों का संहार करने के लिये यहाँ आना ही चाहता था कि मैंने कमल गिराकर उसे मार डाला । तुमलोगों की बड़ी भारी विपत्ति दूर हुई। इस पद्मके गिरनेके कारण इस स्थानका नाम पुष्कर होगा । यह परम पुण्यप्रद महातीर्थ होगा ।" साँची से मिले हुए एक शिलालेखसे यह पता लगता है कि ईसासे तीन सौ वर्ष से भी और पहले यह तीर्थस्थान प्रसिद्ध था - ( हिंदी शब्दसागर से ) | ( यहाँ ब्रह्मा, सावित्री, बदरीनारायण और वराहजीके मन्दिर प्रसिद्ध हैं | ) अर्जुनने अपने वनवासका शेष समय यहीं व्यतीत किया था ( आदि० २२० । १४ ) । पुलस्त्यजीद्वारा इसका विशेष वर्णन ( वन० ८२ । २० - ४० ) । धौम्यद्वारा इसके माहात्म्य का वर्णन ( वन० ८९ । १६-१८ ) । पुष्कर में जाकर मृत्युने घोर तप किया था ( द्रोण० ५४ । २६) । यहाँ ब्रह्माजीका यज्ञ हुआ था, जिसमें सरस्वती सुप्रभा नामसे प्रकट हुई थी ( शल्य० ३८ । ५- १४ )। पुष्कर में जाकर दान देना, भोगोंका त्याग करना, शान्तभावसे रहना, तपस्या और तीर्थके जलसे तन-मनको पवित्र करना चाहिये ( शान्ति० २९७ । ३७ ) । यहाँ स्नान करने से मनुष्य विमानपर बैठकर स्वर्गलोक में जाता है और अप्सराएँ स्तुति करती हुई जगाती हैं ( अनु० २५ ॥ ९) । ( २ ) वरुणदेव के प्रिय पुत्र, इनके नेत्र विकसित कमल के समान दर्शनीय हैं; इसीलिये सोमकी पुत्रीने इनका पतिरूपसे वरण किया है ( उद्योग० ९८ । १२ ) । ( ३ ) ये राजा नलके छोटे भाई थे ( वन० ५२ । ५६) | इन्हें कलियुगका राजा नलके साथ जुआ खेलने के लिये आदेश देना ( वन० ५९ । ४ ) । इनका राजा नलके साथ जुआ खेलना ( वन० ५९ । ९ ) । पुष्करने राजा नलका सर्वस्व जीत लिया था ( वन० ६१ । १ ) । इनका राजा नलके साथ पुनः जूआ खेलना और सर्वस्व हारना ( वन० ७८ । ४ -२० ) । नलसे क्षमा माँगकर इनका अपनी राजधानीको लौट जाना (वन० ७८ । २७
पुलिन्द - ( १ ) एक देश तथा वहाँके निवासी । ये सिजी गौ नन्दिनी के कुपित होनेपर उसके पेन से उत्पन्न हुए थे ( आदि० १७४ । ३८ ) । भीमसेनने पुलिन्द देशपर धावा करके वहाँके महान् नगर तथा उस देश के राजा सुकुमार और सुमित्रको जीत लिया था ( सभा० २९ । १० ) । सहदेवने भी इस देश के राजा सुकुमार और सुमित्रको वामें कर लिया था ( सभा० ३१ । ४ ) | ये उन म्लेच्छ जातियों में हैं, जो कलियुगमें पृथ्वीके शासक होंगे ( वन० १८८ । ३५) । ये दुर्योधन की सेना में आये थे ( उद्योग ० १६० | १०३; उद्योग० १६१ । २१ ) | यह एक भारतीय जनपद है ( भीष्म० ९ । ३९, ६२ । इनका पाण्डयनरेश के साथ युद्ध हुआ और उनके बाणोंद्वारा मारे गये ( कर्ण० २० | १० - १२ ) । इनकी गणना क्षत्रियोंमें थी; परंतु ब्राह्मणोंकी कृपासे वञ्चित होनेके कारण ये शूद्र हो गये ( अनु० ३३ । २२ । २३ । ) । (२) यह किरातोंका राजा था और युधिष्ठिरकी सभा में बैठता था ( सभा० ४ । २४ ) ।
पुलोमा - ( १ ) भृगु ऋषिकी पत्नी ( आदि० ५ । १३ ) । पुलोमा नामक राक्षसके द्वारा इनका हरण होना ( आदि ० ६ । १) । इनके गर्भसे च्यवन मुनिका जन्म ( आदि० ६ । २ ) । इनकी विस्तृत कथा ( आदि० ५ । १३ से ६ । १३ तक ) | ( २ ) एक राक्षस | इसके द्वारा भृगुपत्नी पुलोमाका हरण होना ( आदि० ५ । १९ ) । इसका कुपित हुए च्यवन के तेजसे भस्म होना ( आदि० ६ । ३) । ( ३ ) कश्यप और दनुसे उत्पन्न एक प्रसिद्ध दानव ( आदि० ६५ | २२ ) | यह धन-रत्नोसहित इस पृथ्वी के महान् शासकों में से एक था ( शान्ति० १२७ । ४९-५० ) । ( ४ ) दैत्यकुलकी एक कन्या, जिसके पुत्रोंको 'पौलोम' कहते हैं । इसने और कालकाने भारी तपस्या करके ब्रह्माजी से यह वर माँगा था कि 'हमारे पुत्रोंका दुःख दूर हो जाय । हमारे पुत्र देवता, राक्षस तथा नागों के लिये भी अवध्य हों । इनके रहने के लिये एक सुन्दर नगर होना चाहिये, जो अपने महान् प्रभापुञ्जसे जगमगा रहा हो । वह नगर विमानकी भाँति आकाशमें विचरनेवाला हो और उसमें नाना प्रकारके रत्नोंका संचय रहना चाहिये। देवता आदि उसका विध्वंस न कर सकें ( वन० १७३ । ७-१२ ) ।
म० ना० २६
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पुष्करधारिणी
( २०२ )
Annanorm
२९)। (४) एक द्वीप, इसका विशेषरूपसे वर्णन कुलको पवित्र कर देता है ( वन० ८५ । १२)। (भीष्म० १२ । २४-३७)। (५) पुष्करद्वीपका पुष्पवान्-एक राजा, जो कभी समस्त पृथ्वीका शासक था, एक पर्वत, जो मणियों तथा रत्नोंसे भरा-पूरा है (भीष्म. परंतु कालसे पीड़ित हो इसे छोड़कर परलोकवासी हो गया १२ । २४-२५)।
(शान्ति०२२७ । ५१-५६)। पुष्करधारिणी-ये विदर्भनिवासी उञ्छवृत्तिधारी तथा पुष्पानन-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी
अहिंसापरायण सत्यनामक ब्राह्मणकी धर्मचारिणी पत्नी थीं उपासना करता है (सभा० १० । १७)। (शान्ति. २७२ । ३-६)।
पुष्पोत्कटा-कुबेरद्वारा विश्रवाकी परिचर्यामें नियुक्त एक पुष्करिणी-सम्राट भरतकी पुत्रवधू तथा भुमन्युकी पत्नी। सुन्दरी राक्षसकन्या, जो नृत्य-गीतकी कलामें प्रवीण थी। इनके गर्भसे सुहोत्र, दिविरथ, सुहोता, सुहृवि, सुयजु इसीके गर्भसे रावण और कुम्भकर्णका जन्म हुआ था
और ऋचीक नामक छः पुत्र हुए थे (आदि० ९४ । (वन० २७५ । ३-७)। २३-१५)।
पूजनी-काम्पिल्य नगरके राजा ब्रह्मदत्तके भवन में निवास पष्टि-ये दक्षप्रजापतिकी कन्या और धर्मकी पत्नी हैं (आदि० करनेवाली एक चिड़िया ( शान्ति० १३९ । ६६।१४)। ये ब्रह्माकी सभामें रहकर उनकी उपासना ५)। यह समस्त प्राणियोंकी बोली समझती करती हैं (सभा०११।१२)। इन्द्रलोककी यात्राके थी। सर्वज्ञ और सम्पूर्ण तत्त्वोंको जाननेवाली थी (शान्ति समय अर्जुनकी रक्षाके लिये द्रौपदीने इनका सरण किया
१३९ । ६)। राजकुमारने इसके बच्चेको मार डाला था (वन० ३७ । ३३)।
था; अतः इसने भी राजकुमारकी आँखें फोड़ दी पुष्टिमति-भरत नामक अग्निका नामान्तर, ये संतुष्ट होनेपर (शान्ति० १३९ । १३-२०)। राजभवनको छोड़कर पुष्टि प्रदान करते हैं, अतः इनका नाम पुष्टिमति है जाते समय पूजनीका राजा ब्रह्मदत्तके साथ संवाद (वन०२२१ । १)।
(शान्ति० १३९ । २१-१११)। पुष्प-कश्यपवंशी एक नाग ( उद्योग० १०३ । १३)। पूतना-(१) एक राक्षसी, जो भगवान् श्रीकृष्णद्वारा मारी पुष्पक-(१) कुबेरका एक दिव्य विमान, जो इन्हें ब्रह्मा- ___ गयी थी ( सभा० ३८ ॥ २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ जीसे प्राप्त हुआ था (वन० २७४ । १७) । इसे ७९८)। (२) ( पूतनाग्रह )- पूतना नामक रावणने उनसे बलपूर्वक छीन लिया था (वन० २७५। राक्षसी, जो बालकोंके लिये ग्रहरूप है। यह स्कन्दके साथ ३४)। कुबेरने रावणको यह शाप दिया था कि यह रहनेवाली है ( वन० २३० । २७) । यही पूतना विमान तेरी सवारीमें नहीं आ सकेगा जो तेरा वध करेगा, स्कन्दकी अनुचरी मातृकाओंमें भी गिनी गयी है उसीका यह वाहन होगा (वन० २७५ । ३५ )। (शल्य. ४६ । १६)।। लङ्का-विजयके पश्चात् श्रीरामने पुष्पकविमानकी पूजा करके पतिका-एक लता, जो सोमलताके स्थानपर यज्ञमें काम उसे कुबेरको ही प्रसन्नतापूर्वक लौटा दिया (बन० आती है ( वन० ३५। ३३)। २९१ । ६९) । (२) द्वारकापुरीके दक्षिणभागमें
पूरण-एक प्राचीन ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मके स्थित ललावेष्ट नामक पर्वतको एक ओरसे घेरकर फैला
पास आये थे (शान्ति० ४७ । १२)। हुआ एक वन ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ,
पूरु-(१) एक प्राचीन राजा (आदि.३।२३२ )। पृष्ठ ८१३)।
जो राजा ययातिके द्वारा शर्मिष्ठा' के गर्भसे उत्पन्न हुए पुष्पदंष्ट-कश्यपवंशी एक प्रमुख नाग (आदि०३५। १२)। (आदि. ७५। ३५, आदि. ८३ । १०)। (ये पुष्पदन्त-(१) एक दिग्गज (द्रोण० १२१ । २५)।
पौरववंशके प्रवर्तक आदि पुरुष थे। ) इनके द्वारा अपने (२) पार्वतीद्वारा कुमारको दिये गये तीन पार्षदों से
पिताको युवावस्थाका दान एवं उनकी वृद्धावस्थाका एक, अन्य दोका नाम उन्माद और शङ्कुकर्ण था
ग्रहण (आदि.७५ । ४३-४४; आदि.८४ । ३४)। (शल्य. ४५। ५१)।
इनके द्वारा गुरुजनोंके आज्ञापालनकी महिमाका वर्णन पुष्परथ-राजर्षि वसुमनाका रथ, यह आकाश, पर्वत और (आदि०८४ । ३०-३५ के बाद दा० पाठ)। प्रजाके समुद्र आदि दुर्गम स्थानोंमें भी बड़ी सुगमतासे जा सकता अनुमोदन करनेपर ययातिद्वारा इनका राज्यपर अभिषिक्त था (वन० १९८ । १२-१३)।
होना ( आदि० ८५ । ३२) । कौसल्या (पौष्टी ) नामक पुष्पवती-इस तीर्थमें स्नान करके तीन रात उपवास करने- पत्नीके गर्भसे इनके द्वारा जनमेजय (प्रवीर), ईश्वर तथा वाला मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है और अपने रौद्राश्वका जन्म एवं इनके वंशका संक्षिप्त वर्णन (आदि.
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( २०३ )
९४ अध्याय ) । इनके वंशका विस्तारपूर्वक वर्णन पूर्वाभिरामा-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी (आदि० ९५ अध्याय )। ये यम-सभामें रहकर सूर्यपुत्र पीते हैं ( भीष्म० ९ । २२)। यमकी उपासना करते हैं (सभा० ८ । ८)। इन्द्रके पूषणा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६ । २०)। विमानपर बैठकर अर्जुनका कौरवोंके साथ होनेवाला युद्ध पषा-(१) बारह आदित्योंमेंसे एक (आदि०६५ । देखनेके लिये आये थे ( विराट०५६ । १०)।
१५) । ये अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे थे (आदि. मान्धाताद्वारा इनकी पराजय (द्रोण० ६२ । १० । १२२ । ६७)। खाण्डववनके युद्ध में इनका आगमन ययातिद्वारा इन्हें खड्गकी प्राप्ति (शान्ति. १६६ ।
और श्रीकृष्ण तथा अर्जुनपर धावा (आदि० २२६ । ७४)। अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ
३५)। भगवान् शङ्करने इनके दाँत तोड़े थे (द्रोण. खाना (अनु० ९४ । २२)। ये मांसभक्षणका निषेध
२०२। ४९; सौप्तिक. १८ । १६ ) । इनके द्वारा करके परावर-तत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर चुके थे (भनु०
स्कन्दको पाणीतक और कालिक नामक दो पार्षदोंका १.५। ५९)। (२) अर्जुनका सारथि, जिसे राजसूय
दान (शल्य. ४५ । ४३-४४)। ये घृतदानसे संतुष्ट यज्ञके लिये अन्नसंग्रहके कामपर जुट जानेका आदेश मिला
होते हैं ( अनु० ६५ । ७) । (२) सूर्यदेवका था (सभा० ३३ । ३०)
एक नाम (वन ३ । ६६)। पूर्ण-(१) वासुकि-कुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
पृतना-सेनाका परिमाणविशेष-तीन वाहिनी ( आदि० सर्पसत्रमें जल मरा था ( आदि० ५७ । ५)।
२।२१)। (२) कश्यपकी प्राधा नामवाली पत्नीसे उत्पन्न एक देवगन्धर्व (आदि०६५ । ४६)।
पृथा-शूरसेनकी पुत्री, जो संसारकी अनुपम सुन्दरी थी;
वसुदेवजीकी बड़ी बहिन थी (आदि० ६७ । १२९)। पूर्णभद्र-एक कश्यपवंशी प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १२)।
पृथाश्व-यमराजकी सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना
करनेवाला एक प्राचीन नरेश ( सभा० ८ । १९)। पूर्णमुख-धृतराष्ट्र के वंशमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके । सर्पसत्र में जल गया (आदि. ५७ । १६)।
पृथु-(१) आठ वसुओंमेंसे एक ( आदि० ९९ ।
११)। (२) एक वृष्णिवंशी क्षत्रिय, जो द्रौपदीके पूर्णा-पञ्चमी, दशमी तथा पञ्चदशी तिथियोंकी संज्ञा ।
स्वयंवरमें आया था (आदि. १८५ । १८)। यह पूर्णा नामक पञ्चमी तिथिमें युधिष्ठिरका जन्म ( आदि० १२२ । ६)।
रैवतक पर्वतके उत्सवमें सम्मिलित हुआ था (आदि.
२१८ । १० ) । ( ३ ) महाराज बेनके पुत्र, पूर्णाङ्गद-धृतराष्ट्रवंशमें उत्पन्न एक नाग, जोजनमेजयके सर्प
प्रथम नरेश । इनके द्वारा अत्रिमुनिको धनदान (वन० सत्रमें स्वाहा हो गया था (आदि० ५७ । १६)।
१८५।८-३५)। संजयको समझाते हुए नारदजीपूर्णायु-एक देवगन्धर्व, जो कश्यपकी पत्नी प्राधाका पुत्र
द्वारा इनके चरित्रका वर्णन (द्रोण. ६९ अध्याय)। था (आदि० ६५ । ४६)।
श्रीकृष्णद्वारा इनके चरित्रका वर्णन (शान्ति० २९ । पूर्वचित्ति-एक श्रेष्ठ अप्सरा, जो सर्वश्रेष्ठ छः अप्सराओंमेसे १३७-१४४)। इनकी उत्पत्ति और चरित्रका विस्तृत वर्णन एक है (आदि०७४ । ६०)। यह उन दस विख्यात
(शान्ति० ५९/९८-१२८)। ये प्राचीन कालमें पृथ्वीके अप्सराओंमेंसे एक है, जिन्होंने अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधार
शासक थे; किंतु कालसे पीड़ित हो पृथ्वीको छोड़कर कर नृत्य और गान किया था ( आदि० १२२ । ६५)। परलोकवासी हो गये (शान्ति० २२७ । ४९-५६)। स्वर्गमें अर्जुनके स्वागत-समारोहमें इसने नृत्य किया था इन्होंने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया था (अनु. (वन० ४३ । २९)। मलयपर्वतपर शुकदेवजीकी उत्तम
११५। ६५)। (४) इक्ष्वाकुवंशी महाराज अनेनागति देखकर यह आश्चर्यचकित हो उठी थी और इस के पुत्र, इनके पुत्रका नाम विष्वगश्व था (वन० विषयमें अपना हार्दिक उद्गार प्रकट किया था (शान्ति. २०२ । २-३)। ३३२ । २०-२४)।
पृथुलाक्ष-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमपूर्वदिशा-चार दिशाओंमेंसे एक, इसका विशेष वर्णन की उपासना करता है ( समा० ८ । १०)। (उद्योग० १०८ अध्याय )।
पृथुलाश्व-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपत्र पूर्वपाली-एक प्राचीन राजा, जिसे पाण्डवोकी ओरसे रण- यमकी उपासना करता है (सभा०८ । २२)। निमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था (उद्योग. पथवस्त्रा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ४।१७)।
१९)।
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पृथुवेग
( २०४ )
पौण्ड्र
पृथुवेग- एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी पैजवन-एक शूद्र, जिसने ऐन्द्राग्न यज्ञकी विधिसे मन्त्रउपासना करता है (सभा० ८ । १२)।
हीन यज्ञ करके उसकी दक्षिणाके रूपमें एक लाख पृथुश्रवा-(१) महाभौमकुमार अयुतनायीकी पत्नी पूर्णपात्र दान किये थे ( शान्ति० ६० । ३९)। कामाके पिता ( आदि० ९५ । २०-२१)। ये यमसभामे पैठक-एक असुर, जिसका भगवान् श्रीकृष्णद्वारा वध रहकर सूर्यपत्र यमकी उपासना करते है ( सभा० किया गया था (सभा०३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य ८ | १२)। (२) एक प्राचीन ऋषि, जो अजात
पाठ, पृष्ठ ८२५, कालम )। शत्रु युधिष्ठिरका बड़ा सम्मान करते थे (वन० २६ ।
पैल-एक प्राचीन ऋषि, जो व्यास जीके शिष्य थे। इनको २२-२५)। (३) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. १५। ६२)।(४)एक नाग, जो बलरामजीके स्वाग
व्यासजीने सम्पूर्ण वेदों एवं महाभारतका अध्ययन तार्थ प्रभासक्षेत्रमें आया था ( मौसल० ४ । १५)।
कराया था (आदि० ६३ । ८९-९०)। ये वसुके पुत्र
थे और धौम्य मुनिके साथ युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञके पृथदक-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक कार्तिकेय-तीर्थ, जिसमें
होता बने थे (सभा० ३३ । ३५)। शरशय्यापर पड़े स्नान करनेमात्रसे सब पाप नष्ट हो जाते हैं तथा तीर्थ
हुए भीष्मजीके पास अन्य ऋषियोंके साथ महात्मा पैल सेवी पुरुषको अश्वमेधयज्ञके फल और स्वर्गलोककी प्राप्ति
भी पधारे थे (शान्ति. ४७।६)। होती है। (वन० ८३ । १४१-१४४) । इस तीर्थकी महिमा ( शल्य० ३९ । २८-३३)।
पैलगर्ग-एक मुनि, जिनके आश्रमपर काशिराजकी कन्या पृथिवीतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, जहाँ अम्बाने तपस्या की थी ( उद्योग० १८६ । २०)। जाकर स्नान करनेसे सहल गोदानका फल मिलता है पैलगर्गाश्रम-एक तीर्थ, जहाँ काशिराजकी कन्या अम्बाने (वन० ८३ । १३)।
कठोर व्रतका आश्रय ले स्नान किया था (उद्योग पृथ्वी-( देखिये भूमि)।
१८६ । २०)। पृश्नि-एक प्राचीन महर्षि, जिन्होंने द्रोणाचार्यके पास
पैशाच-विवाहका एक भेद । जब घर के लोग सोये हों आकर उनसे युद्ध बंद करनेको कहा था (द्रोण. १९०।३४-४०)। इन्होंने स्वाध्यायके द्वारा स्वर्ग प्राप्त
अथवा असावधान हों, उस दशामें कन्याको चुरा लेना
पैशाच विवाह है। यह सर्वथा सभी वर्गों के लिये निषिद्ध किया था (शान्ति. २६।७)।
है ( आदि० ७३ । ९-१२)। पृश्निगर्भ-भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम, उसकी निरुक्ति
अन्न, वेद, जल और अमृत-इनको पृश्नि कहते हैं। पोतक-कश्यपवंशीय एक नाग ( उद्योग० १०३ । ये सदा भगवान्के गर्भमैं रहते हैं, इसलिये इनका नाम ११)। पृश्निगर्भ है। इस नामके उच्चारणसे त्रित मुनि कूपसे पौण्ड्र-(१) नन्दिनीके पार्श्वभागसे प्रकट हुई एक म्लेच्छ बाहर हो गये थे (शान्ति० ३४१ । ४५-४७)| जाति (आदि. १७४ । ३७)। (२) एक देश और पृषत-पाञ्चाल देशके एक राजा, जो महर्षि भरद्वाजके वहाँके निवासी राजा आदि; पौण्ड्रदेशके राजा द्रौपदीके
मित्र और द्रुपदके पिता थे (आदि. १२९ । ४१)। खयंवरमें आये थे ( आदि. १८६ । १५)। इस पृषदश्व-एक प्राचीन नरेश, जिन्हें राजा अष्टकद्वारा देशको श्रीकृष्णने पराजित किया था (सभा० ३८ ।
खड्गकी प्राप्ति हुई थी (शान्ति. १६६ । ८०)। ये २९ के बाद, पृष्ठ ८२४, कालम २ )। पौण्ड्र देशके यमराजकी सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते लोगोंके राजसूय यज्ञमें आनेकी चर्चा (वन० ५। । हैं (सभा०८। १३)।
२२)। युधिष्ठिरकी ओरसे उनके साथ ये क्रौञ्च-व्यहमें पृषध्र-(१) वैवस्वत मनुके न पुत्र (आदि. ७५। खड़े थे (भीष्म० ५०। ४८)। कर्णने इस देशको १६)। ये प्रातः-सायंकालीन कीर्तन करनेयोग्य जीता था (द्रोण० ४ । ८)। श्रीकृष्णने भी इसपर राजाओं से एक हैं, इनके कीर्तनसे धर्मका फल प्राप्त विजय पायी थी (द्रोण. ११ | १५)। मान्धाताके होता है ( अनु० १६५ । ५४-६०)। इन्होंने कुरु- राज्यमें पौण्ड्रजातिके लोग निवास करते थे (शान्ति०६५ । क्षेत्रमें तपस्या करके स्वर्ग प्राप्त किया ( आश्रम २० । १४)। पौण्डलोग पहले क्षत्रिय थे, किंतु ब्राह्मणों के ११)। (२) द्रुपदका एक पुत्र, जिमका अश्वत्थामा- अमर्षसे शूद्रत्वको प्राप्त हो गये ( अनु० ३५ । १७द्वारा वध हुआ था (द्रोण १५६ । १८३)। १८)।(३) भीमसेनके शङ्खका नाम । युद्धके पैडल्य-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे आरम्भमें भीमने इस महाशङ्खको बजाया था ( भीष्म (सभा० ४ । १७)।
२५। १५)। दुर्योधनके मारे जानेपर भीमकर्मा भीमने
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पौण्ड्रक
( २०५ )
प्रगण्डी
पौण्ड्र नामक महान् शङ्खकी ध्वनि की ( शल्य०६१। पौलोम-(१) पुलोमाके पुत्र । हिरण्यपुरके स्वामी । ७१ के बाद दा० पाठ)।
इनका अर्जुनके साथ युद्ध और उनके द्वारा इनका संहार पोण्डक-पुण्डदेशका राजा वासुदेव, जो बंग, पुण्ड आदि (वन० १७२ । १६-५५)।(२) दक्षिण समुद्र के अनेक देशोंका शासक था और जरासंधसे मिला हुआ था
समीपका एक तीर्थ, पाँच नारी तीथों में से एक ( आदि. (सभा० १४।२०)। राजसूय यज्ञके समय भीमसेन
२१५। ३)। यहाँ ब्राह्मणके शापसे ग्राह बनकर रहनेद्वारा इसकी पराजय ( सभा० ३० । २२)। यह
वाली अप्सरा (वर्गाको सखी) का अर्जुनद्वारा उद्धार युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें भेंट लेकर आया था ( सभा हुआ (आदि० २१६ । २१-२२)। ५२ । १८)।
पौलोमपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय ४ पौण्डमास्यक-एक क्षत्रिय राजा, जो दनायके पत्र वीर से १२ तक)। नामक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि. पौलोमी-पुलोमा दानवकी पुत्री, देवराज इन्द्रकी पत्नी
और जयन्तकी माता शची (आदि. ११३ । ४)। पौदन्य-एक प्राचीन नगर, जिसे सौदासके पुत्र अश्मकने (देखिये शची)
बसाया था ( आदि० १७६ । ४७)। (कुछ आधुनिक पौष मास-(बारह महीनों में से एक, जिस मासकी पूर्णिमाको विचारकोंके मतानुसार गोदावरीके उत्तर तटपर बसा हुआ
पुष्य नक्षत्रका योग होता है, उसे पौष' कहते हैं । यह पैथान' नामक नगर ही पौदन्य है।)
मार्गशीर्षके बाद और मायके पहले पड़ता है। ) पौष पौनर्भव छः बन्धु-दायादोंमेंसे एक । दूसरी बार ब्याही मासमें प्रतिदिन एक समय भोजन करनेवाला मनुष्य
हुई स्त्रीसे उत्पन्न हुआ पुत्र ( आदि० ११९ । ३३)। सौभाग्यशाली, दर्शनीय और यशस्वी होता है ( अनु. पौरव-(१) एक राजर्षि, जो शरभ नामक दैत्यके १०६ । २०) । पौष मासकी द्वादशीको उपवासपूर्वक
अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि. ६७ । २७-२८)। भगवान् नारायणकी पूजा करनेसे वाजपेय यज्ञका फल ये पर्वतीय राजा थे और अर्जुनद्वारा पराजित हुए थे मिलता है ( अनु० १०९ । ४)।पौष मासके शुक्लपक्षकी (सभा० २७ । १४-१५)। पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें जिस तिथिमें रोहिणी नक्षत्रका योग हो, उस दिनकी रण-निमन्त्रण भेजनेका विचार किया गया था ( उद्योग. रात्रिमें स्नान आदिसे शुद्ध हो एक वस्त्र धारण करके ४ । १४ )। दुर्योधनको सेनामें ये एक महारथी थे श्रद्धा और एकाग्रतापूर्वक आकाशके नीचे खुले मैदानमें (उद्योग० १६८। १९) । धृष्टकेतुके साथ इनका द्वन्द्व- सो जाय और चन्द्रमाकी किरणोंका पान करता रहे । युद्ध ( भीष्म ११६ । १३-१४ )। इन्होंने अभिमन्युके ऐसा करनेसे उसे महान् यज्ञका फल मिलता है ( अनु० साथ युद्ध किया और अभिमन्युने चुटिया पकड़कर इन्हें १२६ ॥ १८-४९ )। घसीटा था (द्रोण० १४ । ५०-६०)। महाभारत- पौष्टी-राजा पूरुकी पत्नी, इनके गर्भसे पूरुद्वारा प्रवीर, ईश्वर युद्ध में ये अर्जुनद्वारा मारे गये थे, ऐसी चर्चा आयी तथा रौद्राश्व नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे ( भादि. है ( कर्ण० ५। ३५) । (२) पूरुके वंशमें उत्पन्न ९४ । ५)। इनका दूसरा नाम कौसल्या था ( आदि होनेवाले--कौरव-पाण्डव आदि ( आदि. १७२ । ५० ९५।११)। के बाद दा० पाठ)।(३) अङ्गदेशके एक प्राचीन
दा० पाठ ) । (३) अङ्गदशक एक प्राचान पौष्य-एक क्षत्रिय राजा, जिन्होंने आचार्य वेदको पुरोहित राजा । नारदजीद्वारा सृञ्जयके समक्ष अश्वमेध यज्ञमें इनके
बनाया था। इनकी कथा (आदि०३।८२-११७)। दानका वर्णन (द्रोण० ५७ अध्याय ) (४) विश्वामित्रके इनकी रानीका उत्तङ्क ऋषिको कुण्डल देना (आदि. ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० ४ । ५५)।
३। १११)। इनके द्वारा उत्तङ्कको संतानहीन होनेका पौरवक-क्षत्रियोंकी एक जाति, इस जातिके लोग युधिष्ठिरके शाप ( आदि० ३ । ११७)।
साथ क्रौञ्चव्यूहमें खड़े थे ( भीष्म० ५० । ४८)। पौष्यपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( ३ अध्याय )। पौरिक-पुरिका नगरीका एक राजा, जिसे पापके कारण प्रकालन-वासुकि-वंशका एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसियारकी योनिमें जन्म लेना पड़ा था (शान्ति यज्ञमें जल मरा था (आदि. ५७ । ६)। १११।३-४)।
प्रकाश-एक भृगुवंशी ब्राह्मण, जो गृत्समदवंशी 'तम' के पौरोगव-पाकशालाके अध्यक्षकी संज्ञा ( विराट० २ । १)। पुत्र थे ( अनु० ३० । ६३)। पौलस्त्य-पुलस्त्यकुलके राक्षस, जो दुर्योधनके भाइयोंके प्रगण्डी-परकोटोपर रक्षा-सैनिकों के बैठनेका स्थान
रूपमें उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७ । ८९-९१)। (शान्ति० ६९ । १३)।
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प्रघस
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( २०६ )
प्रघस - राक्षसों और पिशाचोंके दल ( वन० २८५ । १-२ ) ।
प्रघसा - स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १६) । प्रचेता - प्राचीनवर्हिके दस पुत्र, जो ऋषि एवं प्रजापति हैं,
इन्हींसे प्राचेतस दक्षका जन्म हुआ है ( अनु० १४७ । २५ ) । इन्होंने कण्डु मुनिकी पुत्री वाक्षके साथ विवाह किया था ( आदि० १९५ । १५ ) । ये इन्द्रकी सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । १६ ) । ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं ( सभा० ११ । १८ ) । ये स्कन्द के जन्मकालमें उनके पास पधारे थे ( शल्य० ४५ । १० ) ।
प्रजागरपर्व - उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ३३ से ४० तक ) ।
प्रजागरा - एक अप्सरा, जिसने इन्द्रकी सभामें अर्जुनके स्वागत समारोह के अवसरपर नाच-गान किया था ( वन० ४३ । ३० ) ।
प्रजापति - ( १ ) प्रजाओंके स्रष्टा और पालक देवगुरु ब्रह्मा ( आदि० १ । २९ - ३३ ) | ( विशेष देखिये 'ब्रह्मा') । ( २ ) महर्षि कश्यप, जिन्होंने वालखिल्योंसे देवराज इन्द्रपर अनुग्रह करने के लिये प्रार्थना की थी ( आदि ० ३१ । १६–२१ ) । महाभारतमें प्रजापतियोंके इक्कीस नाम आये हैंब्रह्मा, रुद्र, मनु, दक्ष, भृगु, धर्म, तप, यम, मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, वसिष्ठ, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, कर्दम, क्रोध और विक्रीत । ये इक्कीस T प्रजापति उसी परमात्मासे उत्पन्न बताये गये हैं तथा उसी परमात्माकी सनातन धर्म-मर्यादाका पालन एवं पूजन करते हैं (शान्ति० ३३४ । ३५-३७ ) । प्रजापतिकी उत्तर वेदी - तरन्तुक, अरन्तुक, रामहृद ( परशुरामकुण्ड ) तथा मचक्रुक ———इनके बीचका भू-भाग कुरुक्षेत्र ही प्रजापतिकी उत्तर वेदी है ( शल्य० ५३ । २४ )।
प्रजापति - वेदी - प्रतिष्ठानपुर (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवती तीर्थ - यह ब्रह्माजी की वेदी है (वन० ८५ | ७६-७७ )। प्रणिधि-वासिष्ठ बृहद्रथके अंशसे उत्पन्न पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र ( वन० २२० । ९ ) ।
प्रणीत-छः बन्धुदायादों मेंसे एक, अपनी पत्नीके गर्भ से किसी महापुरुषके अनुग्रहसे उत्पन्न हुआ पुत्र ( आदि० ११९ । ३३)।
प्रतर्दन - काशी जनपदके एक प्राचीन नरेश, जो राजा
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प्रतिविन्ध्य
ययातिके दौहित्र थे ( आदि० ९३ । १३ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ २८२ ) । ययाति-पुत्री माधवी के गर्भ से काशिराज दिवोदासके द्वारा इनका जन्म हुआ था ( उद्योग ० ११७ । १८; अनु० ३० । ३० ) । स्वर्ग से गिरते हुए राजा ययातिकी इनसे भेंट ( आदि० ८६ । ५-६ )। इनका ययातिके साथ वार्तालाप ( आदि० ९२ । १४— १८ दा० पाठसहित) | इनके द्वारा ययातिको पुण्यदानका आश्वासन ( आदि० ९२ । १६ ) | अष्टक आदि राजाओंके साथ इनका स्वर्गलोकको जाना ( आदि० ९३ । १६ के बाद दा० पाठ ) । देवर्षि नारदद्वारा भविष्य में इनके स्वर्गसे गिरनेके कारणका वर्णन ( वन० १९८ | ५ ) । इनका ययातिको अपना पुण्यफल देना ( उद्योग० १२२ । ६-७ ) । पराजित राजाका सारा धन ले जाना ( शान्ति ० ९६ । २० ) । महाराज शिबिद्वारा इन्हें खड़की प्राप्ति ( शान्ति० १६६ । ८० ) । इनके द्वारा ब्राह्मणको नेत्र दान (शान्ति० २३४ | २० ) । इनके द्वारा वीतहव्य पुत्रोंका वध ( अनु० ३० । ४२-४३ )। वीतव्यको छोड़ देनेके लिये इनकी भृगुजीसे प्रार्थना ( अनु० ३० | ५० - ५२ ) । भृगुजीके वचनोंसे संतुष्ट होकर इनका नगरको लौटना (अनु० ३० । ५४-५६)। इनका अपने पुत्रको ब्राह्मणकी सेवामें समर्पित करके इस लोकमें अनुपम कीर्ति पाना और परलोकमें अक्षय आनन्द भोगना ( अनु० १३७ । ५ ) ।
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प्रताप - सौवीर देशका एक राजकुमार, जो जयद्रथके रथके पीछे हाथ में ध्वजा लेकर चलता था वन० २६५ । १० ) । अर्जुनद्वारा इसका वध (वन० २७१ । २७) । प्रतिज्ञापर्व - द्रोणपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय ७२ से
८४ तक ) ।
प्रतिमत्स्य - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५२ ) । प्रतिरूप - एक दैत्य, जो कभी समस्त पृथ्वीका शासक था; परंतु कालसे पीड़ित हो इन्हें छोड़कर परलोकवासी हो गया (शान्ति ० २२७ । ५३-५६ ) । प्रतिविन्ध्य - ( १ ) द्रौपदीके गर्भ से युधिष्ठिरद्वारा उत्पन्न ( आदि० ६३ । १२२-१२३ आदि० ९५ । ७५ ) । इनका जन्म विश्वेदेवके अंशसे हुआ था ( आदि० ६७ । १२७-१२८ ) । इनके नामकी निरुक्ति (आदि० २२० । ७९-८१ ) । प्रथम दिनके संग्राममें शकुनिके साथ इनका द्वन्द्व-युद्ध ( भीष्म० ४५ । ६३ - ६५ ) । अलम्बुष के साथ इनका युद्ध और उससे पराजित होना ( भीष्म० १०० । ३९—४९ ) | इनके घोड़ोंका वर्णन ( द्रोण० २३ । २७ ) । अश्वत्थामा के साथ इनका युद्ध ( द्रोण० २५ । २९-३१ ) । दुःशासन के साथ इनका युद्ध और पराजित
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प्रतिश्रवा
( २०७ )
प्रधान
होना (द्रोण० १६८ । ३४.----४३ ) । राजा चित्रके २३)। इनका शान्तनुको राज्य देकर वनमें प्रवेश करना साथ युद्ध और इनके द्वारा उसका वध (कर्ण०१४ । (आदि० २७ । २४ )। इनके परलोकवासी होनेकी २०-३३)।रात्रिमें अश्वत्थामाके साथ युद्ध और उसके चर्चा (उद्योग० १४९ । २८)। द्वारा मारा जाना ( सौप्तिक० ८ । ४०-५४)। प्रत्यग्रह-ये राजा उपरिचर वसुके द्वितीय पुत्र थे (आदि० ( महाभारतमें इनके लिये यौधिष्ठिर और यौधिष्ठिरि शब्द- ६३। ३१)। का भी प्रयोग हुआ है। ) (२) एक प्रसिद्ध राजा,
प्रत्यङ्ग-एक प्राचीन नरेश ( आदि० ३ । २३८ )। जो एकचक्र नामक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि. ६७ । २१-२२)। दिग्विजयके समय अर्जनने प्रत्यूष-ये धर्मके द्वारा प्रभाताके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इन्हें परास्त किया था (सभा० २६ ॥५)। पाण्डवोंकी
इनकी गणना वसुओंमें है (आदि०६६ । १७-२०)। ओरसे इन्हें रण-निमन्त्रण भेजनेका विचार किया गया था प्रदाता-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३२)। (उद्योग०४।१३)। ये यमराजकी सभामें रहकर
र प्रद्युम्न-ये सनत्कुमारके अंशसे भगवान् श्रीकृष्णद्वारा
. उनकी उपासना करते हैं (सभा०८।२४)।
रुक्मिणीके गर्भसे प्रकट हुए थे (आदि०६७ । १५२, प्रतिश्रवा--ये परीक्षित्के पुत्र थे, जोमहाराज भीमसेनके द्वारा सौप्तिक. १२ । ३०-३२) । अर्जुन और सुभद्राके 'कुमारी' के गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इनके पुत्रका नाम विवाहके उपलक्षमें दहेज लेकर आनेवाले वृष्णिवंशियोंमें ये प्रतीप था (भादि० ९५ । ४२-४४)।
भी थे (आदि० २२० । ३१)। ये युधिष्ठिरके राजसूय प्रतिष्ठा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । २९)। यज्ञमें पधारे थे ( सभा० ३४ । १६)। शाल्वके पराक्रमप्रतिष्ठानपुर-प्रयागके भीतरका एक तीर्थ ( जिसे आजकल
से घबरायी हुई यादवसेनाको इनके द्वारा आश्वासन झूसी कहते हैं )। यह प्रजापतिकी वेदीके अन्तर्गत है (वन० १६ । ३०-३२)। इनका शाल्वके साथ घोर (वन० ८५ । ७६)। प्रतिष्ठानपुरमें राजा ययातिकी
युद्ध ( वन० १७ अध्याय ) । संग्रामभूमिमें इनका राजधानी थी, जहाँ गालव और गरुड़ गये थे ( उद्योग०
मूच्छित होना ( वन० १७ । २२)। सारथिद्वारा ११४।९)।
मूर्छावस्थामें संग्रामसे हटा ले जानेपर इनका अनुताप और
सारथिको उपालम्भ देना (वन०१८ अध्याय)। पुनः प्रतीच्या-ये महर्षि पुलस्त्यकी पतिव्रता पत्नी थीं (उद्योग
शाल्वके साथ युद्ध और उसे मारनेके लिये एक अद्भुत
शत्रुनाशक बाणका संधान करना (वन १९ । १२प्रतीत-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३२ )।
१९) । इनके पास नारद और वायुदेवका आकर प्रतीप-एक कुरुवंशी राजा, जो धृतराष्ट्र के पुत्र थे । आदिपर्व
देवताओंका संदेश सुनाना (वन० १९।२१-२४)। ९४ । ४९-६० के वर्णनके अनुसार कुरुसे इनकी
इनके द्वारा शाल्वकी पराजय (वन० १९ । २६)। परम्परा इस प्रकार है--कुरु, कुरुके पुत्र अश्ववान्
इनसे अनिरुद्ध प्रकट हुए थे (भीष्म०६५। ७१)। (अविक्षित् ), इनके परीक्षित् आदि आठ भाई, इनके
ये महारथी वीर थे (द्रोण. ११०। ५९) । इनके कुलमें जनमेजय, जनमेजयसे धृतराष्ट्र और धृतराष्ट्रसे प्रतीप
नामकी निरुक्ति (शान्ति० ३३९ । ३७-३८)। ये हुए। किंतु आदिपर्व ९५ । ३९-४४ के वर्णनके
श्रीकृष्णके तीसरे स्वरूप माने जाते हैं (अनु० १५८ । अनुसार कुरुसे विदूर, विदूरसे अनश्वा, अनश्वासे परीक्षित्,
३९)। श्रीकृष्णसे ब्राह्मणकी महिमाके विषयमें पूछना परीक्षितसे भीमसेन, भीमसेनसे प्रतिश्रवा और प्रतिश्रवासे
(अनु० १५९ । ४-७)। ये युधिष्ठिरके अश्वमेधयज्ञमें प्रतीपका जन्म हुआ था। इनकी पत्नीका नाम शैव्या
इस्तिनापुर आये थे ( आश्व० ६६ । ३)। मौसल-युद्धमें सुनन्दा था; उससे इनके तीन पुत्र हुए देवापि, शान्तनु
इनका भोजोंके साथ युद्ध और उनके द्वारा इनका वध तथा बाह्रीक (आदि० ९४ । ६१, आदि० ९५ । ४४)।
(मौसल.३।३३-३५)। मरणोपरान्त ये सनकुमारके इनके पास मनस्विनी गङ्गा सुन्दर रूप और उत्तम गुणोंसे
स्वरूपमें प्रविष्ट हो गये ( स्वर्गा० ५। १३)। युक्त युवती स्त्रीका रूप धारण करके गयीं और इनके दाहिने ऊरुपर जा बैठी तथा इनके पूछनेपर उन्होंने इनकी प्रद्योत-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी सेवा पत्नी बननेकी कामना प्रकट की। तब इन्होंने उनका करता है (सभा०१०।१५)। पुत्रवधुके रूपमें वरण किया (आदि. ९७ । १-१६)। प्रधान-एक प्राचीन राजर्षि, इन्हींके कुलमें सुलभा उत्पन्न इनका एक दिव्य नारीको पत्नीरूपमें स्वीकार करनेके लिये हुई थी, जिसके साथ विदेहराज जनकका संवाद हुआ था अपने पुत्र शान्तनुको आदेश देना (आदि. ९७।२१- (शान्ति. ३२०। १८४)।
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प्रबालक
( २०८ )
प्रमद्वरा
प्रबालक-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी नामक ज्योतिर्लिङ्गका स्थान यहीं है।) यहाँ तीर्थउपासना करता है (सभा० १०।१७)।
यात्राके अवसरपर अर्जुनका श्रीकृष्णसे मिलन (आदि. प्रबाह-कौरव-पक्षका एक योद्धा, जिसने अभिमन्युपर बाण
२१७ । ४)। प्रभासतीर्थमें श्रीकृष्णने एक हजार दिव्य वर्षा की थी (द्रोण० ३७ । २६)।
वर्षांतक एक पैरसे खड़े होकर तपस्या की थी (वन० प्रभञ्जन-ये मणिपूरनरेश चित्रवाहन के पूर्वज थे, इनके कोई
१२ । १५-१६)। यहाँ अग्निदेव निवास करते हैं, पुत्र नहीं था, अतः इन्होंने उत्तम तपस्या आरम्भ की ।
इस तीर्थमें स्नान करके संयतचित्त मानब अतिरात्र और
अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता है (वन० ८२ । ५८उस उग्र तपस्याद्वारा देवाधिदेव महेश्वर संतुष्ट हो गये और उन्होंने राजाको वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारे कुलमें
६०)। तीर्थयात्राके समय भाइयोसहित युधिष्ठिर यहाँ एक-एक संतान होती जायगी ( आदि. २१४ ।
आये थे और इस स्थानपर उन्होंने तपस्या की थी १९-२१)।
(वन०१८ । १५-१८)। प्रभास तीर्थ इन्द्रको प्रभद्रक-पाश्चालोका एक क्षत्रिय-दल, जो पाण्डवपक्षमें
बहुत प्रिय है। यह पुण्यमय क्षेत्र और पापोंका नाश करनेवाला आया था ( उद्योग० ५७ । ३३)। ये प्रायः धृष्टद्युम्न
है ( वन० १३० । ७) । इसके प्रभावका विशेषरूपसे और शिखण्डीका अनुगमन करते थे(भीष्म १९ ।
वर्णन ( शल्य० ३५ । ४१-८२)। यहाँ स्नान २२, भीष्म० ५६ । १४)। ये अधिकतर शल्यद्वारा
करनेसे मनुष्य विमानपर बैठकर स्वर्गमें जाता है और मारे गये थे (शल्य. ११ । २४) । रातमें सोते
अप्सराएँ वहाँ स्तुति करती हुई उसे जगाती हैं (अनु० समय अश्वत्थामाद्वारा प्रभद्रकोंका वध हुआ था (सौप्तिक०
२५।९)। यहाँ ही यदुवंशियोंका परस्पर युद्ध करके
विनाश हुआ था ( मौसल.३ । १०-४६)। ८।६६)।
प्रभास तीर्थसे ही बलरामजी तथा भगवान् श्रीकृष्ण परम प्रभा-१)एक देवी, जो ब्रह्माकी सभामें रहकर उनकी
धाम पधारे थे (मौसल.४ अध्याय ) । (३) उपासना करती हैं (सभा०११।४)। (२)
स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ६९)। अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्रजीके स्वागत समारोहमें नृत्य किया था ( अनु० १९ । ४५)। प्रभु-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५ । ५८)। प्रभाकर-(१) एक कश्यपवंशी प्रमुख नाग ( आदि प्रमतक-एक ऋषि, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें सदस्य बने
३५ । १५ )। (२) कुशद्वीपका छठा वर्षखण्ड थे (आदि० ५३।७)। (भीष्म १२ । १३)।
प्रमति ( या प्रमिति )-च्यवन ऋषिके पुत्र । इनकी माताप्रभाता-ये धर्मकी पत्नी थीं और प्रत्यूष तथा प्रभास
का नाम सुकन्या था (आदि० ५। ९, आदि००। नामक दो वसु इन्हींके पुत्र थे ( आदि० ६६।
१)। इनके घृताची अप्सराके गर्भसे रुरु नामक पुत्र १७-२०)।
उत्पन्न हुआ था (आदि०८।२)। इनका रुरुके प्रभावती-(१) मयदानवके निवास स्थानपर तपस्या
लिये स्थूलकेश मुनिसे उनकी प्रमद्वरा नामक कन्याको करनेवाली एक तपस्विनी, जो सीताजीकी खोजके लिये
माँगना ( आदि०८।१५)। इनका रुरुको आस्तीकगये हुए वानरोसे मिली थी (वन० २८२ । ४१)।
पर्वकी कथा सुनाना ( आदि० ५८ । ३०-३१)। शर(२) ये सूर्यदेवकी पत्नी थीं ( उद्योग. ११७ ।
शय्यापर पड़े हुए भीमके पास उनकी मृत्युके समय ८)। (३) स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य.
ये भी पधारे थे ( अनु० २६ । ५)। कहीं-कहीं इन्हें ४६ । ३) । (४) अङ्गराज चित्ररथकी पत्नी, जो
वीतहव्य के पुत्र गृत्समद के कुलमें जन्म लेनेवाले वागीन्द्रका देवशर्माकी पत्नी रुचिकी बड़ी बहिन थी (अनु०४२। पुत्र बताया गया है (अनु० ३० । ५०-६४)। ८)। इसका अपनी बहिन रुचिसे दिव्य पुष्प मँगवा प्रमथ-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि. ११६ । देनेके लिये अनुरोध (अनु. ४२ । १०)।
१३)। प्रभास-(१)ये धर्मके द्वारा प्रभाताके गर्भसे उत्पन्न
प्रमथगण-शिवजीके गण, इनके द्वारा धर्माधर्मसम्बन्धी हुए थे, इनकी गणना वसुओंमें है ( आदि० ६६। रहस्यका कथन ( अनु० १३१ अध्याय )। १७-२०)। (२) एक प्राचीन तीर्थ ( आदि० प्रमदावन-राजमहलोंमें रानियोंके विहारके लिये बने हुए २१७ । ३)। यह पश्चिम समुद्रतटपर सौराष्ट्र देश उपवन (वन० ५३ । २५)। ( काठियावाड़) में है, यह देवताओंका तीर्थ है (वन० प्रमद्वरा-हरुकी पत्नी तथा शुनक ऋषिकी माता जो ८८।२०)। (इसे सोमतीर्थ भी कहते हैं, सोमनाथ विश्वावसु और मेनकासे उत्पन्न हुई थी। इसकी उत्पत्ति स्थूल
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प्रमाणकोटि
प्रवरा
केशद्वारा इसके लालन-पालन, नामकरण एवं विवाहकी मिली हैं। गङ्गा-यमुनाका मध्यभाग पृथ्वीका जघन माना कथा (आदि० ५। १०; आदि०८।५-१५)। इसका गया है। प्रयाग जघनस्थानीय उपस्थ है। प्रतिष्ठानपुर सपसे इंसा जाना (आदि०८।१८)। मृत्युको प्राप्त ( सी), प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवती हुई प्रमद्वराका पतिकी आयुसे जीवित होना (आदि. तीर्थ ब्रह्माजीकी वेदी है । उस तीर्थ में वेद और यज्ञ ९।१५) ।
मूर्तिमान् होकर रहते हैं तथा प्रजापतिकी उपासना करते प्रमाणकोटि-गङ्गाके तटपर स्थित एक तीर्थ, जहाँ प्रमाण- हैं । तपोधन ऋषि, देवता तथा चक्रवर्ती सम्राट् वहाँ
कोटि नामसे प्रसिद्ध एक विशाल वट-वृक्ष था । यहीं यशोद्वारा भगवान्का यजन करते हैं। इसीलिये तीनों दुर्योधन ने भीमसेनको विष खिलाकर गङ्गाजलमें डाल दिया
लोकों में प्रयागको सब तीर्थोकी अपेक्षा श्रेष्ठ एवं पुण्यतम था (आदि० ६१ । ११; आदि० १२७ । ५४) । यहाँ
बताया गया है। इस तीर्थमें जाने अथवा इसका नाम प्रथम दिन पाण्डवोका रात्रि-वास (वन०। । ४१-४२)
लेनेमात्रसे भी मनुष्य मृत्युकालके भय और पापसे मुक्त
हो जाता है ( वन० ८५ । ६९-८०)। प्रयागके प्रमाथ-यमरानद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक
विश्वविख्यात त्रिवेणी-सङ्गममें स्नान करनेसे राजसूय और दूसरेका नाम उन्माय था (शल्य० ४५ । ३०)।
अश्वमेध योंके फलकी प्राप्ति होती है । यह देवताओंद्वारा प्रमाथी-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि.
संस्कार की हुई यज्ञभूमि है । यहाँ दिया हुआ थोड़ा सा ११६ । १३)। इसका भीमसेनके साथ युद्ध तथा उनके भी दान महान् होता है । प्रयागमें ही साठ करोड़ दस द्वारा वध (द्रोण. १५७ । १७-१९) । (२) यह
हजार तीर्थों का निवास है। चारों विद्याओंके ज्ञानसे तथा दूषण राक्षसका छोटा भाई था ( वन० २८६ । २७)। सत्यभाषणसे जो पुण्य होता है, वह सब गङ्गा-यमुनाके इसका लक्ष्मणके साथ युद्ध करते समय वानर-सेनापति
सङ्गममें स्नान करनेमात्रसे प्राप्त हो जाता है। यहाँ वासुकिका नीलद्वारा मारा जाना ( वन० २८७ । २२-२७)। भोगवती नामक उत्तम तीर्थ है। जो उसमें स्नान करता (३) घटोत्कच का साथी एक राक्षस, जिसका दुर्योधन
है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है । प्रयागमें ही द्वारा वध हुआ या (भीष्म० ९१ । २०-२१)। हंसप्रपतन नामक तीर्थ है और वहीं गङ्गाके तटपर प्रमाथिनी-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधार- दशाश्वमेधिक तीर्थ है । प्रयागमें गङ्गास्नानका महत्व सबसे कर नृत्य किया था (श्रादि१२२। ६३)।
अधिक है (वन० ८५। ८१--८८)। गङ्गा-यमुनाका प्रमुव-दक्षिण दिशामें रहनेवाले एक महर्षि (शान्ति.
पुण्यमय सङ्गम सम्पूर्ण जगत्में विख्यात है । बड़े-बड़े
महर्षि उसका सेवन करते हैं। यहाँ पूर्वकालमें पितामह २०८ । २९)।
ब्रह्माजीने यज्ञ किया था। उनके उस प्रकृष्ट यागसे ही इस प्रमोद-(१) ऐरावत कुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो
स्थानका नाम प्रयाग हो गया (वन० ८७ । १८-१९)। जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था (आदि. ५७ । ११)।
पाण्डवोंने देवताओंकी यज्ञभूमि प्रयागमें पहुँचकर यहाँ (२) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६५)।
गङ्गा-यमुनाके सङ्गममें स्नान किया और कुछ दिनोंतक वे प्रम्लोचा-दस प्रमुख अप्सराओंमेंसे एक । यह अर्जुनके वहाँ उत्तमतपस्यामें लगे रहे (वन०९५। ४-५)। प्रयाग
जन्म-महोत्सवमें वहाँ गयी थी (आदि. १२२ । ६५)। राजमें माधमासकी अमावास्याको तीन करोड़ दस हजार यह कुबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना करती है तीर्थोंका समागम होता है (अनु० २५ । ३५-३६)। (सभा० १०।११)।
प्रयत-एक देव-गन्धर्व, जो कश्यपद्वारा मुनिके गर्भसे उत्पन्न प्रयाग-गङ्गा और यमुनाके सङ्गमपर स्थित एक विख्यात
हुआ था (भादि. ६५ । ४३)। तीर्थ, वहाँ गङ्गा-यमुनाके सङ्गममें स्नान करनेवाला पुरुष पक-राक्षसों और पिशाचोंका दल (वन० २८५ । दस अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है (वन० ८४ । ३५)। महर्षियोंद्वारा प्रशंसित
१२)। प्रयाग-तीर्थमें ब्रह्मा आदि देवता, दिशा दिक्पाल, लोक
प्रलम्ब-(१) कश्यप और दनुसे उत्पन्न एक प्रसिद्ध पाल, साध्य, लोकसम्मानित पितर, सनकुमार आदि
दानव (आदि० ६५ । २९)। (२) एक असुर, महर्षि, अङ्गिरा आदि निर्मल ब्रह्मर्षि, नाग, सुपर्ण, सिद्ध,
जिसे भीकृष्णके अभिन्नस्वरूप बलराम जीने मारा था सूर्य, नदी, समुद्र, गन्धर्व, अप्सरा तथा ब्रह्माजीसहित (द्रोण. ११ । ५; शल्य० ४७ । १३)। भगवान् विष्णु निवास करते हैं। वहाँ तीन अग्निकण्ड है, प्रवरा-एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते है जिनके बीचसे गङ्गा बहती हैं। यहाँ यमुना गङ्गाके साथ (भीष्म०९।२३)।
म. ना०२७
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प्रवसु
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( २१० )
प्रवसु-ये महाराज ईलिनके द्वारा रथन्तरीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे, इनके चार भाई और थे— दुष्यन्त, शूर, भीम तथा वसु ( आदि० ९४ । १७-१८ ) ।
प्रवह-प्राण, अपान आदि वायुभेदोंमें सातवाँ वायु, जो ऊर्ध्वगामी होता है ( शान्ति० ३०१ । २७ ) | यह धूम और गर्मी से उत्पन्न हुए बादलों को इधर-उधर चहाता है और प्रथम मार्ग में प्रवाहित होता है ( शान्ति० ३२८ । ३६)।
प्रवालक-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० १०।१७ I प्रवाह-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६४ )। प्रवीर - (१) ये रुके पुत्र थे। इनकी माताका नाम पौष्टी था। इनके दो भाई और थे - ईश्वर और रौद्राश्व । इनके द्वारा शूरसेनी के गर्भ से मनस्यु नामक पुत्रका जन्म हुआ था ( आदि ० ९४ । ५-६ ) । इनका दूसरा नाम जनमेजय था । इन्होंने तीन अश्वमेध यज्ञों और विश्वजित् यज्ञका अनुष्ठान करके वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया था ( आदि० ९५ । ११) । (२) एक क्षत्रिय कुल, जिसमें वृषध्वज नामका कुलाङ्गार राजा उत्पन्न हुआ था ( उद्योग० ७४ । १६ ) । प्रवेणी - इस नदी के उत्तर तटपर कण्व मुनिका आश्रम है,
जहाँ माटरका विजयस्तम्भ है ( वन० ८८ । ११ ) । प्रवेपन - तक्षक- कुलका एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में
जलकर भस्म हो गया ( आदि० ५७ ।९ ) । प्रशमी - अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्रके
स्वागत समारोह में नृत्य किया था ( अनु० १९ । ४५ ) । प्रशस्ता - एक समुद्रगामिनी पुण्यमयी नदी, जहाँ तीर्थयात्रा के समय भाइयों सहित युधिष्ठिर गये थे और वहाँ उन्होंने स्नान, तर्पण, दान आदि किया था ( वन० ११८ । २–३ ) ।
प्रशान्तात्मा - सूर्यदेवका एक नाम ( वन० ३ । २७ )। प्रसन्धि-ये वैवस्वत मनुके पुत्र थे । इनके पुत्रका नाम क्षुप था ( आश्व ० ४ । २ ) ।
प्रसुह्म-एक प्राचीन देश, जिसे भीमसेनने पूर्वदिग्विजय के समय जीता था ( सभा० ३० । १६ ) ।
प्रसृत- एक दैत्य, जिसका गरुडद्वारा वध हुआ था ( उद्योग ० १०५ । १२ ) ।
प्रसेन - यह कर्णका पुत्र था । सात्यकिद्वारा इसका वध हुआ था ( कर्ण० ८२ । ६ )।
पत्नी प्रसेनजित् - ( १ ) एक राजा, जो महाभौमकी सुयज्ञाके पिता थे। इन्होंने एक लाख सवत्सा गौओंका दान करके उत्तम लोक प्राप्त किया था ( आदि० ९५ । २०,
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शान्ति० २३४ । ३६ ) । ये यमराजकी सभा में रद्दकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । २१ ) । (२) एक राजा, जो रेणुकाके पिता थे। इनके द्वारा जमदग्निको अपनी पुत्री रेणुकाका दान ( वन० ११६ । २ ) | ( किसी-किसीके मतमें सुयज्ञाके पिता और रेणुकाके पिता एक ही हैं ) । ( ३ ) एक यादव, जो सत्राजित् के भाई थे । ये दोनों भाई जुड़वें पैदा हुए थे और कुबेरोपम सद्गुणोंसे सम्पन्न थे । इनके पास जो स्यमन्तकमणि थी, वह प्रतिदिन प्रचुर सुवर्णराशि झरती रहती थी ( सभा० १४ । ६० के बाद दा० पाठ ) ।
प्रस्थल - एक कर्ण
४७ )।
प्रह्लाद
अत्यन्त निन्दित देश, जिसका वर्णन शल्यके प्रति किया था ( कर्ण० ४४ ।
प्रस्थला - सुशर्माकी राजधानी ( भीष्म० ११३ । ५२ ) । प्रहस्त - रावण के परिवारका एक राक्षस, जिसने विभीषण के
साथ युद्ध किया था ( वन० २८५ । १४ ) । विभीषणद्वारा इसका वध ( वन० २८६ । ४ ) ।
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प्रहास- ( १ ) धृतराष्ट्र-वंश में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में स्वाहा हो गया (आदि० ५७ । १६ ) । ( २ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६८ ) । प्रह्लाद - ( १ ) हिरण्यकशिपुका प्रथम पुत्र । इनकी माताका नाम कयाधु था । इनके तीन पुत्र थे विरोचन, कुम्भ और निकुम्भ ( आदि० ६५ । १७-१९ ) । ये वहणसभामें रहकर वरुणकी उपासना करते हैं ( सभा० ९ | १२ ) । ब्रह्माजी की सभा में भी उनकी सेवा के लिये उपस्थित होते हैं ( सभा० ११ १९ ) । विदुरका इनका दृष्टान्त प्रस्तुत करना ( सभा० ६८ । ६५६६ ) । इनके द्वारा बलिके प्रति तेज और क्षमाके अवसरका वर्णन ( वन० २८ । ६-३३ ) । विरोचन और सुधन्वा संवादमें इनका निर्णय ( उद्योग ०६५ । ३५-३६ ) । ब्राह्मण-वेषमें शिष्यरूपसे प्रार्थना करनेपर इनके द्वारा इन्द्रको शीलका दान ( शान्ति० २८- ६२ ) | उशनाने इन्हें दो गाथाएँ सुनार्थी (शान्ति० १३९ । ७०-७२ ) । इनका एक अवधूतसे आजगरवृत्तिकी प्रशंसा सुनना ( शान्ति० १७९ अध्याय ) | इनका इन्द्रके साथ संवाद शान्ति० २२२ । ९(३५) । ये पृथ्वीके प्रधान शासकों में से एक हैं ( शान्ति० 1)। स्कन्दकी गाड़ी हुई शक्तिके उखाड़ने में इनका असफल होना ( शान्ति० ३२७ । १८-१९ ) । महाभारतमें आये हुए प्रह्लाद के नाम -- असुराधिपः
१२४ ।
२२७ । ५०
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प्राकृत
( २११ )
प्लक्षजाता
असुरेन्द्र, दैतेय, दैत्य, दैत्यपति, दैत्येन्द्र, दानव आदि। प्रातर-कौरव्य-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके (२) बाह्रीकवंशीय एक क्षत्रिय राजा, जो शलभ सर्पसत्रमें दग्ध हो गया (आदि. ५७ । १३)। नामक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि. ६७ । प्रातिकामी-दुर्योधनका सारथि ( सभा०६७ । २-३)। ३०-३१)। (३) एक नाग, जो वरुणसभामें उपस्थित इसका द्रौपदीको कौरव-सभामें बुलानेके लिये जाना हो वरुणकी उपासना करता है (सभा०९।१०)। (सभा. ६७।४)। द्रौपदीके साथ इसका संवाद
(४)एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४६)। और उनकी कही हुई बातको सभामें आकर कहना प्राकृत-एक यज्ञ, जो बारह दिनोंमें सम्पन्न होता है (वन० (सभा०६७ । ४-१७)। इसके मारे जानेकी चर्चा १३४ । १९)।
(शल्य० ३३ । ४९)। प्राक्कोसल-पूर्वकोसल देश, जो दक्षिण भारतमें पड़ता है। प्राधा-दक्ष प्रजापतिकी पुत्री, एवं कश्यपकी पत्नी । अनइसे सहदेवने जीता था (सभा० ३१ । १३)।
वद्या आदि आठ कन्याएँ और दस देवगन्धर्व भी इन्हींकी प्राग्ज्योतिषपुर-एक प्राचीन नगर, जो भौमासुर ( नरका
संतानें हैं। ये हाहा, हूहू, तुम्बुरु और असिबाहु नामक सुर)की राजधानी था (सभा० ३८ । २९ के बाद
चार श्रेष्ठ गन्धर्वो तथा अलम्बुषा आदि तेरह कन्याओं-अप्सदाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८०७)। भौमासुरके बाद यहाँके
राओंकी जननी हैं (आदि०६५। १२, ४५-५१)। प्रधान राजा भगदत्त हुए थे ( सभा० २६ । ७-८)। प्राप्ति-(१) धर्मपुत्र शमको भार्या ( आदि. ६६ । यह असुरोंका एक अजेय दुर्ग था । पूर्वकालमें यहीं नरका- ३३) । (२) जरासंधकी पुत्री । कंसकी पत्नी और सहसुर निवास करता था (उद्योग. ४८। ८०)। देवकी छोटी बहिन । इसकी दूसरी बहिनका नाम अस्ति भगदत्तके बाद यहाँके राजा वज्रदत्त हुए (आश्व. था, वह भी कसकी ही पत्नी थी (सभा. १४ । ३०७५१)।
३१)। प्राङनदी-यहाँ जानेसे द्विज कृतार्थ हो इन्द्रलोकमें जाता है।
प्रावरक (प्रावार)-क्रौञ्चद्वीपका एक देश ( भीष्म (वन.८४ । १५९)।
१२ । २२)। प्राचिन्वान-महाराज पुरके पौत्र एवं जनमेजयके पुत्र। प्रावारकर्ण-हिमालयनिवासी चिरंजीवी एक उलूक (वन० इनकी माताका नाम अनन्ता था । इन्होंने उदयाचल- १९९।४)। से लेकर सारी प्राची दिशाको एक ही दिनमें जीत लिया प्रावषय-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ५। ५०)। था, इसीलिये इनका नाम प्राचिन्वान् हुआ। इनके द्वारा अश्मकीके गर्भसे संयातिका जन्म हुआ (आदि०९५।
प्रियक-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५ । ६५)। १२-१३)।
प्रियदर्शन-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ५९)। प्राचीनबर्हि-अत्रि-कुलमें उत्पन्न एक ऐश्वर्यशाली नरेश, प्रियभृत्य-एक प्राचीन राजा ( आदि० १ । २३६)।
जो दस प्रचेताओंके पिता थे (शान्ति० २०८ । ६)। प्रियमाल्यानुलेपन-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य ४५ । ये मनुवंशी हविर्धामाके पुत्र थे। इनसे दस प्रचेता हुए ६.)। (अनु० १४७ । २४-२५)।।
प्रेक्षागृह-उत्सव या नाटक आदिको सुविधापूर्वक देखनेके प्राचेतस-दक्षप्रजापति, दस प्रचेताओंद्वारा वाक्षी या मारिषा- लिये बनाया गया भवन । राजकुमारोंके अस्त्रकौशलके के गर्भसे उत्पन्न ( भादि. ७५। ५)। ( देखिये प्रदर्शनके समय इसे द्रोणाचार्यने शिल्पियोद्वारा बनवाया था
(आदि. १३३ । ११)। इस दिव्यभवनमें गान्धारी, प्राच्य-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९। ५८)। कुन्ती आदि राजरानियोंका अस्त्रकौशल देखनेके लिये आगप्राजापत्य-एक प्रकारका विवाह । वर और कन्या दोनों मन (आदि. १३३ । १५)। वहाँ राजकुमारोंका अस्त्र
साथ रहकर धर्माचरण करें, इस बुद्धिसे कन्यादान करना काशल-प्रदर्शन (आदि० अध्याय १३३ से १३५ तक)। प्राजापत्य विवाह माना गया है (आदि० ७३ । ८)। प्रोषक-एक पश्चिम भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६९)। प्राण-सोम नामक वसुके द्वारा मनोहराके गर्भसे उत्पन्न । प्रोष्ठ-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९।६१)। ये वचोके छोटे भाई थे। इनके दो भाई और थे--- प्लक्षजाता-प्लक्ष (पाकर ) की जड़से प्रकट हुई सरस्वती । शिशिर एवं रमण (आदि. ६६ । २१)।
गङ्गाकी सात धाराओंमेंसे एक । इनका जल पीनेसे मनुष्यके प्राणक-प्राण नामक अग्निके पुत्र (वन० २२० । १)। पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं ( आदि० १६९ । २०-२१)।
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लक्षप्रस्रवणतीर्थ
( २१२ )
बभ्रुवाहन
A
nimamaARA
प्लक्षप्रस्रवणतीर्थ-एक तीर्थ, यहसि सरस्वती नदी प्रकट बदरीपाचन (या बदरपाचन) तीर्थ-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत हुई है ( शल्य० ५४।११)।
एक तीर्थ, यहाँ तीन रात उपवास करके बेरका फल खाकर प्लक्षवती-एक नदी, जो सायं प्रातः कीर्तन करने योग्य है बारह वर्षों तक रहनेपर मनुष्य वसिष्ठके समान हो जाता है (अनु० १६५ । २५)।
(वन० ८३ । १७९-१८१)। प्लक्षावतरण-यमुनाके उद्गमसे सम्बन्ध रखनेवाला एक बदरीवन-एक पुण्यतीर्थ, जिसके निकट विशालापुरी है। पुण्यतीर्थ, जो स्वर्गका द्वार है (वन. ९.। ४ वन. यह सब मिलकर बदरिकाश्रम तीर्थ है (वन०९०।२५)। १२९ । १३)।
इसका विस्तारपूर्वक वर्णन (वन० १५५ । १३-२४)। (फ)
बधिर-कश्यपवंशी एक नाग ( उद्योग०७४ । १६)। फलकक्ष-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी सेवा
वा बन्धुदायाद-कुटुम्बी होनेसे उत्तराधिकारी पुत्र (आदि.
ब करता है ( सभा० १० । १६)।
११९ । ३२-३३)। छः प्रकारके पुत्र बन्धुदायाद कहफलकीवन-एक तीर्थ, जहाँ देवतालोग सदा निवास करते लाते हैं। जिनके नाम इस प्रकार है-१. स्वयंजात' (जो हैं और अनेक सहस्र वर्षोंतक भारी तपस्यामें लगे रहते हैं अपनी विवाहिता पत्नीके गर्भसे अपने ही द्वारा उत्पन्न (वन० ८३ । ८६-८७)।
हो)। २. प्रणीत' ( जो अपनी पत्नीके गर्भसे किसी फलोदक-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी सेवा उत्तम पुरुषके अनुग्रहसे उत्पन्न हो)। ३. 'पुत्रिकापुत्र' करता है (सभा० १० । १६)।
(जो अपनी पुत्रीका पुत्र हो )। ४. पौनर्भव' (जो फल्गु-एक नदी और तीर्थ, यहाँ जानेसे अश्वमेधयशका
दूसरी बार ब्याही हुई स्त्रीसे उत्पन्न हुआ हो)। ५. फल मिलता है और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त होती है । यहाँ
'कानीन' ( विवाहसे पहले ही जिस कन्याको इस शर्तके
साथ दिया जाता है कि इसके गर्भसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र पितरोंके लिये दिया हुआ अन्न अक्षय होता है (वन.
मेरा ही पुत्र समझा जायगा, उस कन्यासे उत्पन्न)। ६. ८४ । ९८; वन० ८७ । १२)।
भानजा (बहिनका पुत्र)। फाल्गुन-(१) अर्जुनका एक नाम । हिमालयके शिखर - पर उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें अर्जुनका जन्म हुआ था। इस
बभ्र-(१) एक वृष्णिवंशी यादव, जो रैवतक पर्वतके लिये इनका एक नाम फाल्गुन भी है ( विराट.४४ । ९,
महोत्सवमें सम्मिलित थे ( आदि. २१८ । १०)। यदु१६)। (२) बारह मासोंमें एक मास । (जिस मासकी
बंशियोंके सात प्रधान महारथियोंमें एक ये भी थे। (सभा. पूर्णिमाको पूर्वाफाल्गुनी अथवा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रका योग
१४ । ६० के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। द्वारका जाते हो, उसे फाल्गुन मास कहते हैं, जो माघ मासके बाद और
कहते हैं, जो माघ मासके बाद और समय इन तपस्वी बभ्र की पत्नीको शिशुपालने हर लिया था चैत्र मासके पूर्व आता है।) जो फाल्गुन मासको एक (सभा० ४५।१०)। इन्होंने भी श्रीकृष्णके पास ही समय भोजन करके व्यतीत करता है, वह अपनी
बने हुए पेय पदार्थको पीया था (मौसल० ३ । १६-१७)। स्त्रीको प्रिय होता है और वह उसके अधीन रहती है व्याधके बाणसे लगे हुए एक मूसलद्वारा इनकी मृत्यु हुई (अनु० १०६ । २२)। इस मासकी द्वादशी तिथिको
थी (मौसल. १। ५-६ ) । शान्तिपर्वके ८१ । १७ में उपवासपूर्वक गोविन्दनामसे भगवान्की पूजा करनेवाला अक्रूरके लिये भी बभ्रु शब्दका प्रयोग आया है। (२) पुरुष अतिरात्र यशका फल पाता है और मृत्युके पश्चात् श्रीकृष्णके कृपापात्र काशीके नरेश । ये श्रीकृष्णकी कृपासे सोमलोकमें जाता है ( अनु० १०९ । ६ )।
राच्यलक्ष्मीको प्राप्त हुए थे (उद्योग. २८ । १३)। (३) ये मत्स्यनरेश विराटके एक वीर पुत्र थे ( उद्योग
५७ । ३३)। (४) महर्षि विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंबदरिका (या बदरी)-सुप्रसिद्ध बदरिकाश्रमतीर्थ, जहाँ ।
मेंसे एक (अनु०४।५०)। पूर्वकालमें नर-नारायणने अनेक बार दस-दस हजार वर्षातक तपस्या की थी (वन०४०१)। इस तीर्थमें स्नान
बभ्रमाली-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान करके मनुष्य दीर्घायु पाता और स्वर्गलोकमें जाता है होते हैं ( सभा० ४ । १६)। (वन०८५। १३)। पाण्डवोंने यहाँकी यात्रा की थी। बभ्रवाहन-राजा चित्रवाहनकी पुत्री चित्राङ्गदाके गर्भसे यहाँ नर-नारायणका आश्रम और 'अलकनन्दा' नामक अर्जुनद्वारा उत्पन्न एक वीर राजा (आदि० २१६ । भागीरथीकी धारा है। यहाँकी प्राकृतिक सुषमाका वर्णन २४)। चित्रवाहनने अर्जुनको अपनी कन्या देनेसे पहले (वन. १४५ अध्याय)।
ही यह शर्त रख दी थी कि इसके गर्भसे जो एक पुत्र हो।
(ब)
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बभ्रुवाहन
( २१३ )
बल
वह यहीं रहकर इस कुलपरम्पराका प्रवर्तक हो। इस कन्या- (आश्व० ८८ ॥ १-५) । अन्तःपुरसे आकर बभ्रुवाहनका के विवाहका यही शुल्क आपको देना होगा। तथास्तु' राजा धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और कहकर अर्जुनने वैसा ही करनेकी प्रतिशा की । पुत्रका जन्म
भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करना और उन सबके द्वारा हो जानेपर उसका नाम बभ्रवाहन' रखा गया। उसे देख
धन आदिसे सत्कृत होना । श्रीकृष्णका बभ्रुवाहनको कर अर्जुनने राजा चित्रवाहमसे कहा-महाराज! इस बभ्रवाहनको आप चित्राङ्गदाके शुल्करूपमें ग्रहण कीजिये ।
दिव्य अश्वोसे जुता हुआ सुवर्णमय रथ प्रदान करना (आश्व० इससे मैं आपके ऋणसे मुक्त हो जाऊँगा।' इसके अनुसार
८८ । ३-११)। राजा युधिष्ठिरका बभ्रुवाहनको बहुत ये धर्मतः चित्रवाहनके पुत्र माने गये ( आदि० २१४ ।
धन देकर विदा करना (आश्व० ८९ । ३४) । २४-२६, आदि. २१६ । २४-२५) । अपने पिता महाभारतमें आये हुए बभ्रुवाहनके नाम-बभ्रुवाह, अर्जुनको मणिपूरके समीप आया जान इनका बहुत-सा धन चित्राङ्गदासुत, चित्राङ्गदात्मज, धनंजयसुत, मणिपूरपति, साथमें लेकर उनके दर्शनके लिये नगरके बाहर निकलना मणिपुरेश्वर आदि । (आश्व० ७९।१)। क्षत्रियधर्मके अनुसार युद्ध न
बर्बर-एक प्राचीन देश तथा वहाँके निवासी । इनकी गणना करनेके कारण अर्जुनका इन्हें धिक्कारना (आश्व०७१। ३
उन म्लेच्छ जातियोंमें है, जिनकी उत्पत्ति नन्दिनीके पार्श्व.)। उलूपीके प्रोत्साहन देनेपर इनका अर्जुनके साथ युद्ध करनेके लिये उद्यत होना और अश्वमेधसम्बन्धी अश्व
भागसे हुई है ( आदि० १७४ । ३७)। ये भीमसेनद्वारा
पूर्व दिग्विजयके समय जीते गये थे (सभा०३०।१४)। को पकड़वा लेना (आश्व० ७९ । 6-10)। पिता
नकुलने भी पश्चिमदिग्विजयके समय इन्हें जीतकर भेंट और पुत्रमें परस्पर अद्भुत युद्ध और बभ्रुवाहनका अर्जुन
वसूल किया था (सभा० ३२। १७)। ये युधिष्ठिरके को मूर्छित करके स्वयं भी मूर्छित होना (आश्व०७९ ।
राजसूय यज्ञमें भेंट लेकर आये थे (सभा० ५१ । २३)। १८–३७ ) । मूर्छासे जगनेपर बभ्रुवाहनका विलाप
और आमरण अनशनके लिये प्रतिज्ञा करके बैठना (आश्व. बर्हि-एक देवगन्धर्व । कश्यपके द्वारा प्राधाके गर्भसे उत्पन्न ८० । २१-४०)। उलूपीका बभ्रुवाहनको सान्त्वना दस देवगन्धर्वोमसे एक (आदि० ६५ । ४६)। देकर उनके हाथमें दिव्यमणि प्रदान करना और उसे पिता
बर्हिषद-(१) पितरोंका एक दल, जो यमकी सभामें विराके वक्षःस्थलपर रखनके लिये आदेश देना (भाव...।
जमान होते हैं (सभा. ८ । ३.)। ये मृत व्यक्तिके ४२-५०)। मणिके स्पर्शसे जीवित हुए पिताको बभ्र
लिये मन्त्रपाठकी अनुमति प्रदान करते हैं (शान्ति. वाहनका प्रणाम करना और पिताका पुत्रको गलेसे लगाना
२६९ । १५)। (२) त्रिलोकीको उत्पन्न करनेमें समर्थ (भाश्व० ८० । ५१-५६) । अर्जुनका बभ्रुवाहनसे युद्ध
पूर्व दिशानिवासी सप्तर्षियोंमें एक ये भी हैं (शान्ति. स्थलमें उलूपी और चित्राङ्गदाके उपस्थित होनेका कारण
२०८ । २७-२८)। ब्रह्माजीने इन्हें सात्वतधर्मका उपपूछना और बभ्रुवाहनका उलूपीसे ही पूछनेकी प्रार्थना करना
देश दिया था और इन्होंने ज्येष्ठ नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण(आश्व० ८० । ५७-६१)। उलूपीसे सब समाचार सुन
को इस धर्मका उपदेश दिया (शान्ति० ३४८ । ४५-४६)। कर प्रसन्न हुए अर्जुनका बभ्रुवाहनको अपनी दोनों माताओंके साथ युधिष्ठिरके अश्वमेध यज्ञमें आनेके लिये निमन्त्रण बल-(१) कश्यपके द्वारा दनायुके गर्भसे उत्पन्न एक देना ( आश्व०८१।१---२४)। पिताकी आशा शिरो असर । इसके तीन भाई और थे, जिनके नाम हैंधार्य करके बभ्रुवाहनका पितासे नगरमें चलनेके लिये अनु- विक्षर, वीर और वृत्र (आदि० ६५ । ३३) । यही रोध करना और अर्जुनका कहीं भी टहरनेका निवम नहीं पाण्ड्यदेशके राजाके रूपमें उत्पन्न हुआ था (आदि. है। ऐसा कहकर पुत्रसे सत्कारपूर्वक विदा ले वहाँसे प्रस्थान ६७ । ४२)। इन्द्रद्वारा इसके पराजित होनेकी चर्चा करना ( आश्व० ८१ । २६-३२) । अर्जुनका संदेश (वन० १६८ । ८१)। (२) वरुणके वीर्यसे उनकी सुनाते हुए श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे राजा बभ्रुवाहनके भावी ज्येष्ठ पत्नी देवीके गर्भसे उत्पन्न ( आदि० ६६ । आगमनकी चर्चा करना (आश्व.८६।१४-२.)। ५२)। (३) इक्ष्वाकुवंशी राजा परीक्षितद्वारा माताओंसहित बभ्रुवाहनका कुरुदेशमै आगमन और गुरु- मण्डूकराजकी कन्या सुशोभनाके गर्भसे उत्पन्न । इनके जनोंको प्रणाम करके उनका कुन्तीके भवनमें प्रवेश (आश्व० दो भाई और थे-शल और दल (वन० १९२ । ३८)। ८७ । २६-२८)। माताओंसहित बभ्रुवाहनका कुन्ती, (४) एक वानर, जो कुम्भकर्ण के साथ युद्धर्मे उसका द्रौपदी और सुभद्रा आदिके चरणों में प्रणाम करना और ग्रास बन गया था (वन० २८७ । ६)। (५) उन सबके द्वारा रत्न आभूषण आदिसे सम्मानित ोमा बाहद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । दूसरे
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बलद
( २१४ )
बलाकाश्व
का नाम अतिबल था (शल्य० ४५ । ४४ ) । (६) तीर्थयात्राका वर्णन ( शल्य. अध्याय ३५ से ५४ एक प्राचीन ऋषि, जो अङ्गिराके पुत्र हैं और पूर्वदिशामें तक ) । इनका नारदजीसे कौरवोंके विनाशके निवास करते हैं ( शान्ति० २०८ । २७-२८ )। विषयमें पूछना (शल्य० ५४ । २४-२५) । भीमसेन
(७) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३०)। और दुर्योधनके गदायुद्धके लिये सबको समन्तपञ्चकमें ले बलद-ये भानु नामक अग्निके प्रथम पुत्र हैं और
(जाना शल्य० ५५ । ६-१०)। अन्यायसे दुर्योधनके प्राणियोंको प्राण एवं बल प्रदान करते हैं ( शान्ति.
मारे जानेपर इनका कुपित होकर भीमसेनको मारनेके २२१ । १०)।
लिये उद्यत होना (शल्य०६०।४--१०)। भीम
सेनके इस कर्मकी निन्दा करके द्वारकाको प्रस्थान करना बलदेव ( बलराम)-(१) वसुदेव तथा रोहिणीके पुत्र ।
(शल्य. ६०।२७-३०)। इनके द्वाराधर्मके रहस्यभगवान् श्रीकृष्णके अग्रज और शेषके अवतार (आदि.
का वर्णन (शल्य. १२६ । १७-१९)। शिवजी६७ । १५२) । भगवान् नारायणके श्वेत केशसे इनका
द्वारा इनके रूपमें भगवान् अनन्तके भावी अवतार तथा आविर्भाव हुआ ( आदि० १९६ । ३३)। इनके द्वारा
महिमाका कथन (अनु० १४७ । ५४-६०)। इनके भीमको गदायुद्धकी शिक्षा (आदि० १३८ । ४)।
द्वारा अभिमन्युका श्राद्ध (आश्व० ६२ । ६)। युधिष्ठिरके द्रौपदीके स्वयंवरमें श्रीकृष्णसहित इनका आगमन
अश्वमेधयज्ञमें इनका हस्तिनापुर आना ( आश्व० ६६ । (आदि. १८५ । १७)। द्रौपदीस्वयंवरमें इनका
४)। इनके आदेशसे द्वारकापुरीमें मद्यपान भीम और अर्जुनके विषयमें श्रीकृष्णसे वार्तालाप ( आदि.
निषेधकी आज्ञा जारी होना ( मौसल. १। २९)। १८८ । २४) । पाण्डवोंसे मिलनेके लिये श्रीकृष्णसहित
समाधि लगाकर बैठे हुए बलरामजीके मुखसे निकलते हुए कुम्भकारके घर जाना (आदि. १९० । १-८)।
विशालकाय श्वेत सर्पका श्रीकृष्णद्वारा दर्शन तथा इनके सुभद्राहरणके समय अर्जुनपर इनका कोप ( आदि. २१९। २५-३१)। श्रीकृष्णका इनको शान्त करना
स्वागतके लिये अनेकानेक नागों और सरिताओंका आगमन (आदि० २२० । १-११)। ये देवकीके गर्भ में थे,
(मौसल० ४।१३-१७)। (२) एक महाबली परंतु राजा यमने याम्य मायाद्वारा इन्हें रोहिणीके
नाग (अनु. १३२।८)। गर्भमें डाल दिया । इस सङ्कर्षणकर्मके कारण इनका बलन्धरा-ये काशिराजकी कन्या थी। इनके विवाहका 'सङ्कर्षण' और बलकी अधिकता होनेसे 'बलदेव' नाम शुल्क बल ही रक्खा गया था अर्थात् यह शर्त थी कि भी हुआ (सभा०२२ । ३६ के बाद दाक्षिणात्य जो अधिक बलवान् हो, वही इनके साथ विवाह कर पाठ, पृष्ठ ७३।)। इनके द्वारा धेनुकासुर का वध सकता है। पाण्डुपुत्र भीमसेनने इनके साथ विवाह (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ करके सर्वग नामक पुत्र उत्पन्न किया (आश्व० ९५ । ८००)। मुष्टिकका वध (सभा०३८ । २९ के बाद ७)। दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८०१)। सान्दीपनिमुनिके आश्रममें
निमुनिके आश्रममें बलबन्धु-एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३७)। इनका अध्ययन (सभा० ३८ ॥२९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८०२) । प्रभासक्षेत्रमें इनके पाण्डवों के प्रति बलाक-एक व्याध । इसने एक हिंसक जन्तुको, जिसने सहानुभूतिसूचक दुःखपूर्ण उद्गार ( वन० ११९ ।।
समस्त प्राणियोंका अन्त कर देनेके लिये वर प्राप्त ५-२२)। उपप्लव्य नगरमें अभिमन्युके विवाहमें किया था और इसी कारण ब्रह्माने उसे अंधा कर दिया जाना (विराट. ७२ । २१)। कौरव-पाण्डवोंमें संधिकी था, मार डाला । उस समय इस व्याधके ऊपर पुष्पोंकी कामना रखते हुए इनके द्वारा दूत भेजनेके प्रस्तावका वृष्टि हुई और यह विमानपर बैठकर स्वर्गलोकको चला समर्थन ( उद्योग० २ अध्याय) । दुर्योधन के सहायता गया (कर्ण० ६९ । ३५-४५)। माँगनेपर इनका उसकी तथा अर्जुनकी भी सहायता
बलाका तीर्थ- गन्धमादनपर्वतके निकटका एक तीर्थ । यहाँ करनेसे इनकार करना ( उद्योग. ७ । २९ ) । कुरुक्षेत्रके मैदानमें पाण्डवोंके शिबिरमें आना (उद्योग.
तर्पण करनेवाला पुरुष देवताओंमें कीर्ति पाता है और १५७।१७)। इनका तीर्थयात्राके लिये प्रस्थान करना
अपने यशसे प्रकाशित होता है (अनु० २५ । १९)। (उद्योग० १५७ । ३५)। दुर्योधन और भीमसेनके बलाकाश्व-ये जह्नके पौत्र तथा अज (सिन्धुद्वीप) के पुत्र गदायुद्धके प्रारम्भमें इनका आगमन और वहाँ उपस्थित थे। इनके पुत्रका नाम कुशिक था (शान्ति० ४९ । नरेशोंद्वारा सत्कार (शल्य. ३५ अध्याय)। इनकी ३. अनु.४।४)।
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बलाकी
-
बलाकी-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक ( आदि०६७ । किया है ( अनु० ९० । २०)। पुष्प, धूप और दीप९८ आदि० ११६ । ७)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया दानके विषयमें शुक्राचार्यसे इनका प्रश्न करना (अनु. था (आदि. १८५।२)।
९८ । १५)। (२) एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी बलाक्ष-एक प्राचीन नरेश, जो विराटके गोग्रहणके समय
सभामें विराजते हैं (सभा० ४ । १०)। हस्तिनापुर अर्जुन और कृपाचार्यका युद्ध देखने के लिये इन्द्रके
जाते समय मार्गमें इनकी श्रीकृष्णसे भेंट (उद्योग. विमानपर बैठकर आये थे (विराट० ५६ । ९-१०)। ८३ । ६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ )। बलानीक-(१) यह द्रुपदका पुत्र था । अश्वत्थामाद्वारा बलिवाक-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते हैं इसका वध हुआ था (द्रोण. १५६ । १४१)। (समा० ४ । १४)। (२) ये मत्स्यनरेश विराटके भाई थे और पाण्डवपक्षको
पक्षका बलीह-एक क्षत्रियकुल, जिसमें अर्कज नामक कुलाङ्गार
सो ओरसे लड़ने आये थे (द्रोण. १५८ । ४२)।
राजा उत्पन्न हुआ था ( उद्योग. ७४ । १४)। बलाहक-(१) एक नाग, जो वरुणसभामें रहकर उनकी बलोत्कटा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य. उपासना करता है (सभा०९।९)। (२) सिन्धुराज जयद्रथका एक भाई, जो द्रौपदीहरणके समय
बल्लव-(१ अज्ञातवासके समय पाण्डुपुत्र भीमसेनका जयद्रथके साथ आया था (वन० २६५ । १२)।
सांकेतिक नाम (विराट० २।१; विराट. ८-७)। (३) भगवान् श्रीकृष्णके रथका एक अश्व, जो दाहिने पार्श्वमें जोता जाता था (विराट० ४५ । २३, द्रोण.
(२) एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६२)। १४७ १ ४७)।
बहिर्गिरि-एक पर्वतीय प्रदेश, जिसे उत्तर-दिग्विजयके समय बलि (१) ये प्रह्लादजीके पौत्र एवं विरोचनके पुत्र थे ।
अर्जुनने जीता था (सभा०२७।३)। इसकी गणना इनके पुत्र का नाम बाण था (आदि०६५।२०)।
भारतीय जनपदोंमें है (भीष्म. ९ । ५.)। इन्द्रलोकपर इनका आक्रमण और विजय प्राप्त करना बहुदामा-स्कन्द की अनुचरी मातृका (शल्य० ४६।१०)। (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७८९)।
बहुपुत्रिका-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । ३)। इनके द्वारा वामन भगवान्को तीन पग भूमि देनेका संकल्प, भगवान् वामनद्वारा इनका बन्धन । इनको बहुमूलक-कश्यपद्वारा कद्र के गर्भसे उत्पन्न एक नाग पाताललोकमें रहने के लिये भगवान्की आज्ञा (सभा. (आदि. ३५ । १६)। ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७९०)। ये बहयोजना-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य०४६ ।९)। वरुणकी सभामें विराजते हैं (सभा०५।१२)। इनका
बहुरूप-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक (शान्ति० २०८ । १९)। प्रहादसे क्षमा और तेजविषयक प्रश्न करना (वन २८ । ३.४)। बलि और वामनसम्बन्धी कथाका संक्षिप्त बहुल-तालजङ्घ-वंशका एक कुलाङ्गार राजा ( उद्योग. वर्णन (वन० २७२ । ६३-६९)। विरोचनकुमार बलि ७४ । १३)। बाल्यकालसे ही ब्राह्मणोंपर दोषारोपण करते थे, जिससे बहला-(१) एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं राज्यलक्ष्मीने उनका त्याग कर दिश (शान्ति. (भीष्म० ९ । २७) । (२) स्कन्दकी अनुचरी
। २४) । इन्द्रक आक्षपयुक्त वचनाका कठोर उत्तर मातृका (शल्य०४६ । ३)। देना (शान्ति० २२३ अध्याय) । कालकी प्रबलता बवाद्य-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५५)। बताते हुए इन्द्रको इनकी फटकार (शान्ति० २२४ अध्याय) । लक्ष्मीसे परित्यक्त होनेपर इन्द्रको चेतावनी बह्वाशा-धृतराष्ट्रक सा पुत्रामस
बह्वाशी-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक (आदि० ६७ । १०२ देना (शान्ति० २२५ । ३०-३२) । शोक न करने के
आदि. ११६।११)। यह भीमसेनद्वारा मारा गया में इन्द्रद्वारा किये गये प्रश्नों का उत्तरोना
था (भीष्म०२८ । २९)। २२७ । २१-८८)। विरोचनकुमार बलिको देवताओं- बाण-(१) यह असुरराज बलिका विख्यात पुत्र है तथा ने धर्मपाशमें बाँधकर भगवान् विष्णुके पुरुषार्थसे पाताल- इसे लोग भगवान् शिवके पार्षद महाकालके नामसे जानते वासी बना दिया (अनु.६ । ३५)। जो दोषदृष्टि रखते हैं (आदि. ६५ । २०-२१)। इसकी राजधानीका नाम हुए तथा श्रद्धारहित होकर दान दिया जाता है, उस शोणितपुर था। इसने शिवजीको तीव्र आराधना करके सारे दानको ब्रह्माजीने असुरराज बलिका भाग निश्चित उनसे वरदान प्राप्त किया, जिससे यह देवताओंको सदा
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बालि
( २१६ )
बाह्यकुण्ड
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त किये रहता था। इसकी उन्नतिके लिये शुक्रा- (आदि०६५।१७१८)। यही भगदत्तके रूपमें चार्य बराबर प्रयास करते रहते थे (सभा०३८ । २९ पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था (आदि०६७।९)। के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२१)। इसने अनिरुद्धको
बाहु-(१) एक शक्तिशाली राजा, जिसे पाण्डवों की ओरसे कैद कर लिया था । नारद जीदाग अनिरुद्धके कैद होनेका
रणनिमन्त्रण भेजनेका विचार किया गया था (उद्योग. समाचार णकर बलराम तथा प्रद्युम्नसहित श्रीकृष्णने
४ । २२)। (२) सुन्दरवंशमें उत्पन्न एक कुलनाशक शोणितपुरपर आक्रमण किया । नहाँ शिव, कार्तिकेय,
राजा (उद्योग० ०४।१५)। (३) एक प्राचीन अग्नि आदि देवता इसकी राजधानीकी रक्षा कर रहे थे
नरेश, जो महाराज सगरके पिता ये (शान्ति० ५७ । (सभा०३८।२० के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२२)।
८)। ये प्राचीनकालमें पृथ्वी के शासक थे; परंतु कालसे तब बाणासुरके लिये भगवान् महेश्वरने श्रीकृष्णके साथ
पीडित हो इसे छोड़कर परलोकवासी हो गये (शान्ति. युद्ध किया । तदनन्तर शिवजीको परास्त करके श्रीकृष्ण
२२७ । ५१)। बाणासुरके समीप पहुँने और उसके साथ युद्ध आरम्भ किया । भगवान् श्रीकृष्णके साथ युद्धमें चक्रद्वारा इसकी बाहुक-( १ ) कौरव्यकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो भुजाएँ काट डाली गयीं और यह धरतीपर गिर पड़ा जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था ( आदि. ५. । (सभा०३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२३)। १३)। (२)राजा नलका एक नाम, जब कि सूतबाणासुर क्रौञ्चपर्वतका आश्रय लेकर देवसमूहोंको कष्ट अवस्थामें वे अयोध्यानरेश ऋतुपर्णके यहाँ थे (वन० पहुँचाया करता था। यह देखकर महासेन (स्कन्द ) ने ६६ । २०)। (विशेष देखिये-नल)। (३) एक इसपर आक्रमण किया और यह भागकर क्रौञ्चपर्वतमें जाकर वृष्णिवंशी वीर, जिसका पराक्रम प्रकट करने के लिये छिप गया। इसीके कारण स्कन्दने क्रौञ्चपर्वतको विदीर्ण श्रीकृष्ण तथा पाण्डवोंके सामने सात्यकिने चर्चा की है किया था (शल्य० ४६ । ८२-८४)। (२) स्कन्द- (वन० १२० । १९)। का एक सैनिक (शल्य.४५। ६७)।
बाहुदन्तक-पुरन्दरद्वारा संक्षिप्त किया हुआ ब्रह्माका नीति बादुलि -विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० शास्त्र, जो दस सहस्त्र अध्यायोंसे घटकर पाँच हजार
अध्यायोंका हो गया ( शान्ति० ५९ । ४३)। बाभ्रव्य-एक गोत्रका नाम, गालवमुनि इसी गोत्रमें उत्पन्न बाहुदा-इस तीर्थमें ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एक रात उपवास हुए थे (शान्ति. ३४२ । १०३)।
करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है और देवमत्रका बार्हस्पत्य-बृहस्पतिद्वारा संक्षिप्त किरा हआ ब्रह्माजीका फल पाता है (वन. ८४ । ६७-६८; वन० ८७ । २७७ नीतिशास्त्र, जो बार्हस्पत्य कहलाता है और इसमें तीन
वन. ९५।४)। (कुछ आधुनिक विचारक अवधहजार अध्याय हैं (शान्ति० ५९ । ८४)।
प्रान्तकी धवला या धुमेला नामक नदीको, जो रातीकी बालग्रह-बालकों का नाश करनेवाला एक ग्रह (शान्ति. सहायक है, बाहुदा' कहते हैं । ) यह उन नदियों से १५३ । ३)।
एक है, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म ९ । बालधि-एक प्राचीन शक्तिशाली ऋषि, पुत्रप्राप्ति के लिये
१४, २९)। इसके तटपर महर्षि शङ्ख और लिखितके इन्होंने घोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर देवताओंने
आश्रम ये (शान्ति. २३ । १८-१९)। इस नदीमें इन्हें पुत्रोत्पत्ति के लिये वरदान दिया (वन. १३५। १५
स्नान करके पितरोंके लिये तर्पणकी चेष्टा करते समय ४७)। वरदानके फलस्वरूप इन्हें मेधावी नामक पुत्रकी
महर्षि लिखितके कटे हुए हाथ नूतन रूपसे फिर उत्पन्न हो प्राप्ति हुई (वन. १३५ । ४९)। मेधावीने महर्षि गये थे ( शान्ति० २३ । ३९-४०)। धनुषाक्षका अपमान किया, जिससे उन्होंने इसका विनाश
बाहुदा-सुयशा-कुरुवंशी परीक्षित्की पत्नी तथा भीमसेनकी कर दिया (वन० १३५ । ५०-५३)। पुत्रके मरनेपर माता ( आदि० ९५। १२)। बालधि मुनिका विलाप (वन १३५। ५३-५४)।
बाह्यकर्ण-कश्यपद्वारा कदूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग बालस्वामी-स्कन्दका एक सैनिक (पल्य०४५। ७४)। (आदि० ३५ । ९)। बाष्कल-यह दितिपुत्र हिरण्यकशिपुका पुत्र था। इसके बाह्यकुण्ड-कश्यपवंश उत्पन्न एक नाग ( उद्योग
चार भाई और थे-प्रहाद, संहाद, अनुहाद और शिवि १०५।१०)।
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बाह्निक ( बालिक)
( २१७ )
बुध
बाह्निक (बाह्रीक)-(१) एक राजा. जो शत्रुपक्षविनाशक श्रद्धापूर्वक यज्ञ किया था ( सभा० ३ । ११--१६)। महातेजस्वी अहर' के अंशसे प्रकट हुआ था (आदि. (यहींसे मयनामक दानवने देवदत्त शज और वृषपर्वाकी ६७ । २५)। (२)एक प्राचीन राजा, जो क्रोधवश- गदाको ले जाकर अर्जुन तथा भीमसेनको समर्पित संज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि०६७।
किया था।) ६०)। पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण-निमन्त्रण भेननेका बिल्वक-कश्यपदाग कसे उत्पन्न एक नाग (आदि. विचार किया गया था ( उद्योग. ४ । १४) । यह कोरवपक्षका योद्धा था। इसे 'बाहीकराज' कहा गया है।
९। बिल्वकतीर्थ-हरद्वार के अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके इसका द्रौपदीपुत्रोंके साथ युद्ध (द्रोण. ९६ । १२
___मनुष्य स्वर्गलोकका भागी होता है (अनु० २५ । १३)। (३) भरतवंशी महाराज कुरुके पौत्र एवं जनमेजयके तृतीय पुत्र ( आदि. ९४ । ५६ )।
१३)। . (४) कुरुवंशी महाराज प्रतीपके पुत्र, देवापि और बिल्वतेजा-तक्षककुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो सर्पशान्तनुके भाई । ये महारथी वीर थे । इनकी माताका सत्रमें जल मरा था (आदि० ५७ । १)। नाम सुनन्दा था, जो शिबिदेशकी राजकुमारी थी (आदि० बिल्वपत्र-कश्यपवंशी एक नाग ( उद्योग० १०३ । ९४ । ६१-६२, आदि. ९५।४४)। (श्रीमद्भागवत १४)। ९ । २२ । १८ के अनुसार बाह्रीकके पुत्रका नाम सोम
बिल्वपाण्डुर-कश्यपद्वारा कद्रू के गर्भसे उत्पन्न एक नाग दत्त था।) इन्होंने कौरव-सभामें जूएका विरोध किया था (सभा० ७४ । २५-२६) । संजयद्वारा लाये हुए।
__ (आदि० ३५ । १२)। युधिष्ठिरके संदेशको सुनने के लिये ये भी सभामें उपस्थित बीभत्सु-अर्जुनका एक नाम (विराट. ४४ ॥९)। हुए थे (उद्योग० १७॥ ६-७)। ये कौरवोंका पाण्डवोंके बीभत्सु' नामकी निरुक्ति (विराट. ४४ । १८)। साथ युद्ध होना नहीं चाहते थे (उद्योग० ५८ । ६-७)। बद्धि-ये दक्षप्रजापतिकी कन्या और धर्मकी पत्नी हैं। ये कुटुम्बमें फूट न हो, इस डरसे इन्होंने पाण्डवोंको राज्य- अपनी नौ बहिनोंके साथ, जो धर्मकी ही पत्नियाँ हैं, ब्रह्माभाग दे दिया था ( उद्योग० १२९ । ४१)। दुर्योधन- जीद्वारा धर्मका द्वार निश्चित की गयी हैं ( आदि०६६। की ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओंके जो सेनापति चुने गये थे।
१३-१५)। उनमें एक ये भी थे ( उद्योग० १५५ । ३३)। प्रथम
बुद्धिकामा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य. दिनके युद्धमें धृष्टकेतुके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म
४६ । १२)। ४५ । ३८-४१ )। भीमसेनद्वारा पराजित होना ( भीष्म. १०४ । २६-२७)। द्रपदके साथ यद्ध बुदबुदा-एक अप्सरा, जो वगोंकी सखी थी (आदि. (द्रोण २५ । १८-१९) । शिखण्डीके साथ यद्ध २१५ ।२०)। इसे ग्राह होकर जलमें रहने के लिये (द्रोण० ९६ । ७-१०)। भीमसेनद्वारा वध (द्रोण.
ब्राह्मणका शाप (आदि० २१५ । २३)। अर्जुनद्वारा १५७ । १५ ) । भीष्मके पूछनेपर कन्या-विवाहके
इसका ग्राहयोनिसे उद्धार ( आदि० २१६ । २१-२२)। विषयमें इनका अपना निर्णय देना (अनु०४४। ४३--
यह कुबेरकी सभामें रहकर उनकी सेवा करती है (सभा. ५६)। (५) युधिष्ठिरके सारथिका नाम (सभा० १०।११)। ५४ । २०)।(६) एक भारतीय जनपद ( भीष्म बध-(R) एक ग्रह, जो ब्रह्माजीकी सभामै ९ । १७, ५४ )।
उनकी उपासनाके लिये पधारते हैं (सभा० ११ । २९) । बिन्दुसर-एक प्राचीन सरोवर, जो कैलास पर्वतसे उत्तर ये चन्द्रमाके पुत्र और पुरूरवाके पिता हैं (द्रोण. दिशामें विद्यमान है ( सभा० ३ । २-३)। यहाँ १४४ । ४)। इन्होंने व्रतचर्या की और उसकी समाप्ति मयासुरका आगमन (सभा० ३ । ९-१०)। गङ्गा- होनेपर ये अदितिदेवीके यहाँ भिक्षाके लिये गये और बोले, वतरणके लिये यहाँ राजा भगीरथने बहुत वर्षोंतक उग्र मुझे भिक्षा दीजिये भिक्षा न मिलनेपर इनके द्वारा अदितितपस्या की थी ( सभा० ३।१०-११) । प्रजापतिने को शाप ( शान्ति. ३४२ । ५६)। मनुकन्या इलाका यहाँ सौ यज्ञोका अनुष्ठान किया और इन्द्रने भी यहीं यज्ञ बुधके साथ समागम हुआ, जिससे पुरूरवाका जन्म हुआ करके सिद्धि प्राप्त की (सभा० ३ । ११)। यहाँ था (अनु.१४७ । २६-२७)। (२) एक वानप्रस्थी भगवान् शङ्करने भी यज्ञ किये । वसुदेवनन्दन भगवान् ऋषि, जिन्होंने वानप्रस्थ-धर्मका पालन एवं प्रसार करके श्रीकृष्णने भी यहाँ धर्म-सम्पादनके लिये बहुत वर्षों तक स्वर्गलोक प्राप्त किया (शान्ति० २४४।१७)।
म. ना०२८-....
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बृहता
वृहदबल
बृहता-शिशु ( स्कन्द ) की सप्तमातृकाओंमेंसे एक (वन.
के लिये भेजा था ( वन०६०। ४-५) दमयन्ती१२८ । १०)।
के आदेशसे बृहत्सेनाने विश्वसनीय पुरुषोंद्वारा वार्णय सूत
को बुलवाया था (वन० ६० । ११)। बृहक-एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे थे (आदि०१२२ । ५७)।
बृहदम्बालिका स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य. बृहज्ज्योति-महर्षि अङ्गिराके द्वारा सुभाके गर्भसे उत्पन्न सात पुत्रोंमेंसे एक (वन० २१८।२)।
बृहदश्व-(१) एक प्राचीन महर्पि ।ये युधिष्टिरका
अधिक सम्मान करते थे (वन० २६ । २४-२५)। बृहत्-(१) यह शब्द विवस्वान्का बोधक है (आदि.
इनका काम्यकवनमें युधिष्ठिरके पास आगमन (वन. १। ४२-४३)। (२) कालेयोंमें जो आठवाँ था,
५२ । ४०) । युधिष्ठिरद्वारा इनका सत्कार तथा इनके उसके अंशसे उत्पन्न हुआ एक राजा (आदि० ६७ ।
प्रति अपने दुःख दैन्यका वर्णन करना (वन० ५२ । ५५)। (३) एक साम, जो पाञ्चजन्य ऋषिके मूर्धा
४१-५०) । युधिष्ठिरको समझाते हुए इनका नलोपास्थानमे प्रकट हुआ । उन्हीं ऋषिके मुखसे प्रकट हुए
ख्यान सुनाना (वन० ५२। ५४ से ७९ अध्यायसामको रथन्तर' कहते हैं। ये दोनों वेगपूर्वक आयु आदि
तक)। इनके द्वारा युधिष्ठिरको आश्वासन तथा उन्हें को हर लेते हैं, इसलिये तरसाहर' कहलाते हैं (वन०
अक्षहृदय और अश्वशिरका उपदेश देकर स्नान आदिके २२० । ७)।
लिये प्रस्थान (वन० ७५ । ।१-२१) । (२) बृहत्कीर्ति-महर्षि अङ्गिराके द्वारा सुभाके गर्भसे उत्पन्न ये इक्ष्वाकुवंज्ञीराजा श्रावस्तके पुत्र थे । इनके पुत्रका नाम सात पुत्रों से एक (वन० २१८ ।२)।
कुवलाश्व था (वन० २०२। ४-५)। ये यथासमय बृहत्केतु-प्राचीन कालके एक नरेश ( आदि०१।।
अपने पुत्र कुवलाश्वको राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं
तपस्याके लिये तपोवनमें चले गये ( वन० २०२ । २३७)।
७८)। बृहत्क्षत्र-(१)भगीरथवंशी एकराजा, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें गये थे (आदि. १८५ । २३)। (२) केकय. बृहदुक्थ-ये तप (पाञ्चजन्य ) के पुत्र है । इस पृथ्वीपर नरेश प्रथम दिनके युद्ध में कृपाचार्यके साथ इनका इन्दू- जब अग्निहोत्र होने लगता है, उस समय इस भूतलपर युद्ध ( भीष्म० ४५ । ५२-५४) । इनके घोड़ोंका स्थित श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा इन्हीकी पूजा होती है ( वन. वर्णन, जो इनके रथको लेकर युद्ध-मैदानमें गये थे २२० । १८)। (द्रोण० २३ । २३-२४ ) । इनका क्षेमधूर्तिके साथ बृहद्गर्भ-राजा शिबिका पुत्र, जिसे एक ब्राह्मणके आतिथ्यके द्वन्द्वयुद्ध करना (द्रोण. १०६ । ७-८)। क्षेमधूर्तिके लिये उन ब्राह्मणदेवके कहनसे राजाने स्वयं मार डाला साथ इनका घोर युद्ध तथा इनके द्वारा उसका वध (द्रोण और उसका दाह-संस्कार कर दिया । फिर विधिपूर्वक १०७॥ १-६)। बृहत्क्षत्रका द्रोणके साथ युद्ध और
रसोई तैयार करके उसे बटलोई में डालकर सिरपर रख द्रोणाचार्यद्वारा इनका मारा जाना (द्रोण०१२५ । २२) लिया और वे उस ब्राह्मणकी खोज करने लगे (वन० १५८ ॥ (३) निषधदेशका राजा । कौरवपक्षका योद्धा। १८)। धृष्टद्युम्नद्वारा इसका वध हुआ (द्रोण. ३२। .
बृहहरु प्राचीन कालके एक नरेश ( आदि० ।। ६५-६६)।
२३३)। बृहत्त्वा-एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे थे (आदि० १२२ । ५७)।
बृहद्युम्न-एक महान् सौभाग्यशाली एवं प्रतापी नरेश,
जिन्होंने अपने यज्ञमें रैभ्यपुत्र अर्वावसु और परावसुको बृहत्सेन-क्रोधवशसंज्ञक एक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुए
। सहयोगी बनाया था ( वन० १३८ । १-२)। एक राजा (आदि. ६७ । ६४) । पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रणनिमन्त्रण भेजनेका विचार किया गया था (उद्योग बृहदध्वनि-एक प्रधान नदी, जिसका जल भारतवामी पीते ४ । २१)।
हैं (भीम. ९ । ३२)। बृहत्सेना-यह दमयन्तीकी धाय थी और अत्यन्त यशस्विनी, बृहद्बल-(१) प्राचीन कालके एक नरेश ( आदि०
परिचर्याके काममें निपुण, समस्त कार्यसाधनमें कुशल, १ । २३७)। (२) गान्धारराज सुबलके पुत्र । ये हितैषिणी: अनुरागिणी और मधुरभाषिणी थी। जूएमें अपने भाई शकुनि और वृषकके साथ द्रौपदी के स्वयंवरमें राजा नलको हारते जान दमयन्तीने इसे मन्त्रियोको बुलाने- आये थे (आदि.१८५ । ५)। (३) ये कोसल
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बृहद्ब्रह्मा
( २१९ )
बृहदन्त
देशके राजा हैं। इन्हें पूर्वदिग्विजयके समय भीमसेनने कन्याओंके साथ इनका विवाह हुआ था । इन्होंने एकान्तमें
केया था ( सभा० ३०। १)। इनके द्वारा अपनी दोनों पत्नियोंके साथ प्रतिज्ञा की थी कि मैं तुम राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरको चौदह हजार उत्तम अश्वोंकी। दोनोंके साथ कभी विषम व्यवहार नहीं करूँगा । विषयों में भेंट दी गयी थी (सभा० ५१ । ७ के बाद दा० पाठ)। डूबे हुए ही इनकी जवानी बीत चली; पर इनके कोई पाण्डवोकी ओरसे इन्हें रणनिमन्त्रण भेजनेका विचार पुत्र नहीं हुआ (सभा. १० । १७-२१)। तब ये किया गया था (उद्योग०४ । २२)। ये कौरवपक्षसे लड़ने पत्नियोसहित चण्डकौशिक मुनिके पास गये और उन्हें सब आये थे । दुर्योधनने सैन्यसमुद्रमें इनकी उपमा ज्वारसे प्रकारके रत्नोंसे संतुष्ट किया। मुनिके अपने पास आनेका दी है (उद्योग० १६१ । ३९ ) । प्रथम दिनके युद्ध में कारण पूछनेपर इन्होंने अपना पुत्राभावजनित कष्ट बताया अभिमन्युके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ४५। और वनमें तपस्या करनेका विचार प्रकट किया । मुनिने १४-१८)। घटोत्कचद्वारा इनकी पराजय (भीष्म० इन्हें आमका एक फल दिया और इससे पुत्र होनेका विश्वास ५२ । ४५)। अभिमन्युके साथ इनका घोर युद्ध । दिलाकर पुत्रको राज्यपदपर अभिषिक्त करनेके पश्चात् वनमें (भीष्म० ११६ । ३१-३६, द्रोण. ३७ । ५-६)। तपस्याके लिये जानेका आदेश दिया । मुनिने इनके भावी अभिमन्युके साथ युद्ध और उनके द्वारा इनका वध पुत्रके लिये आठ वरदान दिये थे । इसके बाद राजा (द्रोण. ४७ । २०-२२)। इनकी स्त्रियोंका इन्हें मुनिको प्रणाम करके अपने घर गये (सभा० १७ । सब ओरमे घेरकर रोदन (स्त्री० २५ । १०)। २२-३१)। राजाने वह फल दो भागोंमें विभक्त करके महाभारतमें आये हुए बृहद्बलके नाम-कौसल्य, एक-एक भाग पत्नियों को खिला दिया। दोनोंके गर्भ रहा । कोसलेन्द्र, कोसलक, कोसलाधिपति, कोसलभर्ता, कोसल
प्रसवकाल आनेपर दोनोंके गर्भसे शरीरका आधा-आधा राज आदि ।
भाग उत्पन्न हुआ। उन निर्जीव टुकड़ोंको रानियोंने बाहर बृहदब्रह्मा-महर्षि अङ्गिराके द्वारा सुभाके गर्भसे उत्पन्न फैकवा दिया। जरा नामक राक्षसीने उन दोनों टुकड़ोंको सात पुत्रों से एक (वन० २१८ । २)।
जोड़ दिया । उससे बलवान् कुमार सजीव हो उठा । बृहदभानु-वेदोंके पारगामी विद्वान् भाननामक अग्निको
राक्षसीने वह बालक राजाको अर्पित कर दिया । तब राजाने ही बृहद्भानु कहते हैं (वन० २२१ । ८)।
उससे परिचय पूछा । राक्षसी परिचय देकर अन्तर्हित हो
गयी । राजा कुमारको लेकर महलमें आये । बालकका बृहदभास-महर्षि अङ्गिराके द्वारा सुभाके गर्भसे उत्पन्न
जातकर्म आदि किया और उसका नाम जरासंध रखा और सात पुनोमेसे एक (वन० २१८ । २)।
मगधदेशमें राक्षसीपूजनका महान् उत्सव मनानेकी आज्ञा बृहदभासा-ये सूर्यकी कन्या तथा भानु (मनु) नामक
दी (सभा० १७ । ३२ से १८ अध्यायतक)। इनका अग्निकी भार्या है (वन० २२१ । ९)।
जरासंधको अपने राज्यपर अभिषिक्त करके दोनों पत्नियोंके बृहद्रथ-(१) एक प्राचीन राजा ( आदि०१। साथ तपोवनको जाना (सभा. १९। १७-१८)। इन्होंने २३५)। ये यमकी सभा में विराजमान हो सूर्यपुत्र यमकी ऋषभ नामक राक्षसका वध करके उसकी खालसे तीन उपासना करते हैं (सभा०८।१०)। ये अनदेशके नगाड़े बनवाये थे, जिनपर चोट करनेसे महीनेभर आवाज राजा थे । श्रीकृष्णद्वारा इनके दानका वर्णन (शान्ति होती रहती थी (सभा० २१ । १६)। (३) एक २९ । ३१-३०)। ये परशुरामजीके क्षत्रियसंहारसे बच राजा, जो 'सूक्ष्म' नामक देयके अंशसे उत्पन्न हुआ था गये थे । इन्हें गृध्रकूट पर्वतपर लंगूरोंने बचाया था (आदि. ६७ । १९)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया (शान्ति० ४९। ८१-८२)। इन्हें पौरव भी कहा था ( आदि० १८५। २१)। (४) एक अग्नि, जो जाता था। पौरव नामसे इनके यज्ञ, दान आदिकी वसिष्ठपुत्र होने के कारण वासिष्ठ भी कहलाते हैं (वन० २२० । प्रशंसा ( द्रोण. ५७ अध्याय ) । इन्हें १)। इनके प्राणाध नामक पुत्र हुआ (बन. २२० । मान्धाताने जीता था ( दोण. ६२ । १०)। ५)। (२) चेदिराज सम्राट उपरिचरके पुत्र, जिसे पिताने बृहद्वती-एक प्रधान नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं मगधदेशके राज्यपर अभिषिक्त किया था ( आदि० ६३ । (भीष्म० ९ । ३०)। ३०)। ये मगध देशके बलवान् राजा, तीन अक्षौहिणी बृहदन्त-(१) उलूक देशके राजा । इनका अर्जुन के साथ सेनाके स्वामी और समरामाणमें अभिमानपूर्वक लड़नेवाले युद्ध और उनके द्वारा पराजय, सब प्रकारके रत्नोंकी भेंट थे (सभा० १७ । १३)। इनके पराक्रम आदि गुणोंका लेकर इनका अर्जुनकी सेवामें उपस्थित होना (सभा० २७ । वर्णन ( सभा० १७ । १४-१६)। काशिराजकी दो ५-९)। ये द्रौपदीके स्वयंवरमें भी गये थे (आदि.
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बृहन्नला
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( २२० )
१८५ । ७) । पाण्डवोंकी ओरसे इनको रणनिमन्त्रण भेजने का निश्चय हुआ था ( उद्योग ० ४ । १३ ) । ये युधिष्ठिर के प्रति भक्तिभाव के कारण उनके पक्षमें चले आये थे। इनके रथके घोड़ोंका वर्णन ( द्रोण० २३ । ७६-७७ )। इनके मारे जाने की चर्चा ( कर्ण ० ६ । १२-१३ ) । (२) क्षेमधूर्तिका भाई | कौरवपक्षका योद्धा । सात्यकिके साथ इसका युद्ध ( द्रोण० २५ । ४७-४८ ) । इसके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ५ । ४२ ) । बृहन्नला - विराटनगर में अज्ञातवास के समय रखा हुआ अर्जुनका नाम ( विराट० २ । २७ ) | ( विशेष देखि अर्जुन )
बृहन्मना - महर्षि अङ्गिराद्वारा सुभाके गर्भ से उत्पन्न सात पुत्रोंमेंसे एक ( वन० २१८ | २ ) ।
बृहन्मन्त्र - महर्षि अङ्गिराद्वारा सुभाके गर्भ से उत्पन्न सात पुत्रों में से एक ( वन० २१८ । २ ) । बृहस्पति - ( १ ) महर्षि अङ्गिराके पुत्र । उतथ्य और संवर्तके भाई ( आदि० ६६ । ५ ) । बृहस्पतिजीकी ब्रह्मवादिनी बहिन योगपरायण हो अनासक्त भावसे सम्पूर्ण जगत् में विचरती है । वह प्रभास नामक वसुकी पत्नी हुई ( आदि० ६६ । २६-२७ ) । इनके अंशसे द्रोणाचार्यकी उत्पत्ति हुई थी ( आदि० ६७ । ६९ ) । देवताओं द्वारा इनका पुरोहितके पदपर वरण ( आदि० ७६ । ६ ) । शुक्राचार्य के साथ इनकी स्पर्धा ( आदि० ७६ । ७)। इनके पुत्रका नाम 'कच' था ( आदि० ७६ । ११ ) | इन्होंने भरद्वाज मुनिको आग्नेयास्त्र प्रदान किया था ( आदि० १६९ । २९ ) । ये इन्द्रकी सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । २८ ) । ब्रह्माजीकी सभा में भी उपस्थित होते हैं ( सभा० ११ । २९ ) । इनके द्वारा चान्द्रमसी ( तारा ) नामक पत्नीसे छः अग्निस्वरूप पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें शंयु सबसे बड़ा था । इनके सिवा, एक कन्या भी हुई थी ( वन० २१९ अध्याय ) | नहुषके
भयसे भीत शचीको इनका आश्वासन देना (उद्योग० ११ । २३-२५) । नहुष से अवधि माँगनेके लिये शचीको सलाइ देना ( उद्योग० १२ । २५ ) | अग्निके साथ संवाद ( उद्योग० १५ । २८ - ३४ ) । इनके द्वारा अग्निका स्तवन ( उद्योग० १६ । १–८ ) । इनका इन्द्रकी स्तुति करना ( उद्योग ० १६ । १४ - १८ ) । इन्द्रके प्रति नहुषकेबलका वर्णन ( उद्योग० १६ । २३-२४ ) । पृथ्वीदोहन के समय ये दोग्धा बने थे ( द्रोण० ६९ । २३ ) । इनके द्वारा स्कन्दको दण्डका दान ( शल्य० ४६ । ५० ) । कोसलनरेश वसुमनासे राजाकी आवश्यकताका प्रतिपादन ( शान्ति० ६८ । ८- ६० १) । इन्द्रको सान्त्वनापूर्ण मधुर
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वनश्व
वचन बोलनेका उपदेश ( शान्ति ० ८४ अध्याय ) । इनका इन्द्रको विजय प्राप्ति के उपाय और दुष्टका लक्षण बताना ( शान्ति० १०३ । ७-५२ ) । इन्द्रको शुक्राचार्यके पास श्रेयः प्राप्ति के लिये भेजना ( शान्ति० १२४ । २४ ) । मनसे ज्ञानविषयक विविध प्रश्न करना ( शान्ति० २०१ अध्यायसे २०६ अध्यायतक । उपरिचर के यज्ञमें भगवान्पर कुपित होना ( शान्ति ० ३३६ । १४ ) । मुनियोंके समझानेसे क्रोध शान्त करके यज्ञको पूर्ण करना ( शान्ति ० ३३६ । ६०-६१ ) । इनके द्वारा जलाभिमानी देवताको शाप (शान्ति० ३४२ । २७ ) । इनके द्वारा इन्द्रसे भूमिदान के महत्त्वका वर्णन ( अनु० ६२ । ५५ -- ९२ ) । राजा मान्धाता के पूछने पर उनको गोदानके विषय में उपदेश ( अनु० ७६ । ५--२३ ) । युधिष्ठिर के प्रति इनका प्राणियोंके जन्म-मृत्युका और नानाविध पापके फलस्वरूप नाना योनियोंमें जन्म लेनेका वर्णन ( अनु० १११ अध्याय ) | युधिष्ठिरको अन्नदानकी महिमा बताना ( अनु० ११२ अध्याय ) | युधिष्ठिरको अहिंसा एवं धर्मकी महिमाका उपदेश देकर इनका स्वर्गगमन ( अनु० ११३ अध्याय ) । इनके द्वारा इन्द्रको धर्मोपदेश (अनु० १२५ । ६०-६८ ) । इन्द्रके कहने से मनुष्यका यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करना ( आश्व० ५ । २५ - २७ ) । मरुत्तसे उनका यज्ञ कराने से इनकार करना ( आश्व० ६ । ८-९) । मरुत्तको धन प्राप्त होनेसे इनका चिन्तित होना ( आश्व० ८ । ३६-३७ ) । इन्द्रके पूछनेपर उनसे अपनी चिन्ताका कारण बताते हुए मरुत्त और संवर्तको कैद करनेके लिये कहना ( आश्व० ९ । ७) । ये और सोम ब्राह्मणों के राजा बताये गये हैं ( आश्व० ९ । ८-१० ) ।
बोध - ( १ ) एक राजा जो जरासंधके भयसे अपने भाइयों और सेवकों सहित दक्षिण दिशा में भाग गये थे ( सभा० १४ । २६ ) । ( २ ) एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९। ३९)।
वोध्य - एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने राजा ययातिके शान्ति
विषयक प्रश्न करनेपर उन्हें उपदेश दिया था, इनका वह उपदेश बोध्यगीताके नामसे प्रसिद्ध हुआ ( शान्ति० १७८ अध्याय ) ।
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ब्रघ्नश्व - एक राजा, इनके पास महाराज श्रुतर्वाको साथ लिये हुए अगस्त्यजीका आगमन और राजाद्वारा उन दोनोंका स्वागत-सत्कार करके आनेका प्रयोजन पूछा जाना ( वन० ९८ । ७-८ ) । अगस्त्यजीके धन माँगनेपर उनके सामने इनके द्वारा अपने आय-व्ययका विवरण रखा जाना ( वन० ९८ । १० ) । अगस्त्य जी के साथ धनकी याचना के लिये जाना ( वन० ९८ । १२ ) | महर्षि अगस्त्यजीकी
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ब्रह्मचारी
( २२१ )
ब्रह्मा
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आज्ञासे पुनः अपनी राजधानीको लौटना ( वन० ९९। ब्रह्मसर-(१) धर्मारण्यसे सुशोभित एक तीर्थ, जहाँ एक
रात निवास करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता है। यहाँ ब्रह्मचारी-कश्यपद्वारा प्राधाके गर्भसे उत्खन्न एक देव- ब्रह्माद्वारा स्थापित यूपकी परिक्रमा करनेसे वाजपेय यज्ञका फल गन्धर्व (आदि.६५। ४७)। ये अर्जुनके जन्मकालिक मिलता है (वन० ८४ । ८५)। इसके जलमें अवगाहन महोत्सबमें पधारे थे ( आदि. १२२ । ५८)।
करनेसे पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त होता है (अनु. ब्रह्मतार्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, यहाँ स्नान- २५ । ५०)। (२) गयाके अन्तर्गत एक कल्याणमय करनेसे ब्राह्मणेतर मानव ब्राह्मणत्व लाभ करता है और
तीर्थ, जिसका देवर्षिगण सेवन करते हैं (धन. ८७1८)। ब्राह्मण शुद्धचित्त होकर परम गति प्राप्त करता है (वन
यहाँ भगवान् अगस्त्य वैवस्वत यमसे मिलनेके लिये पधारे ८३ । ११३)।
थे ( वन० ९५। ११)। (३) यहाँकी यात्रा करके ब्रह्मतङ्ग-एक पर्वत, जो स्वप्नमें श्रीकृष्णसहित शिवजीके पान
भागीरथीमें स्नान, तर्पण आदि करने और एक मासतक जाते हुए अर्जुनको मागमें मिला था (द्रोण.
निराहार रहनेसे मनुष्यको चन्द्रलोककी प्राप्ति होती है ८० । ३१)।
(अनु० २५ । ३९-४०)। ब्रह्मदत्त-पाञ्चालदेशीय काम्पिल्य नगरके एक प्राचीन राजा ब्रह्मस्थान-यहा ब्रह्माजीके समीप जानेसे मानव गजसूय और (शान्ति० १३९ । ५)। इनका पूजनीनामक चिड़िया
अश्वमेध यज्ञका फल पाता है (वन० ८४ । १०३)। के साथ संवाद (शान्ति० १३९ । २४-१११)।
यहाँ तीन रात उपवःससे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता इन पाञ्चालरा जने ब्राह्मणों को शसनिधि देकर ब्रह्मलोक
है ( वन० ८५ । ३५, उद्योग० १८६ । २६ )। यहाँ प्राप्त किया था ( शान्ति. २३४ । २५, अनु.
कमल उखाड़नेपर अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होना १३७ । १७)। ये कण्डरीक कुलमें उत्पन्न हुए थे, इन्होंने
(अनु. ९४ । ८)। सात जन्मोके जन्म मृत्युसम्बन्धी दाखों का प्रारंबार स्मरण ब्रह्मा-सृष्टिके प्रारम्भमें जब सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार था, करके योगजनित ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया था ( शान्ति.
किसी भी वस्तु या नाम-रूपका भान नहीं होता था, उस समय ३४२ । १०५.१०६)। ये अब यमसभामै रहकर सूर्य
एक विशाल अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओंका पुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८।२०)।
अविनाशी बीज था, उस दिव्य एवं महान् अण्डमें सत्यस्वरूप
ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुआ । उस ब्रह्मदेव-पाण्डवपक्षके एक वीर योद्धा, जो सेनाकी रक्षाके
अण्डसे ही प्रथम देहधारी प्रजापालक देवगुरु पितामह ब्रह्माका लिये पीछे-पीछे क्षत्रदेवके साथ चल रहे थे ( उद्योग
आविर्भाव हुआ (आदि.१।२९-३२)। महाभारतका १९६ । २५)।
निर्माण करके उनके अध्ययन और प्रचारके विषयमें विचार ब्रह्ममेध्या-भारतवर्षकी एक प्रधान नदी, जिसका जल यहाँ
करते हुए कृष्णद्वैपायन व्यासके आश्रमपर इनका आगमन के निवासी पीते हैं ( भीष्म०९। ३२)।
(आदि. १।५५-५७)। व्यास जीसे सत्कृत होकर इनका ब्रह्मयोनि-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, यहाँ स्नान
आसनपर विराजमान होना (आदि. १ । ५८-५९)। करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता और अपनी सात
व्यासजीका अपने ग्रन्थका परिचय देते हुए उसका कोई योग्य पीढ़ियोंको तार देता है (वन० ८३ । १४०)।
लेखक न होने के विषयमें चिन्ता प्रकट करना ( आदि. इसकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग (शल्य० ४७ । २२-२४)।
। ६५-६७)। इनका महाभारतको काव्य' की संज्ञा ब्रह्मवेध्या-भारतवर्षकी एक प्रधान नदी, जिसका जल यहाँके देना और उसकी प्रशंसा करके उसके लेखनके लिये निवासी पीते हैं ( भीष्म० ५। ३०)।
गणेशजी का स्मरण करने की सलाह देना ( आदि. ब्रह्मशाला-एक उत्तम तीर्थ, जहाँ गङ्गाजी सरोवर में स्थित १।७१-७४)। इन्होंने वरुणके यज्ञमें महर्षि भृगुको
थीं। इसका दर्शनमात्र पुण्यमय बताया गया है (वन. अग्निसे उत्पन्न किया (आदि० ५। ८) । भृगुद्वारा ८७ । २३)।
प्राप्त अग्निके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना ब्रह्मशिर-ब्रह्मास्त्र, यह अस्त्र द्रोणाचार्यने प्रसन्न होकर ( आदि. ७ । १५-२५) । इनके द्वारा प्रजाके हितकी
अर्जुन को दिया था ( आदि० १३२ । १८ ) । इसके कामनासे सपाको दिये गये कद्रके शापका अनुमोदन प्रयोगका नियम (आदि. १३२ । १९-२१) । महर्षि (आदि० २०।१०)। इनसे मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, अगस्त्यसे अग्निवेशको; अग्निवेशसे द्रोणको और द्रोणसे पुलल्य, पुलह और ऋतु-इन छ: मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति अर्जुनको इस अस्त्रकी प्रानि हुई थी (आदि. १३८ । ९- हुई (आदि. ६५।१०,आदि०६६।४)। ब्रह्माजीके १२)।
दाहिने अँगूठेसे दक्षका और बायेंसे दक्ष-पत्नीका
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ब्रह्मा
( २२२ )
प्रादुर्भाव ( आदि० ६६ । १०-११ ) । इनके दाहिने स्तनका भेदन करके मनुष्यरूपमें भगवान् धर्मका प्राकट्य ( आदि० ६६ । ३१ ) । इनके हृदयका भेदन करके भृगुका प्रकट होना ( आदि० ६६ । ४१ ) । इनकी प्रेरणा से शुक्राचार्य समस्त लोकोंका चक्कर लगाते रहते हैं ( आदि० ६६ । ४२ ) । इनके दो पुत्र और हैं, जो मनुके साथ रहते हैं; उनके नाम हैं—धाता और विधाता ( आदि० ६६ । ५० ) । मनुष्यों की मृत्यु रुक जानेसे चिन्तित हुए देवताओंको इनका आश्वासन ( आदि ० १९६ । ७ ) । इनके द्वारा सुन्द और उपसुन्दको वरदान ( आदि० २०८ । १७ - २५ ) । सुन्द और उपसुन्दके अत्याचारसे दुखी हुए महर्षियोंका इनके प्रति उनके अत्याचारों का वर्णन ( आदि० २१० । ४-८ ) । तिलोत्तमाका निर्माण करनेके लिये इनका विश्वकर्माको आदेश ( आदि० २१० । ९-११ ) । तिलोत्तमाको इनका वरदान ( आदि ० २११ । २३-२४ ) । अपने अजीर्ण रोगको मिटानेके लिये अग्निकी इनसे प्रार्थना ( आदि० २२२ । ६९-७१ ) । अग्निकी ग्लानिका कारण बताते हुए खाण्डववनको जलानेके लिये इनका उन्हें आदेश ( आदि० २२२ । ७२–७७ | खाण्डववनको जलाने के कार्य में श्रीकृष्ण तथा अर्जुनसे सहायताकी प्रार्थना करनेके लिये इनकी अग्निको प्रेरणा (आदि० २२३ । ५११ ) । इनके द्वारा पूर्वकालमें गाण्डीव धनुषका निर्माण ( आदि० २२४ । १९ ) । एक सहस्र युग बीतने पर ये हिरण्यशृङ्ग पर्वतपर बिन्दुसर के समीप यज्ञ करते हैं ( सभा० ३ । १५ ) । नारदजीद्वारा इनकी दिव्य सभाका वर्णन ( सभा० ११ अध्याय ) । इनके द्वारा हिरण्यकशिपुको शाप या किसी भी अस्त्र-शस्त्र से न मरनेका वरदान ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८५-७८६ ) । प्रजापति ब्रह्माने इन्द्रके लिये एक दिव्य शङ्ख धारण किया था ( सभा० ५३ । १४-१५ ) । इनके द्वारा धर्मारण्य में ब्रह्मसरके समीप एक यूपकी स्थापना ( वन० ८४ । ८६ ) । ब्रह्माने प्रयाग में यज्ञ किया था वन० ८७ । १९ ) । प्रजापति ब्रह्माजीने पुष्कर तीर्थके लिये एक गाथा गायी है ( वन० ८९ । १७-१८ ) । इनका देवताओंको दधीचिके पास उनकी हड्डियोंकी याचनाके लिये भेजना ( वन० १०० । ८ ) । प्रजापति ब्रह्माजीने कुरुक्षेत्र में इष्टीकृत नामक सत्रका एक सहस्र वर्षोंतक अनुष्ठान किया था ( वन० १२९ । १ ) । वाराहरूपधारी विष्णुद्वारा पृथ्वीको ऊपर उठाये जानेसे क्षुब्ध हुए देवताओंको इनके द्वारा सान्त्वना प्रदान ( वन० १४२ । ५४५७ ) । ब्रह्माजीके द्वारा कालकेयोंके लिये हिरण्यपुर
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ब्रह्मा
नामक नगरका निर्माण और मनुष्यके हाथसे उनके विनाशका निर्देश वन० १७३ । ११ – १५ ) । भगवान् विष्णु के नाभिकमलसे इनकी उत्पत्तिका वर्णन ( वन० २०३ । १० – १५ ) । इनके द्वारा धुन्धुको वरदान ( वन० २०४ । २-४ ) । इन्द्र के प्रति देवसेनाके पतिका निर्धारण ( वन० २२४ । २४ ) | ये पुलस्त्य के पिता और रावणके पितामह थे ( वन० २७४ । ११-१२ ) । इनका देवताओंको वानर और रीछ -योनियों में अपने अंश से संतान उत्पन्न करनेके लिये आदेश ( वन० २७६ । ६-७ ) । इनके द्वारा सीताजीकी शुद्धिका समर्थन ( वन० २९१ । ३५ ) । ययातिसे अभिमानको अधःपतनका बताना ( उद्योग० १२३ । १४-१५ ) । इनके द्वारा भगवत्स्तुति ( भीष्म० ६५ । ४७ --७३ )। देवताओंको नर-नारायणका परिचय देना ( भीष्म० ६६ । ६ - २३ ) । प्राणियोंके संहारके विषय में उपाय सोचते समय इनका कोप द्रोण ० ५२ । ४० ) । रुद्रसे अपने क्रोधका कारण बताना ( द्रोण० ५३ ॥ ३ - ५ ) । इनके शरीर से मृत्युकी उत्पत्ति (द्रोण० ५३ । १७-१८ ) । मृत्युको जगत् के संहारका कार्य सौंपना ( द्रोण० ५३ । २१-२२ ) । मृत्युकी तपस्यासे प्रसन्न होकर उसे वर देना (द्रोण० ५४ । ३३ - ३६) । मृत्युको आदेश ( द्रोण० ५४ । ३९-४३ ) । वृत्रासुरके भय से भीत देवताओंको साथ लेकर शिवजीके पास जाना ( द्रोण० ९४ । ५३ ५८ ) । त्रिपुरोंके संहारके समय ये भगवान् रुद्रके सारथि बने थे (द्रोण० २०२ । ७६) । इन्द्र आदि देवताओं सहित त्रिपुर-वध के लिये शिवजीके पास जाकर उनको प्रसन्न करना ( कर्ण० ३३ । ४१--- ६२ ) । शिवजीसे त्रिपुरवधके लिये याचना करना ( कर्ण ० ३४ । २-५) | देवताओं की प्रार्थनासे त्रिपुरबधके समय शिवजीका सारथि बनना ( कर्ण० ३४ । ७५— ७५ ) । कर्ण और अर्जुनके द्वैरथ-युद्ध में इन्द्रके पूछने पर इनके द्वारा अर्जुनकी विजय घोषणा ( कर्ण० ८७ । ६९८५ ) । इनके द्वारा स्कन्दको पार्षद-प्रदान ( शल्य ० ४५ । २४-२५ ) । स्कन्द के लिये काले मृगचर्मका दान ( शल्य० ४६ । ५२ ) । इनकी सृष्टि रचनाका वर्णन ( सौप्तिक ० १७ । १० - २० ) । इनका चार्वाकको वर-प्रदान ( शान्ति ० ३९ 1 (५) । arasat मृत्युका उपाय बताना ( शान्ति० ३९ । ८ - १० ) । इनके नीतिशास्त्रका वर्णन ( शान्ति० ५९ । २९-८६ । इनका खङ्ग उत्पन्न करके रुद्रदेवको देना ( शान्ति० १६६ । ४५-४६ ) । देवताओंको आश्वासन ( शान्ति० २०० । ३०-३५ शान्ति० २०९ । ३१– ३६ ) । इन्द्रको बलिका पता बताना और वध करने से
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ब्रह्मावर्त
( २२३ )
भगदत्त
23
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रोकना (शान्ति० २२३ । ८-११)। प्रजाकी वृद्धि करनेवाला मानव ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है (वन. पर इनका कोप (शान्ति० २५६ । १६)। शिवजीकी ८३ । ५३)। यहाँ ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक जानेसे मनुष्य प्रार्थनासे क्रोधका त्याग ( शान्ति० २५७ । १३)। अश्वमेध यज्ञका फल पाता और सोमलोकको जाता है
मृत्युको संहारके लिये आदेश ( शान्ति० २५८ । (वन० ८४ । ४३)। २४-३६ )। वृत्रासुरके वधसे इन्द्र को लगी हुई ब्रह्मोदुम्बर-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ । यह ब्रा ब्रह्महत्याका विभाजन (शान्ति. २८२ । ३१-५५)। जीका उत्तम स्थान है (वन० ८३ । ७१)। दक्षयज्ञके समय कुपित हुए शिवजीका कोप शान्त करना
ब्राह्म-एक प्रकारका विवाह । कन्याको वस्त्र और आभूषणों(शान्ति० २८३ । ४५-४८) सरूपसे साध्यगणोंको
से अलंकृत करके सजातीय योग्य वरके हाथमें देना 'ब्राहा' उपदेश (शान्ति० २९९ अध्याय)। देवताओंके साथ
विवाह कहलाता है। यह सभी वर्गों के लिये विहित है भगवानकी शरणमें जाना (शान्ति. ३४० । ४२.--
(आदि. ७३ । ८-१४)। ४८)। इनके द्वारा नारायण-रुद्र-युद्धकी शान्ति ( शान्ति. ३४२ । १२४-१२९) । भगवान् हयग्रीवकी स्तुति
ब्राह्मणी-(१) एक तीर्थ, यहाँ जानेसे मानव कमलके (शान्ति० ३४७ । ३८--४५ )। वैजयन्तपर्वतपर
समान कान्तिमान् विमानद्वारा ब्रह्मलोकमें जाता है (वन शिवजीके साथ वार्तालापमें इनके द्वारा नारायणकी
८४ । ५८)।(२) भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, महिमाका वर्णन ( शान्ति. ३५० । २५ से ३५१
जिसका जल यहाँके निवासी पीते हैं (भीष्म० ५। अध्यायतक)। देवताओंसे गरुड़-कश्यप संवादका प्रसंग सुनाना (अनु. १३ । ६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ५४६७-५४७५)। इनके द्वारा ब्राह्मणोंकी महिमाका
भग-- (१) बारह आदित्यों में से एक । इनकी माताका नाम वर्णन ( अनु० ३५ । ५-११के बाद दाक्षिणात्य
अदिति और पिताका कश्यप है ( आदि० ६५। १५)। पाठ) । यज्ञके लिये देवताओंको भूमि देना (अनु.
ये अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे थे ( आदि०१२२ । ६६ । २१-२२ ) । इन्द्रसे गोलोक और गोदानकी
६६)। खाण्डववनदाइके समय घटित हुए श्रीकृष्ण और महिमाका वर्णन (अनु. ७३ अध्याय)। गोदानके
अर्जुनके साथ युद्धमें इन्द्रकी ओरसे इनका आगमन विषयमें इनका इन्द्र के प्रश्नका उत्तर देना ( अनु०७४ । २-१०)। इन्द्रको गोलोक और गौओंकी महिमा
तथा तलवार और धनुष लेकर शत्रुपर टूट पड़ना (आदि. बताना ( अनु० ८३ । १५--४५) । सुरभीको वरदान
२२६ । ३६ )। ये इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं देना (अनु. ८३ । ३६--३९)। इनके द्वारा
(सभा०७।२२)। इन्होंने स्कन्दके अभिषेकमें भाग देवताओंको आश्वासन ( अनु० ८५ ८--१८)।
लिया (शल्य. ४५। ५)। रुद्रने इनकी आँखें नष्ट वरुणरूपधारी महादेव जीके यज्ञमें इनका अपने वीर्यकी
कर दी थी (सौप्तिक. १८ । २२)। (२) ग्यारह आहुति देना और उमर प्रजापतियोंका जन्म होना
रुद्रोंमेंसे एक। ये भी अर्जनके जन्मोत्सवमें पधारे थे ( अनु०८५। ९९-.-१०२) । पितरों और देवों के (आदि० १२२ । ६९)। अजीर्ण-निवारणके लिये अग्निको उपाय बताना (अनु० भगदत्त-प्राग्ज्योतिषपुरका अधिपति, बाध्कल नामक असुर९२ । ९ । नहुषक पतनके बाद शतक्रतुको इन्द्र के अंशसे उत्पन्न (आदि. ६७ । १)। यह द्रौपदीबनानेके लिये देवोंको आदेश (अनु. १०० । ३४- के स्वयंवरमें गया था ( आदि. १८५ । १२) । यह ३६)। राजा भगीरथको ब्रह्मलोकमें आया देख उनसे राजा पाण्डुका मित्र था। जरासंधसे मिला होनेपर वहाँ पहुँचनेका साधन पूछना (अनु. १०३ । ६-७)। भी युधिष्ठिरके प्रति पिताकी भाँति स्नेह रखता था। इसे इनके द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन(अनु. १२६ । ४६- यवनाधिप कहा गया है (सभा० १४ । १४-१६)। ५०)। कप नामक दानवोंसे पराजित देवताओंको राजसूय-दिग्विजयके समय अर्जुनके साथ इसका घोर युद्ध ब्राह्मणकी शरण लेनेका आदेश ( अनु० १५७ । ५)। हुआ और अर्जुनकी वीरतासे प्रसन्न होकर इसने उनकी देवता, ऋषि, नाग और असुरोको एकाक्षर ॐ इच्छाके अनुसार कार्य करनेकी प्रतिज्ञा की। यह इन्द्र का का उपदेश (आश्व. २६ । ८)। इनके द्वारा मह- मित्र था और इन्द्र के समान ही पराक्रमी था । अर्जुनके र्षियों को विविध ज्ञानका उपदेश (आश्व० ३५ । ३२ से पिता पाण्डुसे भी इसकी मैत्री थी। इसने अर्जुन के प्रति आश्व० ५१ । ४० तक)।
वात्सल्य दिखाया । यह किरात, चीन आदि समुद्रतटवर्ती ब्रह्मावर्त-कुरुक्षेत्रके अन्तर्गत स्थित एक तीर्थ, यहाँ स्नान सैनिकोंके साथ युद्ध में गया था ( सभा० २६ ॥७-१६)।
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भगदा
भद्रकर्णेश्वर
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युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें यह यवनोंके माथ गया था और १२)। यममभामें रहकर सूर्यपुत्र पमकी उपासना अच्छी जातिके वेगशाली अश्व एवं बहुत-सी भेंट-सामग्री करते हैं (सभा० ८।१२)। इनका राज्याभिषेक लेकर खड़ा था । बहुत-से हीरे और पद्मरागमणिके आभूषण (वन०1०। ६९)। इनका हिमालयपर तपस्या एवं विशुद्ध हाथी-दाँतकी बनी मृठवाले खङ्ग देकर यह करके भगवान शिव तथा गङ्गाजी को प्रसन्न करना एवं राजसभा गया था (सभा० ५१ । १४-१६ )। गङ्गाजीद्वारा बरदान पाना (वन. १०८ अध्याय)। दिग्विजयके समय कर्णद्वारा इसकी पराजय ( वन. इन्हें भगवान् शिवका वरदान (वन. १०९ । १-२)। २५४ ५)। पाण्डवोंकी ओरसे इसके पास रणनिमन्त्रण इनका गङ्गाजीको ले जाकर पितरोंका उद्धार करना भेजनेका विचार किया गया था (उद्योग० ४ । ११)। (वन० १०९ । १८-१९)। संजयको समझाते हुए दुर्योधनकी सहायता सेनासहित इसका आना ( उद्योग. नारदजीद्वारा इनके चरित्रका वर्णन (द्रोण. ६. १९ । १५)। प्रथम दिनके संग्राममें विराटके साथ द्वन्दू- अध्याय)। श्रीकृष्णद्वारा इनके दान, यज्ञ आदिका युद्ध (भीष्म ४५ । ४९-५१)। घटोत्कचके साथ वर्णन (शान्ति० २९ । १३-७०)। गोदान-महिमाके युद्ध और पराजय (भीष्म०६४ । ५९-६२) भीम- विषयमें इनका नामनिर्देश ( अनु० ७६ । २५)। सेनको मूञ्छित करना ( भीष्म०६४ । ५३-५४) । ब्रह्माके पूछनेपर अपने पुण्यकर्मों का वर्णन करते हुए इसके द्वारा घटोत्कचकी पराजय (भीष्म० ८३ । ४०)। इनका अनशन-व्रतको ही ब्रह्मलोकमें पहुँचनेका साधन इसका अद्भुत पराक्रम (भीष्म० ५५ अध्याय)। इसके बताना ( अनु. १०३। ८-४२)। इनके द्वारा अपनी द्वारा दशार्णराजकी पराजय (भीष्म० ९५। ५८. कन्याका कौत्सको दान ( अनु० १३७ । २६ )। ४९)। इसके द्वारा क्षत्रदेवकी दाहिनी भुजाका विदारण कोहल ऋषिको एक लाख सवत्सा गौओंका दान करने(भीष्म० ९५।७३)। भीमसेनके सारथि विशोककी के कारण इन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति (अनु. १३७। मूर्छा (भीष्म. ९५ । ७६)। सात्यकिके साथ २७)। इसका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० १११ । ७-१३ )। भङ्ग-तक्षककुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके भीमसेन और अर्जुनके साथ युद्ध (भीष्म अध्याय सर्पसत्रमें जलमरा था (आदि० ५७ । ९)। ११३ से ११४)। अर्जुनके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्मः
भङ्गकार-(१) ये सोमवंशीय महाराज कुरुके पौत्र ११६ । ५६-६०)। द्रुपदके साथ युद्ध (द्रोण. १४ ।
तथा अविक्षित्के पुत्र थे ( आदि० ९४ । ५३) । (२) ४०-४२)। हाथोसहित अद्भुत पराकम करके इसके
एक यदुवंशी क्षत्रिय, जो रैवतक पर्वतके महोत्सवमें द्वारा दशार्णराजका वध (द्रोण. २६ । ३८३९)।
सम्मिलित हुए थे ( आदि० २१८।१)। रुचिपर्वाका वध (द्रोण. २६ । ५२-५३)। अर्जुनके
भङ्गास्वन-एक प्राचीन गजर्षि, जिनका इन्द्र के साथ वैर साथ युद्ध (द्रोण. २८ । १४ से २९ अध्यायतक)। अर्जुनपर वैष्णवानका प्रयोग (द्रोण. २९ । १७)।
हो गया था ( अनु० १२ ।२)। इन्द्रकी प्रेरणासे अर्जुनद्वारा इसका वध (द्रोण. २९ । ४०-५०)।
इनका स्त्रीभावको प्रात होना ( अनु० १२ । १०)।
वनमें जानेपर एक तापसद्वारा इन्होंने सौ पुत्र उत्पन्न भगदत्तके बाद इसका पुत्र वज्रदत्त राजा हुआ, जो अर्जुनद्वारा जीता गया था (आश्व० ७६ । १-२०)।
किया (अनु० १२ । २४)। इन्द्रसे पूछनेपर उनसे इनके पितामह शैलालय तपोबलसे इन्द्रलोकमें गये थे
अपना वृत्तान्त सुनाना (अनु. १२ । ३४-४०)।
इनका विषयसुखकी इच्छासे स्त्रीभावकी ही प्रशंसा करना (आश्रम० २० । १०)।
(अनु. १२ । ५२-५३)। भगदा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ ।
भद्र-(१) एक गणराज्य । यहाँके क्षत्रियराजकुमारोंने २६ )।
राजसूययज्ञके अवसरपर युधिष्ठिरको बहुत-सा धन अर्पित भगनन्दा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६।
किया था ( सभा० ५२ । १४-१७)। दिग्विजयके ११ )।
समय कर्णने इस देशको जीता था (वन० २५४ । भगवढ़ीतापर्व-भीष्मपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय २५
२०)। (२) चेदिदेशीय पाण्डवपक्षका एक योद्धा, से ४२ तक)।
जिसका कर्णद्वारावध हुआ था ( कर्ण०५६ । ४८-४९)। भगवद्यानपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय भद्रकर्णेश्वर-इसके समीप जाकर विधिपूर्वक पूजा करने७२ से १५० तक)।
वाला मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता (वन. भगीरथ-एक गजा, जो दिलीपके पुत्र थे (वन० २५ । । ८४ । ३९)।
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भद्रकार
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( २२५ )
भद्रकार - एक राजा, जो जरासंधके भयसे अपने भाइयों और सेवकों सहित दक्षिण दिशामें भाग गया था ( सभा० १४ । २६ ) ।
भद्रकाली -- (१) दुर्गाजीका एक नाम । अर्जुनने इस नामसे दुर्गाजीका स्तवन किया था ( भीष्म० २३ । ५ ) । दक्षयज्ञविध्वंसके समय ये पार्वतीजी के कोप से प्रकट हुई थी ( शान्ति० २८४ । ५३-५४ ) । (२) स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६ । ११ ) । भद्रतुङ्ग - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके सुशील पुरुष ब्रह्मलोकमें
जाता और वहाँ उत्तम गति पाता है ( वन० ८२ । ८० ) । भद्रमना- यह क्रोधवशाकी नौ कन्याओंमेंसे एक है । इसने देवताओंके हाथी महान् गजराज ऐरावतको जन्म दिया ( आदि० ६६ । ६०-६३ ) ।
भद्रवट-यह उमावल्लभ महादेवजीका निवासस्थान है । यहाँ भगवान् शिवका दर्शन करनेवाला यात्री एक हजार गोदानका फल पाता है और महादेवजीकी कृपासे गणोंका आधिपत्य प्राप्त करता है ( वन० ८२ । ५०-५१ ) । भद्रशाख - बकरे के समान मुख धारण करनेवाले स्कन्ददेवका
एक नाम ( वन० २२८ । ४ ) ।
भद्रशाल - मेदके पूर्व भाग में स्थित भद्राश्ववर्ष के शिखरपर अवस्थित एक वन, जिसमें कालाग्र नामक महान् वृक्ष है ( भीष्म० ७ । १४ ) ।
भद्रा- (१) ये कक्षीवान्की पुत्री और पूरुवंशी राजा व्युषिताश्वकी पत्नी थीं। इनके रूपकी समानता करनेवाली उस समय दूसरी कोई स्त्री न थी ( आदि० १२० | १७ ) । पति के परलोकवासी हो जानेपर इनका विलाप करना ( आदि० १२० । २१ - ३१ ) । इनको आकाशवाणीद्वारा पतिका आश्वासन और पतिके शवद्वारा इनके गर्भ से सात पुत्रों की उत्पत्ति ( आदि० १२० । ३३ – ३६ ) । (२) ये कुबेरकी अनुरक्ता पत्नी थीं । कुन्तीने द्रौपदीसे दृष्टान्तरूप में इनका वर्णन किया था ( आदि० १९८ । ६ ) । ( ३ ) भगवान् श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्राका एक नाम ( आदि० २१८ | १४ ) । विशेष देखिये सुभद्रा )
४ ) विशालानरेशकी कन्या, जो करूपराजकी प्राप्तिके लिये तपस्या करनेवाली थी; परंतु शिशुपालने करूराजका वे धारण करके मायासे इसका अपहरण कर लिया था ( सभा० ४५ । ११) । (५) सोमकी पुत्री, जो अपने समयकी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी मानी जाती थी । इन्होंने उतथ्यको पति रूप में प्राप्त करने के लिये तीव्र तपस्या की । तब सोमके पिता महर्षि अत्रिने उतथ्यको बुलाकर इन्हें उनके हाथमें दे दिया और उतथ्यने विधिपूर्वक इनका पाणिग्रहण किया ( अनु० १५४ । १०-१२ ) । वरुणद्वारा इनका अपहरण ( अनु० १५४ । १३ ) । जब कुपित होकर उतथ्यने सारा जल पी लिया, तब वरुण उनकी शरणमें आये और उनकी भार्या भद्राको उन्हें लौटा दिया ( अनु०
म० ना० २९-
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भरत
१५४ । २८ ) । ( ६ ) वसुदेवजीकी चार पत्नियोंमेंसे एक ( मौसल ० ७ । १८ ) । ये वसुदेवजी के साथ ही चितारोहण कीं ( मौसल० ७ । २४ )।
भद्राश्व - मेरुपर्वत के समीपका एक द्वीप ( भीष्म० ६ । १३ ) | धृतराष्ट्र के प्रति संजयद्वारा इसका विशेष वर्णन ( भीष्म० ७ । १३ – १८ ) । इस भद्राश्ववर्ष पर युधिष्ठिरने शासन किया था ( शान्ति० १४ । २४ ) । भय-अधर्मद्वारा निर्ऋतिके गर्भ से उत्पन्न तीन भयंकर राक्षसोंमेंसे एक । अन्य दोका नाम महाभय और मृत्यु था । ये राक्षस सदा पापकर्म में लगे रहनेवाले हैं ( आदि० ६६ । ५४-५५ )।
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भयङ्कर - ( १ ) सौवीरदेशका एक राजकुमार, जो जयद्रथ के रथके पीछे हाथ में ध्वजा लेकर चलता था। यह द्रौपदीहरण के समय जयद्रथके साथ गया था ( वन० २६५ । (१०-११ ) । अर्जुनद्वारा इसका वध ( वन० २७१ । २७) । (२) एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३१) । भयङ्करी- स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । ४ ) । भरणी - ( सत्ताईस नक्षत्रोंमेंसे एक ) जो भरणी नक्षत्र में ब्राह्मणोंको तिलमयी धेनुका दान करता है, वह इस लोक में बहुत-सी गौओं को तथा परलोक में महान् यशको प्राप्त करता है ( अनु० ६४ । ३५ ) । इस नक्षत्र में श्राद्ध करनेसे उत्तम आयुकी प्राप्ति होती है ( अनु० ८९ । १४ ) । चन्द्र-व्रतमें भरणी नक्षत्रको चन्द्रमाका सिर मानकर पूजा आदि करनेका विधान है ( अनु० ११० । ९ ) । भरत - ( १ ) दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तला के गर्भ से उत्पन्न एक राजा । इन्हीं भरतवंशकी प्रवृत्ति हुई तथा इन्हींसे शासित होने के कारण इस देशका नाम भारत हुआ (आदि० २ । ९५-९६ आदि० ७४ । १३१ ) । इनकी उत्पत्तिका वृत्तान्त ( आदि० ७३ । १५ से आदि०७४ । २ तक ) । बचपन में बड़े-बड़े दानवों, राक्षसों, सिंहों आदि का दमन करनेके कारण ऋषियोंने इनका नाम 'सर्वदमन' रखा था ( आदि ० ७४ । ८ ) । ( २ ) ये शंयु नामक अग्निके द्वितीय पुत्र हैं । समस्त पौर्णमासयागोंमें सुवासे हविष्य के साथ घी उठाकर इन्हींको प्रथम आधार अर्पित किया जाता है । इनका नामान्तर ऊर्ज है ( वन० २१९ । ६ ) (३) ये भरत नामक अग्निके पुत्र हैं ( वन० २१९ । ७ ) । ये संतुष्ट होनेपर पुष्टि प्रदान करते हैं; इसलिये इनका एक नाम पुष्टिमति है ( वन० २२१ । १ )। ( ४ ) ये अद्भुत नामक अग्निके पुत्र हैं, जो मरे हुए प्राणियों के शवका दाइ करते हैं । इनका अग्निष्टोममें नित्य निवास है; अतः इन्हें 'नियत' भी कहते हैं (वन० २२२ । ६) । ( ५ ) महाराज दशरथ के पुत्र, जो कैकेयीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे, श्रीराम, लक्ष्मण और शत्रुघ्न इनके भाई थे ( वन० २७४ । ७-८ ) । श्रीरामके वनमें चले जानेपर
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भरती
( २२६ )
भाद्रपद
कैकेयीका इन्हें ननिहालसे बुलवाना और अकण्टक राज्य यशमें प्रथम आज्यभागके द्वारा इन भरद्वाजनामक अग्निकी ग्रहण करने के लिये कहना (वन० २७७ । ३१-३२)। ही पूजा की जाती है (वन० २१९ । ५)। (३) इनका अपनी माताको फटकारना और उसके कुकृत्यपर एक भारतीय जनपद (भीष्म०९ । ६८)। फूट-फूटकर रोना (वन. २७७ । ३३-३४)। इनकी मरुकक्ष-एक भारतीय जनपद । यहाँके निवासी शूद्र युधिचित्रकूट यात्रा (वन.२७७ । ३५-३८)। श्रीरामके
ष्ठिरके राजसूय यज्ञमें भेंट लेकर आये थे (सभा ५१ । लौटनेपर उन्हें राज्य समर्पण करना (वन० २९१ । ६५)।
९.१०)। भरती-भरत नामक अग्निकी पुत्री (वन० २१९।७)। भरद्वाज-(१) एक प्राचीन ऋषि । सप्तर्षियोंमेंसे एक।
भर्ग-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ५। ५१)। ये अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे थे (आदि०१२३४५१)। भतुस्थान-यहाँ जानेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है । यहाँ इन्हींकी कृपासे भरतको भुमन्यु नामक पुत्र प्राप्त हुआ
महासेन कार्तिकेयका निवास स्थान है। यहाँ यात्रीको सिद्धि(आदि० ९४ । २२)। ये भगवान् भरद्वाज किसी समय
__ की प्राप्ति होती है (वन० ८४ । ७६, वन० ८५। ६.)। गङ्गाद्वारमें रहकर कठोर व्रतका पालन करते थे। एक दिन भल्लाट-एक भारतीय जनपद, जिसे पूर्वदिग्विजयके समय उन्हें एक विशेष प्रकारके यज्ञका अनुष्ठान करना था। भामसनन जाता था (सभा० ३०।५)। इसलिये वे महर्षियोंको साथ लेकर गङ्गाजीमें स्नान करनेके भव-(१) ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक । ये ब्रह्माजीके पौत्र एवं लिये गये । वहाँ पहलेसे नहाकर वस्त्र बदलती हुई घृताची स्थाणुके पुत्र थे ( आदि० ६६ । १-३ )। अप्सराको देखकर महर्षिका वीर्य स्खलित हो गया । महर्षिने (२) एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३५)। उसे उठाकर द्रोण ( कलश ) में रख दिया । उससे एक
भवदा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६।१३)। पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम द्रोण रखा गया (किन्हींकिन्हींके मतमें सप्तर्षि भरद्वाजसे द्रोणपिता भरद्वाज भिन्न
भागीरथी-यहाँ जाकर तर्पण करना चाहिये (वन० ८५ । हैं।) (आदि. १२९ । ३३-३०)। इन्होंने अग्नि
१४)। वेशको आग्नेयास्त्रकी शिक्षा दी (आदि. १२९ । ३९)। भाङ्गासुरि-एक राजा, जो यमराजकी सभामें विराजमान होकर ये ब्रह्माजीकी सभामें बैठकर उनकी उपासना करते हैं सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते है ( सभा०८। (सभा० ११ । २२)। इनका अपने पुत्र यवक्रीतको
१५)। अभिमान न करनेका उपदेश देना (वन० १३५।१४)। भाण्डायनि-एक ऋषि, जो इन्द्रकी सभामें उपस्थित इनका पुत्रशोकके कारण विलाप करना (वन० १३७। हो वज्रधारी इन्द्रकी उपासना करते हैं (सभा०॥ १०-१८)। इनके द्वारा अपने मित्र रैभ्यमुनिको शाप (वन० १३७ । १५) । इनका पुत्रशोकसे अग्निमें भाण्डीर-व्रजभूमिमें स्थित एक वन और वहाँका एक वटप्रवेश (वन० १७ । १९) । रैभ्यपुत्र अर्वावसुके वृक्ष, जिसकी छायामें भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालपालोंके साथ प्रयत्नसे इनका पुनरुज्जीवन (वन० १३८ । २२)। बछड़े चराते तथा भाँति-भाँतिकी क्रीड़ाएँ किया करते थे। इनका द्रोणाचार्यके पास आकर युद्ध बंद करनेको कहना भाण्डीरवनमें निवास करनेवाले बहुत-से ग्वाले वहाँ कोड़ा (द्रोण. १९०।३५-४०)। भृगुजीसे सृष्टि आदिके करते हुए श्रीकृष्णको विविध प्रकारके खिलौनोद्वारा प्रसन्न सम्बन्धमें पूछना और उनका उत्तर प्राप्त करना (शान्ति. रखते थे (सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ अध्याय १८२ से १९२ तक)। इनका भगवान् विष्णुकी
८००)। (वृन्दावनमें केशीघाटके सामने यमुनाजीके उस छातीमै जलसहित हाथसे प्रहार करना (शान्ति० ३४२।
पार उत्तर दिशामें यह वन पड़ता है। पुराणोंमें ऐसी कथा ५४)।राजा दिवोदासको शरण देकर पुत्रेष्टिद्वारा उन्हें आती है कि यहाँ ब्रह्माजीने श्रीराधा-कृष्णका विवाह पुत्र प्रदान करना (अनु.३० । ३०) । वृषादर्भिसे कराया था)। प्रतिग्रहके दोष बताना (अनु० ९३ । ४१)। अरुन्धती- भाज
)-(बारह महीनों से एक, जिस माससे अपने शरीरकी दुर्बलताका कारण बताना ( अनु० ९५। की पूर्णिमाको पूर्वभाद्रपद अथवा उत्तरभाद्रपद नामक ६६)। यातुधानीको अपने नामकी व्याख्या सुनाना नक्षत्रका योग हो, उसे भाद्रपद' कहते हैं (अनु. ९३।८८)। मृणालकी चोरीके विषयमें शपथ बाद और आश्विनके पहले आता है।) भाद्रपद मासमें खाना ( अनु. ९३ । ११८-११९)। अगस्त्यजीके प्रतिदिन एक समय भोजन करनेवाला मनुष्य गोधनसे कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ खाना (अनु० ९४।। सम्पन्न, समृद्धिशील तथा अविचल ऐश्वर्यका भागी होता १५)। (२) ये शंयु नामक अग्निके प्रथम पुत्र हैं। है (अनु० १०६ । २८)। भाद्रपदकी द्वादशी तिथिको
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भानु
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( २२७ )
उपवासपूर्वक हृषीकेश नामसे भगवान् की पूजा करनेवाला मनुष्य सौत्रामणि यशका फल पाता और पवित्रात्मा होता है (अनु० १०९ । १२ ) ।
भानु - (१ ) एक देव, जो विवस्वान् के बोधक माने गये हैं ( आदि ० १ । ४२ ) । (२) 'प्राधा' नामवाली कश्यपकी पत्नी के गर्भ से उत्पन्न एक देवगन्धर्व ( आदि० ६५ । ४७ ) । ( ३ ) ये श्रीकृष्ण के पुत्र थे ( सभा० २ । ३५) । मृत्यु के पश्चात् ये विश्वेदेवों में प्रविष्ट हो गये ( स्वर्गा० ५ । १६-१८ ) । ( ४ ) ये पाञ्चजन्यनामक अग्निके पुत्र हैं, जो आङ्गिरस व्यवनके अंशसे उत्पन्न हुए थे ( वन० २२० । ९ ) । इन्हींको मनु तथा बृहद्भानु भी कहते हैं (वन० २२१ । ८) । (५) एक प्राचीन राजा, जो कृपाचार्य के साथ होनेवाले अर्जुनके युद्धको देखनेके लिये इन्द्रके विमानमें बैठकर पधारे थे ( विराट० ५६ । ९-१० ) ।
भानुदत्त - यह शकुनिका भाई था, जो भीमसेनके साथ युद्ध
मैं उनके द्वारा मारा गया था (द्रोण० १५७/२४ - २६) । भानुदेव - एक पाञ्चाल योद्धा, जो कर्णद्वारा मारा गया ( कर्ण ० ४८ । १५ ) ।
भानुमती - (१) यह कृतवीर्यकी पुत्री तथा पूरुवंशी राजा अहंयातिकी पत्नी थी । इसके गर्भ से सार्वमौम नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (आदि० ९५ । १५) । ( २ ) महर्षि अङ्गिराकी प्रथम पुत्री, जो बड़ी रूपवती थी ( बन० २१८ । ३)। भानुमान् - कलिङ्गदेशका राजकुमार। यह कौरवपक्षकी ओरसे युद्ध करते हुए भीमसेनद्वारा मारा गया ( भीष्म० ५४ । ३३-३९)।
भानुसेन - यह कर्णका पुत्र था । भीमसेनद्वारा इसका वध ( कर्ण ० ४८ । २७ ) ।
भारत - भरतके वंश में उत्पन्न होनेवाले लोग 'भारत' नामसे कहे जाते हैं ( आदि ० १७२ । ५० के बाद दा० पाठ) ।
भारतवर्ष - जम्बूद्वीपके नौ वर्षोंमेंसे एक (भीष्म० ६ । ७) ।
इसका विशेष वर्णन ( भीष्म अध्याय ९ से १० तक ) । भारतसंहिता - व्यासजीद्वारा रचित चौबीस हजार श्लोकोंकी संहिता, जिसे विद्धान् पुरुष भारत भी कहते हैं ( आदि ० १ । १०२ ) ।
भारती - एक नदी, जिसकी गणना अग्नियोंको उत्पन्न करने
वाली नदियोंमें है ( बन० २२२ । २५-२६ ) । भारद्वाज - एक ऋषि, जिन्होंने सत्यवान् के जीवित होनेका विश्वास दिलाकर राजा द्युमत्सेनको आश्वासन दिया था ( वन० २९८ । १६ )
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भीम
भारद्वाजतीर्थ-यह पाँच नारीतीर्थोंमेंसे एक है। यहाँ अर्जुन तीर्थयात्रा के समय गये थे ( आदि० २१५ । ४ ) । भारद्वाजी - भारतवर्षकी एक प्रधान नदी, जिसका जल यहाँके निवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २९ ) । भारुण्ड - उत्तरकुरुवर्ष में रहनेवाले महाबली पक्षियोंकी एक जाति । इनकी चोंच बड़ी तीखी होती है और ये वहाँके मरे हुए लोगोंकी लाशको उठाकर कन्दराओंमें फेंक आते हैं ( भीष्म ० ७ । १२; शान्ति० १६९ । ९ ) । भार्गव - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५० ) । भालुकि एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते हैं ( सभा० ४ । १५ ) ।
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भावन- द्वारकाके समीपवर्ती वेणुमन्त पर्वतके निकट स्थित एक सुन्दर वन ( सभा ० ३८। २९ के बाद दा पाठ, पृष्ठ ८१३ ) ।
भाविनि - स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६ । ११) ।
भास - एक पर्वत, जिसकी गणना पर्वतोंके अधिपतियोंमें है (आश्व० ४३ । ५ ) ।
भासी - ( १ ) कश्यपकी प्राधा नामवाली पत्नीसे उत्पन्न हुई आठ कन्याओंमेंसे एक ( आदि० ६५ । ४६ ) । ( २ ) यह ताम्राकी पुत्री है। इसने मुर्गों तथा गीधोंको जन्म दिया ( आदि० ६६ । ५६-५७ ) । भास्कर - कश्यपद्वारा अदिति के गर्भ से उत्पन्न बारह आदित्योंमेंसे एक ( अनु० १५० १४-१५ ) । भास्कर - एक प्राचीन ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखने के लिये आये थे ( शान्ति ० ४७ । १२ ) । भास्वर - सूर्यद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक ।
दूसरेका नाम सुभ्राज था ( शल्य० ४५ । ३१ ) । भीम - (१) कश्यपद्वारा मुनिके गर्भ से उत्पन्न एक देवगन्धर्व ( आदि०६५ । ४३) । (२) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ । ९८ ) । यह भीमसेनद्वारा मारा गया ( भीष्म ० ६४ । ३६-३७) । ( ३ ) ये महाराज ईलिनके द्वारा रथन्तरीके गर्भ से उत्पन्न हुए थे । इनके चार भाई और थे— दुष्यन्त, शूर, प्रवसु और वसु (आदि० ९४ । १७-१८ ) ( ४ ) ये विदर्भदेशके राजा थे ( वन० (५३ । ५ ) । दशार्णनरेश सुदामाकी पुत्री इनकी पत्नी थी ( वन० ६९ | १४-१५) । महर्षि दमनकी कृपासे इन्हें दम, दान्त और दमन नामक तीन पुत्र तथा दमयन्ती नाम्नी कन्याकी प्राप्ति ( वन० ५३ । ६-९ ) । इनके द्वारा दमयन्तीके स्वयंवरका आयोजन ( वन०
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भीमजानु
( २२८ )
भीमसेन
५४ । ८-९) । इनके द्वारा नलके साथ दमयन्तीका भीमरथी (भीमा)-दक्षिणभारतमें स्थित एक नदी, जो विवाह किया जाना (वन० ५७ । ४०-४१)। सारथि . समस्त पापभयका नाश करनेवाली है (वन०८८।३)। वार्ष्णेयके द्वारा लाये गये राजा नलके बच्चोंको अपने (इसीके तटपर सुप्रसिद्ध तीर्थ पण्ढरपुर है।) यह
आश्रयमें रखना (वन० ६० । २३-२४) । दमयन्ती- भारतवर्षकी मुख्य नदियों में है। इसके जलको यह द्वारा इनके गुणोंका वर्णन (वन०६४ । ४४-४७)। पीते हैं (भीष्म०९।२०)। इसीको भीमा' भी कहते हैं इनका नल-दमयन्तीकी खोजके लिये ब्राह्मणोंको पुरस्कार- (भीष्म० ९ । २२)। की घोषणा करके चारों ओर भेजना ( वन० ६८ । २- भीमवेग-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ । १४; ५)। महारानीकी प्रेरणासे राजा नलकी खोजके लिये आदि०११६।७)। ब्राह्मणोंको आज्ञा देकर भेजना (वन० ६९ । ३४)। भीमशर-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि०६७।९९)। इनके द्वारा अपने यहाँ आये हुए अयोध्यानरेश ऋतुपर्ण- भीमसेन-(१) ये महाराज परीक्षित्के पुत्र तथा जनमेजयका स्वागत (वन० ७३ । २०)। प्रकट हुए राजा के भाई थे। इन्होंने कुरुक्षेत्रके यज्ञमें देवताओंकी कुतिया नलको पुत्रकी भाँति अपनाना और आदर-सत्कारके साथ सरमाके बेटेको पीटा था (आदि. ३ । १-२)। (२) आश्वासन देना (वन० ७७।३-५)। एक महीनेके कश्यपपत्नी मुनिके गर्भसे उत्पन्न एक देवगन्धर्व (आदि. पश्चात् सेना, रथ आदिके साथ राजा नलको विदा करना
६५ । ४२) । ये अर्जुनके जन्मोत्सवमें पधारे थे (वन० ७८ । १-२)। इनके द्वारा आदर-सत्कारके
(आदि. १२२ । ५५)।(३) ये सोमवंशीय महाराज साथ राजा नलसहित दमयन्तीकी विदाई (वन० ७९ ।।
अविक्षित्के पौत्र तथा परीक्षित्के पुत्र थे । १-२)। (५) ये देवताओंके यज्ञका विनाश करनेवाले । इनकी माताका नाम
' इनकी माताका नाम सुयशा था। इनके द्वारा केकय पाञ्चजन्यद्वारा उत्पन्न पाँच विनायकोंमें हैं (बन.
देशकी राजकुमारी 'कुमारी'के गर्भसे प्रतिश्रवाका जन्म हुआ २२१ । ११)। (६) अंशद्वारा स्कन्दको दिये गये
(आदि० ९४ । ५२-५५, आदि. ९५ । ४२-४३)। पाँच अनुचरोंमेंसे एक । शेष चारोंके नाम-परिघ, वट,
(४) ये महाराज पाण्डुके क्षेत्रज पुत्र हैं । वायुदेवके दहति और दहन (शल्य० ४५ । ३१-३५)। (७)
द्वारा कुन्तीके गर्भसे इनका जन्म हुआ था। इनके जन्मएक प्राचीन नरेश। ये यमकी सभामें रहकर सूर्यपुत्र
कालमें आकाशवाणी हुई कि यह कुमार समस्त बलवानोंमें यमकी उपासना करते हैं, इस सभामें भीम नामके सौ
श्रेष्ठ है (आदि. १२२ । १४-१५)। जन्मके दसवें दिन राजा हैं (सभा० ८ । २४)। इन्होंने तपस्याद्वारा ये माताकी गोदसे एक शिलाखण्डपर गिर पड़े और इनके प्रजाओंका कष्टसे उद्धार किया था (वन०३।११)
शरीरकी चोटसे वह शिला चूर-चूर हो गयी (आदि. ये प्राचीनकालमें पृथ्वीके शासक थे; किंतु कालसे पीड़ित
१२२ । १५ के बाद दाक्षिणात्य पाठसे १८ तक)। हो इसे छोड़कर चले गये (शान्ति० २२७ । ४९)।
इनके जन्मकालीन ग्रहोंकी स्थिति (आदि. १२२ । १८ भीमजानु-एक प्राचीन नरेश, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंद्वारा
यमकी उपासना करते हैं (सभा०८।२१)। इनका नामकरण-संस्कार (आदि. १२३ । १९-२०)। भीमबल (भूरिबल)-(१) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंसे एक वसुदेवके पुरोहित काश्यपके द्वारा इनके उपनयनादि-संस्कार
(भादि० ६७ । ९८ आदि. ११६।७)। भीमसेन- सम्पन्न हुए तथा इन्होंने राजर्षि शुकसे गदायुद्ध की शिक्षा प्राप्त द्वारा इसका वध (शल्य. २६ । १४-१५)। (२) की (आदि० १२३॥३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ३६९)। ये देवताओंके यज्ञका विनाश करनेवाले पाञ्चजन्यद्वारा कृपाचार्यका इन (पाण्डवों)को अस्त्र-शस्त्रकी शिक्षा देना
उत्पन्न पाँच विनायकोंमें हैं (वन० २२१ । ११)। (आदि. १२९ । २३)। द्रोणाचार्यने इन (पाण्डवों)को भीमरथ-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक ( आदि० नाना प्रकारकी मानव एवं दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा दी
६७।१०३ आदि. ११६।१२)। भीमसेनद्वारा (आदि० १३१ । ४, ९)। इनके द्वारा द्रौपदीके गर्भसे इसका वध (भीष्म ६४ । ३६-३७) । (२) सुतसोमका जन्म ( आदि. ९५। ७५)। इनके कौरवपक्षीय योद्धा, जो द्रोणनिर्मित गरुडव्यूहके हृदय- द्वारा काशिराजकी पुत्री बलन्धराके गर्भसे सर्वग' की स्थानमें खड़ा हुआ था (द्रोण० २० । १२)। इसने उत्पत्ति (आदि. ९५। ७७)। इनके द्वारा बालपाण्डवपक्षीय म्लेच्छराज शाल्वका वध किया था (द्रोण. क्रीडाओंमें धृतराष्ट्रपुत्रोंकी पराजय (आदि० १२७ । १६२५।२६) । पहले जब युधिष्ठिर राजा थे, उस समय २४)। दुयोधनका इन्हें विष मिला हुआ भोजन कराना यह उनके सभाभवन में बैठा करता था ( सभा. और मूञ्छित होनेपर लताओंसे बाँधकर गङ्गाजलमें फेंकना ४।२६)।
(भादि० १२७ । ४५-५४)। मूछितावस्थामें इनका
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भीमसेन
( २२९ )
भीमसेन
नागलोकमें पहुँचना और वहाँ सर्पो के डंसनेसे खाये हए भोजन-सामग्री लेकर बकासुरके पास जाना और स्वयं विषके दूर होनेपर अपना पराक्रम प्रकट करना (आदि. ही भोजन करते हुए उसे पुकारना (आदि० १६२ । १२७ । ५५-५९) । नागलोकमें इनका आर्यक नाग- ४-५)। वकासुरका आना और कुपित होकर इनके साथ द्वारा आलिङ्गन और आर्यककी प्रेरणासे प्रसन्न हुए नाग- युद्ध छेड़ना ( आदि० १६२ । ६-२८)। इनके राज वासुकिकी आज्ञासे इनके द्वारा आठ कुण्डोंका दिव्य द्वारा वकासुरका वध ( आदि० १६३।१)। इनके रसपान, जिससे इन्हें एक हजार हाथियोंके बलकी प्राप्ति द्वारा मनुष्योंकी हिंसा न करनेकी शर्तपर वकके परिवारको हुई (आदि. १२७ । ६३-७१)। आठवें दिन रसके जीवनदान देना (आदि० १६३ । २-४)। द्रौपदीके पच जानेपर इनका जागना और नागोंद्वारा इनका मङ्गला- स्वयंवरमें आये हुए राजाओंके साथ ब्राह्मणवेशमें युद्ध चारपूर्वक स्वागत-सत्कार तथा दस हजार हाथियोंके समान करते समय इनका श्रीकृष्णद्वारा बलरामजीको परिचय बलशाली होनेका वरदान देकर इन्हें पुनः ऊपर पहुँचा देना (आदि. १८८ । १४-२१)। स्वयंवरके अवसरदेना ( आदि. १२८ । २०-२८)। इनका नागलोकसे पर शल्यके साथ इनका युद्ध और इनके द्वारा शल्यकी लोटकर माताको प्रणाम करना तथा भाइयोंसे मिलना पराजय (आदि. १८९ । २३-२९) । द्रौपदीके साथ (आदि. १२८ । २९-३०)। गदायुद्ध में इनका प्रवीण इनका विधिपूर्वक विवाह (आदि० १९७ । १३)। होना (आदि० १३१ । ६१)। हस्तिनापुरकी रङ्गभूमिमें मयासुरद्वारा इनको गदाकी भेंट (सभा०३ । १८परीक्षाके समय दुर्योधनके साथ गदायुद्ध एवं अश्वत्थामा- २१)। जरासंधवधके विषयमें इनकी युधिष्ठिर और द्वारा उस युद्धका निवारण (आदि. १३४।१-५)। श्रीकृष्णके साथ बातचीत ( सभा० १५। ११-१३ के इनके द्वारा कर्णका तिरस्कार (आदि० १३६ । ६-७)। बाद दाक्षिणात्य पाठ)। जरासंधवधके लिये युधिष्ठिर कर्णका पक्ष लेकर दुर्योधनका इनपर आक्षेप करना और अर्जुनके साथ इनकी मगधयात्रा ( सभा० २० (आदि. १३६ । १०-१६) । इनके द्वारा द्रुपदकी अध्याय) । जरासंधके साथ इनका मल्लयुद्ध एवं श्रीगजसेनाका संहार ( आदि० १३७ । ३१-३५) । कृष्णका जरासंधको चीरनेके लिये इन्हें संकेत करना बलरामजीसे इनकी गदायुद्धविषयक शिक्षा ( भादि. (सभा० २३ । १० से २४ । ६ तक) । इनका १३८ । ४)। इनके द्वारा लाक्षागृहका जलाया जाना जरासंधको चीर डालना (सभा० २४ । ७)। (आदि. १४७।१०)। सुरंगसे निकल भागते समय जरासंधके पुनः जीवित हो जानेपर श्रीकृष्णद्वारा इन्हें इनके द्वारा मार्गमें थके हुए भाइयों एवं माताका परिवहन पुनः संकेतकी प्राप्ति और उस संकेतके अनुसार इनका (आदि. १४७ । २०-२१)।धरतीपर सोये हुए भाइयों जरासंधको चीरकर दो दिशाओंमें फेंक देना (सभा० एवं माताको देखकर इनका विषाद करना (आदि. २४। ७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। इनका पूर्वदिशाके १५० । २१-४१)। हिडिम्बवनमें इनका जागरण करना प्रदेशोंको जीतनेके लिये प्रस्थान और विभिन्न देशोंपर (मादि. १५०। ४४-१५)। हिडिम्बाके साथ वार्ता- विजय पाना ( सभा० २९ अध्याय )। भीमका पूर्व लाप करना (आदि. १५१ । २३-३६)। हिडिम्बासुर- दिशाके अनेक देशों और राजाओंको जीतकर भारी धनके साथ इनका युद्ध (आदि० १५२ । ३८-१५)। सम्पत्तिके साथ इन्द्रप्रस्थ लौटना ( सभा० ३० अध्याय)। इनके द्वारा हिडिम्बका वध (आदि० १५३ । ३२)।। प्रथम पूजाके अवसरपर भीष्म तथा श्रीकृष्णकी निन्दा हिडिम्बाको मारनेके लिये इनका उद्यत होना तथा करनेपर शिशुपालको मारनेके लिये इनका उद्यत होना युधिष्ठिरका इन्हें रोकना (आदि. १५४ । १-२)। और भीष्मजीका इन्हें शान्त करना (सभा०४२ हिडिम्बाको पुत्र दान करनेके लिये इन्हें माताका अध्याय)। राजसूय-यज्ञकी समाप्तिपर ये भीष्म तथा आदेश प्राप्त होना (आदि. १५४ । १८ के बाद धृतराष्ट्रको पहुँचाने गये थे ( सभा० ४५ । ४८)। दाक्षिणात्य पाठ )। हिडिम्बाके साथ इनकी शर्त दुष्ट कौरवोद्वारा भरी सभामें द्रौपदीके अपमान किये ( आदि. १५४ । २० )। हिडिम्बाके साथ जानेपर इनका कुपित होकर युधिष्ठिरकी भुजाओंको इनका विहार ( आदि. १५४ । २१-३०)। जलानेके लिये कहना (आदि० ६८।६)। इनके इनके द्वारा हिडिम्बाके गर्भसे घटोत्कचका जन्म (आदि. द्वारा दुःशासनकी छाती फाड़कर उसके रक्त पीनेकी १५४।३१)।एकचक्रामें निवास करते समय पूरी भिक्षाका भीषण प्रतिज्ञा ( सभा० ६८ । ५२-५३)। आधा भाग इनके उपभोगमें आता था ( आदि. १५६ । इनके रोषपूर्ण उद्गार (सभा०७० । १२-१७)। ६) । ब्राह्मणका उपकार करनेके लिये इन्हें माता दयोधनकी जाँघ तोड़ देनेके लिये इनकी प्रतिज्ञा (सभा. कुन्तीकी आज्ञा (आदि. १६०। २०)। इनका ७१। १४)। इनका तसभामें समस्त शत्रुओंको
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भीमसेन
( २३० )
भीमसेन
मारनेके लिये उद्यत होना ( सभा० ७२ । १०-११)। दुःशासनके उपहास करनेपर उसे मारनेके लिये इनकी प्रतिज्ञा (सभा० ७७ । १६-१८)। दुःशासनका रक्त पीने तथा धृतराष्ट्र के सभी पुत्रोंका वध करनेके लिये इनकी प्रतिशा ( सभा० ७७ । २०-२२)। दुर्योधनको मारनेके लिये प्रतिज्ञा करना (सभा०७७ । २६-२८)। इनका अपनी भुजाओंकी ओर देखते हुए वन-गमन करना (सभा० ८०। ४)। किर्मीरके साथ इनका युद्ध तथा इनके द्वारा उसका वध (वन ११।२८-६७)। इनका पुरुषार्थकी प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिरसे युद्ध छेड़नेके लिये अनुरोध (बन० ३३ अध्याय)। इनका युधिष्ठिरको युद्ध करनेके लिये उत्साहित करना (वन ३५ अध्याय)। इनकी अर्जुनके लिये चिन्ता (वन ८०।१७-२१)। इनका गन्धमादन पर्वतपर चढ़नेका उत्साह प्रकट करना ( वन. १४०।९-१७)। गन्धमादनकी यात्रामें इनके द्वारा घटोत्कचका स्मरण किया जाना (वन० १४४ । २५)। इनका सौगन्धिक पुष्पके लानेके लिये प्रस्थान करना (वन० १४६।९)। कदलीवनमें इनकी हनुमानजीसे भेंट (बन. ११६ । ८६)। इनका हनुमानजीके साथ संवाद (वन. अध्याय १४७ से १५० तक)। इन्हें हनुमान्जीका आश्वासन (वन० १५१।१६-१९)। भीमसेनका सौगन्धिक. वनमें पहुँचना (वन० १५२ अध्याय)। इनका सौगन्धिक सरोवरके पास पहुँचना (वन० १५३। १०)। इनका क्रोधवश नामक राक्षसोंके साथ युद्ध और उन्हें पराजित करके सौगन्धिक पुष्प तोड़ना (वन० १५४ । १८-२३)। जटासुरके साथ इनका युद्ध तथा इनके द्वारा उसका वध (वन० १५७ । ५६-७०)। हिमालयके शिखरपर यक्षों और राक्षसोंके साथ इनका युद्ध तथा इनके द्वारा राक्षसराज मणिमान्का वध (वन० १६० । ४९-७७)। इनका गन्धमादनसे प्रस्थान करनेके लिये युधिष्ठिरसे वार्तालाप (बन० १७६ । ७१६)। अजगरद्वारा इनका पकड़ा जाना (बन. १७८ । २८)। अजगरद्वारा पकड़े जानेपर उससे संवादरूपमें इनका विलाप करना (वन. १७९ । २५३८ )। अजगररूपधारी नहुषके चंगुलसे इनका छुटकारा पाना (वन. १८१। १३) चित्रसेनद्वारा दुर्योधनके पकड़े जानेपर इनकी कटु-उक्ति (वन०२४२। १५-२१)। इनके द्वारा कोटिकास्यका वध (वन० २७१।२६)। जयद्रथको पकड़ उसके बाल काटकर पाँच चोटियाँ रखना और महाराज युधिष्ठिरका दास घोषित करना (वन० २७२ । ३-1)। द्वैतवनमें जल लानेके लिये जाना और सरोवरपर मूञ्छित होना (धन.
३१२ । ३३-४०)। अज्ञातवासके लिये चिन्तित हुए युधिष्ठिरको उत्साहित करना (बन० ३१५ । २४-२६)। विराटनगरमें बल्लव नामसे रहनेकी बात बताना (विराट०
२.)। राजा विराटसे अपने यहाँ रखनेके लिये प्रार्थना करना (विराट० ८।७)। जीमूत नामक मल्लके साथ कुश्ती लड़ना और उसका वध करना (विराट. १३। २४-३६)। द्रौपदीसे रातमें पाकशालामें आनेका कारण पूछना (विराट. १७ । १७-२१) । प्राचीन पतिव्रताओंके उदाहरणद्वारा द्रौपदीको समझाना (विराट. २१।१-१७के बादतक)। कीचकको मारनेके लिये द्रौपदीको विश्वास दिलाकर नृत्यशालामें प्रवेश करना (विराट. २२ । ३८)। कीचकके साथ इनका युद्ध और उसका वध करना (विराट० २२ । ५२--८२)। इनके द्वारा एक सौ पाँच उपकीचर्कोका वध और द्रौपदीको बन्धनमुक्त करना ( विराट. २३ । २७-२८) । युधिष्ठिरके आदेशसे सुशर्माको जीते-जी पकड़ लेना (विराट० ३३ । ४८) । युधिष्ठिरके आदेशसे सुशर्माको छोड़ना और उसे विराटका दास घोषित करना (विराट ३३ । ५९ ) । संजयद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (उद्योग० ५०। १९--२५ )। श्रीकृष्णसे इनका शान्तिविषयक प्रस्ताव करना (उद्योग० ७४ अध्याय)। अपने बलका वर्णन करते हुए श्रीकृष्णको उत्तर देना (उद्योग० ७६ अध्याय)। शिखण्डीको प्रधान सेनापति बनानेका प्रस्ताव करना ( उद्योग० १५१ । २९-३२)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर देना ( उद्योग १६२ । २०-२९)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर देना ( उद्योग० १६३ । ३२-३६)। कवच उतारकर पैदल ही कौरव-सेनाकी ओर जाते हुए युधिष्ठिरसे उसका कारण पूछना (भीष्मः ४३ । १७)। इनकी विकट गर्जनाका भयंकर रूप (भीष्म० ४४ । ८-१३)। प्रथम दिनके युद्धारम्भमें दुर्योधनके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म. १५ । १९-२०)। कलिंगोंके साथ युद्ध करते समय इनके द्वारा शक्रदेवका वध (भीष्म० ५४ । २५) । इनके द्वारा भानुमान्का वध ( भीष्म० ५४ । ३९)। कलिंगराज श्रुतायुके चक्ररक्षक सत्यदेव और सत्यका इनके द्वारा वध ( भीष्म० ५४ । ७६) । इनके द्वारा केतुमान्का वध (भीष्म० ५४ । ७७)। गजसेनाका संहार करके रक्तनदीका निर्माण करना (भीष्म० ५४ । १०३ ) । इनके द्वारा दुर्योधनकी पराजय (भीष्म० ५८ । १६-१९)। इनके द्वारा दुर्योधनकी गजसेनाका संहार (भीष्म० ६२ । ४९-६५)। इनका अद्भुत पराक्रम और भीष्मके साथ युद्ध (भीष्म ६३।१-२६) । धृतराष्ट्रपुत्रोंके साथ इनका युद्ध
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भीमसेन
( २३१ )
भीमसेन
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और इनके द्वारा सेनापति, जलसंध, सुषेण, उग्र, वीरबाहु, १०८। ४२ ) । सात्यकिके साथ अर्जुनका समाचार भीम, भीमरथ और सुलोचन-इन आठ धृतराष्ट्रपुत्रोंका लानेके लिये जाते समय सात्यकिके कहनेसे युधिष्ठिरकी वध (भीष्म०६४ । ३२-३०)। इनका घमासान रक्षाके लिये लौट आना (द्रोण. ११२ । ७०युद्ध (भीष्म०७० अध्याय) । भीष्मके साथ इनका ७६)। कृतवर्मा के साथ इनका युद्ध (द्रोण. ११४ । घोर युद्ध (भीष्म० ७२ । २१-२५)। दुर्योधनके ६७-८.)। घबराये हुए युधिष्ठिरको सान्त्वना देना साथ इनका युद्ध (भीष्म०७३ । १७.-२३)। धृत- (द्रोण० १२६ । ३२-३४) । धृष्टद्युम्नको युधिष्ठिरकी राष्ट्र-पुत्रोंपर आक्रमण करके घोर पराक्रम प्रकट करना रक्षाका भार सौंपना (द्रोण० १२७ । ४-९)। (भीष्म० ७७ । ६--३६)। इनका दुर्योधनको पराजित युधिष्ठिरकी आज्ञासे अर्जुनके पास जानेके लिये प्रस्थान करना (भीष्म ७९ । ११-१६)। इनके द्वारा कृत- करना (द्रोण. १२७ । २९) । इनके द्वारा द्रोणावर्माकी पराजय (भीष्म०८२ । ६०-६१)। इनका
चार्यकी पराजय (द्रोण. १२७ । ४२-५४)। इनके अद्भुत पुरुषार्थ ( भीष्म० ८५। ३२--४०)। द्वारा कुण्डभेदी, सुषेण, दीर्घलोचन, बृन्दारक, अभय, भीष्मके सारथिको मारकर उन्हें युद्ध-मैदानसे विलग कर रौद्रकर्मा, दुर्विमोचन, विन्द, अनुविन्द, सुवर्मा और देना (भीष्म०८८ । १२)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रके। सुदर्शनका वध (द्रोण० १२७ । ६०-६७)। इनके
का वध ( भीष्म ८८।१३-२९)। द्वारा रथसहित द्रोणाचार्यका आठ बार फेंका जाना इनके द्वारा गजसेनाका संहार (भीष्म०८९ । २६- (द्रोण० १२८ । १४-२३)। श्रीकृष्ण और अर्जुनके ३१)। इनके प्रहारसे द्रोणाचार्यका मूञ्छित होना पास पहुँचकर युधिष्ठिरको सूचना देनेके लिये सिंहनाद (भीष्म० ९४ । १८-१९)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रके नौ करना (द्रोण० १२८ । ३२) । कर्णके साथ इनका पुत्रोंका वध (भीष्म ९६ । २३-२७)। इनके द्वारा युद्ध और उसे पराजित करना ( द्रोण० १२९ गजसेनाका संहार (भीष्म. १०२३१-३९)। इनके अध्याय )। इनके द्वारा दुःशलका वध (द्रोण. द्वारा बाहीककी पराजय (भीष्म० १०१।१८-२७)। १२९ । ३९ के बाद)। कर्णके साथ युद्ध और उसे भूरिश्रवाके साथ दून्द्वयुद्ध करना (भीष्म० ११०।। परास्त करना (द्रोण० १३१ अध्याय )। कर्णके १०-११, भीष्म० १११ । ४४-४९)। इनका दस साथ घोर युद्ध (द्रोण० अध्याय १३२ से १३३ तक)। प्रमुख महारथियोंके साथ युद्ध करना और अद्भुत पराक्रम इनके द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जयका वध (द्रोण० १३३ । दिखाना (भीष्म अध्याय ११३ से ११४ तक)। इनके द्वारा ४१-४२)। कर्णके साथ युद्ध और इनको परास्त गजसेनाका संहार ( भीष्म० ११६ । ३७-३९ )। करना (द्रोण. १३४ अध्याय)। इनके द्वारा धृतधृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण० १० । १३. राष्ट्र-पुत्र दुर्मुखका वध (द्रोण० १३४ । २०-२९)। १४)। विविंशतिके साथ इनका युद्ध (द्रोण० १४। इनके द्वारा दुर्मर्षण, दुःसह, दुर्मद, दुर्धर ( दुराधार) २७-३०)। शल्यके साथ गदायुद्ध में उनको पराजित और जयका वध (द्रोण० १३५ । ३०-३६)। इनके करना (द्रोण. १५८-३२)। इनके रथके घोड़ों- द्वारा कर्णकी पराजय (द्रोण. १३६ । १७)। इनके का वर्णन (द्रोण० २३ । ३)। दुर्मर्षणके साथ इनका द्वारा चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारचित्र, शरासन, युद्ध (द्रोण० २५ । ५-७)। इनके द्वारा म्लेच्छ- चित्रायुध और चित्रवर्माका वध (द्रोण. १३६ । जातीय राजा अङ्गका वध (द्रोण. २६ । १७)। २०-२२) । कर्णके साथ इनका घोर युद्ध (द्रोण. १३० भगदत्त और उनके गजराजके साथ युद्ध में पराजित होकर अध्याय) । इनके द्वारा शत्रुजय, शत्रुसह, चित्र भागना (द्रोण० २६ । १९-२९) । इनके द्वारा (चित्रवाण), चित्रायुध (अग्रायुध), दृढ़ (दृढ़वर्मा), कर्णपर धावा करना और उसके पंद्रह योद्धाओंका चित्रसेन ( उग्रसेन) और विकर्णका वध (द्रोण. एक साथ वध कर देना (द्रोण.३२।६३-६४)।
१३७ । २९-३०)। कर्णके साथ इनका भयंकर युद्ध चक्रव्यूहमें साथ चलने के लिये अभिमन्युको आश्वासन
(द्रोण. १३८ अध्याय)। कर्णके साथ इनका भयंकर युद्ध (द्रोण० ३५। २२-२३)। अर्जुनद्वारा की गयी जय
और उसे परास्त करना (द्रोण० १३९ । ९)। इनके द्रथ-वधकी प्रतिशाका अनुमोदन करना (द्रोण. ७३। द्वारा कर्णके बहत-से धनुषोंका काटा जाना (द्रोण. ५३ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। चित्रसेन, विविंशति और
१३९ । १९-२२)। अस्त्रहीन होनेपर कर्णको पकड़नेके विकर्णके साथ इनका युद्ध (द्रोण ९६ ।३.)। लिये इनका उसके रथपर चढ़ जाना (द्रोण० १३९ । अलम्बुषके साय इनका युद्ध (द्रोण. १०६ । १६. ७४-७५)। कर्णके प्रहारसे इनका मूच्छित होना १७)। इनके द्वारा अलम्बुषकी पराजय (द्रोण. (द्रोण. १३९ । ९.)। अर्जुनसे कर्णको मारनेके लिये
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भीमसेन
( २३२ )
भीमसेन
कहना (द्रोण० १४८ ॥३-६)। इनके द्वारा घुसे और थप्पड़से कलिंगराजकुमारका वध ( द्रोण. १५५ । २४)। इनके द्वारा घूसे और थप्पड़से ध्रुवका वध (द्रोण. १५५ । २७) । इनके द्वारा से और थप्पड़से जयरातका वध (द्रोण० १५५ । २८ )। इनके द्वारा घूसे और थप्पड़से दुर्मद (दुर्धर्ष) और दुष्कर्णका वध ( द्रोण० १५५ । ४० )। इनके परिपके प्रहारसे सोमदत्तका मञ्छित होना (द्रोण. १५. । १०-११)। इनके द्वारा बाहीकका वध (द्रोण० १५७ । ११-१५)। इनके द्वारा नागदत्त, दृढरथ (दृढाश्व ), महाबाहुः अयोभुज ( अयोबाहु), दृढ ( दृढक्षत्र ), सुहस्त, विरजा, प्रमाथी, उग्र (उग्रश्रवा ) और अनुयायी ( अग्रयायी ) का वध (द्रोण. १५७ । १६-१९)। इनके द्वारा शतचन्द्रका वध (द्रोण० १५७ । २३ )। इनके द्वारा शकुनिके भाई गवाक्ष, शरभ, विभु, सुभग और भानुदत्तका वध (द्रोण. १५७ । २३-२६) । इनका द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करते समय कौरवसेनाको खदेड़ना (द्रोण. १६१ अध्याय )। दुर्योधनके साथ इनका युद्ध और उसे पराजित करना (द्रोण. १६६ । ४३-५८)। अलायुधके साथ इनका घोर संग्राम (द्रोण १७७ अध्याय ) । इनके द्वारा अर्जुनको प्रोत्साहन-प्रदान (द्रोण. १८५। ९-११)। धृष्टद्युम्नको उपालम्म देना (द्रोण. १८६ । ५१-५४) । कर्णके साथ युद्ध- में उससे पराजित होना (द्रोण. १८८।१०-२२)। कर्णके साथ इनका युद्ध (द्रोण. १८९ । ५०५५) । अश्वत्थामा नामक हाथीको मारकर द्रोणाचार्यको अश्वत्थामाके मारे जानेकी झूठी खबर सुनाना (द्रोण. १९० । १५-१६)। द्रोणाचार्यको उपालम्भ देते हुए अश्वत्थामाकी मृत्यु बताना(द्रोण. १९२॥३७-४२)। अर्जुनसे अपना वीरोचित उद्गार प्रकट करना (दोण. १९७ । ३-२२)। धृष्टद्युम्नसे बाग्बार्णोद्वारा लड़ते हुए सात्यकिको पकड़कर शान्त करना ( द्रोण. १९८ । ५०-५२)।इनका वीरोचित उदगार और नारायणास्त्रके विरुद्ध संग्राम करना (द्रोण. १९९ । ४५-६३)। अश्वत्थामाके साथ इनका घोर युद्ध और सारथिके । मारे जानेपर युद्धसे हट जाना (द्रोण. २००। ८७१२८)। इनके द्वारा कुलूतनरेश क्षेमधूर्तिका वध (कर्ण० १२ । २५-४४)। अश्वत्थामाके साथ इनका घोर युद्ध और उसके प्रहारसे मूच्छित होना (कर्णः १५ अध्याय ) । इनके द्वारा कर्ण-पुत्र भानुसेनका वध ( कर्ण० १८ । २७ ) । कर्णको पराजित करके उसकी जीभ काटनेको उद्यत होना
(कर्ण० ५० । ४७ के बादतक)। कर्णके साथ इनका घोर युद्ध और गजसेना, रथसेना तथा घुड़सवारोंका वध (कर्ण० ५१ अध्याय)। इनके द्वारा विवित्सु, विकट, सम, क्राथ (कथन), नन्द और उपनन्दका वध (कर्ण० ५३ । १२-१९)। इनके द्वारा कौरवसेनाका महान् संहार (कर्ण० ५६ । ७०-८१)। इनके द्वारा दुर्योधनकी पराजय और गजसेनाका संहार ( कर्ण० ६१ । ५३, ६२-७४)। युद्धका सारा भार अपने ऊपर लेकर अर्जुनको युधिष्ठिरके पास भेजना ( कर्णः ६५ । १०)। अपने सारथि विशोकके साथ इनका वार्तालाप ( कर्ण० ७६ अध्याय) । इनके द्वारा कौरवसेनाका भीषण संहार और शकुनिकी पराजय (कर्ण. ७७ । २४-७०, कर्ण०८१।२४-३५)। दुःशासनके साथ इनका घोर युद्ध (कर्ण० ८२ । ३३ से कर्ण. ८३ । १० तक)। दुःशासनका वध करके उसका रक्त पान करना (कर्ण० ८३ । २८-२९) । इनके द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों (निषङ्गी, कवची पाशी, दण्डधार, धनुग्रह, अलोलुप, शल, संध ( सत्यसंध ), वातवेग और सुवर्चा ) का वध (कर्ण० ८४ । २-६)। कर्णवधके लिये अर्जुनको प्रोत्साहन देना (कर्ण० ८९।३७-४२)। इनके द्वारा पचीस हजार पैदल सेनाका वध(कर्ण० ९३।२८)। इनके द्वारा कृतवर्माकी पराजय ( शल्य०११ । ४५४७)। इनका शल्यको पराजित करना ( शल्य. ११।६१-६२ )। शल्यके साथ इनका गदायुद्ध (शल्य० १२ । १२-२७)। शल्यके साथ इनका घोर युद्ध (शल्य०१३ अध्याय; शल्य०१५।१६-२७)। इनके द्वारा दुर्योधनकी पराजय (शल्य. १६ । ४२-४४)। इनके द्वारा शल्यके सारथि और घोड़ोंका वध (शल्य. १७ । २७)। इनके द्वारा इक्कीस हजार पैदल सेनाका वध (शल्य. १९। ४९-५०)। इनके द्वारा गजसेनाका संहार (शल्य. २५। ३०-३६)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रके ग्यारह पुत्रों (दुर्मर्षण, श्रुतान्त (चित्राङ्ग), जैत्र, भूरिबल ( भीमबल), रवि, जयत्सेन, सुजात, दुर्विषह (दुर्विषाह), दुर्विमोचन: दुष्प्रधर्ष (दुष्प्रधर्षण), श्रुतर्वा) का वध(शल्य०२६ । ४-३२) धृतराष्ट्रपुत्र सुदर्शनका इनके द्वारा वध (शल्य. २७ । ४९-५०) गदायुद्धके प्रारम्भमें दुर्योधनको चेतावनी देना (शल्य० ३३ । ४३५)। इनका युधिष्ठिरसे अपना उत्साह प्रकट करना (शल्य. ५६ । १६-२७)। दुर्योधनको चेतावनी देना (शल्य. ५६ । २९-३६) । दुर्योधनके साथ भयंकर गदायुद्ध (शल्य. ५७ अध्याय)। गदाप्रहारसे दुर्योधनकी जाँघ तोड़ देना (शल्य० ५८। ४७)। इनके द्वारा दुर्योधनका तिरस्कार करके उसके मस्तकको पैरसे ठुकराना
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भीमसेन
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( २३३ )
आश्व०
( शल्य० ५९ । ४ - १२ ) । युधिष्ठिर के साथ विजय सूचक वार्तालाप करना ( शल्य० ६० । ४३-४६ ) । दुर्योधनको गिरानेके पश्चात् पाण्डवसैनिकोंद्वारा इनकी प्रशंसा ( शल्य० ६१ । ७-१६ ) । अश्वत्थामा को मारने के लिये इनका प्रस्थान करना ( सौप्तिक ० ११ । २८ - ३८ )। गङ्गातटपर व्यासजीके पास बैठे हुए अश्वत्थामाको ललकारना (सौप्तिक ० १३ । १६-१७ ) । अश्वत्थामाकी मणि द्रौपदी को देकर उसे शान्त करना ( सौप्तिक ० १६ । २६-३३) । अपनी सफाई देते हुए गान्धारीसे क्षमा माँगना ( स्त्री० १५ । २ - ११११५-२० ) । संन्यासका विरोध करके कर्तव्यपालनपर जोर देते हुए युधिष्ठिरको समझाना ( शान्ति० १० अध्याय ) । भीमसेनका भुक्त दुःखोंकी स्मृति कराते हुए मोह छोड़कर मनको काबूमें करके राज्यशासन और यज्ञके लिये युधिष्ठिर को प्रेरित करना ( शान्ति ० १६ अध्याय ) | युधिष्ठिर द्वारा युवराजपद पर इनकी नियुक्ति ( शान्ति० ४१ । ९ ) । युधिष्ठिरद्वारा इन्हें दुर्योधनका महल रहनेके लिये दिया गया ( शान्ति ० ४४ । ६-७ ) । युधिष्ठिरके पूछनेपर भीमसेनका त्रिवर्ग में कामकी प्रधानता बताना ( शान्ति० १६७ । २९ - ४० ) । युधिष्ठिरके पूछनेपर शंकरजीको आराधनाद्वारा मरुत्तके छोड़े हुए धनको लानेकी ही सलाह देना ६३ । ११-१५ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । व्यासजीकी आशासे राज्य और नगरकी रक्षाके लिये नकुलसहित भीमसेनकी नियुक्ति ( आश्व० ७२ । १९ ) । युधिष्ठिरकी आशा से भीमसेनका ब्राह्मणोंके साथ जाकर यज्ञभूमिको नपवाना और वहाँ यज्ञमण्डप, सैकड़ों निवासस्थान तथा ब्राह्मणोंके ठहरनेके लिये उत्तम भवनों का शिल्पशास्त्र के अनुस्पर निर्माण कराना, साथ ही राजाओंको निमन्त्रित करने के लिये दूत भेजना ( आश्व० ८५ । ७-१७)। युधिष्ठिर का भीमसेनको समागत राजाओं की पूजा करनेका आदेश (आश्व० ८६ । १-३ ) । बभ्रुवाहनका इनके चरणोंमें प्रणाम करना और भीमसेनका उसे सत्कारपूर्वक प्रचुर धन देना ( अश्व ० ८८ । ६-११ ) । भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारका जाते समय भीमसेनका उनके रथपर चढ़कर उनके ऊपर छत्र लगाना ( आश्व० ९२ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ६३८२ ) । भीमसेनका राजा धृतराष्ट्र के प्रति अमर्ष और दुर्भाव, अपने कृतश पुरुषोंद्वारा धृतराष्ट्रकी आशाको भंग कराना, उन्हें सुनाकर दुर्योधन और दुःशासन आदिका दमन करनेवाली अपनी चन्दनचर्चित भुजाओं के बलकी प्रशंसा करना तथा धृतराष्ट्र और गान्धारीके मनमें उद्वेग पैदा करना ( आश्रम ० ३ । ३ -१३ ) । धृतराष्ट्र के द्वारा श्राद्धके लिये धन माँगे जानेपर भीमसेनद्वारा विरोध (आश्रम० ११ । ७-२४ ) ।
म० ना० ३०
भीष्म
अर्जुनका भीमसेनको समझाना ( आश्रम ० १२ । १-२ )। वनमें जाते समय कुन्तीका युधिष्ठिरको भीमसेन आदिके साथ संतोषजनक बर्ताव करनेका आदेश देना ( आश्रम० १६ । १५ ) । भीमसेनका गजराजकी सेनाके साथ गजारूढ़ हो धृतराष्ट्र और कुन्ती आदिसे मिलनेके लिये भाइयोंसहित वनको जाना ( आश्रम ० २३ । ९ ) । भीमसेन आदिको आया देख कुन्तीका उतावलीके साथ आगे बढ़ना ( आश्रम २४ । ११ ) । संजयका ऋषियोंसे भीमसेन और उनकी पत्नी का परिचय देना (आश्रम ० २५ | ६, १२) । भीमसेनका अपने भाइयोंसे महाप्रस्थानका निश्चय करके जाने के लिये अपने आभूषण उतारना और उनके साथ महाप्रस्थान करना ( महाप्रस्थान० १।२० -- २५ ) । मार्ग में द्रौपदी, सहदेव, नकुल और अर्जुनके क्रमशः गिरनेपर इनका युधिष्ठिरसे कारण पूछना; फिर इनका स्वयं भी गिरना और युधिष्ठिर से अपने पतनका कारण पूछना ( महाप्रस्थान० २ अध्याय ) । स्वर्ग में इनका मरुद्गणोंसे घिरकर वायुदेवके पास विराजमान दिखायी देना ( स्वर्गा० ४। ७-८ )।
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महाभारतमें आये हुए भीमसेनके नाम-अच्युतानुज, अनिलात्मज, अर्जुनाग्रज, अर्जुनपूर्वज, बल्लव, भीमधन्वा, जय, कौन्तेय, कौरव, कुरुशार्दूल, मारुतात्मज, मारुति, पाण्डव, पार्थ, पवनात्मज, प्रभञ्जनसुत, राक्षसकण्टकः समीरणसुत, वायुपुत्र, वायुसुत, वृकोदर आदि ।
( ५ ) ये काशी के राजा दिवोदास के पिता थे (उद्योग ० ११७ । १ ) ।
भीष्म- ये शान्तनुद्वारा गङ्गा के गर्भसे आठवें वसु के अंश से उत्पन्न हुए थे। इनका नाम देवव्रत था ( आदि० ६३ । ९१६ आदि० ९५ । ४७; आदि० १०० | २१ ) इनके द्वारा बचपन में ही गङ्गाकी धाराका अवरोध करके अस्त्रविद्याका अभ्यास करना ( आदि० १०० । २६ ) । गङ्गाद्वारा शान्तनुको इनका परिचय देना एवं प्रशंसा करना ( आदि० १०० । ३३ – ० ) । इनका युवराजपद पर अभिषेक ( आदि० १०० । ४३ ) । पिताको दुखी देखकर उनके लिये दाशराजसे सत्यवतीकी याचना करना ( आदि० १०० । ७५ ) । पिता के मनोरथकी पूर्तिके लिये 'सत्यवतीकुमार ही राजा होगा' इस प्रकारकी इनकी दुष्कर प्रतिज्ञा ( आदि० १०० । ८७ ) । समस्त देवताओं तथा ऋषियोंकी साक्षी देते हुए इनकी आजीवन अखण्ड ब्रह्मचारी रहनेकी भीषण प्रतिज्ञा ( आदि० १०० । ९४ - ९६ ) । इनके ऊपर देवताओंद्वारा पुष्पवर्षा और इनका 'भीष्म' नाम रखा जाना ( आदि० १०० । ९८ ) । पिताद्वारा इनको स्वच्छन्द - मृत्युका वरदान ( आदि० १०० १०२ ) । इनके द्वारा
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भीष्म
( २३४ )
भीष्म
चित्राङ्गदका अन्त्येष्टि-संस्कार कराना (आदि. १०१। १.)। स्वयंवरमें आये हुए शाल्व आदि विभिन्न राजाओंको जीतकर इनका काशिराजकी कन्याओंका विचित्रवीर्यके लिये अपहरण करना ( आदि. १०२ । ११-५८)। इनके द्वारा अष्टविध विवाहोंके स्वरूपका वर्णन (आदि० १०२ । १२-१५) । विचित्रवीर्यका अन्त्येष्टि-संस्कार कराना (आदि. १०२ । ७३)। सत्यवतीका इनसे राज्यासनपर आरूढ़ होने, वंशरक्षाके लिये अम्बिका आदिके गर्भसे पुत्रोत्पादन करने एवं विवाहके लिये अनुरोध करना (आदि० १०३ । १०.
१)। किसी भी परिस्थितिमें किसी भी मूल्यपर सत्यको न छोड़ने तथा स्त्री-सहवास न करनेकी इनकी घोषणा (आदि. १०३ । १२--१८)। विचित्रवीर्यके क्षेत्र ( पत्नियों) से ब्राह्मणद्वारा संतानोत्पत्ति के लिये सत्यवतीको परामर्श देना (आदि. १०४ । १२)। इनके प्रति सत्यवतीकी ( व्यास-जन्मसम्बन्धी ) आत्मकथा ( आदि. १०४ । ५-१६)। विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंसे व्यासद्वारा संतानोत्पत्तिके लिये इनको सत्यवतीकी सलाह ( आदि. १०४ । १८-१९)। इनके द्वारा सत्यवतीके इस प्रस्तावका अनुमोदन (आदि. १०४ । २२-२३)। धृतराष्ट्र के प्रति गान्धारीको समर्पित करनेके लिये इनका सुबलके पास दूत भेजना (आदि. १०९।११)। मद्रराजके नगरमें जाकर इनका शल्यसे पाण्डुके लिये माद्रीकी याचना करना (आदि. ११२।२--७)। मद्रराजद्वारा इनसे शुल्क लेकर माद्रीको पाण्डुके लिये समर्पण करना (आदि. ११२ । १४-१६) । इनके द्वारा राजा देवककी कन्याको लाकर विदुरका विवाह सम्पन्न कराना (आदि. ११३ । १२-१३)। शतशृङ्गनिवासी ऋषियोद्वारा इनको पाण्डुके परलोकवासी तथा माद्रीके सती होनेका समाचार बताकर पाण्डवोंके जन्मका वृत्तान्त सुनाना ( आदि. १२५। २२--३३)।.पाण्डुके निधनपर इनका शोक प्रकट करना तथा उन्हें जलाञ्जलि देना (आदि० १२६ । २७-२८)। इनके द्वारा पाण्डुका श्राद्ध सम्पन्न होना ( आदि. १२७ । १)। राजकुमारोंकी शिक्षाके लिये सुयोग्य आचार्यकी खोज करना (आदि. १२९ । २४२६)। राजकुमारोंकी शिक्षाके लिये इनका द्रोणाचार्यको अपने यहाँ सम्मानपूर्वक रखना (आदि० १३० । ७०- ७९) । पाण्डवोंके जतुगृहमें जलनेका समाचार सुनकर इनका विलाप करना और पाण्डवोंको जलाञ्जलि देनेके लिये उद्यत हुए भीष्मको विदुरका उनके जीवित रहनेका रहस्य बतलाकर आश्वासन देना तथा जलाञ्जलिका निषेध करना (आदि० १४९ । १८ के बाद दा० पाठ)। भीष्मकी दुर्योधनसे पाण्डवोको आधा राज्य देनेकी सलाह
(आदि.२०२ अध्याय)। इनका युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें पधारना (सभा० ३४ । ५) । कौन काम हुआ और कौन नहीं हुआ-इसकी देख-रेखके लिये युधिष्ठिरद्वारा इनकी नियुक्ति (सभा० ३५ । ६)। राजसूय-यज्ञमें श्रीकृष्णकी अग्रपूजाके लिये इनका युधिष्ठिरको आदेश देना (सभा० ३६ । २८-२९)। इनके द्वारा शिशुपालके आक्षेपोका खण्डन करते हुए श्रीकृष्णकी महिमाका विस्तारपूर्वक वर्णन (सभा० ३८ अध्याय)। शिशुपालके द्वारा उपद्रव मचानेपर चिन्तित हुए युधिष्ठिरको इनका
आश्वासन (सभा०४० अध्याय)। शिशुपालद्वारा इनकी निन्दा ( समा० ४१ अध्याय )। इनका शिशुपालको मारनेसे भीमसेनको रोकना (सभा० ४२ । १३)। इनके द्वारा शिशुपालके जन्मका वृत्तान्त सुनाना (सभा० ४३ अध्याय) । इन्हें शिशुपालकी फटकार (सभा० ४४।६-३२)। शिशुशलके वचनोंका उत्तर देना (सभा० ४४ । ३४)। श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये समस्त नरेशोंको इनकी चुनौती (सभा० ४४ । ४१-४२) । इनके द्वारा द्रौपदीके वचनोंका उत्तर दिया जाना (सभा० ६९।१४-२१)। इनका पुलस्त्यजीसे तीर्थयात्राके विषयमें प्रश्न करना (वन. ८२।४-७) । दुर्योधनको समझाते हुए पाण्डवोंसे संधि करनेके लिये कहना (वन० २५३ । ४-१०)। युधिष्ठिरकी महिमा बताते हुए पाण्डवोंके अन्वेषणके लिये इनकी सम्मति ( विराट० २८ अध्याय ) । कर्णकी बातोंसे कुपित हुई सेनामें शान्ति और एकता बनाये रखनेकी चेष्टा करना (विराट० ५१।१-१३)। पाण्डवोंके वनवास-कालकी पूर्तिके विषयमें इनका निर्णय ( विराट. ५२।१-४)। दुयोधनको हस्तिनापुरकी
ओर भेजकर सेनाको व्यूहबद्ध करना (विराट० ५२ । १६--२३)। अर्जुनके साथ इनका अद्भुत युद्ध और मूच्छित होनेपर सारथिद्वारा रणभूमिसे हटाया जाना (विराट. ६४ अध्याय )। दुर्योधनको सेनासहित हस्तिनापुर लौट चलनेकी सलाह देना (विराट०६६ । २१-२२) ।इनके द्वारा द्रुपदके पुरोहितकी बातोका समर्थन
हुए अर्जुनकी प्रशंसा करना ( उद्योग० २१ । १६. १७)। दुर्योधनको समझाते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महिमा बताना (उद्योग० ४९ । २-२८)। इनके द्वारा कर्णका उपहास किया जाना (उद्योग० ४९ । ३४४२) । इनका कर्णपर आक्षेप करना (उद्योग० ६२ । ७-११)। श्रीकृष्णको कैद करने के सम्बन्धमें दुर्योधनकी बात सुनकर कुपित हो सभासे उठ जाना (उद्योग. ८८।१९-२३) । दुर्योधनको पाण्डवोंसे संधि कर
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भीष्म
( २३५ )
लेनेके लिये समझाना ( उद्योग० १२५ । २-८ )। दुर्योधनको पुनः समझाना (उद्योग० १२६ अध्याय)। सभासे उठकर जाते समय दुर्योधनकी उद्दण्डताका वर्णन करना ( उद्योग. १२८ । ३०-३२)। दुर्योधनको युद्ध न करने के लिये समझाना ( उद्योग. १३८ अध्याय )। भीष्मकी पाण्डवों को न मारने और उनके दस हजार योद्धाओंको प्रतिदिन मारनेकी प्रतिज्ञा करके कर्णको साथ लेकर युद्ध न करनेकी शर्त करना ( उद्योग १५६ । २१-२४)। दुर्योधनके पूछनेपर कौरवपक्षके रथियों और अतिरथियोंका परिचय देना ( उद्योग. अध्याय १६५ से १६८ तक)। इनका कर्णको फटकारना ( उद्योग० १६८।३०-३८) । दुर्योधनको पाण्डवपक्षके अतिरथी आदिका परिचय देना (उद्योग. अध्याय १६९ से १७२ तक)। दुर्योधनसे शिखण्डी
और पाण्डवोंका वध न करनेको कहना ( उद्योग १७२ । २०-२१)। दुर्योधनको अम्बोपाख्यान सुनाना (उद्योग० १७३ अध्याय)। इनके द्वारा काशिराजकी तीनों कन्याओंका अपहरण ( उद्योग० १७३ । १३)। इनके द्वारा परशुरामजीका पूजन (उद्योग० १७८ । २७)। अम्बाको ग्रहण करनेके विषयमें परशुरामजीकी आज्ञा न मानना (उद्योग. १७८ । ३२-३४) । मारनेकी धमकी देनेपर परशुरामजीको रोषपूर्ण उत्तर देना (उद्योग० १७४ । ४३-६४)। परशुरामजीके साथ युद्ध करनेके लिये कुरुक्षेत्रमें जाना (उद्योग. १७८ । ८०) । युद्धके अवसरपर परशुरामजीसे युद्धकी आज्ञा माँगना ( उद्योग. १७९ । १४ ) । परशुरामजीके साथ इनका युद्ध ( उद्योग० १७९ । २७ से १८५ अध्यायतक) वसुओंद्वारा इन्हें प्रस्वापनास्त्रकी प्राप्ति (उद्योग०1८३ । १११३)। देवताओं और नारदजीके मना करनेपर प्रस्वापनास्त्रका प्रयोग न करना ( उद्योग० १८५ । ७) । देवता, पितर तथा गङ्गाके आग्रहसे युद्ध बंद करके परशुरामजीके चरणोंमें प्रणाम करना (उद्योग १८५ । ३५)। दुर्योधनको शिखण्डीके जन्मका वृत्तान्त सुनाना ( उद्योग० अध्याय १८८ से १९२ तक)। दुर्योधनसे एक मासमें पाण्डव-सेनाका नाश करनेकी अपनी शक्तिका कथन ( उद्योग० १९३ । १४) । युधिष्ठिरको युद्धकी आज्ञा देकर उनकी मङ्गलकामना करना (भीष्म० ४३।४४-४८)। प्रथम दिनके युद्ध में अर्जुनके साथ इनका द्वन्द्व-युद्ध ( भीष्म १५ । ८-११)। युद्धमें इनके द्वारा विराट-पुत्र श्वेतका वध ( भीष्म १८ । ३-११५)। प्रथम दिनके युद्धमें इनका प्रचण्ड पराक्रम (भीष्म० १९४१-५१)। अर्जनके साथ इनका घोर युद्ध (भीष्म ५२ अध्याय)।
सात्यकिद्वारा सारथिके मारे जानेपर घोड़ोंद्वारा रणक्षेत्रसे बाहर ले जाया जाना (भीष्म० ५४ । ११४-११५)। अर्जुनकी मारसे भागती हुई सेनाको देखकर दूसरे दिनका युद्ध बंद करनेका आदेश देना ( भीष्म ५५ । ४२)। दुर्योधनके उलाहना देनेपर सेनासहित पाण्डवोंको रोक देने की प्रतिज्ञा करना ( भीष्म ५८ । ४२४४)। भीष्मका अद्भुत पराक्रम (भीष्म० ५९ । ५१-७४)। मारनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णका इनके द्वारा आह्वान (भीष्म० ५९ । ९६-९८)। अर्जुनके साथ इनका द्वैरथ-युद्ध (भीष्म०६० । २५२९ )। भगदत्तको संकटमै पड़ा हुआ देखकर द्रोणाचार्य और दुर्योधनको उसकी रक्षाके लिये आदेश देना (भीष्म०६४ । ६४-६९)। पाण्डवोके पराक्रमके विषयमें पूछनेपर उत्तरके प्रसंगमें दुर्योधनको नारायणावतार श्रीकृष्ण और नरावतार अर्जुनकी महिमा बताना (भीष्म० ६५। ३५ से ६८ अध्यायतक)। इनके द्वारा ब्रह्मभूतस्तोत्रका कथन ( भीष्म० ६८ । २
.)। शिखण्डीका सामना पड़नेपर युद्ध बंद कर देना (भीष्म० ६९ । २९)। भीमसेनके साथ इनका घमासान युद्ध (भीष्म० ७० अध्याय)। अर्जुन आदि योद्धाओंके साथ इनका घमासान युद्ध (भीष्म ७१ अध्याय)। भीमसेनको घायल करके सात्यकिको पराजित करना (भीष्म ७२ । २१-२८)। विराटको घायल करना (भीष्म ७३ । २)। भीमसेनके पराक्रमसे भयभीत दुर्योधनको आश्वासन देना (भीष्म ८० । ८-१२ ) । युधिष्ठिरको रथहीन कर देना (भीष्म० ८६ । ११)। भीमसेनद्वारा सारथिके मारे जानेपर घोड़ोंका इनका रथ लेकर भागना (भीष्म ८८।१२)। भगदत्तको घटोत्कचसे युद्ध करनेके लिये आज्ञा देना (भीष्म० ९५ । १७-२०)। दुर्योधनसे अर्जुनके पराक्रमका वर्णन करके शिखण्डीको छोड़कर शेष सोमकों और पाञ्चालोंके वधकी प्रतिज्ञा करना (भीष्म० ९८ । ४-२३)। इनका सात्यकिके साथ युद्ध (भीष्म० १०४।२९-३६) । इनके द्वारा चेदि, काशि और करूष देशके चौदह हजार महारथियोंका एक साथ वध (भीष्म. १०६ । १८-२०)। मारनेके लिये आते हुए श्रीकृष्णका इनके द्वारा स्वागत (भीष्म. १०६ । ६४-६७)। युधिष्ठिरको अपने वधका उपाय बताना ( भीष्म. १०७ । ७६८८)। शिखण्डीसे उसके साथ युद्ध न करने के लिये कहना ( भीष्म. १०८ । ४३ ) । दुर्योधनको उत्तर देना तथा पाण्डवसेनाका संहार करना (भीम० १०१ । २४-३९) । युधिष्ठिरको अपने ऊपर
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भीष्म
( २३६ )
भीष्मक
आक्रमण करनेके लिये आदेश देना (मीष्म० ११५/१३- कहना (अनु० १४ । १८-२१)। युधिष्ठिरको हस्तिना१५)। इनका अद्भुत पराक्रम ( भीष्म० ११६ । ६२- पुर जाने के लिये आदेश और उपदेश देना (अनु. ७८)। अर्जुनके प्रहारसे मूञ्छित होना (भीष्म० १६६ । ९-१४)। धृतराष्ट्रको कर्तव्यका उपदेश देना ११७ । ६४) । इनके द्वारा विराटके भाई शतानीकका ( अनु० १६७ । ३०-३५)। श्रीकृष्णसे देहत्यागकी वध (भीष्म ११८ । २७) । इनके द्वारा पाण्डवसेना
अनुम त मागना (अनु० १६७ । ३७-४५)। इनका का भीषण संहार ( भीष्म अध्याय ११८ से प्राणत्याग करना ( अनु. १६८ । २-७)। कौरवोंद्वारा ११९ । १-५४ तक)। जीवनसे उदास होकर मृत्युका इनका दाहसंस्कार और इन्हें जलाञ्जलिदान ( अनु० चिन्तन करना ( भीष्म० ११९ । ३४-३५)। अर्जुनके १६८ । १०-२०)। रोती हुई गङ्गादेवीका इनके लिये बाणोंसे घायल होनेपर दुःशासनसे अर्जुनके पराक्रमका शोक, इनकी वीरताकी प्रशंसा तथा इनके शिखण्डीके वर्णन करना (भीष्म० ११९ । ५६-६७)। अर्जुनके हायसे मारे जानेके कारण दुःख प्रकट करना (अनु. द्वारा रथसे गिराया जाना ( भीष्म० ११९। ८७)। १६८ । २१-२९)। भीष्मका अर्जुनके द्वारा वध हंसोंको सूर्यके उत्तरायण होनेतक प्राण धारण करनेकी बात हुआ है। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण और व्यासजीका गङ्गाको बताना (भीष्म० ११९ । १०४-१०८)। संजयद्वारा आश्वासन देना (अनु० १६८ । ३०-३५) । व्यासजीके धृतराष्ट्र के प्रति इनकी महत्ताका वर्णन ( भीष्म आवाहन करनेपर इनका गङ्गाके जलसे प्रकट होना १२० । १०-१५)। बाणशय्यापर सोते समय राजाओं- (आश्रम ३२।७)। स्वर्गमें जाकर भीष्मका वसुओंके से तकिया माँगना (भीष्म० १२० । ३४)। राजाओंसे स्वरूपमें मिलना (स्वर्गा० ५। ११-१२)। अपने अनुरूप तकिया न मिलनेपर अर्जुनसे माँगना महाभारतमें आये हुए भीष्मके नाम-आपगासुत, (भीष्म० १२० । ३८) । राजाओंको समझाते हुए
आपगेय, भागीरथीपुत्र, भागीरथीसुत मारत, भरतश्रेष्ठ, युद्ध बंद कर देनेके लिये अनुरोध करना (भीष्म पितामह, भरतर्षभ, भरतसत्तम, भीष्मक, शान्तनव, १२०। ५१-५५) । इनका अर्जुनसे पानी मांगना
शान्तनुपुत्र, शान्तनुसुत, शान्तनूज, शान्तनुनन्दना (भीष्म. १२१।१८-१९)। इनके द्वारा अर्जुनकी
देवव्रत, गङ्गासुत, गाङ्गेय, जाह्नवीपुत्र, जाह्नवीसुत, कौरव, प्रशंसाका कथन ( भीष्म० १२१ । ३०-३७ )। कौरवधुरंधर, कौरवनन्दन, कौरव्य, कुरुशार्दूल, कुरुदुर्योधनको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना ( भीष्म.
श्रेष्ठ, कुरूदह, कुरुकुलश्रेष्ठ, कुरुकुलोदह, कुरुमुख्य १२१ । ३८-५५)। कर्णसे रहस्यपूर्वक वार्तालाप करना
कुरुनन्दन, कुरुपति, कुरुपितामह, कुरुप्रवीर, कुरुपुङ्गव, ( भीष्म० १२२ । ८-२२ ) । कर्णको स्वर्गप्राप्तिकी
कुरुराजर्षिसत्तम, कुरुसत्तम, कुरूत्तम, कुरुवंशकेतु, कुरुवरइच्छासे युद्ध करनेके लिये अनुमति देना ( भीष्म.
श्रेष्ठ, कुरुवृद्ध, महाव्रत, नदीज, प्रपितामह, सागरगासुत, १२२ । ३४-३८)। कर्णको प्रोत्साहन देकर युद्धके लिये सत्यसंध, तालध्वज, वसु आदि । भेजना (द्रोण० ४।२-१४)। धर्मका रहस्य जानने के भीष्मक-विदर्भदेशके अधिपति एक भोजवंशी नरेश, जो निमित्त युधिष्ठिरको भीष्मके पास जानेके लिये व्यासजीकी पृथ्वोके एक चौथाई भागके स्वामी, इन्द्र के सखा और प्रेरणा (शान्ति० ३७ । ५-७)। इनके द्वारा श्रीकृष्णकी
बलवान् थे । इन्होंने अस्त्र-विद्याके बलसे पाण्ड्य, क्रथ स्तुति (भीष्मस्तवराज ) (शान्ति० ४७ । १६-१००% और कैशिक देशोंपर विजय पायी थी । इनके भाई शान्ति०५१।२-१) । धर्मोपदेश करनेके लिये श्रीकृष्णके
आकृति परशुरामजीके समान शौर्यसम्पन्न थे। राजा भीष्मक सम्मख अपनी असमर्थता प्रकट करना (शान्ति.
रुक्मिणीके पिता एवं भगवान् श्रीकृष्णके श्वशुर थे। ये ५२ । २-१३)। अपनेको कष्टरहित बताते हुए आप
मगधराज जरासंधके प्रति भक्ति रखते थे (सभा० स्वयं उपदेश क्यों नहीं देते' ऐसा भगवान् श्रीकृष्णसे १४ । २१-२२)। राजसूय-यज्ञके अवसरपर सहदेवके पूछना (शान्ति० ५४ । १७-२४)। युधिष्ठिरके गुण- भोजकट नगरमें पहुँचनेपर ये दो दिनोंतक युद्ध करके कथनपूर्वक उनको प्रश्न करनेके लिये आदेश देना
उनसे पराजित हुए थे (सभा० ३१ । ११-१२)। (शान्ति० ५५ । २-१०)। भयभीत और लजित
महामना भीष्मकका दूसरा नाम हिरण्यरोमा था, ये साक्षात् युधिष्ठिरको आश्वासन देना (शान्ति० १४ । १९)। इन्द्र के मित्र थे । समूचे दाक्षिणात्य प्रदेशपर इनका प्रभुत्व युधिष्ठिरको नाना प्रकारके दृष्टान्तों और उपाख्यानोंद्वारा
था। इनके पुत्रका नाम रुक्मी था. जो सम्पूर्ण दिशाओंराजधर्म, आपद्धर्म तथा मोक्षधर्मका उपदेश देना
में विख्यात था (उद्योग० १५८ । १.२)। ये कलिङ्ग(शान्ति. ५६ । १२ से अनु० १६५ अध्यायतक)। राज चित्राङ्गदकी पुत्रीके स्वयंवरके अवसरपर राजपुर श्रीकृष्णसे भगवान् शिवकी महिमाका वर्णन करनेके लिये नगरमें गये थे (शामित०४।२-६)।
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भीष्मपर्व
( २३७ )
भूरि
भीष्मपर्व-महाभारतका एक प्रधान पर्व ।
अथवा नरकके नामसे प्रसिद्ध हुआ है । भगवान् श्रीकृष्णभीष्मवधपर्व-भीष्मपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
द्वारा भौमासुरके मारे जानेपर इन्होंने स्वयं प्रकट हो ४३ से १२२ तक)।
अदितिके दोनों कुण्डल लौटाये और नरकासुरकी संतानकी भीष्मस्वर्गारोहणपर्व-अनुशासनपर्वका एक अवान्तर पर्व
रक्षाके लिये श्रीकृष्णसे प्रार्थना की (सभा०३८ । २९ के
बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८०८)। इनका अपना भार (अध्याय १६७ से १६८ तक)।
उतारने के लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना करना ( वन. भुमन्यु-(१) ये महाराज दुष्यन्तके पौत्र एवं भरतके पुत्र
१४२ । ४१-४२)। वाराहरूपधारी विष्णुद्वारा इनका थे, जो महर्षि भरद्वाजकी कृपासे उत्पन्न हुए थे (आदि.
उद्धार (वन०१४२॥ ४५-४७)। संजयका धृतराष्ट्रसे ९४ । १९-२२)। इनकी माताका नाम सुनन्दा था;
इनकी महिमाका वर्णन करना (भीष्म० ४ । १० से जो काशीनरेश सर्वसेनकी पुत्री थी (आदि० ९५ ।
भीष्म० ५। १२ तक)। श्रीकृष्णसे वैष्णवास्त्र माँगनेकी ३२) । पिताद्वारा इनका युवराजपदपर अभिषेक
कथाकी चर्चा (द्रोण. २९ । ३०-३१) । पृथुसे अपने(आदि० ९४ । २३)। इनके द्वारा पुष्करिणीके गर्भसे
को अपनी कन्या माननेके लिये प्रार्थना करना (द्रोण. दिविरथ, सुहोत्र, सुहोता, सुहवि, सुयजु और ऋचीक
६९ । १५)। परशुरामजीद्वारा क्षत्रियसंहार हो जानेके नामक पुत्र उत्पन्न हुए ( आदि० ९४ । २४-२५)।
बाद कश्यपजीसे भूपालकी याचना करना और बचे हुए इनके द्वारा दशाह कन्या विजयाके गर्भसे सुहोत्रका जन्म
राजकुमारोंका पता बताना (शान्ति० ४९ । ७४-८६ )। (बादि. ९५ । ३३)। (२) ये सोमवंशी महाराज
श्रीकृष्णके पूछनेपर ब्राह्मणोंकी महिमाका वर्णन करना कुरुके प्रपौत्र एवं धृतराष्ट्र के पुत्र थे ( आदि० ९४ ।
( अनु० ३४ । २२-२९)। इनका भगवान् श्रीकृष्ण५९)। (३) एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्म
को गृहस्थ-धर्म सुनाना (अनु. ९७ । ५-२३)। महोत्सवके अवसरपर पधारे थे (आदि. १२२॥ ५८)।
राजा अङ्गके साथ स्पर्धा होनेके कारण अदृश्य हो जाना भूवन-(१) एक दिव्य महर्षि, जो प्रयाणकालमें भीष्मजी
(अनु. १५३।२)। इनका काश्यपी नाम पड़नेका को देखनेके लिये वहाँ पधारे थे (अनु० २६।८)। कारण (अनु. १५४ । ७)। (२) प्राचीन नरेश (२) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३५)। भूमिपतिकी भार्या ( उद्योग. ११७ । १४)। भूतकर्मा-कौरवपक्षका एक योद्धा, जो नकुल-पुत्र शतानीक- भमिञ्जय-एक कौरवपक्षीय योद्धा, जो द्रोणाचार्यद्वारा निर्मित के साथ युद्ध में उनके द्वारा मारा गया (द्रोण. २५ । गरुडव्यूहके हृदयस्थानपर खड़ा था (द्रोण. २० । २२-२३)।
१३-१४)। भूतधामा-जिन इन्द्रोंके अंशसे पाण्डवोंकी उत्पत्ति हुई थी, भूमिपति-एक प्राचीन राजा ( उद्योग० ११७ । १४)।
उन्हीं पोोंमेंसे दूसरे इन्द्रका नाम भूतधामा था ( आदि भूमिपर्व-भीष्मपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ११ से १९६ । २८-२९)।
१२ तक)। भूतमथन-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६९)।
भूमिपाल-एक प्राचीन क्षत्रिय नरेश, जो क्रोधवशसंज्ञक
दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि०६७।६१भूतलय-एक गाँवका नाम । यहाँ चोरों और डाकुओंका
६६)। इन्हें पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजनेका अड्डा था । यहाँ एक नदी थी, जिसमें मुर्दे बहाये जाते
निश्चय किया गया था ( उद्योग. ४ | १६)।। थे। ऐसी नदीमें स्नान करना शास्त्रनिषिद्ध है ( वन० १२९ । ९)।
भूमिशय-एक प्राचीन नरेश, जिन्हें राजा अमूर्तरयासे
खड्ग की प्राप्ति हुई थी और इन्होंने उस खड्गको दुष्यन्तभूतशर्मा-कौरवपक्षका एक योद्धा, जो द्रोणाचार्यद्वारा
कुमार भरतको दिया था ( शान्ति० १६६ । ७५)। निर्मित गरुड़व्यूहके ग्रीवास्थानमें खड़ा था (द्रोण० २० ।
भूरि-ये कुरुवंशी सोमदत्तके पुत्र थे। इनके दो छोटे ६-७)। भूतितीर्था-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य.
भाइयोका नाम भूरिश्रवा और शल था। ये अपने पिता .४६ । २७)।
तथा भाइयोंके साथ द्रौपदीके स्वयंवरमें गये थे ( आदि.
१८५ । १४-१५)। पिता और भाइयोंके सहित युधिष्ठिरके भूपति-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३२ )।।
राजसूय यज्ञमें भी पधारे थे (सभा०३४ । ८)। इनका भूमि-(१) भूदेवी। ये ब्रह्माजीकी पुत्री और भगवान् सात्यकिके साथ युद्ध और उनके द्वारा वध (द्रोण..
नारायणकी पत्नी हैं। भगवान् वाराहके साथ समागम होने- १६६। --१२)। मृत्युके पश्चात् ये विश्वेदेवोंमें मिल : पर इनके गर्भसे एक पुत्र हुआ. जो इस भूतलपर भौम गये ( स्वर्गा० ५। १६-१७)।
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भूरितेजा
( २३८ )
भृगु
भूरितेजा-एक प्राचीन नरेश, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके भुजाका काटा जाना (द्रोण० १४२ । ७२)। इनके
अंशसे उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७ । ६३-६६)। द्वारा अर्जुनको उपालम्भ दिया जाना (द्रोण. १४३ । इन्हें पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया ४-१५)। इनका आमरण अनशनके लिये बैठना गया था ( उद्योग० ४ । १७)।
(द्रोण. १४३ । ३३-३५) । सात्यकिद्वारा इनका वध भूरिद्युम्न-(१) एक प्राचीन नरेश, जो यमराजकी सभामें (द्रोण० १४३ । ५४ )। मृत्युके पश्चात् इनका विश्वेरहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा० । देवोमें प्रविष्ट होना (स्वर्गा० ५।१६)। १९, २१) । इन्होंने गोदान करके स्वर्गलोक प्राप्त महाभारतमें आये हुए भूरिश्रवाके नाम-भूरिदक्षिण, किया ( अनु० ७६ । २५)।(२) एक महर्षि, जिन्होंने शलाग्रज, कौरव, कौरवदायाद, कौरवेय, कौरव्य, कौरव्यशान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते समय मार्गमें श्री- मुख्य, कुरुशार्दूल, कुरुश्रेष्ठ, कुरूद्वहः कुरुपुङ्गव, यूपकृष्णकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की थी ( उद्योग. ८३। केतन, यूपकेतु आदि। २७) । (३) यह राजा वीरद्युम्नका एकलौता पुत्र भरिहा-एक राक्षस, जो प्राचीन कालमें पृथ्वीका शासक
था, जो वनमें खो गया था (शान्ति. १२७ । १४)। था; परंतु कालके वशीभूत हो इसे छोड़कर चल बसा भूरिबल (भीमबल )-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक (शान्ति० २२७ । ५१-५६)। (आदि० ६७। । ९४; आदि. ११६ । ७)। भीमसेन- भूलिङ्ग-हिमालयके दूसरे भागमें रहनेवाली एक चिड़िया,
द्वारा इसका वध (शल्य. २६ । १४-१५)। जो सदा यही बोला करती थी-मा साहसम्' अर्थात् भूरिश्रवा-ये कुरुवंशीय सोमदत्तके पुत्र थे। इनके दो साहस न करो'; परंतु स्वयं साहसका काम करती हुई भाइयोंका नाम भूरि और शल था । ये पिता और
सिंहके दाँतोंमें लगे हुए मांसके टुकड़ेको अपनी चोंचसे भाइयोंके साथ द्रौपदी स्वयंवरमें गये थे ( आदि.
चुगती रहती है (सभा० ४४ । २८-३०)। १८५ । १४-१५)। इनके द्वारा पाण्डवोंके पराक्रमका भूषिक-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५८)। वर्णन और उनसे युद्ध न करके उनके साथ संधि करनेके लिये भग-एक महर्षि, जो ब्रह्माजीके द्वारा वरुणके यशमें अग्निसे इनकी द्रुपदनगरमें दुर्योधनको सलाह (आदि० १९९। उत्पन्न हुए थे ( आदि० ५।८)। इनकी प्यारी पत्नी७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। अपने पिता और भाइयोंके का नाम पुलोमा था (आदि० ५। १३)। पुलोमा साथ ये युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें आये थे ( सभा० राक्षसके हरण करते समय इनकी पत्नी पुलोमाका गर्भ ३४ । ८)। इनका एक अक्षौहिणी सेनासहित दुर्योधन- चू पड़ा, जिससे च्यवन नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई की सहायतामें आना (उद्योग० १९ । १६ )। रथियोंके (आदि. ६ । १-२४; आदि० ६६ । ४४-४५)। यूथपतियोंके यूथपतिरूपमें इनकी भीष्मद्वारा गणना पत्नी पुलोमाद्वारा अपने हरणका रहस्य बतलानेपर (उद्योग० १६५ । २९) । प्रथम दिनके युद्धमें इनका इनका अग्निदेवको सर्वभक्षी होनेका शाप देना (आदि. शङ्खके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ४५। ३५-३७)। ६।१४) । इनके दूसरे पुत्रका नाम 'कवि' था इनकी सात्यकिपर चढ़ाई और उनके साथ युद्ध (आदि०६६ । ४२)। च्यवनके अतिरिक्त इनके छः ( भीष्म० ६३ । ३३ से ६४ । ४ तक )। पुत्र और हुए, जो व्यापक तथा इन्हींके समान गुणवान्
थे जिनके नाम इस प्रकार हैं-वज्रशीर्ष, शुचि, और्व, अध्याय)। इनके द्वारा सात्यकिके दस पुत्रोंका वध शुक्र, वरेण्य तथा सवन। सभी भृगुवंशी सामान्य रूपसे वारुण (भीष्म० ७४ । २५)। धृष्टकेतुके साथ इनका युद्ध कहलाते हैं (अनु० ८५। १२८-१२९)। ये युधिष्ठिरकी तथा इनके द्वारा धृष्टकेतुकी पराजय (भीष्म० ८४ । सभामें विराजते थे (सभा० ४ । १६)। इन्द्रकी सभामें ३५-३९ )। भीमसेनके साथ इनका इन्दू-युद्ध रहकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं (सभा० ७ । २९)। ( भीष्म ११०।१०-११; भीष्म १११। ४४- ब्रह्माकी सभामें उपस्थित रहकर ब्रह्माजीकी सेवा करते हैं ४९) । शिखण्डीके साथ इनका-युद्ध (द्रोण. १४ । (समा० ११ । १९) । इनका अपनी पुत्रवधूको संतानके ४३-४५)। मणिमान्के साथ युद्ध करके उसका वध लिये वरदान देना ( वन० ११५ । ३५-३७)। शान्तिकरना (द्रोण. २५। ५३-५५) । इनके ध्वजका
दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्ण की इनके द्वारा वर्णन (द्रोण. १०५। २२-२४)। सात्यकिके साथ दक्षिणावर्त परिक्रमा ( उद्योग० ८३ । २७) । इनका युद्ध करके उनकी चुटिया पकड़कर घसीटना (द्रोण. द्रोणाचार्यके पास आकर युद्ध बंद करनेको कहना १४२ । ५९-६२ ) । अर्जुनद्वारा इनकी दाहिनी (द्रोण. १९० । ३४-४०)। इनका भरद्वाजके प्रति
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भृगुतीर्थ
( २३९ )
भोजा
जगत्की उत्पत्ति और विभिन्न तत्त्वोंका वर्णन करना (वन० ८५ । ९१-९२)। इस महान् पर्वतकी भृगुतुङ्ग(शान्ति. १८२ अध्याय)। आकाशसे अन्य चार आश्रमके नामसे भी प्रसिद्धि है। यहाँ भृगुजीने त स्थूल भूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन (शान्ति. १८३ अध्याय)। की थी (वन० ९० । २३)। भृगुतुङ्गमें एक 'महाद' पञ्चमहाभूतोंके गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन (शान्ति० १८४ नामक तीर्थ या सरोवर है । जो लोभका त्याग करके यहाँ अध्याय)। शरीरके भीतर जठरानल तथा प्राण-अपान आदि स्नान करता और तीन राततक निराहार रहता है, वह वायुओंकी स्थिति आदिका वर्णन (शान्ति० १८५ अध्याय)। ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त हो जाता है (अनु० २५ । १४जीवकी सत्ता तथा नित्यताको नाना प्रकारकी युक्तियोंसे १९)। सिद्ध करना (शान्ति० १८७ अध्याय ) । वर्णविभाग- भेडी-स्कन्द की अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६।१३)। पर्वक मनुष्यकी तथा समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन भेरीस्वना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका(शल्य०४६।२६)। (शान्ति. १८८ अध्याय)। चारों वर्गों के अलग-अलग कर्माका और सदाचारका वर्णन तथा वैराग्यसे परब्रह्मकी भैरव-धृतराष्ट्रवंशी एक नाग, जो सर्पसत्रमें दग्ध हो गया प्राप्तिका निरूपण (शान्ति. १८९ अध्याय)। सत्यकी (आदि० ५७ । १७)। महिमा, असत्यके दोष तथा लोक और परलोकके सुख- भोगवती-(१) नागलोक ( आदि०२०६। ५१समा० दुःखका विवेचन (शान्ति० १९० अध्याय ) । ब्रह्मचर्य ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। ( २) पातालऔर गार्हस्थ्य आश्रमके धर्मोंका वर्णन (शान्ति० १९१ लोकमें स्थित गङ्गा (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिअध्याय)। वानप्रस्थ और संन्यास धोका वर्णन तथा णात्य पाठ, पृष्ठ ८१४) । प्रयागमें वासुकि नागका तीर्थहिमालयके उत्तरपार्श्वमें स्थित उत्कृष्ट लोककी विलक्षणता विशेष, जो गङ्गामें ही है, इसमें स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञएवं महत्ताका प्रतिपादन (शान्ति० १९२ अध्याय)। काफल मिलता है (वन० ८५।८६;उद्योग० १८६ ॥२७)। इनका हिमवान्को रत्नोंका भण्डार न होनेका शाप देना (३) सरस्वती नदीका नामान्तर (वन २४ । २०)। (शान्ति० ३४२ । ६२)। इनके द्वारा राजा वीतहव्यको (४) स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६८)। शरण देकर ब्राह्मणत्व प्रदान करना (अनु०३० । ५७- भोगवान-एक पर्वत, जिसे भीमसेनने पूर्व-दिग्विजयके समय ५८)।ये अग्निकी ज्वालासे उत्पन्न हुए थे; अतः जीता था (सभा० ३०। १२)। इनका नाम 'भृगु' पड़ा (अनु० ८५। १०५.१०६)। अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर इनका शपथ करना
भोज-( १ ) एक वंश, जो यदुकुलके अन्तर्गत है
(आदि० २१७ । ८)। (२) मार्तिकावत देशके (अनु. ९३।१६)। अगस्त्यजीसे नहुषको गिरानेका
एक राजा, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे ( आदि. उपाय पूछना (अनु० ९९ । १५)। इनका अगस्त्यजीको नहुषके पतनका उपाय बताना (अनु० ९९ । २२
१८५ । ६)। ये युधिष्ठिरकी सभाके सभासद् थे
(सभा० ४ । २६)। कौरव-पक्षसे युद्ध करते हुए २८) । इनके द्वारा नहुषको शाप ( अनु० १०० । २४२५)। नहुषके प्रार्थना करनेपर उनके शापका उद्धार
अभिमन्युद्वारा मारे गये (द्रोण. ४८1८)। इन्होंने बताना ( अनु. १००।३०)।
कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी कन्याके स्वयंवरमें भी पदार्पण भृगुतीर्थ-महर्षियोद्वारा सेवित एक तीर्थ । यहाँ स्नान करके
किया था (शान्ति० ४ । ७) । (३) एक यदुवंशी
नरेश, जिन्हें महाराज उशीनरसे खड्ग की प्राप्ति हुई थी परशुरामजीने श्रीरामजीद्वारा अपहृत अपने तेजको पुनः
(शान्ति. १६६ । ७९)।(इन्हीसे यादवोंमें भोजप्राप्त कर लिया था। राजा युधिष्ठिरने भी अपने भाइयोंसहित यहाँ स्नान-तर्पण किया, जिससे उनका रूप अत्यन्त
वंशकी परम्परा प्रचलित हुई थी।) तेजस्वी हो गया और वे शत्रुओंके लिये परम दुर्धर्ष हो भोजकट-विदर्भदेशकी राजधानी, जिसे सहदेवने जीता था गये (वन० ९९ । ३४-३८)।
(सभा० ३३।११-१२) । रुक्मिणी-हरणके समय भृगतक-एक प्राचीन पर्वत, जहाँ राजा ययातिने अपनी श्रीकृष्णके साथ युद्ध करके जहाँ रुक्मी पराजित हुआ था।
पनियोंके साथ तपस्या की थी (आदि.०५। ५७)। वहीं उसने इस नये नगरको बसाया था ( उद्योग तीर्थयात्राके अवसरपर अर्जुनका यहाँ आगमन हुआ
१५८ । १४-१५)। (इसके पहले इस राज्यकी राजथा (आदि० २११।२)। यहाँ शाकाहारी होकर एक धानी कुण्डिनपुरमें थी।) मास निवास करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है भोजा-सौवीरराजकी सर्वाङ्गसुन्दरी कमनीया कन्या, जिसे (वन० ८३ । ५.)। यहाँ उपवास करनेसे मनुष्य अपने सात्यकिने अपनी रानी बनानेके लिये हर लिया था आगे-पीछेकी सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है (द्रोण. १०।३३)।
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( २४० )
मजान
भौम-एक असुर ( देखिये नरकासुर ) (सभा० ३८। खीरका दान करनेसे पितरोंकी तृप्ति होती है ( अनु० २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८०४-८०७)।
८८ । ७ अनु० १२६ । ३५-३७) । मघा नक्षत्रमें भ्रमर-सौवीरदेशका एक राजकुमार, जो जयद्रथके रथके हाथीके शरीरकी छाया में बैठकर उसके कानसे हवा लेते पीछे हाथमें ध्वजा लेकर चलता था। द्रौपदीहरणके समय हुए चावलकी खीर या लौहशाकका पितरोंके लिये दान जयद्रथके साथ गया था (वन० २६५ । १०.११)।
करनेसे पितर संतुष्ट होते हैं (अनु० ८८1८)। मघामें अर्जुनद्वारा इसका वध हुआ (वन० २.१ ।२७)।
श्राद्ध एवं पिण्डदान करनेवाला मनुष्य अपने कुटुम्बीजनोंमें श्रेष्ठ होता है (अनु. ८५ । ५)। चान्द्रव्रतके समय
मघाकी चन्द्रमाके नासिका स्थानपर भावना करनी चाहिये मकरी-भारतवर्षकी एक प्रधान नदी, जिसका जल यहाँके ।
(अनु. ११०।८)। निवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । २३)।
मङ्कणक-एक प्राचीन ऋषि, जो वायुदेवद्वारा सुकन्याके गर्भसे मगध-एक प्राचीन देश । बिहार प्रान्तका दक्षिणी भाग
उत्पन्न हुए थे (शल्य०३८ । ५९)। सप्तसारस्वतइसकी राजधानी गिरिव्रज ( आधुनिक राजगृह ) थी
तीर्थमें इन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी। एक बार इनके हाथमें ( सभा० २१ । २-३) । किसी समय बृहद्रथ मगध
कुश गड़ जानेसे घाव हो गया, जिससे शाकका रस चूने देशके राजा थे (आदि. ६३।३०)। कालेयोंमें जो
लगा । उसे देखकर हर्षके मारे ये नृत्य करने लगे महान् श्रेष्ठ असुर था, बही मगध देशमें जयत्सेन नामका
(वन० ८३ । ११५-११७) । महादेवजीका इनके राजा हुआ था (आदि० ६७ । १८)। इस देशपर
पास आगमन तथा नृत्यका कारण पूछना (वन० ८३ । पाण्डुने आक्रमण करके वहाँके राजा दीर्घ' का वध किया
१२०-१२१)। इनका महादेवजीसे अपने हर्षका कारण था ( आदि. ११२ । २६-२७ )। इस देशमें राजा बताना ( वन० ८३ । १२२-१२३)। महादेवजीके बृहद्रथने जरा राक्षसी (गृहदेवी) के लिये महान् उत्सव हाथसे झरती हुई भस्मको देखकर इनका लजित होकर मनानेकी आज्ञा जारी की थी (सभा० १८ । १०)। उनके चरणोंमें गिरना और महादेवजीकी स्तुति करना महाभारतकालमें जरासंध मगध देशका राजा था, जिसे
(वन० ८३ । १२४-१३१)। इन्हें शिव जीसे वरदान भगवान् श्रीकृष्णने युक्तिपूर्वक भीमसेनद्वारा मरवा डाला
प्राप्त होना (वन० ८३ । १३२-१३४)। इनके वीर्यसे ( सभा० २४ । ७ के बाद दा० पाठ ) । जरासंधके सात पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई थी, जो सब-के-सब ऋषि हुए। मरने के बाद उसके पुत्र सहदेवको भगवान् श्रीकृष्णने उनके नाम हैं-बायुवेग, वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, मगध देशके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया (सभा० वायुज्वाल, वायुरेता और वायुचक्र (शल्य० ३८ । ३४२४ । ४३)। इस देशको पूर्व दिग्विजयके समय भीम- ३८)। इनके चरित्रका विशेषरूपसे वर्णन (शल्य. सेनने अपने वशमें कर लिया था ( सभा० ३० । १६- ३८। ३८-५८)। १८) । यहाँके राजा भी युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें भेंट
मङ्कि-एक प्राचीन मुनि (शान्ति. १७७ । ४)। ऊँटलेकर आये थे (सभा० ५२।१८) । यहाँके राजा
द्वारा इनके बछड़ोंका अपहरण हो जानेपर इन्होंने तृष्णा तथा निवासी महाभारत-युद्धमें युधिष्ठिरके पक्षमें आये थे
और कामनाकी गहरी आलोचना की, जो मङ्कि-गीताके ( उद्योग० ५३ । २)। इस देशकी गणना भारतके
नामसे प्रसिद्ध है (शान्ति. १७७ । ९-५२)। अन्तमें प्रमुख जनपदोंमें है (भीष्म०९ । ५०)।
ये धन-भोगोंसे विरक्त होकर परमानन्दस्वरूप परब्रह्मको मघा-(१) एक तीर्थ, यहाँ जानेसे अग्निष्टोम और अति
प्राप्त हो गये (शान्ति. १७७ । ५३-५४)। रात्र यज्ञोंका फल मिलता है (वन०८४ । ५.)।
मङ्ग-शाकद्वीपका एक जनपद, जिसमें अधिकतर कर्तव्य(२) सत्ताईस नक्षत्रोंमें एक नक्षत्रका नाम । जब
पालनमें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मण निवास करते हैं (भीष्म मङ्गलग्रह वक्र होकर मघा नक्षत्रपर आता है, तब अमङ्गलका सूचक होता है (भीष्म०३।१४)।
११।३६)। मषा नक्षत्रपर चन्द्रमाकी स्थिति होनेसे अपशकुन समझना मचक्रुक-समन्तपश्चक एवं कुरुक्षेत्रकी सीमाका निर्धारण चाहिये (भीष्म० १७।२)। जो मनुष्य मघा नक्षत्र में
करनेवाला एक स्थान, जहाँ मचक्रुक नामके यक्ष द्वारपालतिलसे भरे हुए वर्धमान पात्रोंका दान करता है, वह इस रूपमें निवास करते हैं। इन यक्षको नमस्कार करनेमात्रसे लोकमे पुत्रों और पशुओंसे सम्पन्न हो परलोकमें आनन्दका सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है (धन.८३ । ९० भागी होता है (अनु० ६४ । १२)। आश्विन मासके शल्य. ५३ । २४)। कृष्णपक्षमें मघा और त्रयोदशीका संयोग होनेपर घृतमिश्रित मजान-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ७.)।
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( २४१. )
मत
मञ्जुला-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके ( अनु० १९ । ३३ ) । मरुत्तका धन लानेके लिये निवासी पीते हैं (भीष्म०९।३.)।
जाते समय युधिष्ठिरने इन्हें खिचड़ी, फलके गूदे तथा
जलकी अञ्जलि निवेदन करके इनकी पूजा की थी मणि-(१) धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
(आश्व०६५। ७)। सर्पसत्रमें दग्ध हो गया (आदि० ५७ । १९)। (२) एक ऋषि, जो ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना मणिमतीपुरी-यह इल्वल दैत्यकी नगरी थी (क्न. करते हैं (सभा० ११ । २४)। (३) चन्द्रमाद्वारा
९६।४)। स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । दसरेका नाम मणिमन्थ-एक पर्वत, जहाँ श्रीकृष्णने लाखों करोड़ों वर्षोंसुमणि था ( शल्य० ४५ । ३२)।
तक शिवकी आराधना की थी (अनु० १८ । ३३)। मणिकाञ्चन-श्यामगिरिके पास स्थित शाकद्वीपका एक वर्ष माणमान्-(१) एक राजा जो दनायुके पुत्र वृत्त
नामक असुरके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि०६७। (भीष्म० ११ । २६)।
४४)। ये द्रौपदीके स्वयंवर में पधारे थे (आदि. १८५। मणिकुट्टिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.
२२)। भीमसेनने पूर्वदिग्विजयके समय इन्हें पराजित ४६ । २०)।
किया था (सभा० ३० । ११)। पाण्डवोंकी ओरसे मणिजला-शाकद्वीपकी एक प्रमुख नदी ( भीष्म० इन्हें रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था 1५।३२)।
( उद्योग० ४ । २०)। इनका भूरिभवाके साथ युद्ध मणिनाग-(१) कश्यपद्वारा कद्रुके गर्भसे उत्पन्न एक और उसके द्वारा इनका वध (द्रोण० २५ । ५३
नाग (आदि. ३५। ६)। गिरिव्रजके निकट इसका ५५)। द्रोणाचार्यद्वारा इनके मारे जाने की चर्चा निवासस्थान था (सभा० २१ ।९)। (२) एक (कर्ण० ६ । १३.१४)। (२)एक नाग, जो वरुणकी तीर्थ, जहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानका फल सभामें रहकर उनकी उपासना करता है (सभा०९। मिलता है और इस तीर्थका प्रसाद भक्षण करनेसे सर्पके १)। (३) एक तीर्थ, जहाँ एक रात निवास करनेसे अग्निकाटनेपर उसके विषका प्रभाव नहीं पड़ता (वन० टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है (वन० ८२ । १.१)। ८४ । १०६)।
(४) एक यक्ष या राक्षस, जो कुबेरका सखा था। इसका मणिपर्वत-एक पर्वत, जहाँ दुष्ट भौमासुरने सोलह हजार
भीमसेनके साथ युद्ध और उनके द्वारा वध ( वन एक सौ अपहृत कन्याओंके रहने के अन्तःपुरका निर्माण १६० । ५९-७७)। अगस्त्यजीका अपमान करनेके कराया था (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ,
कारण उनके द्वारा इसे शाप मिलने की चर्चा (वनपृष्ठ ८०५)।
१६१ । ६०-६२ ) । (५) एक पर्वत, जो स्वप्नमें मणिपूर-यह धर्मश राजा चित्रवाहन की राजधानी थी। यहाँ
श्रीकृष्णके साथ शिवजीके पास जाते हुए अर्जुनको मार्गमें तीर्थयात्राके अवसरपर अर्जुनका आगमन हुआ था और
मिला था (द्रोण० ८० । २४)। चित्राङ्गदाके साथ विवाह करके वे तीन वर्षतक यहाँ मण्डक-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९ । ४३)। निवास किये थे । अर्जुनद्वारा चित्राङ्गदाके गर्भसे यही मण्डलक-तक्षककुलमें उत्पन्न एक नाग, जो सर्पसत्र में दग्ध बभ्रुवाहनका जन्म हुआ था ( सभा० २१४ । १३- हो गया (आदि० ५७ । ८)। २७)। अश्वमेधीय अश्वके पीछे जाते हुए अर्जुनका मण्डक-अश्वकी एक जाति; इस जातिके बहत-से अश्व मणिपुर में पुनः आगमन तथा पिता-पुत्रका घोर संग्राम
अर्जुनने दिग्विजयके समय गन्धर्वनगरसे करके रूपमें (आश्व० ७९ अध्याय)।
प्राप्त किये ( सभा० २८ । ६)। मणिपुष्पक-सहदेवके शङ्खका नाम ( भीष्म० २५ । मतङ्ग-(१) एक प्राचीन राजर्षि, जो शापवश व्याध
हो गये थे और जिन्होंने दुर्भिक्षके समय विश्वामणिभद्र-एक यक्षविशेष, जो कुबेरकी सभामें रहकर मित्रकी पत्नीका भरण-पोषण किया था ( आदि०७१।
उनकी सेवा करते हैं (सभा. १० । १५ ) । ये ३१)। महर्षि विश्वामित्रने पुरोहित बनकर इनके यज्ञका यात्रियों तथा व्यापारियोंके उपास्यदेव है (वन० ६४। सम्पादन किया था, जिसमें इन्द्र स्वयं सोमपान करनेके १३०; वन० ६५ । २२)। कुण्डधार मेघकी प्रार्थनासे लिये पधारे थे ( आदि. ७१ । ३३)। (२) एक इनका ब्राह्मण को वरदान देना (शान्ति. २७१। महर्षि, जिनका आश्रम तीर्थरूपमें माना जाता है २१-२२ )। इनके द्वारा अष्टावक्र मुनिका स्वागत (वन. ८४ । १०१)। (३) ये ब्राह्मणीके गर्भसे
म. ना.३१
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मतङ्गकेदार
( २४२ )
मथुरा
ब्राह्मणेतरद्वारा उत्पन्न हुए थे (अनु०२० )। १२-१३)। महाभारतकालमें विराट यहाँके राजा थे इनका गर्दभीके साथ-संवाद (अनु०२७।११-१९)। (विराट. १ । १७)। मत्स्यनरेश विराटके यहाँ की ब्राह्मणत्व-प्राप्तिके लिये इनकी तपस्या (अनु. २७ । पाण्डवोंने अपना अज्ञातवासका समय बिताया (विराट. २२-२३)। वर देनेके लिये आये हुए इन्द्रके साथ . अध्याय) । मत्स्यदेशके राजा विराट एक अक्षौ. इनका संवाद (अनु. २७ । २४ से २९ । १२ तक)। हिणी सेना लेकर युधिष्ठिरकी सहायतामें आये थे ( उद्योग इनका इन्द्रसे वर माँगना और इन्द्रका इन्हें वर देना १९ । १२)। इसकी गणना भारतके प्रमुख जनपदोमें (अनु० २९ । २२-२५)। इन्हें प्राणत्यागके पश्चात् है (भीष्म० ९। ४.)। कुछ मत्स्यदेशीय सैनिक उत्तम स्थानकी प्राप्ति (अनु० २९ । २६)।
भीष्मद्वारा मारे गये थे (भीष्म ४९ । ४२) । मताकेदार-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सहस्र द्रोणाचार्यद्वारा पाँच सौ 'मत्स्य देशीय वीरोंका वध एक
गोदानका फल पाता है (वन० ८५।१७-१८वन. साथ हुआ था (द्रोण० १९० । ३१) । कर्णने पहले ८७ । २५)।
कभी इस देशको जीता था ( कर्ण० ८।१८)। मतनाथम-श्रम और शोकका विनाश करनेवाले इस
यहाँके निवासी धर्मके जाननेवाले और सत्यवादी होते आश्रममें प्रवेश करनेसे मनुष्य गवायन यज्ञका फल
थे ( कर्ण० ४५ । २८, ३० )। युद्धसे बचे हुए पाता है (वन० ८४ । १.१)।
मत्स्यदेशीय वीरोंका अश्वत्थामाद्वारा संहार (सौप्तिक. मति-दक्ष प्रजापतिकी पुत्री एवं धर्मराजकी पत्नी (आदि.
८। १५८-१५९)। ६६ । १५)।
मत्स्यगन्धा-दाशराजकी पोष्य कन्या ( आदि. ६३ । मतिनार-एक पूरुवंशी नरेश, जो पुरु-पौत्र अनाधृष्टि
६९, ८६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ) (विशेष देखिये(ऋचेयु) के पुत्र थे । ये महान् धार्मिक तथा अश्व- सत्यवती) मेध आदि बड़े-बड़े यज्ञों के अनुष्ठान करनेवाले थे। इनके
मथुरा-(पुराणानुसार सात मोक्षदायिनी पुरियोंमेंसे एक तंसु, महान्, अतिरथ एवं द्रुह्यु नामके चार पुत्र थे।
पुरीका नाम । यह वजमें यमुनाके दाहिने किनारेपर है। ( आदि. ९४ । १३-१४)। (यहाँ आदिपर्वके ९४
रामायण (उत्तरकाण्ड) के अनुसार इसे मधु नामक दैत्यने अध्यायमें वर्णित परम्पराके अनुसार राजा मतिनार पूरुसे
बसाया था, जिसके पुत्र लवणासुरको पराजित करके चौथी पीढ़ीमें आ रहे हैं। परंतु आदिपर्वके ९५ अध्यायके
शत्रुघ्नने इसको विजय किया था। पाली-भाषाके ग्रन्थों में ११ से २६ तकके श्लोकोंमें पूरुवंशकी जिस परम्पराका
इसे मथुरा लिखा है । महाभारत कालमें यहाँ शूरसेनवर्णन किया गया है, उसमें राजा मतिनार पुसे १६वीं
वंशियोंका राज्य था और इसी वंशकी एक शाखामें पीढ़ीमें आते हैं।)
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका यहाँ जन्म हुआ था । शूरमत्कुलिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ ।
सेनवंशियोंके राज्यके अनन्तर अशोकके समयमें उनके
आचार्य उपगुप्तने इसे बौद्धधर्मका केन्द्र बनाया था । यह मत्तमयूर-एक क्षत्रिय-समुदाय, जिसे पश्चिम-दिग्विजयके जैनोंका भी तीर्थस्थान है । उनके उन्नीसवे तीर्थकर समय नकुलने जीता था (सभा० ३२ । ५)।
मल्लिनाथका यह जन्मस्थान है । मौर्यसाम्राज्यके मत्स्य-(१) एक राजा, जो उपरिचर वसुके वीर्यद्वारा अनन्तर यह स्थान अनेक यूनानी, पारसी और शक
मत्स्यके गर्भसे उत्पन्न हुआ था (आदि. ६३।५०-६३)। क्षत्रियोंके अधिकारमें रहा । महमूद गजनवीने सन् यह यम-सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करता १०१७ ई. में आक्रमण करके इस नगरको नष्ट-भ्रष्ट है (सभा० ८।१०)। (२)एक देश और यहाँके कर डाला था । अन्य मुसल्मान बादशाहोंने भी समयनिवासी । वनमें भटकते हुए पाण्डव मत्स्यदेशमें आये थे समयपर आक्रमण करके इसे तहस-नहस किया था। ( आदि. १५५ । २) । यहाँके निवासी जरासन्धके यहाँ हिंदुओंके अनेक मन्दिर हैं और अनेक कृष्णोभयसे उत्तर दिशाको छोड़कर दक्षिण भाग गये थे पासक वैष्णव-सम्प्रदायके आचार्योंका यह केन्द्र है। मथुराका (सभा० १४ । २८)। पूर्व-दिग्विजयके समय भीम- दूसरा नाम शूरसेनपुर है (सभा०३८। दाक्षिणात्य पाठ, सेनने इस देशपर विजय पायी थी (सभा० ३०1८)। पृष्ठ ८०४, कालम २ )। यही भगवान् श्रीकृष्णका सहदेवने भी दक्षिणदिग्विजयके समय इसे जीता था अवतार हुआ और नवजात बालक श्रीहरिको वसुदेवजीने (सभा० ३१ । ४) । अर्जुनद्वारा अशतवासके लिये कंसके भयसे मथुरासे ले जाकर नन्दगोपके घरमें छिपा चुने हुए देशों में यह मत्स्यदेश भी था (विराट । दिया (समा०३८ । पृष्ठ ७९८)। मथुरामें ही श्री
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मद्धार
( २४३)
अंध्रदेशीय मल्ल चाणूरका वध किया था। वहीं (विराट.३३।१०) ये एक उदार रथी सम्पूर्ण अत्रोके बलदेवने मुष्टिकको मारा था । उसी नगरमें श्रीकृष्णने शाता और मनस्वी वीर थे (उद्योग. १७१।१५)। कंसके भाई और सेनापति सुनामाका संहार किया । द्रोणाचार्यद्वारा इनके मारे जानेकी चर्चा (कर्णः ।। ऐरावत-कुलमें उत्पन्न कुवलयापीडको नष्ट किया । कंसको ३४)। मारा, उग्रसेनको मधुराके राज्यपर अभिषिक्त किया मदिराश्व-एक राजर्षि, जो इक्ष्वाकुकुमार दशाश्वके पुत्र
और माता-पिताके चरणों में वन्दना की (समा० ३८। थे। ये परम धर्मात्मा, सत्यवादी, तपस्वी, दानी तथा वेद पृष्ठ ८०१)। श्रीकृष्ण शूरसेनपुरी मथुराको छोड़कर एवं धनुर्वेदके अभ्यासमें तत्पर रहनेवाले थे (अनु० २। द्वारका चले गये थे ( सभा०३८ । पृष्ठ ८०४ )। ८) । हिरण्यहस्तको कन्यादान करके देववन्दित कसके मारे जानेपर उसकी पत्नीकी प्रेरणासे जरासंधने लोकों में गये थे (शान्ति. २३४ । ३५, अनु. १३.। जब मथुरापर आक्रमण किया, तब अपने मन्त्री हंस
२४)। और डिम्भकके आत्मघात कर लेनेपर उत्साहशून्य होकर ,
मद्र-एक प्राचीन भारतीय जनपद (जो आधुनिक मतके वह लौट गया । इससे मथुरावासी यादव आनन्दपूर्वक
अनुसार रावी और चिनाब अथवा रावी और झेलमके वहाँ रहने लगे । तदनन्तर अपनी पुत्रियोंकी प्रेरणासे
मध्यवर्ती भू-भागमें स्थित था)। भीष्मजीका बूढ़े जब जरासंधने पुनः आक्रमण किया, तब यादव वहाँसे
मन्त्रियों, ब्राह्मणों तथा सेनाके साथ इस देशमें जाना और भाग खड़े हुए और रैवतक पर्वतसे सुशोभित कुशस्थलीमें
मद्रराज शल्यसे पाण्डुके लिये माद्रीका वरण करना जाकर रहने लगे (सभा. १४ । ३५-५०)।
(आदि. ११२।२-७) । अर्जुनके जन्मकालमें जरासंधने गिरिवजसे एक गदा फेंकी थी, जो मथुरामें
आकाशवाणी हुई थी कि यह बालक आगे चलकर मद्र आकर एक स्थानपर गिरी, वह स्थान गदावसानके
आदि देशोंपर विजय पायेगा (आदि. १२२ । ४.)। नामसे प्रसिद्ध हुआ ( सभा० १९ । २३-२४ )।
पाण्डुपुत्र नकुलने इस देशपर प्रेमसे ही विजय पायी थी मथुराके योद्धा मल्लयुद्धमें निपुण होते हैं (शान्ति.
(समा० ३२ । १४-१५)। मद्र या मद्रदेशके लोग १०१।५)। साक्षात् नारायणने ही कंसका वध करनेके
युधिष्ठिरके लिये भेंट लेकर आये थे (समा० ५२।१४)। लिये मथुराम श्रीकृष्णरूपसे अवतार लिया था (शान्ति.
सती सावित्रीके पिता अश्वपति मद्रदेशके ही नरेश ये ३३९ । ८९-९०)।
(बन० २१३ । १३)। कर्णने मद्र और वाहीक आदि मदधार-एक पर्वत, जिसे पूर्व-दिग्विजयके समय भीमसेनने
जिस पूर्व-दिग्विजयक समय भामसेनने देशोंको आचारभ्रष्ट बताकर उनकी निन्दा की थी (कर्ण. जीता था (सभा० ३.१९)।
अध्याय ४४ से ४५ तक)। मदयन्ती-राजा मित्रसह ( कल्माषपाद अथवा सौदास ) मद्रक-(१) एक प्राचीन क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक
की पत्नी, जिनके गर्भसे बसिष्ठद्वारा अश्मककी उत्पत्ति दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि. ६७ । ५९. हुई थी (आदि. १७६ । ४३-४६. आदि. १८१ ६ .)।(२)मद्रदेशीय योद्धा, जो कौरवसेनामें उपस्थित २६. शान्ति० २३४ । ३०)। कुण्डलकी याचनाके लिये थे (भीष्म० ५१।७)। गये हुए उत्तङ्क मुनिके साथ इनका संवाद (आश्व० मढकलिङ्ग-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४२)। ५७ । २१-२८)। उत्तङ्कको कुण्डल देना (आश्व० ५८।३)।
मधु-(१) एक महान् दैत्य, जो कैटभका भाई था ।
'यह भगवान् विष्णुके कानोंकी मैलसे उत्पन्न हुआ था मदासुर-च्यवनद्वारा प्रकट की हुई कृत्याके रूपमें एक
और उन्होंने ही मिट्टीसे उसकी आकृति बनायी थी। विशालकाय असुर (वन० १२४ । १९)।
इसकी त्वचा मृदु होनेसे इसका नाम मधु रखा गया मदिरा-वसुदेवजीकी अनेक पत्नियों से एक । ये देवकी,
( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७४३. भद्रा तथा रोहिणीके साथ पतिदेवकी चितापर आरूढ़ हो .४४)। कैटभसहित यह असुर ब्रह्माजीको मारनेके लिये भस्म हो गयी थीं (मौसल.011८)।
उद्यत हुआ था (वन० १२।३९)। इसके द्वारा मदिराक्ष ( मदिराश्व )-मत्स्यनरेश विराटके भाई, विष्णुको अपनी मृत्युका वर देना (वन.२०६।३०)। त्रिगोंद्वारा गोहरणके समय इनका कवच धारण करके इसकी भगवान् विष्णुसे वर-याचना (वन० २०३ । ३१. युद्धके लिये प्रस्थान करना (विराट० ३१ । १२-१३)। ३२)। यह तमोगुणसे प्रकट हुआ था। यह असुरोका गोहरणके समय त्रिगोंसे इनका युद्ध (विराट. १२ ।। पूर्वज था। इसका स्वभाव बड़ा ही उग्र था । यह सदा १९-२१)। ये राजा विराटके चक्र-रक्षक भी ये ही भयानक कर्म करनेवाला था । इस असुरको भगवान्
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मधुकुम्भा
( २४४ )
विष्णुने ब्रह्माजीके हितके लिये मारा था । इसीलिये वे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ( वन० १३४ । मधुसूदन कहलाते हैं (शान्ति. २०७ । १४-१६)। ३९-१०)। इसकी उत्पत्तिका वर्णन (शान्ति० ३४७ । २५-२६)। मधुसूदन-श्रीकृष्णका एक नाम । मधु नामक असुरको इसका भगवान् हयग्रीव (विष्णु)द्वारा वध ( सभा० मारनेके कारण ये मधुसूदन कहलाते हैं (वन० २०७ । ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८४, वन० २०३। १६)। ३५, शान्ति. ३४७ । ६९-७०)। (२) यमकी सभामें
मधुम्रव-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक प्राचीन रहने वाला एक राजा (सभा०८।१६)।
तीर्थ, जो पृथूदकके पास है । इसमें स्नान करनेसे सहस्र मधकरभा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. ४६. गोदानका फल मिलता है (वन०८३ । १५०)।
मनस्यु-महाराज पूरुके पौत्र तथा प्रवीरके पुत्र । इनकी मधुच्छन्दा-एक वानप्रस्थी ऋषि, जिन्होंने उस (वानप्रस्थ) ___ माताका नाम 'शूरसेनी' था। ये चक्रवर्ती सम्राट थे ।
धर्मके पालनसे उत्तम लोक प्राप्त किया (शान्ति. इनके द्वारा अपनी पत्नी सौवीरीके गर्भसे तीन पुत्र उत्पन्न २४४।१६)। ये विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक हुए-शक्त, संहनन और वाग्मी ( आदि. ९४ । थे (अनु०४ । ५०)।
६-७)। मधुपर्क-(१) देवताओं तथा अतिथियोंके पूजनका एक मनस्विनी-प्रजापति दक्षकी पुत्री, धर्मराजकी पत्नी और उपचार, जो विशेष विधिसे अर्पित किया जाता है (वन.
__ चन्द्रमाकी माता ( आदि० ६६ । १९)। ५२ । ४१)। (प्रायः दधि, मधु और घृत ही मधुपर्कके
मनु-(१) मानव-सृष्टिके प्रवर्तक आदि मनु, जो विराट उपयोगमें लाये जाते हैं। कुछ लोग मधुके स्थानमें शर्करा
अण्डसे प्रकट हुए (आदि०१।१२)। इनकी पुत्री डालते हैं । ) (२) गरुड़की प्रमुख संतानों से एक
आरुषी महर्षि च्यवनकी पत्नी थी ( आदि० ६६ । (उद्योग० १०१।१४)।
१६)। इन्हें ही स्वयम्भूका पुत्र मानकर स्वायम्भुव' मधुमान्-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५३)।
कहा गया है। इन्होंने धर्मसम्मत विवाहके विषयमें अपना मधुर-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । १)।
निर्णय दिया है (आदि०७३।९) । इन्होंने सोमको
चाक्षुषी विद्या प्रदान की थी ( आदि. १६९ । मधुरस्वरा-स्वर्गलोककी एक अप्सरा, जिसने अर्जनके
४३)। मगध देशको मेघोंके लिये अपरिहार्य कर स्वागतमें नृत्य किया था (वन० ४३ । ३०)।
दिया था, जिससे मेघ सदा समयपर वहाँ जल बरसाते मधलिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । थे। सभा० २१।१०)। ये इन्द्रके विमानपर बेठ
कर कौरवोंके साथ अर्जुनका युद्ध देखने के लिये आये थे मधुवटी-कुरुक्षेत्रको सीमामें स्थित एक तीर्थ । यहाँ जाकर (विराट० ५६ । १०)। इनकी पत्नीका नाम सरस्वती
देवीतीर्थमें स्नान करके मानव देवता-पितरोंकी पूजा करे था ( उद्योग० ११७।१४)। (पुराणान्तरों में शतरूपा तो देवीकी आशाके अनुसार सहस्र गोदानका फल पाता है
नाम आता है । ) विन्दुसरोवरके तटपर ये सदा स्थित (वन० ८३ । ९४)।
रहते हैं ( भीष्म० ७ । ४६ )। ये पृथ्वी-दोहनके मधुवन-वानरराज सुग्रीवके अधिकार में सुरक्षित एक वन,
समय बछड़ा बने थे (द्रोण० ६९ । २१)। ये स्कन्द के जिसके भीतर बलपूर्वक घुसकर हनुमान, अङ्गद आदिने
जन्म-समयमें भी पधारे थे ( शल्य. ४५।१०)। वहाँका मधु पी लिया था (न० २८२ । २७-२८)।
इनका सिद्धोंके साथ संवाद, इनके कथनानुसार धर्मका
स्वरूप, पापसे शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त, अभक्ष्य वस्तुओंमधुवर्ण-स्कन्द का एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७२)।
का वर्णन तथा दानके अधिकारी एवं अनधिकारीका मधुविला-कर्दमिल क्षेत्रके निकट बहनेवाली एक प्रसिद्ध विवेचन (शान्ति० ३६ अध्याय)। ये मनुष्योंके आदि नदी, जिसका दूसरा नाम समंगा है (वन. १३५। राजा थे (शान्ति० ६७ । २१-२२)। इन्हें प्रजापति १)। वृत्रासुरका वध करके श्रीहीन हुए इन्द्र समंगा मनु भी कहते हैं, इन्होंने बृहस्पतिके प्रश्नोंके उत्तरमें या मधुविलामें ही नहाकर पापमुक्त हो सके थे (वन. ज्ञान और त्यागकी प्रशंसा करते हुए उन्हें परमात्म१३५ । २)। अपने पिता कहोडकी आज्ञासे समंगामें तत्त्वका उपदेश दिया तथा उनके अन्य प्रश्नोंका भी स्नान करनेसे अष्टावक्रके सारे अन सीधे हो गये थे। विवेचन किया (शान्ति० अध्याय २०१ से २०६ तक)। इसीसे वह पुण्यमयी हो गयी। इसमें स्नान करनेवाला पाञ्चरात्र आगमके अनुसार ही स्वायम्भुव मनुने धर्म
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मनोजव
मन्दपाल
शास्त्रका निर्माण एवं धर्मोपदेश किया ( शान्ति० मनोनुग-क्रौञ्चद्वीपवर्ती वामन पर्वतके पासका एक देश ३३५ । ४४.४५)। जिस समय उपमन्यु सर्वालङ्कार (भीष्म० १२ । २१)। तथा परिवारगोंसे घिरे हुए महादेवजीका दर्शन कर मनोरमा-(१) एक अप्सरा, जो कश्यपकी प्राधा नामरहे थे, उस समय उन्होंने देखा कि स्वायम्भुव मनु वाली पत्नीसे उत्पन्न हुई थी ( आदि०६५। ५०)। वहाँ पधारे हुए है (अनु० १४ । २८०)। पुष्प, धूप, इसने अर्जनके जन्ममहोत्सवमें आकर नृत्य किया था दीप और उपहारके दानके माहात्म्य-प्रसङ्गमें तपस्वी ( आदि० १२२ । ६२)। (२) उद्दालक मुनिके सुवर्ण और मनुका संवाद ( अनु० ९८ अध्याय)।
आवाहन करनेपर उनके यज्ञमें प्रकट हुई सरस्वती (२) कश्यपकी प्राधा' नामवाली पत्नीसे उत्पन्न हुई नदीका नाम (शल्य० ३८ । २५)। पुत्री (आदि०६५। १५-१६) । (३) विवस्वान्के ।
मनोहरा-(१) सोम नामक वसुकी पत्नी, जिसके गर्भसे पुत्र, जो वैवस्वत मनुके नामसे प्रसिद्ध हुए (आदि०७२ ।
पहले वर्चाका जन्म हुआ; फिर शिशिर, प्राण तथा १२) । इनके वेन, धृष्णु, नरिष्यन्त, नाभाग, इक्ष्वाकु,
रमण नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए ( आदि. ६६ । कारूष, शर्याति, इला, पृषध्र, नाभागारिष्ट-ये दस पुत्र
२२)। (२) अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने थे ( आदि० ७५ । १५-१६) । वैवस्वत मनुका चरित्र
अष्टावक्रके स्वागतके लिये कुबेरसभामें नृत्य किया था तथा मत्स्यावतारकी कथा (बन० १८७ अध्याय)।
(अनु०१९ । ४५)। इन्हें विवस्वान्से योगकी प्राप्ति हुई और इन्होंने वही योग इक्ष्वाकुको प्रदान किया (भीष्म० १२२ । ३४
मन्थरा-दुन्दुभी नामक गन्धवींके अंशसे उत्पन्न हुई एक
कुबड़ी दासी, जो कैकेयीकी सेवामें रहती थी (वन ४२) । त्रेतायुगके आरम्भमें सूर्यने मनुको और मनुने
२७६ । १०)। इसका कैकेयीके मनमें भेद उत्पन्न सम्पूर्ण जगत् के कल्याणके लिये अपने पुत्र इक्ष्वाकुको । सात्वत धर्मका उपदेश किया (शान्ति० ३४८ । ५१)।
करना ( वन० २७७ । १७-१८)। महर्षि गौतमसे इन्हें शिवसहस्रनामको प्राप्ति हुई और मन्थिनी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । इन्होंने समाधिनिष्ठ एवं ज्ञानी नारायण नामक किसी २८)। साध्य देवताको यह स्तोत्र प्रदान किया ( अनु०१७। मन्दग-शाकद्वीपका एक जनपद, जिसमें धर्मात्मा शोका १७७-१७८ )। (४) ये तपनामधारी पाञ्चजन्य निवास है (भीष्म ११।३८)। नामक अग्निके पुत्र थे। इनका एक नाम भानु भी मन्दगा-भारतकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके था । इनके तीन पत्नियाँ थीं-सुप्रजा, बृहद्भासा और निवासी पीते हैं (भीष्म ९।३३)। निशा । प्रथम दोसे छः पुत्र और तोसरीसे एक कन्या मन्दपाल-एक विद्वान् महर्षि, जो धर्मशोंमें श्रेष्ठ और तथा सात पुत्र उत्पन्न हुए (बन० २२१ । ४-१५)।। कठोर व्रतका पालन करनेवाले थे। ये ऊध्वरेता मुनियों( पाचेतस नामसे प्रसिद्ध मन, जिन्होंने छ: व्यक्तियों के मार्गका आश्रय ले सटा वेटोके नामm. uimaa को त्याज्य बताया है (शान्ति० ५७ । ४३-४५)। और तपस्यामें संलग्न रहते थे । अपनी तपस्या पूर्ण (६) स्वारोचिष नामसे प्रसिद्ध एक मनु, जिन्हें करके शरीरको त्यागकर जब ये पितृलोकमें गये, तब ब्रह्माजीने सात्वत धर्मका उपदेश दिया था। फिर स्वारी- वहाँ इन्हें अपने तप एवं सत्कोका फल नहीं मिला। चिपने अपने पुत्र शङ्खपदको इसका उपदेश दिया इन्होंने देवताओंसे इसका कारण पूछा । देवताओंने (शान्ति० ३४८ । ३६.३७)। (७) चाक्षुष नामक बताया कि आपने पितृ-ऋणको नहीं उतारा है। अतः मनु, जिनके पुत्र भगवान् वरिष्ठके नामसे प्रसिद्ध हैं संतान उत्पन्न करके अपनी वंशपरम्पराको अविच्छिन्न ( अनु० १८ । २०)। (८) सौवर्ण नामक बनानेका प्रयत्न कीजिये । यह सुनकर शीघ्र संतान उत्पन्न मनु, जिनके समयमें वेदव्यास सतर्षि पदपर प्रतिष्ठित करनेके लिये इन्होंने शाह्निक पक्षी होकर जरिता नामहोंगे (अनु. १८ । ४३)।
वाली शाझिंकासे सम्बन्ध स्थापित किया । उसके गर्भसे मनोजव-(१)अनिल नामक वसुके प्रथम पुत्र । इनकी चार ब्रह्मवादी पुत्रोंको जन्म देकर ये मुनि लपिता माताका नाम शिवा है (आदि० ६६ । २५)। (२) नामवाली पक्षिणीके पास चले गये। बच्चे अपनी माँके कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक पवित्र तीर्थ, जो व्यास- साथ खाण्डववनमें ही रहे। जब अग्निदेवने उस वनवनमें स्थित है। इसमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल को जलाना आरम्भ किया, उस समय इन्होंने उनकी मिलता है (वन० ४३ । ९३ )।
स्तुति की और अपने पुत्रोंकी जीवन-रक्षाके लिये पर
माँगा। तब अग्निदेवने 'तथास्तु' कहकर इनकी प्रार्थना मनोजवा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.४६।११।।
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मन्दराचल
( २४६ )
मेय
स्वीकार कर ली ( आदि० २२८ अध्याय)। मन्दपालका २५।२९)। (२)(उत्तराखण्डमें गढ़वालकी केदारलपितासे अपने बच्चोंकी रक्षाके लिये चिन्ता प्रकट पर्वतमालासे निकलनेवालो मन्दाग्नि' या कालीगङ्गा' करना । लपिताके ईर्ष्यायुक्त वचन सुनकर मन्दपालका । नामवाली नदी) जिसका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म उससे अपने कथनकी यथार्थता बताना और अपने ९ । ३४ )। (३) यक्षराज कुबेरकी कमल-पुष्पोसे बच्चोंके पास जाना । बच्चोंद्वारा अभिनन्दित न होने- सुशोभित एक बावड़ी, जो गङ्गाजलसे पूर्ण होनेके कारण पर इनका जरितासे ज्येष्ठ आदि पुत्रोंका परिचय पूछना। 'मन्दाकिनी' कहलातो है (अनु० १९३२)। जरिताका उन्हें फटकारना । मन्दपालका स्त्रियोंके सौतिया
मन्दार-हिरण्यकशिपुका ज्येष्ठ पुत्र, जो शिवजीके वरसे एक दादरूपी दोषका वर्णन करके उनकी अविश्वसनीयता अबंद वर्षोंतक इन्द्रसे युद्ध करता रहा । उसके अङ्गीपर बताना । तत्पश्चात् अपने पास आये हुए पुत्रौको इनका भगवान् विष्णुका वह भयंकर चक्र तथा इन्द्रका वज्र भी आश्वासन देना और उनको तथा जरिताको साथ लेकर
पुराने तिनकेके समान जीर्ण-शीर्ण-सा हो गया था (अनु. देशान्तरको प्रस्थान करना ( आदि. २३२ । २ से
१४ । ७१-७५)। आदि. २३३ । ४ तक)।
मन्दोदरी-(१) रावणकी पत्नी (बन० २८१। १६)। मन्दराचल-एक पर्वत, जिसकी ऊँचाई ग्यारह हजार (२) स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य ४६ । योजन थी। वह पृथ्वीके भीतर भी उतनी ही गहराई तक धंसा हुआ था। इसका विशेष वर्णन ( आदि.
मन्मथकर-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५। ७२)। १८ | १-३) । भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे शेषनागके
मन्युमान्-भानु (मनु) नामक अग्निके द्वितीय पुत्र द्वारा समुद्रमन्थनके लिये इसका उत्पाटन ( आदि.
__ (वन० २२१ । ११)। १८।६-८) । समुद्रमन्थनके लिये इसे मथानी बनाया गया था ( आदि. १८ । १३)। समुद्रमन्थनके मय-एक दानव, जिसने कुछ कालनक खाण्डववनमें निवास समय इसके द्वारा जल-जन्तुओं एवं पातालवासी प्राणियोंका किया था। अर्जुनने इसे वहाँ जलनेसे बचाया था; अतः संहार (भादि० १८।१६-२१)। यह कुबेरकी सभामें इसने उनके लिये एक दिव्य सभाभवनका निर्माण किया। उपस्थित हो उनकी उपासना करता है (सभा० १० । जिसे दुर्योधन ले लेना चाहता था (आदि.६।। ४४. ३१)। कैलासके पास मन्दराचलकी स्थिति है, जिसके ४९) । यह खाण्डवदाहके समय तक्षकके निवासस्थानसे ऊपर माणिवर यक्ष और यक्षराज कुबेर निवास करते हैं। निकलकर भागा । श्रीकृष्णने इसे भागते देखा । अग्निवहाँ अहासी हजार गन्धर्व और उनसे चौगुने किन्नर एवं देव मूर्तिमान् होकर गर्जने और इस राक्षसको माँगने यक्ष रहते हैं (वन० १३९ । ५-६)। स्वप्नावस्थामें श्री- लगे। श्रीकृष्णने इसे मारने के लिये चक्र उठाया । तब कृष्णके साथ कैलास जाते हुए अर्जुनने मार्गमें महामन्दराचल- यह अर्जुनकी शरणमें गया और उन्होंने इसे अभय दे पर पदार्पण किया था, जो अप्सराओंसे व्याप्त और किन्नरों- दिया। यह देख न तो श्रीकृष्णने इसे मारा और न से सुशोभित था (द्रोण.८० । ३३)। भगवान् शंकरने अग्निदेवने जलाया ही (आदि० २२७ । ३९-४५)। त्रिपुरदाहके समय मन्दराचलको अपना धनुष एवं रथका यह दानवोंका श्रेष्ठ शिल्पी तथा नमुचिका भाई था धुररा बनाया था (द्रोण. २०२ । ७६; कर्ण. ३४ । (भादि० २२७।४१-४५) । मयासुरका श्रीकृष्ण और २.)। उत्तरदिशाकी यात्रा करते समय अष्टावक्र मुनि अग्निसे अपनी रक्षा हो जानेपर अर्जुनको इस उपकारके इस पर्वतपर गये थे (अनु० १९ । ५४)।
बदलेमें अपनी ओरसे कुछ सेवा अर्पित करनेकी इच्छा
प्रकट करना। अर्जुनका बदलेमें कोई सेवा लेनेसे इनकार मन्दवाहिनी-एक नदी, जिसका जल भारतवासी पोते हैं
करनेपर मयासुरका अपनेको दानवोंका विश्वकर्मा बताना (भीष्म० ९ । ३३)।
और उनके लिये प्रसन्नतापूर्वक किसी वस्तुका निर्माण मन्दाकिनी-(१) गिरिवर चित्रकूट के पास बहनेवाली एक करनेकी इच्छा प्रकट करना (सभा०1। ३-६)।
सर्वपापनाशिनी नदी, जिसमें स्नानपूर्वक देवता-पितरोंकी अर्जुनका मयासुरसे श्रीकृष्णकी इच्छाके अनुसार कोई पूजा करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है (बन० कार्य करनेके लिये कहना और श्रीकृष्णका इसे धर्मराज .८५। ५८-५९)। इसकी गणना भारतकी उन प्रमुख युधिष्ठिरके लिये एक दिव्यसभाभवन का निर्माण करनेके नदियोंमें है, जिनका जल भारतीय प्रजा पीती है (भीष्म. लिये आदेश देना (सभा० १ -१३)। मयासुरका ५। ३६) । चित्रकूटमें मन्दाकिनीके जलमें स्नान करके प्रसन्नतापूर्वक उनकी आज्ञाको शिरोधार्य करना, युधिष्ठिरउपवास करनेसे मनुष्य राजलक्ष्मीसे सेवित होता है (अनु. द्वारा इसका सत्कार, इसका पाण्डवोको दैत्यों के
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मयदर्शनपर्व
( २४७ )
मरुत्त
अद्भुत चरित्र सुनाना और उनके लिये दिव्य पृथ्वीके शासक थे (आदि । । २२७)। ये यमराजकी सभा बनानेके लिये भूमिको नपवाना (समा..।। सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा० १४-२१)। मयासुरका भीमसेन और अर्जुनको गदा ८।१६)। पाँच सम्राटोंमेंसे एक हैं (सभा०१५।१६)।ये एवं शङ्ख लाकर देना और पाण्डवोंके लिये अद्भुन सभा- महाराज अविक्षित्के पुत्र थे। बृहस्पतिजीके साथ स्पर्धा रखनेका निर्माण करना ( सभा० ३ अध्याय) । सभा- के कारण इनके भाई संवर्तने इनका यज्ञ कराया था। साक्षात् का निर्माण करके मयका अर्जुनको उसे दिखाना और भगवान् शङ्करने प्रचुर धनराशिके रूपमें इन्हें हिमालयका एक मायामय ध्वजका निर्माण करके देना (सभा. एक सुवर्णमय शिखर प्रदान किया था। प्रतिदिन यज्ञकार्य४ादा. पाठ, पृष्ठ ६७२)। दक्षिणसमुद्रके निकट सह्य, के अन्तमें इनकी सभा इन्द्र आदि देवता और बृहस्पति मलय और दुर्दुर नामक पर्वतोंके आसपास एक विशाल आदि समस्त प्रजापतिगण सभासद्के रूपमें बैठा करते थे। गुफाके भीतर बने हुए दिव्य भवनमें त्रेतायुगमें मयासुर इनके यज्ञमण्डपकी सारी सामग्रियाँ सोनेकी बनी हुई थीं। निवास करता था। वहीं प्रभावती नामवाली एक तपस्विनी इनके घरमें मरुद्गण रसोई परोसनेका काम किया करते तपस्या करती थी, जिसने हनुमान् आदि वानरोंको नाना थे। विश्वेदेव इनकी राजसभाके सभासद् थे । इन्होंने प्रकारके भोज्य पदार्थ और भाँति-भाँतिके पीने योग्य रस अपनी समस्त प्रजाको नीरोग बना दिया था। इन्होंने दिये थे (वन० २८२ । ४०-४३)। इसके द्वारा देवताओं, ऋषियों और पितरोंको संतुष्ट किया था। त्रिपुरसंज्ञक तीन पुरोंका निर्माण (कर्ण० ३३ । १७)। ब्राह्मणों को शय्या, आसन, सवारी और दुरत्यज स्वर्णराशिमयदर्शनपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
प्रदान की थी। इन्द्र सदा इनका शुभचिन्तन करते थे। २२७ से २३३ तक)।
इन्होंने युवावस्थामें रहकर प्रजा, मन्त्री, धर्मपत्नी, पुत्र
और भाइयोंके साथ एक हजार वर्षांतक राज्यशासन मयुर-एक विख्यात महान् असुर, जो इस भूतलपर विश्व
किया था (द्रोण. ५५ । ३७-४९) । श्रीकृष्णद्वारा नामक राजाके रूपमें उत्पन्न हुआ था (आदि० ६५ ।
नारद-मुंजय-संवादके रूपमें इनके प्रभाव एवं यज्ञका वर्णन ३५-३६)।
(शान्ति० २९ । १९-२४)। इनका दण्डविषयक मरीचि-(१) ब्रह्माजीके मानस पुत्र | कश्यपके पिता विधान (शान्ति० ५७ । ७)। इन्हें महाराज मुचुकुन्द(आदि०६५ । १०-११; आदि. ७५ । १.)।
से खङ्गकी प्राप्ति हुई और इन्होंने रैवतको खड्न प्रदान इनकी उत्पत्तिका वर्णन (अनु. ८५। १०७)। ये
किया (शान्ति. १६६ । ७७)। इनके द्वारा अङ्गिराअर्जुनके जन्ममहोत्सवमें पधारे थे (आदि. १२२१ ५२)।
को कन्यादान और स्वर्गकी प्राप्ति (शान्ति० २३४।२४ ये इन्द्रकी सभामें विराजते हैं (सभा० ७ । १७)।
अनु०१३७१६)। ये करन्धमके पौत्र थे। बृहस्पतिजीसे अपना ब्रह्माजीको सभामें उपस्थित हो उनकी उपासना करते
यश कराने के लिये इनकी प्रार्थना और उनके अस्वीकार हैं (सभा.११।१८)। स्कन्दके जन्मकालमें उनके
करनेपर ललित एवं दुखी होकर इनका लौटना ( आश्व. पास गये थे (शल्य. ४५।१०)। शरशय्यापर पड़े
६।४--१.)। लौटते समय मार्गमें नारदजीसे भेंट और हुए भीष्मके पास ये भी गये थे (शान्ति० ४७ । १०)।
उन्हें अपने शोकका कारण पताना (आश्व० ६ । १५. इन्हें अङ्गिरासे दण्डकी प्राप्ति हुई। इन्होंने उसे भृगुको १६)। नारदजीके बताये अनुसार संवर्तसे इनकी भेंट और दिया था (शान्ति० १२२ । ३.)। ये ब्रह्माजीके
उनके पीछे-पीछे जाना (आश्व० ६ । ३०-३३)। प्रथम पुत्र हैं, इन्हें विष्णुने खड्ग दिया और इन्होंने उसे संवर्तके साथ वार्तालाप और उनका साथ न छोड़नेके लिये अन्य महर्षियोको दिया (शान्ति. १६६।६६)। इनका शपथ खाना (आश्व. ७।३-२३) । शिवजीये इक्कीस प्रजापतियोंमेंसे एक हैं (शान्ति०३३४ । ३५)।
की कृपासे इन्हें धनकी प्राप्ति ( आश्व० ८।३२ के बाद चित्रशिखण्डी' कहे जाननेवाले ऋषियोंमें इनकी भी
दाक्षिणात्य पाठ) । इनका धृतराष्ट्रद्वारा लाये हुए इन्द्रके गणना हे (शान्ति० ३३५।२९)। ये आठ प्रकृतियों
संदेशका उत्तर देना (आश्व० १०।६-७)। इन्द्रके में गिने गये हैं (शान्ति. ३४० । ३४)। अग्निकी
भयसे भीत होना (आश्व०१०।१६)। यश समाप्त मरीचियों ( किरणों) से मरीचिका प्रादुर्भाव हुआ
करके राजधानीको लौटना (आश्व०१०।३५-३५)। ( अनु०८५१०७)। (२) एक स्वगीय अप्सरा (२)एक महर्षि, जिन्होंने शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जिसने अर्जुनके जन्ममहोत्सवमें आकर गान-नृत्य किया था
जाते हुए श्रीकृष्णको मार्गमें परिक्रमा की थी ( उद्योगः (आदि० १२२ । ६१)।
८३ । २७)। ये इन्द्रसभामें विराजमान होते हैं (सभा. मरुत्त-(१) एक सुप्रसिद्ध सम्राट, जो प्राचीनकालमें इस ")।
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( २४८ )
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मरुद्गण-देवताओंका एक गण (शल्य. ४५ । ६)। मलयध्वज (पाण्ड्य)-पाण्ड्य देशके एक राजा, जो मरुद्रणतीर्थ-एक तीर्थ, जहाँ पवित्रभावसे स्नान करनेवाला अश्वत्थामाके साथ युद्ध करके मारे गये थे (कर्ण. २०।
मनुष्य तीर्थरूप हो जाता है (अनु० २५ । ३८)। १९-४७)। मरुभमि (मरुधन्व)-मारवाड़ प्रदेश (वर्तमान राज- मल्लराष्ट-एक प्राचीन गणतन्त्र राज्य; यहाँके अधिपति पार्थिव स्थान प्रान्त), जिसे नकुलने पश्चिम-दिग्विजयके समय को भीमसेनने परास्त किया था (वर्तमान कुशीनारा या जीता था (सभा० ३२।५)। मरुभूमिके शीर्षस्थानमें कुशीनगर (कसया) ही मल्लराष्ट्रकी राजधानी था। काम्यकवन है, जहाँ तृणविन्दु सरोवर है (वन० २५८ । बौद्धग्रन्थोंमें इसका विशेष वर्णन मिलता है ।) (सभा. १३) कौरवोंकी सेनाका पड़ाव मरुभूमिमें भी पड़ा था ३० । ३ भीष्म ९ । ४४) । अर्जुनने अशतवासके (उद्योग० १९ । ३०) । मरुधन्व या मारवाड़में ही लिये जिन देशोंको उपयुक्त समझकर चुना था, उनमें उत्तङ्क मुनिरहते थे, जिनके साथ द्वारका जाते समय श्रीकृष्ण मल्लराष्ट्र की भो गणना है (विराट. १।१३)। की भेट हुई थी । श्रीकृष्णने इन्हें विश्वरूपका दशन कराया मशक-शाकद्वीपका एक जनपद, जिसमें सम्पूर्ण कामथा। उनकी प्यास बुझानेके लिये मरुदेशमै उत्तङ्कमेव नाओंको पूर्ण करनेवाले क्षत्रिय निवास करते हैं (भीष्म. प्रकट होनेका बर प्रदान किया था (आश्व० अध्याय ५३से
११ । ३७-३८)। ५५ तक)।
मसीर-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५३ )। मर्यादा-(१) एक विदर्भराजकुमारी, जो पूवंशी राजा
महत्तर-पाञ्चजन्य नामक अग्निके पाँच पुत्रों में से एक, जो अवाचीनकी पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम 'अरिह' था।
काश्यपके अंशसे उत्पन्न हुए थे (वन० २२० । १)। यह देवातिथिकी पत्नी मर्यादासे भिन्न थी (आदि० ९५ । १८)। (२) विदेहराजकी पुत्री, जो पुरुवंशी महाराज महाकाणे-मगधराज अम्बुबीचका दुष्ट मन्त्री (भादि० २०३। देवातिथिकी पत्नी और अरिहकी माता थी ( आदि.
१९)। ९५। २३)।
महाकर्णी-स्कन्दको अनुचरी एक मातृका (शल्य ०४६।२६)। मलज-एक भारतं य जनपद (भीष्म० ९ । ४५)।
महाकाया-स्कन्दको अनुचरी एक मातृका(शल्य०४६।२४)।
महाकाल-(१) भगवान् शिवके पार्षद, जो कुबेरकी मलद-पूर्व भारतका एक जनपद, जिसे भीमसेनने जीता था
सभामें विराजमान होते हैं (सभा० १०।३४) । (२) (सभा० ३०।८)। इस जनपदके योद्धा कौरवपक्षमें थे और दुर्योधनको आगे करके युद्धक्षेत्रमें चल रहे थे
उज्जयिनी में शिप्राके तटपर स्थित एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ
'महाकाल' नामक ज्योतिर्लिङ्ग स्थित है । वहाँ नियमसे (द्रोण० ७ । १५-१६)।
रहकर नियमित भोजन करना चाहिये । वहाँके कोटितीर्थ में मलय-दक्षिण भारतका एक पर्वत, जो कुबेरकी सभामें
स्नान-आचमन करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है रहकर उनकी उपासना करता है (सभा. १० । ३२)।
(वन० ८२ । ४९)। पाण्ड्य और चोल देशोंके राजा मलय तथा दुर्दुर पर्वतोंसे
महाकाश-शाकद्वीपका एक वर्ष ( भीष्म• 13। २५)। सुवर्णमय घटोंमें रखे हुए च.दनरस एवं चन्दन लेकर युधिष्ठिरको भेंट देने के लिये आये थे (सभा० ५२ । ३३.
महाक्रौञ्च-क्रौञ्चद्वोपका एक पर्वत (भीष्म० १२।७)। ३४)। सीताकी खोजके लिये दक्षिण जानेवाले वानरोंने महागङ्गा-एक तीर्थ, जिसमें स्नान करके एक पक्षतक निरामलयपर्वतको पार किया था (वन० २८२ । १४)। हार रहनेवाला मनुष्य निष्पाप होकर स्वर्गलोकमें जाता है भारतवर्षके सात कुलपर्वतोंमें मलयकी भी गणना है।
न (अनु. २५ । २२)। (भीष्म ९।७)। यहाँ मृत्यूने तपस्या की थी महागौरी-भारतकी एक मुख्य नदी, जिसका जल यहाँके (द्रोण० ५४ । २६) । त्रिपुरदाहके समय शङ्करजीने निवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । ३३)। मलयको अपने रथका यूप बनाया (द्रोण. २०२। महाचूडा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६/५)। ७३)। शुकदेव जीकी ऊर्ध्वगति के समय उनके आकाश- महाजय-नागराज वासुकिद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षमार्गमें एक मलय नामक पर्वत आया था, जहाँ उर्वशी दीमसे एक । दूसरेका नाम 'जय'था (शल्य०४५।५२)।
और विप्रचित्ति-ये दो अप्सराएँ नित्य निवास करती हैं। महाजवा-स्कन्दकी अनुचरी एकमातृका (पल्य.२२)। कैलाससे ऊपर उड़नेपर उन्हें यह पर्वत मिला था, अतः महाजान-एक श्रेष्ठ द्विज, जो प्रमदराके सर्पदंशनके समय इसे दक्षिणके मलयपर्वतसे भिन्न समझना चाहिये (शान्ति. दयासे द्रवित हो उसे देखने के लिये आये थे (मादि.८॥ १९३१)।
२४)। .
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महातेजा
( २४९ )
महाशिरा
महातेजा-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५। ७०)। महाबाहु-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंसे एक (आदि. महादेव-भगवान् शिवका एक नाम (उद्योग १४८ ६७ । ९०)। भीमसेनद्वारा इसका वध (दोण. १५७ । ४)। ( देखिये शिव)
१९)। (२) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमें एक (आदि. महाद्युति-एक प्राचीन नरेश ( आदि० ।। २३२ )।
६७ । १०५)।
महाभय-अधर्मकी स्त्री नितिके गर्भसे उत्पन्न तीन महान्-(१) पूरुवंशी राजा मतिनारके पुत्र (आदि.
नैर्ऋत नामवाले राक्षसोंमेंसे एक । शेष दोके नाम भय ९४ । १४)। (२) प्रजापति भरत नामक अग्निके पुत्र
और मृत्यु हैं (आदि० ६६ । ५४-५५)। पावक, जो अत्यन्त महनीय (पूज्य ) होनेके कारण महान् कहलाते हैं (वन० २१९ । ८)।
महाभिष-इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न एक प्राचीन राजा, जो
सत्यवादी और सत्यपराक्रमी थे ( आदि० ९६।१)। महानदी-(१) उत्कल प्रदेश (उड़ीसा) में बहनेवाली
इन्होंने सहस्र अश्वमेध एवं सौ राजसूय यशोद्वारा इन्द्रको एक प्रसिद्ध नदी, जहाँ अर्जुन गये थे (आदि० २१४ ।
संतुष्ट करके स्वर्गलोक प्राप्त किया था (आदि० ९६ । ७)। महानदीमें स्नान करके जो देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, वह अक्षय लोकोंको प्राप्त होता और अपने
२)। ब्रह्माजीको सभामें बैठे हुए महाभिषको गङ्गाके
अनावृत शरीरकी ओर देखनेके कारण ब्रह्माजीका शाप कुलका उद्धार कर देता है (वन० ८४ । ८४)। (२) शाकद्वीपकी एक नदी (भीष्म । ३२)।
प्राप्त हुआ (आदि० ९६ । ४-७)। इन्होंने मर्त्य
लोकमें राजा प्रतीपको ही अपना पिता बनानेके योग्य चुना महानन्दा-एक तीर्थ, जिसका सेवन करनेवाले पुरुषकी
(आदि. ९६ । ९)। ये ही प्रतीपके यहाँ 'शान्तनु' स्वर्गस्थ नन्दनवनमें अप्सराएँ सेवा करती हैं (अनु०
रूपमें उत्पन्न हुए ( आदि० ९७ । १७ के बाद दा. पाठ २५ । ४५)।
और १९ श्लोकतक)। महापगा-भारतकी एक मुख्य नदी, जिसका जल यहाँके
महाभौम-पूरुवंशी महाराज अरिहके पुत्र । इनके द्वारा निवासी पीते हैं (भीष्म०९।२८)।
सुयशाके गर्भसे अयुतनायीका जन्म हुआ था (आदि. महापा-घटोत्कचके साथी राक्षसकी सवारीमें आया हुआ ९५। १९-२०)। गजराज (भीष्म०६४।५७)। यह एक दिग्गज है
महामती-महर्षि अङ्गिराकी सातवीं पुत्री ( प्रतिपयुक्त (द्रोण० १२१ । २५-२६)।
अमावास्या)(वन० २१८।७)। महापमपुर-गङ्गाके दक्षिण तटपर स्थित एक नगर महामख-जयद्रथकी सेनाका एक योद्धा, जो द्रौपदीहरणके (शान्ति० ३५३।१)।
समय युद्ध में नकुलके द्वारा मारा गया (वन० २७१ । महापारिषदेश्वर-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य०१६-१७)। ४५। ६६)।
महायशा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ । महापार्श्व-कैलासपर्वतपर महादेवजीके पूर्वोत्तर भागमें स्थित २८)। एक पर्वत ( अनु० १९ । २१)।
महारव-एक यदुवंशी क्षत्रिय, जो रैवतक पर्वतपर होनेवाले महापुमान्-मोदाकी वर्षसे आगे एक पर्वत (भीष्म
उत्सवमें सम्मिलित था (आदि० २१८ ।")। ११।२६)।
महारौद्र-घटोत्कचका साथी एक राक्षस, जो दुर्योधनद्वारा महापुर-एक तीर्थ, जहाँ स्नानकर तीन राततक पवित्रता- __मारा गया था (भीष्म० ९१ । २०-२१)।
पूर्वक उपवास करनेसे मनुष्य चराचर प्राणियों तथा महालय-एक तीर्थ, जहाँ छठे समयतक उपवासपूर्वक एक मनुष्योंसे प्राप्त होनेवाले भयको त्याग देता है (अनु०
मासतक निवास करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो सुवर्ण२५ । २६)।
राशि पाता तथा आगे-पीछेकी दस-दस पीढ़ियोंका उद्धार महाप्रस्थानिकपर्व-महाभारतका एक प्रधान पर्व ।
कर देता है (वन० ८४ । ५४-५५)। महाबल-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ७१)। महावीर-एक प्राचीन क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंशक महाबला (प्रथम)-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६६)। (शल्य० ४६ । ९)।
महावेगा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४३।१६)। महाबला (द्वितीय)-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका महाशिरा-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें (शल्य.४६ । २६)।
विराजते थे (सभा०४।१०)। म. ना० ३२--
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महाशोण
( २५० )
महौजा
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महाशोण-शोणभद्र नामक नद, जिसे पार करके श्रीकृष्ण, महिष्मती-महर्षि अङ्गिराकी छठी पुत्री । इसका दूसरा नाम
अर्जुन और भीमसेन मगधर्म पहुँचे थे (सभा० २०। 'अनुमति' भी है (वन० २१८ । ६)। २७)।
मही-एक नदी, जो अग्निकी उत्पत्ति-स्थान बतायी गयी है महाश्रम-एक तीर्थ, जो सब पापोंसे छुड़ानेवाला है । जो वहाँ (वन० २२२ । २३-२६)।
एक समय उपवास करके एक रात निवास करता है, महेन्द्र-एक पर्वत, यहाँ परशुरामजीका निवास था । उसे शुभ लोकोंकी प्राप्ति होती है (वन०८४ । ५३. क्षत्रिय-संहार करके उन्होंने यहाँ तपस्या की थी (आदि. ५४)। यहाँ एक मासतक उपवास करनेपर मनुष्य ६४।४, आदि० १२९ । ५३)। पाण्डुपुत्र अर्जुन उतने ही समयमें सिद्ध हो जाता है (अनु० २५।। यहाँ गये थे (आदि० २१४।१३) । यह कुबेरकी १७-१८)।
सभामें रहकर उनकी उपासना करता है (सभा०१०। महाश्व-एक प्राचीन राजा, जो यमकी सभामें रहकर सूर्य- ३०) । इस पर्वतपर जाकर रामतीर्थमे स्नान करनेसे
पुत्र यमको उपासना करता है ( सभा० ८ । १९)।। अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है (वन० ८५ । १६)। महासेन-स्कन्दका दूसरा नाम ( बन० २२५ । २७
यहाँ पूर्वकालमें ब्रह्माजीने यश किया था । यह पूर्व दिशामें शल्य.४६।६०)। ये ब्रह्माजीकी सभामें रहकर
स्थित है (वन० ८७ । २२-२८)। युधिष्ठिर तीर्थयात्रा उनकी उपासना करते हैं (सभा० ११ ५२)।
करते हुए इस पर्वतपर गये थे (वन० ११४ । ३०)।
चतुर्दशी तिथिको परशुरामजीने महेन्द्रपर्वतपर पधारकर महास्वना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य. ४६ ।
युधिष्ठिर आदिको दर्शन दिया था (वन० ११७। १६)।
भारतवर्षके सात कुलपर्वतोंमेंसे एक महेन्द्र पर्वत है महाहनु-तक्षककुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो जनमेजयके
(भीष्म. ९।११)। सम्पूर्ण पृथ्वी कश्यपजीको देकर सर्पसत्रमें जल मरा था (आदि०५७।१०)।
उनकी आज्ञासे परशुरामजी महेन्द्र पर्वतपर रहने लगे महाहद-एक उत्तम तीर्थ, जिसमें स्नान करनेवाला मानव
(द्रोण. ७० । २२-२३॥ वन. ११७ । १४)। कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और प्रचुर सुवर्णराशि प्राप्त
महेन्द्रा-भारतकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके कर लेता है (वन० ८४ | १४४-१४५)। जो महाह्रदमें
निवासी पीते हैं (भीष्म. ९ । २२)। स्नान करके शुद्धचित्त हो एक मासतक निराहार रहता है, उसे जमदग्निके समान सद्गति प्राप्त होती है (अनु.
महेश्वर-भगवान् शिवका एक नाम ( उद्योग २५ । ४८)।
महोत्थ-एक पश्चिम भारतीय जनपद, जिसके अधिपति राजर्षि महिष या महिषासुर-एक असुर, जिसने देवताओंको
__ आक्रोशको नकुलने जीता था (सभा० ३२ । ६)। परास्त करके रुद्रके रथपर आक्रमण किया था (वन० २३१ । ८५)। स्कन्दद्वारा इसका वध (वन० २३१। महादर-( १ ) कश्यपद्वारा कद्रूक गभर
महोदर-(१) कश्यपद्वारा कद्रूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग ९६ शल्य. ४६।७४)। इसे भगवान् महेश्वरद्वारा
(आदि० ३५ । १६)। (२) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे वर प्राप्त होनेकी चर्चा ( अनु० १४ । २१४)।
एक (आदि०६७ । ९८)। भीमसेनद्वारा इसका वध
(द्रोण. १५७ । १९) । (३) एक प्राचीन ऋषि, महिषक ( माहिषक )-(१) एक दक्षिण भारतीय
जिनकी जाँधमें श्रीरामजीद्वारा मारे गये एक राक्षसका मस्तक जनपद (वर्तमान मैसूर राज्य) (भीष्म ९ । ५९)।
चिपक गया था, जो औशनस तीर्थमें छूटा । इसी कारण माहिषक आदि देशोंके धर्म-आचार-व्यवहार दूषित है
उस तीर्थका नाम 'कपालमोचन' हुआ (शल्य. ३९ । (कर्ण०४४। ४३)। (२) एक जाति, जो पहले
११-२२)। क्षत्रिय थी, किंतु ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टि प्राप्त न होनेसे
महोदर्य-सायं-प्रातः स्मरण करनेयोग्य एक नरेश (अनु. शूद्र हो गयी (अनु. ३३ । २२-२३) । अर्जुनने
१६५ । ५२)। अश्वमेधीय अश्वकी रक्षा करते समय इन सबको जीता
महौजा-(१) एक क्षत्रिय-नरेश, जो पाँचवें कालेयके था ( आश्व० ८३ ।)।
अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि० ६७ । ५२)। इनको महिषदा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. ४६।
पाण्डवोंकी ओरसे रण-निमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया २८)।
था (उद्योग. ४ । २२)। (२) एक क्षत्रियकुल, महिषानना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । जिसमें वरयु' नामक कुलानार राजा उत्पन्न हुआ था २५)।
(उद्योग०७४ । १५)।
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माकन्दी
( २५१ )
माद्री
माकन्दी-राजा द्रुपदका गङ्गातटवर्ती नगर ( आदि. मातरिश्वा-गरुड़की प्रमुख संतानोंसे एक (उद्योग १३७ । ७३)।
१०३ । १४)। मागध-कौरव-पक्षके मगधदेशीय योद्धा (भीष्म० ५१। मातलि-इन्द्रका सारथि । इसका अर्जुनको स्वर्गलोकमें १२)।
चलनेके लिये इन्द्रका संदेश सुनाना ( वन० ४२ । माघ-(बारह महीनों मेंसे एक, जिस मासकी पूर्णिमाको ११-१४)। इसका अर्जुनको इन्द्र के दिव्य स्थपर बिठा'मघा नक्षत्रका योग हो, उसे 'माघ' कहते हैं। यह
कर गन्धमादनपर ले आना और पाण्डवोंको कर्तव्यकी पौषके बाद और फाल्गुनके पहले आता है। ) माघ मास
शिक्षा देना (वन० १६५। १--५)। इन्द्रका रथ लेकर की अमावास्याको प्रयागराजमें तीन करोड़ दस हजार
श्रीरामकी सेवामें उपस्थित होना (वन० २९० । १३. अन्य तीर्थोंका समागम होता है । जो माघके महीने में
१४)। इसका अपनी पुत्री गुणकेशीके निमित्त वर प्रयागमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गमें
खोजनेके लिये निकलना (उद्योग. ९७ । २०-२१)। जाता है (भनु० २५ । ३६-३८)। जो माघ मासमें
मार्गमें नारदजीसे भेंट और उनके साथ पृथ्वीके नीचेके ब्राह्मणको तिल दान करता है, वह कभी नरक नहीं देखता
लोकमें जाकर वर खोजना (उद्योग० अध्याय ९८ से १०३ है ( अनु० ६६ । ८) । जो माघ मासको नियमपूर्वक
तक)। नागकुमार सुमुखके साथ अपनी कन्याको एक समय भोजन करके बिताता है, वह धनवान् कुलमें
ब्याहनेका निश्चय करना (उद्योग० १०३ । २५-२६)। जन्म लेकर अपने कुटुम्बीजोंमें महत्त्वको प्राप्त होता है
आर्यकसे सुमुखको जामाता बनानेकी बात कहकर इन्द्रके (अनु. १०६ । ३१)। माघ मासकी द्वादशी तिथिको
पास चलनेके लिये प्रस्ताव करना ( उद्योग. १०४ । दिन-रात उपवास करके भगवान् माधवकी पूजा करनेसे १८-२१)। सबके वन्दनीय पुरुषके विषयमें इसका उपासकको राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है और वह इन्द्रके समक्ष प्रश्न उपस्थित करना (अनु. ९६ । २२ अपने कुलका उद्धार कर देता है (अनु.१०९। ५)। के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ५७८७)। माघ मासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको भीष्मजीने देह- मातृतीर्थ-कुरक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक प्राचीन तीर्थ, त्यागके लिये भगवान् श्रीकृष्णसे आज्ञा माँगी ( अनु. जिसमें स्नान करनेसे संतति बढ़ती है और वह पुरुष कभी १६७ । २८-४५)।
क्षीण न होनेवाली सम्पत्तिका उपभोग करता है (वन० माठरवन-दक्षिणका एक तीर्थ, जहाँ सूर्यके पार्श्ववर्ती देवता ८३ । ५८) माठरका विजयस्तम्भ सुशोभित होता है ( बन० ८८ ।
माद्रवती-अभिमन्युपुत्र राजा परीक्षित्की धर्मपत्नी तथा १.)।
जनमेजयकी माता ( आदि. ९५ । ८५ ) । पाण्डुकी माणिवर-एक यक्ष, जो मन्दराचलमें निवास करते हैं
द्वितीय पत्नी तथा नकुल-सहदेवकी माता माद्रीको भी (वन० १३९ । ५)
'माद्रवती' कहा जाता था (आश्व० ५२ । ५६)। माण्डव्य-एक प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि, जो धैर्यवान्, सब धर्मोके
माद्री-मद्रदेशके राजाकी पुत्री, मद्रराज शल्यकी बहिन, ज्ञाता, सत्यनिष्ठ और तपस्वी थे (आदि० १०६ । २.३) (विशेष देखिये अणीमाण्डव्य)
पाण्डुकी द्वितीय पत्नी तथा नकुल सहदेवकी माता । ये
'धृति' नामक देवीके अंशसे उत्पन्न हुई थीं ( आदि. माण्डव्याश्रम-तीर्थस्वरूप एक आश्रम, जहाँ काशिराजकी
६७ । १६०)। साध्वी यशस्विनी माद्रीकी प्रशंसा सुनकन्याने कठोर व्रतका आश्रय लेकर स्नान किया था
कर भीष्मका शस्यके यहाँ जाकर पाण्डुके लिये इनका (उद्योग. १८६ । २८-२९)।
वरण करना, शल्यके कुलधर्मके अनुसार कन्याके शुल्कमातङ्ग-एक मुनि, जिनके वचन प्रमाणरूपमें ग्रहण किये रूपमें इन्हें बहुत धन देना, शल्यका अपनी बहिनको जाते हैं। वे वचन ये हैं-वीर पुरुषको चाहिये कि वह
अलंकृत करके भीष्मजीके हाथमें सौंप देना और भीष्मजीसदा उद्योग ही करे । किसीके सामने नतमस्तक न हो; का माद्रीको साथ लेकर हस्तिनापुरमें आना (आदि. क्योंकि उद्योग करना ही पुरुषका कर्तव्य-पुरुषार्थ है।
११२ । १-१७)। शुभ दिन और शुभ मुहूर्तमें पाण्डुवीर पुरुष असमयमै नष्ट भले ही हो जाय, परंतु कभी द्वारा माद्रीका विधिपूर्वक पाणिग्रहण (आदि.१२ शत्रुके सामने सिर न झुकाये (उद्योग. १२७ ।
१८)। माद्रीका अपने पतिके साथ वनमें निवास १९-२०)।
(आदि० ११३।६)। शापग्रस्त होनेपर संन्यास लेनेका मातङ्गी-क्रोधवशाकी क्रोधजनित कन्या । इसने हाथियोंको निश्चय करके पाण्डुका कुन्तीसहित माद्रीको हस्तिनापुरमें जन्म दिया था (आदि. ६६ । ३१, ६६)।
जानेकी आशा देना। इनका पतिके साथ रहकर वानप्रस्थ-धर्मके
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माद्रेयजाङ्गल
( २५२ )
मान्धाता
पालनकी इच्छा प्रकट करना, अन्यथा प्राणत्यागका निश्चय होना ( उद्योग० १२० । २५) । (२) स्कन्दकी बताना (आदि. ११८।१-३०)। पुत्र प्राप्तिके हेतु अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । ७)। मुझपर भी कुन्तीदेवी अनुग्रह करें-इस प्रकार इनकी मानवर्जक-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० १।५०)। पाण्डुसे प्रार्थना (आदि० १२३ । १-६) । अश्विनी-' .
मानवी-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके कुमारोदारा इनके गर्भसे नकुल तथा सहदेवका जन्म
निवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । ३२)। (आदि० १२३ । १६) । पाण्डुके निधनपर इनका विलाप ( आदि. १२४ । १७ के बाद दा० पाठ )।
मानस-(१) वासुकिकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो
जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया ( आदि. ५७ । पाण्डुके साथ सती होनेके लिये अपनेको आज्ञा प्रदानके निमित्त इनकी कुन्तीसे प्रार्थना (आदि. १२४ । २५
५) । (२) धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो २८ दा. पाठसहित)। शतशृङ्गनिवासी ऋषियोद्वारा
सर्पसत्रमें भस्म हो गया ( आदि. ५७ । १६)। इनको आश्वासन तथा सती न होनेके लिये अनुरोध
(३) हिमालयपर स्थित एक प्राचीन सरोवर, जहाँ (आदि० १२४ । २८ के बाद)। अपने अन्तिम समय
उत्तर-दिग्विजयके अवसरपर अर्जुन पधारे थे (सभा०
२८ । ४) । मानससरोवरके आस-पास निवास करनेवाले में इनके द्वारा पाण्डवोंको शिक्षा (आदि. १२४ । २८ के बाद दा. पाठ)। कुन्तीसे आज्ञा लेकर इनका
साधकको युगके अन्तमें पार्षदों तथा पार्वतीसहित
इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले भगवान् शङ्करका प्रत्यक्ष चितारोहण (आदि० १२४ । ३१)। धृतराष्ट्रकी आज्ञासे
दर्शन होता है। इस सरोवरके तटपर चैत्र मासमें कल्याणविदुर आदिद्वारा पाण्डु और माद्रीकी अस्थियोंका राजोचित ढंगसे दाह-संस्कार तथा भाई-बन्धुओदारा इनके लिये
कामी याजक अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा परिवारसहित
पिनाकधारी भगवान् शिवकी आराधना करते हैं। इस जलाञ्जलि-दान (आदि. १२६ अध्याय)। माद्रीका अपने पतिके साथ महेन्द्रभवनमें निवास (स्वर्गा. ४ ।
सरोवर में श्रद्धापूर्वक स्नान और आचमन करके पाप२०, स्वर्गा० ५। १५)।
मुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकोंमें जाता है । इस
सरोवरका दूसरा नाम उजानक है। यहाँ भगवान् स्कन्द माद्रेयजाङ्गल-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ३९)। तथा अरुन्धतीसहित महर्षि वसिष्ठने साधना करके सिद्धि माधव-मौन, ध्यान और योगसे श्रीकृष्णका बोध अथवा
और शान्ति प्राप्त की है ( वन० १३० । १४-१७)। साक्षात्कार होता है, इसलिये उन्हें 'माधव' कहते हैं
यहाँके हंसरूपधारी महर्षि शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजी(उद्योग०७०।४)।
को देखनेके लिये आये थे ( भीष्म० ११९ । ९८
९९)। यह सरोवर एक पवित्र तीर्थ है (शान्ति. माधवी-(१) राजा ययातिकी पुत्री, जो तपस्विनी और
१५२ । १२-१३)। उपश्रुति देवीने शचीको इसी मृगचर्मसमावृत होकर मृगव्रतका पालन कर रही थी।
सरोवरपर कमलनालमें छिपे हुए इन्द्रका दर्शन कराया इसका अष्टक आदि पुत्रोंको ययातिका परिचय देना,
था । देवताओंने वसिष्ठजीकी शरण ले इस सरोवरके तटपर अपने पुण्योंद्वारा स्वर्ग जानेके लिये इसका ययातिको
किसी समय यज्ञ आरम्भ किया था ( अनु० १५५ । आश्वासन (आदि० ९३ । १३ के बाद, पृष्ठ २८२)। ययातिका गालवको अपनी कन्या माधवी सौंपना (उद्योग
मानसद्वार-मानसरोवरके पासका एक पर्वत जो उसका द्वार ११५। १२)। माधवीका गालवसे अपने मनकी बात
माना जाता है। इसके मध्यभागमें परशुरामजीने अपना कहना ( उद्योग० ११६ । १०-१३)। इसके गर्भसे
आश्रम बनाया था (वन० १३० । १२)। अयोध्यानरेश हर्यश्वद्वारा वसुमान् ( वसुमना) की उत्पत्ति (उद्योग० ११६ । १६) । काशिराज दिवोदासके द्वारा
मानुषतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक लोकविख्यात
तीर्थ, जहाँ व्याधोंके बाणोंसे घायल हुए मृग उस सरोवरमें इसके गर्भसे प्रतर्दनका जन्म (उद्योग०११७।१८)। उशीनरके द्वारा शिबि नामक पुत्रकी उत्पत्ति ( उद्योग
गोते लगाकर मानव-शरीर पा गये थे; इसीलिये उसका ११८।२०)। विश्वामित्रके द्वारा इसके गर्भसे अष्टकका
नाम मानुषतीर्थ हुआ । वहाँ ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्र
चित्त हो स्नान करनेवाला मानव पापमुक्त हो स्वर्गजन्म (उद्योग. ११९।१८)। इसके स्वयंवरका वर्णन
लोकमें प्रतिष्ठित होता है (वन० ८३ । ६५-६६)। (उद्योग. १२०१-५)। इसका स्वयंवरमें तपोवनका वरण करके मृगीरूपसे तप करना (उद्योग. मान्धाता-इक्ष्वाकुवंधीय महाराज युवनाश्वके पुत्र (वन. १२.। ५--11)। स्वर्गलोकसे गिरे हुए पिता ययातिके १२ । ४१)। युवनाश्वके पेटसे इनका जन्म (व लिये इसका अपने तपके आधे पुण्यको देनेके लिये उद्यत १२६ । २७-२८)। मान्धाता' नाम पड़नेका कारण
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मारिष
( २५३ )
मार्कण्डेय
(वन० १२६ । ३०-३१) । इनके चरित्रका वर्णन मारुतस्कन्ध-देवताओंका एक व्यूह, जिसकी रक्षाका भार (वन० १२६ । ३५-४४)। ये उन राजाओंमेंसे थे, स्कन्दने लिया था (वन० २३१ । ५५)। जिन्होंने वैष्णव-यज्ञ करके उत्तम लोक प्राप्त कर लिये थे
मारुताशन-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ६२)। (वन०२५७।५-६)। सञ्जयको समझाते हुए नारदजीद्वारा
मारुध-एक राजधानी अथवा राजा जिसे दक्षिण-दिग्विजयइनकी महत्ताका वर्णन (द्रोण० ६२ अध्याय)। श्रीकृष्णद्वारा इनके यज्ञ और प्रभावका वर्णन (शान्ति. २९। के समय सहदेवने जीता था (सभा० ३१ । १४)। ८१-९३)। राजधर्मके विषयमें इन्द्ररूपधारी विष्णुके मार्कण्डेय-(१) एक सुप्रसिद्ध महामुनि, जो युधिष्ठिरकी साथ संवाद (शान्ति. ६४ । १६--३०; शान्ति० ६५ सभामें विराजमान होते थे (सभा० ४ । १५)। ये अध्याय)। अङ्गिरापुत्र उतथ्यका इन्हें राजधर्मके विषयमें ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं (सभा. उपदेश (शान्ति० अध्याय ९० से ११ तक)। इनका ११।२२)। इनके द्वारा पाण्डवोंको धर्मका आदेश अननरेश वसुहोमसे दण्डकी उत्पत्ति आदिका प्रसंग पूछना (वन० २५। ८-१८) । इन्होंने पयोष्णीके तटपर (शान्ति० १२२ । ११-१३)। इन्होंने एक ही दिनमें उसकी महिमा तथा राजा नृगकी महत्ताके विषयमें गाथा सारी पृथ्वी जीत ली थी (शान्ति. १२४।१६)। इनके गायी थी (वन०८८।५-७)। इनके द्वारा कर्मफलद्वारा इन्द्रका अतिक्रमण (शान्ति. ३५५ । ३)। बृह- भोगका विवेचन (वन० १८३ । ६१-१५)। इनका स्पतिजीसे गोदानके विषयमें प्रश्न करना (अनु. ७६।। युधिष्ठिरके प्रश्नोंके अनुसार महर्षियों तथा राजर्षियोंके जीवन४)। ये सदा लाखों गोदान करते थे ( अनु० ८१। सम्बन्धी विविध उपदेशपूर्ण कथाएँ सुनाना (वन० ५-६) । इनके द्वारा मांस-भक्षण-निषेध (अनु० ११५ । अध्याय १८६ से २३२ तक) । मार्कण्डेयजीन हजार६१)।
हजार युगोंके अन्तमें होनेवाले अनेक महाप्रलयोंके दृश्य मारिष-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६०)।
देखे हैं। संसारमें इनके समान बड़ी आयुवाला दूसरा
कोई पुरुष नहीं है। महात्मा ब्रह्माजीको छोड़कर दूसरा मारिषा-(१)दस प्रचेताओंकी पत्नी, प्राचेतस दक्षकी
कोई इनके समान दीर्घायु नहीं है । जब यह संसार देवता, माता (आदि.७५। ५)। (२) भारतवर्षकी एक
दानव तथा अन्तरिक्ष आदिसे शून्य हो जाता है, उस प्रलयनदी, जिसका जल यहाँके निवासी पीते हैं (भीष्म०९।
कालमें केवल ये ही ब्रह्माजीके पास रहकर उनकी उपासना
करते हैं। प्रलयकाल व्यतीत होनेपर ब्रह्माजीके द्वारा रची मारीच-एक राक्षस (जो ताटका राक्षसीका पुत्र और गयी जीव-सृष्टिको सबसे पहले ये ही अच्छी तरह देख पाते
सुबाहका भाई था)। विश्वामित्रके यज्ञमें विघ्न डालनेके हैं। इन्होंने तत्परतापूर्वक चित्तवृत्तियोंका निरोध करके सर्वकारण इसका भाई सुबाहु श्रीरामके हाथों मारा गया और लोकपितामह साक्षात् लोकगुरु ब्रह्माजीकी आराधना की है मारीचको भी गहरी चोट खानी पड़ी (सभा० ३८ । २९ और घोर तपस्याद्वारा मरीचि आदि प्रजापतियोंको भी जीत के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७९४) । यह कपट-मृग
लिया है। ये भगवान् नारायणके समीप रहनेवाले भक्तोंमें बनकर सीताजीका हरण करानेमें कारण हुआ (वन.
सबसे श्रेष्ठ हैं । परनोकमें इनकी महिमाका सर्वत्र गान होता १४७ । ३४ ) । इसका रावणको समझाना (वन० २७८ । है। इन्होंने सर्वव्यापक परब्रह्मकी उपलब्धिके स्थानभूत ६-७)। रावणकी सहायता करना स्वीकार करके अपना
हृदयकमलकी कर्णिकाका यौगिक कलासे अलौकिक उदघाटनश्राद्ध-तर्पण करनेके पश्चात् मृगरूप धारण करके इसका
कर वैराग्य और अभ्याससे प्राप्त हुई दिव्य दृष्टिद्वारा विश्वसीताको लुभाना ( वन० २७८ । १०)। श्रीरामके रचयिता भगवान्का अनेक बार साक्षात्कार किया है । इसअमोघ बाणसे इसकी मृत्यु, मरते समय इसका रामके
लिये सबको मारनेवाली मृत्यु तथा शरीरको जर्जर बना देनेसमान स्वरमें आर्तनाद करके प्राण त्यागना (वन० २७८ ।
वाली जरा इनका स्पर्श नहीं करती (वन. १८८।२११-२३)।
११)। इनके द्वारा बालमुकुन्दका दर्शन (वन० १४८ ।
९२)। इनका बालमुकुन्दके उदरमें प्रवेश और उसमें मारुत-एक दक्षिण भारतीय जनपद, धृष्टद्युम्नद्वारा निर्मित
ब्रह्माण्ड-दर्शन (वन.१८८।१००-१२५)। उदरसे क्रौञ्चारुणब्यूहके दाहिने पक्षका आश्रय लेकर यहाँके
बाहर निकलनेपर बालमुकुन्दके साथ इनका वार्तालाप योद्धा खड़े थे (भीष्म० ५० ५.)।
(वन. १८८ । १३० से १८९ । ४९ तक)। इनके मारुतन्तव्य-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु० द्वारा श्रीकृष्णकी महिमाका प्रतिपादन (वन. १८९ । ४। ५४)।
५३-५७)। इनके द्वारा कलियुगके समयके बर्तावका
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मार्कण्डेयसमास्यापर्व
( २५४ )
मालिनी
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वर्णन (वन० १९० । ७--१२) । कल्कि अवतारका मार्तिकावत-एक देश, जहाँका राजा शाल्व था वर्णन (वन० १९० । ९३-९७)। इनका युधिष्ठिरको (वन०१४ । १६ वन० २०। १५)। परशुरामजीने धर्मोपदेश (वन० १९४ । २३-३०)। इनके द्वारा इस देशके क्षत्रियोंका संहार किया था (द्रोण...। युधिष्ठिरको विविध धार्मिक विषयोंका उपदेश (वन० २०. १२)। अर्जुनने कृतवर्माके पुत्रको मार्तिकावत नगरका अध्याय)। स्कन्दके नामोंका वर्णन तथा स्तवन (वन राजा बनाया था ( मौसल० ० । ६९)। २३२ अध्याय) । इनका युधिष्ठिर आदिको श्रीरामका
आरामका मार्दमर्षि-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु.४। उपाख्यान तथा सती सावित्रीका चरित्र सुनाना (वन. अध्याय २७३ से २९९ तक)। इन्होंने धृतराष्ट्रको त्रिपुरवधकी कथा सुनायी थी (कर्ण० ३३ । २) । शरशय्या
माल-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ३९)। पर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये अन्य ऋषियोंके साथ मालतिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६।४)। ये भी गये थे (शान्ति०४७।११) । इन्हें नाचिकेतसे मालय-रुड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग० १०१। शिवसहस्रनामका उपदेश मिला और इन्होंने उपमन्युको १४)। इसका उपदेश दिया ( अनु० १७ । ७९)। इनका
मालव-(१) पश्चिम भारतका एक जनपद, जिसे नकुलने नारदजीसे नाना प्रकारके प्रश्न करना (अनु. २२ ।
पराजित किया था ( सभा० ३२ । ७)। यहाँके राजा दाक्षिणात्य पाठ)। प्रयाणकालके समय भीष्मजीके पास
तथा निवासी युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें पधारे थे (सभा० गये हुए ऋषियोंमें ये भी थे (अनु. २६ । ६)।
३४ । ११)। मालवदेशके शस्त्रधारी क्षत्रियराजकुमारोंने इन्होंने मांस-भक्षणके दोष बताये हैं ( अनु० ११५ । ३७
अजातशत्रु युधिष्ठिरको बहुत धन भेंट किया था (सभा० ३९) । इनकी धर्मपत्नीका नाम धूमोर्णा था (अनु.
५२ । १५)। कर्णने इस देशपर विजय पायी थी १४६ । ४)। युधिष्ठिरने महाप्रस्थानसे पूर्व अन्य ऋषियों
(वन० २५४ । २०)। यह भारतवर्षका एक प्रमुख के साथ मार्कण्डेयजीका भी भगवबुद्धिसे पूजन किया था
जनपद है (भीष्म० ९ । ६०, ६२)। मालवगणोंने ( महाप्रस्थान० । । १२)।
भीष्मकी आज्ञाके अनुसार किरीटधारी अर्जुनका सामना महाभारतमें आये हुए मार्कण्डेयजीके नाम-भार्गव
किया था (भीष्म० ५९ । ७६)। भगवान् श्रीकृष्णने भार्गवसत्तम भृगुकुलशार्दूल भृगुनन्दन, ब्रह्मर्षि विप्रर्षि आदि। इस देशके योद्धाओंको जीता था (द्रोण १७)।
(२) एक प्रसिद्ध तीर्थ, जो गङ्गा और गोमतीके अर्जुनने मालवयोद्धाओंको अपने बाणोंद्वारा गहरी चोट संगमपर है ( यह स्थान वाराणसीसे लगभग सोलह मील पहुँचायी थी (द्रोण० १९ । १६)। परशुरामजीने मालव उत्तर है। ) इसमें जाकर मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल देशके क्षत्रियोंका अपने तीखे बाणोंद्वारा संहार किया था पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है (वन० ८४ । (द्रोण०७०।११-१३) । राजा युधिष्ठिरने युद्धमें ८०.८१)।
क्रुद्ध हो मालवसैनिकोंको यमलोक भेज दिया (द्रोण. मार्कण्डेयसमास्यापर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व १५७ । २८)। (२) राजा अश्वपतिद्वारा मालवीके (अध्याय १८२ से २३२ तक)।
गर्भसे उत्पन्न एक क्षत्रिय जाति ( वन० २९७ ।
५९-६०)। मार्गणप्रिया-कश्यपकी प्राधा नामवाली पत्नीसे उत्पन्न हुई पुत्री (आदि० ६५ । ४५)।
मालवा-एक नदी, जो नित्य स्मरणीय है (अनु० १६५ ।
२५)। मार्गशीर्ष-( बारह महीनोंमेंसे एक, जिस मासकी पूर्णिमा
मालवी-मद्रनरेश महाराज अश्वपतिकी बड़ी रानी और तिथिको मृगशिरा नक्षत्रका योग हो, उसे मार्गशीर्ष कहते
सावित्रीकी माता: जिनके गर्भसे सौ मालव' संज्ञक पुत्रोंके हैं । यह कार्तिकके बाद और पौषके पहले आता है।) जो
उत्पन्न होनेका वरदान प्राप्त हुआ था (वन० २९७ । मार्गशीर्षमासमें एक समय भोजन करके बिताता है और
५९-६०)। मद्रपतिकी रानी मालवीसे सावित्रीके सौ अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह रोग और पापोंसे मुक्त हो जाता है (अनु० १०६ । १७.
बलवान् भाई उत्पन्न हुए (वन. २९९ । १३)। १८)। मार्गशीर्ष मासमें द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास मालिनी-(१) कण्व मुनिके आश्रमके समीप बहनेवाली करके भगवान् केशवकी पूजा-अर्चा करनेसे मनुष्य अश्वमेध एक नदी (किसी-किसीके मतमें सहारनपुर जिलेकी यज्ञका फल पा लेता है और उसका सारा पाप नष्ट हो जाता चूका नदी ही प्राचीन मालिनी है, कुछ विद्वान् हिमालयहै (अनु. १०९।३)।
पर इसकी स्थिति मानते हैं), इसके दोनों तटोंपर कण्व
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माल्यपिण्डक
( २५५ )
माहेश्वरपुर
मुनिका आश्रम फैला हुआ था और यह बीचमें बहती थी मासव्रतोपवास-फल-जो आश्विन मासको एक समय (आदि०७०।२१) । इसीके तटपर शकुन्तलाका भोजन करके बिताता है, वह पवित्र, नाना प्रकारके जन्म हुआ था (आदि०७२।१०)। (२) शिशु- वाहनोंसे सम्पन्न तथा अनेक पुत्रोंसे युक्त होता है की माता, सप्त शिशुमातृकाओंमेंसे एक (वन० २२८ । (अनु० १०६ । २९)। आश्विन मासकी द्वादशी तिथि१०)। (३) एक राक्षस-कन्या, जो कुबेरकी आशासे को दिन-रात उपवास करके पद्मनाभ नामसे भगवान्की महर्षि विश्रवाकी परिचर्या में तत्पर रहती थी। विश्रवाने पूजा करनेवाला पुरुष सहस्र गोदानका पुण्यफल पाता है इसके गर्भसे विभीषण नामक पुत्रको जन्म दिया था (अनु. १०९।१३)। जो मनुष्य कार्तिक मासमें एक (वन० २७५ । ३-८)। (४) अङ्गदेशकी एक समय भोजन करता है, वह शूरवीर, अनेक भार्याओंसे समृद्धिशालिनी नगरी, जो जरासंधद्वारा कर्णको दी गयी संयुक्त और कीर्तिमान होता है (अनु. १०६ । ३०)। थी (शान्ति ५।६)।
कार्तिक मासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके माल्यपिण्डक-एक कश्यपवंशी नाग (उद्योग. १०३ । भगवान् दामोदरकी पूजा करनेसे स्त्री हो या पुरुष, गो
यज्ञका फल पाता है (अनु० १०९ । १४)। जो माल्यवान-(१) एक पर्वत, जो इलावृतवर्षमें मेरु और नियमपूर्वक रहकर चैत्र मासको एक समय भोजन करके मन्दराचलके बीच शैलोदा नदीके दोनों तटोंके निवासियों- बिताता है, वह सुवर्ण, मणि और मोतियोंसे सम्पन्न महान् को जीतकर आगे बढ़नेपर अर्जुनको मिला था (सभा० कुलमें जन्म पाता है (अनु. १०६ । २३)। जो चैत्र २८ । ६ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७४०)। नीलगिरिके मासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके विष्णु दक्षिण और निषधके उत्तर सुदर्शन नामक एक जामुनका नामसे भगवान्की पूजा करता है, वह मनुष्य पुण्डरीकवृक्ष है । जिसके कारण समूचे द्वीपको जम्बूद्वीप कहा जाता यज्ञका फल पाता और देवलोकमें जाता है (अनु०१०९। है, वहीं माल्यवान् पर्वत है । जम्बूफलके रससे जम्बू नदी ७)। जो ज्येष्ठ मासमें एक ही समय भोजन करता है। बहती है । वह माल्यवान्के शिखरपर पूर्वकी ओर प्रवाहित वह अनुपम श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्राप्त करता है ( अनु० १०६ । होती है । माल्यवान् पर्वतपर संवर्तक और कालाग्नि नामक २५) । जो मानव ज्येष्ठ मासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात अग्निदेव सदा प्रज्वलित रहते हैं। इस पर्वतका विस्तार उपवास करके भगवान् त्रिविक्रमकी पूजा करता है, वह पाँच-छः हजार योजन है। वहाँ सुवर्णके समान कान्तिमान गोमेधयज्ञका फल पाता और अप्सराओंके साथ आनन्द मानव उत्पन्न होते हैं (भीष्म०७। २७-२९)। भोगता है (अनु० १०९ । ९)। (शेष महीनोंके फल (२) हिमाचल प्रदेशका एक पर्वत, आर्टिषेणके उन उनके नामके प्रकरणमें देखें।) आश्रमसे गन्धमादनकी ओर आगे बढ़नेसे मार्गमें पाण्डवों- माठिक-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९। ४६)। को माल्यवान् पर्वत मिला था, जहाँसे गन्धमादन दिखायी
माहिष्मती-एक प्राचीन नगरी, जो राजा नीलकी राजधानी देता था (वन० १५८ । ३६-३७)। (३) किष्किन्धा
थी। दक्षिण-दिग्विजयके समय सहदेवने इस नगरीपर क्षेत्रके अन्तर्गत एक पर्वत, जिसके समीप सुग्रीव और
आक्रमण करके राजा नीलको परास्त किया और उनपर वालीका युद्ध हुआ था (वन० २८०।२६)। ( यह
कर लगाया (सभा०३१ ।२५-६०)। यह नगरी तुङ्गभद्राके तटपर स्थित है। ) इसके सुन्दर शिखरपर
इक्ष्वाकुके दसवे पुत्र दशाश्वकी भी राजधानी रह चुकी है श्रीरामचन्द्रजीने वर्षाके चार मासतक निवास किया
(अनु.२।६) माहिष्मती नगरीमें सहस्र भुजधारी (वन० २८०।४.)।
परम कान्तिमान् कार्तवीर्य अर्जुन नामवाला एक हैहयवंशी मावेल्ल-सम्राट् उपरिचर वसुके चतुर्थ पुत्र ( आदि० ६३ ।
राजा समस्त भूमण्डलका शासन करता था (अनु० ३०-३१) । महाबली मावेल्ल युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें
१५२ । ३)। पधारे थे (सभा० ३४ । १३-१४)। मावेल्लक-एक जनपद, जहाँके योदाओंको साथ लेकर माहेय-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४९)। त्रिगर्तराज सुशर्मा अर्जुनसे लड़नेके लिये चला था माहेश्वरपद-यह सोमपद नामक तीर्थका एक अवान्तर (द्रोण० १७ । २०)। अर्जुनद्वारा मावेल्लक योद्धाओं- तीर्थ है । इसमें स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त का संहार (द्रोण० १९ । १६-१६) । द्रोणाचार्यको होता है (वन० ८४ । ११९)। आगे करके मावेल्लकोंका अर्जुनपर आक्रमण (द्रोण. माहेश्वरपुर-एक तीर्थ, जिसमें जाकर भगवान् शङ्करकी ९१ । ३५-४४)। अर्जुनद्वारा इनके मारे जानेकी पूजा और उपवास करनेसे मानव सम्पूर्ण मनोवाञ्छित चर्चा (कर्ण०५।४८-४९)।
कामनाओंको प्राप्त कर लेता है (वन० ८४ । १२९)।
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माहेश्वरीधारा
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( २५६ )
माहेश्वरीधारा-एक तीर्थ, इसकी यात्रा करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है और कुलका उद्धार हो जाता है ( वन० ८४ । ११७ )।
मित्र - बारह आदित्यों में से एक। इनकी माताका नाम अदिति और पिताका कश्यप था ( आदि० ६५ । १५ ) । ये अन्य आदित्योंके साथ पाण्डुनन्दन अर्जुनके जन्म - कालमें उनका महत्व बढ़ाते हुए आकाशमें खड़े थे ( आदि० १२२ । ६६-६७ ) । खाण्डववन- दाहके समय इन्द्रकी ओरसे श्रीकृष्ण और अर्जुनपर आक्रमण करनेके लिये ये भी पधारे थे और जिसके किनारोंपर छुरे लगे हुए थे, ऐसा चक्र लेकर खड़े थे ( आदि० २२६ । ३६ ) । मित्र देवता देवराज इन्द्रकी समामें विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । २१ ) । इन्होंने स्कन्दको सुव्रत और सत्यसंघ नामक दो पार्षद प्रदान किये ( शल्य० ४५ । ४१-४२ ) । मित्र - पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देवविनायकों
मेंसे एक ( वन० २२० | १२ ) ।
मित्रदेव - त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई, जो अर्जुनद्वारा मारा गया ( कर्ण० २७ । ३ --२५)।
मित्रधर्मा - पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देव
विनायकोंमेंसे एक ( वन० २२० । १२ ) । मित्रवर्धन - पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देव -
विनायकोंमेंसे एक ( वन० २२० । १२ ) । मित्रवर्मा - त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई, जो अर्जुनद्वारा मारा गया ( कर्ण० २७ । ३–२३)।
1
मित्रवान् पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र । पाँच देवविनायकों से एक ( वन० २२० | १२ ) । मित्रविन्द - एक देवता; रथन्तर नामक अग्निको दी हुई हवि इनका ही भाग है ( वन० २२० | १९ ) । मित्रविन्दा - ( अवन्ती- नरेशकी पुत्री तथा विन्द-अनुविन्द की बहिन ) भगवान् श्रीकृष्णकी आठ पटरानियोंमेंसे एक । द्वारकामें इनका महल वैदूर्यमणिके समान कान्तिमान् एवं हरे रंगका था । उसे देखकर यही अनुभव होता था कि ये साक्षात् श्रीहरि ही सुशोभित होते हैं। उस प्रासाद की देवगण भी सराहना करते थे । श्रीकृष्णमद्दिषी मित्र विन्दा - का वह महल अन्य सब महलों का आभूषण-सा जान पड़ता था ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१५ ) । मित्रसह - ( देखिये कल्माषपाद ) । मित्रा - उमादेवीकी अनुगामिनी सखी (वन० २३१ । ४८) । मित्रावरुण - सदा साथ रहनेवाले मित्र और वरुण देवता ( शस्य० ५४ । १४ ) | ( महर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ ये दोनों मित्रावरुणके पुत्र हैं । )
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मिश्रकेशी
मिथिला - पूर्वोत्तर भारतका एक प्राचीन जनपद, जहाँ विदेहवंशी क्षत्रियोंका राज्य था। राजा पाण्डुने इस देशपर आक्रमण करके यहाँके क्षत्रिय वीरोंको परास्त किया था ( आदि० ११२ । २८ ) । ( आधुनिक तिरहुतका ही प्राचीन नाम मिथिला एवं विदेह है। मिथिला शब्द उस जनपद की राजधानी के लिये भी प्रयुक्त हुआ है; वेदोंके ब्राह्मण-ग्रन्थों और उपनिषदों में भी मिथिला एवं विदेहका सादर उल्लेख हुआ है। ) श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन -- इन्द्रप्रस्थसे मगधको जाते समय मिथिलामें भी गये थे ( सभा० २० | २८ ) । मिथिलामें ही सुविख्यात, माता-पिता के भक्त धर्मव्याध रहते थे; जिनके पास कौशिक ब्राह्मणको कर्तव्यकी शिक्षा लेनेके लिये एक सतीने भेजा था ( वन० २०६ । ४४ से वन० २१६ । ३२ तक ) । कर्णने दिग्विजय के समय मिथिलाको जीता था वन० २५४ । ८ ) । जगजननी सीता मिथिला या विदेह देशके राजा जनककी पुत्री थीं। उन्हें विधाताने भगवान् श्रीरामकी प्यारी पत्नी होनेके लिये रचा था ( वन० २७४ । (९) । मिथिलाकी कन्या होनेके कारण ही यशस्विनी सीता 'मैथिली' कहलाती थीं ( वन० २७७ । २ ) । प्राचीन कालमें मिथिलापुरीके एक राजा धर्मध्वज नामसे प्रसिद्ध थे । उनके ब्रह्मज्ञानकी चर्चा सुनकर संन्यासिनी सुलभाके मनमें उनके दर्शनकी इच्छा हुई। उसने प्रचुर जनसमुदायसे भरी हुई रमणीय मिथिलामें पहुँचकर भिक्षा लेने के बहाने मिथिला नरेशका दर्शन किया था शान्ति० ३२० । ४—१२ ) । पिताकी आशा से शुकदेवजी मिथिला के राजा जनकसे धर्मकी निष्ठा और मोक्षका परम आश्रय पूछने के लिये मिथिलापुरीको गये थे ( शान्ति ० ३२५ । ६-७ ) । मिञ्जिकामिञ्जिक- शिवजीके वीर्यसे उत्पन्न एक जोड़ा ( बन० २३१ । १० ) । मिश्रक - ( १ ) का एक दल ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ८०३) । (२) द्वारकापुरीकी शोभा बढ़ानेवाला एक दिव्य वन ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१२, कालम २) । ( ३ ) कुरुक्षेत्रकी सीमा अन्तर्गत स्थित एक उत्तम तीर्थ, जिसमें किया हुआ स्नान सभी तीर्थों में किये गये स्नान के समान फल देनेवाला है ( वन० ८३ । ९१-९२ ) । मिश्रकेशी - एक अप्सरा, जो कश्यपकी प्राधा नामवाली पत्नी से उत्पन्न हुई थी ( आदि० ६५ । ४९ ) । इसके गर्भ से पूरुपुत्र रौद्राश्वके द्वारा अन्वग्भानु आदि दस महाधनुर्धरों की उत्पत्ति हुई थी ( आदि० ९४ । ८ इसने अर्जुनके स्वागतमें नृत्य किया था ( वन० ४३ । २९)।
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मिश्री
( २५७ )
मुद्गल (मौद्गल्य)
मिश्री-एक नाग, जो बलरामजीके परमधामगमनके समय मुञ्जकेश-एक क्षत्रिय गजा, जो निचन्द्र नामक असुरके
उनके स्वागतार्थ प्रभासक्षेत्रमें आया था ( मौसल. ४।। अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि. ६७ । २५-२६)। १५-१६)।
पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रण-निमन्त्रण भेजनेका निश्चय मुकुट-एक क्षत्रिय वंश, जिसमें विगाहन' नामक कुलाङ्गार किया गया था ( उद्योग० ४ । १४)। नरेश हुआ था (उद्योग. ७४ । १६)।
मुअपृष्ठ-हिमालयके शिखरपर एक रुद्रसेवित स्थान मुकुटा-स्कन्दकी अनुचरी एकमातृका (शल्य.४६।२३)। (शान्ति. १२२ । ४)। मुखकर्णी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६। मुञ्जवट-(१) कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक स्थाणुतीर्थ, २९)।
जहाँ एक रात रहनेसे मानव गणपति-पद प्राप्त करता है मखमण्डिका-शिशुग्रहस्वरूपा दितिका नाम ( वन (वन० ८३ | २२)। (२) गङ्गातटवर्ती महादेवजी२३० । ३.)।
का एक परम उत्तम तीर्थ, जहाँ महादेवजीको प्रणाम मुखर-एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ । १६)।
करके उनकी परिक्रमा करनेसे गणपति-पदकी प्राप्ति होती
है। वहाँ गङ्गाजीमें स्नान करनेसे समस्त पापोंसे छुटकारा मुखसेचक-धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था (आदि० ५७ । १६)।
मिल जाता है (वन० ८५ । ६७-६८)।
- मावान-हिमालयके पृष्ठभागमें स्थित एक पर्वत, जहाँ मचुकुन्द-एक प्राचीन राजर्षि, जो यमकी सभामें रहकर मुजवान्-हमालय सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा० ८।२१)।
उमावलभ भगवान् शङ्कर सदा तपस्या किया करते हैं ।
इसका विशेष वर्णन (आश्व०८।१-१२)। पूर्वकालमें धनाध्यक्ष कुबेर राजर्षि मुचुकुन्दपर प्रसन्न । होकर उन्हें सारी पृथ्वी दे रहे थे; परंतु इन्होंने उसे ग्रहण मुजावट-हिमालयके शिखरका एक स्थान, जहाँ परशुरामनहीं किया। वे बोले--मेरी इच्छा है कि मैं अपने बाह- जीने ऋषियोको अपनी जटा बाधनका आदेश दिया था बलसे उपार्जित राज्यका उपभोग करूँ।' इससे कुबेर बड़े (शान्ति० १२२ । ३)। प्रसन्न और विस्मित हुए । तदनन्तर क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर मुण्ड-कौरवदलके मुण्डदेशीय योद्धा ( भीष्म० ५६ । रहनेवाले मुचुकुन्दने अपने बाहुबलसे प्राप्त की हुई इस ९)। पृथ्वीका न्यायपूर्वक शासन किया (उद्योग. १३२ । ९- मुण्डवेदाङ्ग-धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो ११)। एक बार मुचुकुन्दने अपने बलको जाननेके जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया ( आदि. ५७ । लिये अलकापति कुबेरपर आक्रमण किया । कुबेरके भेजे १७)। हुए राक्षसोंने इनकी सेनाको कुचलना आरम्भ किया । मुण्डी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ । १७)। तब इन्होंने पुरोहितका ध्यान आकृष्ट किया । वसिष्ठजीने
मुदावर्त-हैहयवंशमें उत्पन्न एक कुलाङ्गार राजा ( उद्योग. तपोबलसे राक्षसोंका संहार कर डाला। इसपर कुबेरके
७४ | १३)। साथ इनका वाद-विवाद हुआ । कुबेरने इन्हें राज्य देना
। चाहा, पर इन्होंने नहीं लिया। अपने बाहबलसे उपार्जित मुदिता-सह नामक अग्निकी भार्या (वन.२२२। राज्यका ही उपभोग किया (शान्ति०७४ । ४- मुद्गर-तक्षककुलमें उत्पन्न हुआ एक नाग, जो जनमेजयके २०)। परशुरामजीसे शरणागत-रक्षाके विषयमें इनका सर्पसत्रमै दग्ध हो गया (आदि० ५७ । १०)।
न्ति. १४३ । ७)। राजा काम्बोजसे इन्हें मुद्रपर्णक-एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग. १०३ । खगकी प्राप्ति हुई और इन्होंने मरुत्तको दिया (शान्ति०१३)। १६६ । ७.) । गोदान-महिमाके विषयमें इनका नाम- मुद्रपिण्डक-कश्यपद्वारा कद्रूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग निर्देश (अनु० ७६ । २५)। इनके द्वारा मांस-भक्षण- (आदि.३५।१)। निषेध (अनु. ११५। ६१) । सायं-प्रातःस्मरणीय
मुद्गल (मौद्गल्य )-(१) वेद-विद्याके पारङ्गत एक
मद राजाओंमें भी इनका नाम आया है (अनु० १६५ ।
ब्राह्मण मुनि, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें सदस्य बनाये ५४-६०)।
गये थे (आदि. ५३ । ९)। ये कुरुक्षेत्रमें शिलोचमुख-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरका विशेष आदर , वृत्तिसे जीवन-निर्वाह करते थे (वन० २६० ।।)। करते थे (वन २६ । २१)।
इनके द्वारा दुर्वासाका स्वागत ( बन. २६०।१४मुअकेतु-एक नरेश, जो युधिष्ठिरकी सभामें बैठते थे २२)। इनका देवदूतोंसे संवाद तथा स्वर्गमें जानेसे (समा० ४।२१)।
इनकार करना (वन० २६० । ३२ से वन० २६१। म. ना. ३३--
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मुनि
४४ तक)। इनका दूसरा नाम मौद्गल्य भी था ( वन ० २६१ । २४ ) । ये मौद्गल्य मुनि शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखने गये थे ( शान्ति० ४७ । ९ ) । इन्हें शतद्युम्नसे सुवर्णमय भवनकी प्राप्ति ( शान्ति० २३४ । ३२; अनु० १३७ । २१ )। (२) एक देश, जिसे भगवान् श्रीकृष्णने जीता था ( द्रोण० ११ । १६१८)।
( २५८ )
मुनि - (१) दक्ष प्रजापतिकी कन्या एवं कश्यपकी पत्नी ( आदि० ६५ । १२ ) । इनके देवगन्धर्व जातिवाले भीमसेन आदि सोलह पुत्र थे ( आदि० ६५ । ४२— ४४) । ( २ ) अहर ( अहः ) नामक वसुके एक पुत्र ( आदि० ६६ | २३) । ( ३ ) पूरुवंशी महाराज कुरुके द्वारा वाहिनी के गर्भ से उत्पन्न पाँच पुत्रोंमेंसे एक । शेष चार अश्ववान्, अभिष्यन्तः चैत्ररथ और जनमेजय थे । ( आदि० ९४ । ५० ) ।
निदेश - कौञ्चपवर्ती अन्धकारक के बादका एक देश ( भीष्म० १२ । २२ ) ।
मुनिवीर्य - एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१ )। मुमुचु- दक्षिण दिशाका आश्रय लेकर रहनेवाले एक ऋषि ( अनु० १६५ । ३९ ) ।
मुर (मुरु ) - ( १ ) एक प्राचीन देश, जिसपर राजा भगदत्तका शासन था ( सभा० १४ । १४ १४ ) । ( २ ) एक महान् असुर, जो प्राग्ज्योतिषपुरके राजा भौमासुरके राज्य की सीमाका पालन करनेवाले चार प्रधान असुरोंमेंसे एक था । इसके एक हजार पुत्र थे; जिनमें दस पुत्र भौमासुरके अन्तःपुरके रक्षक थे । इस असुरने तपस्या करके इच्छानुसार वरदान प्राप्त किया था ।
इसने भौमासुरके राज्यकी सीमापर छः हजार पाश लगा रखे थे, जो मौरवपाशके नामसे विख्यात थे । उनके किनारे के भागों में छुरे लगे हुए थे । भगवान् श्रीकृष्ण ने उन पाशोंको सुदर्शनचक्रद्वारा काटकर मुरुको उसके वंशजोंसहित मार डाला ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ८०५-८०७ ) ।
मुर्मुरा- एक नदी, जो अग्निकी उत्पत्तिका स्थान बतायी गयी है ( वन० २२२ । २५ ) ।
मुष्टिक - एक असुर, जो कंसका भृत्य था । बलरामजी - द्वारा इसका वध ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ८०१ ) ।
एक
मुसल - विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५३)। मूक - ( १ ) तक्षक कुलमें उत्पन्न
नाग, जो
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मृगतपा
जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा ( आदि० ५७ । ९ ) । (२) एक दानव, जो सूअरका रूप धारण करके अर्जुनको मारने की घात में लगा था ( वन० ३८ । ७ ) । अर्जुनद्वारा इसका वध ( वन० ३९ । १६ ) । मूल - ( सत्ताईस नक्षत्रोंमेंसे एक ) जो मूल नक्षत्रमें एकाग्रचित्त हो ब्राह्मणको मूल-फलका दान करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और वह अभीष्ट गति पाता है ( अनु०
६४ / २४ ) | मूल नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे आरोग्यकी प्राप्ति होती है ( अनु० ८९ । १० ) । मार्गशीर्षमासके शुक्ल पक्ष की प्रतिपदाको मूल नक्षत्रसे चन्द्रमाका योग होनेपर चन्द्रसम्बन्धी व्रत आरम्भ करे । देवतासहित मूल नक्षत्र के द्वारा उनके दोनों चरणोंकी भावना करे ( अनु० ११० । ३ ) ।
मूषक - एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५६, ६३ ) । मूषकाद ( मूषिकाद ) - कश्यपद्वारा कद्रू के गर्भ से उत्पन्न एक नाग ( आदि० ३५ । १२ ) । यह वरुणकी सभा में रहकर उनकी उपासना करता है ( समा० ९ । १० ) । नारदजीका मातलिको इसका परिचय देना ( उद्योग ० १०३ । १४)।
मृगधूम - कुरुक्षेत्र की सीमाके अन्तर्गत एक पुण्य तीर्थ, जहाँ महादेवजीकी पूजा करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है ( वन० ८३ | १०१ ) | मृगमन्दा - क्रोधवशाकी क्रोधजनित कन्याओंमेंसे एक । इसीसे रीछों की उत्पत्ति हुई ( आदि० ६६ । ६०६२) ।
मृगव्याध - ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक । ब्रह्माजीके आत्मज, स्थाणुके पुत्र ( आदि० ६६ । २ ) । मृगशिरा - ( सत्ताईस नक्षत्रोंमेंसे एक ) मृगशिरा नक्षत्रमें दूध देनेवाली गौका बछड़े सहित दान करके दाता मृत्युके पश्चात् इस लोकसे सर्वोत्तम स्वर्गलोकमें जाते हैं ( अनु० ६४ । ७ ) । इस नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे तेजकी प्राप्ति होती है (अनु० ८९ । ३ ) । मार्गशीर्षमासमें चन्द्रव्रतमें मृगशिराको चन्द्रमाके नेत्र समझकर पूजा करनेका विधान है (अनु० ११० । ८ ) । मृद्भवपर्व - पर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय २५८ ) ।
मृगी- क्रोधवशा की क्रोधजनित कन्याओंमेंसे एक । संसारके समस्त मृग इसीकी संतानें हैं ( आदि० ६६ । ६०६२)।
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मृगतपा - दानवोंके सुविख्यात दस कुर्लेमेंसे एक ( आदि० ६५ । २८-२९ ) ।
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मृत्तिकावती
( २५९ )
मेधावी
मृत्तिकावती-एक जनपद, जिसे कर्णने जीता था ( वन० कर सदा उसके समक्ष नतमस्तक रहता था ( सभा• २५४ । १०)।
१४। १३)। मृत्यु-(१)(पुरुष) अधर्मकी स्त्री नितिके गर्भसे मेघवाहिनी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ ।
उत्पन्न तीन पुत्रोंमेंसे एक । यह सब प्राणियों का नाशक १.)। है। इसके पत्नी या पुत्र कोई नहीं है, क्योंकि यह मेघवेग-कौरवपक्षका एक वीर, जो अभिमन्युद्वारा मारा सबका अन्तक है (आदि. ६६ । ५४-५५)। जापक गया था (द्रोण. ४८ । १५-१६)। ब्राह्मणके पास इसका आना (शान्ति. १९९३२)। शासन्धि-मगध देशका राजकुमार, जो सहदेवका पुत्र था अर्जुनक नामक व्याध और सर्पके साथ इसका संवाद
और उन्हींके साथ द्रौपदी-स्वयंवरमें गया था ( आदि. ( अनु०१ । ५०-६८)। सुदर्शनद्वारा मृत्युपर
१८५।८)। अश्वमेधीय अश्वकी रक्षाके प्रसङ्गमें अर्जुनके विजयका वर्णन ( अनु० २ । ४८-६७)। (२)
साथ इसका युद्ध और पराजय (आश्व० ८२ अध्याय)। (स्त्री) ब्रह्मानीके शरीरसे नारीरूपमें इसकी उत्पत्ति (द्रोण० ५३ । १७.१८ शान्ति० २५७ । १५)।
मेघखना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६।८)। ब्रह्माद्वारा संहारकार्यके सौंपे जानेपर इसका रोदन (द्रोण मेद-ऐरावतकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्प५३ । २२-२३, शान्ति. २५७ । २१)। इसकी घोर सत्रमें जलकर भस्म हो गया (आदि. ५७।११)। तपस्या (द्रोण. ५४ । १७-२६ शान्ति० २५८ । १५- मेदिनी-पृथ्वीका एक नाम । भगवान् विष्णुदारा मधु और २४) । ब्रह्मासे वरकी याचना (द्रोण. ५४ । ३०- कैटभ दोनों दैत्योंके मारे जानेपर उनकी लाशें जलमें ३२)। इसका संहारकार्य स्वीकार करना (द्रोण. ५४ । डूबकर एक हो गयीं । जलकी लहरोंसे मथित होकर उन १४ शान्ति० २५८ । ३७)। इसकी प्रबलताका वर्णन दोनों दैत्योंने मेद छोड़ा, उससे आच्छादित होकर वहाँका (शान्ति० ३१९ अध्याय)।
जल अदृश्य हो गया । उमीपर भगवान् नारायणने नाना मेकल-एक भारतीय जनपद और वहाँके निवासी जाति- प्रकारके जीवोंकी सृष्टि की। उन दैत्योंके मेदसे सारी वसुधा विशेष (भीष्म० ९ । ४१)।इस देशके योद्धा भीष्मकी आच्छादित हो गयी। इसलिये मेदिनीके नामसे प्रसिद्ध हुई रक्षामें तत्पर थे (भीष्म ५१ । १३-१४)। कोसल- (सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७८४)। नरेश बृहलके साथ मेकल आदि देशोंके सैनिक थे मेधा-दक्ष प्रजापतिकी पुत्री एवं धर्मराजकी पत्नी-(आदि. (भीष्म ८७।१)। कर्णने इस देशको जीता या ६६ । १४)। (द्रोण०४।८) । मेकल पहले क्षत्रिय था परतु मेधातिथि-H) एक प्राचीन महर्षि, जो इन्द्रकी सभामै ब्राह्मणोंके साथ ईर्ष्या करनेसे नीच हो गये ( अनु०
विराजमान होते हैं (सभा० ७ । १७)। इनके पुत्र ३५ । १७-१८)।
कण्वमुनि पूर्वदिशाके ऋषि हैं (शान्ति० २०८।२७)। मेघकर्णा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ ।। इन्होंने वानप्रस्थका पालन करके स्वर्ग प्राप्त किया है
(शान्ति० २४४ । १७)। ये उपरिचर वसुके यशमें मेघनाद-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६२ )। सदस्य बने थे (शान्ति० ३३६ । ७)। ये दिव्य महर्षि
माने गये हैं। प्रयाणके समय भीष्मजीको देखनेके लिये मेघपुष्प-भगवान् श्रीकृष्णके रथका एक दिव्य अश्व (विराट. १५।२१ उद्योग.८३ । १९; द्रोण.७९ ।
पधारे थे और युधिष्ठिरद्वारा पूजित हुए थे ( अनु० २६ । ३८ द्रोण. १४७॥ १७ सौप्तिक० १३ । ३, शान्ति.
३-१)(२) एक नदी, जो अग्निकी उत्पत्तिका स्थान
बतायी गयी है (वन० २२२ । २३)। ५३ । ५.)।
मेधाविक-एक तीर्थ, जहाँ देवताओं और पितरोंका तर्पण मेघमाला-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. ४६ ।
करनेसे मनुष्य अश्वमेध यशका फल पाता तथा मेधा प्राप्त
कर लेता है (वन०४५। ५५)। मेघमाली-मेरुद्वारा स्कन्दको दिये गये दोपार्षदोंमेंसे एक।
मेधावी-(१) बालधि मुनिका पुत्र, जिसका जन्म पिताकी दूसरेका नाम काञ्चन था (शल्य०४५।४७)।
तपस्यासे हुआ था। पर्वत इसकी आयुके निमित्त थे । मेघवासा-एक दैत्य, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी
मेधायुक्त होनेके कारण इसका नाम मेधावी था। यह बड़ा उपासना करता है (सभा०९।१४)।
उद्दण्ड था (वन० १३५ । ३५-४९)। धनुषाक्ष मेघवाहन-एक राजा, जो जरासंधको मस्तककी मणि मान- मुनिके द्वारा इसकी आयुके निमित्तभूत पर्वतोंको भैसौसे
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मेध्या
( २६० )
मेरु
विदीर्ण करा दिया गया; अतः उसकी मृत्यु हो गयी (वन. १३५। ५३) । (२) एक ब्राह्मण-बालक, जिसने पिताको शानका उपदेश दिया (शान्ति० १७५। ९-३०)। इसके द्वारा पिताको शरीर और संसारकी
अनित्यताका उपदेश (शान्ति० ३७७ अध्याय)। मेध्या-पश्चिम दिशाका एक पुण्यमय तीर्थ (वन० ८९ । १५)। यह नदी अग्निकी उत्यत्तिका स्थान मानी गयी है (वन. २२२ । २३)। सायं प्रातःस्मरणीय नदियों में इसका भी नाम आया है (अनु. १६५ । २६)। मेनका-स्वर्गलोककी एक श्रेष्ठ अप्सरा, जिसने गन्धर्वराज विश्वावसुसे गर्भ धारण किया और स्थूलकेश ऋषिके पास अपनी पुत्री प्रमदराको जन्म देकर वहीं त्याग दिया (आदि०८।६-७) । इसके गर्भसे विश्वामित्रद्वारा शकुन्तलाकी उत्पत्ति हुई (आदि०७२ । २-९)। यह छः प्रधान अप्सराओंमें गिनी गयी है ( आदि. .४ । ६८-१९)। अर्जुनके जन्मोत्सवमें इसने गान किया था (आदि. १२२६४)। यह कुबेरकी सभामें उपस्थित होती है (सभा० १०।१०)। इसने अर्जुनके स्वागत के लिये इन्द्रसभामें नृत्य किया था ( वन० ४३ ।
२९)। मेना-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं।
(भीम० १।२३)। मेरु-सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित एक दिव्य पर्वत, जो
ऊपरसे नीचेतक सोनेका ही माना जाता है, यह तेजका महान् पुञ्ज है और अपने शिखरोंसे सूर्यकी प्रभाको भी तिरस्कृत किये देता है । इसपर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं । इसका कोई माप नहीं है । मेरुपर सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हुए हैं। दिव्य ओषधियाँ इसे प्रकाशित करती रहती हैं। यह महान् पर्वत अपनी ऊँचाईसे स्वर्गलोकको घेरकर खड़ा है। वहाँ किसी समय देवताओंने अमृत-प्राप्तिके लिये परामर्श किया था, इस पर्वतपर भगवान् नारायणने ब्रह्माजीसे कहा था कि देवता
और असुर मिलकर महासागरका मन्थन करें, इससे अमृत प्रकट होगा (आदि. १७।५-१३)। इसी मेरु पर्वतके पार्श्वभागमें वसिष्ठजीका आश्रम है ( भादि० ९९।१)। यह दिव्य पर्वत अपने चिन्मय स्वरूपसे कुबेरकी सभामें उपस्थित हो उनकी उपासना करता है (सभा० १।३३) । यह पर्वत इलावृतखण्डके मध्यभागमें स्थित है। मेरुके चारों ओर मण्डलाकार इलाकृतवर्ष बसा हुआ है। दिव्य सुवर्णमय महामेरु गिरिमें चार प्रकारके रंग दिखायी पड़ते हैं। यहाँतक पहुँचना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है । इसकी
लंबाई एक लाख योजन है। इसके दक्षिण भागमें विशाल जम्बूवृक्ष है; जिसके कारण इस विशाल द्वीपको जम्बूद्वीप कहते हैं (सभा० २८ । ६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७४०)। अत्यन्त प्रकाशमान महामेरु पर्वत उत्तर दिशाको उद्भासित करता हआ खड़ा है । इसपर ब्रह्मवेत्ताओंकी ही पहुँच हो सकती है । इसी पर्वतपर ब्रह्माजीकी सभा है, जहाँ समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करते हुए ब्रह्माजी निवास करते हैं । ब्रह्माजीके मानस पुत्रोंका निवासस्थान भी मेरु पर्वत ही है । वसिष्ठ आदि सप्तर्षि भी यही उदित और प्रतिष्ठित होते हैं । मेरुका उत्तम शिखर रजोगुणसे रहित है। इसपर आत्मतृप्त देवता भोंके साथ पितामह ब्रह्मा रहते हैं । यहाँ ब्रह्मलोकसे भी ऊपर भगवान् नारायणका उत्तम स्थान प्रकाशित होता है। परमात्मा विष्णुका यह धाम सूर्य और अग्निसे भी अधिक तेजस्वी है तथा अपनी ही प्रभासे प्रकाशित होता है । पर्व दिशामें मेरु पर्वतपर ही भगवान् नारायणका स्थान सुशोभित होता है। यहाँ यत्नशील ज्ञानी महान्माओंकी ही पहुँच हो सकती है । उस नारायणधाममें ब्रह्मर्षियोंकी भी गति नहीं है, फिर महर्षियोंकी तो बात ही क्या है । भक्तिके प्रभावसे ही यत्नशील महात्मा यहाँ भगवान् नारायणको प्राप्त होते हैं । यहाँ जाकर मनुष्य फिर इस लोकमें नहीं लौटते हैं। यह परमेश्वरका नित्य अविनाशी और अविकारी स्थान है। नक्षत्रोंसहित सूर्य और चन्द्रमा प्रतिदिन निश्चल मेरुगिरिकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । अस्ताचलको पहुँचकर संध्याकालकी सीमाको लाँघकर भगवान् सूर्य उत्तर दिशाका आश्रय लेते हैं। फिर मेरुपर्वतका अनुसरण करके उत्तर दिशाकी सीमातक पहुँचकर समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले सूर्य पुनः पूर्वाभिमुख होकर चलते हैं (वन० १६३।१२-४२)। माल्यवान् और गन्धमादन-इन दोनों पर्वतोंके बीचमें मण्डलाकार सुवर्णमय मेरुपर्वत है। इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है। नीचे भी चौरासी हजार योजनतक पृथ्वीके भीतर घुसा हुआ है। इसके पार्श्व भागमें चार द्वीप हैं-भद्राश्व, केतुमाल, जम्बूद्वीप और उत्तरकुरु । इस पर्वतके शिखरपर ब्रह्मा, रुद्र और इन्द्र एकत्र हो नाना प्रकारके यशोंका अनुष्ठान करते हैं। उस समय तुम्बुरु, नारद, विश्वावस आदि गन्धर्व यहाँ आकर इसकी स्तुति करते हैं। महात्मा सप्तर्षिगण तथा प्रजापति कश्यप प्रत्येक पर्वके दिन इस पर्वतपर पधारते हैं । दैत्योसहित शुक्राचार्य मेरु पर्वतके ही शिखरपर निवास करते हैं। यहाँके सब रन और रत्नमय पर्वत उन्हींके अधिकारमें है । भगवान् कुबेर उन्हसि धनका चतुर्थ भाग प्राप्त करके उसका सदुपयोग करते हैं। सुमेरु पर्वतके उत्तर भागमें दिव्य एवं
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मेरुप्रभ
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( २६१ )
रमणीय कर्णिकारवन है । वहाँ भगवान् शंकर कनेरकी दिव्य माला धारण करके भगवती उमाके साथ विहार करते हैं। इस पर्वतके शिखर से दुग्धके समान श्वेत धारवाली पुण्यमयी भागीरथी गङ्गा बड़े वेग से चन्द्रहृदमें गिरती हैं। मेरुके पश्चिम भागमें केतुमाल वर्ष है, जहाँ जम्बूखण्ड नामक प्रदेश है । वहाँ के निवासियोंकी आयु दस हजार वर्षोंकी होती है। वहाँके पुरुष सुवर्णके समान कान्तिमान् और स्त्रियाँ अप्सराओंके समान सुन्दरी होती
। उन्हें कभी रोग-शोक नहीं होते । उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है ( भीम० ६ । १० - ३३ ) । पर्वतद्वारा पृथ्वीदोहन के समय यह मेरु पर्वत दोग्धा ( दुहनेवाला ) बना था ( द्रोण० ६९ । १८ ) । त्रिपुर दाइके लिये जाते हुए भगवान् शिवने मेरु पर्वतको अपने रथकी ध्वजाका दण्ड बनाया था ( द्रोण० २०२ । ७८ ) । मेरुने स्कन्दको काञ्चन और मेघमाली नामक दो पार्षद प्रदान किये ( शल्य० ४५ । ४८-४९ ) । इसने पृथुको सुवर्णराशि दी थी (शान्ति ० ५९ । १ - ९ ) । यह पर्वतोंका राजा बनाया गया था (शान्ति० २२२ । २८ ) | व्यासजी अपने शिष्योंके साथ मेरु पर्वतपर निवास करते हैं ( शान्ति० ३४१ । २२-२३ ) । स्थूलशिरा और बड़वामुखने यहाँ तपस्या की थी ( शान्ति० ३४२ । ५९६०) ।
मेरुप्रभ- द्वारकापुरीके दक्षिणवर्ती लतावेष्ट पर्वतको घेरकर सुशोभित होनेवाले तीन वनोंमेंसे एक। शेष दो तालवन और पुष्पकवन थे । यह महान् वन बड़ी शोभा पाता था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८१३, कालम १ ) ।
भूत - एक भारतीय जनपद ( भीष्म ० ९ । ४८ ) । मेरुवज - एक नगरी, जो राक्षसराज विरूपाक्षकी राजधानी
थी ( शान्ति० १७० | १९ ) ।
मेरुसावर्णि (मेरुसावर्ण ) - एक ऋषि, जिन्होंने हिमालय पर्वत पर युधिष्ठिरको धर्म और ज्ञानका उपदेश दिया था ( सभा० ७८ । १४ ) । ये अत्यन्त तपस्वी, जितेन्द्रिय और तीनों लोकोंमें विख्यात हैं ( अनु० १५० । ४४४५)।
मेष - स्कन्दका एक सैनिक ( शख्य० ४५ । ६४ ) । मेष - गरुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग० १०१ । १२)।
मैत्र - ( १ ) एक प्रकार के राक्षस, जिनका सामना करनेको तैयार रहने के लिये युधिष्ठिरके प्रति लोमश मुनिकी प्रेरणा हुई । ( २ ) एक मुहूर्त, जिसमें श्रीकृष्णने इस्तिनापुरकी यात्रा आरम्भ की ( उद्योग० ८३ । ६ ) । ( ३ )
मैन्द
अनुराधा नक्षत्र, जिसमें कृतवर्माने दुर्योधनका पक्ष ग्रहण किया ( शल्य० ३५ । १४ ) । ( ४ ) कनक या सुवर्ण ( अनु० ८५ । ११३ ) ।
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मैत्रेय - एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते थे ( सभा० ४ । १० ) । इनका धृतराष्ट्र तथा दुर्योधनसे पाण्डवोंके प्रति सद्भाव रखनेका अनुरोध ( वन० १० | ११-२७ ) । इनके द्वारा दुर्योधनको शाप ( वन० १० । ३४ ) । हस्तिनापुर जाते समय
श्रीकृष्ण से इनकी भेंट (उद्योग० ८३ । ६७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । शरशय्यापर पड़े हुए भीष्म के पास ये भी गये थे ( शान्ति० ४७ । ६) । व्यासजीके साथ इनके धर्मविषयक प्रश्नोत्तर ( अनु० अध्याय १२० से १२२ तक ) ।
मैनसिल - एक पर्वतीय धातु, जो लाल रंगकी होती है ( वन० १५८ । ९४ ) ।
मैनाक - ( १ ) कैलास पर्वतसे उत्तर दिशामें स्थित एक पर्वत । इसके समीप ही विन्दुसरोवर है, जहाँ राजा भगीरथने गङ्गावतरणके लिये बहुत वर्षोंतक तपस्या की थी ( सभा० ३ । ९-११) । पाण्डवोंने उत्तराखण्डकी यात्रा के समय इस पर्वतको लाँघकर आगे पदार्पण किया था ( वन० १३९ । १ ) । विन्दुसरोवर के समीपवर्ती मैनाक पर्वत सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित है ( वन० १४५ । ४४ ) । पाण्डर्वोद्वारा मैनाक आदिका दर्शन ( वन० १५८ । १७ ) । कैलाससे उत्तर इसकी स्थितिका वर्णन ( भीष्म ० ६ । ४२ ) । ( २ ) पश्चिम दिशाका एक तीर्थभूत पर्वत, जो वैदूर्यशिखर के पास नर्मदाके तटप्रान्त है ( वन० ८९ । ११) । यहाँका तीर्थफल ( अनु० २५ । ५९ ) । ( ३ ) क्रौञ्चद्वीपमें अन्धकारके बादका एक पर्वत ( भीष्म ० १२ । १८ ) । मैन्द - एक वानरराज, जो किष्किन्धा नामक गुफामें रहता था। जिसे दक्षिण दिग्विजयके समय सहदेव सात दिनोंतक युद्ध करनेपर भी परास्त न कर सके थे, तब मैन्दने स्वयं ही प्रसन्न होकर सब प्रकारके रत्नोंकी भेंट दी और कहा - 'जाओ, बुद्धिमान् युधिष्ठिर के कार्य में कोई विघ्न नहीं पड़ना चाहिये' ( सभा० ३१ । १८ ) । यह वानरराज सुग्रीवका मन्त्री था और महामनस्वी, बुद्धिमान् तथा बली था ( चन० २८० । २३ ) | श्रीरामचन्द्रजीका कार्य करने के लिये जाती हुई विशाल वानर सेनाके रक्षकोंमें एक यह भी था ( वन० २८३ । १९ ) । मायासे अदृश्य हुए प्राणियोंको भी प्रत्यक्ष दिखा देनेकी शक्तिवाले कुबेरके भेजे हुए जलसे इसने भी अपने नेत्र धोये थे ( वन० २८९ । १० - १३ ) |
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मोक्षधर्मपर्व
( २६२ )
यक्षिणीतीर्थ
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मोक्षधर्मपर्व-शान्तिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ९३ । ४३-४९) । वीर सात्यकिके द्वारा रणभूमिमें १७४ से ३६५ तक)। -
आहत होकर सैकड़ों म्लेच्छ प्राणोंसे हाथ धो बैठे थे मोदाकी-केसर पर्वतके पास स्थित शाकद्वीपका एक वर्ष
(द्रोण. ११९ । ४३) । म्लेच्छोंने पाण्डवसेनापर (भीष्म. ११।२६)।
अत्यन्त क्रोधी गजराज बढ़ाये थे (कर्ण०२२ । १०)।
म्लेच्छ जातीय अङ्गराज पाण्डुकुमार नकुलद्वारा मारा मोदागिरि-एक देश, जहाँके राजाको भीमसेनने पूर्वदिग्वि
गया (कर्ण २२।१८)। म्लेच्छ सैनिक दुर्योधनकी जयके समय मार गिराया था (समा०३०।३१)।
सहायताके लिये बड़े रोषपूर्वक लड़ रहे थे। अर्जुनके मोदापुर-एक नगर, जहाँके राजाको उत्तर-दिग्विजयके सिवा और किसीके लिये उन्हें जीतना असम्भव था
अवसरपर अर्जुनने परास्त किया था (सभा० २७ । (कर्ण०७३ । १९-२२)। अर्जुनको अश्वमेधीय ११)।
अश्वकी रक्षाके समय बहुत-से म्लेच्छ सैनिकोंका सामना मोहन-एक जनपद, जिसे कर्णने जीता था (वन० २५४ । करना पड़ा (आश्व०७३ । २५)। युधिष्ठिरकी यज्ञ
शालामें ब्राह्मणोंके लेनेके बाद जो धन पड़ा रह गया, मौञ्जायन-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते हैं
उसे म्लेच्छजातिके लोग उठा ले गये ( आश्व०८९। (सभा० ४।१३)। हस्तिनापुर जाते समय मार्गमें २६)। श्रीकृष्णसे इनकी भेंट (उद्योग०८३ । ६४ के बाद)। मौर्वी-तृणविशेष; जिसकी मेखला बनायी जाती है (द्रोण. यकृल्लोमा-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४६) । १७ । २३)।
यक्ष-देवयोनि-विशेष या उपदेवता, जो विराटअण्डसे ब्रह्मा मौसलपर्व-महाभारतका एक प्रधान पर्व ।
आदि देवताओंकी उत्पत्तिके बाद प्रकट हुए बताये जाते
हैं (आदि. १।३५)। शुकदेवजीने यक्षोंको महाम्लेच्छ-एक जाति और जनपद, नन्दिनी गौके फेनसे म्लेच्छ जातिकी सृष्टि हुई। उन म्लेच्छ सैनिकोंने विश्वा
भारतकी कथा सुनायी थी ( आदि. १ । १०८)।
यक्षलोग पुलस्त्य मुनिकी संतानें हैं ( आदि. १६ । मित्रकी सेनाको तितर-बितर कर दिया ( आदि. १७४ ।
७)। कुबेरकी सभामें उपस्थित हो लाखों यक्ष उनकी ३८-४०)। भीमसेनने समुद्रतटवर्ती म्लेच्छों और उनके
उपासना करते हैं (सभा० १०।१८)। ब्रह्माजीकी अधिपतियोंको जीतकर उनसे 'कर' के रूपमें भाँति-भाँतिके
समामें इनकी उपस्थिति बतायी गयी है ( सभा. ११ । रत्न प्राप्त किये थे (सभा० ३० । २५-२७)।
५६)। कुबेरका यक्षोंके राजपदपर अभिषेक किया गया समुद्र के द्वीपोंमें निवास करनेवाले म्लेच्छ जातीय राजाओंको
था (वन०१११।१०.११)। भीमसेनने यक्षों और माद्रीकुमार सहदेवने परास्त किया था ( सभा० ३१ ।
राक्षसोंको मार भगाया था (वन० १६०। ५७-५८)। ६६)। नकुलने भी उनपर विजय पायी थी (सभा०
सुन्द-उपसुन्दने इन्हें पराजित और पीड़ित किया था ३२ । १६) । समुद्रके टापुओंमें रहनेवाले म्लेच्छोंके साथ
(वन० २०८।)। राजा भगदत्त युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें पधारे थे (सभा०
यक्ष-ग्रह-एक यक्षसम्बन्धी ग्रह, जिसके बाधा करनेपर ३४ .)। म्लेच्छोंके स्वामी भगदत्त भेंट लेकर युधिष्ठिरके यहाँ आये थे (सभा० ५१।१४)। जब
__ मनुष्य पागल हो जाता है (वन० २३० । ५३)। प्रलयका पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है, उस समय इस प्रक्षयुद्धपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय १५४ पृथ्वीपर बहुत-से म्लेच्छ राजा राज्य करने लगते हैं (वन से १६४ तक)। १८८ । ३४)। विष्णुयशा कल्कि भूमण्डलमें सर्वत्र यक्षिणी-एक देवी, जिनके प्रसादरूप नैवेधके भक्षणसे ब्रह्मफैले हुए म्लेच्छोंका संहार करेंगे (वन० १९०। ९७)। हत्यासे मुक्ति हो जाती है (वन० ८४ । १०५)। कर्णने अपनी दिग्विजयमें म्लेच्छ राज्योंको जीत लिया यक्षिणीतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक लोकविख्यात था (वन० २५४ । १९-२१)। एक भारतीय जन- तीर्थ, जहाँ जानेसे और स्नान करनेसे सम्पूर्ण कामनाओंकी पदका नाम म्लेच्छ है (भीष्म० ९ । ५७)। म्लेच्छ पूर्ति होती है । यह कुरुक्षेत्रका विख्यात द्वार है, उसकी जातीय अङ्ग भीमसेनद्वारा युद्धमें मारा गया (द्रोण. परिक्रमा करके तीर्थयात्री मनुष्य एकाग्रचित्त हो पुष्कर२६।६७)। नन्दिनी गौसे उत्पन्न हुए म्लेच्छ अर्जुनपर तीर्थके तुल्य उस तीर्थमें स्नान करके देवताओं और तीखे बार्णोकी वर्षा करते थे; परंतु अर्जुनने दाढ़ीभरे पितरोंकी पूजा करे । इससे वह कृतकृस्य होता और मुखवाले उन सभी म्लेच्छोंका संहार कर डाला (द्रोण. अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। उत्तम श्रेणीके
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यक्ष्मा
( २६३ )
यम
महात्मा जमदग्निनन्दन परशुरामने उस तीर्थका निर्माण (२) एक राजकुमार, जो उपरिचर वसुका पुत्र था, किया है (वन० ८३ । २३-२५)।
वह युद्ध में किसीसे पराजित नहीं होता था (आदि. ६३। यक्ष्मा-एक रोग, जिसे क्षय या तपेदिक कहते हैं । चन्द्रमा- ३३)।
पर कुपित होकर प्रजापति दक्षने उन्हीं के लिये इस रोगकी यम-( १ ) समस्त प्राणियोका नियमन करनेवाले 'सृष्टि की थी (शल्य. ३५। ६१-६२)।
यमराज, जो भगवान् सूर्यके पुत्र तथा सबके शुभाशुभ यशवाह-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७०)।
कोंके साक्षी हैं ( आदि०७४ । ३०; आदि. ७५ ।
२२)। इन्हें शूद्र-योनिमें जन्म लेनेके लिये माण्डव्य यज्ञसेन-पाञ्चाल-नरेश पृषतके पुत्र (आदि० १३० ।
ऋषिका शाप (आदि. १०७।१४-१६) । द्रौपदीके ४२)। ( देखिये द्रुपद)।
स्वयंवरको देखनेके लिये इनका आगमन ( आदि. यति-(१) नहुषके प्रथम पुत्र, ययातिके बड़े भाई १८६ । ६) । नैमिषारण्यमें इनके द्वारा देवताओंके (आदि० ७५ । ३०)। ये योगका आश्रय लेकर ब्रह्म- यज्ञमें शामित्र-कर्म-सम्पादन (आदि. १९६ ।)। भूत मुनि हो गये थे (आदि.७५ । ३१)। (२) खाण्डवदाहके समय श्रीकृष्ण और अर्जुनसे युद्ध करनेके विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु० ४ । ५८)। लिये इन्द्रकी ओरसे ये भी कालदण्ड लेकर आये थे यथावास-एक वानप्रस्थी ऋषि, जो वानप्रस्थ-धर्मका पालन (आदि० २२६ । ३२)। ये एक हजार युग बीतनेपर एवं प्रसार करके स्वर्गलोकमें गये थे ( शान्ति. २१४। बिन्दुसरोवरपर यज्ञका अनुष्ठान करते हैं (सभा०३।
१५)। नारदजीके द्वारा इनकी दिव्य सभाका वर्णन यदु-(१) गजा ययातिके प्रथम पुत्र, जो देवयानीके गर्भसे (सभा० ८ अध्याय)। ये ब्रह्माजीकी सभामें विराज
उत्पन्न हुए थे (आदि. ७५ । ३५; आदि० ८३ । मान होते हैं (सभा० ११ ५१)। इनके द्वारा ९)। इनका अपने पिताको युवावस्था देनेसे अस्वीकार अर्जुनको दण्डास्त्रका दान ( वन० ४१ । २५)। करना (आदि. ७५। ४३, आदि० ८४।५)। दमयन्ती-स्वयंवरमें इनके द्वारा राजा नलको वर-प्रदान ययातिका इनकी संतानको राज्याधिकारसे वञ्चित होनेका (बन० ५७ । ३७ )। सावित्रीको अनेक वर देनेके शाप देना (भादि. ८४ । ९)। यदुकी ही संताने पश्चात् इनका सत्यवान्को जीवित करना (वन० २९७ । यादव कहलायी ( आदि. ९५। १०)। भगवान् ११-६०)। इन्द्रने इन्हें पितरोंका राजा बनाया था नारायणने अपने मस्तकसे दो केश निकाले, जिनमेंसे एक (उद्योग. १६ । १४) । पितरोंद्वारा पृथ्वी-दोहनके श्वेत था, एक श्याम । वे दोनों केश यदुकुलकी दो समय ये बछड़ा बने थे (द्रोण ६९ । २६)। त्रिपुरस्त्रियों रोहिणी तथा देवकीके भीतर प्रविष्ट हुए । रोहिणीसे दाहके समय ये भगवान् शिवके बाणके पुखभागमें बलदेवजी प्रकट हुए, जो भगवान् नारायणके श्वेत केश- प्रतिष्ठित हुए थे (द्रोण० २०२ । ७७)। इनके द्वारा रूप थे और देवकीके गर्भसे श्याम केशस्वरूप भगवान् स्कन्दको उन्माथ और प्रमाथ नामक दो पार्षदोंका दान श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव हुआ ( आदि. १९६ । ३२- (शल्य. ४५।३०)। महर्षि गौतमके साथ इनका ३३)। यदु देवयानीके पुत्र और शुक्राचार्यके दौहित्र थे, धर्मविषयक संवाद (शान्ति. १२९ अध्याय)। इनके ये बलवान, उत्तम पराक्रमसे सम्पन्न एवं यादववंशके द्वारा जापक ब्राह्मणको वरदान (शान्ति. १९९ । प्रवर्तक थे। इनकी बुद्धि बड़ी मन्द थी। इन्होंने घमंडमें ३०)। इनको नारायणसे शिवसहस्रनामका उपदेश आकर समस्त क्षत्रियोंका अपमान किया था। ये पिताके मिला और इन्होंने नाचिकेतको इसका उपदेश किया आदेशपर नहीं चलते थे । भाइयों और पिताका अपमान (अनु. १७ । १७८-१७९)। इनका अपने दूतोंको करते थे। उन दिनों भूमण्डलमें यदु ही सबसे अधिक शर्मी नामक ब्राह्मणको लानेका आदेश (अनु०६८। बलवान् थे और समस्त राजाओंको वशमें करके हस्तिना- ६-९)। ब्राह्मणको तिल, जल और अन्नके दानकी पुरमें निवास करते थे । इनके पिता ययातिने अत्यन्त महिमा बतलाना ( अनु. ६८ । १६-२२)। कुपित हो इन्हें शाप दे दिया और राज्यसे भी उतार दिया। नाचिकेतके साथ संवादमें गोदानकी महिमा बताना जिन भाइयोंने इनका अनुसरण किया, उनको भी पिताका (अनु०७१।१८-५६) । इनके द्वारा धर्मके रहस्यका शाप प्राप्त हुआ (अयोग. १४९ । ६-११)। इन्हीं वर्णन (अनु. १३० । १४-३३)। इनके लोकका यदुके वंशमै देवमीढ़ नामसे विख्यात एक यादव हो गये वर्णन ( अनु. ११५ । दा. पाठ, पृष्ठ ५९८० से हैं, जिनके पुत्रका नाम शूर था (द्रोण० १४४।६-७)। ५९८५ तक)। ये मुञ्जवान् पर्वतपर शिवजीकी उपासना यदुके पुत्रका नाम क्रोष्टा था ( अनु० १४७ । २८)। करते हैं (आश्व० ८।४-६)। (२) वरुणद्वारा
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यमक
( २६४ )
ययाति
स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक, दूसरेका नाम था यमुनाद्वीप-यमुनाजीके बीचका एक द्वीप, जहाँ सत्यवतीअतियम (शल्य. ४५। ४५)।
ने पराशरजीके द्वारा व्यासको उत्पन्न किया था ( आदि. यमक-एक देश और जातिके लोग-यहाँके राजा, राज- ६०।२)। कुमार और निवासी भी युधिष्ठिरके यज्ञमें भेंट लेकर
यमुनाप्रभव-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके मनुष्य अश्वआये थे (सभा० ५२ । १३-१७)।
मेध यज्ञका फल पाकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है यमदूत-महर्षि विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु. (वन० ८४ । ४४)। ४।५१)।
ययाति-एक प्राचीन राजर्षि ( आदि० १ । २२९) । यमुना-( सूर्यपुत्री यमुना, जो परम पावन नदीके रूपमें
महाराज नहुषके द्वितीय पुत्र । इनके बड़े भाई यति विराज रही हैं, कलिन्द पर्वतसे प्रकट होनेके कारण इन्हें
योगका आश्रय ले ब्रह्मभूत मुनि हो गये; अतः ये ही कालिन्दी कहते हैं। ये यमुनोत्तरीसे निकलकर प्रयाग
भूमण्डलके सम्राट हुए । इन्होंने इस पृथ्वीका पालन और में आयी हैं, वहाँ गङ्गाजीके साथ इनका संगम हुआ है ।
बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान किया ( आदि० ७५ । ३०भगवान् श्रीकृष्णकी परम पावन लीलास्थली इन्हींके
३२)। ये अपराजित, मन और इन्द्रियोंको संयममें तटपर है। ये आधिदैविकरूपसे भगवान् श्रीकृष्णकी
रखनेवाले और भक्तिभावसे देवताओं तथा पितरोंका पट्टमहिषी थीं।) यमुनाजीके द्वीपमें पराशरजीने सत्यवतीके
पूजन करनेवाले थे ( आदि०७५ । ३३)। देवयानी गर्भसे व्यासजीको उत्पन्न किया था ( आदि०६० ।
और शर्मिष्ठासे इनके पाँच पुत्रोंकी उत्पत्ति, पुत्रोसे २)। ये गङ्गाकी सात धाराओं से एक हैं, जो इनका इनकी यौवन-याचना, कनिष्ठ पुत्रकी युवावस्थासे दोनों जल पीते हैं, वे पापमुक्त हो जाते हैं (आदि. १६९ । पत्नियों और विश्वाची अप्सराके साथ इनके विहार १९-२१)। जरासंधके मन्त्री और सेनापति हंस तथा
तथा कामभोगसे तृप्त न होने पर इनके द्वारा वैराग्यपूर्ण डिम्भक यमुनाजीमें कूदकर मर गये थे (सभा०१४।
गाथा-गान आदिकी संक्षिप्त कथा ( आदि० ७५ । १३-४४)। वनगमनके समय पाण्डव लोग यमुनाके
३४-५८)। कुएँ में गिरी हुई देवयानीका इनके द्वारा जलका सेवन करके आगे बढ़े थे (वन० ५।२)।
हाथ पकड़कर उद्धार ( आदि. ७८।१४-२३) । संजयपुत्र सहदेवने यमुनातटपर लाख स्वर्णमुद्राओंकी।
देवयानीद्वारा इनसे विवाहके लिये प्रार्थना ( आदि० ७८ । दक्षिणा देकर अग्निकी उपासना की थी (वन. ९०।
२३ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। ब्राह्मणकन्या होनेके ७) राजा भरतने यमुनाजीके तटपर पैंतीस अश्वमेध
कारण इनका देवयानीकी प्रार्थनाको अस्वीकार करना यज्ञोका अनुष्ठान किया था (वन० ९०। ८)। ये
और उसकी अनुमति ले अपने नगरको जाना ( आदि. आर्चीक पर्वतके पास बहती हैं । ब्रह्मर्षिसेवित पुण्यमयी
७८ । २३ के बाद दाक्षिणात्य पाठसहित २४ तक)। नदी हैं और पापके भयको दूर भगाती हैं । इनके
सखियोंके साथ विचरण करती हुई देवयानीसे इनकी तटपर मान्धाता और दानिशिरोमणि सहदेवकुमार सोमकने
वनमें भेंट (आदि० ८।१-७)। ययाति और यज्ञ किया था ( वन० १२५ । २१-२६ )। इनके
देवयानीका संवाद-दोनोंका एक दूसरेसे परिचय पूछना तटपर नाभागपुत्र राजा अम्बरीषने यज्ञ किया था
और अपना परिचय देना, देवयानीका इनके साथ (वन० १२९ । २)। अगस्त्यजीने यमुना-तटपर घोर
विवाहका प्रस्ताव, ययातिका शुक्राचार्यके शापसे भय तपस्या की थी (वन० १६१ । ५६)। राजा शान्तनुने
बताना, देवयानीका धायको भेजकर अपने पिताको यमुनातटपर सात बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान किया था
बुलवाना और उनसे अपनेको राजा नहुषके हाथमें (वन. १६२ । २५)। ये भारतकी उन प्रमुख नदियों में
देनेका अनुरोध करना, शुक्राचार्यका अपनी पुत्रीको से हैं, जिनका जल भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म
राजाके हाथमें देना और उन्हें वर्णसङ्करजनित अधर्मके ९।१५)। भरतने यमुनातटपर एक बार सौ अश्व
भयसे मुक्त करना, साथ ही शर्मिष्ठाको अपनी शय्यापर मेध यज्ञ किये (द्रोण० ६८1८)। इन्होंने ही इसी
न बुलानेके लिये सावधान करना । ययातिका देवयानीके नदीके तटपर तीन सौ अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किये थे
साथ शास्त्रोक्त रीतिसे विवाह तथा दो हजार सखियों(शान्ति. २९ । ४६)।
सहित शर्मिष्ठा एवं देवयानीको साथ लेकर प्रसन्नतायमुनातीर्थ-सरस्वती-तटवर्ती पुण्य तीर्थ, जहाँ अदिति
पूर्वक इनका अपने नगरको जाना ( आदि. ८१ । नन्दन वरुणने राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया था ८-३८) ययातिसे देवयानीको पुत्रकी प्राप्ति ( आदि. (शल्य. ४९।११-१५)।
८२ । ४-५)। ययातिको एकान्तमें देखकर शर्मिष्ठाका
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ययाति
इनके पास जाना और अपने ऋतुकालको सफल बनानेके लिये प्रार्थना करना; इस विषय में ययाति और शर्मिष्ठाका संवाद | शर्मिष्ठाके कथन की यथार्थताको स्वीकार करके ययातिका धर्मानुसार उसे अपनी भार्या बनाना और इनके साथ सहवास करके शर्मिष्ठाका एक देवोपम पुत्रको जन्म देना ( आदि ० ८२ । ११ – २७ ) । ययातिको देवयानीसे यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्रको तथा शर्मिष्ठा के गर्भसे, अनु तथा पूरु नामक तीन पुत्रोंको जन्म देना ( आदि० ८३ । ९-१० ) । वनमें शर्मिष्ठा के पुत्रोको खेलते देख देवयानीका ययातिसे उनके विषय में पूछना । ये ययातिके ही पुत्र हैंयह पता लगनेपर देवयानीका इनसे रूठकर पिताके पास जाना और ययातिका भी उसे मनानेके लिये उसके पीछेपीछे जाना ( आदि० ८३ । ११ – २७ ) | पुत्रीके मुखसे ययातिका अपराध सुनकर शुक्राचार्यद्वारा इनको जराग्रस्त होने का अभिशाप ( आदि० ८३ । २८ - ३१ ) । ययातिका अपनी सफाई देना और शुक्राचार्यसे जरावस्थाकी निवृत्तिके लिये प्रार्थना करना ( आदि० ८३ । ३२-३८ ) । शुक्राचार्यका ययातिको दूसरेसे जवानी लेकर इस बुढ़ापाको उसके शरीर में डाल देनेकी सुविधा देना और जो पुत्र अपनी युवावस्था दे, उसीके लिये राजा होने का वर प्रदान करना ( आदि० ८३ । ३९४२ ) । इनका यदुसे उनकी युवावस्था माँगना और उनके अस्वीकार करनेपर इनका उन्हें उनकी संतानको राज्याधिकार से वश्चित होनेका शाप देना ( आदि० ८४ | १ - ९ ) । इनका तुर्वसुसे युवावस्था माँगना और उनके - द्वारा स्वीकार न करनेपर उनको ग्लेच्छों में राजा होनेका शाप देना ( आदि० ८४ । १०-१५ ) । इनका द्रुह्युसे यौवन माँगना और न देनेपर उन्हें कभी भी उनके मनोरथ सिद्ध न होने, अति दुर्गम देशोंमें रहने तथा राज्याधिकार से वञ्चित होकर 'भोज' कहलानेका शाप देना ( आदि० ८४ । १६-२२ ) । इनका अनुसे उनकी जवानी माँगना और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें जराग्रस्त होने, युवा होते ही उनकी संतानोंको मरने तथा अग्निहोत्रत्यागी बननेका शाप देना ( आदि० ८४ । २३ – २६ ) | इनका पूरुसे उनकी युवावस्था माँगना, पूरुका इनकी आज्ञाको सहर्ष स्वीकार करना तथा उनके आज्ञापालनसे संतुष्ट हो इनका पूरुको वरदान देना ( आदि० ८४ । २७ - ३४ ) । इनका सहस्र
तक विषयसेवन करनेसे भी उससे तृप्त न होनेपर वैराग्यपूर्ण उद्गार, पूरुको उनकी जवानी लौटाकर वृद्धावस्था ग्रहण करना और पूरुके राज्याभिषेकका विरोध करनेवाली प्रजाओंको इनका ज्येष्ठ पुत्रों को
म० ना० ३४-
( २६५ )
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ययाति
राज्य न देनेका कारण बताकर पूरुके राज्याभिषेक के लिये उनसे अनुमति लेना । प्रजावर्गकी अनुमति मिल जानेपर पूरुका राज्याभिषेक करके इनका वनमें जाना आदि० ८५ । १--३३ ) । इनके पुत्रों में यदुसे यादव, तुर्वसुसे यवन (तुर्क ), द्रुह्युसे भोज, अनुसे म्लेच्छ जातिके लोग और पूरुसे पौरव हुए ( आदि० ८५ । ३४-३५ ) । तपस्या करके इनके स्वर्ग में जाने, वहाँसे गिरने, आकाश में ही ठहरने, वसुमान्, अष्टक, प्रतर्दन और शिविसे मिलकर सत्संगके प्रभावसे पुनः स्वर्गलोक जानेकी संक्षिप्त कथा ( आदि० ८६ । १-६ ) । एक हजार वर्षोंतक इनकी घोर तपस्या और स्वर्गगमन ( आदि० ८६ । १२-१७ ) । इन्द्रके पूछनेपर इनका अपने पुत्र पूरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना ( आदि० ८७ अध्याय ) । आत्मप्रशंसा और अन्य सत्पुरुषोंकी निन्दारूप दोष के कारण पुण्य क्षीण होनेसे इन्द्रकी प्रेरणा से इनका स्वर्गसे नीचे गिरना और सत्पुरुषोंके समीप ही गिरनेके लिये इन्द्रसे वर प्राप्त करना ( आदि० ८८ । १–५ ) । इन्हें आकाशसे गिरते देख राजर्षि अष्टकका इनको आश्वासन देते हुए इनका परिचय पूछना (आदि० ८८ । ६ -- १३ ) । ययातिका अष्टकको अपना परिचय देना तथा ययाति और अष्टकका संवाद ( आदि० अध्याय ८९ से ९० तक ) | ययाति और अष्टकका आश्रम- धर्मसम्बन्धी संवाद (आदि० ९१ अध्याय ) । अष्टक ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना (आदि० ९२ अध्याय ) । इनका वसुमान् और शिविके पुण्यदानको भी अस्वीकार करना, इनकी पुत्री माधवीका आकर इन्हें प्रणाम करना और अपने अष्टक आदि चारों पुत्रोंको इनका परिचय देना तथा दौहित्रोंके पुण्यको अपना ही पुण्य बताकर ययातिसे उसको ग्रहण करने के लिये कहना तथा पुत्री और दौहित्रोंने मेरा उद्धार कर दिया ऐसा कहकर ययातिका उस पुण्यको ग्रहण करना और अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्ग में जाना, इनके द्वारा शिविकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन और सत्यकी महिमा का वर्णन (आदि ० ९३ अध्याय ) । इनके दो पत्नियाँ थीं— शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा । इनके वंशका परिचय देनेवाले एक लोकका भाव इस प्रकार है- देवयानीने यदु और तुर्वसु नामवाले दो पुत्रोंको जन्म दिया तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुहयु, अनु और पूरु ये तीन पुत्र उत्पन्न किये ( आदि० ९५ । ७-९ ) । ये यमसभा में रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ ।
८ ) । इनके द्वारा गुरुदक्षिणा देनेके लिये एक ब्राह्मणको हजार गौओंका दान ( वन० १९५ अध्याय ) । ये
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पयातिपतन
( २६६ )
याज्ञवल्क्य
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अर्जुन और कृपाचार्यका युद्ध देखनेके लिये इन्द्रके साथ नन्दिनीने योनि-देशसे यवनोंको प्रकट किया तथा उसके उन्हींके विमानमें बैठकर आये थे ( विराट. ५६ । ९- पार्श्वभागसे भी यवन जातिकी उत्पत्ति हुई (आदि. १.)। गरुड और गालवका राजा ययातिके यहाँ जाकर १७४ । ३६-३७)। सहदेवने दिग्विजयके समय इनके गुरुको देने के लिये आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ोंकी याचना नगरको जीता था (समा० ३१ । ७३)। नकुलने भी करना (उद्योग. ११४ अध्याय)। ये सहस्रों यज्ञोंका यवनोंको परास्त किया था (सभा० ३२ । १७)। अनुष्ठान करनेवाले, दाता, दानपतिः प्रभावशाली, कलियुगमें इनके इस देशके राजा होनेकी भविष्यवाणी राजोचित तेजसे प्रकाशित होनेवाले तथा सम्पूर्ण नरेशोंके (वन० १८८ । ३५)। कर्णने दिग्विजयके समय स्वामी ( सम्राट ) थे ( उद्योग० ११५।२)। इनका पश्चिममें यवनोंको जीता था (वन० २५४ । १८)। गालवको गुरुदक्षिणाके हेतु धनकी प्राप्तिके लिये अपनी काम्बोजराज सुदक्षिण यवनोंके साथ एक अक्षौहिणी सेना कन्या माधवीको समर्पित करना (उद्योग० ११५।५- लिये दुर्योधनके पास आया ( उद्योग० १९ । २१.२२)। १४)। इनके द्वारा अभिमानवश स्वर्गमें देवताओं, यवन एक भारतीय जनपद है (भीष्म० ९ । ६५)। मनुष्यों और महर्षियोंकी अवहेलना (उद्योग० १२०।। यवन पहले क्षत्रिय थे; परंतु ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेके १५.१६)। इनका स्वर्गलोकसे पतन (उद्योग० १२१ । कारण शूद्रभावको प्राप्त हो गये ( अनु.३५ । १८)। ११)। दौहित्रोंके पुण्यदानसे इनका पुनः स्वर्गारोहण यशखिनी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ । (उद्योग० १२२ । १५)। इनका ब्रह्मासे अपने अधःपतनका कारण पूछना (उद्योग. १२३ । १२-१३)। यशोदा-नन्द गोपकी पत्नी, जिनकी गोद में बालकृष्ण पल सुञ्जयको समझाते हुए नारदजीद्वारा इनके दान-यज्ञ
रहे थे। एक दिन मैया यशोदा शिशु श्रीकृष्णको एक आदि सत्कर्मोका वर्णन (द्रोण. ६३ अध्याय) । इनके छकड़ेके नीचे सुलाकर यमुनाजीके तटपर चली गयीं। यज्ञ-वैभवका वर्णन ( शल्य. ४१ । ३३-३९ )।
उसी समय श्रीकृष्णके पैरोंसे छू जानेके कारण छकड़ा श्रीकृष्णद्वारा नारद-सृञ्जय-संवादके रूपमें इनके यज्ञका उलट गया ( सभा०३८ । २९ के बाद, पृष्ठ ७९८)। वर्णन (शान्ति. २९ । ९४--९९)। इन्हे नहुषस यशोधर-(१) पाण्डव-पक्षीय दुर्मुखका पुत्र (द्रोण. खगकी प्राप्ति हुई और इन्होंने पूरुको वह खङ्ग प्रदान
१८४ । ५) । (२) श्रीकृष्णके रुक्मिणी देवीके गर्भसे किया (शान्ति० १६६ । ७४) । बोध्य ऋषिसे शान्तिके
उत्पन्न पुत्र (अनु. १४ । ३३)। विषयमें इनका प्रश्न (शान्ति. १७८ । ५)।
यशोधरा-त्रिगर्तगजकी पुत्री, जो पुरुवंशी महाराज हस्तीकी अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर इनका शपथ खाना
पत्नी और विकुण्ठनकी माता थीं ( आदि० ९५ । ३५)। ( अनु. ९४ । २७)। इनके द्वारा मांस-भक्षणका निषेध ( अनु० ११५ । ५८-६१ )।
याज-काश्यप गोत्रोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि, जो यमुना-तटपर ।
निवास करते थे। इनके छोटे भाईका नाम उपयाज था। ययातिपतन-एक तीर्थ, जहाँ जानेसे तीर्थयात्रीको अश्वमेध
ये वैदिक-संहिताके अध्ययनमें सदा संलग्न रहनेवाले, यज्ञका फल मिलता है (वन० ८२ । १८)।
सूर्यभक्त, सुयोग्य और श्रेष्ठ ऋषि थे ( आदि. १६६ । यवक्रीत-(१) भरद्वाजके पुत्र । वेदोंका ज्ञान प्राप्त करनेके
८)। उपयाजके द्वारा इनकी हीन मनोवृत्तिका वर्णन लिये इनकी घोर तपस्या (वन० १३५ । १६) । इन्द्रद्वारा (आदि० १६६ । १६)। द्रोणनाशक पुत्रकी प्राप्तिके इनका तपस्यासे निवारण (वन० १३५ । ३८) । रेभ्य लिये इनसे द्रुपदकी प्रार्थना (भादि. १६६ । २२मुनिके प्रकट किये हुए राक्षसद्वारा इनकी मृत्यु (वन. ३.)। द्रोण-विनाशक पुत्रेष्टि यज्ञमें सहयोग देनेके लिये १३६ । १९) । अर्वावसुके प्रयत्नसे इनका पुनरुज्जीवन
इनकी उपयाज' को प्रेरणा (आदि. १६६ । ३२)। (वन० १३८ । २२)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्म- द्रपदके अभीष्ट पुत्रके लिये यज्ञमें इनका आहति देना जीको देखनेके लिये गये थे ( अनु० २६ । ६ )। ( आदि० २६६ । ३९) । इनकी आहुतिद्वारा यज्ञ(२) ये अङ्गिराके पुत्र हैं और पूर्व दिशाका आश्रय
कुण्डसे धृष्टद्युम्न एवं द्रौपदीका प्राकट्य ( आदि० १६६ । लेकर रहते हैं (शान्ति० २०८ । २६)।
३९--४४)। यवक्षा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके
याज्ञवल्क्य-एक श्रेष्ठ ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजनिवासी पीते हैं (भीष्म०९।३०)।
मान होते थे (सभा०४।१२)। ये इन्द्रकी सभामें यवन-भारतवर्षकी एक जाति और जनपद-तुर्वसुकी संतान भी बैठा करते हैं (सभा० ।। १२)। ये युधिष्ठिरके . 'यवन' (या तुर्क) कहलायी ( आदि० ८५ । ३४)। राजसूय यज्ञमें अध्वर्य थे ( समा० ३३ । ३५ ) ।
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यातुधानी
युधिष्ठिर
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इनका विदेहराज जनकके पूछनेपर विविध ज्ञानविषयक युद्ध (द्रोग. ९२ । २७ -३२)। दुर्योधनके साथ इसका उपदेश देना ( शान्ति० अध्याय ३१० से ३१८ तक)। युद्ध ( द्रोण० १३० । ३०-४३ )। कृपाचार्यद्वारा गन्धर्वराज विश्वावसुके चौबीस प्रश्नोंका इनके द्वारा इसका पराजित होना ( कर्ण०६१। ५५-५६)। इसके समाधान ( शान्ति० ३३८ । २६---८४) । इन्हें सूर्य- द्वारा कर्णके भाई चित्रसेनका वध (कर्ण० ८३ । ३९)। देवसे वेदज्ञानकी प्राप्ति ( शान्ति. ३१८ । ६-१२)। अश्वत्थामाद्वारा इसका वध (सौप्तिक० ८ । ३८)। इनके सम्मुख सरस्वतीका प्राकट्य ( शान्ति. ३१८। यधिधिर-महाराज पाण्डके क्षेत्रज पुत्र (आदि । १४)। इन्हें विश्वामित्रका ब्रह्मवादी पुत्र कहा गया है
११४; आदि० ६३ । ११५-११६ )। धर्मराजके द्वारा (अनु० ४ । ५१ )।
कुन्तीके गर्भसे इनकी उत्पत्ति तथा इनके उत्पत्तिकालीन यातुधानी-जा वृषादर्भिद्वारा यज्ञसे प्रकट की हुई एक ग्रहोंकी स्थिति (आदि. १२२ । ६-७)। इनके जन्म
कृत्या ( अनु० ९३ । ५.)। तालाबपर गये हुए कालमें आकाशवाणी हुई । उसने बताया कि यह श्रेष्ठ सप्तर्षियोंसे इसका उनके नामका निर्वचन पूछना ( अनु० पुरुष धर्मात्माओंमें अग्रगण्य, पराक्रमी एवं सत्यवादी ९३ । ८.)। शुनःसख-रूपधारी इन्द्रद्वारा इसका वध राजा होगा । पाण्डुका यह प्रथम पुत्र 'युधिष्ठिर' नामसे (अनु. ९३ । १०५)।
विख्यात हो तीनों लोक में प्रसिद्धि प्राप्त करेगा । यह यानसन्धिपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
यशस्वी, तेजस्वी और सदाचारी होगा (आदि० १२२ । ४७ से ७१ तक)।
७-१०)। शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंद्वारा इनका नाम
करण-संस्कार ( आदि. १२३ । १९-२०)। वसुदेवके यामुन-(१) एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ५। ५१)।
पुरोहित काश्यपके द्वारा इनके उपनयन दि संस्कार (भादि. (२) गङ्गा-यमुनाके मध्यभागमें स्थित एक प्राचीन पर्वत
१२३ । ३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। राजर्षि शुकसे शिक्षा ( अनु. ६८।३)।
लेकर इनका तोमर चलानेकी कलामें पारंगत होना यायात-एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ राजा ययातिने यज्ञ किया
(आदि० १२३ । ३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ था। इसकी विशेष महिमाका वर्णन (शल्य. ४१ ।
३६९) । पाण्डुकी चितापर आरोहण करनेसे पूर्व माद्रीने ३२-३९)।
अपने पुत्रोंके मस्तक सूंघे और युधिष्ठिरका हाथ पकड़कर यायावर-मुनिवृत्तिसे कठोर व्रतका पालन करते हुए सदा कहा-पुत्रो ! अब बड़े भैया युधिष्ठिर ही तुम चारों भाइयोंके
इधर-उधर घूमते रहनेवाले गृहस्थ ब्राह्मणोंके एक समूह- पिता हैं' (आदि० १२४।२८ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, विशेषका नाम ! जरत्कारु मुनि यायावर ही थे (आदि. पृष्ठ ३.३) । शतशृङ्गनिवासो मुनि पाण्डवोको हस्तिना१३ । ११, १४)। यायावरोंके धर्मका वर्णन (अनु. पुरमें ले जाकर भीष्मजीसे युधिष्ठिरका परिचय कराते १४२ । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ५९३२)।
हुए बोले- महाराज पाण्डुको साक्षात् धर्मराजद्वारा यह यास्क-एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने अनेक योंमें नारायण- पुत्र प्राप्त हुआ है। इसका नाम युधिष्ठिर है ( भादि. का शिपिविष्ट नामसे गान किया है (शान्ति० ३४२ ।
१२५ । २२-२३)। दुर्योधनद्वारा जलविहारका प्रस्ताव
और युधिष्ठिरका उसे स्वीकार करना (आदि. १२७ । ७२)।
३५-३७) । धर्मात्मा युधिष्ठिरका भीमसेनको न देखयुगन्धर-(१) एक पर्वत या प्रदेश ( यहाँके लोग ऊँटनी
कर माता कुन्तीके पास जाकर भीमसेनके विषयमें पूछना और गदहीतकके दूधका दही बना लेते हैं, जो शास्त्र
और उनके लिये चिन्ता प्रकट करना । भीमसेनके खो जाने के निषिद्ध है।) (वन. १२९ । ९)। (२) एक
समाचारसे कुन्तीका चिन्तित होकर युधिष्ठिरको उनकी पाण्डवपक्षीय योद्धा, जिसने द्रोणाचार्यपर धावा किया
खोजके लिये आदेश देना (आदि. १२८ । ४-१२)। और अन्तमें यह द्रोणद्वार। मारा गया (द्रोण. १६ ।
भीमसेनका नागलोकसे आकर अपने बड़े भाई युधि३०-३१)।
ष्ठिरको प्रणाम करना और दुर्योधनकी कुचेष्टाको बताना । यगप-एक देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सव पधारे थे
युधिष्ठिरका भीमसेनको सर्वथा चुप रहनेकी सलाह देना ( आदि. १२२ । ५६ )
तथा सतत सावधान हो जाना ( आदि. १२८ । ३०युधामन्यु-पाण्डव-पक्षका एक श्रेष्ठ रथी, जो पाञ्चालदेशका . ३५) । इनका द्रोणाचार्यसे कृपाचार्यकी अनुमति ले राजकुमार था ( उद्योग० १७० । ५)। यह अर्जुनका सदा हस्तिनापुरमें ही रहकर भिक्षा ग्रहण ( जीवननिर्वाह) चक्ररक्षक था ( भीष्म० १५ । १९)। इसके रथके करनेके लिये कहना ( भादि. १३० । २६)। रथपर घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३1३)। कृतवर्मा के साथ बैठकर युद्ध करनेमें इनकी कुशलता ( आदि. १३५
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( २६८ )
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६३)। द्रोणाचार्यके द्वारा इनके लक्ष्यवेधकी परीक्षा ( आदि० १३१ । ७१-७७)। अर्जुनका युधिष्ठिरको द्रपदके साथ युद्ध करनेसे रोकना ( आदि. १३७ । २६) । धृतराष्ट्र द्वारा इनका युवराज-पदपर अभिषेक ( आदि० १३८ । २)। युधिष्ठिरने अपने शील सदाचार तथा मनोयोगपूर्वक प्रजापालनकी प्रवृत्ति के द्वारा अपने पिता महाराज पाण्डुकी कीर्तिको भी ढक दिया ( आदि. १३८ । ३)। प्रजावर्गका युधिष्ठिरको ही राज्य पानेके योग्य बताना (भादि०१४०१२३-२८) भाइयोंसहित वारणावत जानेके लिये उद्यत हो युधिष्ठिरका माननीय कौरवोंसे अनुमति एवं आशीर्वाद माँगना ( आदि. १४२ । ११-१६)। हस्तिनापुरके ब्राह्मणोंका धृतराष्ट्रके विषम बर्तावकी निन्दा करते हुए जहाँ युधिष्ठिर जायें वहीं घर-बार छोड़कर जानेका निश्चय करना, युधिष्ठिरका पुरवासियोंको समझाना और धृतराष्ट्र की ही आज्ञामें रहनेके लिये अनुरोध करना ( आदि० १४४।६१७) । लाक्षागृहमें कौरवोंके कुचक्रसे बचनेके लिये इनको विदुरका संकेत ( आदि. १४४ । १९-२६)। 'मैंने आपकी बात समझ ली, यह युधिष्ठिरका उत्तर तथा कुन्तीके पूछनेपर युधिष्ठिरका विदुरके कथनका उन्हें तात्पर्य बताना ( आदि. १४४ । २७-३३)। वारणावतवासियोंसे घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर देवमण्डलीके बीच साश्चात् इन्द्र के समान सुशोभित हुए ( आदि० १४५ । ४)। युधिष्ठिरका भीमसेनसे लाक्षागृहको अग्नि- दीपक पदार्थोसे बना हुआ बताकर उसमें सावधानीसे किसी गुप्त स्थानमें रहने और पापी पुरोचन एवं दुर्योधनको चकमा देकर वहाँसे भाग निकलनेके लिये परामर्श देना (आदि० १४५ । १३-३१) । विदुरके भेजे हुए खनकसे युधिष्ठिरकी बातचीत तथा भाइयोसहित अपनेको संकटमुक्त करनेके लिये उससे कोई उपाय करनेका अनुरोध ( आदि. १४६ । १-१५)। जतुगृहको जलानेके लिये इनका अपने भाइयोंको परामर्श (आदि.१४७१२-४)। विदुरके भेजे हुए नाविकका युधिष्ठिरको विदुरका संदेश सुनाना और माता एवं भाइयोसहित इन्हें गङ्गाजीके पार उतारना ( आदि० १४८ अध्याय )। भीष्म, कौरव तथा पुत्रों सहित धृतराष्ट्रका युधिष्ठिर आदिको जलाञ्जलि देना, पुरवासियों तथा भीष्मजीका उनके लिये शोक एवं विलाप करना और विदुरका भीष्मजीसे एकान्तमें युधिष्ठिर आदिके जीवित होनेकी बात बताना (आदि. १४९। १५-१८ के बाद दाक्षिणात्य पाठसहित)। धर्मराज युधिष्ठिरकी प्रेरणासे महाबली भीमसेनका भाइयों और कुन्तीको लेकर शीघ्रताके साथ चलना (भादि.१९ । २३-२६)। भीमसेनका माता
तथा युधिष्ठिर आदिकी दयनीय दशापर विषाद एवं रोष (आदि० १५० । २१-४३)। भीमसेनका हिडिम्बाको अपने ज्येष्ठ भ्राताका परिचय देना ( आदि. १५१ । ३१)। हिडिम्बाके मुखसे भीमसेन और हिडिम्बके युद्ध की बात सुनकर युधिष्ठिरका उछलकर खड़ा हो जाना (आदि. १५३ । १३)। हिडिम्बाको मारनेके लिये उद्यत हुए भीमसेनको इनका निषेध ( आदि. १५४ । २३)। कुन्तीसहित युधिष्ठिरसे हिडिम्बाकी भीमसेनके लिये प्रार्थना, कुन्तीका युधिष्ठिरसे इसके लिये सम्मति माँगना और युधिष्ठिरका कुछ शतोंके साथ हिडिम्बाके लिये भीमसेनको अपने साथ ले जानेका आदेश (आदि. १५४ । ४-14 के बाद दाक्षिणात्य पाठसहित )। भीमसेनको बक नामक राक्षसके पास भेजने के विषयमें युधिष्ठिर और कुन्तीकी बातचीत (आदि०१६: अध्याय)। पाञ्चालदेश चलनेके लिये युधिष्ठिरको मात की प्रेरणा और इनकी स्वीकृति (आदि० १६७ । ३-८)। चित्ररथ गन्धर्वकी प्राणरक्षाके लिये इनका अर्जुनको आदेश (आदि० १६९ । ३६-३७) । पाञ्चालयात्राके समय मार्गमें ब्राह्मणोंसे युधिष्ठिरकी बातचीत (आदि. १८३ अध्याय)। श्रीकृष्णका पाण्डवोंको पहचानकर बलरामजीसे युधिष्ठिर आदिका परिचय देना (आदि. १८६ । ९. १०)। कुन्तीका युधिष्ठिरसे अपने कथनकी सत्यतापूर्वक द्रौपदीकी अधर्मसे रक्षाके लिये उपाय पूछना ( आदि० १९ । ३-५)। इनका माता कुन्तीको आश्वासन देकर अर्जुनसे द्रौपदीके विषयमें वार्तालाप और द्रौपदी हम सभी भाइयोंकी पत्नी होगी, ऐसा निश्चय (आदि०१९०। ६१६)। श्रीकृष्ण और बलभद्रजीका कुम्हारके घर जाकर युधिष्ठिरको प्रणाम करना और युधिष्ठिरका उनसे कुशल पूछकर यह जिज्ञासा करना कि आपने कैसे हमें पहचान लिया (आदि० १९० । १८-२२)। द्रुपदके पुरोहितका युधिष्ठिरसे उन लोगोंका परिचय पूछना और द्रुपदकी कामना बताना, युधिष्ठिरका भीमसेनसे पुरोहितका पूजन कराकर उनसे सामयिक वार्तालाप करना और द्रुपदकी कामनाको सफल बताना (आदि. १९२ अध्याय)। पुरोहितके मुँहसे युधिष्ठिरका कथन सुनकर द्रुपदका पाण्डवोंके शील-स्वभावकी परीक्षा करना तथा उन सबको भोजन कराना (आदि. १९३ अध्याय)। इनके द्वारा अपने सभी भाइयोंका परिचय देकर द्रुपदको आश्वासन (आदि. १९४ । ८-१२)। द्रुपदका युधेष्ठिरसे लाक्षागृहसे सकुशल बचकर निकल आनेका समाचार पूछना और युधिष्ठिर का उन्हें सब कुछ बताना (आदि० १९४ । १५-१७)। द्रौपदीका विवाह किसके साथ हो, द्रुपदके यह पूछनेपर-द्रौपदी हम सभी भाइयोंकी महारानी होगी-ऐसा उन्हें उत्तर
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युधिष्ठिर
( २६९ )
युधिष्ठिर
देना और इस कार्यको धर्मसंगत बताना । पदका इनके इस निश्चयको लोकवेदविरुद्ध बताना और पुनः कुन्ती आदिके साथ बैठ कर इसपर विचार करनेके लिये प्रेरित करना (आदि. १९४ । २०-३२)। व्यासजीके पूछनेपर द्रौपदीक विवाह के सम्बन्ध में इनका निर्णय (आदि० १९५ । १३-१७)। द्रौपदीके साथ इनका विधिपूर्वक विवाह (आदि० १९७ । ११-१२)। युधिष्ठिरका आधा राज्य पाकर भाइयोसहित खाण्डवप्रस्थमें प्रवेश (आदि. २०६ । २३-२७)। श्रीकृष्णका विश्वकर्माद्वारा युधिष्ठिरके लिये खाण्डवप्रस्थमें एक दिव्य नगरका निर्माण कराना, युधिष्ठिरका उस नगर एवं भवनमें प्रवेश तथा द्वारकाको जाते हुए श्रीकृष्णसे युधिष्ठिरकी पाण्डवोंपर कृपा बनाये रखने और कर्तव्यकी अनुमति देनेके लिये प्रार्थना (आदि. २०६ । २८-५। के बाद दाक्षिणात्य पाठसहित)। भाइयोसहित युधिष्ठिरद्वारा धर्मपूर्वक प्रजाका पालन (आदि० २०७ । ५-८)। इनके पास देवर्षि नारदका शुभागमन ( आदि० २०७ । ९ के बाद दाक्षिणात्य पाठसहित)। राजा युधिष्ठिरद्वारा देवर्षि नारदका सत्कार तथा नारदजीका युधिष्ठिर आदिसे द्रौपदीके विषयमें कुछ नियम बनाने के लिये कहकर उन्हें सुन्द और उपसुन्दकी कथा सुनाना (आदि० २०७।१८ से आदि० २." अध्यायतक)। नियमभङ्गका प्रायश्चित्त करनेके लिये आज्ञा माँगनेवाले धनंजयको युधिष्ठिरका वनमें जानेसे रोकना ( आदि. २१२ । २७-३३)। सुभद्राहरणके लिये इनकी अर्जुनको अनुमति (आदि० २१८ । २५)। सुभद्राके लिये दहेज लेकर आये हुए श्रीकृष्ण-बलराम आदिका युधिष्ठिरसे मिलना तथा युधिष्ठिरद्वारा उन सबका सत्कार (आदि० २२० ॥३८--४३) । अभिमन्युके जन्मपर युधिष्ठिरका ब्राह्मणोंको दस हजार गौओंका दान करना (आदि. २२० । ६९)। द्रौपदीका युधिष्ठिरसे प्रतिविभ्यनामक पुत्र प्राप्त करना ( आदि. ६३ । १२२-१२३, आदि. ९५। ७५, आदि० २२० । ७९)। इनके द्वारा शिबिराजकुमारी देविकाके गर्भसे यौधेयकी उत्पत्ति ( आदि. ९५ । ७६)। युधिष्ठिर और उनके राज्यकी विशेषता (आदि० २२१ । २-१६)। श्रीकृष्ण का मयासुरको धर्मराज युधिष्ठिरके लिये एक दिव्य सभाभवन बनानेके लिये आदेश देना (सभा०११-१३)। श्रीकृष्णके द्वारका जाते समय उनके रथपर दारुकको हटाकर राजा युधिष्ठिरका स्वयं बैठना और घोड़ोंकी बागडोर सँभालना (समा. २ । १६-१७)। मयासुरका धर्मराज युधिष्ठिरको उनके लिये दिव्य सभाभवन तैयार हो जानेकी सूचना देना (सभा० ३ । ३७)। मनिर्मित सभाभवनमें इनका प्रवेश (सभा०।1-6)।नारदद्वारा इनको विविध
मङ्गलमय उपदेश ( सभा० ५ अध्याय )। इनकी दिव्य सभाओके विषयमे जिज्ञासा और नारद द्वारा उनका वर्णन ( सभा० अध्याय ६ से ११ तक)। राजसूय-यश करनेके लिये इनको नारदद्वारा पाण्डुका संदेश (सभा. १२ अध्याय)। इनका राजसूय यज्ञविषयक संकल्प और उसके विषयमें भाइयों, मन्त्रियों, मुनियों और श्रीकृष्णसे सलाह लेना (सभा० १३ अध्याय) । श्रीकृष्णकी युधिष्ठिरको राजसूय यज्ञके लिये सम्मति ( सभा० १४ अध्याय)। राजसूय यज्ञसे पहले जरासंधको मारने के लिये इनको श्रीकृष्णकी सलाह ( सभा० १५ अध्याय)। जरासंधको जीतनेके विषयमें इनके उत्साहहीन होनेपर अर्जुनका इनके प्रति उत्साहपूर्ण उद्गार ( सभा. १६ । ३)। श्रीकृष्णका इनके प्रति अर्जुनकी बातका अनुमोदन करते हुए इनके पूछनेपर उन्हें जरासंधकी उत्पत्तिका प्रसंग सुनाना (सभा. १७। १९) । इनके अनुमोदन करनेपर श्रीकृष्ण भीमसेन और अर्जुनकी मगधयात्रा (सभा० २० अध्याय)। अर्जुनका युधिष्ठिरसे उत्तरदिशाकी विजयके लिये जाने की आज्ञा माँगना और युधिष्ठिरका स्वस्तिवाचन कराकर जानेकी आज्ञा देना (सभा• २५ ।
-७)। अन्य भाइयोंका भी धर्मराजसे सम्मानित होकर दिग्विजयके लिये यात्रा करना और केवल धर्मराजका खाण्डवप्रस्थमें रह जाना ( सभा० २५ । ८-११)। युधिष्ठिरके शासनकी विशेषता, श्रीकृष्णकी आज्ञासे इनका राजसूय-यज्ञकी दीक्षा लेना तथा राजाओं, ब्राह्मणों तथा सगे-सम्बन्धियोंको बुलाने के लिये निमन्त्रण भेजना (सभा० ३३ अध्याय)। इनके यज्ञमें सब देशके राजाओं, कौरवों तथा यादवोंका आगमन और उन सबके भोजन, विश्राम आदिकी सुव्यवस्था (सभा० ३४ अध्याय)। इनके राजसूय-यज्ञका वर्णन (सभा० ३५ अध्याय)। युधिष्ठिरकी यज्ञशालाकी विशेषता और इनके उस धन-वैभव और यशविधिको देखकर देवर्षि नारदको संतोष ( सभा० ३६ । ९.१०)। भीष्मका युधिष्ठिरको राजाओंके लिये अWप्रदान करनेका आदेश तथा भीष्मसे पूछकर युधिष्ठिरका सबसे पहले श्रीकृष्णको सहदेवद्वारा अर्ध्य-प्रदान कराना (सभा० ३६ । २२-३१)। शिशुपालके विरोध करनेपर इनका उसे समझाना (सभा०३८ । १-५)। युधिष्ठिरका भीष्मजीसे भगवान् श्रीकृष्णके सम्पूर्ण चरित्रोंको सुननेकी इच्छा प्रकट करना और भीष्मजीक! भगवान्के अतीत वर्तमान और भावी अवतारोंका वर्णन करना ( सभा. ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८१-८२६तक)। शिशुपालके द्वारा राजसूय यज्ञमें उपद्रव खड़ा करनेपर इनकी चिन्ता और भीष्मद्वारा इनको आश्वासन (सभा० ४० अध्याय)। युधिधिरका अपने भाइयोंको
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युधिष्ठिर
( २७० )
युधिष्ठिर
शिशुपालका अन्त्येष्टि-संस्कार करने की आज्ञा देना और कन्तीको अपने ही घरमें सत्कारपर्वक रखनेकी इच्छा उसके पुत्रको चेदिदेशके राज्यपर अभिषिक्त करना प्रकट करना और उन सभी भाइयोंको सान्त्वना एवं (सभा ४५। ३४-३६) । इनके राजसूय यज्ञका । आशीर्वाद प्रदान करना ( सभा० ७८ । ५-२३)। विस्तृत वर्णन और उसकी समाप्ति (सभा० ४५ । ३७- कुन्तीका युधिष्ठिरादि पुत्रोंको वनकी ओर जाते देख आर्त३९ तथा दा. पाठ, पृष्ठ ८४१-८४३) । धर्मात्मा स्वरमे विलाप करना और युधिष्ठिर आदिका उन्हें प्रणाम युधिष्ठिरका अवभृथ स्नान, राजाओंका उन्हें बधाई देकर करके चल देना ( सभा० ७९ । १३-३०)। स्वदेश जाने के लिये अनुमति माँगना तथा युधिष्ठिरका उन युधिष्ठिरका वस्त्रसे मुख ढककर वनको जाना (सभा. सबको अपने राज्यकी सीमातक पहुँचा आनेके लिये ८०।४)। इनका अपने साथ आते हुए पुरवासियोंसे भाइयोंको आदेश देना (सभा० ४५ । ४०-४५)। लौट जानेका अनुरोध ( वन० । ३७)। साथ चलनेश्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे विदा माँगना और इनका गद्गद- वाले ब्राह्मणोंसे लौट जाने के लिये इनका अनुरोध (बन. कण्ठसे उन्हें जानेकी अनुमति देना । उनके जाते समय २।२-४)। इनके द्वारा सूर्यका स्तवन (वन०३। भाइयोसहित युधिष्ठिरका पैदल ही उनके पीछे पीछे जाना, ३६-६९)। सूर्यसे इन्हें अक्षयपात्रकी प्राप्ति (वन. श्रीकृष्णका अपने रथको रोककर युधिष्ठिरको कर्तव्यका ३। ०२)। इनका किर्मीरको अपना परिचय देना उपदेश दे उन्हें लौटाना और स्वयं भी आज्ञा लेकर जाना (वन०११।२६-२७)। श्रीकृष्णके मुखसे इनका (समा०४५।५१-६७)।राजसूय यज्ञके अन्तमें व्यास- शाल्वोपाख्यान-श्रवण (वन अध्याय १५ से २२ तक)। जीकी भविष्यवाणीसे इनको चिन्ता और समत्वपूर्ण वर्ताव इन्हें मार्कण्डेयजीका धर्मविषयक आदेश ( वन. करनेकी प्रतिज्ञा (सभा० १६ अध्याय)। इनके द्वारा २५। ८-१८)। इनके द्वारा क्रोधकी निन्दा और प्रतिदिन दस हजार ब्राह्मणोंको सोनेकी थालियोंमें भोजन क्षमाकी प्रशंसा (वन. २९ अध्याय)। द्रौपदीके कराना (सभा० ४९ । १८)। राजसूय यज्ञमें इनको आक्षेपका समाधान (वन० ३१ अध्याय)। इनका समुद्रद्वारा मधुकी भेंट ( सभा० ४९ । २६)। इनके भीमसेनको समझाते हुए धर्मपर ही डटे रहना ( वन. राजसूय यज्ञमें लाख ब्राह्मणोंके भोजन करनेपर शङ्खध्वनि ३४ अध्याय)। भीमसेनको समझाना (वन० ३६ । (सभा० ४९ । ३.)। युधिष्ठिरको भेटमें मिली हुई २-२०)। इन्हें व्यासजीसे प्रतिस्मृति विद्याकी प्राप्ति वस्तुओंका दुर्योधनद्वारा वर्णन (सभा अध्याय ५१ से (वन. ३६ । ३८)। इनका व्यासजीकी आज्ञासे ५३ तक)। धृतराष्ट्र की प्रेरणासे इनके पास विदुरका आना भाइयों तथा विप्रोसहित द्वैतवनसे काम्यकवनमें जाना
और इनका उनसे वार्तालाप (सभा० ५८।१६)। (वन. ३६ । ४१)। इनके द्वारा अर्जुनको प्रतिस्मृति इनका पुरोहित और सेवकोंके साथ सपरिवार हस्तिनापुरको विद्याका उपदेश (वन०३७ । १६) । इन्द्रका लोमशजाना ( सभा० ५८ । २० के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। को युधिष्ठिरके लिये संदेश देकर उनके पास भेजना और जूएके अनौचित्यके सम्बन्धमें इनका शकुनिके साथ संवाद इनकी रक्षाके लिये उन्हें नियुक्त करना (वन० ४७ । (सभा० ५१ अध्याय)। युधिष्ठिरद्वारा द्यत-क्रीडाका २४-३३)। इनका तेरह वर्षोंतक शान्त रहनेके आरम्भ (सभा० ६. । ६-९)। शकुनिके छलसे लिये भीमसेनको उपदेश (वन० ५२ । ३७-३९)। इनका जूएमें प्रत्येक दाँवपर हारना ( सभा. ६१ बृहदश्वसे वार्तालाप तथा नलोपाख्यान सुननेकी इच्छा अध्याय)।धन, राज्य, भाइयों तथा द्रौपदीसहित इनका प्रकट करना (वन० ५२ । ४२-५९)। बृहदश्वका अपनेको भी हारना (सभा०६५ अध्याय)। शत्रुओंको इन्हें नलोपाख्यान सुनाना और इनको महर्षि बृहदश्वसे मारनेके लिये उद्यत हुए भीमसेनको युधिष्ठिरका शान्त करना अक्षहृदय तथा अश्वविद्याकी प्राप्ति (वन० अध्याय ५३ से (सभा० ७२ अध्याय)। इन्हें धृतराष्ट्रका आश्वासन ७९ तक)। द्रौपदीका युधिष्ठिरसे अर्जुनके लिये चिन्ता एवं सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जानेकी आशा देना प्रकट करना (वन. ८० । ११ -१५) । युधि परके (सभा० ७३।२-१६)। इनका इन्द्रप्रस्थ लौटना पास देवर्षि नारदका आगमन, इनका नारदजीसे तीर्थयात्रा(सभा० ७३ । १७-१८)। धृतराष्ट्रकी आज्ञासे पुनः फलविषयक प्रश्न, नारदजीद्वारा भीष्म-पुलस्त्य-संवादको
एके लिये इनका मार्गमेंसे ही लौटना ( सभा० ७६।। प्रस्तुत करना और इन्हें ऋषियोंके साथ तीर्थयात्रा करनेके ६)। सबके मना करनेपर भी इनका शकुनिके साथ लिये आदेश देना (वन० अध्याय ८१ से ८५ तक)। पुनः जूआ खेलना और हारना (सभा० ७६ । २१- इनका धौम्यसे पुण्य तपोवन आश्रम एवं नदी आदिके २४)। इनका धृतराष्ट्र आदिसे वनगमनके लिये विदा विषयमें प्रश्न तथा धौम्यद्वारा इनके समक्ष चारों दिशाओंके लेना ( सभा. ७४।१-३) । विदुरका युधिष्ठिरसे तीर्थोंका वर्णन (धन-अध्याय 4 से ९० तक) युधिष्ठिरके
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पास महर्षि लोमशकः आगमन और इनसे अर्जुनको पाशुपत अनेकानेक उपाख्यान सुनाना (वन० अध्याय १२८ से आदि दिव्यास्त्र प्राप्त होनेकी बात बताकर इन्द्र का संदेश १३८ तक)। भाइयोसहित युधिष्ठिरकी उत्तराखण्ड-यात्रा, सुनाना (वन० ९१ अध्याय)। महर्षि लोमशके मुखसे लोमशजीद्वारा उसकी दुर्गमताका कथन, गङ्गाजीसे इन्द्र और अर्जुनका संदेश सुनकर युधिष्ठिरका प्रसन्न होना युधिष्ठिरकी रक्षाके लिये प्रार्थना तथा युधिष्ठिरका भीम
और इनका तीर्थयात्राके लिये उद्यत हो अपने अधिक सेनको द्रौपदीकी रक्षाके लिये सावधान रहनेके लिये आदेश साथियोंको विदा कर देना (वन० ९२ अध्याय)। देना और नकुल-सहदेवके शरीरपर हाथ फेरकर उन्हें ऋषियोंका युधिष्ठिरके पास आकर अपनेको भी तीर्थयात्राके सान्यना देना (वन० १३९ अध्याय) । युधिष्ठिरका लिये साथ ले चलनेका अनुरोध करना तथा इनका उनकी सहदेव एवं द्रौपदीसहित भीमसेनको धौम्य, सारथि, सेवक, बात मानकर ऋषियोंको नमस्कार करके तीर्थयात्राके लिये रथ, घोड़े तथा अन्यान्य ब्राह्मणोंके साथ लौट जानेकी आज्ञा प्रस्थान (वन० ९३ अध्याय)। महर्षि लोमशका देवताओं देना और अपने लौटनेतक गङ्गाद्वारमें प्रतीक्षा करनेको और धर्मात्मा राजाओंका उदाहरण देकर युधिष्ठिरको अधर्मसे कहना (वन० १४०।१-७)। इनका अर्जुनको न हानि बताना और तीर्थयात्राजनित पुण्यकी महिमा वर्णन देखनेके कारण भीमसेनसे अपनी मानसिक चिन्ता प्रकट करते हए आश्वासन देना (वन १४ अध्याय) । शमठ- करना एवं गन्धमादन पर्वतपर जानेका दृढ़ निश्चय करना का युधिष्ठिरसे अमूर्तरयाके पुत्र राजर्षि गयके यज्ञका वर्णन (वन० १४१ अध्याय)। गन्धमादनकी यात्रामें द्रौपदीके करना (वन० ९५।१८-२९)। इनका अगस्त्याश्रम- मूर्छित होनेपर इनका विलाप (वन० १४४।१०-१४)। में पहुँचकर वातापिके विनाशके विषयमें लोमशजीसे पूछना युधिष्ठिरका द्रौपदीको आश्वासन देकर भीमसेनसे यह पूछना और लोमशनीका इनसे अगस्त्यका चरित्र सुनाना ( वन० कि इस दुर्गम मार्गमें द्रौपदी कैसे चल सकेगी ( वन० अध्याय ९६ से ९९ । ३० तक)। युधिष्ठिरका पुनः अग- ४४ । २१-२२)। इनकी आज्ञासे भीमसेनद्वारा स्त्यका चरित्र सुनने की इच्छा प्रकट करना और लोमशका घटोत्कचका स्मरण और उसकी सहायतासे द्रौपदीसहित इन इनसे उनका चरित्र सुनाना (वन. अध्याय १०० से सब लोगोंका गन्धमादन पर्वत एवं बदरिकाश्रममें प्रवेश १०५ तक)। युधिष्ठिरके पूछनेपर लोमशजीका भगीरथके (वन. १४४ । २५ से १४५ अध्यायतक)। भीमसेनके आश्रयसे किस प्रकार समुद्र की पूर्ति हुई-यह प्रसंग सुनाना सौगन्धिक पुप्प लाने के लिये चले जानेपर भयंकर उत्पात (वन. अध्याय १०६ से १०९ तक) । युधिष्टिरके देखकर इनकी चिन्ता और घटोत्कचके सहारे सभीके साथ पूछनेपर लोमशजीका हेमकूटपर घटित होनेवाली अद्भुत इनका सौगन्धिक बनमें पहुँचना (वन. १५५ अध्याय)। बातोंका रहस्य बताना और ऋष्यशृङ्गका चरित्र सुनाना इनको आकाशवाणीद्वारा सौगन्धिक वनसे नर-नारायणाश्रम(वन० अध्याय १० से ११३ तक)। इनका कौशिकी, में लौट जानेका आदेश (वन० १५६ । १३-१६)। गङ्गासागर एवं वैतरणी नदी होते हुए महेन्द्र पर्वतपर ___अपहरण करते समय जटासुरको इनकी फटकार (वन. गमन (वन० ११४ अध्याय)। अकृतव्रणका युधिष्ठिरसे १५७ । १२-३०)। इनके द्वारा भीमसेनसे गन्धमादनजमदग्निकी उत्पत्तिा प्रसंग सुनाते हुए परशुरामजीके की रमणीयताका वर्णन (वन० १५८ । ७७--१०.)। उपाख्यानका वर्णन करना (वन० अध्याय ११५से ११७। प्रश्न के रूमें आर्टिषेणका युधिष्ठिरको उपदेश (वन. १५ तक ) । महेन्द्र पर्वतपर इन्हें परशुरामका दशन तथा १५९ अध्याय)। गन्धमादन पर्वतपः राक्षसों के वर करनेइनके द्वारा उनका पूजन (वन०१७।१६-१८)। इनका पर इनके द्वारा भीमसेनकी भर्त्सना (वन० १६ । विभिन्न तीर्थोंमें होते हुए प्रभासक्षेत्रमें पहुँचकर त स्यामें १०-१२)। इनको कुबेरसे भेंट तथा उनके द्वारा इन्हें प्रवृत्त होना और यादवोंका भाइयोसहित इनसे मिलना सान्त्वना (वन० १६१ । ४३-४६)। धौम्यका युधिष्ठिर (वन० 11८ अध्याय)। बलदेवजीका इनके प्रति सहा- को मेरु पर्वत तथा उसके शिखरोंपर स्थित ब्रह्मा, विष्णु नुभूति-सूचक उद्गार (वन० ११९ अध्याय)।इनके द्वारा आदिके स्थानोंका लक्ष्य कराना और सूर्य-चन्द्रमाकी गति श्रीकृष्णके कथनका अनुमोदन (वन० १२० । २७)। एवं प्रभाका वर्णन करना (वन० १६३ अध्याय)। युधिष्ठिर लं मशद्वारा युधिष्ठिरसे राजा गयके यज्ञकी प्रशंसा, च्यवन- आदिका अर्जुनके लिये उत्कण्ठित होना और इनके समीप सुकन्याके चरित्रका वर्णन ( वन० अध्याय १२१ से अर्जुनका आगमन ( वन० १६४ अध्याय ) । अर्जुनका १२५ तक)। युधिष्ठिरके पूछने पर लोमशद्वारा मान्धाताके युधिष्ठिरके चरणोंमें प्रणाम करके सब भाइयों और द्रौपदीसे चरित्रका वर्णन और सोमक तथा जन्तुके उपाख्यानका मिलना और युधिष्ठिरके पास विनीतभावसे खड़ा होना (वन कथन (वन० अध्याय १२६ से १२७ तक)। लोमशका १६५ । ४-५) । इनके द्वारा गन्धमादनपर इन्द्रका युधिष्ठिरको विभिन्न तीर्थोकी महिमाका वर्णन करते हुए स्वागत-सत्कार तथा उनको सान्त्वना देकर इन्द्रका लौटना
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युधिष्ठिर
( २७२ )
युधिष्ठिर
-
(वन० १६६ अध्याय ) । अर्जुनद्वारा इनके समक्ष अपनी बताना, युधिष्ठिरका कौरवोंको बन्धनसे छुड़ाना, गन्धर्वोकी तपस्या, यात्रा तथा स्वर्ग-यात्राके वृत्तान्तका वर्णन (वन. प्रशंसा करना और दुर्योधनको प्रेमपूर्वक दुःसाहससे निवृत्त भध्याय १६७ से १७३ तक)। अर्जुनद्वारा यात्राका वृत्तान्त होनेकी सलाह देना ( वन० २४६ । १२-२३)। सुनकर इनके द्वारा उनका अभिनन्दन तथा दिव्यास्त्र-दर्शन- दुःशासनका युधिष्ठिरके पास दूत भेजकर उन्हें दुर्योधनके की इच्छा (वन० १७४ । ११-१५)।युधिष्ठिर और भीम- वैष्णव-यज्ञमें आनेके लिये संदेश कहलाना तथा युधिष्ठिर सेनका वार्तालाप (वन० १७६ । ७-१७)। भाइयोसहित का दुर्योधनके यज्ञकर्मकी प्रशंसा करके समय-पालनसे युधिष्ठिरका गन्धमादनसे बदरिकाश्रम आदि स्थानोंमें होते पहले आनेमें असमर्थता प्रकट करना ( वन० २५६ । हुए द्वैतवनमें प्रवेश (वन० १७७ अध्याय)। युधिष्ठिरको ७--१४)। कर्णद्वारा अर्जुन-वधकी प्रतिज्ञा सुनकर अनिष्ट-दर्शनसे चिन्ता तथा उनके द्वारा भीमसेनकी खोज इनकी चिन्ता (वन. २५७ । २३-२४ ) । स्वप्नमें करते हुए उनके पास पहुँचकर उन्हें अजगरके वशमें पड़ा मृगौसे प्रेरित होकर भाइयोसहित युधिष्ठिरका काम्यकवनमें हुआ देखना (वन० १७९ अध्याय)। इनकी अजगर- गमन (वन० २५८ अध्याय )। युधिष्ठिरकी चिन्ता, रूपधारी नहुषसे बातचीत तथा इनके द्वारा अपने प्रश्नों- व्यासजीका आगमन, युधिष्ठिरद्वारा उनका सत्कार, उनका का उचित उत्तर पाकर संतुष्ट हुए सर्परूपधारी नहुषका युधिष्ठिरसे तप और दानकी महिमा बताना और उनके भीमसेनको छोड़ देना और युधिष्ठिरके साथ वार्तालाप करने
पूछनेपर तपसे भी दानको ही श्रेष्ठ बताना (वन० २५९ के प्रभावसे सर्पयोनिसे मुक्त हो स्वर्गको जाना (वन० । अध्याय)। दुर्योधनका दुर्वासाको संतुष्ट करके उनसे अध्याय १८० से १८१ तक)। युधिष्ठिर आदिका पुन: युधिष्ठिरका अतिथि होनेके लिये कहना (वन० २६२ । द्वैतवनसे काम्यकवनमें प्रवेश (वन. १८२ । १७. ७-२२)। इनके द्वारा दुर्वासाका अतिथि-सत्कार १८)। सत्यभामासहित श्रीकृष्णका युधिष्ठिरके पास आना (वन. २६३ । २-४)। द्रौपदीहरणके अवसरपर
और इनको तथा भीमसेनको प्रणाम करना (वन० १८३।। इनका त्रिगर्तराजके साथ युद्ध और इनके द्वारा उसका ७-८)। इनके द्वारा श्रीकृष्णको बातोंको सुनकर उनका
वध, भीमद्वारा बदी होकर जयद्रथका युधिष्ठिरके सामने अनुमोदन करना (वन. १८३ । १६-४०)। इनके उपस्थित होना, उसकी दशा देखकर युधिष्ठिरका हँसना और पास मार्कण्डेयजीका शुभागमन तथा इनके पूछनेपर उसे दासभावसे मुक्त करके छोड़ देनेका आदेश देना तथा मार्कण्डेयजीद्वारा कर्मफलका विवेचन (वन. १८३ । जयद्रथको उसके दुष्कर्मके लिये धिकारकर जानेके लिये ४१-९५) । इनका मार्कण्डेयजीसे सर्वकारण काल- आज्ञा देना ( वन० २७२ । १४---२३ )। अपनी विषयक जिज्ञासा (वन०१८८२-१६) मार्कण्डेयजीसे कलि
दुरवस्थासे दुखी हुए युधिष्ठिरका मार्कण्डेय मुनिसे प्रश्न युगके प्रभावका वर्णन करनेके लिये प्रश्न (वन०१९०१२-६)। करना और उनका उन्हें श्रीरामोपाख्यान सुनाना, अन्तमें युधिष्ठिरके पूछनेपर मार्कण्डेयजीका इनके लिये धर्मका
राजा युधिष्ठिरको आश्वासन देना (वन० अध्याय २७३ उपदेश (वन. १९१ । २१-३०)। युधिष्ठिरका
से २९२ तक)। युधिष्ठिरकी मार्कण्डेयजीसे द्रौपदी-जैसी उनके बताये धर्मके पालनकी प्रतिज्ञा करना ( वन. दूसरी किसी पतिव्रता नारीके विषयमें जिज्ञासा और १९११३१-३२)। पतिव्रता और धर्मब्याधकी कथा सुनकर मार्कण्डेयजीका उनके प्रश्न के उत्तरमें सावित्रीका उपाख्यान युधिष्ठिरका संतोष प्रकट करना (वन० २१६ । ३६)। सुनाना (वन० अध्याय २९३ से २९९ तक)। युधिष्ठिरयुधिष्ठिरकी अग्निके विषयमें जिज्ञासा और मार्कण्डेयजीद्वारा का नकुलको वृक्षपर चढ़कर पानीका पता लगानेके लिये अग्निवंशका वर्णन ( वन० अध्याय २१७ से २२२
कहना (वन० ३१२ । ५.६)। नकुलके पानीका पता तक)। युधिष्ठिरके पूछनेपर मार्कण्डेयजीका इन्हें कार्ति- लगानेपर युधिष्ठिरका उनको तरकसोंमें पानी भर लानेका केयके जन्म-कर्मका वृत्तान्त सुनाना (वन० अध्याय आदेश (वन० ३१२ । ९)। नकुलके लौटनेमें देर २२३ से २३१ तक ) । इनका कार्तिकेयके त्रिलोक- होनेपर युधिष्ठिरका सहदेवको भेजना ( वन० ३१२ । विख्यात नामोंको सुननेकी इच्छा प्रकट करना और १४-१५)। उनके लौटने में भी विलम्ब होनेपर इनका मार्कण्डेयजीका इन्हें उन नामोंको सुनाना (वन० २३२ अर्जुनको पहलेके गये हुए दोनों भाइयोंको बुलाने और अध्याय)। युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंका समाचार सुनकर पानी लानेके लिये आदेश देना (बन० ३१२। २०. धृतराष्ट्रका खेद और चिन्तापूर्ण उद्गार (वन० २३६ ।। २१)। उनके लौटनेमें भी देर होनेपर युधिष्ठिरका भीमअध्याय)। इनका भीमसेनको गन्धर्वोके हाथसे कौरवोंको
सेनको भेजना (वन० ३१२ । ३३-३५) । अन्तमें छुड़ानेका आदेश ( वन. २४३ । १--१९ )। युधिष्ठिरका जलाशयके तटपर जाना (वन. ३१२ । चित्रसेनका युधिष्ठिरके पास आना, दुर्योधनकी कुचेष्टाको ११-४५)। द्वैतवनमें जलके लिये गये हुए चारों
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युधिष्ठिर
( २७३ )
युधिष्ठिर
भाइयोंको सरोवरपर पड़ा देखकर विलाप करना (वन० ३१३।४-२७)। युधिष्ठिरका सरोवरके जलमें प्रवेश
और यक्षका उन्हें अपने प्रश्नोंका उत्तर देकर ही पानी पीने और ले जानेका आदेश देना (वन० ३१३ । २८३०)। 'तुम कौन हो ?' युधिष्ठिरके यह पूछनेपर यक्षका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देना और युधिष्ठिरका अपनी बुद्धिके अनसार उसके प्रश्नोंका उत्तर देनेकी प्रतिज्ञा करना (वन० ३१३ । ३१-३४)। इनका यक्षके प्रश्नोंका उत्तर देना (वन० ३१३ । ४५---१२१) । 'तुम अपने भाइयोंमेंसे जिस एकको चाहो, वह अकेला ही जीवित हो सकता है। यक्षके ऐसा कहनेपर युधिष्ठिरका नकुलके जीवित होनेकी इच्छा प्रकट करना--इस विषयमें यक्ष और युधिष्ठिरका संवाद । इनकी बातसे संतुष्ट हुए यक्षका इनके सभी भाइयोंके जवित होनेका वर देना (वन० ३१३ । १२२--1३३). यक्षका चारों भाइयोंको जिलाकर धर्मके रूपमें प्रकट हो युधिष्ठिरको वरदान देना (वन३१४ अध्याय)। अज्ञातवासके विषयमें अनुमति लेते समय युधिष्ठिरको महर्षि धौम्यका समझाना और भीमसेनका उत्साह देना ( वन० ३१५।२६)। युधिष्ठिरका ब्राह्मणको अरणीसहित मन्यनकाष्ठ सौंपना और अपने भाइयोंको एकत्र करके अर्जुनसे कोई उत्तम निवासस्थान चुननेके लिये कहना ( विराट० । ६-९)। इनका विराटनगरमें अशतवासका एक वर्ष बितानेका निश्चय प्रकट करना और अर्जुनके पूछनेपर विराटनगरमें अपने द्वारा किये जानेवाले भावी कार्यक्रमको बताना (विराट० १ । १५-२८)। इनका भीमसेनसे उनके भावी कार्यक्रमको पूछना (विराट०१। दाक्षिणात्य पाठसहित २८)। अर्जुनके भावी कार्यक्रमके विषयमें पूछना (विराट० २ । ११-२४) । नकुलके कार्यके विषयमें जिज्ञासा करना ( विराट० ३।२)। सहदेवसे उनका भावी कार्यक्रम पूछना ( विराट. ३।७)। द्रौपदीके कार्यक्रमके विषयमें पूछना (विराट. ३।१४-१७)। इनका द्रौपदीको प्रोत्साहन देना (विराट० ३ । २२-२३)। इनका पुरोहित और द्रौपदीकी सेविकाओंको रसोइयोसहित पाञ्चालदेशमें जानेका आदेश देना तथा इन्द्रसेन आदिको केवल रथ लेकर द्वारका भेजना (विराट. ४ । १-५)। धौम्यका इन्हें राजाके यहाँ रहनेका ढंग बताना (विराट०४।७-५१) इनका धौम्यके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना (विराट. ४। ५२-५३)। इनका द्रौपदीको कंधेपर बिठाकर ले चलनेके लिये अर्जुनको आदेश देना (विराट० ५। . )। राजधानीके समीप पहुँचकर इनका अर्जुनको अपने-अपने भस्त्र उतारकर कहीं रख देनेकी आज्ञा देना (विराट.
म० ना० ३५
५।९-१२)। इनका नकुलको शमी वृक्षपर चढ़कर सबके धनुष रखनेकी आज्ञा देना और पाँचों भाइयों के गुप्त नाम निश्चित करना (विराट० ५। २८-३५)। इनके द्वारा दुर्गादेवीका स्तवन और देवीका प्रत्यक्ष प्रकट होकर इन्हें वर देना (विराट० ६ अध्याय)। युधिष्ठिरका राजा विराटसे मिलना और उनके यहाँ आदरपूर्वक निवास पाना (विराट० . अध्याय)। कीचकद्वारा मारी जानेपर द्रौपदीको इनका संकेतसे आश्वासन देना (विराट. १६ । ४०-४४)। सुशर्माके हाथसे विराटको छुड़ानेके लिये भीमसेनको आदेश (विराट. ३३।११-१३)। इनका एक हजार त्रिगौंको युद्ध में मार गिराना (विराट. ३३ । ३३ ) । सुशर्माको दासभावसे मुक्त करना (विराट. ३३ । ६.)। इनके द्वारा राजा विराटका अभिनन्दन (विराट० ३४ । १४)। इनके द्वारा की गयी बार-बार बृहन्नलाकी प्रशंसासे रुष्ट हुए विराटका युधिष्ठिरके मुखपर पासेसे प्रहार करना और इनकी नाकसे रक्त गिरना (विराट० ६८ । ३७-४७)। उत्तरके कहनेसे विराटका युधिष्ठिरसे क्षमा माँगना और इनका पहलेसे ही किये हुए क्षमादानको सूचित करना (विराट. ६८।६१-६५)। अर्जुनका राजा विराटको महाराज युधिष्ठिरका परिचय देना (विराट. ७० अध्याय)। विराटका युधिष्ठिरको राज्य समर्पण करके अर्जुनके साथ उत्तराके विवाहका प्रस्ताव करना (विराट०७१।२८३५)। इनका मत्स्यनरेशकी कन्या और पार्थपत्र अभिमन्युके सम्बन्धका अनुमोदन करना और मित्रों के यहाँ निमन्त्रण भेजना ( विराट. ७२ । १२-१३)। अभिमन्यु और उत्तराका विवाह हो जानेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिरद्वारा ब्राह्मणोंको धन, सहस्रों गौ, नाना प्रकारके रत्न, भाँति-भाँतिके वस्त्र, आभूषण, वाहन और शय्या आदिका दान (विराट. ७२ । ३८-४०)। विराट सभामें युधिष्ठिर आदिके समक्ष भगवान् श्रीकृष्ण, बलराम, सात्यकि और द्रुपदके भाषण (उद्योग. अध्याय १ से १ तक)। अर्जुन के साथ युद्ध होनेके समय कर्णका सारथि बननेपर उसके उत्साहको नष्ट करनेके लिये इनकी शल्यसे प्रार्थना (उद्योग० ८ । ४५; उद्योग० १८ । २३)। युधिष्ठिरकी सहायताके लिये आयी हुई सेनाओंका संक्षिप्त विवरण (उद्योग० १९।१-१५)। संजयसे कौरवपक्षका कुशल पूछते हुए इनका सारगर्भित प्रश्न करना (उद्योग. २३ । ६-२८) । इन्द्रप्रस्थ लौटानेपर ही शान्ति सम्भव होगी-संजयसे ऐसा कथन ( उद्योग २६ । २९)। संजयकी बातोंका उत्तर देना ( उद्योग २८ अध्याय)। संजयके विदा होते समय प्रधान-प्रधान कुरुवंशियोंको इनका संदेश (उद्योग०३०।३-१९)।
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युधिष्ठिर
( २७४ )
युधिष्ठिर
दुर्योधनसे पाँच गाँवकी माँगका संदेश ( उद्योग. ३१।१९)। इनके रथका वर्णन (उद्योग० ५६ । १४)। इनका श्रीकृष्णसे धृतराष्ट्रके लोभकी चर्चा करते।
और धनकी महत्ता बताते हुए अपना अभिप्राय निवेदन करना (उद्योग०७२। ६-७०)। माता कुन्ती और कौरवोंसे कहने के लिये श्रीकृष्णको संदेश देना ( उद्योग ८३ । ३७-४८)। कुन्तीका श्रीकृष्णसे युधिष्ठिर आदिके कुशल-समाचार पूछना और अपने दुःखौंको याद करके रोना (उद्योग. ९०। ४-८९) । कुन्तीके द्वारा युधिष्ठिरको संदेश ( उद्योग० अध्याय १३२ से १३६ तक)। इनका श्रीकृष्णसे कौरवसभाका समाचार पूछना
और श्रीकृष्णका इन्हें उत्तर देना (उद्योग० अध्याय १४७ से १५० तक)। प्रधान सेनापति चुननेके लिये इनका प्रस्ताव (उद्योग० १५१।८)। कुरुक्षेत्रमें अपनी सेनाका पड़ाव डालना ( उद्योग. १५२ । १)। श्रीकृष्णसे अपने कर्तव्यके विषयमें पूछना (उद्योग. १५४ । ५) । अपने सेनापतिका अभिषेक करना (उद्योग. १५७ । ११-१४)। उलूकको दुर्योधनके संदेशका उत्तर देना (उद्योग. १६२ । ५१-५६) उद्योग. १६३ । २५-३०)। इनका अर्जुनसे उनकी शक्ति जानने के लिये प्रश्न करना (उद्योग० १९४।७)। अपनी सेनाको कुरुक्षेत्रके मैदानमें ले जाना (उद्योग० १९६ अध्याय)। अर्जुनको अपनी सेनाकी न्यूहरचना करनेका आदेश देना ( भीष्म १९ । ६)। कौरवसेनाको देखकर इनका विषाद करना (भीष्म०२१।३५)। अपना अनन्तविजय नामक शङ्ख बजाना (भीष्म० २५।१६)। भीष्मसे युद्धके लिये आज्ञा मांगना (भीष्म०४३ । ३७)। द्रोणाचार्यको प्रणाम करके
से युद्ध के लिये आज्ञा माँगना (भीष्म ४३ । ५२)। कृपाचार्यका सम्मान करके उनसे भी युद्ध के लिये आज्ञा माँगना (भीम० ४३ । ६९)। शल्यसे युद्ध के लिये आशा माँगना ( भीष्म० ४३ । ७४) । युधिष्ठिरका कौरववीरों को अपने पक्षमें आनेके लिये निमन्त्रित करना और आये हुए युयुत्सुको अपने पक्षमें ले लेना (भीष्म ४३ । ९४-१०१)। प्रथम दिनके युद्ध में शल्यके साथ इनका द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म० ४५ । २८-३०)। भीष्मका पराक्रम देखकर इनकी चिन्ता (भीष्म ५०। ४२४)। इनका शल्यके साथ युद्ध (भीष्म०७१।१८२१)। इनके द्वारा अपनी सेनाके वज्रब्यूहका निर्माण (भीष्म.८१।२२-२३)। इनका भयंकर कोप और इनके द्वारा श्रुतायुकी पराजय (भीष्म० ८४ । ८-१७)। शिखण्डीको उपालम्भ देना (भीष्म.८५। २०-२५)। भीष्मसे भयभीत होकर इनका धनुष-बाण फेंक देना
(भीष्म० ८५ । ३१) । भीष्मके साथ युद्ध और इनकी पराजय (भीष्म० ८६ । २-११)। इनपर भगदत्तका आक्रमण ( भीष्म० ९५ । ८४)। भीष्मका इन्हें सब
ओरसे घेर लेना (भीष्म. १०२। २७-२८) । इनका शकुनिके साथ युद्ध (भीष्मः १०५।११-२३) । शल्यके साथ युद्ध (भीष्म० १०५ । ३०-३३) । इनका करुणापूर्ण शब्दोंमें भीष्मवधके लिये श्रीकृष्ण मे सलाह पूछना (भीष्म. १०७ । १३-२४) । भीष्मवधका उपाय उन्हींसे पूछनेके लिये श्रीकृष्णसे कहना (भीष्म० १०७ । ४१-५१)। भीष्मके पास जाकर उनसे उनके वधका उपाय पूछना (भीष्म. १०७ । ६२-७४)। द्रोणाचार्यके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११० । १७ भीष्म १११ । ५०-५२)। भीष्मके आदेशसे अपनी सेनाको उनपर आक्रमण करने की आज्ञा देना (भीष्म ११५। १७-२०)। शल्यके साथ दन्द्वयुद्ध (भीष्म ११६ । ४०-४१)। श्रीकृष्णसे वार्तालाप (भीष्म. १२० । ६९-७०)। धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०।७-१२)। द्रोणाचार्यकी अपनेको पकड़नेकी प्रतिज्ञा सुनकर अर्जुनको अपने पास ही रहने के लिये कहना (द्रोण० १३ । ३-६)। द्रोणाचार्यसे अपनी रक्षाके लिये इनका अर्जुनको आदेश देना (द्रोण. १७ । १२-१३)। द्रोणाचार्यद्वारा निर्मित गरुडव्यूहको देखकर इनका भयभीत होना (द्रोण० २०।२०-२१)। इनके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । १०)। शल्यके साथ युद्ध (द्रोण. २५ । १५-१७)। भगदत्तको विशाल रथ-सेनाके द्वारा इनका घेरना (द्रोण० २६ । ३१-३९) । अभिमन्युको व्यूह-भेदनके लिये कहना (द्रोण० ३५ । १४-१७)। जयद्रथका इन्हें व्यूहमें घुसनेसे रोक देना (द्रोण० ४२ । ३-८)| अभिमन्युकी मृत्युके पश्चात् इनका अपने सैनिकोंको सान्त्वना देना (द्रोण०४९।३५)। अभिमन्युकी मृत्युपर इनका करुणविलाप (द्रोण. ५१ अध्याय)। व्यासजीसे मृत्युकी उत्पत्ति आदिके विषयमें प्रश्न करना (द्रोण. ५२ । १८-१९)। व्यासजीके समझानेसे अभिमन्यु-वधजनित शोकसे रहित होना (द्रोण०७१ । २५-२६)। अर्जुनसे अभिमन्युवधका वृत्तान्त कहना (द्रोण ७३ । १--१६)। इनकी युद्धकालमें भी दान-पूजन आदिकी नित्य-चर्या (द्रोण. ८२ अध्याय)। जयद्रथ वधके लिये की गयी अर्जुनकी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेके लिये श्रीकृष्णसे प्रार्थना करना (द्रोण० ८३ । १०--१९) । अर्जुनको विजयका आशीर्वाद देना (द्रोण० ८४ । ४)। इनका शल्यके साथ युद्ध (द्रोण० ९६ । २९-३०)। कृतवर्मापर इनका आक्रमण (द्रोण. ९७।२)। द्रोणाचार्यके
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युधिष्ठिर
साथ युद्ध और उनके द्वारा इनकी पराजय ( द्रोण० १०६ । १८-४७ - ४७ ) । सात्यकिकी रक्षा के लिये सैनिकों को 'आदेश देना ( द्रोण० ११० । १४ – १९ ) । इनका सात्यकिकी प्रशंसा करते हुए उन्हें अर्जुनकी सहायता के लिये जानेका आदेश (द्रोण० ११० । ४२ - १०३)। अपनी रक्षाका समुचित प्रबन्ध बताकर इनका सात्यकिको अर्जुनकी सहायता के लिये जानेका ही आग्रहपूर्ण आदेश ( द्रोण० १११ । ४० – ५१ ) । दुर्योधनके साथ युद्ध ( द्रोण० १२४ । १५ – ४७ ) । इनकी अर्जुन और सात्यकिके लिये चिन्ता तथा भीमसेनको उनका पता लगानेके लिये भेजना ( द्रोण० १२६ अध्याय ) । भीमसेन और अर्जुनका सिंहनाद सुनकर प्रसन्नतापूर्वक उन्होंके विषय में विचार करना ( द्रोण० १२८ । ३९ - ५५ ) । जयद्रथ
के बाद श्रीकृष्णकी स्तुति करना ( द्रोण ० १४९ । ५ – ३४ ) । इनके द्वारा भीमसेन और सात्यकिका अभिनन्दन ( द्रोण० १४९ । ५४ - ६० ) । दुर्योधन के साथ युद्ध और उसे मूच्छित करना ( द्रोण० १५३ । २९ - ३९ ) | द्रोणाचार्य के साथ युद्ध और उन्हें पराजित करना ( द्रोण० १५७ । २७ - ४३ ) द्रोणाचार्य के साथ युद्ध और उन्हें मूर्हित करना (द्रोण० १६२ । ३६— ४२ ) । इनका पैदल सैनिकोंको दीप जलानेका आदेश देना ( द्रोण० १६३ । २७ ) । कृतवर्मा के साथ युद्ध और उसके द्वारा परास्त होना ( द्रोण० १६५ । २४४० ) । कर्णके पराक्रमसे इनकी घबराहट ( द्रोण ० १७३ । २५ – २८ ) । घटोत्कच वधसे शोक-विह्वल होना ( द्रोण० १८३ । २७ – ५० ) । धृष्टद्युम्न आदि महारथियों को द्रोणाचार्यपर आक्रमण करनेका आदेश ( द्रोण० १८४ । ३–८ ) । द्रोणाचार्यसे छलपूर्वक अश्वत्थामा के मरनेकी बात कहना ( द्रोण० १९० । ५५ ) । अर्जुन से कौरव सेना के सिंहनादका कारण पूछना ( द्रोण० १९६ । १० -- २५ ) | नारायणास्त्र के प्रभावको देखकर इनका खेद प्रकट करना ( द्रोण० १९९ । २६-३६ ) । कर्णसे युद्धके लिये अर्जुनको व्यूह बनानेका आदेश देना ( कर्ण० ११ । २३ - २७) । इनके द्वारा दुर्योधनकी पराजय ( कर्ण० २८ । ७-८; कर्ण २९ । ३२) | अपने पक्ष के वीरोंको उनके योग्य प्रतिपक्षियोंके साथ लड़नेका आदेश ( कर्ण० ४६ । ३४-३६ ) । कर्णके साथ युद्ध में उसे मूच्छित करना ( कर्ण० ४९ । २१ ) । कर्णसे पराजित होकर इनका युद्धस्थलसे हट जाना ( कर्ण० ४९ । ४९ ) । अश्वत्थामासे पराजित होकर इनका युद्धस्थल से हट जाना ( कर्ण० ५५ ॥ (३८ ) । इनपर कौरव - सैनिकका आक्रमण और कर्ण के प्रहारसे व्याकुल होकर युद्धस्थलसे हट जाना ( कर्ण०
( २७५ )
युधिष्ठिर
६२ । ३१ ) । कर्णद्वारा घायल हो भागकर छात्रनीमें चला जाना ( कर्ण ० ६३ । ३३-३४ ) । अर्जुनसे भ्रमवश कर्णके मारे जानेका वृत्तान्त पूछना (कर्ण० ६६ अध्याय) अर्जुनके प्रति अपमानजनक क्रोधपूर्ण वचन बोलना ( कर्ण० ६८ अध्याय ) । अर्जुनके अपमान से दुखी होकर वन जानेके लिये उद्यत होना ( कर्ण० ७० । ४३— ४७) । अर्जुनके साथ प्रेमपूर्वक मिलना और उन्हें आशीर्वाद देना ( कर्ण० ७१ । ३० – ३४, ४० ) । कर्णकी मृत्युसे प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण और अर्जुनकी प्रशंसा करना ( कर्ण० ९६ । ४१ - ४५ ) । इनके द्वारा शल्यके चक्ररक्षक चन्द्रसेन और द्रुमसेनका वध ( शल्य० १२ । ५२-५३ ) । शल्यके साथ युद्ध ( शल्य० १३ अध्याय १५ अध्याय ) । इनके द्वारा शल्यकी पराजय ( शल्य० १६ । ६२-६६ ) । शल्यका वध ( शल्य० १७ । ५२ ) । इनके द्वारा शल्यके छोटे भाईका वध ( शल्य० १७ । ६४-६५ ) । इनके द्वारा कृतवर्माकी पराजय ( शल्य १७ । ८६-८७ ) । इनका सेनासहित द्वैपायनसरोवरपर जाना (शल्प ० ३० । ५३५४ ) । जलमें छिपे हुए दुर्योधनको युद्धके लिये ललकारना ( शल्य० ३१ । १८ – ७३ ) । इममें से किसी एकका वध कर देनेपर राज्य तुम्हारा होगा- ऐसा दुर्योधनको वर देना ( शल्य० ३२ । २६-२७; शक्य ० ३२ । ६१-६२ ) । भीमसेनको समझाकर अन्याय से रोकना ( शल्य० ५९ । १५-२० ) । दुर्योधनको सान्त्वना देते हुए खेद प्रकट करना ( शक्य० ५९ । २२ – ३० ) | श्रीकृष्णसे वार्तालाप ( शल्य० ६० । १५ – ३८ ) । भीमसेनकी प्रशंसा ( ० ६० । ४७४८ ) । श्रीकृष्ण के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना ( वाक्य ० ६२ । २८-३२ ) | श्रीकृष्णको गान्धारीको समझानेके लिये हस्तिनापुर भेजना ( शल्य० ६२ । ४०-४२ )। धृष्टद्युम्न के सारथिके मुखसे पाञ्चालों और द्रौपदी- पुत्रोंकी मृत्युका समाचार सुनकर विलाप करना ( सौप्तिक ० - १० । ९ - २६ ) । द्रौपदीको बुलानेके लिये नकुलको भेजना ( सौप्तिक ० १० । २७ ) । युद्धस्थलमें जाकर पुत्रोंकी दशा देखकर मूच्छित होना ( सौप्तिक० १० । २९-३१ ) । अश्वत्थामा से भीमसेनकी रक्षा के लिये श्रीकृष्ण के साथ जाना ( सौप्तिक० १३ । ६) । द्रौपद के आग्रहसे अश्वत्थामाकी मणिको धारण करना ( सौप्तिक ० १६ । ३५ ) । अश्वत्थामाद्वारा अपने पुत्रोंके मारे जानेके विषयमें श्रीकृष्णसे प्रश्न ( सौप्तिक ० १७ । २-५ ) | भाइयोहित इनका धृतराष्ट्रसे मिलना ( स्त्री० १२ । (११) । गान्धारीसे क्षमा याचना करना ( स्त्री० १५ । २५–२८ ) । गान्धारीकी दृष्टि पड़ने से इनके नखका
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काला पड़ना ( स्त्री० १५ । ३० ) । धृतराष्ट्रसे मारे गये लोगोंकी संख्या और गतिका वर्णन ( स्त्री० २६ । ९ १०, १२ - १७ ) । मरे हुए लोगों के दाह-संस्कार के लिये आज्ञा देना ( स्त्री० २६ । २४२६) । कुन्तीके मुख से कर्णको अपना भाई सुनकर उसके लिये विलाप करना ( स्त्री० २७।१५ - २५ ) । स्त्रियोंके मनमें रहस्यकी बात न छिपनेका शाप देना ( स्त्री० २७ । २९ ) । नारदजी से कर्ण के विषयमें शोक प्रकट करते हुए उसे शाप मिलनेक' वृत्तान्त पूछना ( शान्ति ० १ १३ -- ४४ ) । इनका चिन्तित होना ( शान्ति ० ६ । २ ) । स्त्रियोंको मनमें गुप्त बात न छिपा सकनेका शाप देना ( शान्ति० ६ ११ ) । अपना आन्तरिक खेद प्रकट करते हुए राज्य छोड़कर वनवास के लिये अर्जुन से कहना ( शान्ति ० ७ अध्याय राज्य छोड़कर वानप्रस्थ अथवा संन्यास ग्रहण करनेका निश्चय बताना ( शान्ति ० ९ अध्याय ) । भीमसेन की बातका विरोध करते हुए इनका मुनिवृत्तिकी प्रशंसा करना ( शान्ति ० १७ अध्याय ) । इनके द्वारा अपने मतकी यथार्थताका ही प्रतिपादन ( शान्ति० १९ अध्याय ) | व्यासजीसे राजर्षि सुद्युम्नके चरित्रके विषय में जिज्ञासा ( शान्ति० २३ । १७ ) । व्यासजीसे अपने शोककी प्रबलता प्रकट करना (शान्ति० २५ । २-३ ) । धनके त्यागकी महिमाका प्रतिपादन करना ( शान्ति, २६ अध्याय ) । शोकका कारण बताते हुए शरीर त्यागने के लिये उद्यत होना ( शान्ति० २७ । १–२६)। श्रीकृष्ण से सुञ्जयपुत्र सुवर्णष्ठीवी के विषयमें पूछना ( शान्ति० ३० । १- ३ ) । नारदजीसे सुञ्जयपुत्र सुवर्णष्ठीवीका वृत्तान्त पूछना ( शान्ति० ३१ । १ ) । व्यासजी से अपने पापका प्रायश्चित्त पूछना ( शान्ति ० ३३ । १ – १२ ) । व्यासजी और श्रीकृष्णके समझानेसे इनका हस्तिनापुरको प्रस्थान और नगर प्रवेश ( शान्ति० ३७ । ३० - - ४९ ) । नगर- प्रवेशके समय पुरवासियों और ब्राह्मणोंद्वारा इनका सत्कार ( शान्ति० ३८ | १-२१ ) । इनका राज्याभिषेक ( शान्ति० ४० । १२(१६) । स्वयं घृत के अधीन रहकर इनके द्वारा भाइयों आदिकी पृथक्-पृथक् कार्यों पर नियुक्ति ( शान्ति० ४ १ अध्याय ) । इनके द्वारा सुहृदों और सगे-सम्बन्धियों का श्राद्ध ( शान्ति० ४२ । ३–८ ) । इनके द्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति ( शान्ति० ४३ । २–१६ ) । इनके द्वारा भाइयोंके लिये महलोंका विभाजन ( शान्ति ० ४४ अध्याय ) । ब्राह्मणों और आश्रितोंको सत्कारपूर्वक दान देना (शान्ति ० ४५ । ४–११ - ११ ) | श्रीकृष्ण के पास जाकर इनका कृतज्ञता-प्रकाशन. ( शान्ति० ४५ । १७
( २७६ )
युद्ध में
करना
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युधिष्ठिर
१९ ) | श्रीकृष्णको ध्यानमग्न देखकर उनके ध्यानका कारण पूछना ( शान्ति० ४६ । १ - १० ) । श्रीकृष्ण के आशानुसार भीष्मजी के पास चलनेको उद्यत होना ( शान्ति० ४६ । २५-३० ) | परशुरामजीद्वारा किये गये क्षत्रियसंहारके विषय में इनकी जिज्ञासा ( शान्ति० ४८ । १० - (१५) | सात्यकिद्वारा श्रीकृष्णका संदेश पाकर अर्जुनको रथ तैयार करने का आदेश देना ( शान्ति० ५३ । १४१७) । भाइयों और श्रीकृष्ण आदिके साथ भीष्म के पास जाना ( शान्ति ० ५३ । १४ – २८ ) । श्रीकृष्णको ही प्रथमतः भीष्म जी से वार्तालाप करने को कहना ( शान्ति ० ५४ । १२-१४ ) । भीष्मजीसे आश्वासन पाकर उनके निकट जाना ( शान्ति० ५५ । २०-२१ ) । इनके प्रश्न और उन प्रश्नोंके अनुसार भीष्मजीका इनके समक्ष राजधर्म, आपद्धर्म और मोक्षधर्मके रहस्यका विविध दृष्टान्तद्वारा विशद विवेचन करना ( शान्तिपर्व अध्याय ५७ से (३६५ तक ) । भीष्मद्वारा युधिष्ठिरको इनके प्रश्नोंके अनुसार विविध उपदेश देना ( अनु० अध्याय १ से १६५ तक ) । भीष्म जी की आज्ञासे परिवारसहित हस्तिना पुरको प्रस्थान ( अनु० १६६ । १५-१७ ) । भीष्मके अन्त्येष्टि संस्कारकी सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदिका उनके पास जाना (अनु० १६७ । ६ - २३ ) । भीष्मका इनको कर्तव्यका उपदेश देना ( अनु० १६७ । ४९-५२ ) । भीष्मीको जलाञ्जलि देने के बाद शोकसे व्याकुल होकर इनका गङ्गाजीके तटपर गिरना ( आश्व० १ । ३ ) । इनको इस दशा में देखकर श्रीकृष्णका इनसे अधीर न होनेके लिये कहना और धृतराष्ट्रका इन्हें समझाना ( आइव ० १ अध्याय | श्रीकृष्णका इन्हें समझाना ( आश्व० २ । २ - ८ ) । शोकसे व्यथित होकर वनमें जानेके लिये श्रीकृष्णसे आज्ञा माँगना ( आश्व० २ । ११-१२ ) । व्यासजीका इन्हें समझाना (आश्व० २ । १५-२० ) । व्यासजीका इन्हें समझाते हुए अश्वमेध यज्ञ करनेके लिये आशा देना और युधिष्ठिर के धनाभाव के कारण असमर्थता प्रकट करनेपर इन्हें हिमालयसे राजा मरुत्तके रखे हुए धनको लानेका सलाह देना ( आश्व० ३ । १ -- २१ ) | युधिष्ठिरके पूछनेपर व्यासजीका इन्हें राजा मरुत्तका उपाख्यान सुनाना | आश्व० ३ । २२ से १० । ३६ तक ) | श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको उपदेश देकर इन्हें यज्ञके लिये प्रेरित करना ( आश्व० अध्याय ११ से १३ तक ) । इनके राज्यशासनकी श्रेष्ठताका वर्णन ( आश्व० १४ । १७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ६१२९ - ६१३१ ) | श्रीकृष्णको द्वारका जानेके लिये आशा देना ( आश्व० ५२ । ४४-५० ) । मरुत्तके छोड़े हुए धनके लानेके विषयमें भाइयोंसे सलाह करना ( अश्व० ६३ । ४९) । भाइयोसहित धन
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युधिष्ठिर
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युधिष्ठिर
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लानेके लिये इनका प्रस्थान (आश्व० ६३ । २०-२४)। का दुखी होकर उन्हींको राज्य अर्पित करके स्वयं उनकी हिमालयपर पहँचकर पड़ाव डालना और ब्राह्मणोंके कहनेसे सेवामें रहने की इच्छा प्रकट करना ( आश्रम. .भाइयोसहित उस रात उपवास करना (आश्व० ६४। ५५)। मूर्छित हुए धृतराष्ट्रके शरीरपर इनका हाथ फेरना ७-१५)। पार्षदोसहित भगवान् शंकरकी पूजा करना और धृतराष्ट्रका इन्हें हृदयसे लगाकर इनका मस्तक सैंधना (आश्व०६५ । २-१३) । धन खुदवाकर वाहनोंपर (आश्रम ३।६७-७५)। इनका धृतराष्ट्रसे आहार लादकर इनका हस्तिनापुर लौटना (आश्व० ६५ । २०- ग्रहण करनेके लिये आग्रह करना (आश्रम. ३।८४२१)। व्यासजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको यज्ञके लिये ८५)। व्यासजीके समझानेसे युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको वनमें आज्ञा देना (आश्व० ..। १५-२६) । अश्वमेध- जानेके लिये अनुमति देना ( आश्रम. ४ अध्याय)। सम्बन्धी अश्वकी रक्षा कौन करे-इसके विषयमें इनका धृतराष्ट्रद्वारा इनको राजनीतिका उपदेश (आश्रम अध्याय व्यासजीसे पूछना और उनकी आज्ञाके अनुसार अर्जुनको ५ से ७ तक)। धृतराष्ट्रका विदुरके द्वारा श्राद्धके लिये अश्वकी रक्षाके लिये जानेका आदेश देना ( आश्व०७२। इनसे धन माँगना और इनका प्रसन्नतापूर्वक १२-२४) । इनका भीमसेनको राजाओंकी पूजा करनेका स्वीकार करना ( आश्रम. ११ ।१-७)। आदेश और श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे अर्जुनका संदेश कहना भीमसेनके विरोध करनेपर युधिष्ठिरका उन्हें चुप रहनेके (आश्व० ८६ अध्याय)। अर्जुनको क्यों अधिकतर कष्ट लिये कहना (आश्रम. ११ । २५)। इनका धृतराष्ट्रउठाना पड़ता है-इसके विषयमें युधिष्ठिरको जिज्ञासा और को यथेष्ट धन देनेकी स्वीकृति प्रदान करना ( आश्रम श्रीकृष्णका इसमें अर्जुनकी मोटी पिण्डलियोंको ही कारण १२ । ७-१३)। धृतराष्ट्रके वनको प्रस्थान करते समय बताना (आश्वः ८७।--१.)। बभ्रुवाहनका इन्हें युधिष्ठिरका फूट-फूटकर रोना और मूञ्छित होकर गिर प्रणाम करना और इनका उसे सत्कारपूर्वक धन देना जाना (आश्रम० १५ । ६)। इनका कुन्तीको घर (आश्व० ८८ । ६, १०-११)। व्यासजीकी आज्ञाके अनु- लौटने के लिये कहना और कुन्तीका इन्हें सब भाइयों सार युधिष्ठिरका अश्वमेध यज्ञकी दीक्षा लेना (आश्व. तथा द्रौपदीपर स्नेह रखनेके लिये कहकर स्वयं वनको ही ८८ । १२-१७) । इनके यज्ञवैभवका वर्णन (आश्व० जानेका निश्चय प्रकट करना (आश्रम १६।७-१७)। ८८।१४-४०) । युधिष्ठिरका यज्ञके धूमकी गन्ध इनका कुन्तीसे उनके वनगमनको अनुचित बताकर बारसूंघना और यज्ञ पूर्ण होनेपर भगवान् व्यासका इन्हें बधाई बार घर लौटनेके लिये ही अनुरोध करना (भाश्रम. देना (आश्व० ८९ । ५-७)। इनका ब्राह्मणोंको दक्षिणा १६ । १९-२८)। कुन्तीका युधिष्ठिरको उनके अनुरोधदेना और राजाओंको भेंट देकर विदा करना ( आश्व० ८९। का उत्तर देना (भाश्रम० १७ अध्याय)। युधिष्ठिरकी ७-३८)। यज्ञ पूर्ण करके इनका अपने नगरमें प्रवेश मातासे मिलनेके लिये वनमें जानेकी इच्छा, सहदेव और ( आश्व० ८९ । ३९-४४)। इनके यशमें एक नेवलेका द्रौपदीका इनके साथ जानेका उत्साह तथा रनिवास और
उञ्छवृत्तिधारी ब्राह्मणके द्वारा किये गये सेरभर सत्तदानकी सेनासहित इनका वनको प्रस्थान (भाश्रम० २२ भन्याय)। । महिमाको उस अश्वमेध यज्ञसे भी बढ़कर बतलाना (आश्व. सेनासहित इनकी यात्रा और कुरुक्षेत्रमें पहुँचना (भाश्रम.
९० अध्याय)। युधिष्ठिरके पूछने पर भगवान् श्रीकृष्णका २३ अध्याय)। इनके द्वारा वनमें कुन्ती, गान्धारी और इन्हें धर्मकी महत्ता और दान आदिका माहात्म्य विस्तार- धृतराष्ट्र का दर्शन (भाश्रम २४ अध्याय)। संजयका पूर्वक बताना ( आश्व० ९२ दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ६३० -- ऋषियोंको इनका परिचय देना (आश्रम० २५। ५)। ६३८१)। श्रीकृष्ण के द्वारका जाते समय इनका उनके धृतराष्ट्र और युधिष्ठिरकी बातचीत तथा विदुरका युधिष्ठिररथपर बैठकर कुछ देरके लिये सारथिका कार्य हाथमें लेना के शरीरमें प्रवेश ( आश्रम० २६ अध्याय )। युधिष्ठिर
और उन्हें विदा करके उन्हींके भजन-चिन्तनमें लग जाना आदिका ऋषियोके आश्रम देखना, कलश आदि बॉटना (आश्व० ९२ । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ६३८१-६३८२)। ___ और धृतराष्ट्र के पास आकर बैठना ( आश्रम० २७ । ५भाइयोसहित युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र और गान्धारीकी सेवा १५)। महर्षि व्यासद्वारा विदुर और युधिष्ठिरकी धर्मकरना ( आश्रम ।। ६-७)। इनका अपने भाइयों रूपताका प्रतिपादन ( आश्रम० २८।१-२२)। और मन्त्रियोंको राजा धृतराष्ट्रकी सेवाके लिये प्रेरित करना धृतराष्ट्र और मातासे विदा लेकर युधिष्ठिर आदिका और उनकी सेवासे मुँह मोड़नेवालेको अपना शत्रु बताना हस्तिनापुरमें आगमन ( आश्रम० ३६ भन्याय )। (भाश्रम २ । ३-५)। युधिष्ठिरके द्वारा धृतराष्ट्र और नारदजीसे धृतराष्ट्र आदिके दावानलमें दग्ध हो जानेका गान्धारीकी सेवा (आश्रम० २।१७-२०)। धृतराष्ट्रका हाल जानकर युधिष्ठिर आदिका शोक (भाश्रम ३७ युधिष्ठिरसे बनमें जानेके लिये अनुमति माँगना और युधिष्ठिर- अध्याय)। नारदजीके सम्मुख युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र आदि
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युधिष्ठिर
( २७८ )
युधिष्ठिर
ग
किक अग्निमें दग्ध हो जानेका वर्णन करते हुए लिये कहना; परंतु इनका शरणागत कुत्ते को न त्यागने का विलाप करना (आश्रम० ३८ अध्याय)। राजा युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती-इन तीनोंकी अस्थिर्योको कुत्ते के रूपमें आये हुए धर्मके द्वारा युधिष्ठिरका अभिनन्दन गङ्गामें प्रवाहित कराना और उनके श्राद्धकर्म करना तथा इन्द्र और धर्मके साथ इनका सदेह स्वर्गमें जाना (आश्रम० ३९ अध्याय ) । युधिष्ठिरका अपशकुन ( महाप्रस्थान० ३।१७-२५)। देवर्षि नारदद्वारा देखना और यादवोंके विनाशका समाचार सुनकर भाइयों- इनकी प्रशंसा, इन्द्र के द्वारा उत्तम लोकमें रहने के लिये सहित दुःखशोकमें मग्न हो जाना ( मौसल० १।- प्रेरित होनेपर भी इनका अपने भाइयोंके बिना वहाँ रहनेसे ११)। युधिष्ठिरका भाइयोसहित कालपाशको स्वीकार इनकार करना और उनके साथ शुभ या अशुभ किसी भी करनेका निश्चय करके युयुत्सुको राज्यकी देख-भालका लोकमें रहने की इच्छा प्रकट करना (महाप्रस्थान. ३ । भार सौंपना और परीक्षितको अपने राज्यपर अभिषिक्त २६-३८)। स्वर्गमें दुर्योधनको श्रीसम्पन्न देख अमर्षमें करके सुभद्रासे हस्तिनापुरमें परीक्षित्को और इन्द्रप्रस्थमें भरे हुए युधिष्ठिरका सहसा पीछे लौटना और उसके साथ वज्रको रखकर इनकी रक्षाके लिये कहना (महाप्रस्थान रहनेसे अनिच्छा प्रकट करके अपने भाइयोंके स्थानमें १।३-९)। इनके द्वारा वसुदेव, भगवान् श्रीकृष्ण जानेकी उत्सुकता दिखाना (स्वर्गा.१-१०)। तथा बलराम आदिके लिये जलाञ्जलि-दान एवं श्राद्ध- हँसते हुए नारदजीका युधिष्ठिरको स्वर्गमें दुर्योधनकी सम्पादन (महाप्रस्थान.१।१०-18)। कृपाचार्यकी सम्मानपूर्ण स्थितिका परिचय देना और इन्हें उससे मिलनेपूजा करके उनके शिष्यत्वमें परीक्षितको सौंपना ( महा- के लिये कहना (स्वर्गा० ।।११-१८)। इनका प्रस्थान ।। १४-१५)। प्रजा, मन्त्री आदिको बुला- अपने भाइयों तथा सगे-सम्बन्धियोंको मिले हुए लोकोंके कर उनके सामने अपने महाप्रस्थानविषयक विचारको विषयमें जिज्ञासा प्रकट करना और उन सबसे मिलनेकी प्रकट करना और उनके मना करनेपर भी उनकी अनुमति अभिलाषा व्यक्त करना ( स्वर्गा.१।२०-२६)। ले भाइयोसहित महाप्रस्थानका ही निश्चय करना ( महा- देवदूतका युधिष्ठिरको मायामय नरकका दर्शन कराना प्रस्थान. १।१६-१९)। भाइयोसहित अपने आभूषण तथा भाइयोका करुण-क्रन्दन सुनकर इनका वहीं रहनेका उतारकर इनका उत्सर्गकालिक इष्ट करवाना और निश्चय करना (स्वर्गा.२ अध्याय)। इन्द्र और धर्मका अग्मियोंका जलमें विसर्जन करके महायात्राके लिये प्रस्थित युधिष्ठिरको सान्त्वना देना तथा इनका मन्दाकिनी में स्नान होना ( महाप्रस्थान. १ । १९-२२) । युधिष्ठिरकी करके मानवशरीरका त्याग कर दिव्यलोकमें जाना (स्वर्गा. इच्छा के अनुसार पाँचों भाई पाण्डव, द्रौपदी और एक ३ अध्याय)। युधिष्ठिरका दिव्यलोकमें श्रीकृष्ण-अर्जुन कुत्ता-इन सबका एक साथ हस्तिनापुरसे निकलना आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंका दर्शन करना (स्वर्गा. (महाप्रस्थान. ।२४-२५)। इन सबका पूर्व दिशा- अध्याय)। इनका धर्मके स्वरूपमें प्रवेश (स्वर्गा. की ओर प्रस्थान, युधिष्ठिरका सबसे आगे होकर चलना ५।२२)। (महाप्रस्थान. १।२९-३१) । अग्निदेवका लाल- महाभारतमें आये हुए युधिष्ठिरके नाम---आजमीढ, सागरके तटपर अर्जुनसे गाण्डीव धनुष और अक्षय तूणीर अजातशत्रु, भारत, भरतशार्दूल, भरतप्रवई, भरतर्षभ त्याग देनेके लिये कहना और भाइयोंकी प्रेरणासे अर्जुनका भरतसत्तम) भरतसिंह, भीमपूर्वज, धर्म, धर्मज, धर्मनन्दन, वह सब कुछ जलमें फेंक देना (महाप्रस्थान ।। ३३- धर्मप्रभव, धर्मपुत्र, धर्मराट, धर्मराज, धर्मसूनु, धर्मसुत, १२)। इनका पूर्वसे दक्षिण और पश्चिम दिशाकी ओर धर्मतनय, धर्मात्मज, कौन्तेय, कौरव, कौरवश्रेष्ठ, कौरवाजाना (महाप्रस्थान. १ । १३-४६)। मार्गमें द्रौपदी, ग्र्य, कौरवनन्दन, कौरवनाथ, कौरवर्षभ, कौरवसतम) सहदेव, नकुल, अर्जुन, भीमसेनका गिरना तथा युधिष्ठिर- कौरववंशवर्धन, कौरवेन्द्र) कौरव्य, कुन्तीनन्दन, युन्तीद्वारा प्रत्येकके गिरने का कारण ताया जाना (महा- पुत्र, कुन्तीसुत, कुरुशार्दूल, कुरुश्रेष्ठ, कुरुश्रेष्ठतम प्रस्थान. २ अध्याय)। इनके पास इन्द्रका रथ लेकर कुरूदह, कुरुकुलश्रेष्ठ, कुरुकुलोद्वह, कुरुमुख्य कुरुनन्दना आना और इन्हें उसपर बैठनेके लिये कहना (महा- कुरुपाण्डवाग्र्य, कुरुपति, कुरुप्रवीर, कुरुपुङ्गवः कुरुराज, प्रस्थान०३।१)। इनका इन्द्र के मुखसे भाइयों और कुरुसत्तम, कुरूत्तम, कुरुवर्धन, कुरुवीर, कुरुवृषभ, द्रौपदीके स्वर्गमें पहुँचनेका वृत्तान्त सुनकर अपने साथ मृदंगकेतु, पाण्डव, पाण्डवश्रेष्ठ, पाण्डवाय, पाण्डवमुख्य आये हुए कुचेको भी लेकर स्वर्गमें चलनेका निश्चय प्रकट पाण्डवनन्दन, पाण्डवर्षभ, पाण्डवेय, पाण्डुनन्दन, पाण्डुकरना (महाप्रस्थान. ३ । २-७)। इन्द्रका कुत्तेके । नृपात्मज, पाण्डुपुत्र, पाण्डुसूनु, पाण्डुसुत, पाण्डुवीर, लिये स्वर्गमें स्थान न बताकर इनसे अकेले ही चलनेके पार्थ, यादवीमातः, यादवीपुत्र आदि ।
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युयुत्सु
( २७९ )
युयुत्सु-(१) धृतराष्ट्रद्वारा वैश्य जातीय भार्याके गर्भसे दक्षिणा देकर बहुत-से यज्ञोका अनुष्ठान किया था। जिन्होंने
उत्पन्न पुत्र । इसकी 'करण' संशा थी ( आदि० ६३ । एक हजार अश्वमेध यज्ञ किये थे ( वन. १२६ । ११८)। इसकी उत्पत्ति (आदि. ११४ । ३)। ५-६) । ये राजा सुद्युम्नके पुत्र थे (वन० १२६ । दुर्योधन की प्रेरणासे भीमसेनके भोजनमें दिये हुए विषकी १.)। तृषित हुए इनके द्वारा अभिमन्त्रित जलका इसके द्वारा भीमसेनको सूचना ( आदि. १२८ । ३७- पान ( वन० १२६ । १५ )। इनकी बायीं कुक्षिसे ३८)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि. मान्धाताका जन्म (वन० १२६ । २७)। इन्हें महा१८५।२)। कुरुक्षेत्रके मैदानमें पाण्डवोके पक्षमे आना
राज रैवतसे खङ्गकी प्राप्ति हुई और इन्होंने रघुको वह (भीष्म ४३ । १००)। यह योद्धाओंमें श्रेष्ठ, धनुर्धरोंमें खङ्ग प्रदान किया (शान्ति. १६६ । ७८)। इनके उत्तम, शौर्यसम्पन्न, सत्यप्रतिज्ञ और महाबली था । द्वारा मांस-भक्षण-निषेध और उमसे इन्हें परावर-तत्त्वका वारणावतनगरमें बहुत-से राजा क्रोधमें भरकर युयुत्सुपर ज्ञान ( अनु० ११५ । ६१) । (२) विष्वगश्वचढ़ आये और उसे मार डालना चाहते थे; किंतु इसे कुमार अद्रिके पुत्र, जो श्रावके पिता ये ( वन. परास्त न कर सके (द्रोण. १०। ५८-५९)। इसके २०२ । ३)। (३) वृषादर्भके पुत्र, जिन्होंने सब रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण० २३ । ३४-३५)। सुबाह- प्रकारके रत्न, अभीष्ट स्त्रियाँ और सुरम्य गृह दान करके के साथ युद्ध करके उसकी दोनों भुजाएँ काटना (द्रोण. स्वर्गका निवान पाया (शान्ति. २३४ । १५)। २५ । १३.१४ ) । भगदत्तके हाथीद्वारा इसके यपकेतु-भूरिश्रवाका नामान्तर (सभा० ४४ । १९)। रथके घोड़ोंका मारा जाना (द्रोण. २६ । ५६ )। (विशेष देखिये भूरिश्रवा) अभिमन्युवधसे हर्षोन्मत्त हुए कौरवोंको इसका उपा. :
योग-एक ऋषि, जो तपस्वी, जितेन्द्रिय और तीनों लोकोंमें लम्भ देना (द्रोण० ७२ । ६०-१३) । उलूकके साथ
विख्यात हैं ( अनु०१५०। ४५)। युद्ध में इसका पराजित होना (कर्ण० २५ । ११) । श्रीकृष्ण और युधेष्ठिरसे आज्ञा लेकर इसका राजमहिलाओं के
योजनगन्धा-व्यास जननी, सत्यवतीका दूसरा नाम (आदि. साथ इस्तिनापुर लौटना ( शल्य. २९ । ३६-
६३ । ८२-८३)। ( देखिये सत्यवती) विदुरजीके पूछनेपर उन्हें सब समाचार बनाना (शल्य.
योतिमत्सक-एक राजा, जिनके पास पाण्डवोंकी ओरसे २९ । ९१-९५ ) । युधिष्ठिरद्वारा इसे धृतराष्ट्रकी रण-निमन्त्रण भेजने का निश्चय किया गया था ( उद्योग. सेवाका भार सौंपा जाना (शान्ति०४१ । १७-१८)। ४।२०)। भीष्मके अन्त्येष्टि संस्कारके लिये चिता-निर्माण करनेमें योध्य-एक देश, जिसे दिग्विजयके समय कर्णने जीता था पाण्डवोंके साथ यह भी था (अनु० १६८ । ११)। (वन० २५४ । ८-९) । मरुत्तका धन लानेके लिये पाण्डवोंके हिमालय जानेपर योनितीर्थ-भीमाके उत्तम स्थानमें स्थित एक तीर्थ, जहाँ यह इस्तिनापुरकी रक्षा में नियुक्त था ( आश्व० ६३ । स्नान करनेसे मनुष्य देवीका पुत्र होता है, उसकी अङ्ग२४) । पाण्डवलोग जब वनमें धृतराष्ट्र से मिलने गये
कान्ति तपाये हुए 'सुवर्ण-कुण्डल' के समान होती है, थे, उस समय भी नगर-रक्षाका भार इसीपर था।
उम तीर्थ के सेवनसे मनुष्य को सहस्र गोदानका फल मिलता ( आश्रम० २३ । १५)। युयुत्सुको आगे करके पाण्डवोन है (वन, ८२। ८४ )। धृतराष्ट्र के लिये जलाञ्जलि दी (आश्रम० ३९। १२)। महा
योनिद्वार-उदयगिरिपर स्थित एक तीर्थ, जहाँ जानेसे मनुष्य प्रस्थानके समय बालक परीक्षित्को राज्यपर अभिषिक्त करके जब युधिष्ठिर जाने लगेउस समय उन्होंने युयुत्सुको
योनि-संकटसे मुक्त हो जाता है (वन० ८४ । ९५)। ही गज्यकी रक्षाका भार सौंपा था ( महाप्रस्थान०१। यौधेय-(१) युधिष्ठिरके पुत्र, जो युधिष्ठिरके द्वारा
शिबि देशके राजा गोवासन की पुत्री देविकाके गर्भसे उत्पन्न महाभारतमे आये हुए युयुत्सुके नाम-धार्तराष्ट्र, धृत- हुए थे ( आदि० ९५ । ७६ ) । (२) एक देश तथा राष्ट्रज, धृतराष्ट्रसुत, करण) कौरव्य, कौरव, वैश्या पुत्र आदि। जातिके लोग । यहाँके राजा, राजकुमार और निवासी
(२) धृतराष्ट्र का गान्धारीके गर्भसे उत्पन्न हआ भी युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें भेंट लेकर आये थे पुत्र (शान्ति० ६७ । ९३)।
(सभा० ५२ । १४-१७)। युयुधान-ये सत्यकके पुत्र हैं. इन्हींको सात्यकि कहते हैं यौन- एक जाति, इस जातिके लोग पापाचारी तथा चाण्डाल
( सभा० ४ । ३५ ) । ( विशेष देखिये सात्यकि) कौवे और गीधकी भाँति आचार-विचारवाले होते हैं युवनाश्व-इक्ष्वाकुवंशके एक सुप्रसिद्ध नरेदा जिन्होंने प्रचुर (शान्ति० २०७ । ४३-४५)।
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यौवनाश्व
( २८० )
रन्तिदेव
यौवनाश्व-युवनाश्वके पुत्र मान्धाता (सभा. ५३ । रथध्वान-शंयु-पुत्र वीर नामक अग्निका नामान्तर (वन. २१)। (विशेष देखिये मान्धाता)
२१९ । ९-१०)। ( देखिये वीर) रथन्तर-(१)रथन्तर' नामक साम, जो मूर्तिमान् होकर
ब्रह्माजीकी सभामें विराजमान होता है (सभा०।। रकार-धृतराष्ट्रके कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
३०)। वसिष्ठ मुनिने रथन्तर' सामके द्वारा इन्द्रका सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था (आदि० ५७ । १८)।
मोह दूर करके उन्हें प्रबुद्ध किया था (शान्ति० २८१ । रक्षिता-एक अप्सरा, जो प्राधाके गर्भसे कश्यपद्वारा उत्पन्न
२१-२६, आश्व०११।१८-१९) । (२) पाञ्चजन्य हुई थी ( आदि० ६५। ५.)।
नामक अग्निके पुत्र, जिनका दूसरा नाम 'तरसाहर' है। रक्षोवाह-एक देश । परशुरामजीने यहाँके निवासी क्षत्रियों
ये पाञ्चजन्यके मुखसे प्रकट हुए थे (वन० २२० । ७)। का संहार किया था (द्रोण०७०।१२)।
रथन्तर्या ( रथन्तरी )-सम्राट् दुष्यन्तकी माता । रख-एक प्राचीन नरेश, संजयद्वारा की गयी प्राचीन शकुन्तलाकी सास । इनके द्वारा शकुन्तलाको आशीर्वाद
राजाओंकी गणनामें इनका नाम है ( आदि० । (आदि०७४ । १२५ के बाद दा० पाठ)।(रथन्तर्या' २३२ )। विराटके गोग्रहणके समय कौरवोंके साथ होने- यह नाम दाक्षिणात्य पाटके अनुसार है । नीलकण्ठीके वाले अर्जुनके युद्धको देखनेके लिये इन्द्रके विमानमें अनुसार) इनका नाम रयन्तरी' या (आदि ९४ । १७)। बैठकर ये भी आये थे (विराट० ५६ । १०)। महा- ये महाराज ईलिनकी पत्नी थीं । इनके पाँच पुत्र हुए, राज युवनाश्वद्वारा इक्ष्वाकुवंशी रघुको खगकी प्राप्ति हुई और जिनके नाम इस प्रकार हैं--दुष्यन्त, शूर, भीम, प्रवसु इन्होंने उसे हरिणाश्वको प्रदान किया (शान्ति. १६६ । .८)। इन्होंने मांसभक्षणका निषेध किया था, जिससे २८)। इवें परावर-तस्वका ज्ञान प्राप्त हो गया था ( अनु. रथप्रभु-शंयु-पुत्र वीर नामक अग्निका नामान्तर (बन. १५। ५९-६.)। राजा रघुको प्रणाम करनेवाला २१९ । ९-१०)। ( देखिये वीर ) क्षत्रिय संग्रामविजयी होता है (अनु. १५०।८१)।
रथवाहन-विराटके भाई, जो पाण्डवोंकी ओरसे युद्ध कर
र जो मायं-प्रातः इनके नामका कीर्तन करता है, वह धर्मफलका रहे थे (द्रोण. १५८। ४२)। भागी होता है ( अनु० १६५ । ५१-६०)।
रथसेन-पाण्डवपक्षके एक योद्धा, जिनके रथमें मटरके फूलके रज-स्कन्दका एक सैनिक (अल्प० ४५ । ७३)।
समान रंगवाले घोड़े जुते हुए थे। उन घोड़ोंकी रोमराजि रजि-ये आयुद्वारा स्वर्भानुकुमारीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। श्वेत-लोहित वर्णकी थी (द्रोण० २३ । ६२)। इनके चार भाई और थे, जिनके नाम हैं-नहुष, वृद्ध-
- रथस्था-गङ्गाजीकी सात धाराओंमेंसे एक, जिसका जल पीने
. शर्मा, गय तथा अनेना (आदि० ७५ । २५-२६)। से मनुष्यके सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं (आदि. रणोत्कट-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६८)। १६९ । २०-२१)। रता-दक्षकी पुत्री, जो धर्मकी पत्नी हैं । इनके गर्भसे रथाक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्प० ४५ । ६३)।
अहः नामक वसुका जन्म हुआ है (आदि० ६६ । १७- रथातिरथसंख्यानपर्व-शान्तिपर्वका एक अवान्तर पर्व २०)।
(अध्याय १६५ से १७२ तक)। रति-(१) ये धर्म पुत्र कामदेवको पत्नी हैं (आदि. ६६। रथावर्त-शाकम्भरी देवीके दक्षिणार्ध भागमें स्थित एक तीर्थ।
३२-३३) । ब्रह्माजीकी सभामें रहकर ये उनकी उपा- यहाँकी यात्रा करनेवाला श्रद्धालु पुरुष महादेवजीकी कृपासे सना करती हैं (सभा० ११ । ४३)। (२) अलका- परमगति प्राप्त कर लेता है (वन० ८४ । २३)। पुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्रके स्वागतके
रन्तिदेव-एक प्राचीन नरेश (आदि. १।२२६)। अवसरपर कुबेर-भवनमे नृत्य किया था ( अनु० १९ ।
ये राजा संकृतिके पुत्र थे। संजयको समझाते हुए नारदजी
द्वारा इनके अतिथि-सत्कार और दान आदिका वर्णन रतिगुण-एक देवगन्धर्व, जो कश्यपके द्वारा प्राधाके गर्भसे
(द्रोण.६० अध्याय)। श्रीकृष्णद्वारा इनके दान और उत्पन्न हुआ था (आदि० ६५। ४७)।
अतिथि-सत्कार आदिका वर्णन (शान्ति० २९ । १२०रथचित्रा-भारतवर्षकी प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके १२९) । वसिष्ठको शीतोष्ण जलका दान करके इनका निवासी पीते हैं (भीम. ९।२६)।
स्वर्गलोकमें प्रतिक्षित होना (शान्ति २३४।१०)।
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रमेणक
( २८१ )
फल-मूल और पत्तोंद्वारा ऋषियोंका पूजन करके इनका रवि-(१) ये विवस्वान्के बोधक माने गये हैं ( भादि०
अभिलषित सिद्धि प्राप्त करना (शान्ति० २९२।७)। इन्होंने १।४२)। (२) सौवीर देशका एक राजकुमार, कभी मांस नहीं खाया था (अनु० ११५। ६३)। वसिष्ठ जो जयद्रथके रथ के पीछे हाथमें ध्वजा लेकर चलता था, मुनिको विधिवत् अर्घ्यदान करनेसे इन्हें श्रेष्ठ लोकोंकी प्राप्ति (वन० २६५ । १०)। अर्जुनद्वारा इसका वध (वन० (अनु. १३७ । ६)। ये सायं-प्रातः स्मरण करनेयोग्य २७१ । २७)। (३) धृतराष्ट्रका एक पुत्र, जो भीमनरेशोंमें गिने गये हैं (अनु. १५० । ५१)।
सेनद्वारा मारा गया (शल्य. २६ । १४-१५)। रभेणक-तक्षक-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्प- रश्मिवान्-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३६)। सत्रमें जल मरा था (भादि० ५७ । ८)।
रसातल-पृथ्वीके नीचेका एक लोक । प्रलयके समय संवर्तक रमठ-एक म्लेच्छ जाति, जो मान्धाताके शासनकालमें उनके
नामक अग्नि पृथ्वीका भेदन करके रसातलतक पहुँच जाती है राज्यमें निवास करती थी (शान्ति०६५। १४-१५)।
(वन० १८८ । ६९-७०)। दैत्योंद्वारा उत्पन्न की हुई रमण-(१) ये सोम नामक वसुके द्वारा मनोहराके गर्भसे कृत्या दुर्योधनको साथ ले रसातलमें प्रविष्ट हई थी (वन. उत्पन्न हुए थे (आदि०६६ । २२)।(२)द्वारकाके
२५१ । २९ ) । रसातल पृथ्वीका सातवाँ तल है। समीपवर्ती एक दिव्य वन (सभा० ३८ । २९ के बाद यहाँ अमृतसे उत्पन्न हुई गोमाता सुरभि निवास करती हैं दा. पाठ, पृष्ठ ८१३, कालम १)।
(उद्योग. १०२।१)। रसातल-निवासियोंने पूर्वकालमें रमणक-एक वर्ष, जो श्वेतपर्वतके दक्षिण और निषधपर्वत- एक गाथा गायी थी, जो इस प्रकार है-नागलोक, स्वर्गके उत्तर स्थित है। वहाँ जो मनुष्य जन्म लेते हैं, वे उत्तम
लोक तथा वहाँके विमानमें निवास करना भी वैसा सुखकुलसे युक्त और देखनेमें अत्यन्त प्रिय होते हैं । वहाँके सब
दायक नहीं होता जैसा कि रसातलमें रहनेसे सुख प्राप्त मनुष्य शत्रुओंसे रहित होते हैं । रमणकवर्षके मनुष्य सदा होता है (उद्योग. १०२।१४-१५)। भगवान् वराहप्रसन्नचित्त होकर साढ़े ग्यारह हजार वर्षांतक जीवित रहते ने रसातलमें जाकर देवद्रोही असुरोंको अपने खुरोंसे है (भीष्म० ८।२-४)।
विदीर्ण कर दिया (शान्ति. २०६ । २६)। हयग्रीवरमणचीन-दक्षिण भारतका एक जनपद ( भीष्म. रूपधारी भगवान् श्रीहरिने रसातलमें प्रवेश करके मधु ९।६६)।
और कैटभके अधिकारमें हुए वेदोंका उद्धार किया रम्भा-एक अप्सरा, जो प्राधाके गर्भसे कश्यपद्वारा उत्पन्न (कान्ति० ३४७ । ५४-५८) । राजा वसु केवल एक
हुई थी ( आदि०६५। ५०)। यह अर्जुनके जन्मो- बार मिथ्याभाषण करनेके दोषसे रसातलको पास हुए त्सवमें नृत्य करने आयी थी ( आदि० १२२ । ६२)। (अनु. ६ । ३४, आश्व० ९१ । २३)। रसातल कुबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना करती है (सभा भगवान् अनन्तका सनातन धाम है । बलदेवजी प्रभास१०।१०)। इसने इन्द्रसभामें अर्जुनके स्वागतार्थ नृत्य क्षेत्रमें अपने मानव-शरीरका परित्याग करके रसातलमें किया था (वन० ४३ । २९) । यह नलकूबरकी पत्नी प्रविष्ट हुए थे (स्वर्गा० ५। २३)। होकर रहती थी, इसीका तिरस्कार करनेके कारण रावणको
रहस्या-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा नलकूबरने यह शाप दे दिया था कि 'तू न चाहनेवाली किसी
पीती है ( भीष्म० ९ । १९)। स्त्रीके साथ बलात्कार नहीं कर सकता। यदि करेगा तो तुझे प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा'(बन० २४०।६०)। राका-(१) पूर्णिमा तिथिकी अधिष्ठात्री देवी, जो मूर्तिमती विश्वामित्रके शापसे इसको पत्थर होना पड़ा था (अनुल होकर स्कन्दके जन्म-समयमें वहाँ पधारी थी(पाल्प
।")। कुवेरकी सभामें अष्टावक्रके स्वागतमें इसने ४५ । १४)। (२) एक राक्षस-कन्या, जो कुबेरकी नृत्य किया था (अनु० १९ । ४०)।
आशासे महर्षि विश्रवाकी परिचर्यामें रहती थी। विश्रवाने रम्यक-नीलगिरिको लाँघनेपर रम्यकवर्ष मिलता है । अपनी इसके गर्भसे 'सर' नामक पुत्र तथा शूर्पणखा नामकी उत्तर-दिग्विजयके समय अर्जुनने इस वर्षको जीतकर वहाँ
कन्याको जन्म दिया था (वन.२७५।३-४)। के निवासियोंपर कर लगाया था (सभा०२८।। के बाद राक्षस-एक प्रकारका विवाह (आदि०७३।१)।(युद्ध दा. पाठ, पृष्ठ ७४९, कालम )।
करके मार-काट मचाकर रोती हुई कन्याको उसके रोते रम्यग्राम-एक राजधानी अथवा राजा जिसे दक्षिण-दिग्विजय- हुए भाई-बन्धुओंसे छीन लाना 'राक्षस' विवाह माना गया के समय सहदेवने अपने अधिकारमें कर लिया था (समा० है।) यह विवाह क्षत्रियों के लिये, उनमें भी राजाओंके ३३।४)।
लिये ही विहित है (आदि.. 1-11)।
माना०३६
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राक्षस-ग्रह
( २८२ )
राम ( रामचन्द्र)
राक्षस-ग्रह-एक राक्षस-सम्बन्धी ग्रह, जिसकी बाधा होनेसे राजपुर-(१) काम्बोज देशका प्रसिद्ध नगर, जहाँ कर्णने
मनुष्य विभिन्न प्रकारके रसोका आस्वादन करने और काम्बोजोपर विजय पायी थी (द्रोण. ४।५)। सुगन्धोंके सूंघनेसे तुरंत उन्मत्त हो जाता है (वन. (२) कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी राजधानी, जहाँ राज२३० । ५०)।
कन्याके स्वयंवरमें बहुत से राजा एकत्र हुए थे (शान्ति. राक्षस-सत्र-पराशरजीने राक्षसोंपर कुपित होकर राक्षस- ३)। मत्रका अनुष्ठान करके उसमें राक्षसोंको जलाना आरम्भ
राजसूयपर्व-सभापर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ३३ किया (आदि० १८० । २-३) । पुलस्त्य आदि
से ३५ तक)। महर्षियोंके समझानेसे पराशरद्वारा इस सत्रकी समाप्ति (आदि. १८० । २१)।
राजसूय-एक महायज्ञ, राजा हरिश्चन्द्रद्वारा इसका अनुष्ठान
(सभा० १२ । २३)। राजसूयपर्वमें इसका विशेष राग-खाण्डव-महाराज दिलीपके यज्ञमें बना हुआ एक प्रकारका मोदक (द्रोण. ६१।०)।
वर्णन (सभा० अध्याय ३३ से ३५ तक)। युधिष्ठिर
द्वारा इसका अनुष्ठान ( समा० ४५ अध्याय )। रागा-महर्षि अङ्गिराकी द्वितीय कन्या । इसपर समस्त
युधिष्ठिरके राजसूय यशकी विशेषता (सभा०४५।३८ प्राणियोंका अनुराग प्रकट था, इसीलिये इसका नाम
के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ८४१-८४३)। 'रागा' हुआ (वन० २१८ । ४)।
राजसूयारम्भपर्व-सभापर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय राजगृह (गिरिव्रज) एक प्राचीन नगरी, जो मगधकी राजधानी थी। जहाँका राजा दीर्घ, जो बलाभिमानी था,
१३ से १९ तक)। पाण्डुद्वारा मारा गया था (आदि. ११२।२७)।
रात्रिदेवी-रात्रिकी अधिष्ठात्री देवी । शचीने अपनी मनोयह नगरी राजा अम्बुवीचिकी भी राजधानी रह चकी कामना-पूर्तिके लिये इनकी आराधना की थी (उद्योग. (आदि. २०३।१७) । यहाँका राजा जरासंध था १३ । २५-२७)। ये मूर्तिमती होकर स्कन्दके अभिषेक(सभा० २१ अध्याय)। यह एक तीर्थ भी है, यहाँ समारोहमें पधारी थीं (पल्य. ४५।१५)। स्नान करनेसे मनुष्य कक्षीवान्के समान प्रसन्न होता है राधा-अधिरय सूतकी पत्नी, जिसकी गोदमें अधिरथने (वन० ८४ । १०४-१०५)। सहदेवकुमार मेघसंधि बालक कर्णको दिया था (भादि०६७ । १४०; आदि.
भी यहीपर निवास करता था ( आश्व० ८२ । ३)। ११० । २३ ) । इसके द्वारा कर्णका नामकरण राजधर्मा-एक बकराज । इसका दूसरा नाम नाडीज (आदि. ११०।२४, वन० ३०१ । १० उद्योग
था । यह कश्यपका पुत्र और ब्रह्माका मित्र था१४।५-६)। (शान्ति० १६९ । १९-२०)। इसके द्वारा कृतघ्न राम (रामचन्द्र)-अविनाशी महाबाहु भगवान् विष्णुके गौतमका स्वागत (शान्ति. १६९ । २३-२४)। कृतघ्न अवतारस्वरूप दशरथनन्दन श्रीराम । जगत्की प्रसन्नता गौतमका आतिथ्य-सत्कार (शान्ति.१७०।३-९)।
बढ़ाने और धर्मकी स्थापनाके लिये श्रीहरिने अपने-आपको इसका धनके लिये गौतमको अपने मित्र राक्षसराज चार रूपोंमें विभक्त करके चैत्र शुक्ला नवमीको इस विरूपाक्षके पास भेजना (शान्ति. १७०।१४-१६)।
भूतलपर अवतार लिया था, श्रीरामको साक्षात् भूतनाथ धन लेकर लौटे हुए गौतमका सत्कार करना (शान्ति. श्रीहरिका स्वरूप बताया जाता है । इनका विश्वामित्रके १.१ । २९-३०)। गौतमद्वारा इसका वध (शान्ति. यह विघ्न डालनेके कारण सुबाहुका वध करना और १. २३)। सुरभिके फेनसे राजधर्माका जीवित होना मारीचको भी चोट पहुँचाना । विश्वामित्रद्वारा इन्हें और विरूपाक्षसे मिलना (पान्ति. १.।-५)। देवताओंके लिये दुर्जय दिन्यास्त्रोंका दान । जनकके गौतमको जिलानेके लिये इसका इन्द्रसे अनुरोध (शान्ति. धनुर्यशमें इनके द्वारा शिवजीके धनुषका भजन । सीता१७३ । 11-१२)। इन्द्रद्वारा अमृतके छिड़के जानेपर जीके साथ इनका विवाह । पिताकी आशासे इनका गौतमका जीवित होना और राजधर्माका धन आदिसहित चौदह वर्षके लिये वनवास । इनके द्वारा जनस्थानमें रहकर गौतमको विदा करके अपने घरमें प्रवेश करना (शान्ति.
देवताओंके कार्योंका साधन और वहीं जनहितके लिये १७३ । १३-१५)।
चौदह हजार राक्षसोंका वध । राक्षसोंके षड्यन्त्रसे इनकी राजधर्मानुशासनपर्व-शान्तिपर्वका एक अवान्तर पर्व पत्नी सीताका अपहरण । सुग्रीवके साथ इनकी मित्रता । (अध्याय । से १३० तक)।
इनके द्वारा वानरराज वालीका वध और सुग्रीवका राजनी-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा राज्याभिषेक । इनका समुद्रपर सेतु बाँधकर लङ्कामें प्रवेश पीती है (भीम०९।२१)।
और इनके द्वारा रावणका वध । विभीषणका लङ्काके राज
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राम (रामचन्द्र )
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( २८३ )
अध्याय
पदपर अभिषेक और उन्हें अमरत्व प्रदान । पुनः दलबलसहित पुष्पक विमानद्वारा अयोध्या में आकर धर्मपूर्वक राज्यका पालन । इनकी आज्ञासे शत्रुघ्नद्वारा मथुरा निवासी मधुपुत्र लवणासुरका वध । इनके द्वारा दस अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान । इनके राज्यकी विशेषता ( सभा० ३८ । २९ के बाद, पृष्ठ ७९४ से ७९५ तक ) । सरयूके गोप्रतार तीर्थ में सेवकों वाहनोंके साथ स्नानकर श्रीराम अपने नित्यधामको पधारे थे ( वन० ८४ । ७०७१ ) । लोमशजीका युधिष्ठिरको इनका चरित्र सुनाना ( वन ० ९९ । ४१–७१ । ) । हनुमान् जीद्वारा भीमसेन के प्रति इनके संक्षिप्त चरित्रका वर्णन ( वन० १४८ २) । इनके पिताका नाम दशरथ, माताका नाम कौसल्या तथा पत्नीका नाम सीता था ( वन० २७४ । ६ – ९ ) । ये अपने चार भाइयोंमें ज्येष्ठ थे और बुद्धिमान् थे । अपने मनोहर रूप एवं सुन्दर स्वभावसे समस्त प्रजाको आनन्दित करते थे। सबका मन इन्हींमें रमता था। इसके सिवा ये पिता के मनमें भी आनन्द बढ़ानेवाले थे । पिताकेमनमें इन्हें युवराजपदपर अभिषिक्त करनेकी इच्छा हुई; अतः इस विषय में उन्होंने मन्त्रियों और धर्मश पुरोहितोंसे सलाह ली । सबने एक स्वरसे उनके इस समयोचित प्रस्तावका अनुमोदन किया ( वन ० २७७ । ६–८ )। श्रीरामचन्द्रजीके नेत्र सुन्दर और कुछ-कुछ लाल थे । भुजाएँ बड़ी एवं घुटनोंतक लम्बी थीं । ये मतवाले हाथीके समान मस्तानी चालसे चलते थे। इनकी ग्रीवा शङ्खके समान सुन्दर, छाती चौड़ी और सिरपर काले-काले घुँघराले बाल थे। इनकी देह दिव्य दीसिसे दमकती रहती थी । युद्धमें इनका पराक्रम देवराज इन्द्र से कम नहीं था । ये समस्त धर्मोके पारंगत विद्वान् और बृहस्पति के समान बुद्धिमान् थे । सम्पूर्ण प्रजाका इनमें अनुराग था । ये सभी विद्याओंमें प्रवीण तथा जितेन्द्रिय थे। इनका अद्भुत रूप देखकर शत्रुओंके भी नेत्र और मन लुभा जाते थे। ये दुष्टोंका दमन करने में समर्थ, धर्मात्माओंके संरक्षक, धैर्यवान्, दुर्धर्ष, विजयी तथा अपराजित थे । कौसल्यानन्दन श्रीरामको देखकर पिता दशरथके मनमें बड़ी प्रसन्नता होती थी ( वन० २७७ । ९–१३ ) । मन्थरा के बहकानेसे कैकेयीका राजा दशरथ से भरत के राज्याभिषेक और श्रीरामके वनवासका वर माँगना ( वन० २७७ । १६ – २६ ) । पिताके सत्यकी रक्षा के लिये इनका लक्ष्मण और सीता के साथ वन-गमन ( वन० २७७ । २८-२९ ) । इनके वियोगमें राजा दशरथका देहत्याग ( वन० २७७ । ३० ) । श्रीराम-लक्ष्मणके वनमें चले जानेसे कैकेयीका अयोध्या के राज्यको निष्कण्टक मानकर उसे भरतके हाथोंमें
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राम (रामचन्द्र )
सौंपना । भरतका कैकेयीको फटकारकर भाई श्रीरामका अनुसरण करना और उन्हें लौटा लानेकी इच्छासे ऋषियों, ब्राह्मणों तथा नगर और जनपदके लोगोंके साथ चित्रकूट जाकर श्रीरामका दर्शन करना ( वन० २७७ । ११३८ ) । श्रीरामकी आज्ञासे भरतका वहाँसे लौटना और इनकी चरण पादुकाओंको आगे रखकर नन्दिग्राम में रहते हुए राज्य की देख-भाल करना ( वन० २७७ । (३९ ) । नगर और जनपदके लोगोंके पुनरागमन की आशङ्कासे इनका घोर वनमें प्रवेश करके शरभंग मुनिके आश्रमपर जाना, वहाँ इनकी शरभंग मुनिसे भेंट और उनका सत्कार करके इनका दण्डकारण्यमें गोदावरीके तटपर जाकर रहना ( वन० २७७ । ४०-४१ ) । इनका शूर्पणखाके कारण जनस्थान निवासी खरके साथ महान् वैर ठन जाना ( वन० २७७ । ४२ ) । वहाँ इनके द्वारा तपस्वी मुनियोंकी रक्षाके लिये खर-दूषण आदि चौदह सहस्र राक्षसों का वध ( वन० २७७ । ४४ ) । श्रीरामके भयसे ही गोकर्णतीर्थमें मारीचकी तपस्या ( वन० २७७ । ५६ ) । मारीचका रावणको श्रीरामसे भिड़नेका निषेध करना और श्रीरामको ही अपने संन्यासीपनका कारण बताना ( वन० २७८ । ६–८ ) । मारीचका मृगरूप धारण करके सीताके सामने जाना, सीताका उसे मार लानेके लिये श्रीरामको प्रेरित करना और सीताका प्रिय करनेके लिये लक्ष्मणको उनकी रक्षामें नियुक्त करके श्रीरामका धनुष-बाण ले उस मृगके पीछे जाना ( वन० २७८ । १७ – २० ) । श्रीरामद्वारा मृगरूपधारी मारीचको पहचानकर उसका वध ( वन० २७८ । २१-२२ ) । रावणद्वारा इनकी पत्नी सीताका अपहरण ( वन० २७८ । ४२-४४ ) । श्रीरामका सीताको अकेली छोड़कर चले आनेके कारण लक्ष्मणको कोसना और आश्रमकी ओर शीघ्रतापूर्वक जाना । मार्ग में पर्वताकार जटायुको गिरा देख उन्हें राक्षस समझकर लक्ष्मणसहित श्रीरामका धनुष खींचकर उनपर धावा करना और उनके द्वारा अपना परिचय देनेपर उनके निकट जा उनकी दुर्दशा को प्रत्यक्ष देखना, 'श्रीसीताको छुड़ानेके लिये युद्ध करते समय मैं रावणके हाथसे मारा गया हूँ और वह दक्षिण दिशाको गया है ' - यह संकेतसे बताकर जटायुका श्रीरामके सामने ही प्राण त्याग करना । इनके द्वारा जटायुका अन्त्येष्टि- संस्कार ( वन० २७९ । १४ – २४ ) । इनके द्वारा कबन्धकी बायीं भुजाका छेदन ( वन० २७९ । ३६-३७ ) । कबन्धका विश्वावसु गन्धर्वके रूपमें परिणत हो श्रीरामको अपना परिचय देना और पंपा सरोवर के निकट ऋष्यमूक पर्वतपर निवास करनेवाले सुग्रीवके साथ मैत्री स्थापित करनेकी सलाह देकर उसका वहाँसे अन्त
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राम (रामचन्द्र)
( २८४ )
रामक
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ना
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र्धान हो जाना (वन.२०९। ४०-४८)। पंपा-सरोवरपर जाकर श्रीरामका सीताके लिये विलाप और लक्ष्मणका उन्हें सान्त्वना देना (वन० २८० । १-६)। इनका पंपा-सरोवरमें स्नान करके पितरोंका तर्पण करना और ऋष्यमूकके पास जा उसके शिखरपर बैठे हुए पाँच वानरोंको देखना ( वन. २८ । ८-९)। हनुमानजीसे भेंट
और वार्तालापके पश्चात् इनकी सुग्रीवके साथ मित्रता और उनसे अपना कार्य निवेदन करना । सुग्रीवका सीताके गिराये हुए वस्त्रको इन्हें दिखाना (वन० २८० । १०१२)। श्रीरामका सुग्रीवको वानरराजके पदपर अभिषिक्त करना तथा वालीको मार गिरानेकी प्रतिज्ञा करना । सुग्रीवका भी सीताको ढूँढ़ लानेका विश्वास दिलाना (वन० २८० । १३-१४)। इनके द्वारा बालीका वध (वन० २८० ।३५-३०)। इनका वर्षाके चार मासतक माल्यवान्के सुन्दर पृष्ठ-भागपर निवास करना (वन. २८० । ४०)। इनका सुग्रीवपर कोप (वन० २८२ । ५-११)। लक्ष्मणका सुग्रीवको साथ लेकर माल्यवान् पर्वतके शिखरपर श्रीरामके पास आना और उनके द्वारा किये जानेवाले सीताके अनुसंधान-कार्यकी सूचना देना (वन० २८२ । २२)।श्रीहनुमान्जीका लंकासे लौटकर श्रीरामको वहाँका वृत्तान्त एवं सीताका कुशल-समाचार सुनाना ( वन० २०२ । ३७-७१)। श्रीरामके पास विभिन्न देशोसे विशाल वानर-सेनाओंसहित वानर-यूथपतियोंका आगमन (वन० २८३ । १-१३)। शुभमुहर्तमें सेनासहित श्रीरामका लंकाको प्रस्थान (वन० २८३ । १४-१५)। श्रीगमका समुद्रसे पार होनेके लिये वानरोंसे उपाय पूछना और समुद्रकी आराधनाका निश्चय करके उसके तटपर धरना देना (वन० २८३ । २३३२)। स्वप्नमें समुद्रका श्रीरामचन्द्रजीको दर्शन देकर उन्हें नलके द्वारा सेतु बाँधकर उसीसे सेनासहित पार जानेका परामर्श देना (वन० २८३ । ३३-४२)। श्रीरामका नलको आदेश देकर समुद्रपर सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा पुल तैयार कराना ( वन० २८३ । ४३-४५) । इनके पास सचिवोसहित विभीषणका आगमन तथा श्रीरामका चरित्र और चेष्टाओंद्वारा उन्हें शुद्ध पाकर उनपर संतुष्ट होना, उन्हें राक्षसोंके राज्यपर अभिषिक्त करना, सलाहकार बनाना और उन्हींकी रायसे महासागरको पार करना (वन० २८३ । १६-५०)। इनका लंकाकी सीमामें पहुँचकर वहाँके उद्यानोंको नष्टभ्रष्ट करना, विभीषणकी कैदमें पड़े हुए शुक और सारणको अपनी सेनाका दर्शन कराकर छोड़ना और अङ्गदको रावणके दरबारमें दूत बनाकर भेजना (वन २८३ । ५१-५४)। अङ्गदका रावणके पास जाकर
श्रीरामका संदेश सुनाना और वहाँसे लौटकर श्रीरामको वहाँकी सारी बातें बताकर इनके द्वारा प्रशंसित होना (वन० २८४।१-२२)। इनके द्वारा निशाचरोंका संहार (वन० २८४ । ३९)। श्रीराम और रावणकी सेनाओंका द्वन्द्वयुद्ध (वन० २८५ अध्याय)। इन्द्रजित्द्वारा किये गये मायामय युद्ध में लक्ष्मणसहित श्रीरामकी मूर्छा (वन० २८८ अध्याय)। इनका सचेत होकर कुबेरके भेजे हुए अभिमन्त्रित जलसे प्रमुख वानरोंसहित अपने नेत्र धोना (वन.२८९ । १-१४)। श्रीराम और रावणका युद्ध तथा इनके द्वारा रावणका वध (वन० २९० अध्याय)। सीताके प्रति श्रीरामका संदेह इनके पास ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण, कुबेर, सप्तर्षिगण तथा स्वर्गीय महाराज दशरथका आगमन, सीताका इनके समक्ष आत्मशुद्धिके लिये शपथ खाना, वायु-अग्नि आदि देवताओंका इनके सामने सीताकी शुद्धिका समर्थन करना, दशरथका इन्हें अयोध्या जाकर राज्यशासन करनेकीआज्ञा देना, श्रीरामका देवताओंको नमस्कार करके अपनी पत्नी सीतासे मिलना, अविन्ध्यको वरदान और त्रिजटाको धन एवं सम्मान देकर संतुष्ट करना (वन. २९१ । १-४१) ब्रह्माजीके दिये हुए वरसे श्रीरामका मरे हुए वानरोंको जिलाना, मातलिका इन्हें वर देना
और श्रीरामका पुष्पकविमानद्वारा दलबलसहित किष्किन्धामें पधारकर सुग्रीवका राज्याभिषेक करके अङ्गदको युवराज-पदपर प्रतिष्ठित करना तथा अयोध्यामें लौटकर भरतसे मिलना एवं राज्यपर अभिषिक्त होना (वन. २९१ । १२-६६)। राज्याभिषेकके बाद श्रीरामका सुग्रीव और विभीषणको सादर विदा करना, पुष्पकविमानको कुबेरके पास लौटा देना और गोमतीके तटपर ( नैमिषारण्यमें ) दस अश्वमेध यशोंका अनुष्ठान करना (वन० २९१ । ६७-७०)। सुंजयको समझाते हुए नारदजीका इनके चरित्रका वर्णन करना (द्रोण० ५९ अध्याय) । श्रीकृष्णद्वारा इनके राज्य आदिका वर्णन (शान्ति० २९।५१-६२) गोदान-महिमाके प्रसंगमें इनका नाम-निर्देश ( अनु. ७६ । २६)। इनके द्वारा मांस-भक्षण-निषेध (अनु० ११५। ६४)।
इनके यज्ञमें धन-दानका वर्णन (अनु. १३७ । १४)। महाभारतमें आये हुए रामके नाम-अयोच्याधिपति,
दशरथपुत्र, दशरथात्मज, दाशरथि, इक्ष्वाकुनन्दन,
काकुत्स्थ, कौसल्यानन्दिवर्धन, कौसल्यामातः, कोसलेन्द्र, __ लक्ष्मणाग्रज, राघव आदि । रामक-एक पर्वत, जिसे दक्षिण-दिग्विजयके समय सहदेवने
अपने अधिकारमें कर लिया था (सभा० ३१ । ६८)
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रामठ
( २८५ )
रुक्मिणी
रामठ-पश्चिम दिशामें निवास करनेवाली एक म्लेच्छ जाति श्रेष्ठ, राक्षसमहेश्वर, राक्षसपति, राक्षसपुङ्गव, राक्षसराज, जिसे नकुलने पश्चिम-दिग्विजयके समय आशामात्रसे ही राक्षसेश्वर, राक्षसेन्द्र आदि । अपने अधीन कर लिया था ( सभा० ३२ । १२)। इस राहु-कश्यपद्वारा सिंहिकाके गर्भसे उत्पन्न (भावि० ६५। जातिके लोग युधिष्ठिरके राजसूय-यशमें बुलाये गये थे-- ३.)। इसके द्वारा कपटपूर्वक अमृतका पान और इसकी चर्चा ( वन० ५१ । २५)।
भगवान् विष्णुके द्वारा इसका शिरश्छेदन (आदि. १९ । रामणीयक-एक द्वीप, जो नागोंका निवासस्थान है (आदि. ४-६)। चन्द्रमा तथा सूर्यके साथ इसका वैर (आदि. २६ । ८)। इसके वन आदिका विशेष वर्णन (आदि.
१९ । ९)। ब्रह्माजीकी सभामें बैठनेवाले ग्रहों के साथ इसका २७।१-९)।
भी नाम आया है (सभा० ११ । २९)। धृतराष्ट्र के प्रति
संजयद्वारा इसका विशेष वर्णन (भीष्म १२।१०-१३)। रामतीर्थ-(१) गोमती नदीका एक तीर्थ, जिसमें स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और अपने कलकोपवित्र रुक्मरथ-(१)मद्रराज शल्यका पुत्र जोअपने पिता और भाई कर देता है (वन.८४ । ७३)। (२) परशुराम
रुक्माङ्गदके साथ द्रौपदी-स्वयंवरमें आया था (आदि. सेवित महेन्द्रपर्वतपर स्थित एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे १८५ । १४)। इसका श्वेतके साथ युद्ध और उसके अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है (वन० ८५।१७)।
बाणोंसे मूञ्छित होना (भीष्म ४७॥ १८-५९)। (३) सरस्वती-तटवर्ती एक तीर्थ; इसका विशेष वर्णन
अभिमन्युके साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा वध (शल्य० ४९। ७-११)।
(द्रोण. ४५। ९-१३) । सहदेवके हाथसे इसके मारे रामहद-कुरुक्षेत्रकी सीमाका निर्धारण करनेवाला एक ह्रद
जानेकी चर्चा (कर्ण० ५। २६) । (२) सुवर्णमय
रथपर चलनेके कारण द्रोणाचार्यका एक नाम रुक्मरथ (शल्य. ५३ । २४) । इसमें काशिराजकी कन्या अम्बाने स्नान किया था ( उद्योग. १८६ । २८)।
भी था (विराट. ५८ । २)। (३) कौरवपक्षके
त्रिगर्तदेशीय राजकुमारोंके एक दलका नाम, जिसने कर्णरामोपाख्यानपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
की आज्ञासे अर्जुनपर आक्रमण किया था (मोण. २७३ से २९२ तक)।
११२ १९-२५)। रावण-एक राक्षसराज, जो अत्यन्त दुरात्मा था और सीता
रुक्माङ्गद-मद्रराज शल्यका पुत्र, जो अपने पिता और जीको हर ले गया था (वन १४७ । ३३-३४)। यह भाई रुक्मरथके साथ द्रौपदी-स्वयंवरमें आया था (आदि. विश्रवाका पुत्र था। इसकी माताका नाम पुष्पोत्कटा था।
था। इसका माताका नाम पुष्पात्कटा था। १८५| १४)। इसीका छोटा भाई कुम्भकर्ण था (वन० २७५। ७)। वन० २७५ । । रुक्मिणी-नारायण-स्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको आनन्द
HTTAm इसकी अद्भुत तपस्या और ब्रह्माजीसे इसका वर माँगना
प्रदान करनेके लिये भूतलपर विदर्भराज भीष्मकके कुलमें (वन० २७५। १६-२५) । इसे कुबेरका शाप उत्पन्न हई लक्ष्मी (आदि०६७ । १५६)। शिशुपाल इन्हे (वन० २७५ । ३४-३५)। मारीचके पास जाकर उसे
चाहता था, परंतु न पा सका (सभा० ४५। १५)। कपटमृग बननेके लिये बाध्य करना (वन० २७८ । ९)। इनका लक्ष्मीसे उनके निवासयोग्य स्थान पूछना (अनु. इसके द्वारा सीताजीका अपहरण (वन० २७८ । ४३)। ११।४)। इनके पुत्रोंके नाम--चारुदेष्ण, सुचारु, इसके द्वारा जटायुके पंखोंका काटा जाना ( वन. चारवेश, यशोधर, चारुश्रवा, चास्यशा, प्रद्युम्न, शम्भु २७९ । ६) । इसे नलकूबरके शापकी चर्चा (वन.
(अनु० १४ । ३३.३४) । महर्षि दुर्वासाद्वारा इनका २८० । ५७-६१)। इसका सीताजीको अपने अनुकूल रथमें जोता जाना (अनु. १५९ । २८-३५)। प्रसन्न होनेके लिये समझाना (वन० २८१ अध्याय)। अङ्गद- हुए दुर्वासाद्वारा इन्हें वर-प्राप्ति ( अनु० १५९ । ४५..का रावणको श्रीरामके संदेश सुनाना (वन २८४ । ४७)। श्रीकृष्णरहित द्वारका और श्रीकृष्णपत्नियोंको १०-१६)। इसका कुम्भकर्णको युद्धके लिये जगाना
देखकर फूट फूटकर रोते हुए अर्जुन जब मूञ्छित होकर (वन० २८६ । २०)। इन्द्रजित्को युद्ध के लिये भेजना
पृथ्वीपर गिर पड़े, तब रुक्मिणी आदि रानियाँ वहाँ दौड़ी (वन० २८८ । २)। सीताजीको मार डालनेके लिये
आयीं और अर्जुनको घेरकर उच्चस्वरसे विलाप करने लगीं। उद्यत होना (वन० २८९ । २७)। श्रीरामद्वारा इसका
उन्होंने अर्जुनको उठाकर उन्हें सोनेकी चौकीपर बिठाया। वध (वन० २९० । ३०)।
उन्हें घेरकर वे चुपचाप बैठ गयीं (मौसल०५।१२महाभारतमें आये हुए रावणके नाम-दशग्रीव, १४)। रुक्मिणीने पतिलोककी प्राप्तिके लिये अग्निमें
दशकन्धर, दशानन दशास्य, पौलस्त्य, पौलस्त्यतनय, प्रवेश किया था ( मौसल. ७।७३)। महाबाहु रक्षःपतिरक्षः, राक्षस, राक्षसाधिर, राक्षसाधिपति, राक्षस- विश्वकर्माने इन्द्रकी प्रेरणासे भगवान् पद्मनाभके लिये जिस
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रुक्मी
रुद्रमार्ग
मनोहर प्रासादका निर्माण किया है, उसका विस्तार सब यह कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी कन्याके स्वयंवरम गया था
ओरसे एक-एक योजनका है, उसके ऊँचे शिखरपर सुवर्ण (शान्ति०४।.)। मढ़ा गया है, जिससे वह मेरु पर्वतके उत्तुङ्ग शृङ्गकी शोभा रुचि-(१) अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्रके धारण कर रहा है । वह प्रासाद महात्मा विश्वकर्माने स्वागतके अवसरपर कुबेर-भवनमें नृत्य किया था (अनु. महारानी रुक्मिणीके रहनेके लिये बनाया है । यह इनका १९।४.)। (२) महर्षि देवशर्माकी पत्नी, जो सर्वोत्तम निवास है (सभा० ३८।२८ के बाद दा.
अनुपम सुन्दरी थी । इन्द्र इसपर आसक्त हो गये थे । पाठ, पृष्ठ ८१४, कालम २)।
(अनु. ४० । 10-1८)। इसकी रक्षाका भार अपने रुक्मी -एक श्रेष्ठ नरेश, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे शिष्य विपुलको सौपकर देवशर्माका यज्ञके लिये बाहर जाना
उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६२)। (यह विदर्भदेशीय (अनु. ४० । २१-४१)। विपुलका योगद्वारा भोजकट नगरका राजा, भीष्मकका पुत्र और रुक्मिणीका
रुचिके शरीरमें प्रवेश करना (अनु०४०।५८-६०)। भाई था।) यह भोजकटका निवासी था, सहदेवके कामासक्त इन्द्रका रुचिके पास आना और अपना परिचय दिग्विजयके समय इसने प्रेमपूर्वक उनका शासन स्वीकार देना (अनु. ४१ ।२-८)। विपुलद्वारा इन्द्रसे किया था (सभा०३१ । ६२-६३)। कर्णकी दिग्विजय
रुचिकी रक्षा और देवशर्माके लौटनेपर रुचिको उन्हें के समय इसका उसे कर देना (वन० २५४।१४)।
सौंपना ( अनु० ४१ । २७-२१)। उसका अपनी पाण्डवोंकी ओरसे इसको रणनिमन्त्रण भेजनेका
बहिन प्रभावीके यहाँ, जो अङ्गराजकी पत्नी थी, जाते निश्चय किया गया था ( उद्योग. ४ । १६)। समय मार्गमें किसी देवसुन्दरीकी वेणीसे गिरे हुए इसके पिता दाक्षिणात्य देशके अधिपति और साक्षात् सुगन्धित पुष्पको अपनी वेणीमें गूंथकर जाना और उस इन्द्र के सखा महामना भीष्मक थे, जिन्हें हिरण्यरोमा भी पुष्पको देखकर प्रभावतीका वैसे ही पुष्प मँगवा देनेके कहते हैं । रुक्मी सम्पूर्ण दिशाओंमें विख्यात था । इसने
लिये इससे अनुरोध करना (अनु. ४२ । ५-१०)। गन्धमादननिवासी किंपुरुषप्रवर द्रुमका शिध्य होकर चारों इसका आश्रमपर लौटकर देवशर्मासे वैसे ही पुष्प मँगा पादोंसे युक्त सम्पूर्ण धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की थी। इसे
देनेके लिये आग्रह करना ( अनु. ४२।)। इन्द्रदेवताका तेजस्वी विजय नामक धनुष प्राप्त हुआ था
पतिके साथ इसका स्वर्गलोकमें जाना (अनु. ४३ । जो गाण्डीव और शाईधनुषके समान ही तेजस्वी था। १७)। यह धनुष उसे अपने गुरुदेव द्रुमसे ही प्राप्त हुआ था । रुचिपर्वा-राजा आकृतिका पुत्र, जिसने भीमसेनकी रक्षाके इसने पूर्वकालमें श्रीकृष्णद्वारा किये गये अपनी बहन लिये भगदत्तके हाथीपर आक्रमण किया और भगदत्तद्वारा रुक्मिणीके अपहरणको सहन न कर सकनेके कारण यह मारा गया (द्रोण. २६ । ५१-५३)। प्रतिज्ञा की थी कि मैं श्रीकृष्णको मारे बिना अपने नगरको नहीं लौटूंगा । परंतु भगवान् श्रीकृष्णके पास पहुँचकर ।
रुचिप्रभ-एक राक्षस, जो प्राचीनकालमें इस पृथ्वीका यह उनसे पराजित हो गया, अतः लजावश पुनः
शासक था, परंतु कालके वश होकर इसे छोड़ परलोककुण्डिनपुरको नहीं लौटा। जहाँ उसकी पराजय हुई,
__ वासी हो गया था (शान्ति० २२७ । ५२)। वहीं उसने भोजकट नामक नगर बसाया और उसी में वह रुद्र-महादेवजीका एक नाम (उद्योग० ११७।१०)। समस्त परिवारके साथ रहने लगा ( उद्योग० १५८ । ( विशेष देखिये शिव ) १-१६)। यह एक अक्षौहिणी सेनासे घिरा हुआ
रुद्रकोटि-यह वह स्थान है, जहाँ शिवजीके दर्शनकी पाण्डवोके पास आया । इसके मनमें श्रीकृष्णका प्रिय
अभिलाषासे करोड़ों मुनि एकत्र हुए थे और उनपर करने की इच्छा थी । पाण्डवोंको इसकी सूचना मिली और
प्रसन्न होकर शिवजीने करोड़ों शिवलिङ्गोंके रूपमें उन्हें युधिष्ठिरने आगे बढ़कर इसकी अगवानी की। आदर
दर्शन दिया था । यहाँ स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका सत्कारके पश्चात् इसने विश्राम किया । तदनन्तर इसने
फल मिलता है और कुलका उद्धार हो जाता है (वन० अर्जुनसे कहा-'यदि तुम डरे हुए हो तो मैं तुम्हारी
८२ । ११८-१२४; वन० ८३ । ७७)। सहायताके लिये आ पहुँचा हूँ ।' अर्जुनने हँसकर इसकी सहायता लेनेसे इनकार कर दिया । तब इसने दुर्योधनके
रुद्रपद-एक तीर्थ, जहाँ जाकर शिवजीकी पूजा करनेसे पास जाकर वहाँ भी यही बात कही । वीर मानी दुर्योधनने अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है (वन० ८२ । इसकी सहायताको ठुकरा दिया और यह सकुशल अपने .१००)। घरको लौट गया (उद्योग० १५८ । १७-३९)। रुद्रमार्ग-एक तीर्थ, यहाँ जाकर एक दिन-रात उपवास
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रुद्ररोमा
( २८७ )
रेवती
करनेसे यात्री इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है ( वन० ८३ । रुषद्व-एक प्राचीन राजा, जो यमराजकी सभामें रहकर १८१.१८२)।
उनकी उपासना करते हैं (सभा०८।१३)। रुद्ररोमा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६। रुषद्धिक-सुराष्ट्र-वंशी एक कुलाङ्गार राजा (उद्योग.
७४ । १४)। रुद्रसन-कार्तिकेयका एक नाम और इस नामकी निरुक्ति
रुहा-नागमाता सुरसाकी पुत्री इसकी दो बहिनें और है, (वन० २२९ । २७)।
जिनके नाम हैं-अनला और वीरुधा । जो वृक्ष फूलसे रुद्रसेन-युधिष्ठिरका सम्बन्धी और सहायक एक राजा
फल ग्रहण करते हैं, वे सभी इसकी संतान हैं ( आदि. (द्रोण. १५८ । ३९) ।
६६। ७. के बाद दा. पाठ)। रुद्राणी-पार्वतीजीका एक नाम (उद्योग० १३७ । १०)। रूपवाहिक-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४३)। (विशेष देखिये पार्वती)
रूपिण-ये सम्राट अजमीढ़के द्वारा केशिनीके गर्भसे उत्पन्न रुद्राणीरुद्र-एक तीर्थ, जहाँ उत्तर दिशाको जाते हुए
हुए हुए थे। इनके दो भाई और थे, जिनके नाम हैं---जल अष्टावक्र मुनि पधारे थे (अनु० १९ । ३१)।
और व्रजन ( आदि. ९४ । ३२)। रुद्रावर्त-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनसे स्वर्गलोककी प्राप्ति __होती है (वन० ८४ । ३७)।
रेणुक-एक रसातल-निवासी अत्यन्त शक्तिशाली और
सत्त्व एवं पराक्रमसे युक्त नाग, जिसने देवताओंके भेजनेरुमण्वान्-जमदग्निद्वारा रेणुकाके गर्भसे उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र,
से दिग्गजोंके पास जाकर धर्मके विषयमें प्रश्न किया इनके चार भाई और थे । जिनके नाम हैं—सुषेण, वसु, विश्वावसु और परशुराम । इन्हें माताका वध करनेके लिये
(भनु० १३२ । २-६)। पिताने आज्ञा दी; परंतु इन्होंने उसका पालन नहीं रेणुका-(१) मुनिवर जमदग्निकी पत्नी एवं परशुरामजीकी किया, जिससे कुपित होकर महर्षि जमदग्निने इन्हें शाप
माता (वन० ९९। ४२) इनके गर्भसे रुमण्वान्, सुषेण, दे दिया । शापवश ये मृग-पक्षियोंकी भाँति जड-बुद्धि हो वसु, विश्वावसु और परशुरामका जन्म (वज० ११६ । गये ( वन० ११६ । १०-१२) । परशुरामजीने
४)। इनपर कुपित हुए पिताकी आज्ञासे परशुरामपिताको प्रसन्न करके इन्हें शापमुक्त कराया (बन० द्वारा इनका वध (वन० ११६ । १४)। जमदग्निके ११६ । १७-१८)।
वरसे इनका पुनरुजीवन ( वन० ११६ । १७-१८)। रुरु-एक ऋषिकुमार, जो महर्षि च्यवनके पौत्र तथा
महर्षि जमदग्निके चलाये हुए बाणोंको इनका उठाप्रमतिके पुत्र थे । घृताची नामकी अप्सराके गर्भसे इनका
उठाकर लाना (अनु. ९५। ७-१५)। एक बार
लौटनेमें विलम्ब होनेपर इनका पतिको इसका कारण जन्म हुआ था (भादि. ५ । ९ अनु० ३० । ६४)। सर्पदंशनसे मरी हुई अपनी प्रेयसी प्रमद्वराके लिये
बताना ( अनु० ९५ । १६-१७ )। रेणुकाइनका विलाप करना । उसे अपनी आधी आयु देकर
(२) एक सिद्धसेवित तीर्थ, जिसमें स्नान करके
ब्राह्मण चन्द्रमाके समान निर्मल होता है (वन. ८२। जीवित करना तथा उसके साथ इनका विवाह होना (आदि०८ । २६ से ९ । १८तक)। इनका सर्पजातिसे
८२)। (३) कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक तीर्थ, द्वेष, दुण्डुभके साथ संवाद एवं इनके प्रति दुण्डुभके
जहाँ स्नान आदि करनेसे तीर्थयात्री सब पापोंसे मुक्त वारा अहिंसा एवं वर्णधोका संक्षिप्त उपदेश ( आदि.
हो अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता है (वन० ८३ । १५९. ९ । १९ से ११ अध्यायके अन्ततक)। सर्पसत्रके विषयमें इनकी जिज्ञासा तथा पिताद्वारा उसका समाधान (मादि. रेवती-(१) बलरामजीकी पत्नी (आदि. २१८ । १२ अध्याय)।
.)। (२) अदिति देवीका एक नाम (बन० २२० । रुषंगु-एक ऋषि, जिनके आश्रमपर आर्टिषेण मुनिने घोर २९)।(३) सत्ताईस नक्षत्रोंमेसे एक (भीष्म ११॥ तपस्या की थी और विश्वामित्रको यही ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति १८)। कार्तिक मासके रेवती नक्षत्र में मैत्र नामक मुहर्त हुइ थी । अन्त समयमें ये अपने पुत्रोंद्वारा पृथूदक तीर्थमें उपस्थित होनेपर श्रीकृष्णने यात्रा आरम्भ की ( उद्योग. आये और वहाँ इन्होंने ऐसी गाथा गायी कि जो सरस्वती- ८३ । ६.७)। जो रेवती नक्षत्रमें कांस्यके दुग्धपात्रसे के उत्तर तटपर पृथूदक तीर्थम जप करते शरीरका परि- युक्त धेनुका दान करता है, वह धेनु परलोकमें सम्पूर्ण त्याग करता है, उसे फिर मृत्युका कष्ट नहीं भोगना पड़ता भोगोंको लेकर उस दाताकी सेवामें उपस्थित होती है (शल्य ३९ । २४-३४)।
(अनु०६४ । ३३)। रेवतीमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष
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( २८८ )
रोहिणी
सोने चाँदीके सिवा अन्य नाना प्रकारके धन पाता है इसकी परिक्रमा की । इसी उत्सवके अवसरपर यहाँसे (अनु० ८९ । १४)। चान्द्रव्रतमें रेवतीको चन्द्रमाका अर्जुनद्वारा सुभद्राका अपहरण हुआ ( आदि० २१९ । नेत्र मानकर उनके उस अङ्गकी पूजाका विधान है ६-७)। (२) शाकद्वीपका एक पर्वत (भीष्म० (अनु. ११०।५)।
११।१८)। रैभ्य-(१) एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान रोचनामुख-एक दैत्य, जो गरुडद्वारा मारा गया था होते थे (सभा० ४।१६)। ये भरद्वाज मुनिके सखा (उद्योग० १०५।२)। थे। इनके दो पुत्र थे-अर्वावसु और परावसु । पुत्रोंसहित रैभ्य रोचमान-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो अश्वग्रीव नामक बड़े विद्वान् थे—(वन० १३५ । १२-१४)। भरद्वाजका महान् असुरके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि० ६७ । यवक्रीतको रैभ्य मुनिके पास जानेसे रोकना ( बन० १८)। द्रौपदीके स्वयंवरमें इनका शुभागमन हुआ था १३५। ५७-५८)। इनका यवक्रीतपर कुपित हो अपनी (आदि. १८५।।.)। (यह भी सम्भव है कि कोई जटाकी आहुतिद्वारा एक कृत्या और एक राक्षस उत्पन्न दुसरे रोचमान वहाँ पधारे हों। ) ये अश्वमेध देयके राजा करना तथा उन्हें यवक्रीतको मार डालनेका आदेश देना थे, इन्हें भीमसेनने अपनी दिग्विजयके समय परास्त (धन. १३६ । ८-१२)। भरद्वाज मुनिका इन्हें अपने किया था (सभा०२९। ८)। इन्हें ही पाण्डवोंकी ओरसे ज्येष्ठ पुत्रके हाथसे मारे जानेका शाप देना ( वन. रणनिमन्त्रण भेजनेका विचार किया गया था (उद्योग. १३७।१५)। अपने पुत्र परावसुद्वारा हिंसक पशुके ४ । १२)। ये पाण्डवपक्षके महारथी वीर थे ( उद्योग. धोखेमें इनकी मृत्यु (वन. १३८ । ६)। अपने १७२।१)। इन्हें ताराओंसे चित्रित अन्तरिक्षके समान दूसरे पुत्र अविसुके प्रयत्नसे इनका पुनरुजीवन (वम. चितकबरे घोड़ोंने युद्धभूमिमें पहुँचाया था (द्रोण. २० । १३८ । २०-२३)। ये अङ्गिराके पुत्र थे (शान्ति. ४७)। इनका कर्णके साथ युद्ध और उसके द्वारा २०८ । २६-२७)। इनका उपरिचर वसुके यशमें सदस्य घायल होना (कर्ण० ५६ । ४५-४७)। ( प्रकरण होना (शान्ति. ३३६ । ७)। प्रयाणके समय भीष्म- देखनेसे ये पाञ्चालदेशीय, चेदिदेशीय अथवा किसी अन्य देशजीको देखने आये थे (अनु. २६ । ६)। (२) के निवासी भी सिद्ध होते हैं।) इनका कर्णद्वारा वध (कर्ण. एक मुनि, जिन्हें वीरणसे सात्वत धर्मका उपदेश प्राप्त ५६ । ४९)। (२) एक उरगावासी नरेश, जिन्हें अर्जुनने हुआ था और जिन्होंने अपने पुत्र दिक्पाल कुक्षिको इस दिग्विजयके समय परास्त किया था (सभा. २७ । १९)।
धर्मकी शिक्षा दी थी (शान्ति०३४८।१२-४३)। (३) ये रोचमान नामके ही दो भाई थे द्रोणाचार्यद्वारा रेवत-(१) रेवतीके ग्रहका नाम (वन.२३०।२९)। इनके मारे जानेकी चचो (कणे०६।२०-२१)।
(२) एक प्राचीन राजा, जो दक्षिण दिशामें स्थित रोचमाना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (पाल्य.४६ । मन्दराचलके कुञ्जोंमें गन्धर्वोद्वारा गायी जानेवाली गाथाओं- २९)। के रूपमें सामगान सुनते-सुनते इतने तन्मय हो गये कि रोमक-एक भारतीय जनपद और वहाँके निवासी, ये अपनी स्त्री, मन्त्री तथा राज्यसे भी वियुक्त हो वनमें युधिष्ठिरके लिये भेंट-सामग्री लेकर आये थे (सभा० जानेको विवश हुए (उद्योग० १०९। ९-१०)। इन्हें ५१।१७)। मरुत्तसे और इनसे युवनाश्वको खड्गकी प्राप्ति हुई रोहिणी-(१) क्रोधवशा-कुमारी सुरभिकी पुत्री (गौ)। (शान्ति. १६६।७७-७८)। इनके द्वारा मांस-भक्षण
इसकी विमला और अनला नामकी दो कन्याएँ थीं। का निषेध (अनु. ११५।६३)। ये सायं-प्रातः कीर्तन
इससे गाय-बैलोंकी उत्पत्ति हुई (सभा० ६६ । ६०करनेयोग्य नरेश हैं (अनु० १६५।५३)। (३)ग्यारह
६८)।(२) चन्द्रमाकी पत्नी (भादि. १९८ । रुद्रों से एक (शान्ति. २०८। १९)।
५)। प्रजापति दक्षकी नक्षत्रसंशक सत्ताईस कन्याओंमें रैवतक-(१)(गुजरातका एक पर्वत, जो आधुनिक यह प्रमुख थी और अपने रूप-वैभवसे अन्य सब बहिनों
जूनागढ़के पास है और गिरनार' कहा जाता है। की अपेक्षा विशेष बढ़ी-चढ़ी थी, इसीलिये पतिकी हृदयइसीको महाभारतमें 'उजयन्त गिरि' कहा गया है। यह वल्लभा हो गयी थी (शल्य०३५ । ४५-४८)। इसे प्रभासक्षेत्रसे अधिक दूर नहीं हैं। ) श्रीकृष्ण और अर्जुन असि (ख) का गोत्र कहा गया है (शान्ति. १६६ । प्रभास क्षेत्रमें घूम-फिरकर इसी पर्वतपर चले आये थे ८२)। रोहिणी नक्षत्रमें पके हुए फलके गूदे, अन्न, ( आदि० २१७ । ८) । यहाँ यदुवंशियोंका महान् घी, दूध, पीने योग्य पदार्थ ब्राह्मणको दान करनेसे दाताको उत्सब हुआ था (आदि० २१८ । १-१२)। सुभद्राने ऋणसे छुटकारा मिलता है (अनु०१४ । ३) । संतानकी
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रोही
( २८९ )
लक्ष्मी
कामनावाले पुरुषको रोहिणी नक्षत्र में पितरोंका श्राद्ध सुमित्राके ज्येष्ठ पुत्र तथा शत्रुध्नके सहोदर भाई (वन. करना चाहिये (अनु० ८९ । ३) चान्द्रव्रतमें चन्द्रमाके २७४ । ७-८) । भीरामके साथ इनका वन-गमन नक्षत्रमय स्वरूपका चिन्तन करते समय रोहिणीको उनकी (वन० २७७ । २९)। सीताके कठोर वचन सुनकर पिण्डलियों में स्थित मानकर तत्सम्बन्धी मन्त्रसे उक्त अङ्गकी उन्हें अकेली छोड़कर इनका समके पास जाना ( वन. पूजा करे( आदि० ११०।३)। (३) वसुदेवजीकी २७८ । ३०-३१) । सीताको छोड़कर आनेके कारण भार्या तथा बलरामजीकी माता ( आदि. १९६ । ३३ श्रीरामद्वारा इनकी भर्त्सना (वन० २७१ । १३-१४)। सभा० १८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। ये वसु- इनका श्रीरामके साथ जटायुके पास जाना ( बन० २७९ । देवजीकी मृत्युके पश्चात् उनके शवके साथ ही चितापर २०)। श्रीरामके साथ वनमें घूमते हुए इनका कमन्धदग्ध हो गयीं (मौसल० ७ । १८, २४)। (४) द्वारा पकड़ा जाना और दुखी होकर विलाप करना (बन. मनु (भानु ) नामक अग्निकी तीसरी भार्या निशाके गर्भसे २७९ । ३०-३४)। श्रीरामका आश्वासन पाकर इनका उत्पन्न एक कन्या, जो स्विष्टकृत्' मानी गयी है । इसका कबन्धका दाहिनी बाँह काटना और उसके पसलीपर नाम रोहिणी है। यह किसी अशुभ कर्मके कारण हिरण्य- प्रहार करके उसे मार डालना (वन० २७९ । ३६कशिपुकी पत्नी हो गयी थी (वन. २२१ । १५, १८. ३९) । श्रीरामके कहनेसे किष्किन्धामें सुपोवसे उनका १९)।
संदेश कहना (वन० २८२ । १४) । श्रीरामने रोही-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके विभीषणको इनका मित्र बनाया (वन० २८३ । ४९)। निवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । ३०)।
इनका लंकामें राक्षसोको चुन-चुनकर मार गिराना (वन. रोहीतकर एवं रोहितकारण्य )-एक पर्वत तथा उसके
२८४ । ४०)। इनके द्वारा कुम्भकर्णका वध ( बन. समापका देश । पश्चिम-दिग्विजयके समय नकुल यहाँ
२८७ । १७-१९) । इनका प्रमाथी और वज्रवेगके होकर आगे गये थे (सभा० ३२ । ४-५)। इसीके
साथ युद्ध (वन० २८७।२५)। मेघनादके बाणोंसे निकटवर्ती वनको रोहितकारण्य' कहते हैं, जो कौरवोंकी
लक्ष्मण और श्रीराम दोनों भाइयोंका मूञ्छित होना (वन. विशाल सेनासे घिर गया था (उद्योग.१९ । ३०-३१)।
२८८ अध्याय)। इनके द्वारा मेघनादका वध (वन. (इसीको आजकल रोहतक (पंजाब ) कहते हैं । ) २८९ । २३)। रौद्र-कैलास एवं मन्दराचळपर रहनेवाले एक प्रकारके राक्षस। महाभारतमें आये हुए लक्ष्मणके नाम-इक्ष्वाकुनन्दन, उत्तराखण्ड की यात्राके समय लोमशजीने युधिष्ठिरको इनसे काकुत्स्थ, राघव, रामानुज, सौमित्रि | सावधान रहने के लिये कहा था ( वन० १३९ । १०)। (२) दुर्योधनका महारथी पुत्र । अभिमन्युके साथ रौद्रकर्मा-धृतराष्टके सौ पत्रों में से एक (आदि०६०। इसका युद्ध (भीष्म० ५५। ८-१३) । अभिमन्युके १०४, आदि. ११६ । १२)। यह भीमसेनद्वारा मारा
साथ युद्ध और उनके द्वारा इसका पराजित होना गया (द्रोण० १२७ । ६२)।
(भीष्म० ७३ । ३२-३७)। क्षत्रदेवके साथ युद्ध
(द्रोण०१४। ४९)। समुद्री प्रान्तोंके अधिपतिके रौद्राश्व-ये राजा पूरुके द्वारा पौष्टीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इनके दो भाई और थे, जिनके नाम हैं-प्रवीर और
साथ युद्ध (द्रोण २५ । ३४-३५) । अभिमन्युद्वारा
वध (द्रोण० ४६ । १७)। इसके द्वारा अम्बष्ठपुत्रके ईश्वर (भादि० ९४ । ५)। इनके द्वारा मिश्रकेशी
मारे जानेकी चर्चा (कर्ण०६।१०-11)। इसके नामक अप्सराके गर्भसे अन्वग्भानु आदि दस महाधनुर्धर
द्वारा शिखण्डीके पुत्र क्षत्रदेवके वधकी चर्चा (कर्ण. पुत्र उत्पन्न हुए (आदि. ९४।०)।
६ । २६-२७) । व्यासजीके आवाहन करनेपर गङ्गाजीके रौप्या-एक नदी, जिसके समीप चीकनन्दन जमदग्निका
जलसे प्रकट हुए कौरव-पाण्डव पक्षके लोगोंमें यह भी था प्रसर्पण नामक तीर्थ है (वन० १२९ । ७)।
(आश्रम० ३२।")। रौम्य-गणेश्वरोंका एक दल, जिसे वीरभद्रने अपने रोम- .
लक्ष्मणा-भगवान् श्रीकृष्णकी पटरानियों से एक (समा. कृपोंसे उत्पन्न किया था (शान्ति. २८४ । ३५)।
३८ । २९ के बाद दा० पाठ)।
लक्ष्मी-(१) समुद्रसे प्रकट हुई देवी (मादि. १०। लक्षणा-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्मोत्सवमें नृत्य
१५)। भगवान् विष्णुकी पत्नी (आदि० १९८।१)। किया था (आदि. १२२ । ३२)।
(इनके दो स्वरूप हैं-विष्णुप्रिया लक्ष्मी और राज्यलक्ष्मण-(१) महाराज दशरपके चार पुत्रोंमेंसे एक, लक्ष्मी । विष्णुकी प्रेयसी लक्ष्मी सतियोंकी शिरोमणि है।
म. ना. ३
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लङ्का
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( २९० )
ये पतिका आश्रय छोड़कर कहीं नहीं जातीं; किंतु राज्य लक्ष्मी अनेक स्वरूप धारण करके अनेक लोकोंमें और अनेक राजाओं के पास रहती हैं। ये अस्थिर और चञ्चल हैं । जहाँ सद्गुण है, सद्धर्म है, वहाँ इनका वास है और जहाँ इन गुणोंका अभाव है, वहाँसे ये हट जाती हैं । नीचे राज्यलक्ष्मी के विषयमें ही कुछ बातें लिखी जाती हैं -) ये कुबेरकी सभा में बिराजमान होती हैं ( सभा० १० । १९ ) । ब्रह्माजी की सभा में भी इनकी उपस्थिति होती है ( सभा० ११ । ४१ ) | द्रौपदीकी अर्जुनके लिये इनसे मङ्गल-कामना ( वन० ३७ । ३३ ) । इनका प्रह्लादको छोड़कर जाना और पूछनेपर उन्हें इसका कारण बताना ( शान्ति० १२४ । ५८- ६२ ) । बलिको त्याग - कर इन्द्रके पास आना और उनके साथ इनका संवाद ( शान्ति० २२५ । ५ – १९ । इन्द्र और नारदको इनका दर्शन देना ( शान्ति० २२८ । १६ ) । इन्द्रके पूछनेवर असुरोंके सद्गुण और दुर्गुणोंका वर्णन ( वन० २२८ । २९-८४ ) । रुक्मिणीके पूछनेपर भृगुपुत्री नारायणप्रिया लक्ष्मीद्वारा अपने निवासयोग्य स्थानोंका वर्णन ( अनु० ११ । ६ - २१ ) । गौओके साथ राज्य - लक्ष्मीका संवाद और इनका गोबर में अपना निवास बनाना ( अनु० ८२ अध्याय ) । इनके द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन (अनु० १२७ । ६-७ ) । (२) दक्ष प्रजापति - की पुत्री एवं धर्म की पत्नी ( आदि० ६६ । १४ ) | लङ्का - राक्षसोंकी राजधानी । राजसूय यज्ञके समय सहदेवने लङ्कापतिसे कर लेने के लिये वहाँ घटोत्कचको भेजा था ( सभा० ३१ | ७२ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७६० से ७६४ तक ) | युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञमैं लङ्कावासी रसोई परोसने का काम करते थे ( वन० ५१ । २३ - २६ ) । यहाँ राक्षसराज रावणकी राजधानी थी; जिसे हनुमान्जीने • जलाया था ( वन० १४८ । ९ ) । ब्रह्माजीने लङ्कापुरी कुबेरको रहनेके लिये दी थी ( वन० २७४ | १६-१७ ) । रावणने इसे कुबेरसे छीन लिया था ( वन० २६५ । ३२(३३) । सीताका अपहरण करके रावणने उन्हें लङ्काकी ही अशोकवाटिका के निकट रमणीय भवनमें रखा था ( वन० २८० । ४१-४२ ) । महापुरी लङ्का त्रिकूटपर्वतकी कन्दरामै बसी है (वन० २८२ । ५६ ) । श्रीरामने वानर-सैनिकोंद्वारा लङ्काके बगीचोंको नष्ट कराया था ( वन० २८३ । ५१ ) । लङ्कापुरीकी सुरक्षाके लिये सुदृढ़ व्यवस्थाका वर्णन ( वन० २८४ । २-६ ) । अङ्गद लङ्का श्रीराम दूत बनकर गये थे (वन० २८४ । ७) । श्रीरामद्वारा लङ्कापर चढ़ाई ( वन० २८४ । २३ )। रावणके मारे जानेपर लङ्काका राज्य विभीषणके अधिकार में दिया गया ( वन० २९१ । ५ ) ।
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ललाम
लङ्घती-एक नदी, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करती है ( सभा० ९ । २३ ) ।
लज्जा-दक्ष प्रजापतिकी पुत्री तथा धर्मकी पत्नी । ब्रह्माजीने धर्मकी पत्नियको धर्मका द्वार निश्चित किया है ( आदि० ६६ । १४-१५ ) ।
लता - एक अप्सरा, जो वर्गाकी सखी थी ( आदि० २१५ । २० ) । ब्राह्मण शापसे इसका ग्राइयोनिमें जन्म ( आदि० २१५ | २३ ) । अर्जुनद्वारा इसका ग्राह-योनिसे उद्धार ( आदि ० २१६ । २१ ) । यह कुबेरकी सभा में रहकर उनकी सेवा में उपस्थित होती है ( सभा० १० । १०-११ ) ।
लतावेष्ट-द्वारका के दक्षिणभागमें विद्यमान एक पर्वत, जो पाँच रंगका होने के कारण इन्द्र-ध्वज-सा प्रतीत होता था ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१३० कालम १ ) ।
लपिता - मन्दपाल ऋषिकी दूसरी भार्या एक शार्ङ्ग, जो जरिताकी सौत थी ( आदि० २२ । १७ ) । मन्दपाल ऋषिका लपित' से जरिताके गर्भसे उत्पन्न हुए अपने बच्चोंके विषय में उत्पन्न हुई चिन्ताका कथन ( आदि० २३२ । २ - ६ ) । लपिताका मन्दपालको फटकारते हुए उनकी उपेक्षा करना ( आदि ० २३२ । ७-१३ ) । लपेटिका - एक तीर्थ, यहाँ स्नान करनेसे तीर्थयात्री वाजपेय
यज्ञका फल पाता है और देवताओंद्वारा पूजित होता है ( बन० ८५ । १५ ) ।
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लम्पाक- एक देश, यहाँके निवासियोंने कौरवोंकी सेनामें
आकर सत्य पर धावा किया था, परंतु सात्यकिने इन्हें. छिन्न-भिन्न कर डाला था ( द्रोण० १२१ । ४२-४३ ) । लम्बपयोधरा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शक्य० ४६ । २१ ) । लम्बनी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६ ।
१८)।
लम्बा - स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६ । १८)।
लय- एक प्राचीन नरेश, जो यमकी सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । २१ ) । ललाटाक्ष- एक देश, यहाँके राजा भेंट लेकर युधिष्ठिर के
राजसूय यज्ञमें आये थे ( सभा० ५१ । १७ ) । ललाम घोड़ोंका एक भेद ( जिस घोड़े के ललाट के मध्य
भागमें तारा के समान श्वेत चिह्न हो, उसके उस चिह्नका नाम ललाम है और उस चिह्नसे युक्त अश्वको ललाम कहते हैं। ) (द्रोण० २३ | १३ ) ।
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ललितक
( २९१ )
लोपामुद्रा
ललितक-शान्तनुका उत्तम तीर्थ, यहाँ स्नान करनेसे मनुष्य लीलाढ्य-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु०
कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता (वन० ८४ । ३४ )। । ५३ )। ललित्थ-एक देश तथा वहाँके निवासी । यहाँके सैनिकोंने लोकपाल-इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण-इन्हें लोकपाल सुशर्मा के साथ अर्जुनका वध करने के लिये प्रतिज्ञा की थी कहा गया है । इनकी दमयन्ती-स्वयंवरमें आते समय (द्रोण. १७।२०)। ये अर्जुनद्वारा पीडित किये गये मार्गमें राजा नलसे भेंट और उनसे दत बनने के लिये ये (द्रोण. १९।१६) । यहाँके राजाने अभिमन्युपर कहना ( वन० ५४ । २८ से ५५ । ५ तक) । इनके बाण वर्षा की थी (द्रोण० ३७ । २६) । पूर्वकालमें द्वारा नलको वर-प्रदान (वन० ५७ । ३५-३८)। कर्णने इस देशपर विजय पायी थी ( द्रोण० ९१ । लोकपालसभाख्यानपर्व-सभापर्वका एक अवान्तर पर्व ४०)। अर्जुनद्वारा इनके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण.
(अध्याय ५ से १२ तक)। ५।४७)।
लोकोद्धार-एक लोकविख्यात प्राचीन तीर्थ, जहाँ भगवान् लवण-(१) रामणीयक द्वीपमें निवास करनेवाला एक
विष्णुने कितने ही लोकोंका उद्धार किया था । यहाँ स्नान असुर, जिसे नागोंने पहले-पहल इस द्वीपमें आनेपर देखा
करनेसे मनुष्य आत्मीय जनोंका उद्धार करता है (धन. या (आदि. २७ । २)। (२) मधु नामक राक्षसका पुत्र | श्रीरामकी आज्ञासे शत्रुघ्नद्वारा इसका वध (सभा०
८३ । ४४-४५)। ३८ । २९ के बाद दा०पाठ, पृष्ठ ७९५)।चक्रवर्ती राजा लोपामुद्रा-महर्षि अगस्त्यने अपनी पत्नी बनानेके लिये मान्धाता लवणासुरके द्वारा प्रयुक्त हुए शिवजीके त्रिशूलसे एक सुन्दरी कन्याका निर्माण किया और पुत्रके लिये सेनासहित नष्ट हो गये। अभी वह शूल असुरके हाथमें ही
तपस्या करनेवाले विदर्भराजके हाथमें उसे दे दिया। उस था कि राजाका सर्वनाश हो गया (अनु. १४ । २६७
कन्याका उस राजभवन में बिजलीके समान प्रादुर्भाव २६८)।
हुआ । उसे पाकर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने
ब्राह्मणोंको यह शुभ संवाद सुनाया । ब्राह्मणोंने उस लवणाश्व-एक ब्रह्मर्षि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका विशेष सम्मान करते थे (वन० २६ । २३)।
कन्याका नाम लोपामुद्रा' रख दिया । धारे-धारे वह
युवावस्थामें प्रविष्ट हुई। सौ दासियाँ और सौ कन्याएँ लाक्षा-गृह-दुष्ट दुर्योधनकी प्रेरणासे महात्मा पाण्डवोके
उसकी सेवा में रहने लगी । महात्मा अगस्त्यके भयसे किसी विनाशके लिये वारणावतनगरमें लाह आदि आग
राजकुमारने उसका वरण नहीं किया। वह अपने शीलभड़कानेवाले पदार्थोद्वारा निर्मित गृह ( आदि. १४३ ।
सदाचारसे पिता तथा स्वजनोंको संतुष्ट रखती थी । उसे ८-१.)। पुरोचनद्वारा इस लाक्षागृहकी पाण्डवोंसे
युवती हुई देख पिता उसके विवाहके लिये चिन्तित हुए चर्चा । पाण्डवोंका इसमें प्रवेश । इसके निर्माणके सम्बन्ध
(वन० ९६ । १९-३०) । एक दिन महर्षि अगस्त्यने में युधिषिरका भीमसेनसे रहस्य-कथन ( भादि. १४५।
आकर विदर्भशजसे लोपमुद्राको माँगा । राजा अपनी ११-१९ ) । विदुरके भेजे हुए खनव द्वारा इसमें
पुत्रीका विवाह उनके साथ नहीं करना चाहते थे, परंतु सुरंगका निर्माण (आदि० १४६ । १६)। भीमसेनद्वारा
महर्षि के शापके डरसे वे उन्हें कन्या देनेसे इनकार भी इसका दाह (आदि. १४७ । १०)।
न कर सके । माता-पिताको संकट में पड़ा देख लोणमुद्रा लागली-एक श्रेष्ठ नदी, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उनसे इस प्रकार बोली--आप मुझे महर्षिकी सेवामें दे दें उपासना करती है (सभा०९ । २२)।
और अपनी रक्षा करें।' तब उन राजदम्पतिने अपनी लाट-एक क्षत्रिय जाति, इस जातिके लोग ब्राह्मणों के साथ उस कन्याका ब्याह अगस्त्य मुनिके साथ कर दिया । ईर्ष्या रखनेके कारण नीच हो गये (अनु. ३५। १७- लोपामुद्राने पतिकी आशासे बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण १८)।
उतारकर वल्कल एवं मृगचर्म धारण कर लिये । वह लिखित-एक प्राचीन मुनि, जो इन्द्रके सभासद् हैं पतिके समान ही व्रत और आचारका पालन करने लगी।
(सभा०७।११)। ये शङ्खके भाई थे। इन्होंने महर्षि उसे लेकर गङ्गाद्वारमें आये और घोर तपस्यामें भाईकी आज्ञासे राजा सुद्युम्नके पास जाकर उनसे चोरीके संलग्न हो गये । लोपामुद्रा बड़ी प्रसन्नता और विशेष अपराधका दण्ड माँगा और अपने दोनों हाथ कटवा आदरके साथ पतिकी सेवा करने लगी। दीर्घकालके दिये (शान्ति० २३ । १८-३६) । भाई शङ्खके
पश्चात् प्रसन्न हो महर्षि ने उसे समागमके लिये अपने समीप तपोबलसे पुनः इनके नये हाथ निकल आये ( शान्ति. बुलाया, लोपामुद्राने पिताके घर के समान राजमहलमें उनके २३ । ४१-४२)।
साथ समागमकी इच्छा प्रकट की। तब महर्षि ने लोपा
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लोमपाद
मुद्राकी इच्छा पूर्ण करनेके निमित्त धन संग्रहके लिये प्रस्थान किया ( वन० ९७ अध्याय ) । लोपामुद्रा जो कुछ चाहती थी, महर्षि अगस्त्यने उसे पूर्ण किया, तब लोपा - मुद्राने उनसे एक अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र माँगा । महर्षिने पूछा- क्या तुम्हारे गर्भसे एक हजार या एक सौ पुत्र उत्पन्न हों, जो दसके ही बराबर हो ? अथवा एक ही पुत्र हो, जो हजारोंको जीतनेवाला हो ?' लोपामुद्राने सहस्रोंकी समानता करनेवाला एक ही श्रेष्ठ पुत्र माँगा । म गर्भाधान करके वनमें चले गये । वह गर्भ सात वर्षो तक माताके पेटमें पलता रहा। सात वर्ष बीतनेपर वह अपने तेज और प्रभावसे प्रज्वलित होता हुआ उदरसे बाहर निकला । वही महाविद्वान् 'दृढस्यु' के नामसे विख्यात हुआ ( वन० ९९ | १८ - - २५ ) । इनके पातिव्रत्यकी प्रशंसा ( विराट० २१ । १४ ) ।
लोमपाद - अङ्गदेशके एक राजा ( जो राजा दशरथ के मित्र थे)। इनके द्वारा राज्यमें वर्षा होनेके निमित्त ऋष्यशृङ्गको लाने के लिये वेश्याओंकी नियुक्ति ( वन० ११० । ५३ ) । इनके द्वारा 'नाव्याश्रम' का निर्माण ( वन० ११३ । ९ ) । इनका अपनी पुत्री शान्ताको ऋष्यशृङ्ग मुनिके साथ ब्याद देना ( वन० ११३ । ११ ) । इनपर महर्षि विभाण्डककी कृपा (वन० ११३ । २० ) । राजर्षि लोमपाद अपनी कन्या शान्ताका ऋष्यशृङ्ग मुनिको दान करके सत्र प्रकार के प्रचुर भोगों से सम्पन्न हो गये ( शान्ति० २३४ । ३४ ) ।
( २९२ )
लोमश - ( १ ) एक प्राचीन दीर्घजीवी महर्षि, जो धर्मपालनसे शुद्ध हृदयवाले हुए थे ( वन० ३१ । १२ ) । इनका स्वर्गमें जाकर इन्द्रसे मिलना और वहाँ इन्द्रके अर्धसिंहासनपर अर्जुनको बैठा देख इनके मनमें उनके पुण्यकर्म क्या है - यह प्रश्न उठना ( वन० ४७ । १- ५ ) । इन्द्रके द्वारा इनसे मानसिक प्रश्नका समाधान ( बन० ४७ । ७ - ३१ ) । इनका इन्द्र और अर्जुनका संदेश लेकर काम्यकवनमें युधिष्ठिरके पास आना ( वन० ४७ । ३३ - ३५ ) । इनका युधिष्ठिरको अर्जुनकी दिव्यास्त्र - प्राप्तिकी सूचना देना ( वन० ९१ । १०– १४ ) । इनका युधिष्ठिरसे इन्द्रका संदेश कहना ( वन० ९१ । १७ - २५ ) | इनका युधिष्ठिरसे अर्जुनका संदेश कहना ( वन० ९२ । १–७ ) । इनका युधिष्ठिरको आश्वासन ( वन० ९४ । १७ - २२ ) । इनका युधिष्ठिरको अगस्त्यकी कथा सुनाना ( वन० अध्याय ९६ से
लोमश
९९ तक ) । इनके द्वारा युधिष्ठिर के प्रति राम और परशुराम के चरित्र का वर्णन ( वन० ९९ । ४० - ७१ ) । वृत्रासुरसे त्रस्त देवताओंको महर्षि दधीचके अस्थि-दान एवं वज्रनिर्माणका वर्णन ( वन० १०० अध्याय ) | इनके द्वारा वृत्रासुर के वध और असुरों की भयंकर मन्त्रणाका कथन ( वन० १०१ अध्याय ) | महर्षि लोमशके द्वारा कालेयोंद्वारा तपस्वियों, मुनियों और ब्रह्मचारियों आदिके संहारका वर्णन और देवताओंद्वारा भगवान् की स्तुतिका कथन ( वन० १०२ अध्याय ) । लोमशजीने युधिष्ठिरको जो प्रमुख विषय सुनाये हैं, उनकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार हैभगवान् के आदेश से देवताओंका महर्षि अगस्त्य के आश्रमपर जाकर उनकी स्तुति करना । अगस्त्यजीका विन्ध्य पर्वतको बढ़ने से रोकना और देवताओंके साथ सागरतटपर जाना | अगस्त्यजीद्वारा समुद्र-पान और देवताओंका कालेय दैत्योंका वध करके ब्रह्माजीसे समुद्रको पुनः भरने का उपाय पूछना । राजा सगरका संतानके लिये तपस्या करना और शिवजी द्वारा वर पाना । सगरके पुत्रों की उत्पत्ति कपिलकी क्रोधाग्निसे उनका भस्म होना, असमंजसका परित्याग, अंशुमान्के प्रयत्नसे सगरके यशकी पूर्ति, अंशुमान से दिलीपको और दिलीपसे भगीरथको राज्यकी प्राप्ति | भगीरथका हिमालयपर तपस्याद्वारा गङ्गा और महादेव जी को प्रसन्न करके उनसे वर प्राप्त करना । पृथ्वी पर गङ्गाजीके उतरने और समुद्रको जलसे भरनेका विवरण तथा सगरपुत्रोंका उद्धार | नन्दा और कौशिकी का माहात्म्य, ऋष्यशृङ्ग मुनिका उपाख्यान तथा उनको अपने राज्य में लाने के लिये राजा लोमपादका प्रयत्न | वेश्याका ऋष्यशृङ्गको लुभाना और विभाण्डक मुनिका आश्रमपर आकर अपने पुत्रकी चिन्ताका कारण पूछना । ऋष्यशृङ्गका पिताको अपनी चिन्ताका कारण बताते हुए ब्रह्मचारी रूपधारी वेश्या स्वरूप और आचरणका वर्णन । ऋष्यशृङ्गका अङ्गराज लोमपादके यहाँ जाना, राजाका उन्हें अपनी कन्या देना, राजाद्वारा विभाण्डक मुनिका सत्कार तथा उनपर मुनिका प्रसन्न होना ( वन० अध्याय १०३ से ११३तक ) । लोमशद्वारा राजा गयके यशकी प्रशंसा, पयोष्णी, पर्वत और नर्मदा माहात्म्य तथा च्यवन- सुकन्या के चरित्रका वर्णन ( वन० १२१ अध्याय ) | महर्षि लोमशद्वारा च्यवनको सुकन्या की प्राप्ति के प्रसंगका वर्णन (वन० १२२ अध्याय) | अश्विनीकुमारोंकी कृपासे महर्षि च्यवनको सुन्दर रूप और युवावस्थाकी प्राप्तिका वर्णन (वन० १२३
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लोमश
( २९३ )
लोहितायनि
अध्याय )। शतिके यज्ञमें च्यवनका इन्द्रपर कोर नरकासुरके वध और भगवान् वाराहद्वारा वसुधाके करके वज्रको स्तम्भित करना और उन्हें मारनेके लिये उद्धारकी कथा कहना ( बन० १४२ अध्याय )। मदासुरको उत्पन्न करना (वन० १२४ अध्याय )। लोमशजीका युधिष्ठिरको विविध उपदेश देकर देवताओंके अश्विनीकुमारोंका यज्ञमें भाग स्वीकार कर लेनेपर परम पवित्र स्थानको पधारना (वन० १७६ । २२)। इन्द्रका संकटमुक होना आदि प्रसंगों और अन्यान्य ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखने गये तीर्थोके महत्त्वका लोमशद्वारा वर्णन (वन० १२५ थे (शान्ति० ४७ ।.)। इनके द्वारा अन्नदानकी अध्याय)।राजा मान्धाताकी उत्पत्ति और उनके संक्षिप्त महिमाका कथन (अनु०६७।१०)। इनके द्वारा चरित्रका इनके द्वारा वर्णन (बन० १२६ अध्याय)। धर्मके रहस्यका वर्णन (अनु. १२९ अध्याय)। ये उत्तर लोमशजीका युधिष्ठिरको सोमक और जन्तुका उपाख्यान दिशाके ऋषि हैं (वन० १६५ । ४६)। (२)विडालोसुनाना-सोमकको सौ पुत्रोंकी प्राप्ति तथा सोमक और पाख्यानमें आया हुआ बिलाव ( शान्ति. १३८ । पुरोहितका समानरूपसे नरक और पुण्यलोकोंका उपभोग २२)। इसका पलित नामक चूहेके साथ संवाद करना (वन० १२७-१२८ अध्याय ) । कुरुक्षेत्रके (शान्ति. १३८ । ३४-१९८)। द्वारभूत प्लक्षप्रस्रवण नामक यमुनातीर्थ एवं सरस्वतीतीर्थकी लोमहर्षण-एक मुनि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते महिमाका इनके द्वारा वर्णन (वन० १२९ अध्याय)। थे ( सभा०४।१२)। लोमश नीद्वारा विभिन्न तीर्थोकी महिमा और राजा
लोह-एक प्राचीन देश, जिसे उत्तर-दिग्विजयके समय उशीनरकी कथाका आरम्भ-राजा उशीनरद्वारा बाजको
अर्जुनने जीत लिया था (समा० २७ । २५)। अपने शरीरका मांस देकर शरणमें आये हुए कबूतरके
लोहितारणी-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतप्राणोंकी रक्षा करना ( वन० १३०-१३१ अध्याय)। महर्षि लोमशका अष्टावक्र के जन्मका वृत्तान्त और वासी पीते हैं (भीष्म० ९ । १८)। उनके राजा जनकके दरबारमें जानेका वर्णन करना लोहमेखला-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. (वन० १३२ अध्याय )। अष्टावक्रका द्वारपाल तथा ४६ । १८, २१)। राजा जनकसे वार्तालाप, बन्दी और अष्टावकका शास्त्रार्थ, लोहवस्त्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५ । ७५)। बन्दीकी पराजय तथा समङ्गामें स्नानसे अष्टावक्रके अङ्गों
लोहित-(१) एक राजा, जिसे अर्जुनने उत्तर-दिग्विजयका सीधा होना-इन प्रसंगोंका इनके द्वारा कथन
के समय अपने अधीन कर लिया था (सभा० २७११७)। (वन० १३३-१३४ अध्याय)। लोमशजीद्वारा कर्दमिल
(२) एक नाग, जो वरुणकी सभामें बैठकर वहाँकी क्षेत्र आदि तीर्थोकी महिमा रैभ्य एवं भरद्वाजपुत्र
शोभा बढ़ाता है (सभा० ९।८)। यवक्रीत मुनिकी कथा तथा ऋषियोंका अनिष्ट
लोहितगङ्गा-एक स्थानविशेष, जह भगवान् श्रीकृष्णने करनेके कारण मेधावीकी मृत्युका वर्णन (वन० १३५
विरूपाक्ष' का तथा पञ्चजन' नामसे प्रसिद्ध पाँच अध्याय )। यवक्रीतका रैभ्यमुनिकी पुत्रवधूके साथ
राक्षसोंका संहार किया था (सभा० ३८ । २९ के बाद व्यभिचार और रेभ्यमुनिके क्रोधसे उत्पन्न राक्षसके द्वारा
दा० पाठ, पृष्ठ ८००)। उसकी मृत्युके प्रसंगोंका लोमशद्वारा कथन ( बन०
लोहिताक्ष-ब्रह्माद्वारा स्कन्दको दिये गये चार पार्षदोंमें१३६ अध्याय)। भरद्वाजका पुत्रशोकसे विलाप करना,
से एक । तीनके नाम ये-नन्दिसेन, घण्टाकर्ण और रैभ्यमुनिको शाप देना एवं स्वयं अग्निमें प्रवेश करना।
कुमुदमाली (शल्य. १५। २४-२५)। अर्वावसुकी तपस्या के प्रभावसे परावसुका ब्रह्माहत्यासे मुक्त होना और रेभ्य, भरद्वाज तथा यवक्रीत आदिका पुन- लोहिताक्षी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य. जीवित होना-इन प्रसंगोंको लोमशजीने सुनाया था ४६ । २२, २४)। (वन०१३-१३८ अध्याय ) । पाण्डवोंकी उत्तरा- लोहितायनि-लालसागरकी कन्या, जो स्कन्दकी धाय खण्ड-यात्राके समय लोमशजीद्वारा उसकी दुर्गमताका है, इसकी कदम्बके वृक्षोंपर पूजा होती है (वन. कथन (वन० १३९ अध्याय )। लोमशजीका २३।१०-११)।
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लोहित्या
( २९४ )
लोहित्या-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी ४ । ११ )। इनका युधिष्ठिरको ब्राह्मणोंका महत्त्व पीते हैं (भीष्म० ९ । ३५)।
बताना (वन० २६ । ६-२०)। इनके द्वारा इन्द्रके लौहित्य-(१) एक प्राचीन देश, भीमसेनने पूर्व
प्रति चिरजीवियोंके दुःख-सुखका वर्णन (बन० १५३ दिग्विजयके समय इस देशमें जाकर यहाँके बहुत-से
अध्याय )। हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णसे इनका म्लेच्छ राजाओंको जीता और उनसे भाँति-भाँतिके रत्न
मार्गमें मिलना ( उद्योग. ८३ । ६४ के बाद)। इनके करके रूपमें वसूल किया (सभा० ३० । २६-२७)। द्वारा धृतराष्ट्र के राज्यकी अग्निमें आहुति देनेका प्रसंग (२) श्रीरामके प्रभावसे प्रकट हुआ एक तीर्थ, यहाँ (शल्य० ४१ । ५-२७)। स्नान करनेसे मनुष्यको बहुत-सी सुवर्ण-राशि प्राप्त वकनख-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु. होती है ( वन० ८५।२)! कार्तिककी पूर्णिमाको ४।५४)। कृत्तिकाका योग होनेपर जो लौहित्य तीर्थमें स्नान करता .
यकवधपर्व ( बकवधपर्व )-आदिपर्वका एक है, उसे पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त होता है ( अनु० ।
अवान्तर पर्व (अध्याय. १५६ से १६३ तक)। २५। ४६) । (३) एक महानद, जो वरुण-सभामें
वक्र-एक राजा, जिसका दूसरा नाम दन्तवक है। इसने रहकर उनकी उपासना करता है ( आधुनिक ब्रह्मपुत्र'
द्रौपदीके स्वयंवरमें लक्ष्यवेधके लिये अपना असफल को लौहित्य या 'लोहित्य' कहते हैं) (सभा०९ । २२)।
पराक्रम प्रकट किया था ( आदि. १८६ । १५)।
यह भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे मारा गया था ( उद्योग वक्षु-एक नदी, इसके तटपर उत्पन्न हुए रासभ बड़े १३० । ४८)। यह कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी कन्याके
सुन्दर और बल आदि गुणोंमें विख्यात होते हैं । बहुत-से स्वयंवरमें भी उपस्थित हुआ था (शान्ति०४।६)। म्लेच्छ देशके राजा युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें ऐसे रासभों- (विशेष देखिये-दन्तवक्र)।
को मेंट देनेके लिये लाये थे (सभा० ५१ । १७-२०)। वक्षोग्रीव-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु. वंशगुल्म-एक तीर्थ, जो शोण और नर्मदाका उत्पत्ति- ४ । ५३)। स्थान है। यहाँ स्नान करनेसे यात्री अश्वमेध यज्ञका वङ्ग-पूर्व भारतका एक प्रसिद्ध जनपद (आधुनिक बङ्गाल) फल प्राप्त करता है (वन० ८५।९)।
(आदि० २१४ । ९; भीष्म० ९ । ४६)। तीर्थयात्रावंशमूलक-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, जहाँ के अवसरपर अर्जुनका यहाँ आगमन (आदि० २१४।९)।
स्नान करनेसे मनुष्य अपने वंशका उद्धार कर देता है भीमसेनके द्वारा इस देशके राजापर आक्रमण ( सभा० (वन० ८३ । ४१-४२)।
३० । २३ ) । बंगदेशीय नरेश युधिष्ठिरके यहाँ भेंट वंशा-कश्यपकी प्राधा' नामवाली पत्नीसे उत्पन्न हुई पुत्री
लेकर गये थे ( सभा० ५२ । १८)। कर्णने दिग्विजय(आदि. ६५ । ४५-४६)।
के समय इस देशको जीता था (वन० २५४ । ८)।
बंगनरेशका घटोत्कचके साथ युद्ध और पराजय (भीष्म वक ( बक )-एकचक्रासे दो कोसकी दूरीपर यमुनाके किनारे घने जंगलमें एक गुफाके भीतर रहनेवाला एक
९२ । ६-१२)। किसी समय श्रीकृष्णने वंगदेशको
जीता था (द्रोण. १।। १५ )। परशुरामजीने इस बलवान् नरभक्षी राक्षस, जिसका एकचक्रा नगरी और
देशके क्षत्रियोंका संहार किया था (द्रोण० ७० । १२)। वहाँके जनपदपर शासन चलता था ( आदि. १५९ ।
कर्णद्वारा इस देशके जीते जाने और 'करद' बनाये ३-४)। इसके द्वारा नगरकी रक्षा तथा करके रूपमें
जानेकी चर्चा ( कर्ण० ८। १९ )। अश्वमेधीय इसे दिया जानेवाला दैनिक भोजन ( आदि. १५९ ।
अश्वकी रक्षाके लिये गये हुए अर्जुनने वंगदेशकी म्लेच्छ ५-७)। भीमसेनका इसके साथ युद्ध और इसका वध सेनाको परास्त किया था ( आश्व० ८२ । २९-३०)। (आदि. १६२ । ५ से १६३ | १ तक)।
वन-(१) इन्द्रका अस्त्र, जो विश्वकर्माके हाथसे महर्षि वक दाल्भ्य (बक दालभ्य )-एक प्राचीन ऋषि, जो दधीचकी हड्डियोंद्वारा निर्मित हुआ था ( वन. युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते थे ( सभा० १००।२४)। इसने इन्द्रकी प्रेरणासे व्याघ्र बनकर
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( २९५ )
वत्स ( वत्सभूमि)
सुवर्णष्ठीवीको मार डाला था ( शान्ति० ३१ । ९९) । वहाँ अग्निके लिये दिया हुआ चरु एक लाख २५-३३)। धाताने दधीचकी हड्डियोंका संग्रह करके
गोदान, सौ राजसूय और एक हजार अश्वमेध यशसे भी उनके द्वारा वज्रका निर्माण किया था (शान्ति० ३४२ ।
अधिक कल्याणकारी है (वन० ८२ । ९९-१००)। ४०-४१)। (२) विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पोंमेंसे वडवा नदीको अग्निका उत्पत्ति-स्थान कहा गया है एक ( अनु० ४।५२ )।( ३ ) श्रीकृष्णपौत्र (वन० २२२ । २४-२५)। अनिरुद्धका पुत्र, जो यादवोंका मौसल-युद्ध में संहार हो वडवाग्नि-समुद्रके भीतर रहनेवाली एक अग्नि, जिसे वडवाजानेपर अर्जुनद्वारा इन्द्रप्रस्थमें शेष यदुवंशियोंका राजा
मुख भी कहते हैं, इस अग्निके मुखमें समुद्र अपने जलबनाया गया था (मौसल.७ । ७२) । महाप्रस्थानके
रूपी हविष्यकी आहुति देता रहता है ( आदि० २१ । समय युधिष्ठिरका सुभद्रासे राजा वज्रकी रक्षाके लिये
१६)। जब महर्षि और्वने रोषपूर्वक समस्त लोकोंके कहना (महाप्र. १।८-९)।
विनाशका संकल्प कर लिया, तब उनके पितरोने आकर
उन्हें समझाया और उन्हें अपनी क्रोधाग्निको समुद्र में वज्रदत्त-प्राग्ज्योतिषपुरका राजा, जो भगदत्तका पुत्र और
डाल देनेके लिये कहा । पितरोंके आदेशसे उन्होंने अपनी युद्ध में बड़ा ही कठोर था (भाश्व०७५।)। इसका अर्जुनके साथ युद्ध के लिये उद्यत होकर नगरसे
क्रोधाग्निको समुद्रमें डाल दिया । वही आज भी घोड़ीके निकलना और अश्वमेधीय अश्वको पकड़कर नगरकी
मुखकी-सी आकृति बनाकर महासागरका जल पीती रहती ओर चल देना (आश्व० ७५। २-३ )। इसका है । वडवा (घोड़ी) के समान मुखाकृति होनेके कारण अर्जुनके साथ युद्ध और पराजय (भाश्व० ७५ । ५ से ही इसे वडवाग्नि कहते हैं ( आदि. १७९ । २१-२२)। ७६ । २० तक)।
वडवानल और उदानकी एकता (वन० २१९ । २०)। वज्रनाभ-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ६३)। भगवान् शिवका क्रोध ही वडवानल बनकर समुद्रके जलको
सोखता रहता है (सौप्तिक. १८ । २१)। वज्रबाहु-एक वानर, जो कुम्भकर्णके मुखका ग्रास बन गया था (वन० २८७।६)।
वडवामुख-नारायणके अवतारभूत एक प्राचीन ऋषि, वज्रविष्कम्भ-गरुड़की प्रमुख संतानोमेंसे एक (उद्योग.
जिन्होंने समुद्र के जलको खारा कर दिया था (शान्ति. १०१।१०)।
२४२। ६.)। वज्रवेग-दूषणका छोटा भाई, जो रावणकी प्रेरणासे विशाल
वत्स (बत्सभूमि)-(१) एक भारतीय जनपद, जिसे सेनाके साथ कुम्भकर्णका अनुगामी हुआ था। इसके ।
भीमसेनने पूर्व-दिग्विजयके समय जीता था (समा. एक भाईका नाम प्रमाथी था (वन० २८६ । २७)।
३० । १०)। कर्णने भी इसपर विजय पायी थी (वन. हनुमान्द्वारा इसका वध ( वन० २८७ । २६)।
२५४ । ९-१० ) । वत्सदेशीय पराक्रमी भूमिपाल
पाण्डवोंके सहायक थे और उनकी विजय चाहते थे वज्रशीर्ष-प्रजापति भृगुके सात व्यापक पुत्रों से एक ।
( उद्योग. ५३ । १-२)। वत्सभूमि सिद्धों और इनके छः भाइयोंके नाम हैं-च्यवन, शुचि, और्व, शुक्र,
चारणोंद्वारा सेवित है। वहाँ पुण्यात्माओंके आश्रम हैं, वरेण्य और सवन । ये सभी भृगुके समान गुणवान् थे उनमें काशिराजकी कन्या अम्बाने विचरण किया था (अनु० ८५ । १२७ -१२९) ।
(उद्योग० १८६ । २४)। अम्बा वत्सदेशकी भूमिमें वज्री-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३३)।
'अम्बा' नामकी नदी बनकर प्रवाहित हुई, जो केवल
बरसातमें ही जलसे भरी रहती है ( उद्योग० १०६ । वट-अंशद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच अनुचरोंमेंसे एक ।
४०)। वत्सदेशीय योद्धा धृष्टद्युम्नद्वारा निर्मित क्रौञ्चारणउन चारके नाम हैं-परिघ, भीम, दहति और दहन
व्यूहके वामपक्षमें खड़े हुए थे (भीष्म० ५०। ५५)। (शल्य० ४५ । ३४)।
कर्णद्वारा इस देशके जीते जाने की चर्चा ( कर्ण. वडवा-एक त्रिभुवनविख्यात तीर्थ एवं नदी, जहाँ सायं- ।२०)।(२) काशिराज प्रतर्दनका पुत्र, जिसे संध्याके समय विधिपूर्वक स्नान और आचमन करके गोशालामें वत्सों (बछड़ों) ने पाला था । इसीलिये इसका अग्निदेवको चरु निवेदन करनेका विधान है । वहाँ नाम वत्स हुआ (शान्ति० ४९ । ७९) । (३) पितरोंको दिया हुआ दान अक्षय होता है । इसका शर्यातिवंशी नरेश । हैहय और तालजंघके पिता (भनु. 'सप्तचरु' नाम पड़नेका कारण (वन० ८२ । ९२-- ३०। ।
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वत्सनाभ
( २९६ )
वराहाश्व
वस्सनाभ-एक बुद्धिमान् महर्षि, इनकी कठोर तपस्या और अष्टावक्रका शास्त्रार्थ (बन. १३५ । ३-२०)।
भैसेका रूप धारण करके धर्मद्वारा वर्षासे इनकी रक्षा इसकी अष्टावक्रसे शास्त्रार्थमें पराजय (वन १३४ । (अनु. १२ अध्याय दा० पाठ)। अपनेमें कृतघ्नताका २१)। इसका राजा जनकको वरुण-पुत्रके रूपमें अपना दोष देखकर इनका शरीरको त्याग देनेका विचार करना परिचय देना (वन १३४ । २४)। समुद्र में प्रवेश
और धर्मका इन्हें समझा-बुझाकर रोकना तथा इनकी करना (वन० १३४ । ३७)। आयुको कई सौ वर्षोंकी बताना (अनु० १२ अध्याय
वपु-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्म-समयमें नृत्य किया दा० पाठ, पृष्ठ ५४६२-५४६३)।
__था (आदि० १२२ । ६३)। वत्सल-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७२)। वपुष्टमा-काशिराज सुवर्णवर्माकी पुत्री जो परीक्षित्कुमार वदान्य-एक प्राचीन ऋषि, जिनसे अष्टावक्रने उनकी कन्या जनमेजयको पतिव्रता पत्नी थी ( आदि.४४ । ८माँगी थी । इनका अष्टावकको अपनी कन्याके विवाहकी ११)। इसके गर्भसे शतानीक और शङ्कुकर्ण नामके दो शर्त बताना और उन्हें उत्तर दिशामें भेजना ( अनु० पुत्र उत्पन्न हुए थे (आदि० ९५ । ८५ )। १९ । २४-२५)। लौटनेपर अष्टावक्रकी यात्राके विषयमें ,
वपुष्मती-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य. इनका पूछना (अनु०२१। १३-१४)। अष्टावकको ४६ । ११.)।
अपनी कन्या ब्याहना (अनु० २१ । १७-१८)। वरद-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५। ६४)। वधूसरा-च्यवन मुनिके आश्रमके समीप बहनेवाली एक
बहनेवाली एक वरदान-द्वारकाके निकटका एक तीर्थ, जहाँ मुनिवर दुर्वासानदी, जो भृगुपत्नी पुलोमाके अश्रुविन्दुओंसे प्रकट हुई
ने भगवान् श्रीकृष्णको वरदान दिया था। वहाँ स्नान थी। यह वधू (पुलोमा) का अनुसरण करती थी, इसलिये
करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है ( वन. ब्रह्माजीने इसका नाम 'वधूसरा' रख दिया ( आदि.
८२ । ६३-६४)। १२५। ६-८)। यह एक पुण्यमयी नदी है। इसमें
वरदासङ्गम-एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे सहस्त्र गोदानस्नान करनेसे परशुरामजीको तेजोमय शरीरकी प्राप्ति हुई
का फल मिलता है (वन०८५। ३५)। (वन० ९९ । ६८)।
वरयु-महौजा-वंशका एक कुलाङ्गार राजा ( उद्योग. पध्र-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५५)।
७४। १५)। वध्यश्व-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी वरा-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं उपासना करता है ( सभा०८।१२)।
(भीष्म० ९ । २६)। वनपर्व-महाभारतका एक प्रमुख पर्व ।
वराङ्गी-ये सोमवंशीय राजा संयातिकी पत्नी थीं । इनके वनवासिक-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५८)। पिताका नाम दृषद्वान् था। इनके गर्भसे संयातिद्वारा बनायु-(१) कश्यपपत्नी दनुका एक पुत्र, यह दनुके दस अहंयातिका जन्म हुआ था ( आदि० ९५ । १४)। प्रधान पुत्रोंमें है ( आदि० ६५।३०)। (२) वराह-(१) एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें उर्वशीके गर्भसे पुरूरवाद्वारा उत्पन्न छः पुत्र मेंसे एक । विराजमान होते थे (सभा०४।१७)। (२) शेष पाँचके नाम हैं--आयु, धीमान्, अमावसु, दृढायु
मगधकी राजधानी गिरिव्रजके समीपका एक पर्वत (सभा. और शतायु ( आदि.७५ । २५-२६) । (३) एक २१ । २)। (३) भगवान् विष्णुका एक अवतार । भारतीय जनपद (भीष्म०९ । ५६)।
इनके द्वारा एकाणवके जलमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार। वनेय-परुपुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे वराह अवतारके संक्षिप्त चरित्रका वर्णन, इनके द्वारा
उत्पन्न । इनके नौ भाई और थे, जिनके नाम हैं- हिरण्याक्षका वध (सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, ऋचेयु, कशेयु, कृकणयु, स्थण्डिलेयु, जलेयु, तेजेयु, पृष्ठ ७८४-७८५)।
सत्येयु, धर्मेयु और संततेयु (आदि. ९४।८-११)। वराहक-धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके वन्दना-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी
सर्पसत्रमें जल गया था (आदि०५७।१८)। पीते हैं (भीष्म०९।१८)।
वराहकर्ण-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी वन्दी (बन्दी)-राजा जनकके दरबारका शास्त्रार्थी पण्डित सेवा करता है ( समा० १०।१६)।
(वन १३२१)। इसके द्वारा कहोडका जलमें घराहाम्व-एक दैत्य, दानव या राक्षस (शान्ति० २२० । दुबाया जाना (वन. १३२ । १५)। इसके साथ ५२)।
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(2819)
वरिष्ठ
वरिष्ठ - चाक्षुष मनुके पुत्र ( अनु० १८ । २० ) । इनके द्वारा गृत्समद ऋषिको शाप ( अनु० १८ । २३ - २५) । वरी - एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३३)। वरीताक्ष- एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो पूर्वकालमें पृथ्वीका शासक था - कालवश इसे छोड़कर चल बसा ( शान्ति० २२७ । ५२ ) ।
वरुण - ( १ ) कश्यपद्वारा अदिति के गर्भ से उत्पन्न द्वादश आदित्योंमेंसे एक ( आदि० ६५ । १५ ) । इनकी ज्येष्ठ पत्नी देवीने इनके वीर्यसे बल नामक एक पुत्रको और सुरा नामवाली कन्याको जन्म दिया था ( भादि ० ६६ । ५२ ) । महर्षि वसिष्ठ इनके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए थे ( आदि ० ९९ । ५ ) । ये अर्जुनके जन्म समयमें वहाँ उपस्थित हुए थे ( आदि० १२२ । ६६ ये चौथे लोकपाल हैं, अदिति के पुत्र, जलके स्वामी तथा जलमें ही निवास करनेवाले हैं। अग्निदेवने इनका स्मरण किया और इन्होंने उन्हें दर्शन दिया। अग्निने इनसे दिव्य धनुष, अक्षय तरकस और कपिध्वज रथ माँगे और वरुणने वे सब वस्तुएँ उन्हें दे दीं ( आदि० २२४ । १–६ ) । इन्होंने पाश और अशनि लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुनपर धावा किया था ( २२६ ॥ ३२ -- ३७ ) । नारदजीद्वारा इनकी दिव्यसभाका वर्णन ( सभा० ९ अध्याय ) । ये ब्रह्माजीकी सभा में रहकर उनकी उपासना करते हैं ( सभा० ११ । ५१ ) । इनके द्वारा अर्जुनको पाशनामक अस्त्रका दान ( वन० ४१ | २७–३२ ) । इनका राजा नलको दमयन्तीके स्वयंवर के अवसरपर वर देना ( वन० ५७ । ३८ ) । इन्होंने अन्य देवताओंके साथ 'विशाखयूप' में तपस्या की थी; अतः वह स्थान परम पवित्र माना गया है। ( वन ० ९० । १६ ) । ऋचीक मुनिको वरुणदेवने एक हजार श्यामकर्ण घोड़े प्रदान किये थे ( वन० ११५ । २७ ) । राजा जनकके दरबारका शास्त्रार्थी पण्डित वन्दी इन्हींका पुत्र था ( वन० १३४ । २४ ) । इनके द्वारा सीताजी की शुद्धिका समर्थन ( वन० २९१ । २९ ) । इन्होंने सौ वर्षोंतक गाण्डीव धनुष धारण किया था ( विराट० ४३ । ६ ) । इनकी पत्नीका नाम गौरी था (उद्योग० ११७ । ९ ) । कभी श्रीकृष्णने इन्हें जीत लिया था ( उद्योग ० १३०।४९ ) । इनके द्वारा श्रुतायुधकी माता पर्णाशाको वरदान ( द्रोण० ९२ । ४७ - ४९ ) । श्रुतायुधको गदा प्रदान कर उसके प्रयोगका नियम बताना ( द्रोण० ९२ । ५०-५१ ) । इनके द्वारा स्कन्दको यम और अतियम नामक दो पार्षद प्रदान (शख्य० ४५ । ४५-४६ ) । इनका स्कन्दको एक नाग ( हाथी ) भेंट म० ना० ३८
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वर्गा
करना ( शल्य० ४६ । ५२, अनु० ८६ । २५ ) । इनका देवताओं द्वारा जलेश्वर-पदपर अभिषेक ( शल्य० ४७ । ९-१० ) । इन्होंने सरस्वती नदीके यमुनातीर्थमें राजसूय यज्ञ किया था ( शल्य० ४९ । ११-१२ ) । इनके द्वारा उतथ्यकी भार्या भद्राका अपहरण ( अनु० १५४ । १३ ) | उतथ्यद्वारा समुद्रका सारा जल पी जानेपर इनका उनकी पत्नी वापस देना ( अनु०
१५४ | २८ ) । ये परमधामगमन के समय बलरामजी के स्वागत के लिये आये थे ( मौसल ०४ । १६ ) । अग्निने वरुणको वापस देनेके लिये अर्जुनसे गाण्डीव धनुष और दिव्य तरकस जलमें डलवा दिये थे ( महाप्र० १ । ४१-४२ ) ।
महाभारतमें आये हुए वरुण के नाम - अदितिपुत्र, आदित्य, अम्बु, अम्बुपति, अम्बुराट्, अम्ब्वीश, अपाम्पति, देवदेव, गोपति, जलाधिप, जलेश्वर, लोकपाल, सलिलराज, सलिलेश, सलिलेश्वर, उदक्पति, वारिप, यादसाम्भर्ता, यादसाम्पति आदि ।
( २ ) एक देवगन्धर्व, जो कश्यपकी पत्नी मुनिके पुत्र थे
(आदि० ६५। ४२) । (३) सागर और सिन्धु नदीके सङ्गममें स्थित एक तीर्थ, जिसमें स्नान कर के शुद्धचित्त हो देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके तर्पण करनेका विधान है । ऐसा करने से मनुष्य दिव्य द्युतिसे देदीप्यमान हो वरुणलोकको प्राप्त होता है ( वन० ८२ । ६८-६९ T वरुणद्वीप - एक द्वीपका नाम ( सभा० ३८ । २९ के बाददा० पाठ ) । वरुणस्त्रोतस - दक्षिण दिशा में माठरवनके भीतर सुशोभित होनेवाला माठर ( सूर्यके पार्श्ववर्ती देवता) का विजयस्तम्भ, जो प्रवेणी नदीके उत्तरवर्ती मार्ग में कण्वके पुण्यमय आश्रम में स्थित है ( वन० ८८ । १०-११ ) । वरूथिनी - एक अप्सरा, जिसने इन्द्रकी सभामें अर्जुनके स्वागतार्थ नृत्य किया था चन० ४३ । २९ ) । वरेण्य - प्रजापति भृगुके सात व्यापक पुत्रोंमेंसे एक । इनके छः भाइयोंके नाम हैं- च्यवन, शुचि, और्व, शुक्र, वज्रशीर्ष और सवन । ये सभी भृगुके समान गुणवान् थे ( अनु० ८५ । १२६ - १२९ ) । वर्गा-एक अप्सरा, जो कुबेरकी प्रेयसी थी; परंतु किसी ब्राह्मण के शापसे सौभद्र नामक तीर्थमें ग्राह बनकर रहने लगी थी । सखियों सहित इसके ग्राह होनेका कारण ( आदि० २१५ । १५-२१ ) । अर्जुनद्वारा इसका ग्राहयोनिसे उद्धार ( आदि० २१५ । १२ ) । इसकी सौरभेयी, समीची, बुदबुदा तथा लता नामकी चार सखियाँ थीं। वे सभी ब्राह्मणके शापसे विभिन्न तीर्थों में ग्राह
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वर्चा
( २९८ )
वसिष्ठ (वशिष्ठ)
हो गयी थीं । इसकी प्रार्थनासे अर्जुनने उनका भी वसिष्ठ ( वशिष्ठ )-एक प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि जो ब्रह्माजीके उद्धार कर दिया । ) नारदजीद्वारा इसे तथा इसकी मानस पुत्र माने गये हैं। एक समय जब राजा संवरण सखियोंको दक्षिण समुद्रके समीपवर्ती तीर्थोंमें जानेका शत्रुओंसे पराजित हो सिन्धुनामक महानदके तटवर्ती आदेश और अर्जुनद्वारा इन सबके उद्धार होनेका आश्वा- निकुञ्जमें एक सहस्र वर्षोंतक छिपे रहे, उन्हीं दिनों सन ( आदि० २१६ । १७)। यह कुबेरकी सभामें भगवान् वसिष्ठ मुनि उनके पास आये । राजाने उन्हें धनाध्यक्षकी सेवाके लिये उपस्थित होती है (सभा० उत्तम आसनपर बिठाकर कहा--भगवन् ! हम पुनः १०।२)।
राज्यके लिये प्रयत्न कर रहे हैं, आप हमारे पुरोहित हो पर्चा-(१)सोम नामक वसुके प्रथम पुत्र । इनकी माताका
जाइये ।' तब वसिष्ठजीने बहुत अच्छा' कहकर भरतनाम मनोहरा था ( आदि. ६६ । २२ )। ये ही
वंशियोंको अपनाया और पुरुवंशी संवरणको समस्त अभिमन्युके रूपमें प्रकट हुए थे (आदि०६७ । ११२
क्षत्रियोंके सम्राट-पदपर अभिषिक्त कर दिया (आदि. ११३ स्वर्गा० ५। १८-१९ )। (२) गृत्समदवंशी
९४ । ४०-४५ )। वसिष्ठजीका एक नाम आपव भी सुचेता नामक ब्राह्मणके पुत्र, जो विहव्यके पिता थे
है ( आदि. ९८ । २३ )। पूर्वकालमें वरुणने इनको ( अनु० ३० । ६१)।
पुत्ररूपमें प्राप्त किया था (आदि. ९९ । ५)।
गिरिराज मेरुके पार्श्वभागमें इनका पवित्र आश्रम था। वर्णसंकर-अन्य वर्णकी माता और अन्य वर्णके पितासे
जो मृग और पक्षियोंसे भरा रहता था। सभी ऋतुओंमें उत्पन्न संतान । इसके भेदोंका विस्तृत वर्णन (अनु.
विकसित होनेवाले फूल उस आश्रमकी शोभा बढ़ाते थे । ४८ अध्याय)।
उस आश्रमके निकटवर्ती वनमें स्वादिष्ट फल-मूल और वर्धन-अश्विनीकुमारोंद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों
जलकी सुविधा थी। पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ वरुणनन्दन महर्षि मेंसे एक । दूसरेका नाम नन्दन था (शल्य०४५।
वसिष्ठ वहीं तपस्या करते थे (आदि० ९९ । ६-७)। ३८)।
दक्षकन्या सुरभिकी पुत्री नन्दिनी नामक गौ इन्हें वर्धमान-हस्तिनापुर नगरका एक प्रधान द्वार ( आदि० होमधेनुके रूपमें प्राप्त हुई थी (भादि० ९९ । ८-९)। १२५।९)।
एक दिन धोनामक वसुने अपनी पत्नीके बहकानेसे इनकी वर्मक-एक देश, जहाँके निवासियोंको पूर्व-दिग्विजयके समय होमधेनुका अपहरण कर लिया (आदि. ९९ । २८)। भीमसेनने जीता था (सभा० ३० ।१३)।
वसिष्ठजी फल-मूल लेकर जब आश्रमपर लौटे, तब बछड़ेवल्कल-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६२)। सहित उस गौको न देखकर वनमें उसकी खोज करने घल्गुजङ्घ-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु.
लगे । दिव्य दृष्टिले यथार्थ बातको जानकर इन्होंने रुष्ट । ५२)।
हो वसुओंको मनुष्य-योनिमें जन्म लेनेका शाप दे दिया वल्लभ-बलाकाश्वका पुत्र, जो साक्षात् धर्मके समान था।
(आदि. ९९ । २९-३३ ) । वसुओंके प्रार्थना करने इसके पुत्रका नाम कुशिक था ( अनु० ४ । ५)।
पर इनका सात वसुओंको एक-एक वर्षमें ही शापमुक्त
होनेका आशीर्वाद और द्यो नामक वसुके दीर्घकालतक वशातल-एक देश तथा वहाँके निवासी क्षत्रिय राजकुमार,
मनुष्य-योनिमें रहने, संतान न उत्पन्न करने तथा जो राजा युधिष्ठिरके लिये भेंट लाये थे (सभा० ५२।
धर्मात्मा, सर्वशास्त्रविशारद, पितृहितैषी एवं स्त्री-भोग१५-१७)।
परित्यागी होनेका कथन ( आदि० ९९ । ३५-४१)। वसा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी भीष्मने महर्षि वसिष्ठसे छहों अङ्गोसहित समस्त वेदोंका पीते हैं (भीष्म० ९ । ३१)।
अध्ययन किया था ( आदि. १०० । ३५) । अर्जुनके वसाति (१)-ये सोमवंशी महाराज कुरुके वंशज राजा जन्म-समयमें सप्तर्षिमण्डलके साथ ये भी पधारे ये जनमेजयके अष्टम पुत्र थे (आदि० ९४ । ५७)। (आदि. १२२५१)। राजा संवरणके द्वारा इनका चिन्तन (२) एक भारतीय जनपद । यहाँके वीर क्षत्रिय और इनका बारहवें दिन राजाको दर्शन देना ( आदि. दुर्योधनकी आशासे भीष्मकी रक्षा में नियुक्त हो तत्परतासे
१७२।१३-१४) । सूर्यकन्या तपतीने राजाका चित्त चुरा उनकी रक्षा करने लगे (भीष्म० ५१ । १४)। लिया है-यह जानकर इनका ऊर्ध्वलोकमें गमन और वसातीय-कौरवपक्षका एक योद्धा, जो अभिमन्युके साथ इनके द्वारा सूर्य भगवान्का स्तवन ! सूर्यद्वारा इनका युद्ध करके उसके द्वारा मारा गया (द्रोण.४४। स्वागत और इन्हें अभीष्ट वस्तु देनेका आश्वासन
(भादि. १७२ । १५-२०)। इनका संवरणके
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वसिष्ठ (वशिष्ठ)
( २९९ )
वसिष्ठ ( वशिष्ठ)
लिये तपतीका वरण, सूर्यदेवका इन्हें संवरणके लिये अपनी कन्याका दान और तपतीको साथ लेकर इनका राजाके समीप आगमन (आदि. १७२ । २०-२८)। इनकी आज्ञासे राजाका तपतीके साथ विधिवत् विवाह करके उसके साथ पर्वतपर विहार करना (आदि. १७२ । ३२-३४ ) । अर्जुनके पूछनेपर गन्धर्वका । उन्हें वसिष्ठजीका परिचय देना-ये ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं, अरुन्धतीदेवीके पति हैं। देवदुर्जय काम और क्रोध नामक दोनों शत्रु इनकी तपस्यासे सदाके लिये पराभूत हो इनके चरण दबाते रहे हैं। इन्द्रियोंको वशमें कर लेनेके कारण ये विशिष्ठ' कहलाते हैं (आदि. १७।। १-६)। विश्वामित्रके अपराधसे मनमें क्रोध धारण करते हुए भी इन उदारबुद्धि महर्षिने कुशिक-वंशका मूलोच्छेद नहीं किया। सौ पुत्रोंके मारे जानेसे संतप्त हो
| लेनेकी शक्ति रखते हुए भी इन्होंने असमर्थकी भाँति सब कुछ सह लिया, किंतु विश्वामित्रका विनाश करनेके लिये कोई क्रूरतापूर्ण कर्म नहीं किया । ये अपने मरे हुए पुत्रोंको यमलोकसे भी वापस ला सकते थे, फिर भी यमराजकी मर्यादाका उल्लङ्घन करनेको उद्यत नहीं हुए (आदि० १७१।७-९) । इन्हींको पुरोहितरूपमें पाकर इक्ष्वाकुवंशी नरेशोंने इस पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त किया था ( आदि. १७३।१०)। इनके आश्रमपर राजा विश्वामित्रका आगमन और नन्दिनीके प्रभावसे इनके द्वारा सेना तथा मन्त्रियोसहित उनका आतिथ्यसत्कार ( आदि. १७४ । ५-१)। विश्वामित्रका इनसे नन्दिनीको माँगना और इनका उन्हें उनका सारा राज्य लेकर भी नन्दिनीको देनेसे इन्कार करना ( आदि. १७४।१६-१८)। विश्वामित्रद्वारा बलपूर्वक नन्दिनीका अपहरण होता देखकर भी इनका मौन रहना । नन्दिनीकी इनसे कातर प्रार्थना, इनका नन्दिनीको अपनी ही शक्तिसे आश्रमपर रहनेकी आशा देना और इनकी आशा पाते ही नन्दिनीका म्लेच्छोंकी सृष्टि करके उनके द्वारा विश्वामित्रकी सेनाको मार भगाना ( आदि. १७४ । २१-४३ )। विश्वामित्रका इनके ऊपर नाना प्रकार अस्त्र-शस्त्र और दिव्यास्त्रोका प्रयोग करना तथा इनका अपनी बाँसकी छड़ीसे ही उनके सारे अस्त्र-शस्त्रोंको भस्मीभूत कर देना (आदि. १७४ । ४३ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ५१५)। शक्तिके शापसे राक्षसभावको प्राप्त हुए कल्माषपादद्वारा विश्वामित्र की प्रेरणा पाकर इनके पुत्रोंका भक्षण और इनका शोक (आदि. १७५ । १-४३)। महर्षिने विश्वामित्रका विनाश न करके स्वयं ही शरीर त्याग देनेका विचार कर लिया । ये मेरुपर्वतके शिखरसे कूद पड़े।
किंतु पत्थरकी शिला भी इनके लिये रूईके ढेरके समान हो गयी । ये धधकते हुए दावानलमें घुस गये; परंतु वह आग इनके लिये शीतल हो गयी । ये गलेमें भारी पत्थर बाँधकर समुद्र के जलमें कूद पड़े; परंतु समुद्रने अपनी लहरोंसे ढकेलकर इन्हें किनारे डाल दिया (आदि० १७५ । ४४-४९)। इन्होंने देखा, वर्षाका समय है । एक नदी नूतन जलसे लबालब भरी है और तटवर्ती वृक्षोंको बहाये लिये जाती है। सोचा इसीके जलमे डूब जाऊँ । अपने शरीरको पाशोंद्वारा अच्छी तरह बाँधकर ये उस महानदीके जलमें कूद पड़े, परंतु उस नदीने इनके बन्धन काटकर इन्हें स्थलमें पहुंचा दिया । उसके द्वारा विपाश (बन्धनरहित) होनेके कारण इन्होंने उसका नाम विपाशा रख दिया। इसके बाद हिमालयसे निकली हुई एक दूसरी भयंकर नदीकी प्रखर धारामें इन्होंने अपने आपको डाल दिया। परंत इनके गिरते ही वह शत-शत धाराओंमें फूटकर द्रत-गतिसे इधर-उधर भाग चली । इसलिये शतद्' नामसे विख्यात हुई (भादि. १७१।१-९)। इनका अपनी पुत्रवधू अदृश्यन्तीके गर्भस्थ बालकके मुखसे वेदाध्ययनकी ध्वनि सुनकर और शक्तिके गर्भस्थ बालककी सूचना पाकर अपनी वंशपरम्परा सुरक्षित जान मृत्युके संकल्पसे विरत होना ( आदि. १७६ । १२-१६ )। राक्षसके भयसे डरी हुई अदृश्यन्तीको आश्वासन दे इनका कल्माषपादका शापसे उद्धार करना तथा राजाकी प्रार्थनासे इनका रानी मदयन्तीके गर्भसे अश्मक नामक पुत्रको उत्पन्न करना ( आदि. १७६ । १७-४७) । भृगुवंशी और्वकी कथा सुनाकर इनके द्वारा पराशरके जगदिनाशक संकल्पका निवारण तथा पराशरके राक्षससत्रकी समाप्ति (आदि. १७७।११ से आदि० १८० । २॥ तक)। ये ब्रह्माजीकी सभामें विराजमान होते हैं ( समा.
१ । १९)। इनके द्वारा श्रीरामका राज्याभिषेक (वन० २९१ । ६६) । शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णकी मार्गमें इनके द्वारा परिक्रमा करना (उद्योग० ८३ । २७)। इनका द्रोणाचार्यके पास आकर उनसे युद्ध बंद करनेको कहना (द्रोण. १९०। ३३--४०)। कुरुक्षेत्रमें वसिष्ठजीके आवाहन करनेपर सरस्वती नदी 'ओघवती' के नामसे प्रकट हुई थी (शल्य. ३८ । २७-२९ )। वसिष्ठापवाह तीर्थक प्रसंगमें विश्वामित्रका क्रोध और वसिष्ठजीकी सहनशीलता (शल्य. १२ अध्याय )। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये गये थे (शान्ति०४७।७)। वसिष्ठजी मुचुकुन्दके पुरोहित थे और कुबेर एवं योंके साथ युद्ध छिड़ जानेपर इन्होंने तपस्यासे मुचुकुन्दके
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वसिष्ट पर्वत
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( 300 )
लिये विजयका मार्ग प्रशस्त किया था ( शान्ति० ७४ । ५-६ ) । इनके द्वारा प्रजाको जीवनदान ( शान्ति ० २३४ | २७; अनु० १३७ । १३ ) । वृत्रासुरसे भयभीत इन्द्रको रथन्तर सामद्वारा सचेत करना ( शान्ति० २९१ । २१–२६ ) । ये मूल गोत्रप्रवर्तक चार ऋषियोंमेंसे एक हैं (शान्ति० २९६ । १७ ) । विदेहराज कराल जनकको विविध ज्ञानोपदेश ( शान्ति ० अध्याय ३०२ से ३०८ तक ) । इक्कीस प्रजापतियों में इनकी भी गणना है ( शान्ति० ३३४ । ३६ ) । ये 'चित्रशिखण्डी' नामवाले ऋषियोंमेंसे एक हैं ( शान्ति० ३३५ | २८-२९ ) । इनके द्वारा हिरण्यकशिपुको शाप ( शान्ति० ३४२ । ३१) । पुरुषार्थकी श्रेष्ठता के विषय में इनका ब्रह्माजी के साथ संवाद ( अनु० ६ अध्याय ) | इनका राजा सौदासको गोदानकी विधि और गौओंका महत्त्व बताना ( अनु० ७८ । ५ से ८० अध्यायतक ) । परशुरामजीको शुद्धिके उपायके लिये सुवर्णके दान और उसकी उत्पत्तिका प्रसंग बताना ( अनु० ८४ । ४४ से ८५ अध्यायतक ) । वृषादर्भिसे प्रतिग्रहका दोष बताना (अनु० ९३ । ३९) । अरुन्धती से अपनी दुर्बलताका कारण बताना (अनु० ९३ । ६१) । यातुधानी से अपने नामकी निरुक्ति बताना ( अनु० ९३ । ८४ ) । मृणालकी चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु० ९३ । ११४- ११५ ) । अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु० ९४ । १७ ) । ब्रह्माजीसे यज्ञके विषयमें प्रश्न करना ( अनु० १२६ । ४४-४५ ) । वायुदेवद्वारा इनके प्रभावका वर्णन ( अनु० १५५ । १६ – २५ ) । कुम्भमें देवताओंका वीर्य स्थापित हुआ था जिससे इनकी उत्पत्ति हुई ( अनु० १५८ । १९ ) । वृत्रासुरसे गृहीत एवं मोहित हुए इन्द्रको सचेत करना ( आश्व० ११ । १८-१९ ) ।
महाभारत में आये हुए वसिष्ठके नाम - आपक, अरुन्धतीपति, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, हैरण्यगर्भ, मैत्रावरुणि, वारुणि इत्यादि ।
वसिष्ठ पर्वत - यहाँ तीर्थयात्रा के अवसरपर अर्जुनका आगमन हुआ था (आदि ० २१४ । २ ) । वसिष्ठापवाह- सरस्वतीतटवर्ती एक प्राचीन तीर्थं । इसकी I उत्पत्तिका वर्णन ( शल्य० ४२ अध्याय ) । वसिष्ठाश्रम - निवीरा सङ्गमके समीपका एक तीर्थभूत आश्रम जो तीनों लोकोंमें विख्यात है । यहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता है ( वन० ८४ । १४०-१४१)।
बसु - (१ ) चेदिदेश के राजा उपरिचर वसु ( आदि ●
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दे
६३ । १-२ ) । ( देखिये उपरिचर व सु ) ( २ ) धर्मदेवद्वारा दक्षकन्या के गर्भ से आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जो सुगण कहलाते हैं ( आदि० ६६ । १७-१८ । (देखिये अष्टवसु ) | ( ३ ) महाराज ईलिनके द्वारा रथन्तरीके गर्भसे उत्पन्न | इनके चार भाई और थे, जिनके नाम हैं दुष्यन्त, शूर, भीम और प्रवसु ( आदि० ९४ । १७१८ ) । ( ४ ) एक विद्वान् ब्राह्मण मुनि, जिनके पुत्र का नाम पैल था ( सम्भव है ये जमदग्निपुत्र वसु ही हों ) ( सभा० ३३ | ३५ ) | ( ५ ) जमदग्निके एक पुत्र इनकी माता रेणुका थीं। इनके भाई रुमण्वान्, सुत्रेण, विश्वावसु तथा परशुराम थे । पिताकी मातृव सम्बन्धी आज्ञा न माननेसे इन्हें पिताद्वारा शाप प्राप्त हुआ ( वन० ११६ । १० - १२ ) । परशुरामद्वारा इनका शापसे उद्धार हुआ ( वन० ११६ । १७ ) । (६) कृमिकुलका एक कुलाङ्गार राजा ( उद्योग० ७४ । १३ ) । ( ७ ) भगवान् शिवका एक नाम ( अनु० १७ । १४० ) । ( ८ ) भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । २५ ) ।
वसुचन्द्र - युधिष्ठिरका सम्बन्धी और सहायक एक राजा, जो इन्द्रके समान पराक्रमी था ( द्रोण० १५८ । ४० ) । वसुदान - ( १ ) एक क्षत्रिय नरेश, जो पांशुराष्ट्रके अधिपति थे और युधिष्ठिरकी सभा में बैठा करते थे ( सभा ० ४ । २७ ) । इन्होंने पांशुदेशसे छब्बीस हाथी, दो हजार घोड़े और सब प्रकारकी भेंट-सामग्री लाकर पाण्डवों को अर्पित की थी ( सभा० ५२ । २७-२८ ) । इन्होंने युधिष्ठिरके साथ-साथ कुरुक्षेत्रको प्रस्थान किया था ( उद्योग० १५१ । ६३ ) । ये अतिरथी वीर थे ( उद्योग० १७१ । २७ ) । युद्धस्थलमें पाण्डवसेनापति धृष्टद्युम्नके पीछे-पीछे गये थे ( द्रोण० २३ । ४१ ) । द्रोणाचार्य के भल्लद्वारा इनका वध हुआ ( द्रोण० १९० ॥ ३० ) । ये युद्ध में घोर संहार मचाते थे, द्रोणद्वारा इनके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ६ । ३८ ) । ( २ ) पाण्डवपक्षीय पाञ्चाल राजकुमार, जो द्रोणाचार्यद्वारा मारा गया ( द्रोण० २१ | ५५ ) | वसुदामा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६ । ५)।
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वसुदेव- शूरसेनके पुत्र | देवकीके पति | श्रीकृष्णके पिता । कुन्तीके भ्राता । उग्रसेनके मन्त्री । पाण्डवोंके चूड़ाकरण आदि संस्कार के लिये इनको वृष्णिवंशियोंकी प्रेरणा, इनका पाण्डुपुत्रोंके संस्कार करवानेके लिये काश्यप नामक पुरोहितको शतशृङ्गपर्वतपर भेजना ( आदि० १२३ । ३१ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ २६९ ) । उग्रसेनके भाई
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वसुधारा
( ३०१ )
वसुहोम
देवककी पुत्री देवकीके साथ इनका विवाह । देवकीको ययातिसे इनकी भेंट ( आदि० ९३ । १)। इनके द्वारा मारनेके लिये उद्यत हुए कंसको इनके द्वारा आश्वा- ययातिको पुण्यदानका आश्वासन (आदि० ९३ । ३। सन (सभा० २२ । ३६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ५)। अपनी माता माधवीसे इनका ययातिका परिचय
७३१)। इनका नवजात शिशु श्रीकृष्णको रातमें ब्रज पूछना ( आदि० ९३ । १३ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। पहुँचाना और वहाँसे नन्द-कन्याको ले आना (सभा० अष्टक आदि राजाओंके साथ इनका स्वर्गाभिगमन २२ । ३६ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७३२, ७९८)। (आदि० ९३ । १६ )। ये यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र इनका श्रीकृष्णसे महाभारत-युद्ध का वृत्तान्त पूछना यमकी उपासना करते हैं (सभा०८।१३)। इन्होंने (आश्व० ६०।१-४)। सुभद्राको मूर्छित हुई देख- तीर्थयात्रा करके पावन यश और प्रचुर धन प्राप्त किया कर स्वयं भी मूर्छित होना और पुनः श्रीकृष्णसे अभि- था (वन० ९४ । १७-९०) । विश्वामित्रके पुत्र अष्टकमन्युवधका वृत्तान्त पूछना ( आश्व० ६१ । ५-१५)। के अश्वमेध यज्ञमें ये पधारे थे ( वन० १९८ । १.२)। अभिमन्युका श्राद करना ( आश्व० ६२ । । नारदजीका इनको अपने और शिबिसे भी पहले मौसलकाण्डमें यादोंका संहार हो जानेपर भगवान् श्री- स्वर्गलोकसे नीचे उतरनेका अधिकारी बताना ( वन० कृष्णका द्वारकामें अपने पिता वसुदेवके पास आना, इनसे १९८ । ११-१५)। ये इन्द्रके रथपर आरूढ़ हो अर्जुनकी प्रतीक्षा करते हुए स्त्रियोंकी रक्षा करनेके लिये विराटनगरके आकाशमें अर्जुन और कृपाचार्यका कहना और इनके चरणोंपर मस्तक रखकर बलरामजीके युद्ध देखनेके लिये आये थे (विराट ५६ । ९-१०)। साथ तप करनेके विचारसे तुरंत वहाँसे चल देना नैमिषारण्यमें वाजपेय यज्ञद्वारा श्रीहरिकी आराधना करते (मौसल. ४ । ८-१०)। इनका अर्जुनसे वृष्णि- हुए वसुमना आदिके पास ययातिका स्वर्गसे नीचे गिरना वंशियोंके दुःखद संहारकी बात बताना और श्रीकृष्णका (उद्योग० १२१। १०.११)। ये दानपतिके नामसे संदेश सुनाना (मौसल० ६ अध्याय ) । अर्जुनका इनसे विख्यात थे । इन्होंने ययातिको अपना पुण्यफल प्रदान अपना श्रीकृष्णविरहजनित दुःख बताना और वृष्णिवंश- किया (उद्योग. १२२ । ३-५)। ये कोसलदेशके की स्त्रियोंको इन्द्रप्रस्थ ले जाने का विचार प्रकट करना राजा थे । बृहस्पतिजीसे राज्यकी वृद्धि और हासके विषयमें (मौसल०७।१-६)। इनके द्वारा परमात्मचिन्तन- इनका प्रश्न (शान्ति० ६८ । ६-७)। वामदेवजीसे पूर्वक अपने शरीरका त्याग (मौसल० ७ । १५)। राजधर्मके विषयमें इनका पूछना (शान्ति० ९२ । ४)। अर्जुनद्वारा इनका अन्त्येष्टि-संस्कार तथा इनकी चार (२) एक राजा, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते पत्नियोंका इनके शवके साथ चितारोहण (मौसल० थे (सभा०४।३२)। इन्हें पाण्डवोंकी ओरसे रण७ । १९-२०)। ये स्वर्गमें जाकर विश्वेदेवोंके स्वरूपमें निमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था ( उद्योग०४। मिल गये (स्वर्गा० ५। ७)।
२.)। (३) एक अग्नि । यदि अग्निहोत्रसम्बन्धी महाभारतमें आये हुए वसुदेवके नाम-आनकदुन्दुभि,
अग्निको कोई रजस्वला स्त्री छू दे तो इन ( वसुमान् शौरि, शूरपुत्र, शूरसूनु, शूरसुतः शूरात्मज) यदूद्रह आदि ।
अग्नि) के लिये अष्टकपाल चरुद्वारा आहुति देनेकी विधि
है (वन० २२१ । २७)। ये ब्रह्माजीकी सभामें विराजवसुधारा-एक तीर्थ, जो सबके द्वारा प्रशंसित है। वहाँ
मान होते हैं (सभा० १३ । ३०)। (४) एक जानेमात्रसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वहाँ स्नान
जनकवंशी राजकुमार, जिन्हें एक ऋषिद्धारा धर्मविषयक करके शुद्ध और समाहित चित्त हो देवताओं तथा पितरोंका
__ उपदेश प्राप्त हुआ था (शान्ति. ३०९ अध्याय)। तर्पण करनेसे मनुष्य विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
वसुमित्र-एक क्षत्रिय राजा, जो दनायुके पुत्र विक्षर नामक वहाँ वसुओंका पवित्र सरोवर है । उसमें स्नान और
___ असुरके अंशसे उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७ । ४१)। जलपान करनेसे मनुष्य वसु देवताओंका प्रिय होता है
वसुश्री-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. (वन० ८२ । ७६-७८)।
४६ । १४)। वसुप्रभ-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६३)। वसुषण-कर्णका एक नाम: जो अधिरथ और राधाद्वारा वसुमना (वसुमान् )-(१) एक प्राचीन नरेश, जो बाल्यावस्थामें रखा गया था ( भादि०६७।१४१,
अयोध्यानरेश हर्यश्वद्वारा ययातिकन्या माधवीके गर्भसे १४७ वन.३०९ । १४)। ( विशेष देखिये कर्ण)। उत्पन्न हुए थे। इनके पास ही स्वर्गसे गिरे हुए राजा ययाति वसहोम-अङ्गदेशके एक राजा, जिन्होंने मान्धाताको दण्डइनसे मिलकर सत्सङ्गके प्रभावसे स्वर्गलोकमें चले गये की उत्पत्ति आदिका उपदेश दिया था (शान्ति. १२२।। ( आदि.८६५.६) । स्वर्गसे गिरते समय राजा -५४)।
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( ३०२ )
वामदेव
वस्त्रप-क्षत्रियोंकी एक जाति । इस जातिके राजकुमार द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि. १८५।२)।
युधिष्ठिरके लिये भेंट लाये थे (सभा०५२। १५-१७)। भीमसेनद्वारा इसका वध (कर्ण० ८४ । २-६)। वस्त्रा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी
(२) गरुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग. पीते हैं ( भीष्म० ९ । २५)।
१०१। ०)। वखोकसारा-गङ्गाकी सात धाराओंमेंसे एक ( भीष्मः वातस्कन्ध-एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभामें उपस्थित होकर ६।१४)।
वज्रधारी इन्द्रकी उपासना करते हैं (सभा०७।१४)। वहि-विपाशामें रहनेवाला एक पिशाच, जो हीकका साथी वाताधिप-एक राजा, जिसे दक्षिण-दिग्विजयके अवसरपर
है इन्हीं दोनोंकी संताने वाहीक' कही गयी हैं। ये सहदेवने अपने वशमें कर लिया था ( सभा०३१ । प्रजापतिकी सृष्टि नहीं हैं ( कर्ण० ४४ । ४१-४२)। वहीनर-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी वातापि-दुर्जय मणिमती नगरीके निवासी इल्वल नामक उपासना करते हैं (सभा० ८ । १५)।
दैत्यका छोटा भाई (वन० ९६ । ।-४)। इल्वल वह्नि-एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो पूर्वकालमें पृथ्वीका
मायासे अपने भाई वातापिको बकरा या भेड़ा बना देता शासक था, परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा
था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था: (शान्ति. २२७ । ५२)।
अतः वह क्षणभरमें भेड़ा या बकरा बन जाता था। इल्वल वागिन्द्र-गृत्समदवंशी प्रकाशके पुत्र । इनके पुत्रका नाम
"उस भेड़े या बकरेको मारकर राँधता और वह मांस किसी प्रमिति था (अनु०३०।६३)।
ब्राह्मणको खिला दिया करता था। इल्वलमें यह शक्ति थी
कि वह जिस मरे हुए प्राणीको पुकारे, वह जीवित दिखायी वाग्मी-राजा पूरके पौत्र मनस्युके द्वारा सौवीरीके गर्भसे
देने लगे । वह वातापिको भी पुकारता और वह बलवान् उत्पन्न तीन पुत्रोंमेंसे एक । शेष दोके नाम शक्त और संहनन हैं (आदि०२४ । ५-७)।
दैत्य उस ब्राह्मणका पेट फाड़कर हँसता हुआ निकल
आता था (वन० ९६ । ७-१३)। उसने अगस्त्यवाजपेय-एक यज्ञविशेष (सभा० ५। १००)। जीके साथ भी यही बर्ताव किया; परंतु अगस्त्यजीने उसे वाटधान-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक पेटमें ही पचा लिया, वह पुनः निकल नहीं पाया (वन.
दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि.७।२३)। इसे पाण्डवोंकी ओरसे रण-निमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया वातापी-दनुका पुत्र, प्रसिद्ध दस दानव-कुलोंमेंसे एक गया था (उद्योग. ४।२३) । (२) एक देश तथा (आदि० ६५।२८-३०)। वहाँके निवासी। पश्चिम-दिग्विजयके समय नकुलने वाटधान- वातिक-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६७)। देशीय क्षत्रियोंको हराया था (सभा० ३२।८)।
वात्स्य-(१) एक वेदविद्याके पारंगत ऋषि, जो जनमेजयके धन-धान्यसे सम्पन्न यह देश कौरवोंकी सेनासे घिर गया
सर्पसत्र में सदस्य बने थे (आदि. ५३ । ९-१०) । शरथा (उद्योग० १९ । ३१)। भारतके प्रमुख जनपदों में
शय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखनेके लिये ये भी गये ये इसकी भी गणना है (भीष्म. ९।४७)। यहाँके
(शान्ति० ४७ । ५)।(२) एक देश, जिसे श्री. सैनिक भीष्मनिर्मित गरुडव्यूहके शिरोभागमें अश्वत्थामाके
कृष्णने जीता था (द्रोण० ११ । १५)(देखिये वत्स)। साथ खड़े किये गये थे (भीष्म० ५६ । ४)। भगवान्
वानव-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५४) । श्रीकृष्णने भी पहले कभी इस देशको जीता था (द्रोण.
वाभ्रवायणि ( बाभ्रवायणि )-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी १।१७)। यहाँके सैनिक अर्जुनद्वारा मारे गये थे
पुत्रोंमेंसे एक (अनु० ४ । ५७)। (कर्ण० ७३ । १७)।
वामदेव-(१) एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभामें विराजते हैं वाणी-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी
(सभा० ७ । १७)। इनका राजा शलको अपने वाम्य पीते हैं (भीष्म० ९ । २०)।
अश्व देना (वन. १९२ । ४३)। अश्वोंके न लौटानेपर वातघ्न-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० ४। इनका राजासे वार्तालाप और अन्तमें कृत्याजन्य राक्षौद्वारा
राजाको नष्ट करना (वन० १९२ । १८-५९)। वातज-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५४ )। इनकी शलके छोटे भाई राजा दलसे बातचीत और अश्वोंवातवेग ( वायुवेग)-(१) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक को पुनः प्राप्त करना (वन. १९२ । ६०-७२)।
(भादि.६.।१०२, भादि. ६ .)। यह इनके द्वारा शान्तिदूत बनकर इस्तिनापुर जाते हुए श्री
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वामन
( ३०३ )
वायुवेग
कृष्णकी परिक्रमा ( उद्योग० ८३ । २७-२८)। इनका इनका शाल्वको मारनेके लिये उद्यत हुए प्रद्युम्नके पास महाराज वसुमनाको राजधर्मका उपदेश (शान्ति. आकर देवताओंका संदेश सुनाना (वन० १९ । अध्याय ९२ से ९४ तक)। (२)एक नरेश, जिन्हें २२-२४ )। इनके द्वारा दमयन्तीकी शुद्धिका समर्थन उत्तर-दिग्विजयके अवसरपर अर्जुनने अपने अधीन कर (वन० ७६ । ३६-३९)। इनके द्वारा सीताजीकी लिया था ( सभा० २७ । ")।
शुद्धिका समर्थन (वन.२९१ । २७)। त्रिपुरदाहके वामन-(१) कश्यपधारा कद्र के गर्भसे उत्पन्न एक नाग समय भगवान् शङ्करके बाणके पंख बने थे ( द्रोण. (आदि. ३५। ६। उद्योग. १०३।१०)।(२)
२०२ । ७६-७७)। इनके द्वारा स्कन्दको बल और भगवान् विष्णुके अवतार । देवताओंकी प्रार्थनासे भगवान्
अतिबल नामक दो पार्षद प्रदान ( शल्य० ४५ । नारायणका वामनरूपमें माता अदितिके गर्भसे प्रादुर्भाव,
४४-४५)। महाराज पुरूरवाके पूछनेपर उन्हें पुरोहितब्रह्मचारी वामनके द्वारा बलिसे तीन पग भूमिकी याचना
की आवश्यकता बताना (शान्ति० ७२ । १०-२५)। (सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७८९)।
नारदजीके मुखसे सेमलकी उद्दण्डताकी बात सुनकर त्रिभुवनको नापते समय इनका अद्भुत रूप धारण करना ।
इनका उस वृक्षको धमकाना (शान्ति. १५६ । ६-९)। इनके चरणके आघातसे गङ्गाका प्राकट्य । इनके द्वारा
सेमल वृक्षको चेतावनी देना (शान्ति० १५७ । ५.६)। दानवोंका भीषण संहार ( सभा० ३८ । २९ के बाद
इन्होंने सुपर्णसे सात्वत धर्मकी शिक्षा प्राप्त की और स्वयं दा० पाठ, पृष्ठ ७९०)। इनके द्वारा राजा बलिका बन्धन,
भी विघताशी ऋषियोंको उसका उपदेश दिया (शान्ति. बलिको सुतललोकमें भेजकर इनके द्वारा इन्द्रको त्रिभुवन
३४८ । २२-२४)। इनके द्वारा धर्माधर्मके रहस्यका के राज्यका दान ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा.
वर्णन ( अनु० १२८ अध्याय)। इनका कार्तवीर्य पाठ, पृष्ठ ७९०-७९)। (३) कुरुक्षेत्रकी सीमामें
अर्जुनके प्रति ब्राह्मणकी महत्ताका प्रतिपादन (अनु. स्थित एक त्रिभुवनविख्यात तीर्थ, जहाँ विष्णुपदमें स्नान
१५२ । २४ से अनु० १५७ अध्याय तक)। (२) और वामन देवताका पूजन करनेसे मनुष्य सब पापोंसे
एक प्राचीन ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीशुद्ध हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है (वन.
को देखने आये थे (शान्ति. ४७।९)। ४३ । १०३ ) । ( ४ ) एक सर्वपापविनाशक तीर्थ, वायुचक्र-मङ्कणक मुनिके कलशमें रखे हुए वीर्यसे उत्पन्न जहाँकी यात्रा करके भगवान् श्रीहरिका दर्शन करनेसे एक ऋषि ( शल्य० ३८ । ३२-३७)। मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता ( वन० ८४ ।
वायुज्वाल-मङ्कणक मुनिके कलशमें रखे हुए वीर्यसे उत्पन्न
म १३०-१३१)। (५) गरुड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक
एक ऋषि (शल्य. ३८ । ३२-३७)। (उद्योग. १०१।१०)। (६) क्रौञ्चद्वीपका एक पर्वत (भीष्म० १२।१८)।(७) चार दिगालोमेसे वायुबल-मङ्कणक मुनिके कलशमें रखे हुए वीर्यसे उत्पन्न एक, शेष तीनोंके नाम हैं-ऐरावत, सुप्रतीक और
की एक ऋषि (शल्य३८ । ३२-३७)। अञ्जन (भीष्म० १२ । ३३)। यह घटोत्कचके साथी वायभक्ष-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान एक राक्षस का वाहन था ( भीष्म० ६४ । ५७)। होते थे ( समा० ४ । १३)। हस्तिनापुर जाते हुए वामनिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.
___ श्रीकृष्णसे मार्गमें इनकी भेंट ( उद्योग० ८३ । ६४ ४६ । २३) वामा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । वायुमण्डल-मङ्कणक मुनिके कलशमें रखे हुए वीर्यसे १२, १७)।
उत्पन्न एक ऋषि (शल्य. ३८ । ३२-३७)। वाम्य-महर्षि वामदेवके अश्वोका नाम (वन० १९२४)। वायुरेता-मङ्कणक मुनिके कलशमें रखे हुए वीर्यसे उत्पन्न वायु-वायुतत्त्वके अभिमानी देवता, जिन्हें मेनकाने एक ऋषि (शल्य० ३८ । ३२-३७)। विश्वामित्रको लुभाते समय अपनी आवश्यक सहायताके वायुवेग-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक लिये चुना था। इन्द्रने इन्हें उसके साथ भेजा और दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि. ६७।६३)। इन्होंने मेनकाका वस्त्र उड़ाया (आदि०७२।१-४)। इन्हें पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय इनके द्वारा कुन्तीके गर्भसे भीमसेनका जन्म (आदि. किया गया था ( उद्योग० ४ । १७)। (२) मङ्कणक १२२ । ११-१४)। ये ब्रह्माजीकी सभामें उपस्थित मुनिके कलशमें रखे हुए वीर्यसे उत्पन्न एक ऋषि हो उनकी उपासना करते हैं (सभा० ११।२०)। (शस्य० ३८ । ३२-३७)।
के बाद)।
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वायुहा
( ३०४ )
वाष्र्णेय
वायुठा-मङ्कणक मुनिके कलशमें रखे हुए वीर्यसे उत्पन्न किनारेतक फैला हुआ था। यह इन्द्रके अमरावतीपुरीके एक ऋषि (शल्य० ३८ । ३२-३७)।
समान जान पड़ती थी (अनु.३०। १६-१८)। वारण-एक प्रदेश, जो कौरवसेनासे घिर गया था ( उद्योग. पूर्वकालमें यहाँ भगवान् शङ्करके दर्शनके लिये संवर्त मुनि १९ । ३.)।
प्रतिदिन आया करते थे। यहीं राजा मरुत्तने नारदजीके बताये वारणावत-एक प्राचीन नगर, जहाँ दुर्योधनने पाण्डवोंको
अनुसार संवर्तको पहचानकर उन्हें अपने पुरोहितके
पदपर प्रतिष्ठित किया था ( आश्व०६।२२ से आश्व. मरवाने के लिये पुरोचनकी सहायतासे लाक्षागृहका निर्माण करवाया था ( आदि. ६५।१७)। (आधुनिक
७।१० तक)। मतके अनुसार वर्नवा' जो मेरठसे उत्तर-पश्चिम उन्नीस वाराह कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक उत्तम तीर्थ, मील दूर है। ) पाण्डवोंने यहाँ एक वर्षतक निवास किया जहाँ भगवान् विष्णु पहले वाराहरूपसे स्थित हुए थे। था ( आदि० ६१ । २१-२२ ) । धृतराष्ट्रके मन्त्रियों- वहाँ स्नान करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है द्वारा इस नगरकी प्रशंसा तथा वहाँके मेलेकी चर्चा (वन० ८३ । १८-१९)। ( आदि० १४२ । ३-४ ) । पाण्डवोंने संधिके समय वारिसेन-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी जिन पाँच गाँवोंको माँगा था, उसमें वारणावत भी था उपासना करते हैं (सभा० । । २०)। ( उद्योग० ३१ । १९-२० ) । धृतराष्ट्रपुत्र युयुत्सुने वारुणतीर्थ-दक्षिण भारतमें पाण्डयदेशके अन्तर्गत एक यहाँ बहुत-से राजाओंके साथ छः मासतक अपराजित तीर्थ (वन. ८८ । १३)। रहकर युद्ध किया था (द्रोण. १०। ५८-५९)।
वारुणहद-वरुणदेवताका एक सरोवर, जिसमें महातेजस्वी वारवत्या-एक नदी, जो वरुणसभामें रहकर वरुणदेवकी अग्निदेव प्रकाशित होते हैं (उद्योग० ९८ । १८)। उपासना करती है (सभा०९।२२)।
वारुणी-जो क्षीरसागरके मन्थन करनेपर उत्पन्न हुई थी वारवास्य-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९ । ४५)। (उद्योग० १०२।१२)। वाराणसी-भीष्मजी माताकी आज्ञासे काशिराजकी कन्याओं वार्भी-कण्डु मुनिकी पुत्री, जो दस प्रचेताओंकी पत्नी
के स्वयंवरमें वाराणसीपुरीको गये और वहाँ आये हुए हुई थी ( आदि. १९५।१५)। समस्त राजाओंको चुनौती देकर उन्हें युद्ध में परास्त वार्त-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी करके काशिराजकी तीनों कन्याओंको हर लाये (भादि० उपासना करते हैं (सभा० ८।५०)। १०२ । ३-५३ ) । यह एक प्रमुख तीर्थ है । यहाँ
वार्धक्षेमि-पाण्डवपक्षके एक महारथी योद्धा, जो वृष्णिजाकर कपिलाहदमें स्नान करके भगवान् शङ्करकी पूजा
वंशी क्षत्रिय थे ( उद्योग० १७१ । १७)। इन्होंने करनेसे राजसूय यज्ञका फल मिलता है ( वन० ८४.७४)।
द्रौपदीके स्वयंवरमें पदार्पण किया था ( आदि. १८५ । वाराणसीका मध्यभाग अविमुक्तक्षेत्र कहलाता है, यहाँ
९)। इनके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । ३५)। प्राणोत्सर्ग करनेवालेको मोक्ष प्राप्त होता है (वन० ८४।।
कृपाचार्यके साथ इनका युद्ध (द्रोण० २५ । ५१-५२)। ७९)। (यह सात मोक्षदायिनी पुरियों से एक है। ) इसे
युद्धमें इनके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ६ । २०. भगवान् श्रीकृष्णने जलाया था (उद्योग० ४८ । ७६ )।
२९)। काशीपुरीमें काशिराजके पुत्रको धृष्टद्युम्नने मारा था (द्रोण० १०। ६०-६२ ) । इसी पुरीमें महाज्ञानी वागण्य-एक प्राचीन ऋषि, जिनसे गन्धर्वराज विश्वातुलाधार वैश्य रहते थे (शान्ति. २६ । ४२-४३)। वसुने कभी जीवात्म-परमात्मतत्त्वका विवेचन सुना था पूर्वकालमें भगवान् शिवने वाराणसीपुरीमें मुनिवर (शान्त
(शान्ति० ३१८ । ५९)। जैगीषव्यको उनकी सबल साधनासे संतुष्ट हो अणिमा वार्ष्णेय-(१) एक प्राचीन देश, जहाँके राजा युधिष्ठिरके आदि आठ सिद्धियाँ प्रदान की थीं (अनु०१८।३७)। राजसूय यज्ञमें भेंट लेकर आये थे (सभा०५१ । २४)। तेजस्वी राजा दिवोदासने इन्द्रकी आज्ञासे वाराणसी (२) राजा नलका सारथि ( वन० ६०।१०)।
मवाली नगरीका निर्माण किया था । यह पुरी ब्राह्मण, इसका राजा नलके कुमार-कुमारी इन्द्रसेन और इन्द्रक्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंसे भरी हुई थी। नाना प्रकारके सेनाको कुण्डिनपुर छोड़कर अयोध्या जाना ( वन. द्रव्योसे सम्पन्न थी। उसके बाजार-हाट और दुकानें ६० । २१-२४)। ऋतुपर्णका सारथि होना (वन. धन-वैभवसे भरपूर थीं। इस नगरीके घेरेका एक छोर ६० । २५) ऋतुपर्णका इसे बाहुककी सेवामें नियुक्त गङ्गाजीके उत्तर तटतक और दूसरा छोर गोमतीके दक्षिण करना (वन० ६७७)। ऋतुपर्णके साथ विदर्भ
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वालखिल्य ( बालखिल्य )
जाते समय मार्ग में इसके भीतर बाहुकके नल होनेका संदेह होना ( वन० ७१ । २६-३४ ) | ( ३ ) भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम ( भीष्म० २७ । ३६ ) । वालखिल्य ( बालखिल्य ) - ब्रह्माजी के शक्तिशाली पुत्र महर्षि क्रतुसे उत्पन्न हुए ऋषि, जिनकी संख्या साठ हजार है । ये क्रतुके समान ही पवित्र, तीनों लोकों में विख्यात, सत्यवादी, व्रतपरायण तथा भगवान् सूर्यके आगे चलनेवाले हैं ( आदि० ६६ । ४ - ९ ) । कश्यपकी प्रार्थना गरुडद्वारा तोड़ी हुई वटशाखाको छोड़कर इन लोगोंका तपके लिये प्रस्थान ( आदि० ३० | १८ ) । देवराज इन्द्रके अपराध और प्रमादसे तथा महात्मा वालखिल्य महर्षियोंके तपके प्रभावसे पक्षिराज गरुडके उत्पन्न होनेकी बृहस्पतिद्वारा चर्चा ( आदि० ३० । ४० ) । पुत्रकी कामना से किये जानेवाले महर्षि कश्यपके यशमें सहायताके लिये एक छोटी-सी पलाशकी टहनी लेकर आते हुए अङ्गुष्ठके मध्यभागके बराबर शरीरवाले बालखिल्य ऋषियोंका बलोन्मत्त इन्द्रद्वारा उपहास, अपमान और लङ्घन ( आदि० ३१ ।५-१० ) । रोमें भरे हुए वालखिल्योंका देवराजके लिये भयदायक दूसरे इन्द्रकी उत्पत्तिके निमित्त अग्निमें विधिवत् होम करना ( आदि० ३१ । ११–१४ ) | महर्षि कश्यपका अनुनयपूर्वक बालखिल्योंको समझाना, इनके संकल्पके अनुसार होनेवाले पुत्रको पक्षियोंका इन्द्र बनानेके लिये इनकी सम्मति लेना और याचक बनकर आये हुए देवराज इन्द्रपर अनुग्रह करनेके लिये अनुरोध करना । वालखिल्योंका इनके अनुरोधको स्वीकार करना ( आदि० ३१ । १६ - २३ ) । ये सूर्य किरणोंका पान करनेवाले ऋषि हैं और ब्रह्माजीकी सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ११ । २० ) । इन्होंने सरस्वतीके तटपर यज्ञ किया था ( वन० ९० । १० ) । द्रोणाचार्यके पास आकर उनसे युद्ध बंद करने को कहना ( द्रोण० १९० । ३३ -४० ) । ये राजा पृथुके मन्त्री बने थे ( शान्ति० ५९ । ११० ) । अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर इनका शपथ खाना ( अनु० ९४ । ३९ ) । बालखिल्यगण तपस्यासे सिद्ध हुए मुनि हैं। ये सब भ्रर्मोंके ज्ञाता हैं और सूर्यमण्डलमें निवास करते हैं । वहाँ ये उञ्छवृत्तिका आश्रय ले पक्षियोंकी भाँति एक-एक दाना बीनकर उसीसे जीबननिर्वाह करते हैं । मृगछाला, चीर और वल्कल ——ये ही इनके वस्त्र हैं। ये बालखिल्य शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे रहित, सन्मार्गपर चलनेवाले और तपस्याके धनी हैं । इनमें से प्रत्येकका शरीर अङ्गठेके सिरेके बराबर है । इतने लघु काय होनेपर भी ये अपने-अपने कर्तव्यमें स्थित हो सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं। इनके धर्मका फल महान्
म० ना० ३९
( ३०५ )
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वासिष्ठ
है । ये देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये उनके समान रूप धारण करते हैं । ये तपस्यासे सम्पूर्ण पापको दग्ध करके अपने तेजसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करते हैं ( अनु० १४१ । ९९-१०२ ) । ये प्रतिदिन नाना प्रकार के स्तोत्रोंद्वारा निरन्तर उगते हुए सूर्यकी स्तुति करते हुए सहसा आगे बढ़ते जाते हैं और अपनी सूर्यतुल्य किरणोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते रहते हैं । ये सब-के-सब धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं । इन्हीं में लोकरक्षा के लिये निर्मल सत्य प्रतिष्ठित है। इन वालखिल्योंके ही तपोबलसे यह सारा जगत् टिका हुआ है । इन्हीं महात्माओंकी तपस्या, सत्य और क्षमाके प्रभावसे सम्पूर्ण भूतों की स्थिति बनी हुई है - ऐसा मनीषी पुरुष मानते हैं (अनु० १४२ । ३३ के बाददा० पाठ पृष्ठ ५९३३) । वालिशिख - कश्यपद्वारा कद्रुके गर्भ से उत्पन्न एक नाग ( आदि० ३५ । ८ ) ।
वाली - (१) वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करनेवाला एक दैत्य ( सभा० ९ । १४ । ( २ ) एक वानरराज, जो सुग्रीवका भाई और इन्द्रका पुत्र था । भगवान् रामद्वारा इसका वध ( सभा० ३८ | २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ७९५, कालम १३ बन० १४७ । २८ ) । इसकी पत्नीका नाम तारा था ( वन० २८० । (१८) । वालीका सुग्रीवके साथ युद्ध और श्रीरामद्वारा बध ( वन० २८० । ३० – ३६ ) । इसके अङ्गद नामक एक पुत्र था ( बन० २८८ । १४ ) । वाल्मीकि - ( १ ) एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभा में विराजमान होते हैं ) सभा० ७ । १६ ) । शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णकी इनके द्वारा मार्गमें परिक्रमा ( उद्योग० ८३ । २७ ) । सात्यकिने भूरिश्रवाके व के पश्चात् महर्षि वाल्मीकिके एक श्लोकका गान किया था ( द्रोण० १४३ । ६७-६८ ) । युधिष्ठिरसे शिवभक्तिके विषय में अपना अनुभव सुनाना ( अनु० १८ । ८ - १० ) । ( २ ) गरुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग ० १०१।११ ) ।
वाष्कल - हिरण्यकशिपुका पाँचवाँ पुत्र ( आदि० ६५ । १८)।
वासवी - उपरिचर वसुके वीर्यसे अद्रिकाके गर्भ से उत्पन्न । दाशराजद्वारा पालित ( आदि० ६३ । ५१-७१ ) । ( देखिये सत्यवती )
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वासिष्ठ - ( १ ) वसिष्ठसे सम्बन्ध रखनेवाली वस्तु (आख्यान)
( आदि० १७४ । २ ) । ( २ ) वसिष्ठ - पुत्र शक्ति एवं वसिष्ठके वंशज ( आदि० १८० | २०९ वन० २६ । ७) । ( ३ ) एक तीर्थ, इसमें स्नान करके वासिष्ठी
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वासिष्ठी
( ३०६ )
विकर्ण
नदीको लाँघकर जानेवाले क्षत्रिय आदि सभी वर्गों के नागराज, नागेन्द्र, पन्नग, पन्नगराट , पनगराज, पन्नगेश्वर, लोग- द्विजाति ( ब्राह्मण ) हो जाते हैं ( वन० ८४। पन्नगेन्द्र, सर्पराट , सर्पराज आदि ।
४८)। (४) एक अग्नि (वन० २२० ।।)। वासुकितीर्थ-प्रयाग ( दारागंजके पास गङ्गातटपर ) वासिष्ठी-एक नदी (वन० ८४ । ४८)।
भोगवती नामक उत्तम तीर्थः जिसमें स्नान करनेसे अश्ववासुकि-एक नागराज, जो आस्तीकके मामा तथा कश्यप मेध यज्ञका उत्तम फल मिलता है (वन० ८५ । ८६)।
और कद्रुके पुत्र थे ( आदि० ३५ । ५)। नागोंकी वासुदेव-(१) वसुदेवजीके पुत्र श्रीकृष्ण (सभा० ३८ । रक्षाके लिये इनके द्वारा अपनी बहिन जरत्कारुको जरत्कारु
२९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८०५, कालम २)। ऋषिकी सेवामें उनकी पत्नीरूपसे समर्पण (आदि०१४ । ( देखिये कृष्ण) (२)(पौण्ड्रक ) पुण्ड्रदेशका राजा ६-७; आदि० ४६ । २०-२३ )। समुद्र-मन्थनके वासुदेव, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें उपस्थित हुआ था समय इनका मन्थनदण्डकी डोरी होना ( आदि० १०। (आदि. १८५ । १२)। (विशेष देखिये पौण्ड्रक) १३)। नागोंद्वारा इनका नागराज-पदपर अभिषेक
वाहिनी-(१) सेनाविशेष । तीन गुल्मका एक गण और (आदि. ३६ । २५ के बाद दा० पाठ ) । माताके
तीन गणकी एक वाहिनी होती है (आदि० २।२१)। शापसे इनका चिन्तित होना ( आदि. ३७ । ३-१७
(२) ये सोमवंशीय राजा कुरुकी पत्नी थीं । इनके आदि. १८ ।३-८)। माताके शापसे अपनी रक्षा
गर्भसे कुरुद्वारा अश्ववान् आदि पाँच पुत्र हुए थे करनेके उपायपर इनका नागोंके साथ परामर्श (आदि.
( आदि. ९४ । ५०-५१)। (३) भारतवर्षकी एक ३७ । १०-३४) । एलापत्र नागका इनको अपनी
प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म बहिनका जरत्कारु ऋषिके साथ विवाह करनेकी सलाह देना
९ । ३४)। ( भादि. ३८ । १८-१९ ) । ब्रह्माजीकी आज्ञासे वासुकिका जरत्कारु मुनिके साथ अपनी बहिनको ब्याहनेके विश-सूर्यवंशी इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्र, जो धनर्धर वीरोंके लिये प्रयत्नशील होना (आदि० ३९ अध्याय)। सर्प- आदर्श थे । इनके पुत्रका नाम था विविंश (आश्वः ।। यज्ञमें जलते हुए नागोको देखकर उनकी रक्षाके लिये ४.५)। भयभीत हुए इनका अपनी बहिन जरत्कारुको आस्तीकसे विकट ( विकटानन )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक कहनेके लिये प्रेरित करना ( आदि० ५३ । २.-२६)।
(आदि. ६७ । ११॥ आदि. ११६ । ५)। यह इनके वंशके जले हुए नागोंकी गणना (आदि० ५७ ।
द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि. १८५। ३)। ५-६)। ये अर्जुनके जन्मसमयमें वहाँ पधारे थे (आदि० भीमसेनको घायल करनेवाले धृतराष्ट्र के चौदह पुत्रोंमें एक १२२.७१) आर्यकके प्रार्थना करनेपर भीमसेनको दिव्य- यह भी था (कर्ण० ५१। ७-९)। भीमसेनद्वारा रसका पान करानेके लिये इनका नागोंको आदेश देना इसका वध (कर्ण०५१ । १६)। (आदि. १२७ । ६९)। ये वरुण-सभामें उपस्थित विकर्ण (१) धृतराष्ट्रका एक महारथी पुत्र । ग्यारह महाहोकर उनकी उपासना करते हैं (सभा० ९।८)। रथियों से एक (आदि०६३ | ११९)। धृतराष्ट्र के सौ अर्जनने कभी इनकी बहिनका चित्त चुराया था (विराट० पुत्रों से एक (आदि. ६७ ॥ ९४; भादि. ११६। २।१४)। ये त्रिपुरदाहके समय भगवान् शङ्करके ४)। द्रुपदपर चढ़ाई करनेवाले दुर्योधन आदि द्रोणधनुषकी प्रत्यञ्चा बने थे (द्रोण. २०२ । ०६)। साथ शियों में यह भी था (दि. १३७ । १९-२१)। ही उनके रथका कूबर भी बने हुए थे (कर्ण०५४। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें भी गया था (पादि. १८५। २२)। कर्ण और अर्जुनके द्वैरथ युद्ध के समय ये अर्जुन- .)। द्रुपदनगरसे आते हुए पाण्डवोंकी अगवानीके की ही विजयके समर्थक थे (कर्ण० ८७।१३)। लिये इसका जाना (आदि.२०१११)।भरी सभामें इनका नागधन्वातीर्थ निवासस्थान है। वहीं देवताओंने द्रौपदीके प्रश्नपर मौन हुए राजाओंके बीच इसका न्यायइनका नागराजके पदपर अभिषेक किया था (पास्य. पूर्ण निर्णय (समा०६८ )। कर्णद्वारा इसे फट३७ । ३०-३२) । इनके द्वारा स्कन्दको जय और कार ( समा० १० । ३०)। विराटकी गौओंके हरणके महाजय नामक दो पार्षद प्रदान (पल्य. १५। ५२- समय अर्जुनपर आक्रमण (विराट ५४ । ९)। अर्जुनसे ५.)। ये सात धरणीधरों से एक हैं (अनु. १५०। पराजित होकर भागना (विराट० ५४ । १०)। १)। बलरामजीके परमधामगमनके समय ये उनके
अर्जुनसे युद्ध और घायल होकर रथसे नीचे गिरना स्वागतमें आये थे ( मौसल० ४ । १५)।
(विराट०६१।४२)। गजराजद्वारा अर्जुनपर आक्रमण महाभारतमें आये हुए वासुकिके नाम-नागराट, और हारकर भागना (विराट. १५६-१०)।
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विकल्प
( ३०७ )
विजय
प्रथम दिनके संग्राममें सुतसोमके साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध विगाहन-मुकुटवंशका एक कुलाङ्गार राजा ( सद्योग. (भीष्म० ४५। ५८-५९) । सहदेवके साथ संग्राम ७४ । १६)। (भीष्म०७१ । २१-२२) । अभिमन्युद्वारा पराजय विग्रह-समुद्रद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । (भीष्म ७८ । २१-२२७ भीष्म०८४ । ४०-४२)। दुसरेका नाम संग्रह था (शल्य.४५। ५०)। घटोत्कचद्वारा पराजय (भीष्म. ९२ । ३६) । नकुलके
विचख्नु-एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने हिंसाकी निन्दा और साथ द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म. ११०।११-१२, भीष्म
अहिंसाधर्मकी प्रशंसा की थी। इन्होंने यह स्पष्ट घोषणा १५। ३४-३६)। भीमसेनके साथ युद्ध (भीष्म
की थी कि सुरा, आसव, मधु, मांस और मछली ११३ अध्याय)। शिखण्डीके साथ युद्ध (द्रोण. २५ ।
तथा तिल एवं चावलकी खिचड़ी-इन सब वस्तुओंको ३६-३७)। भीमसेनके साथ युद्ध (द्रोण. ९६ ।
धूर्तीने यज्ञमें प्रचलित कर दिया है। वेदोंमें इनके उपयोग३१)। नकुलके साथ युद्ध (द्रोण.१०६ । १२)।
का विधान नहीं है । उन धूर्तीने अभिमान, मोह और नकुलद्वारा इसकी पराजय (द्रोण.१.७।३०)।
लोभके वशीभूत होकर उन वस्तुओंके प्रति अपनी यह भीमसेनद्वारा इसका वध और इसके लिये उनका शोक
लोलुपता ही प्रकट की है । ब्राह्मण तो सम्पूर्ण यज्ञोंमें भगवान् प्रकट करना (द्रोण. १९७।२९-३५)। इसके मारे
विष्णुका ही आदरभाव मानते हैं और खीर तथा फूल जानेकी चर्चा ( कर्ण० ५ । ८-९)।
आदिसे ही उनकी पूजाका विधान है (शान्ति. २६५ । महाभारतमें आये हुए विकर्णके नाम-भरतर्षभ
भरतसत्तम, धार्तराष्ट्र, धृतराष्ट्रज, दुर्योधनावर, कुरुप्रवीर, विचित्र-एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके कुरुवर्धन आदि।
अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि० ६७।६१)। (२) एक भारतीय जनपद । यहाँके सैनिक दुर्योधनके
विचित्रवीर्य-शान्तनुद्वारा सत्यवतीके गर्भसे उत्पन्न एक साथ रहकर शकुनिकी सेनाका संरक्षण कर रहे थे
राजा, जो चित्राङ्गदके छोटे भाई थे ( आदि० ९५। (भीष्म० ५१ । १५)। (३) एक ऐश्वर्यशाली शिवभक्त ऋषि, जिन्होंने शिवजीको प्रसन्न करके मनो
४९-५०, आदि. १०१।३) । धृतराष्ट्र तथा पाण्डु वाञ्छित सिद्धि प्राप्त की थी (अनु. १४ । ९९)।
इनके क्षेत्रज पुत्र थे ( आदि० १ । ९४-९५ ) ।
भीष्मद्वारा इनका राज्याभिषेक (आदि. १०१।१२)। विकल्प-एक भारतीय जनपद (भीष्म०९। ५९)।
भीष्मकी आज्ञाके अनुसार इनका राज्यशासन (आदि. विकाथिनी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.
१०१।१३)। काशिराजपुत्री अम्बिका तथा अम्बा४६।१८)।
लिकासे इनका विधिपूर्वक विवाह (आदि० ९५ । विकुञ्ज-एक भारतीय जनपद । यहाँके सैनिक भीष्मद्वारा
५१; आदि. १०२ । ६५)। असंयमपूर्ण जीवन होनेके निर्मित गरुडव्यूहके बायें पंखके स्थानपर राजा बृहद्बलके
कारण राजयक्ष्माके द्वारा इनकी असामयिक मृत्यु (भादि. साथ खड़े थे (भीष्म० ५६ । ९)।
१०२ । ७०-७१)। भीष्मद्वारा इनका अन्त्येष्टि-संस्कार विकुण्ठन-ये सोमवंशीय महाराज इस्तीके द्वारा त्रिगर्तराजकी
( आदि. १०२।७३) । इनकी पत्नी अम्बिकाके पुत्री यशोधराके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इनकी पत्नी
गर्भसे व्यासद्वारा धृतराष्ट्रका जन्म ( आदि० १०५ । दशार्णकुलकी कन्या सुदेवा यी, जिसके गर्भसे अजमीढ़
१३-१५)। इनकी द्वितीय पत्नी अम्बालिकाके गर्भसे नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (आदि. ९५। ३५-३६)।
व्यासद्वारा पाण्डुकी उत्पत्ति (आदि. १०५। १७विकृत-अन्य नाम और रूप धारण करके आया हुआ काम, २१)। इनकी पत्नीकी दासीसे व्यासद्वारा विदुरका जिसका राजा इक्ष्वाकुके साथ संवाद हुआ था (शान्ति. जन्म ( आदि० १०५।२४-२८)। १९९ । ८८-१९७)।
विजय-(१)एक प्राचीन राजा (आदि०१।२३३)। विक्रम ( बलवर्धन )-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक (२) भगवान् शङ्करके त्रिशूलका नाम । यह विजय (आदि० ६७ । ९८ आदि० ११६ । ७)।
नामक त्रिशूल स्कन्दकी भद्रवट-यात्राके समय यमराजके विक्षर-कश्यपपत्नी दनायुके गर्भसे उत्पन्न असुरोंमें श्रेष्ठ पीछे-पीछे गया था । यह तीन शिखरोंसे सुशोभित और
चार पत्रोंमेंसे एक । शेष तीनके नाम हैं-बल, वीर और सिन्दूर आदिसे सुसजित था (वन० २३१। ३७-३८)। वृत्र (आदि. ६५ । ३३) । यही पृथ्वीपर राजा (३) अज्ञातवासके समय युधिष्ठिरद्वारा नियत किया वसुमित्रके रूपमें उत्पन्न हुआ था ( आदि. ६७ । गया अर्जुनका एक गुप्त नाम (विराट० ५। ३५)। (४) ४१)।
अर्जनके प्रसिद्ध दस नामोंमेंसे एक । इस नामकी व्याख्या
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विजया
( ३०८ )
विदर्भ
(विराट० ४४ । ९, १४)। (५) देवराज इन्द्रका वितर्क-ये महाराज कुरुके वंशज धृतराष्ट्र के पुत्र थे ( आदि. एक दिव्य धनुष, जो गाण्डीवके समान तेजस्वी था और ९४ । ५८)। श्रीकृष्णके शानधनुषकी समानता करता था। देवताओंके
वितद्रु-एक यादव, जिसकी गणना यदुवंशियोंके सात प्रधान तीन ही धनुष दिव्य माने गये हैं-विजय, गाण्डीव और । शाङ्ग। ये क्रमशः इन्द्र, वरुण और भगवान् विष्णुके
मन्त्रियोंमें है (सभा० १४ । ६० के बाद)। धनुष हैं। गन्धमादननिवासी किम्पुरुषप्रवर द्रमको इन्द्रसे वितस्ता-काश्मीर एवं पश्चनद प्रदेशकी झेलम नदी, जो यह दिव्य धनुष प्राप्त हुआ था । फिर इसे इन्हींके वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करती है (सभा० शिष्य महातेजस्वी रुक्मीने उन्हींसे प्राप्त किया (उद्योग. ९।१९)। इसमें स्नान करके देवताओं और पितरोंका १५८। ३-९)। (६) एक भारतीय जनपद तर्पण करनेसे मनुष्यको वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त होता (भीष्म. ९ । ४५)। (७) धृतराष्ट्रका एक पुत्र,
है। काश्मीरमें नागराज तक्षकका वितस्ता नामसे प्रसिद्ध जिसने जय और दुर्जयके साथ मिलकर नील, काश्य तथा भवन है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ जयत्सेन-इन तीनोंसे युद्ध किया था (द्रोण. २५ । स्नान करनेसे मनुष्य वाजपेय यज्ञके फल और उत्तम ४५)। इसका सात्यकिके साथ युद्ध (द्रोण. ११६। . गतिका भागी होता है (वन० ८२ । ८९-९१) । ६-७) । शकुनिके अर्जुनपर धावा करनेके समय यह इसके प्रवाहमें ब्राह्मणों के चार सौ श्यामकर्ण घोड़े बह भी उसके साथ था (द्रोण. १५६ । १२०-१२३ )।
गये थे ( उद्योग. ११९।८)।इसका जल भारतवासी (८) कर्णके दिव्य धनुषका नाम, जो समस्त आयुधोंमें पीते हैं (भीष्म ९।१६)। मनुष्य उपवास करके श्रेष्ठ था। इसे इन्द्रका प्रिय चाहनेवाले विश्वकर्माने तरङ्गमालिनी वितस्तामें सात दिनोंतक स्नान करे तो उन्हींके लिये बनाया था । देवेन्द्रने इसी धनुषसे कितने वह मुनिके समान निर्मल हो जाता है ( अनु. २५ । ही देत्यसमूहोंपर विजय पायी थी। इसकी टङ्कार सुनकर .)। पार्वतीजीने जिन नदियोसे सलाह लेकर भगवान् दैत्योंको दसों दिशाओंको पहचानने में भ्रम हो जाता था। शङ्करके प्रति स्त्री-धर्मका वर्णन किया था, उनमें वितस्ता इसी अपने परम प्रिय धनुषको इन्द्रने परशुरामजीको भी थी (अनु० १४६।१८)। दिया था और परशुरामजीने यह दिव्य उत्तम धनुष
उप वित्तदा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ । कर्णको दे दिया था । यह घोर धनुष गाण्डीवसे श्रेष्ठ था। २८)। इसीके द्वारा परशुरामजीने इस पृथ्वीपर इक्कीस बार विजय पायी थी (कर्ण०३३।४२-४६)। (९)
विदण्ड-एक राजा, जो अपने पुत्र दण्डके साथ द्रौपदीभगवान् शिवका एक नाम (अनु०१७ । ५.)।
स्वयंवरमें पधारे थे (आदि. १८५। १२)। (१०) भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु. १४९। विदभ-एक भारतीय जनपद (भीष्म. १।६४)। २९)।
विदर्भ-(१) एक प्राचीन देश, जिसे सहदेवने अपनी विजया-(१) ये दशाईराजकी पुत्री तथा सम्राट भुमन्यु
दक्षिण-दिग्विजयके समय विदर्भदेशीय भोजकट नगरमें की पत्नी थीं। इनके गर्भसे सुहोत्रका जन्म हुआ था
जाकर वहाँके राजा भीष्मकको परास्त किया था (सभा० (आदि० ९५ । ३३)। (२) यह मद्रदेशके राजा
३१ । ११-१२ )। यहाँके राजा भीष्मको महर्षि दमनकी द्युतिमान्की पुत्री थी। इसने स्वयंवर में पाण्डुपुत्र सहदेव
कृपासे दम, दान्त और दमन नामक पुत्र तथा दमयन्ती को वरण किया । सहदेवके द्वारा इसके गर्भसे सुहोत्र नामक
नाम्नी कन्याकी प्राप्ति हुई थी ( वन० ५३ । ५-९)। पुत्र उत्पन्न हुआ (आदि० ९५ । ८.)। (३)
विदर्भराजकी कन्या दमयन्तीके स्वयंवरका समाचार सुनदुर्गा देवीका एक नाम (बिराट. ६ । १६)।
कर उसमें सम्मिलित होनेके लिये इन्द्र, अग्नि, वरुण विटभूत-एक दैत्य, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी और यम-ये चार देवता अपने सेवकों और वाहनके उपासना करता है (सभा० ९ । ६५)।
साथ विदर्भ देशमें पधारे (वन० ५४ । २०-२६)। वितण्डा-वाद-विशेष ( जिस बहस या वादविवादका विदर्भ देशमें उत्पन्न होनेके कारण ही दमयन्ती वैदर्भी
उद्देश्य अपने पक्षकी स्थापना या परपक्षका खण्डन न कहलाती थी (वन० ५५ । १२, २२, वन० ५६ । ५) होकर व्यर्थकी वकवादमात्र हो, उसका नाम वितण्डा वन०६८।३२)। नल-सारथि वार्ष्णेयने राजकुमार है।) ( सभा० ३६ । ४)।
इन्द्रसेन तथा कुमारी इन्द्रसेनाको रथपर बिठाकर विदर्भ वितत्य-गृत्समदवंशी विहव्यके पुत्र, जो सत्यके पिता थे देशको प्रस्थान किया (वन० ६० । २१-२२)। (भनु०३० । ६२)।
राजा नलका दमयन्तीको विदर्भका मार्ग बताना
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विदिशा
( ३०९ )
विदुर
(वन० ६१ । २३)। दमयन्तीके पिता विदर्भराज भीम महारथी, पृथ्वीपालक तथा चारों वर्णोके रक्षक थे, वे विदर्भ देशकी जनताका अच्छी तरह पालन करते थे (वन ६४ । ४४-४७)। दमयन्ती अपनी मौसीसे विदा ले चेदिदेशसे विदर्भ देशमें अपने पिताके यहाँ जा पहुँची (वन०६९।२०-२४)। राजा ऋतुपर्ण बाहुकरूप- धारी नलके साथ विदर्भ देशको गये (वन०७१।२; बन० ७२ । १९, ४२, बन० ७३ । १)। नलके प्रकट होनेपर विदर्भ देशमें महान् उत्सव मनाया गया (वन ७७ । ५-८)। रुक्मिणी विदर्भनरेशकी पुत्री थीं, भगवान् श्रीकृष्णने उनका अपहरण किया। बहिनका वह अपहरण रुक्मीके लिये असह्य हो उठा, उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि कृष्णको मारे बिना विदर्भ देशकी राजधानीमें नहीं लौटूंगा, परंतु श्रीकृष्णका सामना होनपर वह विशाल चतुरङ्गिणी सेनासहित पराजित हो गया । अतः अपनी प्रतिज्ञाकी रक्षा करता हुआ वह पुनः कुण्डिनपुरकी ओर नहीं लौटा । जहाँ उसकी पराजय हुई, वहीं भोजकट नामक श्रेष्ठ नगर बसाकर उसीमें रहने लगा। उन दिनों भोजकट ही विदर्भको राजधानीके रूपमें प्रख्यात हुआ ( उद्योग० १५८ । १०-१६)। (२) एक प्राचीन राजा, जिनके पुत्र राजा निमि अगस्त्य मुनिको अपनी कन्या और राज्यका दान करके पुत्र, पशु और बान्धर्वोसहित स्वर्गमें चले गये (अनु०१३७ ।
११)। विदिशा-एक नदी, जो वरुणसभामें उपस्थित होकर वरुण
देवकी उपासना करती है (सभा०९।१४)। इसकी गणना भारतकी प्रमुख नदियों में है ( भीष्म ९ ।
२८)। विदुर-व्यासके द्वारा अम्बिकाकी दासीके गर्भसे उत्पन्न
(आदि. १।९४-९६ ) । अणीमाण्डव्यके शापसे धर्मराजने ही शूद्रयोनिमें विदर होकर जन्म लिया था ( आदि. ६३ । ९३-९७, आदि. १०५। २९)। ये राजा धृतराष्ट्र तथा पाण्डुके भाई थे (आदि०१०५।२८)। भीष्मद्वारा इनका संवर्धन एवं पालन-पोषण (आदि १०४ । १७-१८)। इनकी धर्मनिष्ठा तथा अध्ययन (आदि. १०८ । १९-२२)। शूद्राके गर्भसे ब्राह्मण. द्वारा उत्पन्न होनेके कारण इनको राज्यकी प्राप्ति नहीं हुई (आदि. १०८ । २५) । इनको पाण्डुद्वारा धनकी भेंट (आदि. ११३ । २)। राजा देवकके घरमें स्थित तथा ब्राह्मणद्वारा शूद्राके गर्भसे उत्पन्न हुई कन्याके साथ भीष्मद्वारा इनका विवाह (आदि. ११३ । १२-१३)। दुर्योधनके जन्मकालमें होनेवाले अमङ्गलोको देखकर उसे त्याग देनेके लिये इनकी धृतराष्ट्रको सलाह ( आदि०
११५। ३४-४०)। इनके द्वारा आत्माके कल्याणके लिये सम्पूर्ण जगत्को त्याग देनेका उपदेश ( आदि. १११।३९) । पाण्डुका राजोचित दंगसे अस्थि-संस्कार करनेके लिये इनको धृतराष्ट्रका आदेश (आदि. १२६ । १-३)।इनके द्वारा पाण्डुका अस्थिदाह तथा उनके लिये जलाञ्जलि-दान (आदि. १२६ । २७-२८)। भीमसेनके नागलोकमें जानेपर चिन्तित हुई कुन्तीको इनका आश्वासन (आदि० १२८ । १७-१८)। इनके द्वारा राजकुमारोंके अस्त्रकौशल-प्रदर्शनके समय धृतराष्ट्रसे कुमारोंकी कलाओंका वर्णन (आदि० १३३ । ३५)। पाण्डवोको लाक्षागृहमें सावधान रहने एवं कौरवोंके कुचक्रसे बचनेके लिये इनका सांकेतिक भाषामें युधिष्ठिरको संकेत ( आदि. १४४ । १९-२६) । इनका लाक्षागृहमें सुरंग बनाने के लिये पाण्डवोंके पास खनकका भेजना (आदि० १४६ ।
)।पाण्डवोंको गङ्गा पार उतारनेके लिये नाविक भेजना (आदि० १४८।२)। लाक्षागृहमें पाण्डवोंकी मृत्युके समाचारसे दुखी हुए भीष्मका इनके द्वारा उनके जीवित रहनेका रहस्य बतलाकर आश्वासन (आदि० १४९ । १८ के बाद)। द्रुपद-नगरसे पाण्डवोंको बुलाने एवं उनका आधा राज्य दे देने के सम्बन्धौ धृतराष्ट्र के प्रति कहे हुए द्रोण तथा भीष्मके वचनोंका इनके द्वारा समर्थन (आदि. २०४ । १-३०)। धृतराष्ट्र के आदेशसे द्रुपद-नगरमें जाकर इनका पाण्डवोंको हस्तिनापुरमें ले आना (आदि. २०५।४ से २०६ । ११ तक)। द्रुपद-नगरमें इनका कुन्तीको आश्वासन देना (आदि० २०६ । ९ के बाद)। ये युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें गये थे (सभा० ३३ । ५)। वहाँ इन्हें धनके व्यय करनेका कार्य सौंपा गया था (सभा० ३५।१)। इनके द्वारा कौरवोंकी पाण्डवों के साथ द्यूतक्रीड़ाका विरोध ( सभा० ४९ । ५४ )। इनकी धृतराष्ट्रसे बातचीत (सभा० ५७ अध्याय)। इनका युधिष्ठिरके साथ वार्तालाप (सभा०५८ । ५१६)। द्यूतक्रीड़ाके अवसरपर धृतराष्ट्रको इनकी चेतावनी (सभा० ६२ अध्याय)। इनका आत्माके उद्धारके लिये समस्त भूमण्डलको त्याग देनेका उपदेश (सभा० ६२ । ११)। इनके द्वारा द्यूतक्रीड़ाके प्रस्तावका घोर विरोध (सभा० ६३ अध्याय )। जुएके अवसरपर दुर्योधनको इनकी फटकार और इनका उसे चेतावनी देना (सभा० ६४ अध्याय )। द्रौपदीको सभाभवनमें पकड़कर लानेके सम्बन्धमें दुर्योधनके आदेश देनेपर इनका पुनः दुर्योधनको फटकारना और कटु वचनकी तीव्र निन्दा (सभा० ६६ अध्याय)। इनका प्रहादका उदाहरण देकर सभासदोंको द्रौपदीके प्रश्नका उत्तर देनेके लिये प्रेरित करना ( सभा० ६८। ५९-८८)। इनकी
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विदुर
( ३१० )
विदुर
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धृतराष्ट्र-पुत्रोंको चेतावनी ( समा० ७१ । १६-१९)। दृष्टान्तसे संसारके भयंकर स्वरूपका वर्णन करना (स्त्री. इनका युधिष्ठिरसे कुन्तीको अपने यहाँ रखनेका प्रस्ताव ५ अध्याय ) । संसाररूपी बनके रूपकका इनके द्वारा (सभा० ७८ । ५-६)। पाण्डवोको
स्पष्टीकरण (स्त्री० ६ अध्याय)। संसारचक्रका वर्णन लिये इनका उपदेश (सभा० ७८ । ९-२३)। प्रजा- करना तथा रथके रूपकसे संयम और ज्ञान आदिको जनोंके शोकके विषयमें इनके द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नोंका
मुक्तिका उपाय बताना (स्त्री० ० अध्याय) । शोकउत्तर (सभा० ८० । ३५ के बाद दा० पाठ)। इनका
निवारणके लिये धृतराष्ट्रको उपदेश देना (स्त्री. १। धृतराष्ट्रको हितकी सलाह देना (वन० ४।४-१७)।
१.) । युधिष्ठिरद्वारा मन्त्रणा आदि कार्योंपर इनकी धृतराष्ट्रद्वारा इनका त्याग (वन० ४।३.)। इनका नियुक्ति (शान्ति०४१।१०) । युधिष्ठिरके प्रश्नके काभ्यकवनमें जाकर पाण्डवोंसे मिलना और उन्हें धर्म उत्तरमें इनका त्रिवर्गमें धर्मकी प्रधानता बताना (शान्ति. युक्त सलाह देना (वन०५ । १२-२१)। इनके द्वारा १६७ । ५-९)। भीष्मके दाहसंस्कारके लिये इनका धृतराष्ट्रको क्षमादान (वन०६।२१-२४)। इनका युधिष्ठिरके साथ जाना (अनु० १६७ । ९-१०)।इन्होंधृतराष्ट्रको किर्मीरवधकी कथा सुनाना (वन० ११ ने भीष्म जीकी चिताके निर्माणमें योग दिया और रेशमी अध्याय )। धृतराष्ट्रको नीतिपूर्ण उपदेश ( विदुरनीति ) वस्त्रों तथा मालाओंसे आच्छादित करके उनके शवको (उद्योग० ३३ । १३ से ४० अध्याय तक) । कुमार चितापर सुलाया (अनु० १६८ । ११-१२)। श्रीकृष्ण सनत्सुजातसे धृतराष्ट्रको उपदेश देनेके लिये इनकी और अर्जुनका इन्द्रप्रस्थसे हस्तिनापुरमें आकर इनसे प्रार्थना ( उद्योग०४१ । १०-१२)। इनके द्वारा दमकी मिलना ( आश्व० ५२ । ३१ ) । बन्धु-बान्धवोंसहित महिमाका वर्णन (उद्योग० ६३।९-२४)। कौटुम्बिक कौरवराज दुर्योधन के मारे जानेपर विदर और संजय कलह और लोभसे हानि बताते हुए धृतराष्ट्रको संधिके धर्मराज युधिष्ठिरके आश्रयमें आ गये ( आश्व० ६.। लिये समझाना ( उद्योग० ६४ अध्याय)। धृतराष्ट्रको ३४ ) । बलराम और श्रीकृष्णके हस्तिनापुरमें आनेपर श्रीकृष्णकी बात मानने के लिये समझाना ( उद्योग०८७ राजा धृतराष्ट्र तथा महामना विदुरजीने खड़े हो आगे अध्याय)। इनके द्वारा अपने घरपर श्रीकृष्णका आतिथ्य- बढ़कर उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया (आश्च० सत्कार ( उद्योग० ८९ । २३-२४)। श्रीकृष्णका पूजन ६६।६)। जब पाण्डवलोग हिमालयसे धन लेकर करके उन्हें भोजन कराना ( उद्योग० ११ । ३८- हस्तिनापुरके समीप आ गये, उस समय विदुरजीने ३९) । धृतराष्ट्र-पुत्रोंकी दुर्भावना बताकर श्रीकृष्णको पाण्डवोंका प्रिय करनेकी इच्छासे देवमन्दिरोंमें विविध उनके कौरवसभामें जानेका अनौचित्य बतलाना (उद्योग० प्रकारसे पूजा करनेकी आज्ञा दी (आश्व०७०।१४९२ अध्याय ) । दुर्योधनको समझाना (उद्योग० १२५।। १७)। पाण्डवोंने नगर में आकर धृतराष्ट्र और गन्धारी१९-२१)। धृतराष्ट्रकी आज्ञासे गान्धारीको उनके पास से मिलनेके बाद विदुरजीका भी समादर किया (आश्व० लाना (उद्योग० १२९ । ६)। धृतराष्ट्र और गान्धारी- ७१। ५-७)। विदुरजी सदा राजा धृतराष्ट्रकी सेवामें की आज्ञासे दुर्योधनको बुला लाना ( उद्योग० १२९ । लगे रहते थे ( आश्रम० १ । १२ ) । अजातशत्रु १६) । दुर्योधन आदिकी श्रीकृष्णको कैद करनेके युधिष्ठिरके धैर्य और शुद्ध व्यवहारसे राजा धृतराष्ट्र, दुःसाहसकी बास बताकर इनका धृतराष्ट्रको चेतावनी गान्धारी और विदुर बहुत प्रसन्न रहते थे (आश्रम (उद्योग० १३० । १० से २२ के बाद तक)। दुर्योधनको २।२८-२९)। धृतराष्ट्र और युधिष्ठिरके मिलनका करुणसमझाना (उद्योग. १३० । ४१-५३)। युद्धके भावी दृश्य देखकर विदुर आदि रो पड़े थे (आश्रम. ३ । परिणामपर विचार करके इनका कुन्तीसे अपना दुःख ७६) । युधिष्ठिरने विदुर आदिकी आशाके अनुसार कार्य प्रकट करना ( उद्योग० १४४ । २-९)। शोकाकुल करनेका निश्चय किया ( आश्रम ४ । २०-२५ )। धृतराष्ट्रको आश्वासन देना (शल्य. १ । ५५)। इनके युधिष्ठिरको विदुरने सभी आवश्यक बातोंका उपदेश कर द्वारा राजमहिलाओंके साथ हस्तिनापुर लौटे हुए युयुत्सुकी दिया था ( आश्रम ७ । २१) । विदुरजीके वनमें प्रशंसा (शल्य. २९ । ९७-१००)। कालकी प्रबलता चले जानेपर मुझे कौन कर्तव्यका उपदेश देगा यह बताकर धृतराष्ट्रको समझाना (स्त्री० २ अध्याय )। . युधिष्ठिरकी चिन्ता ( आश्रम ८ । २)। धृतराष्ट्रका
विदरके द्वारा युधिष्ठिरसे श्राद्धके लिये धन माँगना (आश्रम. करना (स्त्री०३ अध्याय)। दुःखमय संसारके गहन ११।१-५)। राजा युधिष्ठिरका विदुर जीके द्वारा धृतस्वरूपका वर्णन करना एवं उससे छूटनेका राष्ट्रको यथेष्ट धन देनेकी स्वीकृति कहलाना (भाश्रम उपाय बताना (स्त्री० . अध्याय )। गहन वनके . १२ । ४-५, ७-१३)। विदुरका धृतराष्ट्रको युधिष्ठिर
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( ३११ )
विदेह
का उदारतापूर्ण उत्तर सुनाना ( आश्रम० १३ अध्याय)। लोकोंकी प्राप्ति होगी ( आश्रम २६ । २०-३३)। इनका धृतराष्ट्रके साथ वनको प्रस्थान (आश्रम १५ । व्यासजीद्वारा धर्म, विदुर और युधिष्ठिरकी एकताका ८)। वनके मार्गमें धृतराष्ट्र आदिका गङ्गातटपर निवास प्रतिपादन (आश्रम० २८ । १६-२२ ) । विदुरने
और विदुरका उनके लिये कुशकी शय्या बिछाना (आश्रम स्वर्गमें जाकर धर्मके स्वरूपमें प्रवेश किया (स्वर्गा० ५। १८ । १६-२०)। विदुरकी सम्मतिसे धृतराष्ट्र का भागी २२)। रथीके पावन तट पर निवास ( आश्रम० १९।१)। महाभारतमें आये हुए विदुरके नाम-आजमीढ़, भारत, कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर धर्म और अर्थके ज्ञाता, उत्तम बुद्धि भरतर्षभ, कौरव, क्षत्ता, कुरुनन्दन आदि । नोविदाजी वल्कल और चीर वस्त्र धारण किये गन्धारी विटरागमनराज्यलम्भपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर तथा धृतराष्ट्रकी सेवा करने लगे। वे मनको वशमे करके पर्व (अध्याय १९९ से २१७ तक)। अपने दुर्बल शरीरसे घोर तपस्यामें संलग्न रहते थे
विदुला-एक प्राचीन क्षत्रिय महिला, जिसने रणभूमिसे (आश्रम० १९ । १४)। वनमें युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रसे
भागकर आये हुए अपने पुत्रको कड़ी फटकार दी थी विदुरजीका पता पूछा (आश्रम० २६ | १५)। धृत
(उद्योग० १३३ अध्याय)। इसका अपने पुत्रको राष्ट्रने उत्तर दिया-विदुर सकुशल हैं । वे बड़ी
युद्धके लिये उत्साहित करना ( उद्योग. १३४ कठोर तपस्यामें लगे हैं । निरन्तर उपवास करते और
अध्याय)। इसके द्वारा पुत्रके प्रति शत्रुवशीकरणके वायु पीकर रहते हैं। इसलिये अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं।
उपायोंका निर्देश ( उद्योग. १३५ । २५-४०)। उनके सारे शरीरमें व्याप्त हुई नस-नाडियाँ स्पष्ट दिखायी
इसका पुत्रको आश्वासनगर्भित उपदेश देना ( उद्योग देती हैं । इस सूने वनमें ब्राह्मोको कभी-कभी कहीं
१३६ । १-१२)। उनके दर्शन हो जाया करते हैं (आश्रम० २६ । १६. १७)। इसी समय मुखमें पत्थरका टुकड़ा लिये जटा. विदूर-ये महाराज कुरुके द्वारा दशाई कुलकी कन्या धारी कृशकाय विदुरजी दूरसे आते दिखायी दिये। उनके
शुभाङ्गीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इन्होंने मधुवंशकी सारे शरीरमें मैल जमी हुई थी। वे दिगम्बर थे। वनमें कन्या सम्प्रियाके साथ विवाह किया, जिसके गर्भसे अनश्वा उड़ती हई धूलोंसे नहा गये थे । उस आश्रमकी ओर
नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (आदि. ९५। ३९-४०)। देखकर वे सहसा पीछेकी ओर लौट पड़े ( आश्रम विदूरथ-(१) एक वृष्णिवंशी क्षत्रिय, जो द्रौपदीके २६॥ १८-१९)। राजा युधिष्ठिर अकेले ही उनके पीछे-पीछे
स्वयंवरमें गये थे (आदि० १८५ । १९)। ये रैवतक दौड़े । वे कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते
पर्वतपर होनेवाले उत्सबमें सम्मिलित होकर उसकी शोभा थे। जब वे घोर वनमें प्रवेश करने लगे, तब राजा
बढ़ा रहे थे ( आदि० २१८ । १.)। इनकी गणना युधिष्ठिरने अपना परिचय देकर उन्हें पुकारा, विदुर
यदुवंशियोंके सात प्रधान मन्त्रियों में है ( सभा० १४ । जी वनके भीतर एकान्त प्रदेशमें किसी वृक्षका सहारा
६० के बाद)। मृत्युके पश्चात् ये विश्वेदेवोंके स्वरूपलेकर खड़े हो गये । उनके शरीरका ढाँचामात्र रह गया
में मिल गये थे (स्वर्गा० ५।१६) । (२) एक था। इतनेहीसे उनके जीवित रहनेकी सूचना मिलती पूरुवंशी नरेश, जिसके पुत्रको ऋक्षवान् पर्वतपर रीछोंने थी। युधिष्ठिर उन्हें पहचानकर अपना नाम बताकर
पालकर बड़ा किया था ( यह परशुरामके क्षत्रिय-संहारसे उनके आगे खड़े हो गये। महात्मा विदुर युधिष्ठिरकी बच गया था) (शान्ति. ४९। ७५)।
ओर एकटक देखने लगे। वे अपनी दृष्टिको उनकी विदेह-(१) राजा निमि, जो देह गिर जाने या देहाभिदृष्टिसे जोड़कर एकाग्र हो गये। अपने प्राणोंको उनके मानसे रहित होनेके कारण विदेह' कहलाते थे। इनके प्राणोंमें और इन्द्रियोंको उनकी इन्द्रियोंमें स्थापित करके वंशमें होनेवाले सभी राजा विदेह कहलाये। इन्हींके उनके भीतर समा गये । तेजसे प्रज्वलित होते हुए विदुरने नामपर मिथिलाको विदेह' कहा जाता है । राजा पाण्डुने योगबलका आश्रय लेकर धर्मराज युधिष्ठिरके शरीरमें अपनी दिग्विजय-यात्राके समय मिथिलापर चढ़ाई की प्रवेश किया । उनका शरीर पूर्ववत् वृक्षके सहारे खड़ा और विदेहवंशी क्षत्रियोंको युद्ध में परास्त किया (आदि. था। आँखें अब भी उसी तरह निर्निमेष थी, परंतु ११२।२८)। इस वंशमें हयग्रीव नामका कुलाङ्गार अब उनके शरीरमें चेतना नहीं रह गयी थी, युधिष्ठिरने राजा उत्पन्न हुआ था ( उद्योग. ७४ । १५-१७)। विदुरके शरीरका दाह-संस्कार करनेका विचार किया। (२) पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद (मिथिला), परंतु आकाशवाणीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। जहाँ विदेहवंशी क्षत्रियोंका राज्य था। भीमसेनने पूर्वसाथ ही यह बताया कि विदुरजीको सांतानिक नामक दिग्विजयके समय इस देशको जीता था (सभा० २९ ।
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विद्या
( ३१२ )
विनता
४-५)। परशुराम जीके आश्रमका द्वार विदेह देशसे विद्युत्प्रभ-(१) एक दानव, जिसे रुद्रदेवकी कृपासे एक उत्तर था (वन. १३०।१३)। सीता विदेहराज लाख वर्षांतक तीनों लोकोंका आधिपत्य, नित्य-पार्षद-पद, जनककी पुत्री थीं (वन० २७४ । ९)। इस देशके एक करोड़ पुत्र और कुशद्वीपका राज्य-ये सब वरदान सैनिकोने अर्जुनपर आक्रमण किया था ( भीष्म० ११७। रूपमें मिले थे ( अनु० १४ । ८२-८४) । (२) एक ३२-३४)। कर्णने इस देशके क्षत्रिय वीरोको परास्त तपस्वी महर्षि, जिन्होंने पापसे छूटने के विषयमें इन्द्रसे प्रश्न किया था (द्रोण.४।६)। परशुरामजीने इस देशके किया (अनु० १२५ । ४५-४६) । इन्द्रके उत्तर दे क्षत्रियोंका अपने तीखे बाणोंद्वारा संहार किया था चुकनेपर इनका स्वयं इन्द्रको सूक्ष्म धर्मका उपदेश देना (द्रोण० ७०।११-१३)। कर्णने विदेहोंका महान् (अनु० १२५ । ५१-५७)। संहार किया था (कर्ण. ३। १९)। कर्णने विदेह विद्यत्प्रभा-उत्तर दिशाकी दस अप्सराएँ ( उद्योग. देशको जीतकर इसे 'कर' देनेवाला बना दिया (कर्ण० ८॥१८-२० कर्ण० ९ । ३३)। विदेह देशके राजा विधुद्वर्चा-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३३)। जनकने महर्षि पञ्चशिखसे जरा और मृत्युको लाँघनेका उपाय पूछा और उन्होंने इनको उपदेश दिया
विद्युन्माली-तारकासुरके तीन पुत्रों से एक, जो लोहमय (शान्ति. ३१९ अध्याय)। शुकदेवजीने विदेहराज
पुरका अधिपति था। इसके दो भाइयोंका नाम ताराक्ष
और कमलाक्ष था (द्रोण. २०२ । ६४-६५, कर्ण. जनकसे प्रवृत्ति-निवृत्ति धर्मके विषयमें प्रश्न किया और
३३ । ४-५)। भाइयोसहित इसकी तपस्या और ब्रह्माउन्होंने इसका उत्तर दिया (शान्ति० ३२५ । १०
द्वारा वरदान-प्राप्ति ( कर्ण० ३३ । ६-१६)। शिव५.)। विदेहराज जनककी पुत्रीने एक श्लोकका गान इस
जीके अस्त्रसे इसका पुरसहित दग्ध होना (कर्ण०३४ । प्रकार किया है-स्त्रीके लिये कोई यज्ञ आदि कर्म,
११४-११५)। श्राद्ध एवं उपवास करना आवश्यक नहीं है, उसका धर्म है अपने पतिकी सेवा। उसीसे स्त्रियाँ स्वर्गलोकपर
विद्योता-अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्र विजय पा लेती हैं। (अनु०४६ । १२-१३)।
मुनिके स्वागतके अवसरपर कुबेर-भवनमें नृत्य किया था
(अनु० १९ । ४५)। विद्या-उमादेवीकी अनुगामिनी एक सहचरी (वन० २३१॥
विधाता-(१) विधाता और धाताने उत्तङ्कको नागलोकमें
दो स्त्रियोंके रूपमें दर्शन दिया था ( आदि. ३ | विद्यातीर्थ-एक तीर्थ, जहाँ जाकर स्नान करनेसे मनुष्य
१६६)। ये ब्रह्माजीके पुत्र हैं। इनके दूसरे भाईका नाम जहाँ-कहीं भी विद्या प्राप्त कर लेता है (वन० ८४ ।
धाता है। ये दोनों भाई मनुके माथ रहते हैं ( आदि. ५२)।
६६ । ५०) । कमोंमें निवास करनेवाली लक्ष्मी देवी विद्याधर-एक देवयोनिविशेष या उपदेवता, जो जनमे
इन दोनोंकी बहिन हैं (आदि. ६६ । ५१)। धाताजयके सर्पसत्रमें मन्त्राकृष्ट हुए देवराज इन्द्र के पीछे-पीछे
विधाता विराटनगरके आकाशमें गोग्रहणके समय कृपाचार्य आ रहे थे (आदि० ५६ । ८-९)।
और अर्जुनका युद्ध देखने आये थे (विराट० ५६ । ११. विद्यज्जित-घटोत्कचका साथी एक राक्षस, जिसका दुर्योधन- १२) । इनके द्वारा स्कन्दको सुव्रत और सुकर्मा नामक
द्वारा वध हुआ था (भीष्म० ९१ । २०-२१)। दो पार्षदोंका दान (शल्य० ४५ । ४२-४३)। (२) विद्युज्जिह्वा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.
एक ऋषि, जो इन्द्रसभामें रहकर वज्रधारी इन्द्र की उपासना करते हैं (सभा०।१४)। विधाता ब्रह्मा,
इन्होंने ब्राह्मण-वेशमें आकर राजर्षि शिबिकी परीक्षा ली विद्युता-अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्र
(वन० १९८ । १७-२५)। (विशेष देखिये ब्रह्मा) मुनिके स्वागतके अवसरपर कुबेर-भवनमें नृत्य किया था ( अनु० १९ । ४५)।
विनता-दक्षकी पुत्री, कश्यपकी पत्नी तथा गरुड और
अरुणकी माता । पतिके वर माँगनेके लिये कहनेपर इनके विद्युताक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. १५ । ६२ )।
द्वारा उनसे कद्र-पुत्रोंकी अपेक्षा अधिक बलशाली दो विद्यत्पर्णा-एक अप्सरा, जो कश्यपकी प्राधा' नामवाली पुत्रोंकी याचना (आदि. १६ । ५-१)। कद्रूके
परनीके गर्भसे उत्पन्न हुई थी ( आदि. ६५।। पुत्रोको उत्पन्न हुआ देख इनका लजित होना एवं अपने ४१)। इसने अर्जुनके जन्मकालिक महोत्सवमें नृत्य एक अण्डेको फोड़ना (भादि. १६ । १६-१७)। किया था ( आदि. १२२ । ६२)।
अपना शरीर अधरा रह जानेके कारण अरुणका इनको
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विनदी
( ३१३ )
विपाठ
पाँच सौ वर्षोंतक सौतकी दासी होनेका शाप देना एवं ४५ । ७२-७६)। विराटकुमार श्वेतके चंगुलमें फँसे उससे छूटनेका उपाय बतलाना ( आदि०१६ । १८- हुए मद्रराज शल्यकी इसने सहायता की (भीष्म०४७ । २२) । सौत कद्रुद्वारा इनका छला जाना तथा पाँच सौ ४८-४९)। अपने भाई अनुविन्दके साथ इसका इरावान्वर्षातक उसकी दासी होना (आदि.२०१२ से आदि. पर आक्रमण करना (भीष्म० ८१।२७)। इसका २३ । ४ तक)। इनका गरुडको अमृत लानेका आदेश इरावान्के साथ युद्ध तथा उनके द्वारा पराजित होना (आदि० २७ । १३-१५)। इनकी गरुडको ब्राह्मण- (भीष्म० ८३ । १२-२२)। इसका धृष्टद्युम्न और . की हिंसासे बचने के लिये चेतावनी ( आदि० २८।२-- युधिष्ठिरके साथ युद्ध (भीष्म० ८६ । ३३-३६)। १४)। स्वर्गसे अमृत लाकर गरुडका इन्हें दासीपनसे. भीमसेन और अर्जुनके साथ युद्ध ( भीष्म० अध्याय ११३ छुटकारा दिलाना (आदि. ३४।८-२०)। तार्क्ष्य से ११४ तक)। विराटके साथ युद्ध (द्रोण० २५ । अरिष्टनेमि, गरुड, अरुण तथा वारुणि-ये विनताके पुत्र २०-२१)। भीमसेनके साथ युद्ध (द्रोण. ९५ । ३५हैं (आदि० ६५। ३५-४०)। इन्होंने स्कन्दको अपना ३६)। विराटपर इसका धावा (द्रोण. ९५ । ४३)। पिण्डदाता पुत्र माना और सदा उनके साथ रहनेकी इच्छा विराटके साथ युद्ध (द्रोण. ९६ । ४-६) । अर्जुनके प्रकट की (वन० २३० । १२)।
साथ युद्ध और उनके द्वारा इसका वध (द्रोण. ५९ । विनदी-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके
१७-२५)। इसके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण निवासी पीते हैं (भीष्म०९।२७)।
५।१०)। (३) एक केकय राजकुमार, जो कौरवपक्षका
योद्धा था। इसका सात्यकिके साथ युद्ध और उनके द्वारा विनशन-(१) एक तीर्थ, जहाँ सरस्वती अदृश्य भावसे
वध (कर्ण. १३ । ६-३५)। बहती है ( वन० ८२ । १११)। इसकी विशेष महिमा (शल्य. ३७।।)। (२) समस्त पापोंसे छुटकारा
विन्ध्य-मध्यभारतका एक प्रसिद्ध पर्वत, जहाँ सुन्द और दिलानेवाला एक तीर्थ, जिसके सेवनसे मनुष्य वाजपेय
उपसुन्दने तपस्या की थी (भादि० २.८ । ७)। यज्ञका फल पाता और सोमलोकको जाता है (वन.
सुन्दकी उग्र तपस्यासे संतप्त होनेके कारण इस पर्वतसे ८४ । ११२)।
धुआँ निकलने लगा था (आदि० २०८ । १.)। यह
कुबेर-सभामें उपस्थित हो धनाध्यक्षकी उपासना करता है विनायक-एक प्रकारके गण देवता, जिनके नामका शुद्ध
(सभा०१०।३१)। इसका सूर्यका मार्ग रोकनेके भावसे कीर्तन करनेसे मनुष्य सब पापोंसे छट जाता है
लिये बढ़ना (वन. १०४ । ६)। अगस्त्यजीदारा (अनु. १५० । २५-२९)।।
इसकी वृद्धिका निवारण (वन० १०४ । १३-१४)। विनाशन-काला नामक कश्यप-पत्नीके गर्भसे उत्पन्न एक
इस उत्तम पर्वतपर दुर्गा देवीका सनातन निवास स्थान है दानव । कालाके पुत्र अस्त्र-शस्त्रोंके प्रहारमें कुशल तथा
(विराट० ६ । १७)। यह सात कुलपर्वतों से एक है साक्षात् कालके समान भयंकर थे ( आदि. ६५ ।
(भीष्म०९।११)। त्रिपुरदाहके समय यह शिव३४-३५)।
जीके रथका पार्श्ववर्ती ध्वज बनाया गया था (द्रोण. विन्द-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि ६७। २०२।७१)। इसने उनके रथमें आधार-काष्ठका स्थान
९४; आदि. ११६ । ३)। इसका भीमसेनके साथ ग्रहण किया था ( कर्ण. ३४ । २२)। इसके द्वारा युद्ध और उनके द्वारा वध (द्रोण. १२७ । ३४- स्कन्दको उच्छृङ्ग और अतिशृङ्ग नामक दो पार्षदोंका ६६) । (२) अवन्तीका राजकुमार, जो अनुविन्दका दान (स्य. ४५ । ४९-५०)। जो हिंसाका त्याग भाई था । दक्षिण-दिग्विजयके अवसरपर सहदेवने इसे करके सत्यप्रतिश होकर विन्ध्याचलमें अपने शरीरको कष्ट परास्त किया था (सभा० ३१ । १.)। इसका एक दे विनीत भावसे तपस्याका आश्रय लेकर रहता है, उसे अक्षौहिणी सेना लेकर दुर्योधनकी सहायताके लिये आना एक महीने में सिद्धि प्राप्त हो जाती है (अनु. २५ । (उद्योग० १९ । २४-२५)। भीष्मद्वारा इसकी श्रेष्ठ ४९)। रथियोंमें गणना ( उद्योग० १६६ । ६) । दुर्योधनकी विन्ध्यचुलिक-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । १२)। सेनाके दस प्रधान अधिनायकों से एक यह भी था विपाट-कर्णका एक भाई, जो अर्जुनद्वारा मारा गया
(भीष्म० १६ । १५-१७)। यह भगदत्तके समान (द्रोण. ३२ । ६२-६३)। तेजस्वी था और हाथीकी पीठपर बैठकर केतुमान्के पीछे विपाठ-बाणविशेष ( इसकी आकृति खनतीकी माँति चल रहा था (भीष्म० १.३७) । प्रथम दिनके होती है। यह दूसरे बाणोंसे बड़ा होता है) (आदि. युबमें कुन्तिभोजके साथ इसका द्वन्द-युद्ध (भीम. १८ )।
म. ना.४०
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विपापा
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( ३१४ )
विपापा - भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म० ९ । १५ ) । विपाप्मा - एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३० ) । विपाशा - पञ्चनद प्रदेशकी एक नदी, जो वसिष्ठजीको
पाशमुक्त करनेके कारण 'विपाशा' नामसे प्रसिद्ध हुई ( आदि० १७६ । २ - ६ ) । यह वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करती है ( सभा० ९ | १९ । इसका जल भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म० ९ । १५ ) । 'बहि' और 'ही' नामक पिशाच इसमें निवास करते हैं ( कर्ण० ४४ । ४१-४२ ) । जो विपाशा नदीमें पितरोंका तर्पण करता है और क्रोधको जीतकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तीन रात वहाँ निवास करता है, वह जन्ममृत्युके बन्धन से मुक्त हो जाता है ( अनु० २५ । २४ ) | विपुल - ( १ ) सौवीर देशका राजा, जो संग्राम-भूमिमें अर्जुनके हाथसे मारा गया था ( आदि० १३८ । २२) । ( २ ) मगधराजधानी गिरिव्रजके समीपका एक पर्वत ( सभा० २१ । २) । ( ३ ) एक भृगुवंशी ऋषि, जो महर्षि देवशर्मा के शिष्य थे ( अनु० ४० । २१-२२ । इनका अपने गुरुसे इन्द्रका रूप एवं लक्षण पूछना ( अनु० ४० । २६ ) । इन्द्रसे रक्षा करनेके लिये गुरुपत्नी शरीरमें इनका प्रवेश ( अनु० ४० ॥ ५७-५८ ) । इन्द्रको फटकारना (अनु० ४१ । २०२६ ) | गुरुसे इनको वरकी प्राप्ति ( अनु० ४१ ॥ ३५ ) । गुरुकी आज्ञासे दिव्य पुष्प लाना ( अनु० ४२ । १६ ) । मार्ग में अपनी दुर्गतिकी बात सुनकर दुखी होना ( अनु० ४२ । २९ ) । गुरुसे स्त्री-पुरुषके जोड़े और छः पुरुषोंके विषयमें प्रश्न ( अनु० ४३ । ३ ) । विपृथु - ( १ ) एक वृष्णिवंशी क्षत्रिय, जो द्रौपदीके
स्वयंवरमें गया था ( आदि० १८५ । १८ ) । यह रैवतक पर्वत पर होनेवाले महोत्सबमें सम्मिलित हुआ था ( आदि ० २१८ । १० ) । सुभद्रा और अर्जुनके विवाहोपलक्ष्य में दहेज लेकर जानेवाले लोगोंमें यह भी था ( आदि ० २२० । ३२ ) । यह युधिष्ठिरकी सभामें रहकर उनकी सेवामें उपस्थित होता था ( सभा० ४ । ३०) । ( २ ) एक प्राचीन नरेश, जो सप्तर्षियोंके बाद भूमण्डल समाट् हुए थे ( शान्ति ० २९४ । २० ) । विप्रचित्ति - दनुके सर्वत्र विख्यात चौंतीस पुत्रोंमेंसे एक, जो महायशस्वी राजा था; यह अपने भाइयोंमें सबसे बड़ा था ( आदि० ६५ । २२ ) । यही इस भूतलपर ' जरासंध' के रूपमें उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ४ ) । यह वरुणी सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० ९ । १२ ) । जब वामनरूपधारी
विभाण्डक
श्रीहरि त्रिलोकीको नापने लगे, उस समय विप्रचित्ति आदि दानव अपने-अपने आयुध लेकर उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७९० ) । पूर्वकालमें इसे भगवान् श्रीहरिने ( इन्द्ररूपसे ) क्रियात्मक उपायद्वारा मारा था ( शल्य० ३१ । १२-१३ ) । इसको तथा अन्य प्रमुख दैत्य-दानवोंको मारकर इन्द्र देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे ( शान्ति० ९८ । ५० )।
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विभाण्ड - एक प्राचीन ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजी को देखने आये थे ( शान्ति० ४७ । ११ ) । विभाण्डक - कश्यप-कुलमें उत्पन्न एक ऋषि, जो इन्द्रकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं ( सभा० ७ । १८ दा० पाठ ) । ये ऋष्यशृङ्गके पिता थे ( वन ० ११० | २३ ) । इनका अन्तःकरण तपस्या से पवित्र हो गया था। ये प्रजापति के समान तपस्वी और अमोघवीर्य महात्मा थे। इनका रूप-सौन्दर्य महात्माओंके समान था । ये बहुत बड़े सरोवरमें प्रविष्ट होकर तपस्या करते रहे । इन्होंने दीर्घकालतक महान् क्लेश सहन किया था ( वन० ११० । ३२-३४ ) । एक दिन जलमें स्नान करते समय उर्वशी अप्सराको देखकर इनका वीर्य स्खलित हो गया । उसी समय प्याससे व्याकुल होकर एक मृगी वहाँ आयी और पानीके साथ उस वीर्यको भी पी गयी। इससे उसके गर्भ रह गया । उसीके पेटसे महर्षि ऋष्यशृङ्गका जन्म हुआ ( वन० ११० । ३५ - ३९ ) | विभाण्डक मुनिके नेत्र हरे-पीले रंगके थे । सिरसे लेकर पैरोंके नखतक रोमावलियोंसे भरे हुए थे । ये स्वाध्यायशील, सदाचारी और समाधिनिष्ठ महर्षि थे । एक दिन जब ये बाहरसे आश्रमपर आये तो अपने पुत्रको चिन्तामग्न देखकर उससे पूछने लगे- 'बेटा! बताओ, आज यहाँ कौन आया था ( वन० १११। २०-३० ) ।
शृङ्गने पिताको अपनी चिन्ताका कारण बताते हुए ब्रह्मचारी रूपधारी वेश्याके स्वरूप और आचरणका वर्णन किया ( वन० ११२ अध्याय ) । विभाण्डकने अपने पुत्रको बताया कि इस प्रकार अद्भुत रूप धारण करके राक्षस ही इस वनमें विचरा करते हैं तथा ऋषि-मुनियोंकी तपस्या में सदा विघ्न डालनेकी चेष्टा करते रहते हैं । अतः तपस्वीको चाहिये कि वह उनकी ओर आँख उठाकर देखे ही नहीं। इस प्रकार पुत्रको उससे मिलने-जुलने के लिये मना करके मुनि स्वयं उस वेश्याकी खोज करने लगे । तीन दिनोंतक खोजनेपर भी जब वे उसका पता न पा सके, तब आश्रमपर लौट आये ( वन० ११३ । (१-५) । तदनन्तर जब वे फल लानेके किये वनमें गये,
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विभावसु
( ३१५)
विभीषण
%
A
तब वह वेश्या उनके पुत्रको लुभाकर अपने साथ ले गयी
और राजा लोमपादने उन्हें अपने अन्तःपुरमें ठहराया। आश्रमपर लौटनेपर अपने पुत्रको न देखकर विभाण्डक मुनि अत्यन्त कुपित हो उठे। इन्हें राजा लोमपादपर संदेह हुआ। तब वे चम्पा नगरीकी ओर चल दिये। मार्गेमें इनका बड़ा सत्कार हुआ। अङ्गदेशका सारा वैभव इनके पुत्र ऋष्यशृङ्गका ही बताया गया । राजाके यहाँ पहुँचकर इन्होंने वहाँ अपने पुत्र और पुत्रवधूको देखा । इससे इनका क्रोध शान्त हो गया और इन्होंने राजा लोमपादपर बड़ी कृपा की। शान्ताके गर्भसे पुत्र उत्पन्न हो जानेके बाद ऋष्यशृङ्गको वनमें ही आ जानेकी आशा देकर ये आश्रमको लौट गये (वन. ११३ । ६-२७)। अदृश्य देवतासे इनका प्रश्न करना (शान्ति०२२२अ० दा. पाठ, पृष्ठ ४९९९, कालम 1)। सनत्कुमारजीसे प्रश्न (शान्ति० २२२ दा० पाठ, पृष्ठ
४९९९ कालम २)। विभावसु-(१) विवस्वान् अथवा सूर्य ( आदि. १।।
४२)। (२) एक क्रोधी महर्षि, जो अपने भाई सुप्रतीक मुनिके शापसे कछुआ हो गये थे (आदि. ३९ । १५ -२३)। (३) एक ऋषि, जो युधिष्ठिरका विशेष आदर करते थे (वन० २६ । २४)। विभीषण-(१) एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामे उपस्थित होकर
उनकी सेवा करते हैं (सभा० १० । १७)। (२)राक्षसराज लङ्कापति विभीषण, जो कुबेरकी सभामें रहकर अपने भाई धनाध्यक्ष कुबेरकी उपासना करते हैं (सभा० १० । ३१)। ये विश्रवा मुनिके पुत्र, रावण और कुम्भकर्णके भाई थे। इनकी माताका नाम मालिनी था। इनके द्वारा युधिष्ठिरको अनेक प्रकारकी बहुमूल्य वस्तुओंकी भेंट(सभा० ३१ । ७२ के बाद दा. पाठ)। सहदेवने इनके पास घटोत्कचको अपना दूत बनाकर भेजा था (समा० ३१ । ७२ के बाद दा० पाठ और ७३ वा श्लोक, पृष्ठ ७५९)। इनकी आशासे घटोत्कचका इनके दरबारमें उपस्थित होना (सभा० ३१ । ७३ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७६०)। राक्षसराज विभीषणका महल अपनी उज्ज्वल आभासे कैलासके समान जान पड़ता था। उसका फाटक तपाये हुए सोनेसे तैयार किया गया था । चहारदीवारीसे घिरा हुआ वह राजमन्दिर अनेक गोपुरोंसे सुशोभित था। उसमें बहुतसी अट्टालिकाएँ तथा महल बने हुए थे। भाँति-भाँतिके रत्न उस भवनकी शोभा बढ़ाते थे। सोने, चाँदी और स्फटिक मणिके खम्भे नेत्र और मनको बरबस अपनी
ओर खींच लेते थे । उन खम्भोंमें हीरे और वैदर्य जडे हुए थे। सुनहले रंगकी विविध ध्वजा-पताकाओंसे उस भव्य भवनकी विचित्र शोभा होती थी । विचित्र मालाओं
से अलंकृत तथा विशुद्ध स्वर्णमय वेदिकाओंसे विभूषित वह राजभवन बड़ा रमणीय दिखायी देता था । वहाँ कानों में मृदङ्गकी मधुर ध्वनि सुनायी पड़ती थी। वीणाके तार शंकृत हो रहे थे और उसकी लयपर गीत गाया जा रहा था । सैकड़ों वाद्योंके साथ दिव्य दुन्दुभियोंका मधुर घोष गूंज रहा था । महात्मा विभीषण सोनेके सिंहासनपर बैठे थे। वह सिंहासन सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें मोती तथा मणि आदि रत्न जड़े हुए थे। दिव्य आभूषणोंसे राक्षसराज विभीषणकी विचित्र शोभा हो रही थी। उनका रूप दिव्य था। वे दिव्य माला, दिव्य वस्त्र और दिव्य गन्धसे विभूषित थे। उनके समीप अनेक सचिव बैठे थे । बहुत-से सुन्दर यक्ष अपनी स्त्रियोंके साथ मङ्गलयुक्त वाणीद्वारा राजा विभीषणका विधिपूर्वक पूजन करते थे । दो सुन्दरी नारियों उन्हें चवर और व्यजन डुला रही थीं। राक्षसराज विभीषण कुबेर और वरुणके समान राजलक्ष्मीसे सम्पन्न एवं अद्भुत दिखायी देते थे । इनके अङ्गोसे दिव्य प्रभा छिटक रही थी। वे धर्मनिष्ठ थे और मन-ही-मन इक्ष्वाकु वंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामचन्द्रका स्मरण करते थे। घटोत्कचने दोनों हाथ जोड़कर इन्हें प्रणाम किया ( सभा० ३१ । ७३ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७६१)। घटोत्कचके मुखसे युधिष्ठिर आदिका पूर्ण परिचय सुनकर विभीषणने प्रसन्नतापूर्वक सहदेवके लिये हाथीकी पीठपर बिछाने योग्य विचित्र कालीन, हाथीदाँत और सुवर्णके बने हुए पलंग, बहुमूल्य आभूषण, सुन्दर मूंगे, भाँतिभाँतिके मणि, रत्न, सोने के बर्तन, कलश, घड़े, विचित्र कड़ाहे, हजारों जलपात्र, चाँदीके बर्तन, चौदह सुवर्णमय ताड़, सुवर्णमय कमलपुष्प, मणिजटित शिबिकाएँ, बहुमूल्य मुकुट, सुनहले कुण्डल, सोनेके बने हुए पुष्प, हार, चन्द्रमाके समान उज्ज्वल शतावर्त शज, श्रेष्ठ चन्दन तथा और भी भाँति-भाँतिके बहुमूल्य पदार्थ भेंट किये (सभा० ३।। ७३ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७६२--७६४)। ये राक्षसराज रावणके छोटे भाई थे (वन. १३८ । १३)। इनके पिता महर्षि विश्रवा थे और माताका नाम मालिनी था (वन० २७५ । ८)। इनका श्रीरामकी शरणमें जाना (वन० २८३ । ४६)। श्रीरामने इन्हें लङ्काका राजा, लक्ष्मणका सखा और अपना सचिव बनाया (वन० २८३ । ४९)। इनका प्रहस्तके साथ युद्ध (वन० २८५ । १४)। इनके द्वारा प्रहस्तका वध (वन० २८६ । ४)। इनका कुबेरका भेजा हुआ जल श्रीरामको देना (वन० २८९।९-११)। श्रीरामद्वारा लङ्काका राज्य पाना (वन० २९१ । ५)। अयोध्याके राज्यपर अभिषिक्त होने के बाद श्रीरामचन्द्रजीने
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विभीषणा
( ३१६ )
विराट
पुलस्त्मकुलनन्दन विभीषणको अपने घर लौटनेकी आज्ञा (खास रहनेका स्थान ) था ( सभा० ३८ । २९ के दी और कर्तव्यकी शिक्षा दे इन्हें बड़े दुःखसे विदा किया बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१५, कालम २)। (बन० २९१ । ६७-६८)।
बिरजा-(१) कश्यपद्वारा कद्र के गर्भसे उत्पन्न एक नाग विभीषणा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६।। (आदि.३५ । १३, उद्योग०१०३ । १६)। (२) २२)।
धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ११६ । १४)। विभु-शकुनिका भाई । अपने चार भाइयोंके साथ इसका
भाइयोसहित इसका भीमसेनके साथ युद्ध और उनके द्वारा भीमसेनपर आक्रमण और उनके द्वारा वध (द्रोण०
वध (द्रोण. १५७ । १७-१९)। (३) भगवान् १५७ । २३-२६)।
नारायणके तेजसे उत्पन्न एक मानस पुत्र, जिन्होंने
पृथ्वीपर राज्य करनेकी इच्छा न करके संन्यास लेनेका विभूति-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोमैसे एक (अनु० ४।
ही निश्चय किया । इनके पुत्रका नाम कीर्तिमान् था
(शान्ति० ५९ । ८५-९०)। (४) कविके आठ विभूरसि-अद्भुत नामक अग्निके पुत्र ( वन० २२२। पुत्रोंसे एक । इनके सात भाइयोके नाम हैं-कवि, २६)।
काव्य, विष्णु, शुक्राचार्य, भृगु, काशी और उग्र । ये .विमल तीर्थ-एक उत्तम तीर्थ, जिसमें सोने और चाँदीके आठों प्रजापति हैं ( अनु० ८५ । १३२-१३४)। रंगकी मछलियाँ दिखायी देती हैं। इसमें स्नान करनेसे
या दता है । इसम स्नान करनसे विरस-एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग. १०३।१६)। मनुष्य शीघ्र ही इन्द्रलोकको प्राप्त होता है और सब पापोंसे शुद्ध हो परमगतिको प्राप्त कर लेता है (वन० ८२ ।
विराज-ये भरतवंशी महाराज कुरुके पौत्र एवं अविक्षित्के ८७-८८)।
पुत्र थे ( आदि० ९४ । ५२ )। विमलपिण्डक-कश्यपद्वारा कद्रुके गर्भसे उत्पन्न एक नाग
विराट-मत्स्यदेशके शत्रुदमन नरेश, जो मरुद्गणोंके अंशसे (भादि० ३५। ८)।
उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७ । ८२)। ये अपने पुत्र
उत्तर एवं शतके साथ द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे विमला-सुरभिपुत्री रोहिणीकी दो कन्याओंमेंसे एक । दूसरी
(आदि. १८५ । ८)। राजसूय-दिग्विजयके समय का नाम अनला था ( आदि० ६६ । ६७-६८.)।
सहदेवद्वारा इनकी पराजय (सभा० ३१ ।२)। ये विमलाशोकतीर्थ-एक तीर्थ, जहाँ जाकर ब्रह्मचर्य-पालन
युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें पधारे थे (सभा० ४४ । २.)। पूर्वक एक रात निवास करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रति- इन्होंने राजा युधिष्ठिरको सुवर्ण-मालाओंसे विभूषित दो ष्ठित होता है (वन०८४ । ६९-७०)।
हजार मतवाले हाथी उपहारके रूपमें दिये (सभा० ५२ । विमलोदका-हिमालयपर ब्रह्माके यशमें प्रकट हुई सरस्वती- २६)। युधिष्ठिरको विशेष अधिकार देकर अपने यहा का नाम (शल्य० ३८ । २९)।
ससम्मान रहनेकी व्यवस्था करना (विराट०७ । १६विमुख-एक ऋषि, जो इन्द्र की सभामें विराजते हैं (सभा० । १७)। इनका भीमसेनको अपने यहाँ पाकशालाध्यक्ष ७ । १७ के बाद दा० पाठ)।
बनाना (विराट० ८ । ११-१२)। इनकी प्यारी रानीविमुच-दक्षिणदिशानिवासी एक प्राचीन ऋषि ( शान्ति.
का नाम सुदेष्णा था (विराट. १।६)। सहदेवको
अपने यहाँ गोशालाध्यक्षके पदपर रखना (विराट०१०। २०८।२८)।
१५)। बृहन्नला नामधारी अर्जुनके नपुंसकत्वकी परीक्षा विमोचन-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक तीर्थ,
कराकर उन्हें अन्तःपुरमें स्थापित करना ( विराट. जहाँ स्नान और आचमन करके क्रोध और इन्द्रियोंको
११। १०-११)। इनकी पुत्रीका नाम उत्तरा था, जिसे वशमें रखनेवाला मनुष्य प्रतिग्रहजनित पापसे मुक्त हो
अर्जुनने गीत, वाद्य एवं नृत्यकलाकी शिक्षा दी थी जाता है (वन० ८३ । १६१)।
(विराट. ११।१२-१३)। नकुलको अश्वशालाध्यक्षके वियम-राक्षस शतशृङ्गके तीन पुत्रोंमेंसे एक । इसका अम्ब- पदपर नियुक्त करना (विराट. १२ । ९)। द्रौपदीके रीषके सेनापति सुदेवके साथ युद्ध करके उसे मारना और
उलाहना देने और फटकारनेपर उसे उत्तर देना स्वयं भी उसके द्वारा मारा जाना (शान्ति. ९८ । ११
(विराट. १६ । ३५)। विराटकी पहली रानी कोशलके बाद दा० पाठ)।
देशकी राजकुमारी सुरथा थीं । वे श्वेतकी माता थीं । विरज-द्वारकाका एक प्रासाद, जो निर्मल एवं रजोगुणके उनके मरनेपर राजाने सूतपुत्री केकयकुमारी सुदेष्णासे
प्रभावसे शून्य था । यह भवन श्रीकृष्णका उपस्थानगृह विवाह किया। सुदेष्णाके ज्येष्ठ पुत्रका नाम शङ्ख था और
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विराट
( ३१७ )
विरूपाक्ष
छोटेका उत्तर । इन दोनोंसे छोटी एक उत्तरा नामकी इनके मोड़ोंका वर्णन (द्रोण० २३ । १)। विन्दकन्या थी (विराट. १६ । ५१ के बाद दा. पाठ, अनुविन्दके साथ युद्ध (द्रोण० २५।२०-२ द्रोण. पृा १८९१)। कहीं-कहीं इनके दस भाइयोंका उल्लेख ९५ । -६) । शल्यके साथ युद्धमें मूञ्छित होना मिलता है (विराट. १६ । ५१ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ (द्रोण. १६७ । ३५) । द्रोणाचार्यद्वारा इनका वध १८९४ ) । उपकीचकोंको द्रौपदीको जलानेकी अनुमति (द्रोण. १८१ । ४३)। इनके मारे जाने की चर्चा दे देना (विराट. २३ । ८)। कीचक तथा उप- (कर्ण० ६ । ६)। इनके शवका दाह संस्कार (स्त्री. कीचकोंके दाह-संस्कारके लिये आदेश देना (विराट० २६ । ३३)। युधिष्ठिरद्वारा इनका श्राद्ध सम्पन्न होना २५। ६-७)। सुदेष्णाद्वारा द्रौपदीको राजमहलसे निकल (शान्ति०४२।४)। स्वर्गमें जाकर ये मरुद्गों में जानेके लिये संदेश कहलाना (विराट. २४ । ९-१०)। मिल गये (स्वर्गा०५।१५)। इनके भाइयोंके नाम शतानीक और मदिराक्ष थे । महाभारतमें आये हुए विराटके नाम--मत्स्य, मत्स्यशतानीकका दूसरा नाम सूर्यदत्त था। ये सेनापति थे।
पति, मत्स्यराट, मत्स्यराज आदि । मदिराक्षको 'विशालाक्ष' भी कहा जाता था । ये दोनों
विराटनगर-मत्स्यदेशकी राजधानी, इसपर त्रिगतों तथा महारथी थे (विराट० ३१ । ११-१२, १५, २०, २४,
कौरवोंने चढ़ाई की थी (विराट. ३० । २३)। विराट. ३२ । १९)। इनके सुदेष्णासे उत्पन्न ज्येष्ठ ।
विराटपर्व-महाभारतका एक प्रमुख पर्व । पुत्रका नाम शङ्ख था (विराट० ३१ । १६)। गोहरणके समय पाण्डवों तथा अपनी सेनाके साथ युद्ध के लिये प्रस्थान
विराध-एक क्रूरकर्मा राक्षस, जो शापग्रस्त गन्धर्व था ।
भगवान् श्रीरामद्वारा इसका वध (सभा० ३८ । २९ के (विराट. ३१ । ३२)। गोहरणके समय सुशर्माके साथ इनका द्वन्द-युद्ध ( विराट. ३२ । २३ -३०)।
बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७९४)। सुशर्माद्वारा इनका जीते-जी पकड़ा जाना (विराट. ३३।।
विराव-इल्वलद्वारा अगस्त्यजीको दिये गये रथमें जुते हुए ७-८) । सुशर्माके रथसे कूदकर उसकी गदा ले उसीकी
एक घोड़ेका नाम । दूसरेका नाम सुगव था ( वन. ओर इनका दौड़ना (विराट. ३३१४२)। युद्धसे छटकारा ९९।१७)। पानेपर पाण्डवोंका इनके द्वारा सम्मान (विराट. ३४। विरावी-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेसे एक (आदि०६७।१०४ ४-१३)। नगरमें विजय-घोषणाके लिये दूत भेजना आदि. ११६ । १३)। (विराट० ३४ । १७)। इनकी उत्तरके लिये चिन्ता विरूप-(१) एक असुर, जो श्रीकृष्णद्वारा मारा गया था (विराट०६८।१०-१४)। इनके द्वारा युधिष्ठिरका (समा० ३८ । २९ के बाद, पृष्ठ ८२५, कालम १)। तिरस्कार (विराट. ६८।४६) । युधिष्ठिरसे इनकी (२) अन्य नाम और रूप धारण करके आया हुआ क्षमा-प्रार्थना (विराट० ६८ । ६२)। उत्तरसे युद्धका क्रोध, जिसका राजा इक्ष्वाकुके साथ संवाद हुआ था समाचार पूछना ( विराट. ६८ । ६८-७६ )। (शान्ति. १९९ । ८८-११७)। (३) अङ्गिराके पाण्डवोंका सस्कार तथा अर्जुनके साथ उत्तराका विवाह आठ पुत्रोंसे एक । इनके सात भाइयोंके नाम हैंकरनेके लिये युधिष्ठिरके सामने इनका प्रस्ताव (विराट. बृहस्पति, उतथ्य, पयस्य, शान्ति, घोर, संवर्त और ७१।३२-३४)। ये अपनी सेनाके साथ युधिष्ठिरकी सुधन्वा । ये सभी वारुण तथा आग्नेय कहलाते हैं सहायताके लिये आये ( उद्योग. १९ । १२)। (अनु. ८५ | १३०-१३१)। युधिष्ठिरकी सेनाके सात प्रमुख सेनापतियोंमें एक ये भी थे विरूपक-एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो प्राचीनकालमें (उद्योग० १५७ । ११-१४)। उलूकसे दुर्योधनके पृथ्वीका शासक था. परंतु कालवश इसे छोड़कर चल संदेशका उत्तर देना ( उद्योग० १६३ । ४.)। प्रथम बसा ( शान्ति० २२७ । ५१)। दिनके संग्राममें भगदत्तके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध विरूपाक्ष-(१)दनुके सुविख्यात चौंतीस पुत्रों से एक । ( भीष्मः ४५ । ४९-५१ )। भीष्मपर आक्रमण इसके पिताका नाम कश्यप था ( आदि. ६५ । २१(भीष्म०७३ । १) द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और शङ्खके २६)। यही राजा चित्रवर्मा होकर उत्पन्न हुआ था मारे जानेपर इनका पलायन ( भीष्म ८२ । १४- ( आदि. ६७ । २२-२३ ) । (२) नरकासुरका २४)। अश्वत्थामाके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म अनुयायी एक असुर, जो औदकाके अन्तर्गत लोहित११० । १६, भीष्म० १११ । २२-२७)। जयद्रथके गङ्गाके बीच श्रीकृष्णद्वारा मारा गया था (सभा० ३८ । साथ द्वन्द-युद्ध (भीष्म० ११६ । ४२-४४)। धृतराष्ट्र- २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८०७, कालम २)। (३) द्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०।१)। एक राक्षस, जिसके साथ वानरराज सुग्रीवने युद्ध किया था
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विरूपाश्व
( ३१८ )
विविन्ध्य
(वन० २८५ । ९)। (४) एक राक्षस, जो घटोत्कचका वेदोक्त विधिके अनुसार यज्ञ करके आचार्य कश्यपको सारथि था (द्रोण. १७५। १५)।(५) एक राक्षस- दक्षिणारूपसे एक दिशाका दान कर दिया था, इसीलिये राज, जो राजधर्मा बकका मित्र था (शान्ति० १७० । उसे दक्षिण दिशा कहते हैं ( उद्योग० १०९।।)। १५)। इसके द्वारा गौतम ब्राह्मणका स्वागत (शान्ति. भगवान् श्रीहरिने इन्हें पूर्वकालमें अविनाशी कर्मयोगका १७० । २१)। इसका गौतमके साथ वार्तालाप और उपदेश दिया था। फिर इन्होंने अपने पुत्र वैवस्वत मनुको उसे धन देना ( शान्ति१७१ । २-२२)। इसकी शिक्षा दी ( भीष्म २८।१)। ये इक्कीस राजधर्माके विषयमें चिन्तित होकर अपने पुत्रको उसका प्रजापतियोंमेसे एक हैं ( शान्ति. ३३४ । ३६)। पता लगाने के लिये भेजना (शान्ति. १७२ । ५-- इन्होंने अदितिके सवितासे भी बड़े पुत्रसे नारायणके ११)। गौतमको मार डालनेका आदेश (शान्तिः
मुखसे प्रकट हुए सात्वत धर्मका उपदेश ग्रहण किया १७२ । १७--१९)। राजधर्माके लिये चिता तैयार करना और त्रेतायुगके आरम्भमें वैवस्वत मनुको इसकी शिक्षा (शान्ति० १७३ । १२) । (६) ग्यारह रुद्रोमेसे दी (शान्ति०३४८ १५०-५१ ) । नासत्य और दस्रएक (शान्ति० २०८ । १९)।
ये दोनों अश्विनीकुमार इनके औरस पुत्र हैं और अश्वरूपविरूपाश्व-एक राजा जिन्होंने अपने जीवनमें कभी मांस धारिणी इनकी पत्नी संज्ञा देवीकी नाकसे प्रकट नहीं खाया था ( अनु० ११५। ६५)।
(अनु. १५० । १७-१८)। (२)एक दैत्य, जिसका विरोचन-(१) प्रहादजीके तीन पुत्रोंमेंसे ज्येष्ठ पुत्र ।
गरुडद्वारा वध हुआ (उद्योग.१०५ । १२)। (३) ये बलि के पिता थे (आदि. ६५। १९-२०, सभा०
एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१ )। ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७८९)। केशिनीके विवह-एक अत्यन्त वेगशाली वायु, जो रुक्षभावसे वेगपूर्वक निमित्त सुधन्वासे इनका संवाद (उद्योग. ३५।१४- महान् शब्दके साथ बहकर बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ देता और २१)। दैत्योंद्वारा पृथ्वीदोहनकं समय ये बछड़ा बने थे
उखाड़ फेंकता है । इसके द्वारा संगठित हुए प्रलय(बोण. ६.९ । २०)। इन्द्रद्वारा इनके मारे जानेकी कालीन मेघ बलाहक संज्ञा धारण करते हैं । इस वायुका चर्चा (शान्ति० ९८ । ४५-५०) । भूतलके प्राचीन संचरण भयानक उत्पात लानेवाला होता है । यह आकाशमें शासकोमें इनका भी नाम लिया जाता है (शान्ति अपने साथ मेघोंकी घटाएँ लिये चलता है (शान्ति. २२७ । ५० )। (२) धृतराष्ट्रका एक पुत्र, जो ३२८ । ४४-४५)। द्रौपदी-स्वयंवरमें गया था ( आदि. १८५।२)। विविंश-सूर्यवंशी विंशके पुत्र, जिनके खनीनेत्र आदि (इसे दुर्विरोचन भी कहते हैं। विशेष देखिये---दुविरोचन) पंद्रह पुत्र थे (आश्व० ४।५-७)।
बना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० विविकाति-धृतराष्ट्रका एक महारथी पुत्र ( आदि० ६३ । ४६ । ३०)।
११९-१२०;आदि. ६७। ९४, आदि. ११६ । ४)। विरोहण-तक्षक कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि. १८५। )। सर्पसत्र में जल मरा (आदि. ५७ । ९)।
द्वैतवनमें गन्धर्वोद्वारा बंदी होना (वन० २४२ । ८)। विवर्धन-एक नरेश, जो धर्मराज युधिष्ठिरकी सभामें
विराटनगरमें अर्जुनसे पराजित होकर इसका भागना उपस्थित होकर उनकी उपासना करते थे (सभा०४ ।
(विराट० ६१ । ४३-४५)। भीमसेनके साथ युद्ध २१)।
(द्रोण.१४ । २७-३०)। सुतसोमके साथ युद्ध विवस्वान्-(१) बारह आदित्यों में से एक लोकेश्वर सूर्य
(द्रोण. २५ । २४-२५ ) । भीमसेनके साथ युद्ध ( आदि. ६५। १५)। ये कश्यपके द्वारा अदितिके
(द्रोण. ९६ । ३१)। इसके मारे जानेकी चर्चा
(कर्ण० ५ । ७)। गर्भसे उत्पन्न हुए हैं ( आदि. ७५ । ११)। वैवस्वत यमके पिता हैं ( आदि० ७५ । १२)। विवित्सु-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि. ६७। विवस्वान्के पुत्र मनु हैं ( आदि.९५। ७)। ये कर्णके ९६; आदि० ११६ । ५ )। भीमसेनके साथ युद्ध पिता है (आदि. ११०। १७-२०)। इनकी पुत्रीका
(भीष्म०६४ । २८-३९ )। भीमसेनद्वारा इसका नाम तपती था (आदि. १७१।२६)। इनके एक वध (कर्ण० ५१ । १२)। सौ आठ नामोंका वर्णन (वन० ३। १६-२८)। विविध्य-एक दानव, जो शाल्वका अनुयायी था । इसका इन्होंने पृथ्वीपर निवास करके अपने समस्त शत्रओंको रुक्मिणीनन्दन चारुदेष्णके साथ युद्ध और उनके द्वारा दग्ध कर दिया था (वन० ३९५ । १९)। इन्होंने वध (वन० १६ । २२-२६)।
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विशल्या
( ३१९ )
विधवा
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विशल्या-(१) एक नदी, जो वरुणसभामें रहकर है (अनु० ८९ । ८)। चान्द्रव्रतमें विशाखाका दोनों
वरुणदेवकी उपासना करती है (सभा० ९ । २०)। भुजाओंमें स्थापन करके पूजन करनेका विधान है (अनु० लोकविख्यात विशल्या नदीमें स्नान करनेसे मनुष्य ११०।६)। अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है और स्वर्गलोकमें विशालक-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी जाता है ( वन० ८४ । ११४) । (२) शरीरमें चुभे सेवा करता है (सभा० १० । १६)। हुए बाणोंको निकालनेकी एक ओषधि (वन० २८९ ।
विशाला-(१) ये सोमवंशी महाराज अजमीढकी पत्नी
थी (भादि० ९५ । ३७)। (२) गय देशमें राजा विशाख-(१) कुमार कार्तिकेयके तीन छोटे भाइयों से
गयके यज्ञमें प्रकट हुई सरस्वतीका नाम (शल्य. ३० । एक, शेष दोके नाम शाख और नैगमेय हैं ( आदि.
२०२१)। ६६ । २४)। जब कुमार कार्तिकेय पिताका गौरव प्रदान करने के लिये भगवान् शिवकी और चले, उस विशालापुरी-श्रीहरिकी पुण्यमयी पुरी, जो बदरीवनके निकट समय शिव, पार्वती, अग्नि और गङ्गा–ये चारों एक ही स्थित है । यह नर-नारायणका आश्रम है। इसे बदरिकासमय सोचने लगे--क्या यह मेरा पुत्र मेरे पास आयेगा?
श्रम कहते हैं (वन. ९.। २४-२५) । विशालामें उनके मनोभावको समझकर कुमारने योगवलसे अपने
तर्पण करनेसे मनुष्य ब्रह्मरूप हो जाता है ( अनु० २५ । चार स्वरूप बना लिये । एक तो कुमार स्कन्द स्वयं ही
___४४)। (विशेष देखिये बदरिका या बदरी) थे। दूसरे शाख, तीसरे विशाख और चौथे नैगमेय हुए। विशालाक्ष-(१) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि. स्कन्द शिवके, शाख अग्निके, विशाख पार्वतीके और ६७। १०१, आदि. ११६ । १०)। भीमसेनके नैगमेय गङ्गाजी के समीप गये। इस तरह इनके द्वारा साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा वध (भीष्म ८८ । इन सबको पिता-माताका गौरव प्राप्त हुआ। इन चारोंके १५-२६)।(२) विराटका छोटा भाई, जिसे रूप एक-से हैं । ये सब एक ही माता-पितासे सम्बन्ध रखने- मदिराक्ष भी कहते हैं (विराट. ३२ । १९)। (३) के कारण परस्पर भाई है और एक ही स्वरूपसे प्रकट गरुडकी प्रमुख संतानोमेसे एक (उद्योग० १०१। होने के कारण परस्पर अभिन्न भी हैं (शल्य. १४। ५)। ३४-४१)। (२)कुमारका दूसरा रूप । एक समय विशालाक्षी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ । इन्द्रने कुमार स्कन्दपर वज्रका प्रहार किया. उस वज्रने ३)। उनकी दायीं पसलीपर गहरी चोट पहुँचायी, इस चोटसे विशिरा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. ४६ । उनके शरीरसे एक नूतन रूप प्रकट हुआ, जिसकी २९)। युवावस्था थी। उसने सुवर्णमय कवच धारण कर रखा विशाण्डी-एक कश्यपर्वशी नाग (उद्योग० १.३ । था । उसके एक हाथमें शक्ति थी और कानोंमें कुण्डल झलमला रहे थे । वज्रके प्रविष्ट होनेसे उसकी उत्पत्ति हुई थी, इसलिये वह विशाख नामसे प्रसिद्ध हुआ
विशोक-(१) भीमसेनका सारथि ( सभा० ३३ । (वन० २२७ । १५-१७)। (३) एक ऋषि, जो
३०)। भीमसेनद्वारा युद्धमै दृढ़ रहनेका इसे आदेश इन्द्रसभामें रहकर वज्रधारी इन्द्रकी उपासना करते हैं।
(भीष्म० ६४ । १४)। धृष्टद्युम्नके पूछनेपर युद्ध(समा० ७।१५)।
स्थलमें भीमसेनका पता बताना ( भीष्म ७७ । विशाखयूप-एक पुण्यप्रद स्थान । यहाँ इन्द्र, वरुण आदि २१-२५)। भगदत्तके प्रहारसे मूञ्छित होना (भीष्मः बहुत-से देवताओंने तप किया था (वन. ९०।१५)।
९५ । ७६ )। भीमसेनके साथ वार्तालाप ( कर्णः विशाखा-सत्ताईस नक्षत्रोंमेंसे एक । जो इस नक्षत्र में गाडी
७६ भन्याय )। (२) एक केकय राजकुमार, जो ढोनेवाले बैल, दूध देनेवाली गाय, धान्य, वस्त्र और कर्णद्वारा मारा गया था (द्रोण० ८२।३)। प्रासङ्गसहित शकट दान करता है, वह देवताओं और विशोका-(१) श्रीकृष्णकी एक पत्नी (सभा० ३८ । २९ पितरोंको तृप्त कर देता है तथा मृत्युके पश्चात् अक्षय के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२०, कालम.)। (२) Trant सोता है। वह जीते जी कभी मंकी स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. १६ । ५)। पड़ता और मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोकमें जाता है (अनु० विश्रवा-एक मुनि, जो कुबेरके पिता हैं ( सभा० १० । ६४ । २०) । विशाखामें श्राद्ध करनेवाला मनुष्य यदि २)। कुबेरसे रुष्ट हुए पुलस्त्पने स्वयं अपने आपको पुत्र चाहता हो तो वह बहुसंख्यक पुत्रोंसे सम्पन्न होता दुसरे रूपमें प्रकट किया। पुलस्त्यके आधे शरीरसे जो
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विधवा-आश्रम
( ३२० )
विश्वाची
दूसरा द्विज प्रकट हुआ, उसका नाम विश्रवा' हुआ विश्वजित-(१) बृहस्पतिके तृतीय पुत्र । ये समस्त (वन० २७४ । १३-१४)। कुबेरने पिता विश्रवाकी विश्वको बुद्धिको अपने वशमें करके स्थित हैं। इसीलिये सेवाके लिये तीन सुन्दरी राक्षस-कन्याओंको नियुक्त अध्यात्मशास्त्र के विद्वानोंने इन्हें विश्वजित् कहा है (वन. किया था, जिनके नाम थे-पुष्पोत्कटा, राका तथा मालिनी २१९ । १६)। (२) एक दैत्य, दानव या राक्षस (वन० २७५ । ३-५)। इनके द्वारा पुष्पोत्कटासे रावण जो पूर्वकालमें पृथ्वीका शासक था, परंतु कालवश इसे
और कुम्भकर्णकाः राकासे खर और शूर्पणखाका तथा छोड़कर चल बसा (शान्ति० २२७ । ५३)। मालिनीसे विभीषणका जन्म हुआ (वन० २७५। ७-८)। विश्वदंष्ट-एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो पूर्वकालमें पृथ्वीविश्रवा-आश्रम-आनर्तदेशकी सीमाके अन्तर्गत स्थित का शासक था, परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा
(शान्ति. २२७ । ५२)। एक तीर्थ, यहाँ नरवाहन कुबेरका जन्म हुआ था (वन. ८९।५)।
विश्वपति-मनु नामक अग्निके द्वितीय पुत्र । ये वेदोंमें विश्व-एक क्षत्रिय राजा, जो मयूर नामक असुरके अंशसे
सम्पूर्ण विश्वके पति कहे गये हैं। इनके प्रभावसे हविष्यकी
आहुतिक्रिया सम्पन्न होती है; अतः ये स्विष्टकृन् उत्पन्न हुए थे (आदि०६७ । ३६)।
( उत्तम अभीष्टकी पूर्ति करनेवाले ) कहे जाते हैं (बम० विश्वकर्मा (त्वष्टा )-देवताओंके शिल्पी । आठ वसु २२१ । १७-१८)।
प्रभासके पुत्र । वृहस्पतिकी ब्रह्मवादिनी बहिन, जो योगमै विभक-(१) पाण्डवोके रूपमें उत्पन्न होनेवाले पाँच तत्पर हो सम्पूर्ण जगत्में अनासक्तभावसे विचरती रही, इन्द्रों से एक, शेष चारके नाम भूतधामा, शिबि, शान्ति इनकी माता थी (भादि.६६ | २६-२८)। इन्द्र- और तेजस्वी था (भावि० १९६ । २९)। (२) प्रस्थ नगरके निर्माणके लिये इनको इन्द्रका आदेश वृहस्पतिके चौथे पुत्र । ये समस्त प्राणियोंके उदरमें तथा इनके द्वारा उस नगरका निर्माण ( आदि० २०६। स्थित हो उनके खाये हुए पदार्थों को पचाते हैं। पाक२५ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ५९३.५९४ )।
यज्ञोंमें इन्हींकी पूजा होती है । इनकी पत्नी गोमती
नदी है (वम. २१९१७-१९)। ब्रह्माजीके आदेशसे इनके द्वारा तिलोत्तमाका निर्माण (आदि० २१० ११-१८)। ये एक महर्षिके रूपमें विश्वरुचि-एक गन्धर्वराज, जो पृथ्वीदोहनके समय दोग्धा इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं (सभा०७।१४)। बने थे (द्रोण० ६९ । २५)। इन्होंने यमसभाका निर्माण किया है ( सभा०८ । विश्वरूप-(१) एक राक्षस, जो वरुणकी सभामें रहकर ३४)। इन्होंने वरुणसभाको जलके भीतर रहकर बनाया उनकी उपासना करता है (सभा०९।१४)। (२) है (सभा०९।२)। ये ब्रह्माजीकी सभामें रहकर त्रिशिरा, जो त्वष्टाके पुत्र तथा देवताओंके पुरोहित थे। उनकी सेवा करते हैं (सभा० ११।३१)। इन्होंने ये असुरोंके भानजे लगते थे, अतः देवताओंको प्रत्यक्ष ब्रह्माजीके वनमें यश किया था ( वन० ११४।१७)। और असुरोंको परोक्षरूपसे यशोंका भाग दिया करते थे इनके द्वारा ही पुष्पक विमानका निर्माण हुआ है (बन० (उच्चोग०९। ३-४ शान्ति० ३४२ । २८)। इनको १६१ । ३७)। नल नामक वानर इनका पुत्र था
लुभानेके लिये अप्सराओंका आना, इनका उनके प्रति
आसक्त होना और अप्सराको इन्द्र में अनुरक्त जान इन्द्र (वन.२८३ । ४१)। अर्जुनके रथका ध्वज क्या था,
आदि देवताओंके अभावके लिये संकल्प करके मन्त्रोंका जप विश्वकर्माकी बनायी हुई दिव्य माया थी (विराट
करना (शान्ति० ३४२ । ३२-३४)। ये अपने एक मुख४६ । ३-४) । इन्द्रके प्रति द्रोहबुद्धि होनेसे इन्होंने
से संसारके सारे क्रियानिष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा यशोंमें होमे गये तीन शिरवाले एक पुत्रको उत्पन्न किया, जिसका नाम
सोमरसको पी लेते थे, दूसरेसे अन्न खाते और तीसरेसे था विश्वरूप (उद्योग० ९।३-४)। विश्वरूपके मारे
इन्द्रादि देवताओंके तेजको पी लेते थे (शान्ति. जानेपर इन्द्रसे बदला लेने के लिये इन्होंने वृत्रासुरको ३४२।३४) । इन्द्रद्वारा इनका वध (शान्ति. उत्पन्न किया ( उद्योग०,९ । ४५-४८ )। इन्होंने ३४२ । ११)।(विशेष देखिये त्रिशिरा) इन्द्र के लिये विजयनामक धनुष बनाया था (कर्ण.
विश्वा-दक्ष प्रजापतिकी एक पुत्री (आदि० ६५ । १२)। ३१ । ४२)। त्रिपुरदाहके समय भगवान् शिवके लिये दिव्य रथका निर्माण इन्होंने ही किया था (कर्ण०३४। विश्वाची-एक अप्सरा, जिसकी गणना छः प्रधान अप्सराओं१६-१७) । ( विशेष देखिये त्वष्टा )
में है (आदि०७४ । ६०)। इसके साथ राजा ययाति
का विहार (आदि.७५। ४८ आदि० ८५।९)। विश्वकृत्-एक सनातन विश्वेदेव (भनु० ९१ ॥३६)। इसने अर्जुनके जन्मकालिक महोत्सवमें गान किया था
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विश्वामित्र
( ३२१ )
विश्वावसु
(आदि. १२२ । १५)। यह कुबेरकी सभामें आकर सौ श्यामकर्ण घोड़े माँगे ( उद्योग० १०६ । २७)। उनकी सेवामें उपस्थित रहती है ( सभा० १०।। गालवसे गुरु-दक्षिणाके लिये तकाजा किया ( उद्योग.
११३ । २०-२१)। गालबसे छ: सौ घोड़े और माधवीविश्वामित्र-(१) एक तपस्वी महर्षि, जिन्होंने अपनी को गुरुदक्षिणारूपमें ग्रहण करना ( उद्योग १६९
तपस्यासे इन्द्रको संतप्त कर दिया था (आदि.७१। १७)। माधवीके गर्भसे अष्टक नामक पुत्रकी प्राप्ति २०)। इन्होंने मतङ्ग ऋषिका यज्ञ कराया तथा महर्षि (उद्योग० ११९ । १८)। इनका द्रोणाचार्यके पास वसिष्ठका उनके प्यारे पुत्रोंसे सदाके लिये वियोग करा आकर युद्ध बंद करने को कहना (द्रोण० १९० । ३५दिया और क्षत्रिय होकर भी ये तपोबलसे ब्राह्मणभाव- ४.)। इनकी ब्राह्मणत्व-प्राप्तिकी कथाका वर्णन को प्राम हो गये। अपने शौच-स्नानकी सुविधाके (शल्य. ४० । १२-३०) । इनके द्वारा सरस्वती लिये इनके द्वारा कौशिकी नदीका निर्माण किया नदीको शाप (शल्य. ४२ । ३८-३९)। इनके गया और इन्हींके द्वारा त्रिशङ्कको स्वर्गलाभ हुआ (आदि० जन्मका प्रसङ्ग (शान्ति०४९ । ३०)। भूखसे व्याकुल १। २७-३९)। इन्होंने मेनकाके गर्भसे शकुन्तला- होकर इनका एक चाण्डालके घरमें कुत्तेकी जाँघकी चोरीको जन्म दिया (आदि० ७२ । १-९)। ये अर्जुनके के लिये घुसना (शान्ति० १४१ । १३) । चाण्डालके जन्म-समयमें पधारे थे (आदि० १२२।५१)। ये कान्य- साथ संवाद (शान्ति० १४१ । ४५-९१) । मांस कुब्ज देशके अधिपति कुशिककुमार महाराज गाधिके पुत्र पकाकर देवताओं और पितरोंको संतुष्ट करनेपर उन्हींकी थे (आदि० १७४ । ३-४)। वसिष्ठके आश्रमपर इनका कृपासे इन्हें पवित्र भोजनकी प्राप्ति (शान्ति. १४१ । आगमन (आदि. १७४।१)। नन्दिनी (धेनु) ९९)।ये उत्तर दिशाके ऋषि हैं (शान्ति० २०८ । के प्रतापसे मुनिवर वसिष्ठद्वारा इनका भव्य स्वागत ३३-३४)। युधिष्ठिरद्वारा इनके प्रभावका वर्णन (अनु. (आदि. १७४।४-१२)। नन्दिनीके लिये इनकी ३ अध्याय)। इनके जन्मकी कथा तथा इनके पुत्रोंके वसिष्ठसे याचना (आदि. १७४।१६) । इनके नाम ( अनु. ४ अध्याय )। शिव-महिमाके विषयमें द्वाग वसिष्ठकी कामधेनुका अपहरण (आदि. १७४। इनका युधिष्ठिरसे अपना अनुभव बताना (भनु०१८ । २२)। नन्दिनीद्वारा इनकी समस्त सेनाओंकी पराजय १६)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये ( आदि० १७४ । ३२-४३ )। इनके द्वारा वसिष्ठपर गये थे ( अनु० २६ । ५)। वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष विभिन्न अस्त्रोंका प्रहार ( आदि. १७४ । ४३ के बाद बताना (अनु० ९३ । ४३)।अरुन्धतीसे अपनी दुर्बलताका दा० पाठ )। वसिष्ठके ब्रह्मतेजसे पराजित होकर इनके. कारण बताना (अनु०९३।६३) । यातुधानीसे अपने नामद्वारा क्षात्रबलको धिक्कार (आदि०१७४ । ४५-४५)। का अभिप्राय बताना (अनु० ९३ । ९२)। मृणालकी उग्र तपस्याके बलसे इनको ब्राह्मणत्वका लाभ (आदि०
चोरीके विषयमें शपथ खाना (अनु० ९३ । १२४१७४ । ४८)। इनकी प्रेरणासे शापग्रस्त कल्माषपादके १२६) । अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ शरीरमें किङ्कर नामक राक्षसका आवेश (आदि० १७५। खाना (अनु. ९४ । ३३)। इनके द्वारा धर्मके रहस्य२१)। इनकी प्रेरणासे राक्षसभावापन्न कल्माषपादद्वारा का वर्णन (अनु. १२६ । ३५-३७)। साम्बके पेटसे वसिष्ठके समस्त पुत्रोंका संहार (आदि. १७५। ११)।ये वृष्णि-अन्धकवंशविनाशक मूसल पैदा होनेका शाप देनेवाले कौशिकीके तटपर ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए (वन०४७।१३)। ऋषियों में ये भी थे (मौसल..। १५-२१)। इनोंने उत्पलावनमें अपने पुत्रके साथ यज्ञ किया (वन. (२) कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक तीर्थ, ८७।१५)। कान्यकुब्ज देशमें इन्द्रके साथ सोमपान जहाँ स्नान करनेसे ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति होती है (वन. किया। वहीं ये क्षत्रियत्वसे ऊपर उठ गये और अपनेको ८३ । १३९)। ब्रामण घोषित किया ( वन०८७ । १७)। इन्होंने विश्वामित्रा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल कौशिकीके तटपर तपस्या की थी (वन. ११.। भारतवासी पीते हैं (भीष्म १।२६)। २०)। इनके द्वारा स्कन्दके तेरह संस्कार सम्पन हुए
विश्वामित्राश्रम-कौशिकी नदीके पटपर अवस्थित विश्वामित्र (वन० २२६ । ।३ )। इनका ऋषि-पत्नियोंको ।
मुनिका आश्रम (वन०११ । २२)। निरपराध घोषित करना (वन. २२६ । १६)। ये वसिष्ठरूपधारी धर्मका भोजन सिरपर रखकर सौ वर्षो- विश्वायु-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३४)। तक उनकी प्रतीक्षामें खड़े रहे ( उद्योग० १०६।८- विश्वावसु-(१) गन्धर्वराज । इनके द्वारा मेनकाके गर्भसे २१)। इनोंने गालबके हठसे गुरु-दक्षिणामें उनसे आठ प्रमद्वराकी उत्पत्तिकी कथा (आदि० ८।६-१)। ये
म. ना.४१
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विश्वेदेव
देवगन्धर्व हैं । इनके पिता का नाम कश्यप और माताका प्राधा है ( आदि० ६५ । ४७ ) । ये अर्जुनके जन्मसमय में पधारे थे ( आदि० १२२ । ५२ ) । इन्होंने सोमसे चाक्षुषी विद्या सीखी और स्वयं चित्ररथको सिखायी ( आदि० १६९ | ४३ ) । ये द्रौपदीका स्वयंवर देखने आये थे ( आदि० १८६ | ७) । ये इन्द्रसभामें रहकर देवराजकी उपासना करते हैं ( सभा० ७ । २२ ) । कुबेरसभा में उपस्थित हो धनाध्यक्ष कुबेरकी सेवा करते हैं ( सभा० १० | २५ ) । इनका जमदग्निकी यज्ञ-दीक्षा में श्लोक-गान ( वन० ९० । १८ ) । ये शापवश कबन्ध नामक राक्षस 'गये थे और भगवान् श्रीरामद्वारा इनका उद्धार हुआ था ( वन० २७९ । ३१ - ४३ ) । राजा दिलीप यज्ञमें ये वीणा बजाया करते थे (द्रोण० ६१ । ७; शान्ति० २९ । ७५-७६ ) । महर्षि याज्ञवल्क्यसे चौबीस प्रश्न करना और उनका समाधान हो जानेपर स्वर्ग लौट जाना (शान्ति० ३१८ । २६–८४ ) । महाभारतमें आये हुए विश्वावसुके नाम-- गन्धर्व,
गन्धर्वराज, गन्धर्वेन्द्र, काश्यप आदि । (२) जमदग्निके पाँच पुत्रोंमें से एक। इनकी माता रेणुका थीं। शेष चार भाइयों के नाम हैं- रुमण्वान्, सुषेण, वसु और परशुराम । पिता की मातृवधसम्बन्धी आज्ञा न माननेसे इन्हें पिताद्वारा शाप प्राप्त हुआ (वन० ११६ । १० - १२ ) । परशुरामद्वारा इनका शापसे उद्धार हुआ ( वन० ११६ । १७ ) । विश्वेदेव - (१) देवताओंका एक गण, जो इसी नाम से प्रसिद्ध है । सनातन विश्वेदेवोंके नाम ( अनु० ९१ । ३० – ३७ ) । ( २ ) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३३) ।
विष्कर - एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो पूर्वकालमें पृथ्वीका शासक था परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा (शान्ति० २२७ । ५३ ) ।
विष्णु - (१) ये वसुदेवजोके द्वारा देवकीके गर्भ से श्रीकृष्णरूप से अवतीर्ण हुए आदि ( ० ६३ । ९९ – १०४ ) । बारह आदित्योंमें सबसे कनिष्ठ, किंतु गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ (आदि ० ६५ । १६ ) | इन्होंने वरदानतीर्थमें दुर्वासाको दर्शन दिया (वन० ८२ । ७५ ) । देवताओंद्वारा इनका स्तवन ( वन० १०२ । २० - २६ ) । इनका समुद्र सोखने के लिये अगस्त्य के पास देवताओंको भेजना ( वन० १०३ । (११) । ये कृतयुगमें श्वेत, त्रेतामें लाल, द्वापर में पीत तथा कलियुग में कृष्ण वर्णके हो जाते हैं ( वन० १४९ | १७–३४)। उत्तङ्कद्वारा इनकी स्तुति ( वन० २०१ । १४ – २४ ) | इन्होंने पृथ्वीके उद्धार के लिये जो यज्ञवाराह रूप धारण किया था, वह सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा था ( वन० २७२ । ५१-५५ )।
( ३२२ )
विष्णुपदतीर्थ
७७
इनके नृसिंह अवतारका वर्णन ( वन० २७२ । ५६ – ६१ ) | इनके वामन अवतारका वर्णन ( वन० २७२ । ६२ - ७० ) | ये ही यदुकुलमें श्रीकृष्णरूपसे अवतीर्ण हुए, इनकी महिमाका वर्णन ( वन० २७२ । ७१– ) । देवताओं द्वारा इनकी स्तुति ( उद्योग० १० । ६-८ ) । सुमुख नागकी रक्षाके लिये गरुडका गर्व नाश करना ( उद्योग० १०५ । १९ -- ३२) । क्षीरसागर के उत्तर तटपर इनके निवास स्थान, स्वरूप और महिमा आदिका वर्णन ( भीष्म० ८ । १५-१८ ) । ब्रह्माद्वारा इनका स्तवन ( भीष्म० ६५ । ४७ – ७५ ) । त्रिपुरदाहके समय भगवान् शिवने इन्हें अपना बाण बनाया ( द्रोण० २०२ । ७७; कर्ण० ३४ । ४९ ) । इनके द्वारा स्कन्दको चक्र, विक्रम और संक्रम नामक तीन पार्षदोंका दान ( शल्य० ४५ । ३७ ) । इनके द्वारा स्कन्दको वैजयन्ती माला और दो निर्मल वस्त्रका दान ( शल्य० ४६ । ४९ ) । इनका पृथ्वीको आश्वासन ( स्त्री० ४ । २५ - - २९ ) । इन्होंने एक मानस पुत्र उत्पन्न किया, जिसका नाम विरजा था ( शान्ति० ५९ । ८७-८८ ) । इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद ( शान्ति ० ६५ अध्याय ) । भगवान् शिवने इन्हें दण्ड नामक अस्त्र समर्पित किया और इन्होंने उसे अङ्गिराको दिया ( शान्ति० १२९ । ३६-३७ ) । भगवान् रुद्रद्वारा इन्हें खड्गकी प्राप्ति हुई और इन्होंने उसे मरीचिको प्रदान किया ( शान्ति० १६६ । ६६ ) । इनका वाराह अवतार धारण करके देवताओंके दुःखका नाश करना ( शान्ति० २०९ । १६ – ३० ) । नारदको आश्वासन देना (शान्ति ० २०९ । ३६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ४९५७ ) । वामनरूपसे इन्होंने तीन पगोंमें ही पृथ्वीको नाप लिया था (शान्ति० २२७ । ७-८' ) । प्रत्येक मासकी द्वादशी तिथिको भगवान् विष्णुकी पूजाका विशेष माहात्म्य ( अनु० १०९ अध्याय ) । इन्द्रको धर्मोपदेश ( अनु० १२६ । १११६ ) । इनके द्वारा धर्मके माहात्म्यका वर्णन ( अनु० १३४ । ८--१४ ) । इनके सहस्र नामका वर्णन ( अनु० १४९ अध्याय ) | ( विशेष देखिये नारायण ) (२) भानु (मनु) अग्निके तीसरे पुत्र । इनका दूसरा नाम 'धृतिमान् ' है । ये अङ्गिरागोत्रिय माने गये हैं । दर्शपौर्णमास नामक यज्ञोंमें इन्हीं में हविष्यका समर्पण होता है ( वन० २२१ । १२ ) । विष्णुधर्मा - rasat प्रमुख संतानोंमें से एक ( उद्योग ० १०१ । १३) ।
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विष्णुपदतीर्थ - एक तीर्थ, जिसमें स्नान करके वामन भगवान की पूजा करनेवाला मनुष्य विष्णुलोक में जाता है ( वन० ८३ । १०३-१०४ ) । वह प्रभासतीर्थके बाद
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विष्णुयशा
( ३२३ )
पड़ता है और विपाशा नदीके तटपर स्थित है ( वन० ज्ञान हो गया था ( अनु० ११५ । ५४-६०)। (२) १३० । ८-९)। स्वप्नमें शिवजीके पास श्रीकृष्णसहित , एक पुरुवंशीय राजा, जिसे अर्जुनने उत्तर-दिग्विजयके जाते हुए अर्जुनको विष्णुपदतीर्थ मिला था (द्रोण समय परास्त किया था (सभा० २७ । १४)। ८० । ३५-३६)।
विहङ्ग-ऐरावत-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके विष्णुयशा-युगान्तके समय कालकी प्रेरणासे सम्भल नामक सर्पसत्रमें जल मरा था (भादि. ५.। १२)।।
ग्राममें किसी ब्राह्मणके यहाँ एक महान् शक्तिशाली बालक विहव्य-गृत्समदवंशी वर्चाके पुत्र, जो बितत्यके पिता थे प्रकट होगा, जिसका नाम होगा 'विष्णुयशा' कल्की । (अनु० ३० । ६१)। वह महान् बुद्धि एवं पराक्रमसे सम्पन्न, महात्मा, सदाचारी
वीटा-जौके आकारकी बनी हुई काठकी मोटी गुल्ली, जो
र तथा प्रजावर्गका हितैषी होगा ( वह बालक ही भगवान्का
डंडेके सहारे खेलनेके काममें आती है । पाण्डवों और कल्की अवतार कहलायेगा) । मनके द्वारा चिन्तन करते
कौरवोंके खेलते समय वह वीटा कुएँ में गिर पड़ी थी, ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र योद्धा और
जिसे द्रोणाचार्यने सीकके बाणोंद्वारा निकाल दिया था कवच उपस्थित हो जायेंगे । वह धर्मविजयी चक्रवर्ती राजा
(आदि० १३० । १७--२४)। होगा । वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण दुःखसे व्याप्त हुए इस जगत्को आनन्द प्रदान करेगा। कलियुगका अन्त बीतहव्य-शर्यातिवंशी वत्सके पुत्र, जिनका दूसरा नाम हैहय करनेके लिये ही उसका प्रादुर्भाव होगा । वही सम्पूर्ण था ( अनु० ३० । ५-७)। इनके पुत्रोंद्वारा काशीकलियुगका संहार करके नूतन सत्ययुगका प्रवर्तक होगा। नरेश हर्यश्वका वध ( अनु० ३० । १०-११) । इनके वह ब्राह्मणोंसे घिरा हुआ सर्वत्र विचरेगा और भूमण्डलमें उन पुत्रीने सुदेवको भी मार डाला (अनु० ३० । १३. सर्वत्र फैले हुए नीच स्वभाववाले सम्पूर्ण ग्लेच्छोंका संहार १४)। उन्हीं पुत्रों द्वारा दिवोदासकी भी पराजय हुई कर डालेगा (वन. १९०। ९३-९७) । उस समय (अनु० ३० । २१-२२)। काशीनरेश प्रतर्दनद्वारा चोर, डाकुओं एवं म्लेच्छोका विनाश करके भगवान इनके पुत्र का वध (अनु. ३० । ३८--४३)। इनका कल्की अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान करेंगे और
भागकर भृगुकी शरणमें जाना (अनु०३०। ५५)। उसमें यह सारी पृथ्वी विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको दे डालेंगे। भृगुद्वारा इन्हे ब्राह्मणत्व प्रदान (अनु०३० । ५७-५८)। उनका यश तथा कर्म सभी परम पावन है । ये ब्रह्माजीकी वीति-एक अग्नि । जब दक्षिणाग्निका गार्हपत्य और चलायी हुई मङ्गलमयी मर्यादाओंकी स्थापना करके : आइवनीय-इन दो अग्नियोंसे संसर्ग हो जाय, तब (तपस्याके लिये) रमणीय वनमें प्रवेश करेंगे । फिर इस मिट्टीके आठ पुरवोंमें संस्कारपूर्वक तैयार किये हुए जगत्के निवासी मनुष्य उनके शील-स्वभावका अनुकरण पुरोडाशद्वारा इस अग्निमें आहुति देनी चाहिये (वन. करेंगे । द्विजश्रेष्ठ कल्की सदा दस्युवधमें तत्पर रहकर २२ । २५)। समस्त भूतलपर विचरते रहेंगे और अपने द्वारा जीते हुए वीतिहोत्र-१) एक प्राचीन नरेश ( आदि. १ । देशीमें काले मृगचर्म, शक्ति, त्रिशूल तथा अन्य अस्त्र- २३३)(२) एक देश, जहाँके निवासी क्षत्रियोंका शस्त्रों की स्थापना करते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा अपनी स्तुति
परशुरामजीने संहार किया था (द्रोण०७० । १२-१३)। सुनेंगे और स्वयं भी उन ब्राह्मण शिरोमणियोंको यथोचित सम्मान देंगे। दस्युओंके नष्ट हो जानेपर अधर्मका भी नाश
वीर-(१) कश्यपपत्नी दनायुके गर्भसे उत्पन्न एक असुर हो जायगा और धर्मकी वृद्धि होने लगेगी। इस प्रकार
(आदि. ६५। ३३)। (२) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से सत्ययुग आ जानेपर सब मनुष्य सत्यधर्मपरायण होंगे
एक (आदि. ६७ । १०३)। (३) भरद्वाज नामक (वन० १९१।१-७)।
अग्निके द्वारा वीराके गर्भसे उत्पन्न । इन्हींको रथप्रभु,
स्थध्वान और कुम्भरेता भी कहते हैं। सोम देवताके साथ विष्वक्सेन-एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रकी सभामें विराजते
द्वितीय आज्यभाग इन्हींको प्राप्त होता है। इनके द्वारा सरयू हैं (सभा० ७ । १८ के बाद दा० पाठ)।
नामक पत्नीके गर्भसे सिद्धि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ विष्वगश्च-(१) एक प्राचीन नरेश, ये इक्ष्वाकुवंशी (वन० २१९ । ९-११)। (४) पाञ्चजन्य नामक
महाराज पृथुके पुत्र थे। इनके पुत्र का नाम अद्रि था अग्निके पुत्र, इनकी गणना विनायकोंमें है (वन. ( आदि. १ । २३२, वन० २०२ । ३)। गोदान- २२० । १३-१४)। (५) एक राजा जो कलिङ्गराज महिमाके विषयमें इनकी ख्याति (अनु.७६ । २५- चित्राङ्गदकी कन्याके स्वयंवरमें उपस्थित हुआ था २७)। मांस-भक्षणका निषेध करनेसे इन्हें परावर-तत्त्वका (शान्ति० ४।)।
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वीरक
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( ३२४ )
वीरक-एक देश, जिसके धर्म और आचार-विचार दूषित हैं। अतः यह त्याग देने योग्य है ( कर्ण० ४४ । ४३ ) । वीरकय- भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारत वासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २६ ) । वीरकेतु - पाञ्चालराज द्रुपदका एक पुत्र । इसका द्रोणा चार्य के साथ युद्ध और उनके द्वारा वध ( द्रोण० १२२ । ३३ – ४१ ) ।
वीरप्रमोक्ष- एक तीर्थ, जहाँ जानेसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा पा जाता है ( वन० ८४ । ५१ ) । वीरबाहु - (१ ) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि०
६७ । १०३; आदि० ११६ । १२ ) । प्रथम दिनके युद्ध में उत्तर के साथ इसका द्वन्द्व-युद्ध ( भीष्म० ४५ । ७७-७८ ) । भीमसेनके साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा वध ( भीष्म० ६४ । ३५-३६) । ( २ ) चेदि - देश के राजा, जिनका विवाह दशार्णराज सुदामाकी पुत्रीसे हुआ था, जो दमयन्तीकी मौसी थी । वनमें राजा नल जब दमयन्तीको अकेली छोड़कर चले गये, उस समय दमयन्तीको उन्हीं के राजमहल में आश्रय मिला था । ( वन० ६९ । १३ – १५ ) । वीरभद्र - एक शिवपार्षद, जो शंकरजीका मूर्तिमान् क्रोध ही था (शान्ति० २८४ । २९ -- ३४ ) । इसका अपने रोमकूपोंसे रौम्यनामवाले गणेश्वरोको प्रकट करना ( शान्ति० २८४ । ३५ ) । इसके द्वारा दक्षयज्ञविध्वंस ( शान्ति० २८४ । ३६ - ५० ) । इसका दक्ष
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वृत्त
आदि के पूछने पर अपना परिचय देना ( शान्ति ० २४४ । ५१-५५ ) ।
वीरमती - भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २५ ) ।
1
।
वीरसेन - निषधदेशके राजा जो नलके पिता थे और अर्थके तत्त्वज्ञ थे ( वन० ५२ । ५५ ) । दमयन्तीद्वारा इनका परिचय दिया जाना ( वन० ६४ । ४८ ) । इन्होंने अपने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५ । ६५ ५) ।
arm- एक प्रजापति, जिन्हें सनत्कुमारजीद्वारा सात्वतधर्मकी प्राप्ति हुई थी और इन्होंने रैभ्यमुनिको इस धर्मका उपदेश दिया था ( शान्ति० ३४८ । ४१-४२ ) । वीरणक- धृतराष्ट्रकुल उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में जल गया था ( आदि० ५७ । १८ ) । वीरधुम्न - एक प्राचीन नरेश, जिनके पुत्रका नाम भूरिद्युम्न था । जो वनमें खो गया था, जिनका अपने पुत्रकी खोज में महर्षि तनुके पास जाकर आशा के विषय में पूछना ( शान्ति० १२७ । १४ – २० ) । आशा के विषय में इन्हें तनु मुनिका उपदेश ( शान्ति० १२८ अध्याय ) । वीरधन्वा - कौरवपक्षका एक त्रिगर्तदेशीय योद्धा, जो धृष्टकेतुका सामना करने के लिये आगे बढ़ा था (द्रोण ० १०६ । १०) । इसका धृष्टकेतुके साथ युद्ध और उनके वीरुधा - नागमाता सुरसाकी तीन पुत्रियोंमेंसे एक । इसकी द्वारा वध ( द्रोण० १०७ । ९ – १८ ) । वीरधर्मा - एक राजा, जिसे पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजने का निश्चय किया गया था ( उद्योग ० ४। १६ )।
वीरिणी - ये प्राचेतस दक्षकी पत्नी थीं । इनके गर्भसे एक हजार पुत्र तथा पचास कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं ( आदि० ७५ । ६-८ ) ।
दो बहिनों का नाम था अनला और रुहा । यह लता, गुल्म, वल्ली आदिकी जननी हुई ( आदि० ६६ । ७० के बाद, दा० पाठ ) ।
वीर्यवती - स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शक्य ० ४६ । ८ ) ।
वीर्यवान - एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१ ) । वृक - ( १ ) एक राजा, जो द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था ( आदि० १८५ । १० ) । यह कौरवों की ओरसे लड़ रहा था और किसी पर्वतीय नरेशद्वारा मारा गया था ( कर्ण ० २५।१६-१७ ) । ( २ ) पाण्डवपक्षका एक योद्धा, जिसका द्रोणाचार्यद्वारा वध हुआ था ( द्रोण० २१ । १६ ) । ( ३ ) एक प्राचीन नरेश, जिसने अपने जीवन में कभी मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५ । ६३ ) ।
ये धर्म
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वीरा - (१) युके पुत्र भरद्वाज नामक अग्निकी भार्या । इनके गर्भसे वीर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ( वन० २१९ । ९) । (२) भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । २२ ) । वीराश्रम - वीराश्रमनिवासी कुमार कार्तिकेयके निकट जाकर मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है ( वन० ८४ । १४५)।
वृक्षवासी एक यक्ष, जो कुबेरकी सभा में रहकर उनकी सेवा करता है ( सभा० १० | १८ ) । वृजिनीवान् -ये मनुवंशी क्रोष्टा के पुत्र थे । इनके पुत्रका नाम उपनु था ( अनु० १४७ । २८-२९ ) । वृत्त - कश्यपद्वारा कद्र के गर्भ से उत्पन्न एक नाग ( आदि० ३५ | १०१ उद्योग० १०३ । १४ ) ।
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( ३२५ )
बुत्र ( वृत्रासुर )
वृत्र ( वृत्रासुर ) - कश्यपपत्नी दनायुके गर्भ से उत्पन्न एक असुर (आदि० ६५ । ३३ ) । यह राजा मणिमान्के रूपमें इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ४४ ) । इस महान् असुर के मस्तक पर प्रहार करनेसे वज्रके दस बड़े और सौ छोटे टुकड़े हो गये थे ( आदि० १६९ । ५० ) । वृत्रासुरको देवताओंपर चढ़ाई ( वन० १०० । ४ )। त्वष्टाकी अभिचाराग्निसे इसकी उत्पत्ति ( उद्योग ० ९।४८ ) । इसका इन्द्रको अपना ग्रास बना लेना (उद्योग०९ । ५२ ) । महर्षियोंके समझाने से इन्द्र के साथ शर्तपूर्वक संधि करना ( उद्योग० १० । २७–३१ ) । इसका शुक्राचार्य के प्रश्नका उत्तर देना ( शान्ति० २७९ । १३ – ३१ ) । सनत्कुमारजी के उपदेशका समर्थन करते हुए इसका परमधामको प्राप्त करना ( शान्ति० २८० । ५७ - ५९ ) । इन्द्रके साथ इसका युद्ध (शान्ति० २८१ । १३ – २१ ) । इन्द्रके वज्रप्रहार से इसके मारे जानेका वर्णन, जब वृत्रासुर ज्वरसे पीड़ित होकर जॅभाई लेने लगा, उसी समय इन्द्रने वज्रका प्रहार किया और वह प्राण त्यागकर विष्णुलोकको चला गया (वन० १०१ । १५; उद्योग० १० । ३०६ शान्ति० २८२ । ९; शान्ति० २८३ । ५९-६० ) । इसके पञ्च भूतको ग्रस्त करते हुए इन्द्रके शरीर में प्रवेश करने और इन्द्रद्वारा मारे जानेका वर्णन ( आश्व० ११ । ७-१९)।
महाभारत में आये हुए वृत्रासुरके नाम-असुर, असुरश्रेष्ठ, असुरेन्द्र, दैत्य, दैत्यपति, देस्येन्द्र, दानव, दानवेन्द्र, दितिज, सुरारि, त्वाष्ट्र, विश्वात्मा आदि । वृद्धकन्या - महर्षि कुणिगर्गकी पुत्री, जो बालब्रह्मचारिणी
थी । इसकी घोर तपस्या ( शल्य० ५२ । ५ - १० ) । नारदजीके कहने से इसका शृङ्गवान् के साथ आधा पुण्य प्रदान करने की प्रतिज्ञापूर्वक अपना विवाह करना ( शल्य ० ५२ । १२-१७ ) । महर्षि शृङ्गवान् के साथ एक रात रहकर और उन्हें अपनी तपस्याका आधा पुण्य प्रदान करके इसका स्वर्गगमन ( शल्य० ५२ । १८ - २१ ) । जाते समय उसने अपने स्थानको तीर्थ घोषित किया और उसका फल इस प्रकार बताया- 'जो अपने चित्तको एकाग्र कर इस तीर्थ में स्नान और देवतर्पण करके एक रात निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षोंतक विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य पालन करनेका फल प्राप्त होगा' ( शल्य० ५२ । २१-२२ ) ।
वृद्धक्षत्र - (१) ये सिन्धुराज जयद्रथके पिता थे ( वन०
२६४ । ६ ) । जयद्रथके जन्म समय में आकाशवाणीद्वारा उसकी मृत्युका समाचार सुनकर इनका चिन्तित होना और अपने जाति- भाइयोंको बुलाकर उनके सामने 'मेरे
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नृषक
पुत्रका सिर जो पृथ्वीपर गिरायेगा, उसके मस्तक के सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे ।' यो जयद्रथको वरदान देना । पुनः अपने पुत्रको राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं तपके लिये प्रस्थान करना ( द्रोण० १४६ । १०६ - ११३ ) । अर्जुनके बाणद्वारा जयद्रथके मस्तकका इनकी गोदमै गिरना और मस्तकका इनकी गोद से पृथ्वीपर गिरने से इनकी मृत्यु ( द्रोण० १४६ । १२२ – १३० ) । ( २ ) एक पूरुवंशी राजा, जो पाण्डवपक्षका योद्धा था । इसका अश्वत्थामाके साथ युद्ध और उसके द्वारा वध ( द्रोण० २०० । ७३-८४ ) । वृद्धक्षेम - त्रिगर्तदेश के राजा, जो सुशर्मा पिता थे ( आदि० १८५ । ९ ) ।
वृद्धगार्ग्य - एक तपस्वी महर्षि, जिन्होंने पितरोंसे नीलवृषभ छोड़ने, वर्षा ऋतु में दीपदान करने और अमावास्या को तिलमिश्रित जलद्वारा तर्पण करनेसे प्राप्त होनेवाले फलके विषयमें प्रश्न किया और पितरोंने इन्हें उसका वर्णन सुनाया ( अनु० १२५ । ७७–८३ ) । वृद्धशर्मा - आयुके द्वारा स्वर्भानुकुमारीके गर्भ से उत्पन्न
•
पाँच पुत्रोंमेंसे एक, शेष चारके नाम हैं - नहुष, रजि • और अनेना ( आदि ० ७५ | २५-२६ ) । वृद्धिका - वृक्षवर गिरे हुए शिवजीके वीर्यसे उत्पन्न हुई नारियाँ, जो मनुष्यका मांस भक्षण करनेवाली हैं। संतानकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको इनके सामने मस्तक झुकाना चाहिये (वन० २३१ । १६ ) ।
वृन्दारक - ( १ ) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ११६ । ८ ) । भाइयोंके साथ इसका भीमसेनपर आक्रमण और उनके द्वारा वध (द्रोण० १२७ । ३३ – ६ १ ) । (२) कौरवपक्षका एक योद्धा, जो अभिमन्युद्वारा मारा गया (द्रोण० ४७ । १२ ) ।
वृष - ( १ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६४ ) । (२) एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो पूर्वकालमें पृथ्वीका शासक था; परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा ( शान्ति० २२७ । ५१ ) ।
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वृषक - ( १ ) गान्धारराज सुबलका पुत्र, जो द्रौपदीस्वयंवर में गया था ( आदि० १८५ । ५-६ ) । यह युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें भी उपस्थित था ( सभा० ३४ । ७ ) । दुर्योधन की सेना भीष्मद्वारा यह दुर्धर्ष रथी बताया गया है ( उद्योग० १६८ । १ ) । अर्जुनके साथ युद्ध करते समय यह उनके हाथसे मारा गया ( द्रोण० ३० । २ – ११) । व्यासजीके आह्वान करनेपर गङ्गाजलसे इसका प्रकट होना (आश्रम० ३२ । १२) । (२) एक राजकुमार, जो कलिङ्ग ( कलिङ्गराजकुमार )
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खुषका
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( ३२६ )
का भाई था । इसके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ५ । ३३ ) ।
वृषका - भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । ३५ ) ।
वृषकाथ - कौरवपक्षका एक योद्धा, जो द्रोणाचार्यद्वारा निर्मित गरुडव्यूह के हृदयस्थानमें स्थित था (द्रोण० २० । १३ ) ।
वृषदंश - मन्दराचल के निकटका एक पर्वत, जो स्वप्न में श्रीकृष्णसहित शिवजीके पास जाते हुए अर्जुनको मार्गमै मिला था ( द्रोण० ८० । ३३ )।
वृषदर्भ - ( १ ) एक प्राचीन राजर्षि, जो यम सभामें रहकर विवस्वान्- पुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा ० ८ । २६) । अपने राज्यकालमें इनका अपना एक गुप्त नियम था कि 'ब्राह्मणको सोने और चाँदीका ही दान दिया जाय' ( वन० १९६ । ३ ) । राजा सेन्दुकके कहने से एक ब्राह्मणका इनके पास आकर एक हजार घोड़े माँगना और इनका उस ब्राह्मणको कोसे पीटना ( बन० १९६ । ४ -८ ) । ब्राह्मणके इस मारका रहस्य पूछनेपर उसे बताना और अपने राज्यकी एक दिनकी आयका उसके लिये दान करना ( वन० १९६ । ९ - १३) । (२) काशि या काशी जनपदके राजा उशीनर, जिन्होंने शरणागत कपोतकी रक्षा की थी ( अनु० ३२ अध्याय ) । वृषध्वज- प्रवीरवंशका एक कुलाङ्गार राजा ( उद्योग० ७४ । १६)।
वृषपर्वा - ( १ ) एक दानव, जो कश्यप द्वारा दनुके गर्भ से उत्पन्न हुआ था (आदि० ६५ | २४ ) | यह दीर्घप्रज्ञ नामक राजाके रूपमें पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था ( आदि ० ६७ । १५-१६ ) । दैत्योंके पुरोहित शुक्राचार्य इसी के नगरमें रहते थे ( आदि० ७६ । १३-१४ ) । इसकी कन्याका नाम शर्मिष्ठा था ( आदि० ७८ । ६ )। शुक्राचार्य से अपने नगर में रहनेके लिये इसकी करुण प्रार्थना ( आदि० ८० । ७-८ ) । इसके प्रति इसकी पुत्री शर्मिष्ठाको आजीवन अपनी दासी बनानेके लिये देव. यानीका अनुरोध ( आदि० ८० । १६ ) । शर्मिष्ठाको बुलाने के लिये इसका धात्रीको भेजना ( आदि० ८० । १७ के बाद, दा० पाठ ) | ( २ ) एक प्राचीन राजर्षि, जिनके आश्रमपर जाने के लिये आकाशवाणीद्वारा पाण्डवोंको आदेश मिला था ( वन० १५६ । १५ ) । इनके द्वारा पाण्डवोंका स्वागत ( वन० १५८ । २० - २३ ) । इनका पाण्डवको उपदेश देना ( बन० २६-२७ ) । पाण्डवोंके प्रस्थान करते समय इन्होंने उन्हें ब्रह्मको सौंप दिया और स्वयं पाण्डवों को आशीर्वाद दे
१५८ ।
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वृषा
मार्ग बताकर लौट आये ( दन० १५८ । २८-२९ ) पाण्डवका पुनः लौटकर वृषपर्वाके आश्रमपर आना और सत्कृत होना ( बन० १७७ । ६-८ ) । वृषस्थगिरि - एक तीर्थ, जहाँ तीर्थयात्रा के समय पाण्डवोंने निवास किया था ( वन० ९५ । ३ ) ।
वृषभ - ( १ ) मगध राजधानी गिरिव्रजके समीपका एक पर्वत ( सभा० २१ । २) । (२) ग.न्धारराज सुबलका पुत्र, जो शकुनिका छोटा भाई था । इसने अपने अन्य पाँच भाइयोंके साथ इरावानूपर धावा किया था, जिसमें पाँच तो इरावान्द्वारा मारे गये; केवल यही बचा था ( भीष्मं० ९० । ३३-४७ ) ।
वृषभा - भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । ३२ ) ।
वृषभेक्षण - भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम | इस नामकी निरुक्ति ( उद्योग० ७० । ७ ) ।
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वृषसेन - ( १ ) एक प्राचीन राजा, जो यमसभामें रहकर वैवस्वत यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । १३ ) । (२) युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञमें आया हुआ एक अभिमानी नरेश ( सभा० ४४ । २१-२२) । (३) कर्णका एक पुत्र, जो दुर्योधन की सेनाका एक श्रेष्ठ रथी था ( उद्योग० १६७ । २३ ) । शतानीक आदि द्रौपदीपुत्रोंके साथ इसका युद्ध ( द्रोण० १६ । १ - १० ) । इसका पाण्डय के साथ युद्ध ( द्रोण० २५ । ५७ ) । अभिमन्युद्वारा इसका पराजित होना ( द्रोण० ४४ । ५-७)। इसके ध्वजका वर्णन ( द्रोण० १०५ । १६-१८ ) । अर्जुनके साथ इसका युद्ध (द्रोण० १४५ | ४२ - ५८ ) | द्रुपदके साथ इसका संग्राम ( द्रोण० १६५ । १३ ) । इसके द्वारा द्रुपद की पराजय ( द्रोण० १६८ । १९ - २६)। सात्यकिद्वारा इसकी पराजय (द्रोण० १७० । ३७-३९) । द्रोणाचार्य के मारे जानेपर इसका युद्धस्थलसे भागना (द्रोण० १९३ । १६ ) । सात्यकिद्वारा इसकी पराजय ( द्रोण० २०० | ५१-५३; कर्ण० ४८ । ४३ - ४५ ) । इसका नकुलके साथ युद्ध (कर्ण ० ६१ । ३६-३९ ) । शतानीकके साथ इसकी मुठभेड़ ( कर्ण० ७५ । ९-१० ) । इसका नकुलके साथ घर संग्राम और इसके द्वारा नकुलकी पराजय ( कर्णं ० ८४ । १९ - ३५ ) | अर्जुनके साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा वध ( कर्ण० ८५ । ३५ - ३८ ) । व्यासजीके अवाहन करनेपर गङ्गाजलसे निकलनेवाले वीरोंमें यह भी था (आश्रम० ३२ । १० ) । वृषा - भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल यहाँ के निवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । ३५ ) |
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वृषाकपि
( ३२७ )
बेतालजननी
वृषाकपि-(१) भगवान् विष्णुका एक नाम । इस नामकी पापोंका नाश करनेवाली है (वन० ८५ । ३२; वन. निरुक्ति (शान्ति. ३४२।। । (२) एक ऋषि, ८८।३)। अग्निको उत्पन्न करनेवाली नदियोंमें जो अन्य ऋषियों के साथ देवताओंके यशमें उपस्थित हुए इसकी भी गणना है (वन० २२२ । २४-२६) । यह थे (अनु. ६६ । २३ )। (३) ग्यारह रुद्रोमेसे एक भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी है, जिसका जल यहाँकी (अनु० १५० । १२-१३)।
प्रजा पीती है (भीष्म. ९ । २०, २७)। इसका
नाम सायं-प्रातः स्मरण करनेयोग्य है ( अनु० १६५ । वृषाण्ड-एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो इस पृथ्वीका।
२०)। प्राचीन शासक था; किंतु कालसे पीड़ित हो इसे छोड़कर
वेणासङ्गम-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका चल दिया (शान्ति० २२७ । ५३)।
फल प्राप्त होता है (वन० ८५ । ३४)। वृषादर्भि-(१) काशिराज वृषदर्भके पुत्र युवनाश्व, जो वेणिका-शांकद्वीपकी एक पवित्र जलपाली नदी ( भीष्म
सब प्रकारके रत्न, अभीष्ट स्त्री और सुरम्य गृह दान करके ११ । ३२)। स्वर्गलोकमें निवास करते हैं (शान्ति०२३४ । २५, वेणी-कौरव्य-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पअनु. १३७।१०)। (२) वृषदर्भ (प्रथम) के सत्रमें दग्ध हो गया था (आदि. ५७ । १२-१३)। पुत्र राजा वृषादर्भि; इनका सप्तर्षियोंको दान देनेके लिये याका दान दनक ालय वेणीस्कन्द-कौरव्यकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
र उद्यत होना (अनु० १३ । २७--३०)। सप्तर्षियोपर सर्पसत्र में दग्ध हो गया था (आदि. ५७ । १२-१३)। कुपित होकर इनके द्वारा कृत्या प्रकट करना ( अनु.
वेणुजङ्क-एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराज९३ । ५२-५३) । सप्तर्षियोंको मारने के लिये कृत्याको
__ मान होते थे (सभा०४।१८)। भेजना (अनु० ९३ । ५५-५६)।
वेणुदारि-एक यादव, जिसने वभ्र ( अक्रूरजी) की भार्यावृषामित्र-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरका विशेष आदर करते
का अपहरण किया था (सभा० ३८।२९ के बाद दा. थे (वन० २६ । २४)।
पाठ, पृष्ठ ८२५, कालम )। वृष्णि-एक यदुवंशी क्षत्रिय, इनके वंशज वृष्णि कहलाये वेणदारिसुत-एक यादव, जिसे दिग्विजयके अवसरपर (आदि० २१०।१८)। ( इसी वंशमें भगवान् कर्णने परास्त किया था (वन० २५४ । १५.१६)। श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे।)
वेणुप-एक भारतीय जनपद ( उद्योग० ६४० । २६)।
वेणमण्डल-कुशद्वीपके सात वर्षों से दूसरा वर्ष । इन सातों वेगवान-(१) धृतराष्ट्र-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जावों में देवता, गन्धर्व और मनुष्य आनन्दपूर्वक निवास जनमेजयके सर्पसत्रमें जल मरा या ( आदि. ५७ ।
करते हैं। इनमें किसीकी भी मृत्यु नहीं होती तथा यहाँ १७)। (२) एक दानव, जो दनुका विख्यात पुत्र था
लुटेरे और म्लेच्छ जातिके लोग नहीं हैं (भीष्म० १२ । (आदि० ६५ । २४)। यह इस पृथ्वीपर केकयराज
१२--१५)। कुमारके रूपमें उत्पन्न हुआ था (आदि. ६७ । १०.
वेणमन्त-एक श्वेतवर्णका पर्वत, जो उत्तर भागमें मन्दरा")। (३) एक दैत्य, जो शाल्वका अनुयायी था ।
चलके सदृश विद्यमान था (सभा० ३८ । २९ के बाद जाम्बवतीपुत्र साम्बके साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा
दा० पाठ, पृष्ठ ८१३, कालम)। वध (वन १६ । १७-२०)।
बेणवीणाधरा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. वेगवाहिनी-एक नदी, जो वरुण-सभामै रहकर वरुणदेवकी
मसालेका देवकी ४६ । २१)। उपासना करती है ( सभा० ९ । १०)। वेतसवन-एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ मृत्युने तपस्या की थी वेणा-एक नदी, जो वरुणसभामें रहकर उनकी उपासना (द्रोण० ५४ । २३)। करती है (सभा०९१८) । दक्षिण-दिग्विजयके वेतसिका-ब्रह्माजीद्वारा सेवित एक तीर्थ, जहाँ जानेसे अवसरपर सहदेवने वेणातटवर्ती प्रदेशके स्वामीको पराजित
मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और शुक्राचार्यके लोककिया था (समा०३१ .)। वेणानदीके तटपर में जाता है (वन०८४ । ५६)। जाकर तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य मोर और वेतालजननी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य. हंसोंसे जुता हुआ विमान प्राप्त करता है । यह समस्त ४६ । १३)।
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वेत्रकीयगृह
( ३२८ )
वैतरणी
वेत्रकीयगृह-एकचक्रा नगरीके समीपवर्ती एक स्थानविशेष, वेन-(१) वैवस्वत मनुके प्रथम दस पुत्रों से एक
जहाँ उस प्रदेशका राजा निवास करता था (आदि० (आदि.७५।१५-१७)। (२) मृत्युकी मानसी १५९ | १)।
कन्या सुनीथाके गर्भसे उत्पन्न एक राजा (शान्ति० ५९। वेत्रकीयवन-एक वन, जहाँ भीमसेनने बकासुरको मारा ९१)। ऋषियोंके शापसे इनकी मृत्यु (शान्ति० ५९ । था (वन०१५। ३०-३१)।
९४) । ऋषियों द्वारा इनकी दाहिनी जाँघके मन्थनसे
निषादों एवं विन्ध्यगिरिनिवासी लाखों म्लेच्छोंकी उत्पत्ति वेत्रवती-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारत
हुई (शान्ति. ५९ । ९५-९७)। दाहिने हाथके वासी पीते हैं (भीष्म०९।१६, १९)।
मन्थनसे पृथु उत्पन्न हुए ( शान्ति० ५९ । ९८ )। वेत्रिक-एक भारतीय जनपद । दुर्योधनने यहाँके सैनिकोंको ।
ये यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं भीष्मकी रक्षाके लिये भेजा था (भीष्म० ५१ । )। (सभा० ८ । १५)। वेद-(१) ये आयोदधौम्य मुनिके एक शिष्य ये (आदि० वेहत-एक पुष्टिकरी ओषधि (वन० १९७ । १७)।
३।७४)। इनकी गुरुभक्तिका वर्णन (आदि०३ । ७९) । इनको गुरुका आशीर्वाद प्राप्त होना (आदि.
वैकर्तन-अपने शरीरसे कवचके कतर डालनेके कारण कर्ण३।८.)। इनके गाईस्थ्यधर्मका वर्णन ( आदि का नाम वैकर्तन हो गया (आदि. ११०।३.)। ३।८) | इनका जनमेजयका उपाध्याय होना
(विशेष देखिये कर्ण) (भावि० ३ । ८२ ) । परदेश जाते समय अपने शिष्य वैकुण्ठ-पाँचों भूतोंको मिलाने में जिसकी शक्ति कभी कुण्ठित उत्तङ्कको घरकी सँभाल रखनेके लिये इनका आदेश नहीं होती, वे भगवान् बैकुण्ठ कहलाते हैं (शान्ति. (आदि. ३ । ८४)। इनका परदेशसे लौटनेपर ३४२।८.)। उत्तङ्कके कार्य-विधानपर प्रसन्न होना और उन्हें आशीर्वाद वैजयन्त-(१) इन्द्रके ध्वजका नाम (वन०४२।८)। देकर घर जानेके लिये आज्ञा देना (आदि. ३ । ८८.
(२)क्षीरसागरके मध्यभागमें स्थित एक पर्वत, जहाँ ८९)। गुरु-दक्षिणाके लिये उत्तङ्कके आग्रह करनेपर उन्हें
अध्यात्मगतिका चिन्तन करनेके लिये ब्रह्माजी प्रतिदिन गुरुपत्नीके पास गुरुदक्षिणाकी वस्तु पूछनेके लिये भेजना आते हैं (शान्ति० १५० । ९-१०)। (आदि० ३ । ९०-९४) । (२) भारतीय आर्योके सर्वप्रधान और सर्वमान्य धार्मिक ग्रन्थ, जो अप्रतिम
वैजयन्ती-(१) ऐरावतके दो घण्टोका नाम, जिन्हें इन्द्रने
स्कन्दको अर्पण किया था। उनमेंसे एक विशाखने ले शानके भंडार हैं। इनकी संख्या चार है— ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद । ये सभी मूर्तिमान हो
लिया और दूसरा स्कन्दके पास रहा (वन. २३१ । ब्रह्माजीकी सभामें उपस्थित रहते हैं (सभा० ।।।३२)।
१८-१९)। वेदवती-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारत
वैदर्यपर्वत-शूर्पारक क्षेत्रमें गोकर्णतीर्थके पास स्थित एक वासी पाते हैं (भीष्म ९ । १७)।
पर्वत, जो शिवस्वरूप माना जाता है। इसीपर अगस्त्यजीका
आश्रम है । वैदूर्यपर्वतका दर्शन करके नर्मदामें उतरनेसे वेदशिरा-एक प्राचीन ऋषि, जो उपरिचरवसुके यज्ञमें
मनुष्य देवताओं तथा पुण्यात्मा राजाओंके समान पवित्र सदस्य बने थे (शान्ति. ३१६।८)।
लोकोंको प्राप्त करता है। यह पर्वत त्रेता और द्वापरकी वेवस्मृता-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके
संधिमें प्रकट हुआ था (वन. ८८।१८ बन. निवासी पीते हैं (भीष्म. ९।१७)।
१२१ । १९-२०)। वेदावा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल भारत- वैतरणी-(१) भागीरथी गङ्गा ही जब पितृलोकमें बहती वासी पीते हैं ( भीष्म० ९।२०)।
हैं, तब उनका नाम वैतरणी होता है। वहाँ पापियोंके वेदी-ब्रह्माकी भार्या ( उद्योग० ११७।१०)। लिये इनके पार जाना अत्यन्त कठिन होता है (आदि. वेदीतीर्थ-(१) कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, १६९ । २२) । (२) एक नदी, जो वरुणकी सभामें जिसमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है रहकर उनकी उपासना करती है (सभा० ९।२०)। (वन०८३ । ९९) । (२) एक परम दुर्गम तीर्थ, यह सब पापोको छुड़ानेवाली है, इसमें विरजतीर्थमें स्नान (जो सम्भवतः सिन्धुके उद्गमस्थानके निकट है।) करनेसे मनुष्य चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है (वन. यहाँकी यात्रा करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता ८५।६)। यह भारतकी उन प्रसिद्ध नदियोंमेंसे है, और स्वर्गलोकमें जाता है(बन.८४७)। जिसका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म. १।३४)।
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बैताली
( ३२९ )
व्याघ्राक्ष
बैताली-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५। ६७)। यह चैत्रके बाद और ज्येष्ठके पहले आता है। ) जो स्त्री वैदर्भी-राजा सगरकी एक पत्नी, जिनसे साठ हजार पुत्रोंकी या पुरुष इन्द्रिय-संयमपूर्वक एक समय भोजन करके उत्पत्ति हुई थी (वन० १०६ । १७-२३)। ..
वैशाख मासको बिताता है, वह सजातीय बन्धु-बान्धर्वोमें वैदेह-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ५ । ५७)। (विशेष
श्रेष्ठताको प्राप्त होता है ( अनु० १०६ । २४ ) । वैशाख देखिये विदेह )।
मासकी द्वादशी तिथिको उपवासपूर्वक भगवान् मधुसूदन
का पूजन करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता वैनतेय-गरुड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग
और सोमलोकमें जाता है (अनु०१०९ । ८)। १.१।०)। वैमानिक-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य अप्सराओं- वैशालाक्ष-ब्रह्माका नीति-शास्त्र, जो विशालाक्ष भगवान् के दिव्य लोकमें जाता है और इच्छानुसार विचरता है शिवद्वारा संक्षिप्त किये जानेके कारण वैशालाक्ष कहलाता (अनु० २५।२३)।
है (शान्ति० ५९ । ८२)। वैमित्रा-सात शिशुमाताओंमेंसे एक । शेष छाके नाम हैं- वैश्रवण-कुबेका एक नाम ( आदि० १९८ । ६)। काकी, हलिमा, मालिनी, बृहता, आर्या और पलाला (दाखय कुबर ) (वन० २२८ । १०)।
वैश्वानर-(१) एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभामें विराजमान बैराज-सात पितरों में से एक । शेष छःके नाम हैं--
होते हैं (सभा० ७ । १८)। (२) भानु (मनु) अग्निष्वात्त, सोमपा, गाई पत्य, एकशृङ्ग, चतुर्वेद और नामक अग्निके प्रथम पुत्र । चातुर्मास्य यज्ञोंमें हविष्यद्वारा कल । ये ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते
पर्जन्यसहित इनकी पूजा की जाती है (वन०२२११६) हैं (सभा० ३१ । ४६)।
वैष्णवधर्मपर्व-आश्वमेधिकपर्वका एक अवान्तर पर्व, जो वैराट-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक, जो भीमसेनद्वारा मारा
दाक्षिणात्य पाठसे लिया गया है (अध्याय ९२ दाक्षिणात्य गया था (भीष्म० ९६ । २६)।
पाठ, पृष्ठ ६३०७ से ६३७८ तक)। वैराम-एक प्राचीन जातिका नाम, इस जातिके लोग नाना बहायस-नर-नारायणाश्रमके समीपवर्ती एक कुण्ड (शान्ति. प्रकारके रत्न और भाँति-भाँतिकी भेंट-सामग्री लेकर १२७ । ३)। युधिष्ठिरके राजसूय यशमें आये थे (सभा०५३ । १२)। व्यश्व-एक राजा, जो यम-सभामें रहकर वैवस्वत यमकी वैवखत तीर्थ-एक पुण्यमय तीर्थ, यहाँ स्नान करनेसे उपासना करते हैं (सभा० ८ । १२)।
मनुष्य स्वयं तीर्थरूप हो जाता है (अनु० २५ । ३९)। व्याघ्रकेतु-पाण्डवपक्षका एक पाञ्चाल योद्धा, जो कर्णद्वारा वैवस्वत मनु-चौदह मनुओंमें ये सातवें मनु हैं ( आदि. घायल किया गया था (कर्ण० ५६ । ४४-४८) । ७५ । १)। (विशेष देखिये मनु)।
व्याघ्रदत्त-(१)पाण्डवपक्षका एक राजा, जिसकी गणना वैवाहिकपर्व-( १ ) आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व श्रेष्ठ रथिोंमें की गयी थी ( उद्योग० १७१।१९)। (अध्याय १९२ से १९८ तक)। (२) विराटपर्वका द्रोणाचार्यके साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा वध एक अवान्तर पर्व (अध्याय ७० से ७२ तक)। (द्रोण. १६। ३२-३७)। इसके घोड़ोंकी चर्चावैशम्पायन-महर्षि वेदव्यासके शिष्य, जिन्होंने महाराज
गदहेके समान मलिन और अरुण वर्णवाले तथा पृष्ठ जनमेजयको महाभारतकी कथा सुनायी थी (आदि.
भागमें चूहेके समान श्याम-मलिन कान्तिवाले विनीत
घोड़े व्याघ्रदत्तको युद्ध-मैदानमें ले गये थे (द्रोण० २३। १।२०-२१, ९८) । जनमेजयको महाभारतकी कथा
५४)। विकर्णद्वारा इसके मारे जानेकी चर्चा (कर्ण. सुनाने के लिये इनको गुरुदेव व्यासकी प्रेरणा प्राप्त होना (आदि०६० । २२)। इनके द्वारा महाभारत ग्रन्थकी
६ । १६-१७)। (२) मगध देशका एक राजकुमार,
जो कौरवपक्षका योद्धा था। इसका सात्यकिके साथ युद्ध महिमाका विस्तारपूर्वक वर्णन ( आदि० ६२ ।
(द्रोण. १०६ । १४)। सात्यकिके साथ संग्राम करते १२--५३)।ये अज्ञानवश किसी समय ब्राह्मणका वध करने के कारण बालवधके पापसे लिप्त हो गये थे तो भी
हुए इसका उनके द्वारा वध (द्रोण.१०७।३१-३३)। स्वर्ग चले गये ( अनु० ६ । ३७)।
व्याघ्रपाद-एक प्राचीन ऋषि, जो उपमन्युके पिता थे वैशाख-( बारह महीनोंमेंसे एक, जिस मासकी पूर्णिमाको (अनु.१४ । ४५)। विशाखा नक्षत्रका योग होता है, उसे वैशाख कहते हैं। व्याघ्राक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ५९) ।
म. ना. ४२
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व्यास
(३३. )
न्यास
व्यास-एक महर्षि, जिनको नमस्कार कर लेनेके पश्चात्
जय ( महाभारत एवं इतिहास-पुराण आदि) के पाठका विधान है। इन्हें कृष्णद्वैपायन कहते हैं (आदि०१मालाचरण ) । राजर्षि जनमेजयके सर्पसत्रमें वैशम्पायनद्वारा श्रीकृष्णद्वैपायनकथित महाभारतकी विचित्र, विविध एवं पुण्य- मयी कथाएँ सुनायी गयी थीं (आदि० ३।९-१)। इनकी बनायी हुई महाभारतसंहिता सब शास्त्रोंके अभिप्रायके अनुकूल वेदार्थोंसे भूषित तथा चारों वेदोंके भावोंसे संयुक्त है (आदि०१।१७-२१)। हिमालयकी पवित्र तलहटीमें पर्वतीय गुफाके भीतर स्नान आदिसे पवित्र हो कुशासनपर *ठकर ध्यानगेगमें स्थित हो इन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत इतिहासके स्वरूपका विचार करते हुए ज्ञानदृष्टिद्वारा आदिसे अन्ततक सब कुछ प्रत्यक्षकी भाँति देखा (आदि०१।२८ के बाद दा. पाठ, २९-१९)। इन्होंने तपस्या एवं ब्रह्मचर्यकी शक्ति से सनातन वेदका विस्तार करके लोकपावन पवित्र इतिहासकी रचना की (आदि. १।५४)। ये पराशर मुनिके पुत्र और द्वैपायन नामसे प्रसिद्ध हैं । उत्तम प्रतधारी, निग्रहानुग्रहममर्थ एवं सर्वज्ञ। इन्होंने महाभारतकी रचना करके यह विचार किया कि अब मै शिष्यों को इस अन्धका अध्ययन कैसे कराऊँ। इनके इस विचारको जानकर लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा लोककल्याणकी कामनासे स्वयं इनके आश्रमपर पधारे । इन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके उन्हें श्रेष्ठ आसनपर बैठाया। उनकी परिक्रमा की और उनके आसनके पास ही ये हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर ब्रह्माजीकी आशासे बैठकर प्रसन्नतापूर्वक बोले--- भगवन् ! मैंने एक महाकाव्यकी रचना की है । इसमें सम्पूर्णवेदोंका गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रोका सार संकलित हुआ है। परंतु इसके लिये कोई लेखक नहीं मिलता ।' ब्रह्माजीने इनके काव्यकी प्रशंसा करके इन्हें गणेश-स्मरणकी आशा दी और स्वयं अपने धामको चले गये (आदि. १।। ५५-७४ )। इन्होंने गणेशजीका स्मरण किया और वे आ गये । व्यासजीने उनसे लेखक बननेकी प्रार्थना की। उन्होंने कहा, 'यदि लिखते समय मेरी लेखनी क्षणभर भी न सके तो मैं लेखक हो सकता हूँ।' व्यासजीने कहा- ऐसा ही होगा; किंतु आप भी बिना समझे एक अक्षर भी न लिखें। कहते हैं, इन्होंने महाभारतमें आठ हजार आठ सौ पलोक ऐसे रचे हैं, जिनका अर्थ ये तथा शुकदेवजी ही ठीक-ठीक समझते हैं । गणेशजी सर्वज्ञ होनेपर भी जब क्षणभर ऐसे श्लोकोंपर विचार करने लगते तबतक व्यासजी और भी बहुत-से श्लोकोकी रचना कर डालते थे (आदि । ७५-८३)। इन्होंने माता सत्यवती तथा परम ज्ञानी गनापुत्र भीष्मकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नियोंके गर्भसे तीन अग्नियोंके समान तीन तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम
थे-धृतराष्ट्रपाण्नु और विदुर । इन सबके परलोकवासी हो जानेके बाद व्यासजीने मनुष्यलोक में महाभारतका प्रवचन किया। जनमेजय तथा सहस्रो ब्राह्मणों के प्रश्न करनेपर उन्होंने अपने शिष्य वैशम्पायनको आशा दी थी कि तुम इन्हें महा- - भारतकी कथा सुनाओ (आदि० १ । ८४-९९)। इन्होंने उपाख्यानोसहित जो आद्यभारत या महाभारत बनाया था। वह एक लाख श्लोकोंका है। फिर इन्होंने उपाख्यानभागको छोड़कर चौबीस हजार श्लोकोंकी एक संहिता बनायी, जिसे विद्वान् पुरुष भारत' कहते हैं। इन्होंने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेवको महाभारत ग्रन्धका अध्ययन कराया । फिर दूसरे-दूसरे सुयोग्य शिष्योंको इसका उपदेश दिया । तत्पश्चात् भगवान् व्यासने साठ लाख श्लोकोंकी दूसरी संहिता बनायी। उसके तीस लाख लोक देवलोकमें समादृत हो रहे हैं । पितृलोकमें पंद्रह लाख तथा गन्धर्वलोकमें चौदह लाख लोकोंका पाट होता है। शेष रहे एक लाख श्लोक | उन्हींको आद्य भारत या महाभारत कहते हैं। मनुष्यलोकर्मे ये ही प्रतिष्ठित हैं। देवताओंको देवर्षि नारदने, पितरोंको असित देवलने, गन्धर्वोको शुकदेवजीने और मनुष्योंको वैशम्पायनजीने महाभारतसंहिता सुनायी थी ( आदि०१।१०१-१०१)। पुत्र और शिष्योसहित भगवान् वेदव्यास जनमेजयके सर्पयशमें सदस्य बने थे ( आदि० ५३ । ७-१०)। आस्तीकने जनमेजयके यज्ञको सत्यवतीनन्दन व्यासके यशके समान बताया (आदि० ५५ । )। यज्ञकर्मसे अवकाश मिलनेपर व्यासदेवजी अति विचित्र महाभारतकी कथा सुनाया करते थे ( आदि. १९ । ५)। इन्हें 'सत्यवती' अथवा 'काली'ने कन्यावस्थामें ही पराशर मुनिसे यमुनाजीके द्वीपमें उत्पन्न किया था। ये पाण्डवोंके पितामह थे । इन्होंने जन्म लेते ही अपनी इच्छासे शरीरको बढ़ा लिया था। इनको स्वतः ही अङ्गों और इतिहासोसहित सम्पूर्ण वेदोका तथा परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त हो गया था। ये वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं । इन्होंने एक ही वेदको चार भागोंमें विभक्त किया है । ब्रह्मर्षि व्यासजी परब्रह्म और अपरब्रह्मके ज्ञाता, कवि (त्रिकालदर्शी), सत्यव्रतपरायण तथा परम पवित्र हैं। इन्होंने ही शान्तनुकी संतानपरम्पराका विस्तार करनेके लिये धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुरको जन्म दिया था। ये जनमेजयके यज्ञमण्डपमें पधारे। राजा जनमेजयने सेवकों सहित उठकर इनकी अगवानी की। इन्हें सोनेके सिंहासनपर बिठाकर इनका पूजन किया और कुशलप्रश्न के पश्चात् इनसे महाभारत-युद्धका वृत्तान्त पूछा । तब इन्होंने अपने पास बैठे हुए शिष्य वैशम्पायनको वह सारा प्रसंग सुनानेकी आज्ञा दी (आदि०६०।१-२२)। वैशम्पायनने गुरुदेव ब्यासको नमस्कार करके कथा प्रारम्भ की
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व्यास
( ३३१ )
व्यास
-
( आदि०६१ । १-२ ) । व्यासजीके कहे हुए इस पश्चम वेदरूप महाभारतको कार्णवेद' कहते हैं। जो इसका श्रवण कराता है, उसे अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति होती है। यह जय नामक इतिहास है । इसकी महिमाका विस्तृत वर्णन ( आदि० ६२ । १८-४१)। मुनिवर व्यास प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर स्नान-संध्या आदिसे शुद्ध हो महाभारतकी रचना करते थे । इन्होंने तपस्या और नियमका आश्रय ले तीन वर्षोंमें इस ग्रन्थको पूरा किया था ( आदि. ६२ । ४१-४२)। माता सत्यवतीने पराशर जीके संयोगसे तत्काल ही यमुनाके दीपमें इनको जन्म दिया था। इसीलिये ये पाराशर्य और द्वैपायन कहलाये । इन्होंने मातासे आशा लेकर तपस्यामें ही मन लगाया और मातासे कहा, आवश्यकता पड़नेपर तुम मेरा स्मरण करना, मैं अवश्य दर्शन दूंगा ( भादि. १३ । ८४-८५)। वेदोंका व्यास (विस्तार) करनेके कारण ये बेदण्यास नामसे विख्यात हुए ( आदि. ६३४८८)। इनोंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और पञ्चम वेद महाभारतका अध्ययन सुमन्तु, जैमिनि, पैल, शुकदेव तथा वैशम्पायनको कराया ( आदि. ६३ । ८९-९.)। इनके द्वारा अम्बिका और अम्बालिकाके गर्भसे राजा धृतराष्ट्र और महाबली पाण्डुका जन्म हुआ और इन्हीसे ही शूद्रजातीय स्त्रीके गर्भसे विदुरजी उत्पन्न दुए; जो धर्म-अर्थके ज्ञानमें निपुण, बुद्धिमान, मेधावी और निष्पाप थे ( भादि० ६३ । ११३-१४)। सत्यवतीद्वारा व्यासका आवाइन और व्यासजीका माताकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नियोंके गर्भसे संतानोत्पादन । करनेकी स्वीकृति देना (आदि०१०४।२४-१९)। इनके द्वारा विचित्रवीर्यके क्षेत्रसे धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुरकी उत्पत्ति तथा माताके पूछनेपर इनका उन पुत्रोंके भाषी गुणों और लक्षणों का वर्णन (भादि० १०५ भवाब)। इनका गान्धारीको सौ पुत्र होनेका वरदान देना ( भादि. १४.)। इनके द्वारा गान्धारीके लिये उसके गर्भसे गिरे हुए मांसपिण्डसे सौ पुत्र होनेकी व्यवस्था (आदि. ११४ । १७-२४ )। इनका मांसपिण्डके एक सौ एक भागसे गान्धारीके लिये एक पुत्री होनेका आश्वासन देना और उसे भी घृतपूर्ण घटमें स्थापित करना ( भादि. ११५ । १५-10)। वनमें व्यासजीका कुन्तीसहित पाण्डवोंको दर्शन और आश्वासन देना (आदि. १५५।५-१९)। इनका पाण्डवोंको पुनः दर्शन देकर द्रौपदीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनाना और उसके इन सबकी पत्नी होनेकी बात बताकर इन्हें पाचाडकी राजधानीमें जाने के लिये आदेश देना (मादि. १६८ अध्याष )। जिसे देवलोक-
में अलकनन्दा कहते हैं, वही इस लोकमें आकर गङ्गा नाम धारण करती है-यह कृष्णद्वैपायनका मत है ( आदि० १६९ । २२)। द्रुपदकी राजधानीकी ओर जाते हुए पाण्डवोंसे मार्गमें इनकी भेंट और परस्पर स्वागतसत्कार के बाद वार्तालाप ( आदि. १८४ । २.३)। व्यासजीके समक्ष द्रौपदीका पाँच पुरुषोंसे विवाह होनेके विषयमें द्रुपद, धृष्टद्युम्न और युधिष्ठिरका अपने-अपने विचार व्यक्त करना तथा असत्यसे डरी हुई कुन्तीको इनका आश्वासन देना (आदि. १९५ अध्याय)। इनका द्रुपदको पाण्डवों तथा द्रौपदीके पूर्वजन्मकी कथा सुनाकर उन्हें दिव्य दृष्टि देना (आदि०१९६ । १-३८)। द्रौपदी स्वर्गकी लक्ष्मी है और पाँचों पाण्डवोंकी पत्नी नियत की गयी है--इस बातका द्रुपदको निश्चय कराना (भादि. १९६ । ५१-५३) । श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते थे (सभा० ४ । ११)। इनका अर्जुनको उत्तर, भीमसेनको पूर्व सहदेवको दक्षिण और नकुलको पश्चिम दिशामें दिग्विजयके लिये जानेका आदेश (सभा. २५ । के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७४२)। इनका युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें ब्रह्माका कार्य सँभालना (सभा०३३ । ३४)। राजसूय यशके अन्तमें युधिष्ठिरके प्रति भविष्यवाणी सुनाना (सभा०४६ । १-१७)। इन्होंने राजसूय यज्ञके अन्तम युधिष्टिरका अभिषेक किया (सभा० ५३ । १.)। इनका धृतराष्ट्रसे दुर्योधनके अन्यायको रोकनेके लिये अनुरोध ( बन०
२३ से वन० ८ अध्यायतक)। इनके द्वारा सुरभि और इन्द्र के उपाख्यानका वर्णन तथा पाण्डवोंके प्रति दया दिखाना ( बन० ९ अध्याय)। धृतराष्ट्रको मैत्रेयके आगमनकी सूचना देकर इनका प्रस्थान (वन. १०।४-4)। इनका दैतवनमें पाण्डवोंके पास जाना
और युधिष्ठिरको प्रतिस्मृति विद्याका दान करना (म. ३६। २४-१८)। कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक मिभकतीर्थ है, जहाँ महात्मा ब्यासने दिजोंके लिये सभी तीर्थोंका सम्मिश्रण किया है। आगे चलकर व्यासवन है
और इससे भी आगे व्यासस्थली नामक एक स्थान है, जहाँ बुद्धिमान् व्यासने पुत्रशोकसे संतप्त हो शरीर त्याग देने का विचार किया था ( वन० ८३ । ९१-९७)। पाण्डवोसे दान-धर्मके प्रतिपादनके प्रसंगमें मुद्गल ऋषिकी कथा सुनाना (वन० अध्याय २६० से २६१ तक)। धृतराष्ट्रसे श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महिमा बताने के लिये संजयको आदेश (उद्योग०६७।१०)। इनकाधृतराष्ट्रको समझाना(उद्योग०६९।११-१५)। इनके द्वारा संजयको दिव्य-रधि-बान (भीष्म० २..)। पतराष्ट्रसे भयंकर उत्पातौका वर्णन करना (भीम० २।१६ से भीष्म०।।
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व्यास
( ३३२ )
व्यास
% 3D
४५ तक ) । विजयसूचक लक्षणोका वर्णन करना (भीष्म०३ । ६५-८५)। इनका युधिष्ठिरको मृत्युकी अनिवार्यता बताना (द्रोण. ५२।११)। युधिष्ठिरको नारद-अकम्पन-संवाद सुनाना (द्रोण० ५२ । २० से ५४ अध्यायतक)। षोडशराजकीयोपाख्यान प्रारम्भ करना (द्रोण. अध्याय ५५ से द्रोण. ७१ । २२ तक)। युधिष्ठिरका शोक-निवारण करके अन्तर्धान होना (द्रोण. ७१ । २३)। घटोत्कच-वधसे दुखी युधिष्ठिरको समझाना (द्रोण. १८३ । ५४-६७)। अश्वत्थामासे शिव और श्रीकृष्णकी महिमा बताना (द्रोण० २०१।५६- ९६ ) । अर्जुनसे भगवान् शिवकी महिमा बताना (द्रोण. २०२ अध्याय)। वधके लिये उद्यत सात्यकिके
थसे संजयको मुक्त कराना (शल्य. २९ । ३९)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रको सान्त्वना (शल्व०६३ । ७७)। अर्जुन और अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रको शान्त करनेके लिये इनका प्रकट होना (सौप्तिक० १४।११)। अश्व- स्थामासे अपनी मणि देकर शान्त हो जानेके लिये कहना ( सौप्तिक०१५। १९-२०) । श्रीकृष्णद्वारा अश्व- स्थामाको दिये गये शापका समर्थन करना ( सौप्तिक. १६ । १७-१८)। शोकसे मूच्छित धृतराष्ट्रको समझाना (स्त्री० ८।१३-४९)। पाण्डवोंको शाप देनेके लिये उद्यत गान्धारीको समझाना (स्त्री० १४।७-१३)। युद्धके पश्चात् युधिष्ठिरके पास आना (शान्ति । ४)। युधिष्ठिरसे शङ्ख और लिखितका चरित्र सुनाते हुए सुद्युम्नके राजदण्डकी महत्ताका प्रतिपादन करना (शान्ति. २३ अध्याय)। राजा हयग्रीवका चरित्र सुनाते हुए युधिष्ठिरको राजोचित कर्तव्य-पालनके लिये। समझाना (शान्ति. २४ अध्याय)। राजा सेनजित्के उदारोंका उल्लेख करते हुए युधिष्ठिरको आश्वासन देना (शान्ति० २५ अध्याय)। शरीर त्यागनेके लिये उद्यत युधिष्ठिरको रोककर समझाना (शान्ति. २७ । २८३३)। अश्मा मुनि और जनकके संवादरूपमें प्रारब्धकी प्रबलता बतलाकर युधिष्ठिरको समझाना-बुझाना (शान्ति. २८ अध्याय)। अनेक युक्तियोदारा युधिष्ठिरको समझाना (शान्ति० ३२ अध्याय) । कालकी प्रबलता बताकर देवासुर-संग्रामके उदाहरणसे युधिष्ठिरको प्रायश्चित्त करनेकी आवश्यकता बताना ( शान्ति. ३३ । १४-१८)। युधिष्ठिरसे प्रायश्चित्तका वर्णन करना (शान्ति. अध्याय ३५ से ३५ तक)। स्वायम्भुव मनुद्वारा कथित धर्मका उपदेश करना (शान्ति० ३६ अध्याय) । युधिष्ठिरको भीष्मके पास चलनेके लिये कहना (शान्ति. ३७ । ६-१)। शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखनेके लिये इनका पदार्पण करना (शान्ति.१५५)।
व्यासजीका अपने पुत्र शुकदेवको कालका खरूप बताना (शान्ति०२३१ । ११-३२)। शुकदेवको सृष्टिक्रम तथा युगधर्मका उपदेश देना (शान्ति. २३२ अध्याय)। इनका ब्राह्मप्रलय और महाप्रलयका वर्णन करना (शान्ति. २३३ अध्याय)। ब्राह्मणों के कर्तव्य और दानकी प्रशंसा करना (शान्ति० २३४ अध्याय)। सर्ग, काल, धारणा, वेद, कर्ता, कार्य और क्रियाफलके विषयमें इनका शुकदेवको उपदेश करना (शान्ति अध्याय २३५ से ३३९ तक )। शुकदेवको मोक्ष-धर्मविषयक विभिन्न प्रश्नोंका उत्तर देना (शान्ति० अध्याय २४० से २५५ तक)। अपने पुत्र शुकदेवको वैराग्य और धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए चेतावनी देना (शान्ति. ३२१ । ४--- ९३)। इनकी पुत्र प्राप्तिके लिये तपस्या और शङ्करजीसे वर-प्राप्ति (शान्ति० ३२३ । १२-२९) । घृताची अप्सराके दर्शनसे मोहित होनेके कारण अरणी-काष्ठपर इनके वीर्यका पतन और उससे शुकदेवजीकी उत्पत्ति (शान्ति० ३२४।४-१०)। शुकदेवको जनकके पास भेजना (शान्ति. ३२५ । ६-१)। शियोको वरदान देना (शान्ति० ३२७ । ३७-५२)। नारदजीके पूछनेपर अपनी उदासीका कारण बताना (शान्ति. ३२८ । १६-१९) । शुकदेवको अनध्यायका कारण बताते हुए प्रवह आदि सात वायुओंका परिचय देना (शान्ति० ३२८ । २८--५७)। पुत्र-मोहवश शुकदेवजीको जानेसे रोकना (शान्ति. ३३३ । ६३)। पुत्रविरहजनित शोकसे व्यासजीकी व्याकुलता (शामित. ३३३ । १९--.)। व्यासजीका अपने शिष्योंको ब्रह्मादि देवताओंको दिये गये नारायणके उपदेशको सुनाना (शान्ति० ३४० । ९०-११०)। नारदके मुखसे इन्हें सात्वतधर्मकी उपलब्धि और इनके द्वारा धर्मराज युधिष्ठिरको इस धर्मका उपदेश (शान्ति० ३४८ । ६५६५)। सरस्वतीपुत्र अपान्तरतमाके रूपमें इनकी उत्पत्ति
और महिमा ( शान्ति. ३४९ । ३९---५८ )। युधिष्ठिरसे शिवमहिमाके विषयमें इनका अपना अनुभव बताना (अनु०१८ । १-३): भीष्मजीके समक्ष इनके द्वारा ब्रह्महत्याके समान पापोंका निरूपण (भनु० २४ । ५--१२)। व्यासजीका शुकदेवसे गौओंकी, गोलोककी
और गोदानकी महिमाका वर्णन ( अनु० ८१ । १२४६)। एक कीटको क्रमशः ब्राह्मणत्व प्राप्त कराकर उसका उद्धार करना (अनु० अध्याय ११७ से ११९ तक)। मैत्रेयके प्रश्नोंके उत्तरमें उनके साथ व्यासजीका संवाद (अनु० अध्याय १२० से १२२ तक)। भीष्मसे युधिष्ठिरको इस्तिनापुर जानेकी आशा देनेको कहना (अनु. १६६ । ६-७)। इनका शोकाकुल युधिष्ठिरको समझाना (भाव.
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व्यास
( ३३३ )
व्रजन
२।१५-२०)। युधिष्ठिरको अश्वमेधयज्ञ करने की सलाह दैपायन, द्वैपायन, सत्यवतीसुत, सत्यवत्यात्मज, पाराशर्य, देना (आश्व. ३।८-१०)। व्यासजीका युधिष्ठिरको पराशरात्मज, वादरायण, वेदव्यास आदि । धन-प्राप्तिका उपाय बताना (आश्व० ३।२०-२१)। व्यासवन-करुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक वन, जहाँ मनोयुधिष्ठिरको मरुत्तका वृत्तान्त सुनाना ( आश्व० अध्याय जव तीर्थमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता १ से १० तक)। पतिशोकसे दुखी उत्तराको आश्वासन है (वन० ८३ । ९३)। देना (भाश्व० ६२ । ११-१२) । पुत्रशोकसे दुखी
व्यासस्थली-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक प्राचीन तीर्थ, अर्जुनको समझाना ( आश्व० ६२ । १४-१७)।
जहाँ व्यासने पुत्रशोकसे संतप्त हो शरीर त्याग देनेका युधिष्ठिरको अश्वमेध यज्ञकी आज्ञा देकर अन्तर्धान होना
विचार कर लिया था। उस समय उन्हें देवताओंने पुनः (आश्व० ६२।२०)। इनका अर्जुनको अश्वमेधीय
उठाया था । इस स्थलमें जानेसे सहस्र गोदानका फल अश्वकी रक्षाके लिये, भीमसेन और नकुलको राज्य-पालन
मिलता है (वन० ८३ । ९६-९८)। के लिये तथा सहदेवको कुटुम्बसम्बन्धी कार्योंकी देखरेखके लिये नियुक्त करना (आश्व०७२।१४-२०)। व्युषिताश्व-एक पूरुवंशी धर्मात्मा नरेश (आदि. १२.। इनके द्वारा शास्त्रीय विधिके अनुसार अश्वमेधीय अश्वका
.)। इनके द्वारा विविध यज्ञोंका अनुष्ठान (आदि. उत्सर्ग (आश्व० ७३ । ३)। युधिष्ठिरद्वारा इनको
१२०।८--१६)। राजा कक्षीवान्की पुत्री भद्रा इनकी समस्त पृथ्वीका दान तथा इनके द्वारा पृथ्वीको उन्हें लौटा
प्यारी पत्नी थी, जो अपने समयकी अप्रतिम सुन्दरी थी।
उसके प्रति अत्यधिक कामासक्त हो जानेके कारण यक्ष्मासे कर उसके निष्क्रयरूपसे ब्राह्मणों के लिये सुवर्ण देनेका आदेश (आश्व० ८९ । ८-१८)। इनके समझानेसे
इनकी असामयिक मृत्यु हो गयी (आदि० १२०।१४युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको वनमें जानेके लिये अनुमति देना
१९)। भद्राके विलाप करनेपर आकाशवाणीद्वारा इनका (आश्रम १ अध्याय)। इनका वनमें धृतराष्ट्र के पास उसे आश्वासन देना तथा इनके शवद्वारा उसके गर्भसे सात आना और उनका कुशल-समाचार पूछते हुए विदुर और पुत्राका उत्पात्त (आदि० १२० । ३३-३६)। युधिष्ठिरकी धर्मरूपताका प्रतिपादन करके उनसे अभीष्ट व्यूक-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६१)। वस्तु मांगनेके लिये कहना (आश्रम० २८ अध्याय)। व्यढोरु (व्यढोरस्क)-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक इनका अपना तपोबल दिखानेके लिये कहकर धृतराष्ट्रको (आदि०६७ । १०५, आदि. ११६ । १४)। भीमसेनमनोवाञ्छित वर माँगनेके लिये आज्ञा देना तथा गान्धारी द्वारा इसका वध ( भीष्म० ९६ । २३)। और कुन्तीका इनसे अपने मरे हुए पुत्रों एवं सम्बन्धियों के
व्यूह-युद्ध के समय चतुरङ्गिणी सेनाके विभिन्न अङ्गोंको दर्शन कराने का अनुरोध करना (आश्रम०२९अध्याय)।
संगठित करके विशेष प्रकारसे खड़ी करनेकी रीतिको व्यूह कुन्तीका इन्हें कर्णके जन्मका गुप्त रहस्य बताना और
कहते हैं । दूसरे शब्दमें यही मोर्चाबंदी है । महाभारतव्यासजीका उन्हें सान्त्वना देना (आश्रम०३८ अध्याय)।
कालमें अनेक प्रकारकी व्यूह रचना होती थी। महाभारतइनके द्वारा धृतराष्ट्र आदिके पूर्वजन्मका परिचय तथा
में वर्णित कुछ व्यूहोंके नाम इस प्रकार हैं-अद्धचन्द्र इनकी आज्ञासे सबका गङ्गातटपर जाना (भाश्रम० ३१
व्यूह (भीष्म अध्याय ५६)। क्रौञ्चव्यूह (भीष्म. अध्याय )। इनके प्रभावसे कुरुक्षेत्रमें मारे गये कौरव
अध्याय ५०)। गरुड़न्यूह (भीष्म अध्याय ५६)। पाण्डव वीरोंका गङ्गाके जलसे प्रकट होना ( आश्रम० ३२
चक्रव्यूह (द्रोण अध्याय ३४)। मकरव्यूह (भीष्मक अध्याय)। इनका आज्ञासे विधवा क्षत्राणियोंका गङ्गाजीमें
अध्याय ६१)। मण्डलव्यूह ( भीष्म अध्याय ८१)। गोता लगाकर अपने-अपने पतिके लोकको प्राप्त करना
मण्डलार्द्धव्यूह (द्रोण अध्याय २०)। वज्रव्यूह (भीष्म. (आश्रम ३३ । १८-२२)। इनकी कृपासे जनमेजय
अध्याय ८१)। शकटव्यूह (द्रोण. अध्याय ७)। को अपने पिताका दर्शन प्राप्त होना (श्राश्रम०३५। ४-११)। इनका धृतराष्ट्रको पाण्डवोंको विदा करनेके
श्येनव्यूह (भीष्म० अध्याय ६९)। सर्वतोभद्र (भीष्म लिये आदेश देना (आश्रम ३६ । ५-१२)।
अध्याय ९९)। सुपर्णव्यूह (द्रोण अध्याय २०)।
सूचीमुखव्यूह (भीष्म अध्याय ७७ )। यदुकुल-संहारके पश्चात् अर्जुनका इनके आश्रमपर आना। और उनके साथ इनका वार्तालाप ( मौसल. ८ व्योमारि-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३५)। अध्याय)। व्यासनिर्मित महाभारतके श्रवण एवं पठनकी वजन-सम्राट अजमीढ़के द्वारा केशिनीके गर्भसे उत्पन्न महिमा (स्वर्गा० ५ । ३५-६८)।
तीन पुत्रोमंसे एक । शेष दोके नाम हैं—जह और महाभारतमें भाये हुए व्यासजीके नाम-कृष्ण, कृष्ण- रूपिण (भादि० ९४ । ३१-३२)।
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द्रौणिकपर्व
व्रीहिद्रौणिकपर्व - वनपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय २५९ से २६१ तक ) ।
( ३३४ )
( श )
शंयु-ये बृहस्पति के प्रथम पुत्र हैं । इनके लिये प्रधान आहुतियोंके देते समय सर्वप्रथम घीकी आहुति दी जाती है । चातुर्मास्यसम्बन्धी यज्ञोंमें तथा अश्वमेध यज्ञमें इनका पूजन होता है । ये सर्वप्रथम उत्पन्न होनेवाले और सर्वसमर्थ हैं तथा अनेक वर्णकी ज्वालाओंसे प्रज्वलित होते हैं। इनकी पत्नीका नाम सत्या था । वह धर्मकी पुत्री थी। उसके गर्भ से इनके द्वारा एक अग्निस्वरूप पुत्र तथा उत्तम व्रतका पालन करनेवाळी तीन कन्याएँ हुई बन० २१९ । २-४ ) ।
शक- एक भारतीय जनपद और जाति । शक जातिके लोग वशिष्ठकी नन्दिनी गायके थनसे प्रकट हुए ( आदि० १७४ । ३६ ) | भीमसेनने पूर्व-दिग्विजय के समय शर्कोको परास्त किया था ( सभा० ३० । १४ ) | नकुलने भी इनपर विजय पायी थी ( सभा० ३२ । १७ ) । शंक देश और जातिके राजा राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरके लिये भेंट लाये थे सभा० ५१ । ३२ ) । कलियुगमें शक आदि जातियोंके लोगोंके राजा होनेका उल्लेख ( वन० १८८ । ३५ । शक देशके राजाके पास पाण्डवोंकी ओरसे रण-निमन्त्रण भेजनेका विचार किया गया था ( उद्योग० ४ । १५ ) | ये काम्बोजराज सुदक्षिण के साथ दुर्योधन की सेना में सम्मिलित हुए थे ( उद्योग० १९ । २१ ) । शक एक भारतीय जनपदका नाम है ( भीष्म ० ९ । ५१ ) । भगवान् श्रीकृष्णने शक देशपर विजय पायी थी ( द्रोण० ११ । १८ ) । सात्यकिने बहुतसे शक सैनिकों का संहार किया था ( द्रोण० ११९ । ४५, ५३) । कर्णने भी शक देशको जीता था ( कर्ण० ८ । १८ ) । शक पहले क्षत्रिय थे, परंतु ब्राह्मणोंके दर्शन से चित होने के कारण ( अपने धर्म-कर्मसे भ्रष्ट हो ) शूद्र भावको प्राप्त हो गये ( अनु० ३३ । २१ ) । शकुनि - ( १ ) धृतराष्ट्र-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हो गया था ( आदि० ५७ । १६ ) | ( २ ) गान्धारराज सुचलका पुत्र, दुर्योधन का मामा, इसकी सहायता से दुर्योधनने युधिष्ठिरको जूएमें ठग लिया था ( आदि० ६१ । ५० ) । देवताओंके कोपसे यह धर्मविरोधी हुआ ( आदि० ६३ । १११११२ ) | यह द्वापर के अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ७८; आश्रम० ३१ । १० ) । इसके द्वारा गाभारीके विवाह कार्यका सम्पादन ( आदि० १०९ । १५-१६) । यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था ( आदि ०
शकुनि
१८५ | २ ) | पाण्डवोंको जड़ - मूलसहित नष्ट कर देनेके लिये इसका द्रुपदनगरमें कौरवोंको परामर्श देना (आदि० १९९ । ७ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ५७३-५७४ )। युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञ में इसका पदार्पण सभा० ३४ । ६ ) | यह सबके विदा होनेपर भी उस दिव्य सभाभवनमें दुर्योधनके साथ ठहरा रहा ( सभा० ४५ । ६८ ) । पाण्डवोंपर विजय प्राप्त करनेके सम्बन्धमें इसकी दुर्योधनसे बातचीत ( सभा० ४८ अध्याय ) | युधिष्ठिरकी सम्पत्ति ( ऐश्वर्य ) को हड़पने के लिये इसके द्वारा धृतराष्ट्रको द्यूतक्रीड़ाका परामर्श देना ( सभा० १९ अध्याय ) । जूए के अनौचित्य के सम्बन्धमें इसके साथ युधिष्ठिरका संवाद ( सभा० ५९ अध्याय ) । जूएमें छल करके इसका युधिष्ठिर को हराना (सभा • अध्याय ६० से ६१तक ) । इसके साथ जुआ खेलकर युधिष्ठिर का अपना सब कुछ हार जाना ( सभा• अध्याय ३५ ) । पुनर्द्य तमें इसका युधिष्ठिरको जएकी शर्त सुनाना और एक ही दाँवमें अपनी विजय घोषित करना ( सभा० ७६ । ९ - २४ ) । पाण्डव प्रतिज्ञा तोड़कर वनसे नहीं लौटेंगे, यह कहकर इसका दुर्योधनकी आशंकाको दूर करना (वन० ७ । ७-१० ) । द्वैतवनमें पाण्डवों के पास चलनेके लिये इसका घोषयात्राके प्रस्तावका समर्थन करना ( वन० २३८ । २१, २३ ) । धृतराष्ट्रको घोषयात्रा की अनुमति के लिये समझाना ( वन० २३९ | १८-२१ ) | इसका घोषयात्रामें दुर्योधनके साथ और गन्धवसे युद्ध करके घायल होना ( बन० २४१ । १७ – २७ | दुर्योधनको पाण्डवोंका राज्य लौटा देनेके लिये समझाना ( बन० २५१ । १-८ ) । प्रथम दिनके संग्राम में प्रतिविन्ध्यके साथ द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ४५ । ६३-६५ ) । इसके पाँच भाइयों का इरावान्द्वारा वध ( भीष्म० ९० । २५४७ ) । इसका युधिष्ठिर, नकुल और सहदेवपर आक्रमण और उनके द्वारा इसकी पराजय ( भीष्म० १०५ । ८२३) । सहदेवके साथ युद्ध (द्रोण० १४ । २२ - २५) । इसके द्वारा मायाओंका प्रयोग तथा अर्जुनद्वारा उन मायाओंका नाश होने पर इसका पलायन (द्रोण० ३०।१५ - २८) | अभिमन्यु के साथ युद्ध ( द्रोण० ३७ । ५ ) । नकुलसहदेव के साथ युद्ध ( द्रोण० ९६ । २१ - २५ ) । सात्यकिके साथ युद्ध ( द्रोण० १२० । ११) । भीमसेनद्वारा इसके सात रथियों और पाँच भाइयोंका संहार ( द्रोण० १५७ । २२ - २६ ) । नकुलद्वारा इसकी पराजय (द्रोण० १६९ । १६ ) । इसका दुर्योधनकी आशासे पाण्डव सेना पर आक्रमण द्रोण० १७० । ६६ ) । अर्जुनद्वारा इसकी पराजय ( द्रोण० १६३ । २५-१९ ) । द्रोणाचार्य के मारे जानेपर इसका युद्ध
जाना
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शहानिका
( ३३५ )
शक
स्थलसे भागना (द्रोण. १९५१)। इसके द्वारा सुत- समर्थन तथा आशीर्वाद (मादि..।। ३२ के बाद)। सोमकी पराजय (कर्ण० २५ । ४.४१)। सात्यकि- इनके गर्भसे दुष्यन्तद्वारा भरतका जन्म (मादि. द्वारा इसका पराजित होना (कर्ण०६१।४८-४९)। ७४ । २)। कण्वद्वारा इनके प्रति पातिव्रत्य धर्मका भीमसेनद्वारा पृथ्वीपर गिराया जाना (कर्ण० ७७ । ६९- उपदेश और उसकी महिमाका वर्णन ( आदि०७४ । ७.)। इसके द्वारा भाईसहित कुलिन्द-राजकुमारकावध ९-१०)। पिताकी आज्ञा पाकर इनका पति-गृह-गमन (कर्ण० ८५। ७-१९)। पाण्डव घुड़सवारोंका इसके (आदि०७४।१०-१४)। इनका राजा दुष्यन्तसे ऊपर आक्रमण, इसका भागना पुनः धृष्टद्यनकी सेना- अपने पुत्रको ग्रहण करने और युवराज-पदपर अभिषिक्त पर आक्रमण करना तथा पाण्डव सैनिकोंसे घिरकर करनेके लिये कहना तथा अपने साथ उनके सम्बन्ध घायल होना (शल्य. २३ । ११-८७)। सहदेवद्वारा और प्रतिज्ञाका स्मरण दिलाना (आदि०७४ । १६इसका वध (शल्य. २८ । ६१) । व्यासजीके प्रभाव- १८)। दुष्यन्तके अस्वीकार करनेपर इनका लजा एवं से यह भी गङ्गाजीके जलसे प्रकट हो अपने सगे-सम्बन्धियों- रोषपूर्ण उपालम्भ, धर्मकी श्रेष्ठता और परमात्मा एवं से मिला था (आश्रम० ३२ । ९)। मृत्युके पश्चात् सूर्य आदि देवताओंको पुण्य-पापका साक्षी बतलाकर यह द्वापरमें मिल गया (स्वर्गा० ५ । २१)। दुष्यन्तसे अपने साथ न्यायपूर्वक व्यवहार करनेके लिये महाभारतमें आये हुए शकुनिके नाम-गान्धार, गान्धार
अनुरोध, पतिव्रता पत्नी और पुत्र-पौत्रोंकी महिमा पति, गान्धारराज, गान्धारराजपुत्र, गान्धारराजसुत,
बतलाकर दुष्यन्तको उनके साथ अपने पूर्व सम्बन्धका कितव, पर्वतीय, सौबल, सौबलक, सौबलेय, सुबलज,
स्मरण दिलाना (आदि० ७४ । २१-६७) । दुष्यन्तके सुबलपुत्र, सुबलसुत, सुबलात्मज आदि ।
प्रति इनके द्वारा अपने जन्मकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
(आदि०७४ । ६९-७०) । इनके द्वारा दुष्यन्तके प्रति शकुनिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६ ।
पुनः अपने जन्म-कर्मकी महत्ता बतलाते हुए सत्यधर्मकी
श्रेष्ठताका कथन तथा निराश होकर जानेका उपक्रम (आदि. शकुनिप्रह-रौद्ररूपधारिणी विनता ( बन० २३० । ७४ । ८४ से १०८ के बाद तक)। आकाशवाणीद्वारा २६)।
इनके कथनकी सत्यता घोषित होनेपर दुष्यन्तद्वारा शकुन्त-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० अङ्गीकार ( आदि०७४ । १०९-१२५) । दुष्यन्त
द्वारा इनका पटरानीके पदपर अभिषेक ( भादि०७४ । शकुन्तला-महर्षि कण्वकी पोषित पुत्री, जो सम्राट दुभ्यन्त- १२५ के बाद)। की धर्मपत्नी और भरतकी माता हुई। इनके यहाँ शक्त-राजा पूरुके प्रपौत्र एवं मनस्युके पुत्र, जो 'सौवीरीके राजा दुष्यन्तका आगमन । इनके द्वारा उनका स्वागत गर्भसे उत्पन्न हुए थे । इनके दो भाई और थे, जिनके तथा अपने जन्म-प्रसंगका वर्णन (आदि. ७१ अध्याय)। नाम हैं--संहनन और वाग्मी । ये सभी शूरवीर और
महारथी थे ( आदि० ९४ । ७)। हिमालयके शिखरपर मालिनी नदीके किनारे उत्पन्न शक्ति-महर्षि वसिष्ठके कुल की वृद्धि करनेवाले महामनस्वी हई थीं। कण्वइनके पालक पिता थे। इनकी उत्पत्तिकी पुत्र, जो अपने सौ भाइयोंमें सबसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ मुनि कथा (आदि०७२।१-१०)। शकुन्तों (पक्षियों) थे (इनकी माता अरुन्धती थीं) (आदि. १७५ । द्वारा रक्षित होनेके कारण इनका नाम 'शकुन्तला' हुआ ६)। कल्माषपादद्वारा इनपर प्रहार और इनके द्वारा (भादि०७२।१५-१६) । दुष्यन्तके प्रार्थना करनेपर कल्माषपादको राक्षस होनेका शाप (आदि. १७५ । इनके द्वारा स्त्री-स्वातन्त्र्यका निषेध, अपनी पितृभक्ति एवं ११-१३)। राक्षसभावापन्न कल्माषपादद्वारा इनका भक्षण ब्राह्मणके प्रभावका वर्णन ( आदि०७३ । ५ से ६ के (आदि० १७५ । ४०)। इनके द्वारा स्थापित पूर्वतक)। दुष्यन्तके द्वारा विवाहोंके आठ भेद बतलाकर अदृश्यन्तीके गर्भसे पराशरका जन्म (आदि० १७७ । इनके प्रति गान्धर्व-विवाहका समर्थन (आदि० ७३ । १)। ये वसिष्ठके पुत्र थे, इनके पुत्र पराशर थे और ८-१४)। दुष्यन्तके साथ इनके विवाहकी शर्त (आदि० पराशरके पुत्र व्यास इनके पौत्र लगते थे (शान्ति. ७३ । १५-१७)। दुभ्यन्तके साथ इनका गान्धर्व विवाह ३४९ । ६-७)।ये उत्तर दिशाके ऋषि थे, इनका ( आदि० ७३ । १९.२० )। कण्वके प्रति इनके नामान्तर वासिष्ठ (अनु. १६५ । ४४)। द्वारा अपने गुप्त विवाहके वृत्तान्तका निवेदन (आदि. शक (इन्द्र)-बारह आदित्यों से एक (भादि. ६५ । ७३ । २४ के बाद)। कण्वद्वारा इनके विवाहका १५)।
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शक्रकुमारिका
( ३३६ )
शक्रकुमारिका-एक सिद्धसेवित प्राचीन तीर्थ, जहाँ इनका वध (भीष्म०८२।२०-२५)। इनके मारे स्नान करनेसे शीघ्र स्वर्गकी प्राप्ति होती है (धन. ८३ । जानेकी चर्चा (कर्ण०६।३७) मृत्युके पश्चात् ये ८.)।
विश्वेदेवोंमें मिल गये थे (स्वर्गा० ५। १७-१८)। शक्रदेव-एक कलिङ्गराजकुमार, जो कौरवपक्षीय योद्धा था,
(३) एक ऋषि, जो महर्षि लिखितके भ्राता थे। ये भीमसेनके साथ इसका युद्ध और उनके द्वारा वध
इन्द्रकी सभामें रहकर देवराज इन्द्रकी उपासना करते हैं (भीष्मः ५४।२४-२५)।
(सभा०।")। बिना पूछे अपने आश्रमका
फल तोड़ने के कारण इनका अपने भाई लिखितको दण्ड शक्रवापी-गिरिवजके समीपस्थ गौतमके आश्रमके निकटवर्ती
ग्रहण करने के लिये राजा सुद्युम्नके पास भेजना (शान्ति. वनमें रहनेवाला एक नाग ( सभा० २१।९)।
२३ । २०-२७)। अपने भाई लिखितपर इनकी कृपा शक्रावर्त-एक तीर्थ, जिसमें देवताओं और पितरोंका तर्पण (शान्ति. २३ । ३८-४२)। इनके द्वारा लिखितकी
करनेवाला मनुष्य पुण्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है (वन शंकाका समाधान (शान्ति०२३।१३-४४)।ये तिलका ८४ । २९)।
दान करके दिव्यलोकको प्राप्त हुए हैं (अनु०६६।१२) । शङ्कर-एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९५ । ३५)। (४) एक दैत्य, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी शङ्क-एक यदुवंशी क्षत्रिय, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें उपस्थित
उपासना करता है (सभा० ९।१३)।(५)श्रेष्ठ था (आदि. १८५। १९)। सुभद्रा और अर्जुनके
निधियों में प्रमुख शङ्ख, जो कुबेर-सभामें रहकर धन ध्यक्ष विवाहके उपलक्ष्य में अन्य बहुत-से वृष्णिवंशियोंके साथ यह
कुबेरकी उपासना करता है (सभा० १०।३९)। भी दहेज लेकर खाण्डवप्रस्थमें आया था ( आदि.
पाञ्चःलराज ब्रह्मदत्तने उत्तम ब्राह्मणों को शङ्ख निधिका २२० । ३१-३३) । यह एक महारथी वीर था
दान किया था, इससे उन्हें उत्तम गति प्राप्त हुई थी (सभा० १४॥ ५९)।
(शान्ति० २३४ । २९, अनु० १३७ । १७)।(६)
पाँच भाई केकयराजकुमारोंमेंसे एक, ये पाण्डवपक्षके शङ्ककर्ण-(१) धृतराष्ट्रके कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो
उदार रथी थे ( उद्योग. १७१।१५)। जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था (आदि० ५७ । १५)। (२) भगवान् शिवका एक दिव्य पार्षद, जो शङ्कतीर्थ-सरस्वती-तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ । इसका कुबेरकी सभामें उपस्थित होता है (सभा. १०।।
विशेष वर्णन (शल्य३७ । १९-२६)। ३४-३५) । (३) पार्वतीद्वारा स्कन्दको दिये गये दो शङ्खनख-एक नाग, जोवरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना पार्षदोर्मेसे एक, दूसरेका नाम पुष्पदन्त था (शल्य करता है (सभा० ५। ८ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। ४५ । ५.)। (४) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. शङ्खपद-स्वारोचिष मनुके पुत्र, जिन्हें पिताद्वारा नारायण४५ । ५६)।
प्रतिपादित सात्वत धर्मका उपदेश प्राप्त हुआ था। इन्होंने शकर्णेश्वर-भगवान् शिवकी एक मूर्ति, जिसकी पूजा
अपने पुत्र दिक्पाल सुवर्णाभको इस धर्मकी शिक्षा दी थी करनेसे अश्वमेध यज्ञसे दसगुने फलकी प्राप्ति होती है
(शान्ति० ३४८ । ३७-३८)। (वन० ८२ । ७.)।
शङ्खपिण्ड-कश्यपद्वारा कद्र के गर्भसे उत्पन्न एक नाग शङ्ख-(१) कश्यपदारा कद्रूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग (आदि० ३५ । २३)।
(आदि० ३५ । ८ )। नारदजीने मातलिको इनका शङ्खमुख-कश्यपद्वारा कद्रूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग परिचय दिया था (उद्योग० १०३ । १२) । बलरामजीके (आदि० ३५ । ")। परमधाम पधारते समय उनके स्वागतार्थ ये भी आये थे शङ्खमेखल-एक ऋषि, जो सर्पदंशनसे मरी हुई प्रमदराको (मौसल. ४।१७)। (२) राजा विराटके पुत्र देखनेके लिये स्थूलकेशके आश्रमके निकटवर्ती वनमें जो अपने पिता और भाई के साथ द्रौपदी-स्वयंवरमें पधारे पधारे ये (आदि०८।२४)। थे (उत्तर एवं उत्तराके भ्राता) (आदि० १८५ । 4)। गतॊद्वारा गोहरणके समय उनके साथ युद्धके
शङ्खलिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका(शल्य० ४६।१५)
। लिये इनका जाना (विराट० ३१।१६) प्रथम दिनके शङ्खशिरा-कश्यपद्वारा कद्रूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग संग्राममें भूरिश्रवाके साथ इनका द्वन्द्-युद्ध (भीष्म. (मादि० ३५ । १२ ) । इसीका शङ्खशीर्ष नामसे भी ४५। ३५-३७)। शल्यके साथ युद्ध (भीष्मः ४९। वर्णन आया है (उद्योग. १०३।१५)। २६-४०) द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और उनके द्वारा राजश्रवा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६।२६)
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शङ्खिनी
शङ्खिनी-कुरुक्षेत्र की सीमाके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ देवी - तीर्थ में स्नान करनेसे उत्तम रूपकी प्राप्ति होती है ( वन० ८३ । ५१ ) ।
( ३३७ )
शची- देवराज इन्द्रकी पत्नी, जिनके अंशसे द्रौपदीका प्राकट्य हुआ था ( आदि० ६७ । १५७ ) | ये इन्द्रसभामें देवराज इन्द्रके साथ उत्तम सिंहासनपर समासीन होती हैं ( सभा० ७ । ४ | ब्रह्मसभा में भी उपस्थित हो देवेश्वर ब्रह्माजीकी उपासना करती हैं ( सभा० ११ । ४२ ) । ये देवेन्द्रकी महारानी हैं, इन्होंने इन्द्रभवन में आयी हुई सत्यभामाको देवमाता अदितिकी सेवामें पहुँचाया था ( सभा ०३८ । २९के बाद दा० पाठ पृष्ठ८ १३ ) | (इन्हें पुलोमा नामक असुरकी पुत्री कहा गया है ) । इनका नहुषके भयसे बृहस्पतिकी शरणमें जाना ( उद्योग० ११ । २० - २३ ) | नहुषको पति बनानेसे इन्कार करना ( उद्योग० १२ । १५ ) | नहुषसे कुछ कालकी अवधि माँगना (उद्योग० १३ । ४-६ ) । इनके द्वारा उपश्रुतिकी उपासना (उद्योग० १३ । २६-२७) । उपश्रुतिकी सहायता से इनकी इन्द्रसे भेंट (उद्योग ० १४ । ११-१२ ) । नहुष सप्तर्षियोंद्वारा ढोयी जानेवाली शिबिकापर आनेकी माँग करना ( उद्योग० १५ । ९ - १४ ) । ये स्कन्दके जन्म- समयमै उनके पास गयी थीं (शल्य० ४५ । १३) । इनके नहुषके भयसे मुक्त होनेकी कथा ( शान्ति ० ३४२ । ४७-५० ) ।
शठ-एक दानव, जो कश्यपपत्नी दनुके गर्भ से उत्पन्न हुआ था (आदि० ६५ | २९ ) । शतकुम्भा - एक तीर्थभूत नदी, जहाँकी यात्रा करने से
मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है ( वन० ८४ । १०-११ ) । यह अग्निकी उत्पत्तिका स्थान है ( वन० २२२ । २२ - २६ ) | यह उन भारतीय नदियोंमें से एक है, जिनका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । १९ ) । शतघण्टा - स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । ११ ) । शतचन्द्र कौरवपक्षका एक महारथी योद्धा, शकुनिका
भाई । भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण० १५७ । २३ ) । शतज्योति सुभ्राट्के तीन पुत्रोंमेंसे एक, जिनके एक लाख पुत्र हुए थे (आदि ० १ । ४४-४५ ) ।
शतद्युम्न - एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने मुद्गल ( मौद्गल्य ) ब्राह्मणको सोनेका गृह प्रदान किया और उसके पुण्यसे स्वर्ग प्राप्त कर लिया ( शान्ति० २३४ । ३२; अनु० १३७ । २१ ) ।
शतद्रु ( शतद्रू ) - हिमालय पर्वत से निकली हुई एक नदी, जिसका आधुनिक नाम सतलज है । एक समय पुत्रोंके शोकसे व्याकुल होकर वसिष्ठजी आत्महत्या के
म० ना० ४३
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शतरथे
लिये इस नदीमें कूद पड़े थे, उस समय उन्हें अग्निके समान तेजस्वी जान यह नदी सैकड़ों धाराओंमें फूटकर इधर-उधर भाग चली । शतधा विद्रुत होनेसे इसका नाम 'शतद्रु' हुआ ( आदि० १७६ ॥ ८(९) । यह वरुणकी सभा में रहकर उनकी उपासना करती है ( सभा० ९ । १९ ) । यह भारतकी एक प्रमुख नदी है, इसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । १५ ) । महादेवजी के पूछने पर स्त्रीधर्मका वर्णन करते समय पार्वतीजीने इसके विषयमें जिन पुण्यमयी प्रमुख नदियोंसे सलाह ली थी, उनमें शतद्रु भी थी ( अनु० १४६ । १८ ) । यह सायं प्रातःस्मरणीय नदी है (अनु० १६५ | १८ ) । शतधन्वा - एक क्षत्रिय, जिसे भगवान् श्रीकृष्णने परास्त
किया था ( वन० १२ । ३० ) । यह कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी कन्याके स्वयंवर में गया था ( शान्ति० ४। ७)।
शतपत्रवन - द्वारका के पश्चिम भागमें स्थित सुकक्ष पर्वतको सब ओर से घेरकर सुशोभित होनेवाला एक वन ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१३) । शतपर्वा - शुक्रकी भार्या ( उद्योग० ११७ । १३ ) । शतबला - भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल यहाँ के लोग पीते हैं ( भीष्म० ९ । २० ) ।
शतभिषा - एक नक्षत्र, जिसके योग में अगुरु और चन्दनसहित सुगन्धित पदार्थोंका दान करनेवाला पुरुष परलोकमें अप्सराओंके समुदाय तथा अक्षयलोकको पाता है (अनु० ६४ । ३० ) । चन्द्रव्रतमें शतभिषाको चन्द्रदेवका 'हास' मानकर उसी भावसे उसकी पूजा करनी चाहिये ( अनु० ११० । ८ ) ।
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शतमुख- एक महान् असुर, जिसने सौसे अधिक वर्षोंतक अपने मां की आहुति दी थी ( अनु० १४ । ८४८५)। इससे संतुष्ट हो भगवान् शङ्करका इसे वर देना ( अनु० १४ । ८५-८७ )। शतयूप - केकयदेश के एक मनीषी राजर्षि, जो पुत्रको राज्य देकर कुरुक्षेत्र के वनमें तपस्या करनेके लिये आये थे । इनके आश्रमपर ही धृतराष्ट्र आदि ठहरे थे । इन्होंने I धृतराष्ट्रसे वनवास की विधि बतायी थी ( आश्रम ० १९ ॥ ८- १३ ) । इनके पितामहका नाम सहस्रचित्य था ( आश्रम० २० । ६ ) । इन्होंने नारदजी से धृतराष्ट्रको मिलनेवाली गति पूछी थी ( आश्रम ० २० । २३ - २८ ) । शतरथ - एक प्राचीनं नरेश ( आदि० १ । २३३ ) । ये यमसभा में रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । २६ ) ।
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शतरुद्र
( ३३८ )
शतरुद्र-वेदका शतरुद्रिय-प्रकरण, जिसमें रुद्रदेवके सौ के साथ युद्ध (द्रोण. १६ । ७-८)। इसके घोड़ौका
नामोंका उल्लेख है ( अनु० १५०।१४)। वर्णन (द्रोण० २३ ॥३०)। इसके द्वारा भूतकर्माका शतलोचन-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५। ६०)। वध (द्रोण. २५ । २३) चित्रसेनकी पराजय (द्रोण. शतशीर्षा-नागराज वासुकिकी पत्नी (उद्योग. ११७ । १६८ । १२) । धृतराष्ट्रपुत्र श्रुतकर्माके साथ इसका
घोर युद्ध (कर्ण० २५ । १३-१६) । अश्वत्थामाके शतङ्ग-(१) एक पर्वत, जहाँ गन्धमादन, इन्द्रद्युम्न साथ इसका युद्ध (कर्ण० ५५ । १४-१७) । इसके
और हंसकूटको लाँघकर राजा पाण्डुने पदार्पण किया था, द्वारा कलिङ्गराजकुमारका वध (कर्ण० ८५।२१)। वहाँ वे तपस्वी-जीवन बिताते हुए भारी तपस्यामें संलग्न अश्वत्थामाद्वारा इसका वध ( सौप्तिक. ८ । ५७. हो गये (आदि. ११८ । ५.)। यहीं पाँचों पाण्डवों- ५८)। का जन्म हुआ था। शतशृङ्गनिवासी ऋषि-मुनि अर्जुन- महाभारतमें आये हुए शतानीकके नाम-नकुलदायाद, के जन्मसे बहुत प्रसन्न हुए थे । इन सब भाइयोंका नकुलसुत, नकुलात्मज और नाकुलि आदि । नामकरण संस्कार भी यहीं हुआ था (आदि. १२२, (२) परीक्षित् पुत्र जनमेजयकी पत्नी वपुष्टमाके गर्भसे उत्पन्न १२३ अध्याय)। राजा पाण्डुकी मृत्यु और उनके साथ राजकुमार । इसकी पत्नी विदेहराजकुमारी थी और इसके माद्रीके चितारोहणकी घटना भी यहीं घटित हुई थी पुत्रका नाम था अश्वमेधदत्त (आदि. ९५ । ८६)। (आदि. १२४ अध्याय)। स्वप्नावस्थामें श्रीकृष्णके (३) कुरुकुलके एक प्राचीन राजर्षि, जिनके नामपर साथ कैलास जाते हुए अर्जुनको मार्गमें शतशृङ्ग पर्वत नकुलने अपने पुत्रका नाम रखा था (वन० २२० । मिला था (द्रोण० ८० । ३२)। सुलभाके पूर्वजोंके ८४)। (४) (सूर्यदत्त) मत्स्यनरेश विराटके भाई यज्ञमें देवराज इन्द्रके सहयोगसे द्रोण, शतशृङ्ग और __ और सेनापति, जिन्होंने गोहरणके समय सोनेका कवच चक्रद्वार नामक पर्वत ईटोकी जगह चुने गये थे धारण करके त्रिगतोंके साथ युद्ध के लिये प्रस्थान किया (शान्ति. ३२० । १८५) । (२) एक राक्षस, (विराट० ३१ । ११-१२)। इनका दूसरा नाम सूर्यदत्त जिसके संयम,' वियम' और महाबली 'सुयम' नामक था (विराट. ३१ । १५) । त्रिगोंके साथ इनका तीन पुत्र थे (शान्ति. ९८।११के बाद दा०पाठ, पृष्ठ घोर संग्राम (विराट. ३३।१९-२१)। इन्हें भीष्मने ४६४७)।
धराशायी एवं घायल किया था (भीष्म० ११८।२७)। शतसहस्र-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक लोकविख्यात ये पाण्डवोंके प्रमुख सहायक थे (द्रोण. १५८ । ४१)। तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता शल्यद्वारा इनका वध (द्रोण. १६७।३०)। (५) है । वहाँ किये गये दान और उपवासका महत्त्व अन्यत्रसे विराटका छोटा भाई । द्रोणाचार्यद्वारा इसका वध (द्रोण.
सहस्रगुना अधिक है (बन० ८३ | १५-१५९)। २१।२८)। शतसाहस्रक-गोमतीके रामतीर्थके अन्तर्गत एक तीर्थ, शतायु-(१) पुरूरवाके द्वारा उर्वशीके गर्भसे उत्पन्न जिसमें स्नान करके नियम पालनपूर्वक नियमित भोजन छः पुत्रोंमेंसे एक । शेष पाँचके नाम हैं-आयु, धीमान्, करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है (वन०
अमावसु, दृढायु और वनायु (आदि०७५। २४-२५)। ८४ । ७४-७५)।
(२) एक कौरवपक्षीय योद्धा, जो भीष्मनिर्मित क्रौञ्चशतानन्द-एक दिव्य महर्षि, जो भीष्मजीको देखनेके लिये
व्यूहके जघन प्रदेशमें स्थित था (भीष्म ७५। २२)। पधारे थे (अनु. २६ । ८)।
इसके मारे जानेकी चर्चा (शल्य०२। १९)। शतानन्दा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.
शतोदरी-स्कन्दकी अनुचरी एकमातृका (शल्य ०४६॥ १५)। ४६ । ११)। शतानीक-(१) नकुलद्वारा द्रौपदीके गर्भसे उत्पन्न शतोलूखलमेखला-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.
(आदि. ६३ । १२३, आदि. ९५ । ७५)। यह विश्वेदेवके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि. ६७। शत्रुघ्न-महाराज दशरथके पुत्र, श्रीरामके भ्राता । इनकी १२७-१९८)। कौरवकुलके महामना राजर्षि शतानीकके माताका नाम सुमित्रा था (वन० २७४ । ७-८)। नामपर नकुलने अपने इस पुत्रका नाम (शतानीक) इन्होंने श्रीरामकी आज्ञासे मधुके पुत्र लवण नामक राक्षसरखा था ( आदि० २२० । ८१)। इसके द्वारा जयत्सेन- का वध किया था (सभा० ३८ । २९ के बाद, की पराजय (भीष्म० ७१। ४२-४५)। दुष्कर्णकी दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ७१५)। वनसे लौटनेपर बड़े भाई पराजय (भीष्म० ७९ | १६--५२)। इसका वृषसेन- श्रीरामसे इनका मिलन (वन० २९१ । ६३)।
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शत्रञ्जय
( ३३९ )
शमीक
-
शत्रुञ्जय-(१) सौवीरदेशका एक राजकुमार, जो जयद्रथ- नन्दिनीने शबरोंकी सृष्टि की (शल्य० ४० । २१)।
के रथके पीछे हाथमें ध्वजा लेकर चलता था (बन. ये मान्धाताके राज्यमें निवास करते थे और चोरी-डकैतीसे २६५ । १०)। द्रौपदी-हरणके समय अर्जुनद्वारा जीविका चलाते थे (शान्ति०६५।१३-१५)। दक्षिण इसका वध (वन० २७१ । २७)। (२) धृतराष्ट्रका
भारतमें जन्म लेनेवाले शबर आदि म्लेच्छ माने गये हैं पुत्र, इसे दुर्योधनने भीष्मजीकी रक्षाका कार्य सौंपा था (शान्ति० २०७।४२)। भगवान् शंकर किरातों और (भीष्म ५१ । ८) । भाइयोसहित इसने पाँच शबरोंका भी रूप ग्रहण कर लेते हैं (अनु. १४।१४१केकयराजकुमारोंपर आक्रमण किया था (भीम० ७९ । १४२) । शबर पहले क्षत्रिय थे, परंतु ब्राह्मणों के अमर्षसे ५६)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. १३७। शूद्रत्वको प्राप्त हो गये (अनु. ३५। १७-१८)। २९-३०)। (३) कौरवपक्षका योद्धा, कर्णका भाई, बहुत से क्षत्रिय परशुरामजीके भयसे गुफाओंमें छिपे रहकर जिसका अर्जुनने वध किया था (द्रोण. ३२। ६.)। स्वधर्मको भी छोड़ बैठे । ब्राह्मणोंका उन्हें दर्शन नहीं हुआ। (४) कौरवाक्षका योद्धा, जो अभिमन्युद्वारा मारा जिससे वे पुनः अपने धर्मको न जान सके और शबर आदिगया था (द्रोण०४८। १५-१६)। (५)द्रुपदका एक के सइवाससे वैसे ही बन गये (आश्व० २९ । १५-१६)। पुत्र, जिसे अश्वत्थामाने मार गिराया था (द्रोण० १५६ । शबल-कश्यपद्वारा कद्रूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग (आदि. १८.)। (६) सौवीरदेशके नरेश, जिन्हें भारद्वाज ३५।७)। कणिकने राजधर्म एवं कुटनीतिका उपदेश किया था।
शबलाक्ष-एक दिव्य महर्षि, जो भीष्मको देखनेके लिये (शान्ति.१४. अध्याय)।
आये थे ( अनु० २६ । ७)। शत्रुञ्जया-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६।६)।
शबलाश्व-ये महाराज कुरुके पौत्र तथा ( अश्ववान् ) शत्रुतपन-शत्रुसंतापी एक दानव, जो कश्यपपत्नी दनुके।
अविक्षित्के पुत्र थे । इनके सात भाई और थे, जिनके गर्भसे उत्पन्न हुआ था (भादि० ६५ । २९)।
नाम हैं-परीक्षित्, आदिराज, विराज, शाल्मलि, उच्चैःशत्रुन्तप-दुर्योधनकी सेनाका एक राजा, कौरवोद्वारा विराट- श्रवाः भङ्गकार और जितारि (आदि. ९४ । ५२-५३)। की गौओंके अपहरणके समय अर्जुनदारा इसका वध
शम-(१) अहः' नामक वसुके चार पुत्रोंमेंसे एक शेष (विराट. ५४ । ११-१३)।
तीनके नाम है--ज्योति, शान्त और मुनि (आदि. शत्रुसह-धृतराष्ट्रका एक पुत्र, जो अर्जुनसे कर्णकी रक्षाके १६ । २३)। (२) धर्मके तीन श्रेष्ठ पुत्रोंमेंसे एक लिये युद्ध में उनके सम्मुख गया था (विराट०५४।)। शेष दोके नाम हैं-काम और हर्ष, इनकी भार्याका नाम
भाइयोसहित इसने पाँच केकयराजकुमारोंपर आक्रमण प्राप्ति' है (आदि०६६ । ३२-३३)। किया था (भीम. ७९ । ५६)। भीमसेनद्वारा इसका
शमठ-एक विद्वान् ब्राह्मण, जिन्होंने युधिष्ठिरको अमूर्तरयाके वध (द्रोण. १३७ । २९-३०)।
पुत्र राजा गयके यज्ञका वृत्तान्त सुनाया था ( बन० शनैश्चर-एक ग्रह, जो ब्रह्माजीकी सभामें रहकर उनकी ९५ । १७-२९)। उपासना करते हैं (सभा० ११ । २९)। ये महातेजस्वी शमीक-(१) एक ऋषि, जो गौओंके रहने के स्थानमें
और तीक्ष्ण स्वभाववाले ग्रह हैं। ये जब रोहिणी नक्षत्रको बैठते थे और गौओंका दूध पीते समय बछडोंके मुखसे पीड़ित करते हैं, तब जगत्के लिये पीड़ादायक होते हैं
जो फेन निकलता थाउसीको खा-पीकर तपस्या करते थे। (उद्योगः १४३ । ८)। ऐसा योग आनेपर संसारके
ये मौनव्रतका पालन करनेवाले थे। इनके पास भूखे-प्यासे लिये महान् भयकी प्राप्ति सूचित होती है (भीष्म० २।
परीक्षित्का आगमन और उनके द्वारा इनके कंधेपर मरे १२)। ये भावी युगमें मनुके पदपर प्रतिष्ठित होनेवाले
हुए सर्पके रखे जानेका वृत्तान्त (आदि० ४०।10हैं (शान्ति ३४९ । ५५) । नित्य स्मरणीय देवताओंमें
२१)। इनके पुत्रका नाम शृङ्गी' ऋषि था ( आदि. शनैश्चर ग्रहका भी नाम है (अनु० १६५। १७)।
४० । २५) । इनका अपने पुत्रको फटकारना और शबर-एक म्लेच्छ जाति, जो वसिष्ठ जीकी नन्दिनी नामक राजाकी महत्ता एवं आवश्यकता बतलाना (आदि. गायके गोबर और मूत्रसे उत्पन्न हुई थी (आदि. ४१ । २०-३३) । क्रोधकी निन्दा एवं क्षमाकी १७४ । ३५-३०)। शबर दक्षिण भारतका एक जनपद प्रशंसा करते हुए इनका अपने पुत्रको संयममें रहकर है (भीष्म• ५० । ५३) । सात्यकिने कौरव-सेनाका क्रोधको मिटानेके लिये आदेश देना (आदि. ४२। संहार करते समय सहसों शबरोंकी लाशोंसे धरतीको पाट ३-१२)। इनका गौरमुख नामक शीलवान् शिष्यको दिया था (द्रोण. ११९ । ४६)। वसिष्ठजीकी आज्ञासे संदेश देकर राजा परीक्षित्के पास भेजना (आदि.
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शम्पाक
शरभ
४२ । १३-१४ )। ये इन्द्रकी सभामें रहकर उनकी एक बरवान् पुरुष डंडेको खूब जोर लगाकर फेंके खो उपासना करते हैं (सभा० ७।१६)। व्यासजीने वह जहाँ गिरे उतनी दूरीके स्थानको एक शम्यानिपात जनमेजयको स्वर्गीय राजा परीक्षित् का दर्शन कराते समय कहते हैं (वन० ८४ । ९)। पुत्रसहित शमीक मुनिको भी वहाँ उपस्थित किया था शम्यापात-भूमि या दूरीका माप (शान्ति० २९।९५)। ( आश्व० ३५।०)। (२) (समीक) एक वृष्णि- ( देखिये शम्यानिपात) वंशी वीर, जो द्रौपदीके स्वयवरमें गया था (आदि. शरण-वासुकि-वंशमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके १८५। १९)। यह द्वारकाके सात महारथियोंमेंसे एक सर्पसत्र में भस्म हो गया था ( आदि०५७।६)।
था (सभा०१४ । ५८) । धृतराष्ट्रका इसके बल- वारद्वान-एक गौतमगोत्रीय महर्षि (आदि०६३।१०७)। 'पराक्रमसे शंकित होना (द्रोण. १७।२८)।
ये महर्षि गौतमके पुत्र थे और शरकण्डोंके साथ उत्पन्न शम्पाक-एक परम शान्त, जीवन्मुक्त, त्यागी ब्राह्मण हुए थे । ये स्वयं भी गौतम कहलाते थे । इनकी बुद्धि (शान्ति० १७६ । २-३ )। त्यागकी महिमाके विषयमें। जितनी धनुर्वेदमें लगती थी, उतनी वेदोंके अध्ययनमें इनके द्वारा भीष्मको उपदेश (शान्ति.१७६।४-२२)। नहीं लगती थी (आदि. १२९ । २-३)। जैसे अन्य शम्बर-( १ ) एक दानव, कश्यप और दनुके विख्यात
ब्रह्मचारी तपस्यापूर्वक वेदोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसी चौंतीस पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६५। २२) । इन्द्र
प्रकार इन्होंने तपस्या में संलग्न होकर सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र द्वारा इसकी पराजय ( आदि. १३७ । ४३, वन.
प्राप्त किये । ये धनुर्वेद में पारङ्गत तो थे ही, इनकी तपस्या १६८।८ ।साम्बने बाल्यावस्थामें ही इसकी सेनाको
भी बड़ी भारी थी। इससे इन्होंने देवराज इन्द्रको चिन्तानष्ट-भ्रष्ट कर दिया था ( वन० १२०। १३)। इन्द्र
में डाल दिया था, तब देवराजने जानपदी नामवाली द्वारा इसके वधकी चर्चा ( उद्योग०१६।१४ शान्ति.
एक देवकन्याको इनके पास भेजा और यह आदेश दिया ९८ । ५०)। इन्द्रके पूछनेपर इसके द्वारा ब्राह्मणकी
कि तुम शरद्वान्की तपस्यामें विघ्न डालो । जानपदी महिमाका वर्णन (अनु. ३६ । ४-१८)। (२)
शरदान्के रमणीय आश्रमपर जाकर इन्हें लुभाने लगी। एक असुर, जिसे भगवान् श्रीकृष्णने (अपनी विभूति
उस अप्रतिम सुन्दरी अप्सराको देखकर इनके नेत्र स्वरूप प्रद्युम्नके द्वारा) मरवा डाला था ( सभा०
प्रसन्नतासे खिल उठे और हार्थोसे धनुष एवं वाण छूट३८।२९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ८२५)। स्वयं श्रीकृष्णने
कर पृथ्वीपर गिर पड़े। उसकी ओर देखनेसे इनके भी शम्बर नामक असुरको परास्त किया था (उद्योग.
शरीरमें कम्प हो आया । शरद्वान् शनमें बहुत बढ़े-चढ़े ६८ । ४)। यह भूतलके प्राचीन शासकोंमेंसे था
थे और इनमें तपस्याकी भी प्रबल शक्ति थी, अतः ये (शान्ति. २२७ । ४९)। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नके महाप्राश मुनि अत्यन्त धीरतापूर्वक अपनी मर्यादामें द्वारा इसका वध हुआ था (अनु० १४ । २८)।
स्थित रहे । किंतु इनके मनमें सहसा जो विकार आ गया
था। इससे इनका वीर्य स्खलित हो गया; परंतु इस बातका शम्बूक-(१) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५।७६)।
इन्हें भान नहीं हुआ । ये धनुष-बाण, काला मृगचर्म, (२) स्वधर्मको छोड़कर परधर्मको अपनानेवाला एक
वह आश्रम और वह अप्सरा सबको वहीं छोड़कर वहाँसे शूद्र । सुना जाता है कि सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्र जीके
चल दिये। इनका वह वीर्य शरकण्डेके समुदायपर गिरकर द्वारा परधर्मापहारी शम्बूक नामक शूद्रके मारे जानेपर
दो भागोंमें विभक्त हो गया । उससे एक पुत्र और एक उस धर्मके प्रभावसे एक मरा हुआ ब्राह्मण बालक जी उठा
कन्याकी उत्पत्ति हुई, जिन्हें राजा शान्तनुने कृपापूर्वक था (शान्ति० १५३ । ६७)।
पाला और उनका नाम कृप एवं कृपी रख दिया। शरद्वान्शम्भु-(१) एक प्राचीन राजा ( आदि० ११२३४)।
को तपोबलसे ये बातें ज्ञात हो गयीं और इन्होंने गुप्तरूपसे इन्होंने जीवनमें कभी माम नहीं खाया था ( अनु०
आकर पुत्रको गोत्र आदिका परिचय दे, उसे चार प्रकार११५। ६६)। (२)एक अग्नि, निन्हें वेदोंके पारंगत
के धनुर्वेद, नाना प्रकारके शास्त्र तथा उन सबके गूढ़ विद्वान् ब्राह्मण अत्यन्त देदीप्यमान तथा तेजःपुञ्जसे रहस्यका भी पर्णरूपसे उपदेश दिया ( आदि. १२९ । सम्पन्न बताते हैं ( वन. २२१ । ५)। (३) ४-२२)। श्रीकृष्णके पुत्र, जोरुक्मिणी देवीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे शरभ-(१) तक्षक-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय(भनु०१४ । ३३ )। (४)ग्यारह रुद्रोमेंसे एक के सर्पसत्र में जल मग था ( आदि. ५७ । )। (अनु० १५० । १२-११)।
(२) ऐरावत-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयशम्यानिपात-भूमि या दूरीका माप, शम्या कहते हैं डंडेको। के सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था ( आदि० ५७ । ११)।
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शरभङ्ग
शर्मी
(३) कश्यप और दनुके विख्यात चौंतीस हजार दासियोंके साथ देवयानीकी आजीवन दासी बनकर पुत्रों से एक दानव (आदि० ६५ । २५)। (४) रहने के लिये प्रतिज्ञा करना (आदि. ८०।१७-२२)। एक ऋषि, जो यमराजकी सभामें रहकर उनकी उपा- इसके प्रति देवयानीका कटाक्ष और इसके द्वारा उसको सना करते हैं (सभा० ८।१४ )। (५) चेदिराज समुचित उत्तर ( आदि० ८० । २३-२४)। एक सहल धृष्टकेतुका अनुज, जो पाण्डवोंकी सहायतामे आग था दासियोसहित शर्मिष्ठाका देवयानीकी सेवामें उपस्थित (उद्योग. ५०। ४७)। अश्वमेधीय अश्वकी रक्षा होकर उसके साथ वन-विहारके लिये जाना और वहाँ गये हुए अर्जनके साथ इसने पहले यद्ध किया; परंतु आमोद-प्रमोदमें मग्न होना ( आदि. ८१ ।२पीछे उस अश्वका विधिपूर्वक पूजन किया ( आश्व० ४)। राजा ययातिका उस स्थानपर जल पीनेकी इच्छासे ८३ । ३)। (६) शकुनिका भाई। भीमसेनद्वारा आना और शर्मिष्ठाद्वारा सेवित देवयानीसे उन दोनोंका इसका वध (द्रोण. १५७ । २४-२६)। (७) परिचय पूछना । देवयानीका दानवराज वृषपर्वाकी पुत्री प्राचीन कालका एक बलवान, वनवासी और समस्त शर्मिष्ठाको अपनी दासी बताना (आदि०८१।५प्राणियोंका हिंमक पशु, जिसके आठ पैर और ऊपरकी १०)। शुक्राचार्यका ययातिको अपनी पुत्रीका समर्पण ओर नेत्र होते थे। वह रक्त पीनेवाला जानवर माना करते समय कुमारी शर्मिष्ठाको भी समर्पित करना और गया है। इससे सिंह भी डरते थे (शान्ति. ११७॥
उसे अपनी शय्यापर बुलानेसे मना करना ( भादि. १२-१३ तथा दा० पाठ)।
८१।३४-३५)। एक दिन अपनेको रजस्वलावस्थामें शरभङ्ग-एक प्राचीन ऋषि, जिनका उत्तराखण्डमें विख्यात
पाकर शर्मिष्ठा चिन्तामग्न हो गयी। स्नान करके शुद्ध आश्रम था ( वन० ९० । ९)। दक्षिणमें दण्डकारण्य
हो समस्त आभूषणोंसे विभूषित हुई शर्मिष्ठा सुन्दर पुष्पोंके के आस-पास भी इनका एक आश्रम था । श्रीरामने
गुच्छोंसे भरी अशोकशाम्खाका आश्रय लिये खड़ी थी। इनके आश्रमपर पहुँचकर इनका सत्कार किया था
उसने दर्पणमें अपना मुँह देखा और इसके मनमें पतिके (वन०२७७ । ४०.४१)।
दर्शनकी लालसा जाग उठी। इसने अशोकवृक्षसे प्रार्थना
की कि तुम मुझे भी प्रियतमका दर्शन कराकर अपने शरभङ्ग-आश्रम-एक तीर्थ, जहाँ जानेवाला मनुष्य कभी
ही समान अशोक (शोकरहित ) कर दो। फिर इसने दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अपने कुलको पवित्र कर देता है
राजा ययातिको ही पति बनानेका निश्चय किया, राजाको (वन०८५ । ४२)।
एकान्तमें पाकर इसने नम्रतापूर्वक उनके सामने अपना शरस्तम्ब-एक प्राचीन तीर्थ, जिसके झरनेमें स्नान
मनोभाव प्रकट किया। इस विषयको बेकर इन दोनों में करनेवाला स्वर्ग में अप्सराओंद्वारा सेवित होता है
कुछ देरतक संवाद हुआ, अन्तमें राजाने इसके साथ (अनु. २५ । २८)।
समागम किया । शर्मिष्ठाके गर्भ रह गया और इसने शरावती-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल यहाँके लोग समय आनेपर एक देवोपम कुमारको जन्म दिया । पीते हैं ( भीष्म० ९ । २०)।
(आदि० ८२।५-२७)। इसके पुत्र होनेकी बात
सुनकर देवयानीका इमसे उस विषयमें पूछ ताछ करना शरासन-( देखिये चित्रशरासन )।
और शर्मिष्ठाका एक श्रेष्ठ ऋषसे अपनेको संतान-प्राप्त शरु-एक दवगन्धवा जा अजुनक जन्मकालक महात्सवम होनेकी बात बताकर उसे संतुष्ट कर देना ( आदि. उपस्थित था ( आदि० १२२ । ५८ )।
८३।१-८)। इसके गर्भसे ययाति के द्वारा क्रमशः शर्मक-पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद, जो 'वर्मक' प्रदेशके द्रुह्य, अनु तथा पूरु-इन तीन कुमारों की उत्पत्ति (आदि.
आस-पास था। इसे भीमसेनने दिग्विजयके समय यहाँके ८३ । १०; आदि. ७५ । ३५) । शर्मिष्ठाके पुत्रोंसे शासकोंको समझा-बुझाकर ही जीत लिया था (सभा० उनके पिता माताका यथार्थ परिचय जानकर देवयानीका २०।१३)।
शर्मिष्ठाको फटकारना और शर्मिष्ठाका उसे मुँहतोड़ उत्तर शर्मिष्ठा-दानवराज वृषपर्वाकी पुत्री, जिसने अनजानमें
देना (आदि० ८३ । १८-२२ रा. पाठसहित)। सरोवरके तटपर देवयानीका वस्त्र पहन लिया था (आदि० शर्मी यामुन पर्वतकी तलहटीमें बसे हुए पर्णशाला' नामक ७८ )। देवयानीका इमको फटकारना ( आदि० गाँवका एक अगस्त्यगोत्रीय, शमपरायण, अध्यापक ०८।८) । इसके द्वारा देवयानीका तिरस्कार तथा ब्रामण, जिसे बुलानेके लिये यमराजने दूत भेजा था कुएँ, गिराया जाना (आदि०७४।९-१३)। पिताकी (अनु. ६८।३-.)। इसी नाम और गुणवाला आशासे जाति भाइयोंकी रक्षाके लिये इसका अपनी एक , एक दूसरा ब्राह्मण भी उस गाँवमें था, जिसे लानेका
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शर्याति
( ३४२ )
शल्य
यमराजने निषेध कर दिया था (भनु. ६८ -८)। वीरोंके साथ ये भी गङ्गाजीसे प्रकट हुए थे (आश्रम यमदूत उसी ब्राह्मणको ले गये, जिसे यमराजने मना किया ३२।१.)। मृत्युके पश्चात् विश्वेदेवोंमें मिल गये था। यमराजने उसकी पूजा करके उसे घर जानेकी आज्ञा (स्वर्गा० ५ । १६-१८) । (४) इक्ष्वाकुवंशी दी। साथ ही उसके पूछनेपर महान् पुण्यदायक कर्मके राजा परीक्षित्के पुत्र, इनकी माता मण्डूकराजकी कन्या प्रसंगमें तिलदान, अन्नदान और जलदानकी विशेष सुशोभना थी । इनके दो भाई और थे, जिनका नाम था महिमा बतायी (अनु. ६८ । १०-२२)। यमदूतने दल और बल | पिताद्वारा इनका राज्याभिषेक (वन. पहले लाये हुएको उसके घर पहुंचा दिया और दूसरेको १९२ । ३८)। इनका महर्षि वामदेवसे वाम्य अश्वोंकी साथ लाकर यमराजको इसकी सूचना दी। यमराजने याचना करना और पुनः लौटा देनेके शर्तपर इन्हें उन उसकी भी पूजा करके उसे विदा किया और उसके लिये अश्वोंकी प्राप्ति (वन० १९२ । ४३)। अश्वोको भी पूर्वोक्त सारा उपदेश दिया, वहाँसे लौटनेपर शर्मीने लौटानेके विषयमें इनका महर्षि वामदेवसे संवाद (वन. यमराजके बताये अनुसार सारा कार्य किया (अनु०६८ १९२ । ४८-५६) । अश्वोके न लोटानेपर महाष २४-२६)।
वामदेवद्वारा उत्पन्न किये गये राक्षसोंके प्रहारसे इनका शर्याति-एक प्राचीन नरेश (आदि० ।। २२६)। ये वध ( वन० १९२।५७-५९)। वैवस्वत मनुके पुत्र थे (आदि.७५। १६ अनः
शलकर-तक्षक-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके ३०।६)। राजा शर्याति यमसभामें रहकर वैवस्वत सर्पसत्रमें जल मरा था (आदि० ५७ । १)। यमकी उपासना करते हैं (सभा०८।१४)। इनके द्वारा व्यवन ऋषिको अपनी कन्या सकन्याका दान शलभ-(१) दनुके विख्यात चौंतीस पुत्रों से एक (वन० १२२ । २६)। महर्षि च्यवनद्वारा इनके यज्ञका
(भादि. ६५ । २६)। यह बाहीकराज प्रहादके रूपमें सम्पादन और उसमें अश्विनीकुमारोंका सोमपान (बन.
पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था (आदि. ६७।३०-३१)। १२४, १२५ अध्याय)। इनके वंशमें दो विख्यात
(२) पाणवरक्षका एक महारथी योद्धा, जो कर्णद्वारा
मारा गया (कर्ण० ५६ । ४९-५०)। राजा हुए थे-हैहय और तालजङ्घ (अनु. ३० । ६-७)।
शलभी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्प० ४६ । शयोतिवन-एक पवित्र वनस्थली, जो स्वप्नमें श्रीकृष्णसहित २१)।
को मार्गमें मिली थी शल्य-बाहीक (एवं मद्र) देशके श्रेष्ठ राजा, (द्रोण ८० । ३३)।
जिनके रूपमें हिरण्यकशिपुका पुत्र एवं प्रहादका शल-(१) वासुकि-वंशमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके अनुज संह्राद ही इस भूतलपर उत्पन्न हुआ था
सर्पयज्ञमें दग्ध हो गया था (आदि. ५७।५)। ( आदि० ६७ । ६ )। इनके द्वारा भीष्मका (२) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि०१६ सत्कार और पाण्डुके लिये उनको माद्रीका समर्पण ४)। इसका भीमसेनपर आक्रमण करना (द्रोण. (आदि० ११२।३-१६)। मद्रराज शल्य अपने १२७।३४, कर्ण०५१।८-९)। इसका भीमसेनके पुत्र वीर रुक्माङ्गद तथा रुक्मरथके साथ द्रौपदीके साथ युद्ध और उनके द्वारा वध (कर्ण० ८४।३-६)।
स्वयंवरमें पधारे थे ( आदि १८५ । १.१४)। (३) कुरुवंशी राजा सोमदत्तके पुत्र और भूरिक्षवाके
द्रौपदीके स्वयंवर में मत्स्यवेधके लिये धनुषको चढा न सके भ्राता, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें गये थे (आदि. १८५। (आदि०१८६ । २८) द्रौपदीके स्वयंवरमें भीमसेन द्वारा १५)। ये युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें गये थे (सभा० इनकी पराजय (आदि० १८९ । २३-२९)। नकुल३४ । ८)। दुर्योधनकी सेनाके एक विशिष्ट योद्धा थे ने पश्चिम-दिग्विजयके समय मामा शल्यको प्रेमसे ही वशमें (उद्योग. ५५। ६३)। भीष्मद्वारा निर्मित महान् कर लिया। इन्होंने राजधानी में आनेपर नकुलका विशेष व्यूहमें वाम भागमें स्थित हो ये सारी सेनाकी रक्षा करते सत्कार किया (सभा० ३२ । १४-१६)। ये युधिष्ठिरहुए चल रहे थे (भीम. ५१ । ५.)। इन्होंने के राजसूय-यज्ञमें पधारे थे (समा. ३३।७)। अभिमन्युपर धावा किया था (द्रोण. ३७१५-२१)। शिशुपालने इन्हें श्रीकृष्णसे श्रेष्ठ बताया ( समा० ३७। इनके ध्वजका वर्णन (द्रोण. १०५ । २४-२५)। १४)। इन्होंने अभिषेकके समय युधिष्ठिरको अच्छी द्रौपदीकुमारोंके साथ इनका युद्ध (छोण. १०६।१५)। मूंठवाली तलवार दी तथा ठीकेपर रखा हुआ सुवर्णभूषित अतकर्माद्वारा इनका वध (द्रोण. १०८।१०)। कलश प्रदान किया (सभा० ५३ । १)। यतके लिये व्यासजीके आवाहन करनेपर मरे हुए अन्य कौरव. हस्तिनापुरमें आनेपर राजा युधिष्ठिर वहाँ पहलेसे ही पधारे
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शल्य
( ३४३ )
शल्य
हुए राजा शल्यसे मिले थे ( सभा० ५८ । २४-२५)। (द्रोण० १.५। १८-२०)। ये जयद्रथके संरक्षोंमें पाण्डवोंकी ओरसे इन्हें रण-निमन्त्रण भेजनेका निश्चय थे। इनका अर्जुनके साथ युद्ध (द्रोण. १४५। ९, किया गया ( उद्योग. ४८)। मार्गमें दुर्योधनके ५५)। अर्जुनका इन्हें बाण मारना (द्रोण. १४६। सत्कारसे प्रसन्न होकर उसके पक्षमें रहनेके लिये इनका ५४)। इनके द्वारा विराटके भाई शतानीकका वध और उसे वर देना (उद्योग० ८ । १८ के बाद दा० पाठ)। विराटकी पराजय (द्रोण. १६७ । ३०-३४)। युधिष्ठिरके पास जाना, पाण्डवोंसे मिलना, वहाँका सत्कार द्रोणाचार्यके मारे जानेपर युद्धस्थलसे भागना (द्रोण. ग्रहण करके युधिष्ठिरसे बातचीत करना और उन्हें कर्णका १९३ । ")। इनपर श्रुतकीर्तिका आक्रमण (कर्ण. उत्साह नष्ट करनेके लिये वर देना ( उद्योग०८।२४- १३ । १०)। कर्णका दुर्योधनसे इनके बल-पराक्रम एवं ४८)। इनका युधिष्ठिरको इन्द्रविजय नामक उपाख्यान अश्वविज्ञानकी प्रशंसा करके इनको अपना सारथि बनानेके सुनाना (उद्योग० अध्याय ९ से १८ । २० तक)। लिये प्रस्ताव करना (कर्ण. ३१ । ५८-६९)। कुन्तीकुमारोंसे विदा लेकर दुर्योधनके पास लौटना कर्णका सारथ्य करनेके लिये दुर्योधनके कहनेपर इनका (उद्योग० १८ । २५)। इनका एक अक्षौहिणी सेना ___ कुपित होकर उसे रोषपूर्ण उत्तर देना और रूठकर चल लेकर दुर्योधनके पास आना ( उद्योग० १९ । १६- देना; फिर श्रीकृष्णके समान अपनी प्रशंसा सुनकर उसके १७) । दुर्योधन का धृतराष्ट्रके समक्ष इनके पराक्रमका प्रस्तावको स्वीकार कर लेना (कर्ण. ३२ अध्याय)। वर्णन करना (उद्योग० ५५ । ४३ ) । दुर्योधनका दुर्योधनका इन्हें त्रिपुर-विजयकी कथा सुनाना ( कर्ण. इनको एक अक्षौहिणी सेनाका नायक नियत करके इनका ३३, ३४ अध्याय) । इनका दुर्योधनके साथ वार्तालाप विधिवत् अभिषेक करना ( उद्योग० १५५। ३२-३३)। और कर्णका सारथि बननेके लिये अपनी स्वीकृति देना युधिष्ठिरको युद्धकी आज्ञा देकर उनकी शुभ कामना करना (कर्ण० ३५ अध्याय) । कर्णसे पाण्डवोंकी प्रशंसा (भीष्म० ४३ । ७९-८७)। प्रथम दिनके संग्राममें करना (कर्ण० ३६ । २७-३२) । कर्णको फटकारयुधिष्ठिरके साथ द्वन्दूयुद्ध (भीष्म०४५। २८-३०)। कर अर्जुनकी प्रशंसा करना (कणे० ३७ । ३३-४०)। इनके द्वारा विराटकुमार उत्तरका वध (भीष्म०४७। कर्णके प्रति आक्षेपपूर्ण वचन (कर्ण० ३९ अध्याय)। ३५-३९)। इनके द्वारा विराटकुमार शङ्खकी पराजय कर्णका शल्यको फटकारना और मारनेकी धमकी देना (भीष्म ४९ । ३९)। इनका धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध (कर्ण० ४० अध्याय) । कर्णको कौवे और हंसका (भीष्म० ६३। ८-१४)। भीमसेनद्वारा इनकी उपाख्यान सुनाकर फटकारना (कर्ण०४१ अध्याय)। इनका पराजय (भीष्म०६४।२७)। इनका युधिष्ठिरके कर्णको उत्तर देना (कर्ण०४५।४०-५६)। इनके साथ युद्ध (भीष्म० ७१ । २०-२१)। नकुल और द्वारा कर्णसे अर्जुनकी प्रशंसा तथा पाण्डव-पक्षके प्रमुख वीरोंका सहदेवका इनपर आक्रमण (भीष्म० ८१।२६)। वर्णन (कर्ण०४६।४१-८६)। भीमसेनको अर्जुनकी सहदेवद्वारा इनकी पराजय (भीष्म०८३॥ ५१-५३)। प्रतिज्ञाका स्मरण कराकर कर्णकी जीभ काटनेसे रोकना शिखण्डीपर इनका आक्रमण (भीष्म० ८५।२७)। (कर्ण० ५०। ४७ के बाद दा० पाठ)। कर्णको नकुल, इनका पाण्डवोंके साथ युद्ध में युधिष्ठिरको घायल करना ___ सहदेव तथा युधिष्ठिरके वधसे रोकना (कर्ण०६३ । २१(भीष्म० १०५ । ३०-३३)। भीमसेन और अर्जुनके २९)। कर्णसे अर्जुनके पराक्रमका वर्णन करके उन्हें साथ युद्ध (भीष्म. ११३, ११४ अध्याय )। मारनेके लिये कहना ( कर्ण० ७९। १९-४८)। भीमयुधिष्ठिरके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११६। ४०.४१)। सेनके भयसे डरे हुए कर्णको समझाना (कर्ण० ४४ । नकुलके साथ युद्ध (द्रोण. १४ । ३१-३२ )। ८-१७)। कर्णकी बातका उत्तर देना ( कर्ण०८७। अभिमन्युके साथ युद्ध (द्रोण. १३ । ७०-८२)। १०३) कर्णवधसे दुःखित हुए दुयोधनको सान्त्वना देना भीमसेनके साथ गदायुद्ध और इनकी पराजय (द्रोण. (कर्ण० ९२ । १०-१४) । दुर्योधनसे रणभूमिका १५। ८-३२)। युधिष्ठिरके साथ युद्ध (द्रोण. संक्षिप्त वर्णन करना (कर्ण० ९४ । २-२३)। दुर्योधन२५ । १५-१७)। अभिमन्युके साथ युद्ध और उसके की प्रार्थनासे सेनापति-पद स्वीकार करना (शल्य०६। प्रहारसे मूञ्छित होना ( द्रोण० ३७ । २४-३४ २८)। इनके वीरोचित उद्गार (शल्य. . ।।द्रोण. ३८ । ३)। अभिमन्युद्वारा पराजित होना २०)। इनका अद्भुत पराक्रम (शल्य. १५। २०(द्रोण० ४८ । १४-१५)। युधिष्ठिरके साथ युद्ध ३२)। भीमसेनद्वारा इनकी पराजय (शल्य०११।६०(द्रोण० ९६ । २९-३० ) । अर्जुनको बाण मारना २२)। भीमसेनके साथ गदायुद्ध ( शल्य. १२।१३(द्रोण. १०४ । २७-२८) । इनके ध्वजका वर्णन २७) । युधिष्ठिरके साथ युद्ध (शल्य १२ । -
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शल्यपर्व
( ३४४ )
शाण्डिल्य
६३)। इनका अद्भुत पराक्रम (शल्य.१३ अध्याय)। शाक-शाकद्वीपका एक वृक्ष, जिसके नामपर उस द्वीपका इनका पाण्डववीरोंके साथ युद्ध (शल्य. १५।१०- नाम प्रसिद्ध हुआ है (भीम०११।२०)। ४३)। युधिष्ठिरद्वारा इनकी पराजय (शल्य. १६ । शाकद्वीप-भूमण्डलके सात महाद्वीपोंमेंसे एक । धृतराष्ट्र के ६३-६६)। युधिष्ठिरद्वारा इनका वध (शल्य. १७। प्रति संजयद्वारा इसका वर्णन (भीष्म ११ अध्याय)। ५२) । व्यासजीके आवाहन करनेपर युद्ध में मरे हुए -
शाकम्भरी-एक देवीसम्बन्धी तीर्थ- यहाँ शाकम्भरीके कौरव-पाण्डववीरोंके साथ ये भी गङ्गाजीके जलसे प्रकट
समीप जाकर मनुष्य ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्र और हुए थे (आश्रम० ३२ । १०)।
पवित्र हो तीन राततक केवल शाक खाकर रहे तो बारह महाभारतमें आये हुए शल्यके नाम-आयिनि, बाहलीक- वर्षोंतक शाकाहार करनेका पुण्य प्राप्त होता है (वन००४। पुङ्गव, मद्राधिप, मद्राधिपति, मद्रज, मद्रजनाधिप, मद्र- १३-१.)। जनेश्वर, मद्रक, मद्रकाधम, मद्र काधिप, मद्रकेश्वर, मद्रप,
शाकल-एक नगरी, जो मद्रदेशकी राजधानीथी (आधुनिक मद्रपति, मद्रराट्, मद्रराज, मद्रेश, मद्रेश्वर,
मतके अनुसार वर्तमान स्यालकोट ही शाकल है।) सौवीर आदि।
(सभा० ३२ । १४)। शल्यपर्व-महाभारतका एक प्रमुख पर्व ।
शाकलद्वीप-एक देश, जहाँके राजा प्रतिविन्ध्यको अर्जुनने पाशाक-एक जाति, हस जातिके राजाको कर्णने दिग्विजयक जीता था (सभा० २६।६)। समय परास्त किया था ( वन० २५४ । २१)।
शाकल्य-एक शिवभक्त ऋषि, जिन्होंने नौ सौ वर्षोंतक शशबिन्द-एक प्राचीन राजा (भादि० । २२८)। मनोमय यज्ञ (ध्यानद्वारा भगवान् शिवका आराधन) ये यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं किया था ( अनु०१४।१०.)। (सभा०८।१७)। ये चित्ररथके पुत्र थे । संजयको
शाकवक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७६)। समझाते हुए नारदजीद्वारा इनके चरित्र एवं दान आदिका वर्णन (द्रोण० ६५ अध्याय) । श्रीकृष्णद्वारा इनके शाख-अनल नामक वसुके पुत्र । कुमार कार्तिकेयके छोटे प्रभावका वर्णन (शान्ति. २९ । १०५-११०)। भाई । इनके दो छोटे भाई और थे, जिनके नाम थेइनके दस हजार स्त्रियाँ थीं और इसमेंसे प्रत्येकके गर्भसे विशाख और नैगमेय । (किमी-किसीके मतमें ये तीनों एक-एक हजार पुत्र हुए थे । इस प्रकार इनके कुल
कुमार कार्तिकेयके ही नाम हैं तथा किन्हींके मतमें कुमार एक करोड़ पुत्र थे (शान्ति. २०८ । ११-१२)।
कार्तिकेयके पुत्रोंके ये तीनों नाम हैं। कल्पभेदसे सभी ठीक यमने इन्हें श्राद्धकर्मोका उपदेश दिया था ( अनु० ८९।।
हो सकते हैं।) वास्तवमें शाख, विशाख और नैगमेय१-१५) । इनके द्वारा मांसभक्षणका निषेध (अनु.
कुमार कार्तिकेयके ही रूपान्तर हैं। स्वयं कुमार ही इनके ११५। ६०)। ये साय-प्रातःस्मरणीय नरेश हैं (अनु० रूपमें प्रकट हुए हैं (शल्य० ४४ । ३७)। १६५। ५५)।
शाण्डिली (१) दक्षकी पुत्री तथा धर्मकी पत्नी । इनके शशयान-एक दुर्लभ तीर्थ, जहाँ सरस्वतीके जलमें प्रति- गर्भसे अनल नामक वसुका जन्म हुआ था (आदि. वर्ष कार्तिकी पूर्णिमाको शशके रूपमें छिपे हुए पुष्करका ६६ । १७-२०)।(२) ऋषभ पर्वतपर रहनेवाली दर्शन होता है । वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य चन्द्रमाके एक तपस्विनी, जिनकी निन्दासे गरुड़के पंख गिर गये थे। समान प्रकाशित होता और सहस्र गोदानका फल पाता है पुनः इनके द्वारा गरुड़को वरदान प्राप्त हुआ था (वन.८२ । ११४-११६)।
(उद्योग० ११३ । १२-१७)। (३) देवलोकमें शशलोमा-एक राजा, जिसने कुरुक्षेत्रके तपोवनमें तप
रहनेवाली एक पतिव्रता देवी, जो सम्पूर्ण तत्वोंको जानने
वाली और मनम्विनी थीं। इनके द्वारा केकयराजकुमारी करके स्वर्ग प्राप्त किया था ( आश्रम० २० । १४-१५)।
सुमनाको पातिवत्यका उपदेश (अनु. १२३ । ८शशाद-महाराज इक्ष्वाकुके परम धर्मात्मा पुत्र, जो पिताके
२०)। बाद अयोध्याके राजा हुए थे (वन० २०२।१)।
शाण्डिल्य-एक महातपस्वी प्राचीन ऋषि, जो इनके पुत्रका नाम ककुत्स्थ था (वन० २०२।२)।
युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते थे (समा. शशिक-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४६)। ४ । १०)। इनकी पुत्रीकी तपस्याका वर्णन शशोलूकमुखी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य. (शल्य० ५४ । ५-८)। ये शरशय्यापर पड़े हुए ४६।२२)।
भीष्मजीको देखने गये थे (शान्ति०४७।६)। इन्होंने
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ল
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बैलगाड़ीके दानको सुवर्ण-जल आदि सभी श्रेष्ठ वस्तुओंके सत्यवतीके गर्भसे चित्राङ्गद एवं विचित्रवीर्यका जन्म दानके समान बताया है (अनु० ६५ । १९)। राजा (भादि. १०१ । २-३)। इनका स्वर्गवास ( आदि० सुमन्युने भक्ष्य भोज्य-पदार्थोंके पर्वतों-जैसे कितने ही ढेर १. )। इनका अपने जीवनकालमें वनमें अनाथकी लगाकर उन्हें शाण्डिल्यको दान कर दिया था। इससे स्वर्ग- तरह पड़े हुए बालक कृप एवं कृपीको घर लाकर उनका लोकमें स्थान प्राप्त कर लिया ( अनु० १३७ । २२)। पालन-पोषण एवं समस्त संस्कार कराना (आदि० २२९ । शान्त- अह' नामक वसुके चार पुत्रों से एक । शेष
१८)। ये यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना तीनके नाम हैं--शम, ज्योति और मुनि ( आदि०६६।
करते हैं (सभा० ८।२५)। ये आर्चीकपर्वतपर तपस्या २३)।
करके नित्यधामको प्राप्त हुए थे (वन० १२५ । १९)। शान्तनु-महाराज प्रतीपके द्वितीय पुत्र । देवापिके अनुज
इन्होंने भीमसे पिण्ड लेनेके लिये अपना हाथ बढ़ाया था तथा बाह्रोकके अग्रज । इनकी माताका नाम सुनन्दा था
(अनु० ८४ । १५)। ये सायं-प्रातः स्मरण करने ( आदि० ९४ । ६१, आदि. ९५ । ४४ )। इनके
योग्य राजाओमें गिने गये हैं ( अनु. १६५। ५८)। बड़े भाई देवापिके बाल्यावस्था में ही राज्य छोड़कर वन महाभारतमें आये हुए शान्तनुके नाम-भारत, भारतचले जानेके कारण ये हो राजा हुए थे (आदि० ९४ । गोप्ता, भरतसत्तम, कौरव्य, कुरुसत्तमप्रातीप आदि । ६२, आदि० ९५ । ४५)। ये जिसे अपने दोनों हाथोंसे छू देते, वह सुख-शान्तिका अनुभव करता और बूढ़ेसे
शान्तमय-एक प्राचीन राजा ( आदि० ।। २३६ ) । जवान हो जाता था। इसीलिये इनका नाम शान्तनु हुआ शान्ता-राजा लोमपादकी गोद ली हुई पुत्री, जिसे राजाने (आदि० ९५। ४६)। ये पूर्वजन्ममें राजा महाभिष महर्षि ऋष्यशृङ्गके साथ ब्याह दिया था ( वन० ११० । थे। इनके स्वर्गसे मर्त्यलोकमें आनेका इतिहास (भादि. २६वन० ११३ । ११)। अपने पति ऋष्यशृङ्गके ९६ । १-५)। गङ्गाको पत्नी रूपमें स्वीकार करनेके साथ आश्रमपर आना और उनकी सेवामें सलग्न होना लिये इनको पिताका आदेश ( आदि. ९० । २१- (वन० ११३ । २२-२४)। महर्षि ऋष्यशृङ्गको २३)। गङ्गाके अनुपम रूपसे आकृष्ट हो उनसे अपनी शान्ताका दान करनेसे राजा लोमपाद सभी प्रकारके पत्नी होनेके लिये इनकी याचना ( भादि. ९७। प्रचुर भागासे सम्पन्न हो गये (शान्ति०२३४ । ३४)। ३१-३२)। गङ्गाके साथ इनके विवाहकी शर्त (आदि० शान्ति-(१) भूतपूर्व चौथे इन्द्रका नाम ( आदि० ९८ । ३)। इनके द्वारा गङ्गाको फटकार (भादि०
१९६ । २९)। (२) एक प्राचीन ऋषि, जो राजा ९८ । १६ ) । इनको वसिष्ठद्वारा वसुओंको प्राप्त हुए
उपरिचरके यज्ञके सदस्य बने थे ( शान्ति० ३३६ । शापका वृत्तान्त बतलाकर गङ्गाका अन्तर्धान होना (आदि.
८)। इनके पिताका नाम अङ्गिरा था। ये अग्निवंशमें ९९ । ५-४६)। इनका सम्राटपदपर अभिषेक (भादि.
उत्पन्न होनेसे आग्नेय कहलाये ( अनु० ८५ । १००।७)। इनके राज्यकी विशेषता (आदि. १००।।
१३०-१३१)। ८-२०)। गङ्गाजीका इनको बालक भीष्मका
शान्तिपर्व-महाभारतका एक प्रमुख पर्व । परिचय देना ( आदि० १०० । ३३ )। संध्यवतीके
शामित्र-यशके अन्तर्गत एक कर्मविशेष ( आदि० १९६ । रूपसे मोहित होकर उसकी प्राप्तिके लिये निषादराजसे इनकी याचना (आदि० १००1५०-५१)। सत्यवतीके पुत्रको ही सम्राट के पदपर अभिषिक्त करनेके लिये शारद्वती-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्म-कालिक
महोत्सवमें गान किया था (आदि. १२२ । ६४)। निषादराजका इनके प्रति प्रस्ताव ( आदि. १००।। ५४-५६ )। इनका निषादके प्रस्तावको अस्वीकार शाडू-भगवान् श्रीकृष्णका दिव्य धनुष (सभा०२।१४ करना (आदि. १००1५७-५८)। इनका इकलौते समा०३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२१॥ पुत्रको नहींके समान बतलाकर संतानकी महिमाका वन २०। १९) । कौरव-सभामें विश्वरूप धारण किये वर्णन करना (आदि. १००। ६६-७०)। इनकी हुए श्रीकृष्ण की एक भुजामें यह देदीप्यमान होता था वंशोच्छेदकी चिन्ता ( आदि. १००। ७०-७१)। (उद्योग० १३१ १०) । इन्द्र के विजय नामक धनुषकी इनको भीष्मद्वारा सत्यवतीका समर्पण ( आदि.१००। इसके साथ तुलना (उद्योग. १५८।४)। यह तीन १००)। इनके द्वारा भीष्मको स्वच्छन्द-मृत्युका वरदान दिव्य धनुर्षोमेंसे एक है । इसे भगवान् विष्णुका तेजस्वी (आदि.१०.१०२)। सत्यवतीके साथ इनका धनुष बताया गया है (उद्योग. १५८ । ५)। विधिपूर्वक विवाह ( आदि. १०१। )। इनके द्वारा लोकपितामह ब्रह्माने इसका निर्माण करके इसे श्रीहरिको
म.ना.४४
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शाङ्गकोपाख्यान
( ३४६ )
शाल्व
ना
समर्पित किया था (अनु०१४ ८ के बाद दा. पाठ, अविक्षित्के पुत्र । इनके अन्य सात भाइयों के नाम हैपृष्ठ ५९१५)।
परीक्षित्, आदिराज, विराज, शबलाश्व, उच्चैःश्रवा, शाकोपाख्यान-शार्ङ्गक पक्षियोंकी कथा ( आदि.
भङ्गकार और जितारि (भादि० ९४ । ५२-५३)। अध्याय २२८ से २३२ तक)।
शाल्मलिद्वीप-सुप्रसिद्ध जम्बू आदि सात द्वीपोंमेंसे एक
(भीष्म ११ । ३)। इस द्वीपमें उस शाल्मलि शारव-एक ऋषि, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें अध्वर्य बने थे (आदि. ५३ । ६)।
( सेमल ) वृक्षकी पूजा की जाती है, जिसके नामपर
इसका नामकरण हुआ है (भीष्म १२ । ६)। शार्दूली-क्रोधवशाकी पुत्री, जिसने सिंहों, बाघों और .
शाल्व-(१) एक क्षत्रियनरेश, जो वृषपर्वाके छोटे भाई चीतोंको जन्म दिया (आदि० ६६ । ६१, ६५)।
अजकके अंशसे उत्पन्न हुआ था (भादि०६७।१६. शालकटङ्कट-राक्षस अलम्बुषका नामान्तर (द्रोण. १०९ ।
१७)। काशिराजको पुत्री अम्बाके स्वयंवरमै भीष्मद्वारा २२-३१)। (देखिये अलम्बुष)
इसकी पराजय (आदि० १०२ । ३४-४९)। यह शालिक-एक दिव्य महर्षि, जो हस्तिनापुर जाते समय सोभ नामक विमानका अधिपति था और अम्बाने मनमार्गमें श्रीकृष्णसे मिले थे ( उद्योग० ८३। ६४ के बाद
ही-मन इसे अपना पति चुन लिया था ( आदि. दाक्षिणात्य पाठ)।
१०२ । ६१-६२)। यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था शालिपिण्ड-कश्यपद्वारा कद्रके गर्भसे उत्पन्न एक नाग (आदि. १८६।१५)। युधिष्ठिरके राजसूययशमें भी (भादि० ३५।१४)।
आया था (सभा० ३४ । १)। श्रीकृष्णद्वारा इसके शालिशिरा-एक देवगन्धर्व, जो कश्यपपत्नी मुनिके गर्भसे
मारे जानेकी चर्चा (वन १२ । ३२)। इसके वधउत्पन्न हुए थे (आदि. ६५ । ४४)। ये अर्जुनके
की संक्षिप्त कथा (वन. १४ अध्याय)। इसका द्वारकाजन्मकालिक महोत्सवमें उपस्थित हुए थे (आदि० १२२।
पर आक्रमण, साम्ब, प्रद्युम्न आदिके साथ युद्ध तथा ५६)।
श्रीकृष्णद्वारा वध होनेकी विस्तृत कथा (वन० अध्याय शालिसूर्य-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक तीर्थ,
१५ से २२ तक)। भीष्मसे आज्ञा लेकर आयी हुई
अम्बाका इसके द्वारा परित्याग ( उद्योग. १७५ । जो शालिहोत्रका स्थान है। यहाँ स्नानसे सहस्र गोदानका
२४) । (२) व्युषिताश्वपत्नी भद्राने अपने मृत फल मिलता है (वन० ८३ । १०७)।
पतिके शवके साथ शयन करके तीन शाल्व' और चार शालिहोत्र-एक मुनि, जिनके आश्रममें व्यासजी ठहरे थे।
'मद्र' उत्पन्न किये थे (यहाँ 'शाल्व' और 'मद्र' का इनके आश्रमके पास एक सरोवर तथा पवित्र वृक्ष था।
अर्थ है उन-उन देशोंके शासक ) (आदि. १२० । वह वृक्ष सर्दी, गर्मी तथा वर्षाको अच्छी तरह सहने
३२-३६) । शाल्वदेशके लोग जरासंधके डरसे वाला था। वहाँ केवल जल पी लेनेसे भूख-प्यास दूर हो
दक्षिण दिशाको भाग गये थे। (सभा०१४। २६)। जाती थी। उस सरोवर और वृक्षका निर्माण शालिहोत्र
प्राचीनकालमें शाल्वदेशपर धुमत्सेन नामक एक धर्मात्मा मुनिने अपनी तपस्याद्वारा किया था (आदि०१५४ । १५ के क्षत्रिय नरेश शासन करते थे (जिनके पुत्र सत्यवान्का बाद दा. पाठ, पृष्ठ ४६३)। इनके आश्रममें हिडिम्बा
सावित्रीके साथ विवाह हुआ या)(वन. २९४ । के साथ पाण्डवोका आगमन । इनके द्वारा भूखसे पीड़ित
.)। कौरवसेनाके संरक्षकोंमें शाल्वदेशके योद्धाओंका हुए पाण्डवोंको भोजन-दान ( आदि०१५४ । १८ के
भी नाम आया है (उद्योग. १६० । १०२-१०३)। बाद दा० पाठ, पृष्ठ ४६४)। ये अश्वविद्याके आचार्य
शाल्व एक भारतीय जनपद है (भीष्म० ५। ३९)। थे और घोड़ोंकी जाति तथा उनके विषयकी तात्त्विक शाल्व योद्धाओंने अर्जुनपर आक्रमण किया था (भीष्मः बातें जानते थे (वन. ७१।२७)। इनका शालि
११७ । ३४-३५)। पाण्डवपक्षीय शाल्वदेशीय योद्धाओंसूर्य नामसे प्रसिद्ध एक तीर्थ है, जहाँ स्नान करनेसे ने द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया था (द्रोण. १५४ । सहस्र गोदानका फल मिलता है ( वन. ८३ ।
१०-११)। शाल्व आदि देशोके बड़भागी मनुष्य १०७)।
सनातन धर्मको जानते हैं (कर्ण०४५। १४-१५)। शालकिनी-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, जहाँ (३) पाण्डवपक्षका एक योद्धा, जिसे कौरवपक्षीय जाकर दशाश्वमेध तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य दस भीमरथने मारा था ( यह भीमरथ धृतराष्ट्रपुत्रसे भिन्न अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता है (वन० ८३ । १३)। था) (द्रोण० २५ । २६) । (४) एक म्लेच्छ. शाल्मलि-सोमवंशी महाराज कुरुके पौत्र तथा ( अश्ववान् ) गोंका राजा, जिसने पाण्डवोंकी विशाल सेनाका सामना
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शाल्वसेनि
( ३४७ )
शिखण्डी
करने के लिये उसपर आक्रमण किया था (शल्य. २.। १)। इसका हाथी पर्वतके समान विशालकाय, मदकी धारा बहानेवाला, मदोन्मत्त तथा ऐरावतके समान शक्तिशाली था। वह महाभद्र नामक गजराजके कुलमें उत्पन्न हुआ था । धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने सदा ही उसका आदर किया था । गजशास्त्रके शाता पुरुषोंने उसे अच्छी तरह सजाया था । वह युद्धके अवसरोंपर सदा ही सवारीके उपयोगमें लाया जाता था (शल्य. २० । २-३) उस हाथीपर आरूढ़ हुए राजा शाल्वका पाण्डवोपर आक्रमण और अपने पराक्रमसे पाण्डवसेनाको खदेड़ना। इसके हाथीका धृष्टद्युम्नपर आक्रमण करके उनके रथको घोड़ों और सारथिसहित कुचल डालना तथा धृष्टद्युम्नद्वारा उस गजराजका वध और सात्यकिद्वारा शाल्वके सिरका उच्छेद (शल्य० २०। ४-२६)। शाल्वसेनि-एक दक्षिण भारतीय जनपद (भीष्म० ९ ।
६१)। शाल्वायन-एक प्राचीन राजा, जो जरासंधके भयसे अपने भाइयों तथा सेवकोंके साथ दक्षिण दिशाको भाग गया
था (सभा०१४ । २७)। शाल्वेय ( शाल्वेयक)-शाल्वदेश तथा वहाँके निवासी
(वन० २६४ ॥६, विराट. ३० । २, उद्योग. ५४।
१८ उद्योग० १६३ । १०)। शिंशुमा-गान्धारराजकी पुत्री, इसका दूसरा नाम सुकेधी
भी था । भगवान् श्रीकृष्णकी रानी (सभा० ३८।२९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२०)।( विशेष देखिये
सुकेशी) शिक्षक-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७६)। शिखण्ड-छत्रक (भुइँफोड़), जो वृत्रासुरके रक्तसे उत्पन्न हुआ है। यह ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्योंके लिये अभक्ष्य
है (शान्ति. २०२। ६०)। शिखण्डिनी-राजा द्रुपदकी कन्या, जो आगे चलकर
पुरुषरूपमें परिणत हो गयी थी। पुरुषरूपमें इसका नाम 'शिखण्डी' था ( उद्योग० १८८ । ४-१४; उद्योग
१९१ ।)। ( विशेष देखिये शिखण्डी) शिखण्डी-राजा द्रुपदका पुत्र, जो पहले शिखण्डिनी नामवाली
कन्याके रूपमें उत्पन्न होकर पीछे पुत्ररूपमें परिणत हो गया था। स्थूणाकर्ण नामक यक्षने इसका प्रिय करनेकी इच्छासे इसे पुरुष बना दिया था ( आदि. १३ । १२५)। यह राक्षसके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि०६७। १२६)। उपप्लव्य नगरमें अभिमन्युके विवाहोत्सवमें सम्मिलित हुआ था (विराट०७२।१७)। इसने उलूकको दुर्योधनके संदेशका उत्तर दिया था ( उणेग.
१६३ । ४३-४५) । इसका द्रुपदके यहाँ उनकी मनस्विनी रानीके गर्भसे पुत्रीरूपमें जन्म । माता-पिता द्वारा इसके पुत्रीभावको छिपाकर पुत्र होनेकी घोषणा तथा इसके पुत्रोचित संस्कारोंका सम्पादन (उद्योग. १८८।९--१९)। इसे लेखन और शिल्पकलाकी शिक्षाका प्राप्त होना । माता-पिताका परस्पर सलाह करके इसका दशार्णराजकी कन्याके साथ विवाह कर देना (उद्योग० १८९।१-१३)। दशार्णराजकी कन्याक शिखण्डीके स्त्रीत्वका पता लगनेपर अपनीधार्यों और सखियोंको इसकी सूचना देना और धार्योंका दशार्णराजतक यह समाचार पहुँचाना । दशार्णराजका कुपित होना । शिखण्डीका राजकुलमें पुरुषकी भाँति घूमना-फिरना तथा दशार्णराजका दूत भेजकर कन्याको पुत्र बताकर धोखा देनेके अपराध द्रुपदको जड़मूलसहित उखाड़ फेंकनेकी धमकी देना (उद्योग. १८९ । १५-२३ )। हिरण्यवर्मा के भयसे घबराये हुए द्रुपदका अपनी महारानीसे संकटसे बचनेका उपाय पूछना । द्रुपदपत्नीका कन्याको पुत्र घोषित करनेका उद्देश्य बताना । राजाके द्वारा नगरकी रक्षाकी व्यवस्था और देवाराधन । शिखण्डीका वनमें प्राण त्याग देनेकी इच्छासे वनमें जाना, स्थूणाकर्ण यक्षके भवनमें तपस्या करना, यक्षका इसे वर माँगनेके लिये प्रेरित करना तथा शिखण्डिनीका अपने माता-पितापर आये हुए संकटके निवारणके लिये पुरुषरूपमें परिणत हो जानेके लिये इच्छा प्रकट करना ( उद्योग. १९१ अध्याय)। स्थूणाकर्णका पुनः लौटानेकी शर्तपर कुछ कालके लिये इसे अपना पुरुषत्व प्रदान करना । शिखण्डीका नगरमें आकर पिता तथा राजा हिरण्यवर्माको अपने पुरुषत्वका विश्वास दिलाकर संतुष्ट करना (उद्योग० १९२ । १-३२)। शिखण्डीका पुरुषत्व लौटानेके लिये यक्षके पास जाना और यक्षका अपनेको स्त्रीरूपमें ही रहनेका शाप प्राप्त हुआ बताकर इसे लौटा देना (उद्योग. १९२ । ५३-५७)। द्रोणाचार्यसे अस्त्रशिक्षाकी प्राप्ति ( उद्योग. १९२।६०-६१)। प्रथम दिनके संग्राममें अश्वत्थामाके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्मः ४५। ४६-४८)। द्रोणाचार्यके भयसे इसका युद्धसे हट जाना (भीष्म०६९।३१)। अश्वत्थामाके साथ युद्ध और उनसे पराजित होना (भीष्म०८२ । २६-३०)। शल्यके अस्त्रको दिव्यास्त्रद्वारा विदीर्ण करना (भीष्म ८५। २९-३०)। भीष्मको उत्तर देना और उनको मारनेके लिये प्रयत्न करना (भीष्म. १००। ४५-५०)। अर्जुनके प्रोत्साहनसे इसका भीष्मपर आक्रमण (भीष्म ११०१-३)। भीष्मपर धावा (भीष्म० ११४। ४०)। अर्जुनके प्रोत्साहनसे भीष्मपर आक्रमण (भीष्म
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शिखावर्त
( ३४८ )
शिवि
-
११७।१-७)। अर्जुनसे सुरक्षित होकर भीष्मपर धावा अपनेको मिलनेवाले पुण्यलोकोंके विषयमें पूछना करना (भीष्म. ११८ । ४३)। भीष्मपर प्रहार ययातिका उत्तर देना। इनका ययातिको अपने (भीष्म ११९ । ४३-४४)। धृतराष्ट्रद्वारा इसकी पुण्यलोक देना और उनका अस्वीकार करना (आदि. वोरताका वर्णन (द्रोण.१०। ४५-४६)। भूरिश्रवाके ९३ । ६-९)। अष्टक आदि राजर्षियोंके साथ इनका साथ इसका युद्ध (द्रोण०१४ । ४३-४५)। इसके स्वर्गलोकको गमन (आदि०९३।१६ के बाद दा०पाठ)। रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण २३ । १९-२०)। स्वर्गके मार्गमें अष्टकके पूछनेपर ययातिद्वारा इनकी श्रेष्ठता विकर्णके साथ युद्ध (द्रोण २५ । ३६-३०)। तथा इनके दानकी महिमाका वर्णन (आदि. ९३ । १८बाहीकके साथ युद्ध (द्रोण. ९६ । ७-१०)। १९)। ये यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना कृतवर्माके साथ युद्ध और उसके द्वारा इसकी पराजय करते हैं (सभा० ८।१०)। नारदजीद्वारा महोत्रके (द्रोण. ११४ । ८२-९.)। कृपाचार्यद्वारा पराजय मार्ग रोकनेपर इनकी श्रेष्ठताका वर्णन (वन० १९४ । (द्रोण. १६९ । २२-३२)। कृतवर्मा के साथ युद्ध में ५)। इनकी श्रेष्ठताकी परीक्षाके लिये देवताओंकी मन्त्रणा इसका मूर्छित होना ( कर्ण० २६ । २६-३७)।। (वन० १९७।।)। इनकी शरणागतरक्षाके विषयमें कृपाचार्यसे पराजित होकर भागना (कर्ण०५४१-२३)। बाजरूपधारी इन्द्रसे वार्ता (वन० १९७।११-१९)। कर्णद्वारा इसकी पराजय (कर्ण०६१७-२३)। प्रभद्रकोंकी इनका अपने शरीरका मांस काटकर बाजके लिये तराजूके सेना साथ लेकर इसका कृतवर्मा और महारथी कृपाचार्यके पलड़ेपर रखना और पूरा न पड़नेपर स्वयं भी उसपर चढ़ साथ युद्ध (शल्य०१५।७)। द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको आगे जाना (वन० १९७ । २१-२३)। कपोतरूपधारी बढ़नेसे रोकना (शल्य१६।६)। अश्वत्थामाद्वारा अग्निदारा इन्हें वर-प्रदान (वन०१९७ । २६-२८)। इसका वध (सौप्तिक.८।६५)।
देवर्षि नारदद्वारा इनकी महत्ताका प्रतिपादन । ब्राह्मणके महाभारतमें आये हुए शिखण्डीके नाम-भीष्महन्ता, लिये इनके द्वारा अपने पुत्रके वधका वृत्तान्त (वन. भीष्मनिहन्ता, शिखण्डिनी, द्रौपदेय, द्रुपदात्मज, पाञ्चाल्या
१९८ अध्याय)। विराटनगरमें गोहरणके समय कृपाचार्य याज्ञसेनि आदि।
और अर्जुनका युद्ध देखने के लिये इन्द्र के साथ विमानपर
बैठकर आये थे (विराट० ५६ । ९.१०)। ये ययातिशिखावर्त-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें आकर उनकी
की पुत्री माधवीके गर्भसे उशीनरनरेशद्वारा उत्पन्न हुए सेवामें उपस्थित होता है (सभा०१०।१७)।
थे ( उद्योग० ११८।--२०)। इनका ययातिको शिखावान-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे
अपना पुण्यफल देना (उद्योग. १२२।८-११)। (सभा० ४।१४)।
इन्हें भारतवर्ष बहुत ही प्रिय रहा है (भीष्म. ९। - शिखी-कश्यपकुलमें उत्पन्न एक नाग (उद्योग०१०३।१२)। १)। संजयको समझाते समय नारदजीद्वारा इनके यज्ञ शितिकण्ठ-एक नाग, जो बलरामजीके परमधाम-गमनके और दानकी महत्ताका वर्णन (द्रोण० ५८ अध्याय)।
समय उनके स्वागतमें आया था (मौसल. ४१६)। श्रीकृष्णद्वारा नारद-सुंजय-संवादके उल्लेखपूर्वक इनके दानशितिकेश-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५। ६१)।
यज्ञका वर्णन (शान्ति० २९ । ३९-४४)। यदुवंशियों
से इन्हें खगकी प्राप्ति (शान्ति० १६६ । ८०)। इनका शिनि-देवमीढके वंशज एक प्रधान यादव । इन्होंने अकेले
ब्राह्मणके लिये अपने औरस पुत्रका दान तथा उससे इन्हें ही समस्त राजाओंको परास्त करके वसुदेवके लिये देवकी- स्वर्गकी प्राप्ति (शान्ति. २३४ । १९; अनु० १३७ । को जीता था (द्रोण. १४४ । ६-१०)। इनका )। अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर शपथ खाना सोमदत्तके साथ युद्ध । उन्हें पटककर लात मारना तथा (अनु० ९४ । २६)। इनके द्वारा मांसभक्षण-निषेध
उनकी चुटिया पकड़ना (द्रोण. १४४ । १२-१३)। (अनु० ११५।६.)।(३) एक देश तथा वहाँके शिपिविष्ट-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम । इसकी व्याख्या निवासी । महाराज शान्तनुकी माता सुनन्दा यहींकी (शान्ति० ३४२ । ७.)।
राजकुमारी थीं (भादि० ९५। ४४ ) । युधिष्ठिरके शिबि-(१) एक दैत्य, जो हिरण्यकशिपुका पुत्र था
श्वशुर गोवासन यहींके राजा थे (आदि. ९५। ७६)। ( आदि. ६५। १८)। यह द्रुम नामक राजाके
इस देशको पश्चिम-दिग्विजयके अवसरपर नकुलने जीता रूपमें पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था ( आदि०६७।८)।
था (सभा० ३२.)। यहाँके निवासी राजा युधिष्ठिरके (२) एक प्राचीन राजर्षि, जिनका संग प्राप्त करके ययाति राजसूययशमें भेंट लेकर आये थे (सभा० ५२ । १४)। वर्गको गये थे (आदि. ८६।६)। इनका ययातिसे इस देशके राजा उशीनर थे (वन०१३।२१)।
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शिरीषक
यह देश किसी समय जयद्रथके अधिकारमें था ( वन० २६७ । ११ ) । अर्जुनने जयद्रथके साथ आये हुए शिविदेश के सैनिकोंका संहार कर डाला ( वन० २७१ । २८ ) । इस देशके महारथी अपनी सेनाके साथ दुर्योधनकी सहायता में थे ( उद्योग० १९५ । ७-८ )। शिविदेशको कभी कर्णने जीता था ( द्रोण० ९१ । ३८-४०) । इस देश के लोग पहले कम समझवाले होते थे ( कर्ण० ४५ । ३४-३५) । ( ४ ) उशीनर देश या कुलमें उत्पन्न एक राजा, जो द्रौपदीके स्वयंवर में आया था ( आदि ० १८५ । १६ ) | यह पाण्डवपक्षका एक योद्धा था और द्रोणाचार्य के साथ लड़ा था ( द्रोण० ८ । २५ ) । द्रोणाचार्यद्वारा इसका वध ( द्रोण० १५५ । १९ ) | ( ५ ) भूतपूर्व पाँच इन्द्रोंमेंसे एक, जो पर्वतकी कन्दरामै अवरुद्ध थे; इन सबको मानवलोक में जन्म लेनेके लिये भगवान् शिवका आदेश (आदि० १९६ । १९ - ३० ) । शिरीषक- एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ | १४ ) । शिरीषी - विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५९ ) ।
( ३४९ )
शिलायूप - विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५४ ) ।
शिली - तक्षक- कुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके यज्ञमें • जल मरा था (आदि० ५७ । ९ ) । शिव - (१) सच्चिदानन्दघन परमात्मा, जो 'ईशान' कहे
गये हैं । ये ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं ( आदि ० १।२२ ) । ब्राह्मकल्पके आदिमें जो महान् दिव्य अण्ड प्रकट हुआ था, जिसमें सत्यस्वरूप, ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुआ है, उससे ब्रह्मा तथा स्थाणु नामवाले शिवका भी प्रादुर्भाव हुआ है ( आदि ० १ । ३०-३२ ) । इन्होंने ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे त्रिलोकीकी रक्षा के लिये कालकूट नामक विषको कण्ठमें धारण कर लिया, तभीसे ये कण्ठ में नील चिह्नके कारण 'नीलकण्ठ' कहलाने लगे ( आदि० १८ । ४१-४३ ) । स्थाणु नाम से ये ही परम तेजस्वी ग्यारह रुद्रोंके पिता हैं ( आदि० ६६ । १ ) | अश्वत्थामा इनके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ७२-७३) । इन्होंने गान्धारीको सौ पुत्र होनेका वरदान दिया था ( आदि० १०९ । १०)। इन्होंने एक तपस्विनी ऋषिकन्याको पाँच पति प्राप्त होनेका वर दिया था, जो दूसरे जन्ममें द्रौपदी हुई थी ( आदि० १६८ । ६-१५ ) । इनके द्वारा पाँच इन्द्रोंका हिमालयकी गुफार्मे अवरोध और उन्हें मनुष्यलोक में पाण्डवोंके रूपमें जन्म लेनेके लिये आदेश (आदि० १९६ । १६--३० ) | तिलोत्तमाके रूपको देखने के लिये
शिव
इनके चतुर्मुख होने की उत्प्रेक्षा (आदि० २१० । २२ - २८ ) । इनके द्वारा प्रभञ्जनको उसके कुलमें एक-एक संतान होनेका वरदान ( आदि० २१४ | २०-२१ ) । बारह वर्षो निरन्तर अग्निमें आहुति देनेके लिये इनका श्वेतकिको आदेश ( आदि० २२२ । ४१-४८ ) । इनकी ब्राह्मणसे यज्ञ करानेके लिये राजा श्वेतकिको सामग्री जुटाने की आज्ञा ( आदि० २२२ । ५१-५३ ) । उनके यज्ञका सम्पादन करने के लिये इनका दुर्वासाको आदेश ( आदि ० २२२ । ५७-५८ ) । एक हजार युग बीतने पर विन्दुसरपर यज्ञ करते हैं ( सभा० ३ । १५ ) । ये पार्वतीदेवी तथा अपने गणोंके साथ कुबेरकी सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० १० । २१-२४ ) । जरासंधने उग्र तपस्या के द्वारा इनकी आराधना करके एक विशेष प्रकारकी शक्ति प्राप्त कर ली थी, इसीसे सब राजा उसमें परास्त हो गये थे (सभा० १४ । ६४-६५) । बाणासुरको इनका वरदान। इनके द्वारा बाणासुरकी राजधानीकी रक्षा तथा बाणासुरकी रक्षाके लिये इनका श्रीकृष्णके साथ भयानक युद्ध ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२१-८२३) । ये भगवान् श्रीहरिके ललाटसे प्रकट हुए थे ( वन० १२ । ४० ) । अर्जुनकी उम्र तपस्या के विषय महर्षियोंका पिनाकपाणि महादेवजी के साथ वार्तालाप और इनका उन्हें आश्वासन देकर विदा करना वन० ३८ | २८-३५ ) । इनका किरातवेष धारण करके धनुष-बाण ले नाना वेषधारी भूतों, सहस्रों स्त्रियों और भगवती उमाके साथ वनमें अर्जुनके समीप जाना और उन्हें मारने की घातमें लगे हुए मूक नामक वाराहरूपधारी दानवको अर्जुनके साथ ही बाण मारना । फिर अर्जुनके साथ इनका विवाद और युद्ध | इनपर अर्जुनके बाणोंका विफल होना । इनके साथ उनका मल्लयुद्ध | पराजित हुए अर्जुनका भगवान् शिवकी शरणमें जाकर इनकी पार्थिव मूर्तिका पूजन करना और अपनी चढ़ायी हुई मालाको किरात के सिरपर विद्यमान देख इन्हें पहचानकर अर्जुनका इनके चरणों में पड़ जाना । भगवान् शिवका संतुष्ट होकर उन्हें पाशुपतास्त्र देनेके लिये कहना । अर्जुनद्वारा इनका स्तवन । इनका अर्जुनको हृदयसे लगाना और उन्हें वरदान देकर पाशुपतास्त्र के धारण और प्रयोगका नियम बताते हुए उन्हें उस अस्त्रका उपदेश देना । उस प्रज्वलित अस्त्रका अर्जुन के पार्श्वभागमें स्थित दिखायी देना । इनके स्पर्शसे अर्जुनके अशुभका नष्ट होना तथा अर्जुनको स्वर्गलोक में जानेकी आज्ञा दे उन्हें उनके अस्न गाण्डीव आदिको लौटाकर उमासहित भगवान् शिवका आकाशमार्ग से प्रस्थान (वन० अध्याय ३९ से ४० तक ) । इनका मङ्कणक मुनिका नृत्य रोकनेके लिये
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शिव
( ३५० )
शिव
अपनी अंगुलीसे भस्म प्रकट करना ( वन० ८३ । ११७-१२५)। इनके द्वारा मङ्कणकको वरदान (वन० ८३ । १३२-१३४)। इनके द्वारा राजा सगरको संतान प्राप्ति के लिये वरदान (वन० १०६ । १५.१६)। इनका राजा भगीरथको वर देना (वन०१०९ । १-२)। गङ्गाको सिरपर घारण करना (वन. १०९।९)। इनके वीर्यसे मिजिकामिजिक नामक जोड़ेकी उत्पत्ति (वन० २३१ । १०)। इनकी भद्रवट यात्रा (वन. २३१ । १४-५४ ) । देवासुरसंग्राममें महिषासुरके वधके लिये इनका स्कन्दको याद करना (वन० २३ । ९०)। इनके द्वारा जयद्रथको वरप्रदान (वन० २७२। २८)। इनके द्वारा नरसखा नारायणकी महिमाका वर्णन (वन० २७२ । ३१-७७)। इनका भीष्मके वधके लिये अम्बाको वरदान देना (उद्योग १८७१२-१५)। इनका द्रुपदको एक कन्या उत्पन्न होनेका वर देना (उद्योग० १८८ । ४-५)। भगवान् शिव मेरुपर्वतपर उमाके साथ रहते हैं। ये एक लाख वर्षातक गङ्गाजीको अपने सिरपर ही धारण किये रहे (भीष्म०६।२५-३१)। शाकद्वीपमें इनकी आराधना की जाती है ( भीष्मा १५ । २८ ) । कुपित ब्रह्माको शान्त करनेके लिये इनका उनके पास जाना ( द्रोण. ५२। ४३ )। क्रोध शान्त करनेके लिये ब्रह्मासे इनकी प्रार्थना और इन दोनोंका परस्पर वार्तालाप (द्रोण. ५३ । १-१४)। पुण्यजनोद्वारा पृथ्वीदोहनके समय ये बछड़ा बने थे (द्रोण. ६९ । २४)। इनका नर-नारायणस्वरूप श्रीकृष्ण और अर्जुनका स्वागत करना और उनको अभीष्ट वर देनेको कहना ( अर्जुनका स्वप्न ) (द्रोण० ८० । ५१-५२) । अर्जुनको पाशुपतास्त्रका दान (अर्जुनका स्वप्न ) (द्रोण० ८१ । २१. २२)। ब्रह्मासहित देवताओंकी प्रार्थनापर प्रसन्न होकर इन्द्रको कवच प्रदान करना (द्रोण० ९४ । ३१-६३)। सोमदत्तको पुत्र होनेका वर देना और अपनेको श्रीकृष्णसे भिन्न बताना (द्रोण० १४४ । १६-१८)। नारायणद्वारा भगवान् शिवकी आराधना, स्तुति और इनसे वरप्राप्तिकी कथा (द्रोण. २०१। ५६-९६)। व्यासजीका अर्जुनको भगवान् शिवकी महिमा बताना और त्रिपुर-वधके समय उनके रथ आदि सामग्रीका उल्लेख करना (द्रोण. २०२ अध्याय)। त्रिपुराँसे भयभीत देवताओंको अभयदान देना (कर्ण० ३३ । ६१)। देवताओंका आधा बल लेकर त्रिपुर-वधके लिये उद्यत होना (कर्ण०३४।१४)। इनके विचित्र रथ आदिका वर्णन (कर्ण० ३४ । १६-५७)। इनके द्वारा वृषभके खुरोका चीरा जाना और घोड़ोंका स्तन काटना
(कर्ण० ३४ । १०५)। इनके द्वारा त्रिपुरोंका वध (कर्ण०५४।११४)। इनका परशुरामको वरदान देना (कर्ण० ३४ । १४५-१४७)। कर्ण और अर्जुनके द्वैरथ युद्ध, इन्द्रके पूछनेपर अर्जुनकी विजय बतलाना (कर्ण०८७६९-८५) । मङ्कणक मुनिपर कृपा (शल्य०३८ । ५२-५८) । स्कन्दको पार्षदरूपमें एक महान् असुर प्रदान करना (शल्य०४५। २६)। स्कन्दको पताका और असुर-सेना देना (शल्य. ४६ । ४६-४८)। अरुन्धतीकी परीक्षा लेना और उन्हें वर देना (शल्य०४८ । ३८-५४) रातमें आक्रमण करते हुए अश्वत्थामाके अस्त्रोको निगल जाना (सौप्तिक.
१-१.)। अश्वत्थामाके आत्मसमर्पणसे प्रसन्न होकर उसके शरीरमें प्रवेश करना और उसे एक खड्ग प्रदान करना (सौप्तिक०७।६६)। इनका कुपित होकर अपने लिङ्गको काट डालना (सौप्तिक०१७। २१)। इनके कोपसे देवता यज्ञ और जगत्की दुरवस्था (सौप्तिक.१८।४-१९)। इनकी कृपासे सबका स्वस्थ होना (सौप्तिक. १८ । २०--२३)।ये गजासुरके चर्मको वस्त्रकी भाँति धारण करते हैं। सर्वस्वसमर्पण नामक यज्ञमें अपने-आपको भी होमकर देवताओंके भी देवता हो गये हैं (शान्ति०२०।१२)। परशुरामजीने इनसे अनेक प्रकारके अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये थे (शान्ति० ४९ । ३)। इन्होंने ब्रह्माजीके दण्डनीति-शास्त्रको सबसे पहले स्वयं ही ग्रहण करके संक्षिप्त किया । इनसे इन्द्रने उसको ग्रहण किया (शान्ति० ५९ । ८०-८२)। एक मरे हुए ब्राह्मणबालकको जीवन तथा गीध एवं गीदड़को भी भूख मिटनेका वर देना (शान्ति. १५३ । ११४-१५)। ब्रह्मासे खड्न प्राप्त करके दानवोंको परास्त करना (शान्ति०१६ । ५४-६३)। फिर भगवान् शिवका उसे भगवान् विष्णुके हायमें देना (शान्ति. १६६ । ६६)। कुपित हुए ब्रह्माजीके क्रोधको शान्त करना (शान्ति. २५७ । ६-१२)। वृत्रासुरको मारनेके लिये इन्द्रको प्रोत्साहन और अपने अंशसे उनमें प्रवेश करना (शान्ति० २८१ । ३४-३८)। दक्ष-यज्ञके विषयमें पार्वतीजीसे वार्तालाप और दक्ष-यशका नाश ( शान्ति. २८३ । २३-४४ ) । पार्वतीको सान्त्वना देना (शान्ति. २८४ । २४-२८)। अपने शरीरसे वीरभद्रको प्रकट करना (शान्ति० २८४ । २९)। दक्षके शरणागत होनेपर हवनकुण्डसे प्रकट हो उनपर कृपा करना (शान्ति. २८५। ५८-६०) । सहस्रनामद्वारा दक्षके स्तुति करनेपर उनको वरदान देकर अन्तर्धान होना (शान्ति० २८४ । १८२-१९.)।
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शिव
( ३५१ )
शिशुपाल
उशनापर इनका कोप करना और उन्हें शिश्नद्वारसे बाहर महायोगी, महेश, महेश्वर, महिषघ्न, मखन, मीढ्वा, निकालना ( शान्ति. २८९ । १४-३४ )। मृगव्याध, मुनीन्द्र, नन्दीश्वर, निशाचरपति, नीलग्रीव शुक्राचार्यको अभयदान देना (शान्ति० २८९ । ३६)। नीलकण्ठ, नीललोहित, पशुभर्ता, पशुपति, पिनाकधूका आसुरभावको नष्ट करना (शान्ति. २९४ । १६-१७)। पिनाकगोप्ता, पिनाकहस्त, पिनाकपाणि, पिनाकी, पिङ्गल, व्यासजीको पुत्र प्राप्ति के लिये वर देना (शान्ति० ३२३ । प्रजापतिमखघ्न, रुद्र, ऋषभकेतु, सर्व, सर्वयोगेश्वरेश्वर, २७-२९ ) । व्यासपुत्र शुकदेवका उपनयन-संस्कार स्थाण, त्रिशूलहस्त, त्रिशूलपाणि, त्रिलोचन, त्रिनयन, करना (शान्ति. ३२४ । १९)। पुत्रशोकमें व्याकुल त्रिनेत्र, त्रिपुरघाती, त्रिपुरघ्न, त्रिपुरहर्ता, त्रिपुरमर्दन, व्यासजीको समझाना (शान्ति. ३३३ । ३४-३०)। त्रिपुरनाशन, त्रिपुरान्तक, त्रिपुरान्तकर, त्रिपुरार्दन नारायणके साथ युद्ध करना (शान्ति० ३४२ । ११०- त्रिपुरविघ्न, व्यक्ष, त्र्यम्बक, उग्र, उग्रेश, उमापति, ११६)। वैजयन्त पर्वतपर ब्रहासे परमपुरुषके विषयमें विशालाक्ष, विलोहित, विरूपाक्ष, वृषभध्वज, वृषभाङ्क इनका प्रश्न (शान्ति० ३५० । २३-२४)। शिवके वृषभवाहन, वृषध्वज, वृषकेतन, वृषाङ्क, वृषवाहन, याम्य, माहात्म्यका विशेष वर्णन (अनु० १४ अध्याय)। तण्डि यति, योगेश्वर आदि । (२) एक अग्नि, जो शक्तिकी मुनिको वर प्रदान करना (अनु० १६ । ६९-७१)। आराधनामें लगे रहते हैं। ये समस्त दुःखातुर मनुष्योंका इनके सहस्रनामका वर्णन (अनु. १७ अध्याय)। शिव (कल्याण) करते हैं। इसीसे इन्हें शिव कहते हैं दक्षने इनको एक वृषभ प्रदान किया, जो इनका वाहन (वन० २२१ । २)। और ध्वज हआ (अनु. ७७ । २०-२८)। वरुण- शिवा-१) अनिल नामक वसुकी भार्या । इनके दो रूपसे इनके यशका वर्णन ( अनु. ८५। ८८
पुत्र थे-मनोजव तथा अविज्ञातगति (आदि०६६ । १६)। इनके धर्मसम्बन्धी रहस्यका वर्णन (अनु.
२५)। (२) अङ्गिराकी भार्या जो शील, रूप और १३३ अध्याय)। तीसरा नेत्र प्रकट करके हिमालयको
सद्गणोंसे सम्पन्न थीं (वन० २२५ ।।)। (३) दग्ध करके पुनः उसे प्रकृतिस्थ करना (अनु. १५०।
भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल यहाँके निवासी पीते हैं ३३-३०)। पार्वतीजीके साथ संवाद (अनु० १४०। (भीष्म० ९ । २५)।
के बादसे अनु० १४५ अध्यायतक)। पार्वतीजीस पोटेट-एक तीर्थ, जहाँ सरस्वतीका दर्शन होता है। स्त्री-धर्मका वर्णन करनेके लिये कहना ( अनु० १४६ ।
उसमें स्नान करके मनुष्य सहस्त्र गोदानका फल पाता है २-१२)। इनके द्वारा श्रीकृष्णकी वंशपरम्परा तथा
(वन० ८२ । ११२-११३)। माहात्म्यका कथन ( अनु० १४७ अध्याय) । इनके द्वारा दक्ष-यश-विध्वंस (अनु० १६०। ११--२४)। शिशिर-सोमनामक वमुद्वारा मनोहराके गर्भसे उत्पन्न चार
पुत्रों से एक । शेष तीनके नाम हैं-वर्चा, प्राण और इनका त्रिपुरोको दग्ध करना (अनु० १६० । २५-- ३१) । पाँच शिखावाले बालकका रूप धारण करके रमण ( आदि० ६६ । २२)। इनका पार्वतीकी गोदमें आना (अनु० १६० । ३२)। शिशु-भगवान् स्कन्दकी कृपासे सप्तमातृकाओंके पुत्र, जो ये मुजवान् नामक पर्वतपर सदा तपस्या करते हैं अद्भुत पराक्रमी, अत्यन्त दारुण और भयङ्कर थे। इनकी ( आश्व० ८।)। इनको नाममयी स्तुति (आश्व. आँखें रक्तवर्णकी थीं। मातृकाओंसहित इन्हें 'वीराष्टक' 6। १२-३२)।
कहा जाता है (वन० २२८ । ११-१२)। महाभारतमें आये हुए शिवके नाम-अजा अम्बिकाभर्ता, शिशुपाल-चेदिदेशका एक प्रसिद्ध राजा, जिसके रूपमें
अनङ्गाङ्गहर, अनन्त, अन्धकघाती, अन्धकनिपाती, हिरण्यकशिपु दैत्य ही इस भूतलपर उत्पन्न हुआ था अथर्वा, बहुरूप, भगन, भव, भवन, भीम, शङ्कर (आदि.६७ । ५)। द्रौपदीके स्वयंवरमें इसका शर्व, शिपिकण्ठ, श्मशानवासी, श्रीकण्ठ, शुक्र, शूलभृत्।
आगमन ( आदि० १८५ । २३)। यह दमघोषका पुत्र शूलधर, शूलधूक, शूलहस्त, शूलाङ्क, शूलपाणि, शूली, था । द्रौपदी स्वयंवरमें धनुषपर हाथ लगाते ही यह दक्षकतुहर, धन्वी, ध्रुव, धूर्जटि, दिग्वासा, दिव्यगोवृषभ- घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़ा था ( आदि० १०६ । ध्वज, एकाक्ष, गणाध्यक्ष, गणेश, गौरीश, गौरीहृदय- २५)। यह कलिङ्गराजकी कन्याके स्वयंवरमें भी गया था वल्लभ, गिरीश, गिरिश, गोवृषाङ्क, गोवृषध्वज, गोवृषो- (शान्ति.१।६)। युधिष्ठिरके मयनिर्मित सभाभवनमें त्तमवाहन, हर, इर्यक्ष, जटाधर, जटिल, जटी, कामाङ्ग- यह भी विराजमान होता था (सभा० ४ । २९)। नाश, कपाली, कापालि, कपर्दी खटवानधारी, कृत्तिवासा, यह जरासंधका आश्रय लेकर उसका प्रधान सेनापति हो कुमारपिता, ललाटाक्ष, लेलिहान, महादेव, महागणपति, गया था (सभा. १४ । १०-११)। भीमसेन अपनी
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शिशुपालवधपर्व
( ३५२ )
शुकदेव
दिग्विजययात्रामें इसके द्वारा सम्मानित हुए थे (सभा० २९। ११-१२)। यह युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें आया था ( सभा० ३४ । १४) । राजसूय यशमें अग्रपूजाके समय श्रीकृष्णके प्रति इसके आक्षेपपूर्ण वचन (सभा० ३७ अध्याय)। युधिष्ठिरका इसे समझाना और भीष्मका
आक्षपोका उत्तर देना (सभा०३८।१-२९)। श्रीकृष्णकी अग्रपूजाके कारण राजसूय यज्ञमें उपद्रव मचानेके लिये इसका प्रयत्न (सभा० ३९।११-१२)। इसके द्वारा भीष्मकी निन्दा (सभा० ४१ अध्याय)। इसकी बातोसे भीमसेनका कुपित होना ( सभा०४२ । १-१२) । भीष्मजीके द्वारा इसके जन्मकालिक वृत्तान्तका वर्णन । इसके जन्म समयकी आकाशवाणी, इसकी मृत्युके निमित्तका उद्घोष तथा श्रीकृष्णकी गोदमें आनेपर इसकी दो भुजाओं तथा एक आँखका विलीन होना आदि (सभा० ४३ अध्याय)। इसका भीष्मको फटकारना (सभा० ४४ । ६-३२) । श्रीकृष्णकी अनुपस्थितिमें इसके द्वारा द्वारकाका दाह (सभा०४५। ७)। इसके द्वारा वसुदेवजीके यज्ञीय अश्वका अपहरण (सभा० ४५ । १)। इसका बभ्रकी पत्नीका हरण करना (सभा० ४५। १०)। विशाला-नरेश (अपने मामा) की पुत्रीका अपहरण (सभा०४५।११) श्रीकृष्णद्वारा इसका शिरश्छेदन ( वध)(सभा० ४५।२५)। परमात्मा श्रीकृष्णमें इसके तेजका समावेश (समा०४५। २१-२७)। श्रीकृष्णका अर्जुनके प्रति इसके वधका
कारण बताना (द्रोग० १८१।२१.२२)। महाभारतमें आये हुए शिशुपालके नाम-चेद्य, चेदिप,
चेदिपति, चेदिपुङ्गव, चेदिराट, चेदिराज, चेदिवृष,
श्रोतश्रवस, दमघोषसुत, दमघोषात्मज आदि । शिशुपालवधपर्व-सभापर्वके अन्तर्गत एक अवान्तर पर्व
(अध्याय १० से ४५ तक)। शिशुमारमुखी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य.
४६ । २२)। शिशुरोमा-तक्षककुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके
सर्पसत्रमें जल गया ( आदि० ५७ । १०)। शीघ्रा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके निवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । २९)। शीतपूतना-भयङ्कर आकारवाली एक पिशाची, जो मानवी स्त्रियोंके गर्भका हरण करनेवाली है (वन० २३० । २८)। शीताशी-शाकद्वीपकी एक पवित्र जलवाली नदी (भीष्मः
१५ । ३२)। शोलवान-एक दिव्य महर्षि, जो हस्तिनापुर जाते समय
मार्गमें श्रीकृष्णसे मिले थे (उद्योग० ८३ । ६४ के बाद
दाक्षिणात्य पाठ)। शक-(१)शर्यातिवंशज पृषतके पुत्र, जो अपने पराक्रमसे
शत्रुओंको संतप्त करनेवाले थे। इन्होंने सारी पृथ्वीको जीतकर अपने अधिकारमें कर लिया था और अश्वमेध-जैसे सौ बड़े-बड़े यज्ञका अनुष्ठान किया था, देवता तथा पितरोंकी आराधना की थी। तदनन्तर राज्य त्यागकर ये शतशृङ्ग पर्वतपर आ गये और शाक एवं फल मूलका आहार करते हुए तपस्या करने लगे। इन्होंने ही श्रेष्ठ उपकरणों तथा शिक्षाके द्वारा पाण्डवोंकी योग्यता बढ़ायी, इनके कृपाप्रसादसे सभी पाण्डव धनुर्वेदमें पारंगत हो गये थे। इन्होंने अर्जुनको नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये थे (आदि. १२३३१ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ १६९)।(२) रावणका मन्त्री, जो पानरका रूप धारण करके श्रीरामकी सेनामें आनेपर विभीषणद्वारा बंदी बना लिया गया था (वन० २८५। ५२) राक्षसरूपमें प्रकट होनेर श्रीरामने अपनी सेनाका दर्शन कराकर इसे मुक्त कर दिया था ( बन० २८३ । ५३) । (३) गान्धारराज सुबलका एक पुत्र शकुनिका भाई, इरावान्द्वारा इसका वध (भीष्म. ९०। २६-३२)। शुकदेव-व्यासजीके पुत्र तथा शिष्य । व्यासजीने पहले इन्हींको महाभारत ग्रन्थका अध्ययन कराया था (आदि. १।१०४)। शुकदेवजीने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसोंको चौदह लाख श्लोकोंसे युक्त महाभारतकी कथा सुनायी थी (आदि.१।०६-१०८ स्वर्गा० ५। ५५-५६)। इन्होंने सम्पूर्ण वेदों तथा महाभारतकी भी इन्हें शिक्षा दी थी ( आदि. १३ । ८९)। ये युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते थे (सभा० ४ । ११)। धर्मपालनसे ही इनका हृदय शुद्ध हुआ है (वन०१२)। व्यासजीसे इनके अनेक प्रश्न (शान्ति०२३१।९)। शुकदेवजीके प्रश्नके अनुसार व्यासजीके द्वारा ज्ञानके साधन
और उसकी महिमा, योगसे परमात्माकी प्राप्ति, कर्म और शानके अन्तर, ब्रह्मप्राप्तिके उपाय, ब्रह्मचर्य-आश्रम, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम, संन्यासके आचरण, परमात्माकी श्रेष्ठता, उसके दर्शनके उपाय, ज्ञानोपदेशके पात्रके निर्णय, महाभूतादि तत्त्वोंके विवेचन बुद्धिकी श्रेष्ठता, प्रकृति-पुरुष-विवेक, शानके साधना ज्ञानीके लक्षण, परमात्म-प्राप्तिके साधन, संसारनदी, ज्ञानसे ब्रह्मकी प्राप्ति, ब्रह्मवेत्ताके लक्षण, शरीरमें पञ्चभूतॊके कार्य और गुणोंकी पहचान, परमात्मसाक्षात्कारके प्रकार, कामवृक्षः उसे काटकर मोक्षप्राप्ति, शरीरनगर तथा पञ्चभूतः मन और बुद्धिके गुण आदिका वर्णन (शान्ति० २३९ । मे २५५ अध्यायतक)।
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शुकी
( ३५३ )
शुक्राचार्य
पिताके आदेशसे मोक्षतत्त्वके उपदेशके लिये इनका गुरुके शुक्र-एक राक्षस ( अनु० १४ । २१४)। पास जाना (शान्ति० ३२१ । ९४) । अरणि काष्ठसे शुक्राचार्य-महर्षि भृगुके पुत्र, जो असुरोंके उपाध्याय थे, व्यासजीके वीर्यद्वारा इनकी उत्पत्तिकी चर्चा ( शान्ति० इनका दूसरा नाम उशना था । इनके चार पुत्र हुए, ३२४ । ९-१०) शिवजीद्वारा इनका उपनयन संस्कार जो दैत्योंके पुरोहित थे (आदि० ६५। ३६ )। (शान्ति. ३२४ । १९)। पिताकी आज्ञासे मिथिलामें (कहीं-कहीं इन्हें भृगुका पौत्र भी कहा गया है। ) ये जाना और वहाँ स्वागत-सत्कारके बाद इनका ध्यानस्थित महर्षि भृगुके पौत्र और कविके पुत्र थे । ये ही ग्रह होना (शान्ति० ३२५ अध्याय)। राजा जनकद्वारा। होकर तीनों लोकोंके जीवनकी रक्षाके लिये वृष्टि, अनाइनका पूजन (शान्ति० ३२६ । ३-५)। इनकाराजाको वृष्टि, भय एवं अभय उत्पन्न करते हैं । ब्रह्माजीकी अपने आगमनका कारण बताना ( शान्ति० ३२६ ।। प्रेरणासे समस्त लोकोंका चक्कर लगाते रहते हैं। महा. १०-१३)। राजा जनकसे ज्ञान-विज्ञानविषयक प्रश्न बुद्धिमान् शुक्र ही योगके आचार्य तथा दैत्योंके गुरु ( शान्ति० ३२६ । २०-२१)। मिथिलासे लौटकर हुए । ये ही बृहस्पतिके रूपमें प्रकट हो देवताओंके भी इनका पिताके पास आना (शान्ति० ३२७ । ३१)। गुरु हुए (आदि. ६६ । ४२-४३)। दैत्योंके द्वारा व्यासजीका इन्हें अनध्यायका कारण बताते हुए प्रवह इनका पुरोहितके पदपर वरण तथा बृहस्पतिके साथ आदि सात वायुओंका परिचय देना (शान्ति. इनकी स्पधों ( आदि. ७६ । ६-७)। इनके द्वारा ३२८ । २८-५६)। इनका नारदजीसे कल्याण-प्रामि- मृतसंजीवनी विद्याके बलसे मरे हुए दानवोका जीवित का उपाय पूछना (शान्ति० ३२९।४)। सूर्यलोकमें जाने- होना (आदि० ७६ । ८) । इनकी पुत्रीका नाम का निश्चय करके नारदजी और व्यासजीसे आज्ञा माँगना देवयानी था (आदि. ७६ । १५)। कचका दानव(मान्ति० ३३१ । १९-६२) । इनकी ऊर्धगतिका राज वृषपर्वाके नगरमें जाकर शुक्राचार्यसे अपनेको शिष्यवर्णन (कान्ति० १३२ अध्याय)। इनकी परम पद- रूपसे ग्रहण करनेके लिये प्रार्थना करना और इनकी प्राप्ति (शान्ति. ३३३ । १-१८)। अपने पिता व्यास- सेवामें रहकर एक सहस्र वर्षतक ब्रह्मचर्यपालनके जीसे इनका विविध प्रश्न करना (अनु०८१। ८- लिये अनुमति माँगना तथा इनका कचको स्वागतपूर्वक ११)।
ग्रहण करना (आदि. ७६ । १८-१९)। इनका कचके महाभारतमें आये हुए शुकदेवजीके नाम-आरणेय, लिये चिन्तित हुई देवयानीको आश्वासन देकर संजीवनीअरणीसुत) द्वैपायनात्मज) वैयासकि, व्यासात्मज आदि ।
विद्याका प्रयोग करके कचको पुकारना और उस विद्या
के बलसे कचका कुत्तोंके शरीरको विदीर्ण करके निकल शुकी-ताम्राकी पुत्री । इसने शुकों (तोतों) को उत्पन्न
आना ( आदि० ७६ । ३१-३४ )। इनके द्वारा किया (आदि० ६६ । ५६, ५९)।
कचको दोबारा जीवनदान (आदि०७६ । ४१-४२)। शुक्तिमती-(१) एक नदी, जो राजा उपरिचरवसुकी तीसरी बार दानवोंने कचको मारकर आगमें जलाया राजधानीके समीप बहती थी। कोलाहलपर्वतने काम- और उनकी जली हुई लाशका चूर्ण बनाकर मदिरामें वश इस दिव्यरूपधारिणी नदीका अवरोध कर लिया था। मिला दिया, फिर वही मदिरा उन्होंने ब्राह्मण शुक्रापरंतु राजा उपरिचरवसुके पादप्रहारसे पर्वतमें दरार पड़
चार्यको पिला दी (आदि० ७६ । ४३)। देवयानीका गयी और उसी मार्गसे यह नदी पुनः बहने लगी। इसके पुनः कचको जीवित करनेके लिये इनसे अनुरोध, गर्भसे कोलाहलपर्वतद्वारा जुड़वीं संतान उत्पन्न हुई, शुक्राचार्यका कचको जिलानेसे विरत होना तथा देवजिन्हें शुक्तिमतीने राजा उपरिचरवसुको समर्पित कर दिया।
यानीके प्राणत्याग करने के लिये उद्यत होनेपर इनका राजाने पुत्रको अपना सेनापति बनाया और पुत्रीको,
असुरोंपर क्रोध करके संजीवनी विद्याके द्वारा कचको जिसका नाम गिरिका था, अपनी पत्नी बना लिया (आदि.
पुकारना, कचका अपनेको इनके उदरमें स्थित बताना ६३ । ३४-४१)। इसकी गणना भारतकी प्रमुख और इनके पूछनेपर मदिराके साथ इनके पेट में पहुँचनेनदियोंमें है (भीष्म० ५। ३५)। (२) एक नगरी,
का वृत्तान्त निवेदन करना । इनका कचको जीवित जो चेदिनरेश धृष्टकेतुकी राजधानी थी ( वन० २२ ।
करनेसे अपने वधकी आशंका बताना । देवयानीका पिता ५०)।
और कच दोनों से किसीके भी नाशसे अपनी मृत्यु शक्तिमान्-एक पर्वत, जिसे पूर्व-दिग्विजयके अवसरपर बताना । तब इनका कचको सिद्ध बताकर उन्हें भीमसेनने जीता था (सभा. ३० । ५)। यह भारत- संजीवनी विद्याका उपदेश करना । कचका इनके पेटसे पर्षके सात कुलपर्वतोमसे एक है (भीम. )। निकलकर विधाके पलसे पुनः इन जोषित कर देना
म. ना.४५
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शुक्राचार्य
( ३५४ )
शुनःसख
और प्रणाम करके इन्हें अपना पिता तथा माता कारण इनका शुक्र नाम पड़ना और पार्वतीजीका इन्हें मानना तथा कभी भी इनसे द्रोह न करनेकी प्रतिज्ञा अपना पुत्र स्वीकार करना (शान्ति० २८९ । ३२करना (आदि. ७६ । ४४-६४)। इनका मदिरा- ३५)। इनके द्वारा महादेवजीको शाप (शान्ति. पानको ब्रह्महत्याके समान बतलाकर उसे ब्राह्मणों के लिये ३४२ । २६)। इन्हें तण्डिसे शिवसहस्रनामका उपदेश सर्वथा निषिद्ध घोषित करना (आदि०७६ । ६७-६८)। प्राप्त हुआ था और इन्होंने गौतमको उसका उपदेश देवयानीके प्रति इनके द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन (आदि० दिया (अनु. १७ । १७७)। ये भृगुके सात पुत्रीम७८ । ३७-४०) शर्मिष्ठाद्वारा पोड़ित हुई देवयानीको से एक हैं (अनु०८५ । १२९ ) । बलिके पूछनेपर इनका आश्वासन देना, सहनशीलताकी प्रशंसा करते उन्हें पुष्पादि-दानका महत्त्व बताना (अनु० ९८ । हए क्रोधका वेग रोकनेवालोंको परम श्रेष्ठ बतलाना १६-६४ )।
( आदि० ७९ । १-७)। अधर्मका फल अवश्य महाभारतमें आये हुए शुक्राचार्यके नाम-भार्गव प्राप्त होता है-इसे दृष्टान्तपूर्वक वृषपवाको समझाना भार्गवदायाद, भृगुश्रेष्ठ, भृगूदह, भृगुकुलोदह, भृगुनन्दन, (आदि० ८० । १-६ )। इनके द्वारा देवयानीको ।
___ भृगुसूनु, कविपुत्र) कविसुत, काव्य, उशना आदि । प्रसन्न करनेके लिये वृषपर्वाको आदेश (आदि०८.।
शुक्ल-पाण्डवपक्षका एक पाञ्चालदेशीय योद्धा (द्रोण०२३। ९-१२)। ययातिके साथ अपने विवाहके लिये इनसे 3 देवयानीकी प्रार्थना (आदि.८१३.)। ययाति ५९)। कर्णद्वारा इसका घायल होना ( कर्ण०५६ । अपनी पुत्रीको ग्रहण करनेके लिये कहना (आदि०८१।
४५)। ३.)। धर्म-लोपके भयसे भीत हुए ययातिको इनका शुचि-(१) एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र आश्वासन देना (आदि. ८१। ३३)। देवशनीके यमकी उपासना करते हैं (सभा० ८।१४)(२) साथ विवाह करने एवं शर्मिष्ठाके साथ दारोचित व्यवहार
एक वणिक, व्यापारीदलका स्वामी, इसकी वनमें दमयन्तीन करनेके लिये ययातिको इनकी आज्ञा (आदि
से भेंट और बातचीत (वन० ६४ । १२७-१३१)। ३४-३५)। इनके द्वारा ययातिको जराग्रस्त होनेका
(३) एक अग्नि, जिनमें हवाके चलनेसे अग्नियोंके शाप (आदि० ८३ । ३.)। फिर उनके प्रार्थना करने
परस्पर सम्पर्क हो जानेपर अष्टाकपाल पुरोडाशद्वारा पर इनका ययातिको अपनी वृद्धावस्था दूसरेसे बदल
आहुति डाली जाती है (वन० २२१ । २४)। (४) सकनेकी सुविधा देना ( आदि० ८३ । ३९)। ये देव
विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक (अनु० ४ । ५४)। राज इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं (सभा०। (५) महर्षि भृगुके पुत्र ( अनु० ८५ । १२८)। २२)। ग्रहरूपसे ब्रह्माजीको सभामें भी उपस्थित होते शचिका-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्म-महोत्सवमें हैं (सभा०११। २९ ) । ये मेरुपर्वतके शिखरपर नृत्य किया था (आदि. १२२ । ६२)। दैत्यों के साथ निवास करते हैं। सारे रत्न और रत्नमय शुचिव्रत-एक प्राचीन राजा ( आदि० १ । २३६)। पर्वत इन्हीं के अधिकार में हैं । भगवान् कुबेर इन्हींसे धनका
शुचिश्रवा-भगवान् श्रीकृष्णका नाम । इस नामकी निरुक्ति चतुर्थ भाग प्राप्त करके उसे उपयोगमें लाते हैं ( भीष्म०
(शान्ति० ३४२ । ९१)। ६। २२-२३)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखने के लिये गये थे (शान्ति. ४७।८)। महाराज २४
शुचिस्मिता-एक अप्सरा, जो कुबेरकी सभामें रहकर पृथुके पुरोहित बने थे ( शान्ति० ५९ । ११०)।
___ उनकी सेवा करती है (सभा० १०।१०)। इन्द्रको श्रेयःप्राप्तिके लिये प्रह्लादके पास भेजना (शान्तिः शुण्डिक-पूर्व-भारतका एक जनपद, जिसे कर्णने जीता १२४ । २७)। ये वानप्रस्थ-धर्मका पालन करके स्वर्ग था (वन० २५४ । ८)। को प्राप्त हुए हैं ( शान्ति० २४४ । १७-१८)। शुनाशेप-ऋचीक ( अजीगत ) का एक महातपस्वी पुत्र, वृत्रासुरसे देवताओंद्वारा पराजित होनेपर भी दुखीन जिसे राजा हरिश्चन्द्र के यज्ञमें यज्ञपशु बनाकर लाया गया होनेका कारण पूछना (शान्ति. २७९ । १५)।
था । विश्वामित्रने देवताओंको संतुष्ट करके इसे छुड़ा लिया सनत्कुमारजीसे वृत्रासुरको भगवान् विष्णुका माहात्म्य
था, इसलिये यह विश्वामित्रके पुत्रभावको प्राप्त हो बताने के लिये कहना (शान्ति० २८०। ५)। योगबल
गया। देवताओंके देनेसे इसका नाम देवराता हुआ से कुबेरके धनका अपहरण करना (शान्ति. २८९ ।
और यह विश्वामित्रका ज्येष्ठ पुत्र माना गया (अनु. ९)। भयके कारण सूर्यके उदरमें लीन होना (शान्ति. ३।६-८)। २८९ । १९-२०)। शिवजीके लिंगसे निर्गत होनेके शुनःसख-संन्यासोके वेषमें कुत्तेके साथ विचरनेवाले
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शुनक
( ३५५ )
शूरसेन
इन्द्रका नाम । इनका सप्तर्षियोंके पास जाना (भनु० ९३ । ५९) । कृत्याका वध करके सप्तर्षियोंकी रक्षा करना (अनु० ९३ । १०५ ) । सप्तर्षियोंके मृणाल चुराना (अनु० ९३ | १०९ )। सप्तर्षियोंके सामने शपथ खाना (अनु० ९३ । १३२ )। सप्तर्षियोंको अपना परिचय देना (अनु. ९३ । १३४-१३९)। अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर शपथ खाना (अनु. ९४ । ४.)। शुनक-(१) एक महर्षि, जो रुके पुत्र थे। इनका
जन्म प्रमद्वराके गर्भसे हुआ था। शुनक वेदोंके पारङ्गत विद्वान् और धर्मात्मा थे। इन्हें शौनकका पितामह कहा गया है (आदि०५।१०)ये यधिधिरकी सभा में विराजते थे (सभा०४।१०)। श्रीकृष्णके दूत बनकर हस्तिनापुर जाते समय मार्गमें इन्होंने उनका अभिनन्दन किया था (उद्योग. ८३ । ६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। कहीं कहीं शौनकको शुनकका पुत्र बताया गया है ( अनु० ३० । ६५)। (२) एक राजर्षि, जो चन्द्रहन्तानामक असुरके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि. ६७ । ३८)। चन्द्रतीर्थमें इन्हें परमधामकी प्राप्ति हुई थी (वन० १२५ । १८-१९ ) । महाराज हरिणाश्वसे इन्हें खङ्गकी प्राप्ति हुई और इन्होंने वह खड्न उशीनरको प्रदान किया था (शान्ति. १६६ । ७१)। शुभवक्त्रा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका(शल्य०४६७)। शुभाङ्गद-एक राजा, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे
(आदि. १८५ । २२)। शुभाङ्गी-एक दशाई कुलकी कन्या, जो सोमवंशी महाराज कुरुकी पत्नी थी। इसके गर्भसे विदूर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (आदि० ९५ । ३९)। शकर-एक देश, जहाँके राजा कृतिने युधिष्ठिरको राजसूय
यज्ञमें सैकड़ों गजरत्न भेंट किये थे (सभा०५२ । २५)। शद्र-चौथे वर्ण या जातिके लोग, इन्हें नकुलने दिग्विजयके समय जीतकर अपने अधीन कर लिया था (सभा. ३२।१०)। एक दक्षिण भारतीय जनपदका भी यह नाम है ( भीष्म. ९।६७ )। भगवान्की शरणमें जानेसे पापयोनिके जीव तथा शूद्र भी परमगतिको प्राप्त होते हैं ( भीष्म० ३३ । ३२ ) । शूद्र जनपदके लोग दुर्योधनको आगे करके कर्णके पृष्ठभागमें रहकर धृतराष्ट्रपुत्रोंके साथ-साथ युद्धक्षेत्रमें गये थे (द्रोण. ७ । १५-१६)। शुन्यपाल-दिपलोकके एक ऋषि, जो पाण्डवोंके दूत बनकर हस्तिनापुरको जाते हुए श्रीकृष्णसे मार्गमें मिले थे ( उद्योग० ८३।६४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)।
ये एक वानप्रस्थी ऋषि थे और वानप्रस्थधर्मका पालन करनेसे स्वर्गको प्राप्त हो गये (शान्ति० २४४१ १८)। शूर-(१) एक प्राचीन नरेश (भादि० १ । २३२)। (२) महाराज ईलिनके द्वारा रथन्तरीके गर्भसे उत्पन्न पाँच पुत्रोंमेंसे एक । शेष चारके नाम हैं-दुष्यन्त, भीम, प्रवसु और वसु ( आदि. ९४ । १७-१८)।(३) सौवीरदेशका एक राजकुमार (वन० २६५ । १०)। द्रौपदीहरणके समय अर्जुनद्वारा इसका वध (वन. २७१ । २७)। शूरसेन ( शूर )-(१) वसुदेवजीके पिता । यदुवंशके एक श्रेष्ठ पुरुष । इनकी पुत्रीका नाम था पृथा (आदि. ६७। १२९, आदि. १०९।१)। इनके द्वारा अपनी पुत्री पृथाका अपने मित्र राजा कुन्तिभोजको गोद देना ( आदि० ६७ । १३१; भादि. १०९।२; आदि.
१०।३)। ये यदुवंशी देवमीढके पुत्र थे । इनके पुत्रका नाम वसुदेव हुआ (द्रोण. १४४ । ६-७)। कहीं-कहीं इन्हें चित्ररथका पुत्र कहा गया है । सम्भव है, देवमीढका ही दूसरा नाम चित्ररथ' हो (अनु० १४७ । २९-३२ )। (२)एक जनपद और वहाँके निवासी (आधुनिक मथुरामण्डल या व्रजमण्डल )। इस देशके लोग जरासंधके भयसे अपने भाइयों और सेवकोंके साथ दक्षिण दिशामें भाग गयेथे (सभा० १४ । २६-२८)। सहदेवने दक्षिणदिग्विजयके समय इन्द्रप्रस्थसे चलकर सबसे पहले शूरसेननिवासियोंपर ही पूर्णरूपसे विजय पायी थी (सभा०३३ । १-२)। इस देशके लोग राजसूय यशमें युधिष्ठिरके लिये भेंट लाये थे (सभा०५२।१३)। पाण्डवलोग पाञ्चालसे दक्षिण यकृल्लोम तथा शरसेन देशोंके बीचसे होकर मत्स्य देशको गये थे ( विराट ५।४)। यह एक भारतीय जनपद है ( भीष्म०१। २९, ५२ )। इस देशके शूरवीर सैनिक अपना शरीर निछावर करनेको उद्यत हो विशाल रथसमुदायके द्वारा पितामह भीष्मकी रक्षा करते थे ( भीष्म १८ । १२-१४)। इस देशके सैनिकोंने कृतवर्मा और काम्बोजनरेशके साथ आकर अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोका था (द्रोण. ९१ । ३७-३०)। शूरसेनदेशीय योद्धाओंने अर्जुनपर बाणोंकी वर्षा की (द्रोण. ९३ । २)। सात्यकिको आगे बढ़नेसे रोका था (द्रोण.१४१।९)। युधिष्ठिरने शूरसेनोंका संहार करके भूतलपर रक्तोंकी कोच मचा दी (द्रोण. १५७ । २९)। भीमसेनने शूरसेन देशके रणदुर्मद क्षत्रियोंको काट-काटकर वहाँकी रणभूमिको पाट दिया, जिससे वहाँ खूनकी कीच मच गयी (द्रोण० १६३ । ४-५) । शूरसेननिवासी यज्ञ करते हैं (कर्ण०१५। २८)। पाण्डवपक्षके शूरसेनदेशीय
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शूरसेनपुर
( ३५६ )
शेषनाग
वीरोंके साथ कृपाचार्य, कृतवर्मा और शकुनिने युद्ध किया यह सब धातुओंसे सम्पन्न एवं विचित्र शोभाधारण करनेवाला था (कर्ण. ४७ । १६-१८)। (३) एक राजा, जो है। यहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं (भीष्म कौरवपक्षका सहायक था । यह भीष्मनिर्मित क्रौञ्चव्यूहके ६ । ५)। धृतराष्ट्र के प्रति संजयद्वारा इसका विशेष ग्रीवाभागमें दुर्योधनके साथ खड़ा था (भीष्म०७५। १०)। वर्णन (भीष्म.८।८-९) । सायं-प्रातःस्मरणीय शूरसेनपुर-इसीको ही मथुरा कहते हैं (सभा०३८ । २९
पर्वतोंमें भी इसका नाम है (अनु. १६५। १२)। के बाद दा० पाठ)। ( विशेष देखिये-मथुरा)
(२) एक प्राचीन ऋषि, जो गालबके पुत्र थे। इन्होंने
शर्तके साथ वृद्धकन्याका पाणिग्रहण किया था (शल्य. शूरसेनी-राजा पूरुके पुत्र प्रवीरकी पत्नी, जिसके गर्भसे
५२ । १५-10)। एक रात इनके साथ निवास करके मनस्यु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (आदि०१४।६)।
वृद्धकन्याके चले जानेपर ये उसके रूपका चिन्तन करते शूर्पणखा-रावणको बहिन, श्रीरामने लक्ष्मणके द्वारा इसकी
हुए अत्यन्त दुखो हो गये और शरीर त्यागकर इन्होंने नाक कटवा दी थी ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा०
भी उसीके पथका अनुसरण किया (शल्य. ५२ । १९पाठ, पृष्ठ ७९४, कालम २)। यह विश्रवाके द्वारा राका
२४)। के गर्भसे उत्पन्न हुई थी। इसका सहोदर भाई खर था (वन० २७५।८)। खर और शुर्पणखा ये दोनों शृङ्गवेर-कोर व्यकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके भाई-बहन तपस्यामें लगे हुए रावण आदि भाइयोंकी सर्पसत्रमै भस्म हो गया (आदि०५७।१३)। प्रसन्न मनसे परिचर्या एवं रक्षा करते थे (वन० २७५। शृङ्गवेरपुर-एक तीर्थ, जहाँ पूर्वकालमें वनवासके समय १९)। इसकी नाक कटवानेके कारण जनस्थाननिवासी दशरथनन्दन श्रीरामने गङ्गाजीको पार किया था । उस खरका श्रीरामसे वैर हो गया था (वन० २७७ । ४२)। तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है खर आदि राक्षसोंके मारे जानेपर यह लंकामें अपने भाई (वन.८५। ६५-६६)। ( यहीं निषादराज गुहकी राजा रावणके पास गयी और उसके चरणों में गिर पड़ी राजधानी थी। सम्भवतः प्रतापगढ़ जिलेका सिंगरौरा (वन० २७७ । ४५-४६) । इसने रावणसे राक्षस संहारका नामक गाँव ही प्राचीन शृङ्गवेरपुर है।) सारा वृत्तान्त कहा (वन० २७७ । ५२)।
शृङ्गी-शमीक ऋषिका तरुण पुत्र, जो महान् तपस्वी, दुःसह शूर्पारक-एक पश्चिमभारतीय जनपद, जिसे दक्षिण-दिग्विजय- तेजसे सम्पन्न और महान् व्रतधारी था। उसमें क्रोधकी के अवसरपर सहदेवने जीता था (सभा० ३१ । ६५)। मात्रा बहुत थी ( आदि० ४० । २५-२६) । आचार्ययहाँ परशुरामसेवित भूरिक तीर्थ है, उसमें जाकर राम- की सेवासे लौटते समय अपने मित्र कृशके द्वारा राजा तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको प्रचुर सुवर्ण-राशिकी प्राप्ति परीक्षित्के अपराधका समाचार सुनकर इसके द्वारा उन्हें होती है (वन० ८५ । ४३) । इस शूर्पारक क्षेत्रमें तक्षकके डसनेसे मरनेका शाप (आदि. ४० । २९ से महात्मा जमदग्निकी वेदी है, वहीं रमणीय पाषाणतीर्थ और आदि. ४१ । १४ तक; आदि. ५०। ४-११)। पुनश्चन्द्रा नामक तीर्थविशेष हैं (वन० ८८ । १२)। परीक्षित्को शाप देने के कारण पिताद्वारा इसकी भर्त्सना युधिष्ठिरने इस पुण्यमय तीर्थका दर्शन किया (धन तथा राजाकी महत्ता एवं आवश्यकताका प्रतिपादन ११८।८)। समुद्रने परशुरामजीके लिये जगह खाली (आदि०४१।२०-३३ ) । व्यासजीके आवाहन करके शूर्पारक देशका निर्माण किया था, जिसे अपरान्त- करनेपर स्वर्गसे परीक्षित्के साथ शृङ्गी और इसके पिता शमीक भूमि भी कहते हैं (शान्ति० ४९ । ६६-६७)। शूरिक- भी जनमेजयके यज्ञमें आये थे (आश्रम ३५।८)। क्षेत्रके जलमें स्नान करके एक पक्षतक निराहार रहनेवाला :
शेषनाग-नागराज अनन्त, (ये साक्षात् भगवान् नारायणके मनुष्य दूसरे जन्ममें राजकुमार होता है ( अनु० २५ ।
स्वरूप हैं और उनके लिये शय्यारूप होकर उन्हें धारण ५०)।
करते हैं। ) इनके द्वारा मन्दराचलका उखाड़ा जाना शृगाल-स्त्रीराज्यके स्वामी, जो कलिंगराज चित्राङ्गदकी
( आदि. १८1८) नागोंमें सर्वप्रथम ये ही प्रकट हुए कन्याके स्वयंवरमें पधारे थे (शान्ति० ४ । ७)।
थे (आदि० ३५ । २-५)। नागोंके पारस्परिक द्वेषसे शृङ्ग-शंकरजीका वाद्यविशेष ( वन० ८८ । ८)। ऊबकर इनका पुष्कर आदि क्षेत्रोंमें तपस्या करना शृङ्गचान-(१) हिरण्यकवर्षका एक पर्वत, यहाँ उत्तर- (आदि० ३६ ॥३-५)। धर्ममें अटल निष्ठा रहने के लिये दिग्विजयके समय अर्जुन गये थे और इसे लाँधकर उत्तर- ब्रह्माजीसे इनकी वर-याचना (आदि. ३६ । १७) । कुरुवर्षमें चले गये थे (सभा० २८ । ६ के बाद दा० ब्रह्माजीके द्वारा इनको वरदान एवं पृथ्वी धारण करनेकी पाठ, पृष्ठ ७५०)। इसकी गणना छः वर्षपर्वतोंमें है। आज्ञा (भादि०३६ । १८-१९)। पृथ्वीको स्थिरभावसे
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शैखावत्य
( ३५७ )
शोण
धारण करने के लिये ब्रह्माजीका आश्वासन (आदि०३६। शैब्या-(१) राजा सगरकी एक पत्नी, जिनसे वंश प्रवर्तक २०)। इनकी माता कद्र और पिता कश्यप है (आदि. एक ही पुत्र उत्पन्न हुआ था। उस पुत्रका नाम असमंजस् ६५।४१)। इनके अंशसे बलरामजी अवतीर्ण हुए थे
या (वन० १०६ । २० वन० १०७ । ३९)। (आदि ६७ । १५२) । भगवान् नारायण शेषको ।
(२) शाल्व देशके प्राचीन राजा धुमत्सेनकी रानी, शय्या बनाकर इनपर शयन करते हैं (वन.२७२ । ३८
जिन्होंने अपने पुत्र सत्यवान् और वधू सावित्रीके रातको ४०)। त्रिपुरदाइके समय ये शिवजीके रथके अक्ष बने
आश्रममें न लौटनेपर पतिके साथ विभिन्न आश्रमोंमें थे (द्रोण० २०२ । ७२)।
जाकर उनका पता लगाया था (वन० २५८ । २)। शैखावत्य-एक महातरस्वी प्राचीन ऋषि, जिन्होंने शाल्वसे
(३) भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके परित्यक्त हो आश्रममें आकर रोती हुई अम्बासे बातचीत
निवासी पीते हैं (भीष्म ५। २४)। (४) भगवान् की थी। ये कठोर व्रत का पालन करनेवाले तपोवृद्ध ब्रह्मर्षि थे । शास्त्र और आरण्यक आदि ग्रन्योंकी शिक्षा
श्रीकृष्णकी एक पटरानी, जिन्होंने श्रीकृष्णके परमधाम
पधारनेपर पतिलोककी प्राप्ति के लिये अग्निमें प्रवेश किया देनेवाले सद्गुरु थे ( उद्योग० १७५ । ३०-४०)।
था (मौसल. ७।७३)। शैब्य-(१) एक प्राचीन राजा ( आदि० १ । २२५)। इनके पुत्रका नाम सुञ्जय था, जिसकी पर्वत और नारद
शैरीषक-एक देश, जिसे पश्चिम-दिग्विजयके समय नकुलने . जीसे मित्रता थी (द्रोण. ५५ । ५)।(२) शिबि जीता था (समा० ३२ । ६)।
देशके नरेश, जो युधिष्ठिरके श्वशुर थे। इनका नाम शैलकम्पी-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५। ६३)। गोवासन था (आदि. ९५ । ७६)। ये युधिष्ठिरकी शैलाभ-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३२)। सभामें विराजमान होते थे ( सभा० ४ । २५)। ये तथा काशिराज दोनों युधिष्ठिरके बड़े प्रेमी ये और उपलव्य शैलालय-एक राजा, जो भगदत्तके पितामह थे और कुरुनगरमें एक अक्षौहिणी सेनाके साथ आकर अभिमन्यके क्षेत्रके तपोवनमें तपस्या करके इन्द्रलोकमें गये थे विवाहमें सम्मिलित हुए थे (विराट ७२ । १६)। (आश्रम० २०१०)। इनको कृतवर्मा के साथ युद्ध करनेका काम दिया गया था शैलूष-एक गन्धर्व, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी (उद्योग. १६४।६)। दुर्योधनने नरश्रेष्ट शैब्यकी उपासना करता है (सभा० १० । २६)। पाण्डव-सेनाके महान् धनुर्ध में गणना की थी ( भीष्मः शैलोदा-मेरु और मन्दराचलकी मध्यवर्तिनी एक नदी, २५ । ५)। ये काशिराजके साथ रहकर तीस हजार इसके तटपर बसे हुए म्लेच्छ जातियोंको अर्जुनने जीता रथियोंके द्वारा धृष्टद्युम्ननिर्मित क्रौञ्चव्यूहकी रक्षा करते थे था (सभा०२८।६ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७४८)। (भीष्म०५०। ५६-५७)। ये उशीनरके पौत्र कहे इसके दोनों तटोपर बाँसोंकी छायामें रहनेवाले खस आदि गये हैं। धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. म्लेच्छोंने राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरको पिपीलक नामक १० । ६४-७०)। नीलकमलके समान रंगवाले, सुवर्ण भेंट किया था (समा० ५२ । २-४)। सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित, विचित्र मालाओंवाले शैवाल-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५४)। अश्व, विचित्र रथसे युक्त राजा शैब्यको युद्धस्थलमें ले गये थे (द्रोण० २३ । ६१)। (३) भगवान् श्रीकृष्णके
शैशव-एक देश, जहाँके क्षत्रिय नरेश भेंट लेकर आये और
युधिष्ठिरके राजद्वारपर खड़े थे (सभा० ५२ । १८)। रथका एक अश्व (आदि. अध्याय २१९, बन० अध्याय
शोण-एक नदी, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना अध्याय ८, १३ द्रोण० अध्याय ७९, १४७। ५७ करती है (सभा० ९।२१)। भगवान् श्रीकृष्णने सौप्तिक. अध्याय १३, शान्ति. अध्याय ३६, १६, इन्द्रप्रस्थसे राजगृह जाते समय मार्गमें इसे पार किया था ५३)। (४) एक वृष्णिवंशीय क्षत्रिय वीर, जिसने (सभा० २० । २७ )। शोण और ज्योतिरथ्यके अर्जुनसे धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की थी। यह युधिष्ठिरकी संगममें स्नान करके पवित्र और जितेन्द्रिय पुरुष पितरोंका सभामें विराजमान होता था (समा० ४ । ३४-३५)। तर्पण करे तो उसे अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त होता है। (५) एक क्षत्रिय नरेश, जिन्हें श्रीकृष्णने पराजित किया इसका उत्पत्तिस्थान वंशगुल्मतीर्थ है । वहाँ स्नान करनेसे था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है (वन० ८५। ८-९)। ८२४)। (६) एक कौरवपक्षीय प्रमुख योद्धा, जो यह अग्निकी उत्पत्तिका स्थान मानी गयी है (वन भीष्मनिर्मित सर्वतोभद्र नामक व्यूहके मुहानेपर खड़ा था २२२ । २५ ) । इसकी गणना भारतवर्षकी प्रमुख (भीष्म० ९९ । २)।
नदियोंमें है (भीष्म. १। २९)।
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शोणितपुर
( ३५८ )
श्रावस्त
शोणितपुर-बाणासुरकी राजधानी । शिव, कार्तिकेय, भद्र- श्येनजित्-(१) इचाकुवंशीय राजा दलका पुत्र, जो काली देवी और अग्नि आदि देवता इस नगरीकी रक्षा पिताका अत्यन्त प्यारा था (वन० १९२ । ६३)। करते थे । भगवान् श्रीकृष्णने इन सबको जीतकर उत्तर (२) एक महारथी राजा, जो भीमसेनके मामा थे द्वारमें प्रवेश किया। वहाँ शङ्करजीको भी युद्ध के द्वारा (उद्योग० १४१ । २७)। परास्त करके वे उस श्रेष्ठ नगरमें गये । वहाँ उन्होंने श्येनी-ताम्राकी पुत्री, इसने बाज-पक्षियोंको जन्म दिया था बाणासुरकी भुजाओंको काटकर उसे पराजित किया तथा
(आदि ० ६६ । ५६-५७)। यह गरुड़के बड़े भाई अनिरुद्ध और ऊषाको बन्धनमुक्त किया ( सभा०
अरुणकी भार्या थी। इसके गर्भसे दो महाबली पुत्र उत्पन्न ३८ । २९के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८२१)।
हुए, जिनका नाम था सम्पाती और जटायु (आदि०६६ । शोणितोद-एक यक्ष, जो कुबेरकी सभामें रहकर उनकी ६९-७०)।
सेवामें उपस्थित होता है (सभा० १०।७)। श्रद्धा-(१) दक्षप्रजापतिकी पुत्री और धर्मकी पत्नी । शोभना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शक्य०४६।६)। ब्रह्माजीने धर्मकी दसों पत्नियों को धर्मका द्वार निश्चित शौण्डिक-एक जाति, इस जातिके लोग पहले क्षत्रिय थे,
किया है (आदि. ६६। १३-१५) । (२) यह किंतु ब्राह्मणोंके अमर्षसे नीच हो गये ( अनु० ३५। सूर्यकी पुत्री है, अतः इसे वैवस्वती, सावित्री तथा प्रसवित्री १७-१८)।
कहते हैं (शान्ति० २६४ । ८)। ( विशेष देखिये शौनक-(१) भृगुवंशमें उत्पन्न एक महर्षि, जो नैमिषा- सावित्री) रण्यवासी तथा वहाके आश्रमके कुलपति थे । इनके श्रवण-सत्ताईस नक्षत्रोंमेंसे एक । श्रवण नक्षत्र आनेपर जो द्वादशवार्षिक यज्ञमें उग्रश्रवाका आना और महाभारतकी मनुष्य वस्त्रवेष्टित कम्बल दान करता है, वह श्वेत विमानके कथा सुनाना (आदि.१ । १९)। ये भृगुवंशी
द्वारा खुले हुए स्वर्ग में जाता है ( अनु० ६४ । २८)। शुनकके पुत्र हैं (अनु० ३० । ६५)।
श्रवण नक्षत्रमें श्राद्धका दान करनेवाला मानव मृत्युके महाभारतमें आये हुए शौनकके नाम-भार्गव, भार्गवोत्तम, पश्चात् सद्गतिको प्राप्त होता है (अनु. ८९ । ११)।
भृगुशार्दूल, भृगूदह, भृगुकुलोद्वह) भृगुनन्दन आदि । चन्द्रव्रत करनेवाले साधकको श्रवण-नक्षत्रमें चन्द्रमाके (२) युधिष्ठिरके वनगमनके समय उनके साथ कानकी भावना करके उसकी पूजा करनी चाहिये (अनु०
चलनेवाले एक विप्र । इनके द्वारा युधिष्ठिरके प्रति विवेकी- ११०।७)। * अविवेकीकी गतिका वर्णन (वन० २ । ६४-८१)। श्रवा-गृत्समदवंशी महर्षि संतके पुत्र, जो तमके पिता हैं इनके द्वारा युधिष्ठिरको तप करनेका आदेश (वन० (अनु० ३० । ६३)। २। ८२-८४)
श्राद्धपर्व-स्त्रीपर्वके अन्तर्गत एक अवान्तर पर्व (अध्याय शौरि-शूरके पुत्र वसुदेव (द्रोण. १४४ । ७)।
___२६ से २७ तक)। ( देखिये वसुदेव) श्याम-शाकद्वीपका एक महान पर्वत, जो मेघके समान श्याम
श्राव-ये इक्षाकुवंशी महाराज युवनाश्वके पुत्र थे । इनके तथा बहुत ऊँचा है। वहाँ रहने से वहाँकी प्रजा श्यामताको पुत्रका नाम श्रावस्त था (वन० २०२ । ३-४)। प्राप्त हुई है (भीष्म० ११ । १९-२०)। श्रावण-(बारह महीनों से एक । जिस मासकी पूर्णिमाको श्यामायन-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु. श्रवण नक्षत्रका योग होता है, उसे श्रावण कहते हैं। यह ४। ५५)।
आषाढके बाद और भाद्रपदके पहले आता है।) जो मन श्यामाश्रम-एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ स्नान निवास और एक और इन्द्रियों को संयममें रखकर श्रावण मासको प्रतिदिन पक्षतक उपवास करनेसे अन्तर्धानरूप फलकी प्राप्ति होती एक समय भोजन करके बिताता है, वह विभिन्न तीर्थोमें है ( अनु० २५ । ३.)।
स्नान करनेके पुण्य-फलको पाता और अपने कुटुम्बीजनोंकी श्येन-(१) पक्षियोंकी एक जाति, जो ताम्राकुमारी श्येनीकी वृद्धि करता है (अनु० १०६ । २७) । श्रावणमासकी
संतान है ( आदि. ६६ । ५६-५७)। (२) एक द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके जो भगवान् प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रकी समामें विराजमान होते हैं। श्रीधरकी आराधना करता है, वह पाँच महायोंका फल (सभा०७।११)।
पाता है और विमानपर बैठकर सुख भोगता है (अनु. श्येनचित्र-एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने अपने जीवनमें कभी १०९।११)। मांस नहीं खाया था (अनु० ११५।६३)। श्रावस्त-ये इक्ष्वाकुवंशी महाराज श्रावके पुत्र थे । इनके
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श्रावस्तीपुरी
( ३५९ )
श्रुतश्रवा
पुत्रका नाम बृहदश्व था। राजा श्रावस्तने श्रावस्तीपुरी २८)। इसके द्वारा महामनस्वी शलका वध (द्रोण.१०८। बसायी थी (वन० २०२।४)।
१०)। इसके द्वारा अभिसारनरेश चित्रसेनका वध (कर्ण. श्रावस्तीपुरी-यह इक्ष्वाकुवंशी राजा श्रावस्तकी राजधानी १४।१-१४)। इसके द्वारा अश्वत्थामापर प्रहार थी, जिसे राजाने स्वयं बसाया था (वन० २०२१ (कणं० ५५ । १३-१९) । देवावृधकुमारका वध
(कर्ण०८८।१८) । अश्वत्थामाद्वारा इसका वध श्री-(१) भगवान् विष्णुकी पत्नी, लक्ष्मी। (देखिये लक्ष्मी) (सौप्तिक० ८ । ६०)। (२) ( श्रुतकीर्ति )-अर्जुन(२) धर्मकी एक पत्नीका नाम (आदि० ६६ । १४)।
___ का द्रौपदीके गर्भसे उत्पन्न हुआ पुत्र । इसके श्रुतकर्मा
नाम पड़नेका कारण (आदि० २२० । ८३, वन० श्रीकण्ठ-महादेव, भगवान् शंकरके कण्ठमें श्रीनारायणके
२३५ । १०)। (विशेष देखिये-श्रुतकीर्ति ।) (३) हाथसे अङ्कित चिह्न होनेके कारण ये श्रीकण्ठ कहलाते हैं
धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक । इसका शतानीकके साथ (शान्ति० ३४२ । १३५)।
युद्ध (कर्ण० २५ । १३-१६)। श्रीकुञ्ज-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत सरस्वतीका एक तीर्थ, इसमें स्नान करनेसे अग्निष्टोमयज्ञका फल मिलता है श्रुतकीर्ति-द्रौपदीके गर्भसे अर्जुनद्वारा उत्पन्न ( आदि०
६३ । १२३, आदि. ९५। ७५)। विश्वेदेवके अंशसे (वन० ८३ । १०८)। श्रीकुण्ड-एक त्रिभुवनविख्यात कुण्ड । यहाँ जाकर
इसका जन्म हुआ था ( आदि. ६७ । १२७-१२८)।
इसका जयत्सेनके साथ युद्ध (भीष्म ७९ । ४.)। ब्रह्माजीको नमस्कार करनेसे सहस्र गोदानका फल प्राप्त
इसके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण० २३ । ३२)। दुःशासनहोता है (वन० ८२ ! ८६)।
पुत्रके साथ युद्ध (द्रोण० २५ । ३२-३३)। अश्वत्थामाथीतीर्थ-कुरुक्षेत्र की सीमाके अन्तर्गत स्थित एक तीर्थ, द्वारा इसका वध ( सौप्तिक० ८ । ६१-६२)। जहाँ जाकर स्नान एवं देवा-पितरोंकी पूजा करनेसे मनुष्य उत्तम सम्पत्ति पाता है ( वनः । श्रुतञ्जय-त्रिगतराज सुशर्माका भाई । अर्जुनद्वारा इसका ४६)।
वध (कर्ण० २७ । १२)। श्रीपर्वत-एक तीर्थभूत पर्वत । वहाँ जाकर नदीके तटपर श्रुतध्वज-विराट के भाई । जो पाण्डवोंके रक्षक और सहायक स्नान करनेके पश्चात् भगवान् शंकरकी पूजा करनेसे थे ( द्रोण० १५८ । ४१)। मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता है (वन० ४५ । १८)। श्रुता-(१) एक प्राचीन नरेश । इनके पास अगस्त्यजी श्रीमती-स्कन्दको अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६।३)। धन माँगने गये थे (वन० ९८ । १)। इनका अगस्त्यश्रीमद्भगवद्गीतापर्व-भीष्मपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय
जीके धन माँगनेपर उनके सामने अपने आय-व्ययका
विवरण रखना (वन० ९८ । ५)। इनका अगस्त्यजीके १३ से ४२ तक)।
साथ अन्य राजाओंके पास जाना (वन. ९८ । ७)। श्रीमान्-दत्तात्रेयकुमार निमिके कान्तिमान् पुत्र, जिन्होंने
अगस्त्यजीकी आशा लेकर इनका अपनी राजधानीको एक सहस्र वर्षांतक कठोर तपस्या करके अन्तकालमें काल.
लौटना (वन० ९९ । १८) । (२) धृतराष्ट्र के सौ धर्म के अधीन हो अपने प्राण त्याग दिये थे (अनु०९१ ।
पुत्रोंमेंसे एक । इसका अपने दस भाइयोंके साथ भीमसेन
पर आक्रमण और उनके द्वारा वध (शल्य. २६ । ६श्रीवत्स-भगवान् नारायणके वक्षःस्थलमें भगवान् शंकरके
३२)। त्रिशूलसे बना हुआ चिह्न (शान्ति०३४२ । १३३)।
श्रुतश्रवा-(१) एक ऋषि । इनके पुत्रका नाम सोमवा श्रीवह-कश्यपद्वारा कद्रूके गर्भसे उत्पन्न एक नाग (आदि.
था। सोमवाको अपना पुरोहित बनानेके लिये जनमेजय३५ । १३)।
की इनसे प्रार्थना (आदि० ३ । १३-१५)। इनका श्रुतकर्मा (श्रुतसेन )-(१) सहदेवके द्वारा द्रौपदीके अपने पुत्रके जन्म-प्रसंग तथा उदारतापूर्ण स्वभाव आदिगर्भसे उत्पन्न ( आदि०,९५ । ७५) । प्रथम दिनके का वर्णन करते हुए उनकी प्रार्थना स्वीकार करना संग्राममें सुदर्शनके साथ द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म० ४५ । (आदि. ३ । १६-१९)। ये जनमेजयके सर्पसत्रमें ६६-६८) । दुर्मुखद्वारा इसकी पराजय (भीष्म० ७९ । सदस्य बने थे (आदि० ५३ । ९-१०)। तपस्या करके ३५-३८)। इसके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३। सिद्धि प्राप्त करनेवाले ऋषियों में इनका भी नाम है ३१) चित्रसेनपुत्र के साथ इसका युद्ध (द्रोण.२५।२७- (शान्ति० २९२ । १६-१७) । (२) एक राजर्षित
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श्रुतश्री
( ३६० )
श्रेणिमान्
जो यम-सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं अपनी ही गदाद्वारा वध ( द्रोण० ९२ । ५४ )। ( सभा० ८ ।९)। (३) चेदिराज दमघोषकी (२) एक क्षत्रिय राजा, जो क्रोधवशसंशक दैत्यके भार्या । श्रीकृष्णकी पितृष्वसा (बुआ) और शिशुपालकी अंशसे उत्पन्न हआ था (भादि०६७।६४) । यह माता । इनके द्वारा अपने पुत्र ( शिशुपाल ) की जीवन- महारथी वीर था और द्रौपदीके स्वयंवरमें आया था रक्षाके लिये श्रीकृष्णसे प्रार्थना (समा० ४३।१-२०)। (आदि. १८५ । २१) । महाबली श्रुतायु राजा शिशुपालके सौ अपराध क्षमा क ऐसा कहकर श्री- युधिष्ठिरकी सभाका भी एक सदस्य था (सभा० ४ ।
कृष्णद्वारा इनको आश्वासन (सभा० ४३ । २४)। २८)। पाण्डवोकी ओरसे इसको रण-निमन्त्रण भेजनेश्रतश्री-एक दैत्य, जिसका गरुडद्वारा वध हुआ था
का निश्चय किया गया था ( उद्योग. ४ । २३)। (उद्योग० १०५।१२)।
प्रथम दिनके संग्राममें इरावान्के साथ इसका युद्ध
(भीष्म०४५। ६९-७१)। यह अम्बष्ठ देशका राजा श्रुतसेन-(१) महाराज जनमेजयके भ्राता, जिन्होंने अपने
था और भीष्मकी रक्षा करते हुए इसने अर्जुनका सामना अन्य भाइयोंके साथ देवताओंकी कुतिया सरमाके पुत्र
किया था (भीष्म० ५९। ७५-७६)। यह भीष्मसारमेयको पीटा था (आदि. ३ । १)। (२)
निर्मित कौञ्चव्यूहके जघनभागमें खड़ा था (भीष्म तक्षक नागके छोटे भाई (आदि०३ । १४१-१४२)।
७५ । २२)। यह युद्ध में युधिष्ठिरद्वारा पराजित हुआ (३)(श्रुतकर्मा) द्रौपदीके गर्भसे सहदेवद्वारा उत्पन्न
था ( भीष्म.८४ । १-१७) । इसका अर्जुनपर (आदि० ६३ । १२४)। यह विश्वेदेवके अंशसे उत्पन्न
आक्रमण और उनके द्वारा वध (द्रोण. ९३ । ६०हुआ था (आदि. ६७ । १२७)। इसके श्रुतसेन
६९)। (३) एक कौरवपक्षीय योद्धा, जो अच्युतायुनाम पड़नेका कारण (आदि० २२० । ८५)। (विशेष
का भाई था। इसने अपने भाई अच्युतायुके साथ रहदेखिये-श्रुतकर्मा । ) (४) एक दैत्य । जिसका गरुड़
कर कौरव सेनाके दक्षिण भागकी रक्षा की थी (भीष्म० द्वारा वध हुआ था ( उद्योग० १०५।१२)। (५)
५१ । १८)। इन दोनों भाइयोंका अर्जुनके साथ युद्ध कौरवपक्षका एक योद्धा, जिसे अर्जुनने बाण मारा था
और उनके द्वारा इनका वध (द्रोण. १३ । ७(कर्ण० २७ । १०-११)।
२४)। श्रुतानीक-विराटके भाई, जो पाण्डवोंके रक्षक और सहायक
श्रुतावती-एक तपस्विनी कन्या, जो घृताची अप्सराको थे (द्रोण० १५८ । ४१)।
देखकर भरद्वाजजीके स्खलित हुए वीर्यसे उत्पन्न हुई थी। श्रुतान्त (चित्राङ्ग)-धृतराष्ट्रका पुत्र । इसने अन्य भाइयोंके
इसने घोर तपस्या करके इन्द्रको पतिरूपमें प्राप्त किया साथ रहकर भीमसेनपर धावा किया और उन्हींके हाथ
था (शल्य. ४८ अध्याय)। से मारा गया (शल्य. २६ । ४-११)। श्रुतायु (श्रुतायुध)-(१) कलिङ्ग देशके राजा, जो श्रुताह्व-पाण्डवपक्षका राजा अश्वत्थामाद्वारा इसका वध युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे (सभा० ४।२६)। (द्रोण० १५६ । १८२)। इन्होंने राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरको मणि-रत्न भेंट किये अति-एक प्राचीन नरेश (आदि०१। २३८)। थे (सभा० ५१ । ७ के बाद दा० पाठ)। ये द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे (आदि. १८५।१३)। पाण्डवों- श्रेणिमान्-एक राजर्षिप्रवर, जो कालेयसंज्ञक दैत्योंमें की ओरसे इन्हें रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय हुआ चौथे दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि०६७। था ( उद्योग० ४ । २४)। ये कलिङ्गराज कौरवपक्षकी ५१ )। ये द्रौपदीस्वयंवरमें भी पधारे थे ( आदि. एक अक्षौहिणी सेनाके अधिनायक थे (भीष्म १८५।११)। ये कुमारदेशके राजा थे। इन्हें पूर्व१६ । १६)। भीमसेनके साथ युद्ध और उनके द्वारा दिग्विजयके अवसरपर भीमसेनने परास्त किया था (सभा. घायल होना ( भीष्म० ५४ । ६७-७५)। इनके ३०.)। दक्षिण-दिग्विजयके समय सहदेवने भी इन्हें दो चक्ररक्षक-सत्यदेव और सत्य-भीमसेनद्वारा मारे गये जीता था ( सभा० ३१ । ५) । पाण्डवोंकी ओरसे (भीष्म० ५४ । ७६)। इनका अर्जुनके साथ युद्ध
इन्हें रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था (उद्योग (द्रोण. ९२ । ३६-४४)। ये पर्णाशाके गर्भसे ४।२१)। सेनाके प्रयाण करते समय ये युधिष्ठिरको वरुणद्वारा उत्पन्न हुए थे। इन्हें वरुण द्वारा गदाकी घेरकर उनके पीछे चल रहे थे (उद्योग० १५१।१३. माप्ति हुई थी (मोण. ९२ । ४५-५1)। इनका )। पाण्डवसेनामें इनकी गणना अतिरथी पीमेिं थी
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श्वाविलोमापह
( उद्योग० १७१ । २७ )। इनके रथके घोड़ोंका वर्णन ( द्रोण० २३ । ३७ ) । इनके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ६ । १५ ) ।
( ३६१ )
श्वासा- दक्ष प्रजापतिकी पुत्री और धर्मकी पत्नी । इनके गर्भसे अनिलनामक वसुका जन्म हुआ था। भादि०
६६ । १७–१९) । श्वेत - ( १ ) एक प्राचीन धर्मनिष्ठ राजर्षि ( आदि० १ । २३३ )। इन्होंने अपने मरे हुए पुत्रको पुनः जीवित कर दिया था ( शान्ति० १५३ | ६८ ) । इन्होंने कभी मांस नहीं खाया (अनु० ११५ । ६६) । ये सायं प्रातःस्मरणीय राजर्षि हैं (अनु० १५० । ५२) । ( २ ) एक राजा, जिसकी गणना भगवान् श्रीकृष्णने भारतवर्षके प्रमुख वीरोंमें की है ( सभा० १४ । ६१ के बाद दा० पाठ) । (३) उत्तराखण्डका एक पर्वत, जिसे लाँघकर पाण्डवलोग आगे गये थे ( वन० १३९ । १ ) । ( ४ ) विराट के पुत्र, जो उनकी बड़ी रानी कोसलराजकुमारी सुरथाके गर्भ से उत्पन्न हुए थे ( विराट० १६ | ५१ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ १८९३, कालम (२) । ये राजा युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें आये थे और शिशुपालने इनके नामका उल्लेख किया था ( सभा० ४४ । २० ) । इनका विचित्र पराक्रम ( भीष्म० ४७ । ४४-६२ ) । भीष्म के साथ इनका अद्भुत युद्ध और उनके द्वारा इनका वध ( भीष्म० ४८ अध्याय ) । ( ५ ) एक वर्षका नाम । नीलपर्वतसे उत्तर श्वेत वर्ष है और उससे उत्तर हिरण्यक वर्ष है ( भीष्म ० ६ । ३७ ) | ( ६ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६४ ) ।
बन० ८३ । ६१ ) ।
श्वाविल्लोमापह - कुरुक्षेत्र की सीमा के अन्तर्गत एक तीर्थ श्वेतकेतु एक ऋषि, जो जनमेजय के सर्पसत्र के सदस्य बने थे ( आदि० ५३ । ७ ) : ये गौतमकुलमें उत्पन्न महर्षि उद्दालकके पुत्र हैं । इन्द्रकी सभा में रहकर उनकी उपा सना करते हैं ( सभा० ७ । १२ ) । ये अष्टावक्रके मामा थे। इनका अष्टावक्रको अपने पिताकी गोदसे खींचना ( वन० १३२ । १८ ) । अष्टावक्र के साथ राजा जनकके यज्ञमें जाना ( वन० १३२ । २३ ) । हस्तिनापुर जाते समय श्रीकृष्णसे मार्गमें इनकी भेंट ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दा० पाठ ) । कपटव्यवहार के कारण पिताद्वारा इनका परित्याग ( शान्ति० ५७ । १०) । महर्षि देवलके पास उनकी कन्या के लिये जाना, सुवर्चला के साथ इनका विवाह, पत्नी के साथ इनके विभिन्न आध्यात्मिक प्रश्नो तर, गृहस्थधर्मका पालन करते हुए इन्हें परमगतिकी प्राप्ति ( शान्ति० २२० । दाक्षिणात्य पाठ ) । उत्तर दिशाके ऋषि हैं (अनु० १६५ | ४५ ) । श्वेतद्वीप - भगवान् नारायणका अनिर्वचनीय धाम-क्षीर सागरके उत्तर भागका श्वेत नाममे विख्यात विशाल द्वीप, जिसकी ऊँचाई मेरुपर्वतसे बत्तीस हजार योजन है। वहाँके निवासी इन्द्रियोंसे रहित, निराहार तथा ज्ञानसम्पन्न होते हैं। उनके अङ्गोंसे उत्तम सुगन्ध निकलती रहती है। व निष्पाप एवं श्वेतवर्णके होते । उनका शरीर और उसकी हड्डियाँ वज्रके समान सुदृढ़ होती हैं। वे मानअपमान से परे तथा दिव्यरूप और चलते सम्पन्न होते हैं। मस्तक छत्रकी भाँति एवं स्वर मेघगर्जन- जैसा गम्भीर होता है । उनके बराबर-बराबर चार भुजाएँ, मुँहमें साठ सफेद दाँत और आठ दाढ़ें होती हैं। वे दिव्यकान्तिमान् होते हैं तथा कालको भी चाट जाते हैं। वे अनन्त गुणोंके भंडार परमेश्वरको अपने हृदय में धारण किये रहते हैं। ( शान्ति० ३३५ । ८-१२ दा० पाठसहित ) । श्वेतद्वीप प्रभावका विशेष वर्णन ( शान्ति० ३३६ । २७-५९ ) ।
श्वेतक - सदा यज्ञमें निरत रहनेवाले एक भूपाल ( आदि० २२२ । १७ ) । इनके द्वारा विविध यशका अनुष्ठान ( आदि ० २२२ । १९ ) । दीर्घकालतक इनके यश में आहुति देनेके कारण खिन्न हुए ऋत्विजोंद्वारा इनका परित्याग एवं दूसरे ऋत्विजोंको बुलाकर अपने चालू किये गये यशको पूरा करना ( आदि० २२२ । २१-२३ ) । यज्ञ-सम्पादनके लिये इनके द्वारा घोर तपस्या और भगवान् शिवकी आराधना ( आदि ० २२२ । ३६-३९ ) । बारह वर्षोंतक अग्निमें निरन्तर आहुति देने के लिये इनको शिव - का आदेश (आदि० २२२ । ४७ ) । भगवान् शिवका प्रसन्न होकर अपने ही अंशभूत दुर्वासाको इनका यश सम्पादित करनेके लिये आदेश ( आदि० २२२ । ५८ ) | दुर्वासाद्वारा इनके शतवर्षीय यशका सम्पादन ( आदि०
म० ना० ४६
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ता
२२२ । ५९ ) । इनके यज्ञमें बारह वर्षोंतक निरन्तर घृतपान करनेसे अग्निदेवको अजीर्णताका कष्ट होना ( आदि० २२२ । ६३-६७ ) ।
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श्वेतभद्र - एक गुह्यक, जो कुबेरकी सभा में आकर उनकी सेवामें उपस्थित होता है ( सभा० १० । १५ ) । श्वेतवक्त्र - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७३ ) । श्वेतवाहन - अर्जुनका एक नाम ( आदि० १९९ । १० ) । ( विशेष देखिये - अर्जुन ) । श्वेतसिद्ध-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६८ ) । श्वेता - (१) क्रोधवशाकी पुत्री, इसने शीघ्रगामी दिग्गज
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श्वैत्य
( ३६२ )
संघरण
(स)
श्वेतको उत्पन्न किया था (आदि०६६।६१, ६६)। मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे उत्पन्न महाधनुर्धर पुत्र ।
(२) स्कन्दकी अनु चरी एक मातृका (पाल्य०४६ । २२)। इनके अन्य भाइयोंके नाम-चेयु, पक्षेयु, कुकणेयु, श्वत्य-प्राचीन राजा सुंजयका नाम (द्रोण. ५५ । ५०)। स्थण्डिलेयु, वनेयु, जलेयु, तेजेयु, सस्येयु तथा धर्मेयु ये (विशेष देखिये-सुञ्जय)।
(आदि०९४।८-११)। संन्यस्तपाद-एक देश, जहाँके राजा और राजकुमार
जरासधके भयसे पीड़ित हो उत्तर दिशाको छोड़कर षष्टिसद-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेपर अन्नदानसे भी
दक्षिण दिशाका आश्रय ले चुके थे (सभा०१४ । २८)। अधिक फल प्राप्त होता है (अनु० २५ । ३६)। षष्ठी देवी-ब्रह्माजीकी सभामें उनकी उपासनाके लिये बैठने
संयम-राक्षस शतशृङ्गका प्रथम पुत्र, जो अम्बरीषके सेनावाली एक देवी ( सभा० १११)।
पति सुदेवद्वारा मारा गया था (शान्ति० ९८ ।"
के बाद दा. पाठ)।
संयमन-(१) यमकी राजधानी संयमनीपुरी, जो दक्षिणसंकोच-एक राक्षस, जो प्राचीन कालमें इस पृथ्वीका दिशामें स्थित है (वन. १६३।८-९)। (२) शासक था किंतु कालके अधीन हो इसे छोड़कर चल
सोमदत्तका दूसरा नाम (भीष्म०६१।३३)। बसा (शान्ति० २२७ । ५२)।
संयमनीपुरी-यमकी राजधानी या पुरी, इसका दूसरा नाम संकृति-एक प्राचीन नरेश (आदि. १ । २३४)। ये 'संयमन' भी है (वन० १६३ । ८९; द्रोण०७२ । राजा रन्तिदेवके पिता थे (बन० २९४ । १७ द्रोण. ४४; द्रोण० ११९ । २४; द्रोण० १४२ । १०)। जहाँ ६७।।)।
कोई भी झूठ नहीं बोलता, सदा सत्य ही बोला जाता है, संक्रम-भगवान् विष्णुद्वारा स्कन्दको दिये गये तीन पार्षदों
जहाँ निर्बल मनुष्य भी बलवान्से अपने प्रति किये गये मेंसे एक । शेष दोके नाम थे-चक्र और विक्रम (शल्य.
अन्यायका बदला लेते हैं। मनुष्योको संयममें रखनेवाली ४५ । ३७)।
यमराजकी वही पुरी संयमनी' नामसे प्रसिद्ध है (अनु. संग्रह-समुद्रद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदों में से एक। १०२ । १६)।
दूसरेका नाम था विग्रह (शक्य० ४५ । ५०)। संयाति-(१) राजा नहुषके तीसरे पुत्र । ययातिके छोटे संग्रामजित्-कर्णका एक भाई । विराटकी गौओंके अपहरण- भाई । इनके अन्य भाइयोके नाम थे—यति, ययाति,
के समय युद्धमें अर्जुनद्वारा इसका वध हुआ था आयाति, अयति और ध्रुव (आदि० ७५ । ३०.३१)। (विराट ५४ । १०)।
, (२) ये महाराज पुरुके प्रपौत्र एवं प्राचिन्वान्के पुत्र संचारक-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५। ७४)। ये । यदुकुलकी कन्या अश्मकी इनकी माता थी
(आदि० ९५ | १३)। इनके द्वारा दृषद्वान्की पुत्री संज्ञा-त्वष्टाकी पुत्री और भगवान् सूर्यकी धर्मपत्नी। ये
वराङ्गीके गर्भसे 'अहंयाति' नामक पुत्रका जन्म हुआ परम सौभाग्यवती हैं। इन्होंने अश्विनीका रूप धारण करके
था ( आदि. ९५।१४)। दोनों अश्विनीकुमारोंको अन्तरिक्षमें जन्म दिया था (मादि. ६६ । ३५ )। नासत्य और दस दोनों संवरण-सोमवंशी अजमीढके पौत्र तथा ऋक्षके पुत्र अश्विनीकुमार अश्वरूपधारिणी संज्ञाकी नासिकासे (आदि० ९४ । ३१-३४) । पाञ्चाल-नरेशके द्वारा उत्पन्न हुए थे । इनका प्रादुर्भाव भगवान् सूर्यके वीर्यसे
इनपर आक्रमण और इनकी पराजय (आदि. ९४ । हुआ था (अनु. १५०। १७-१८)।
३७-१८)। शत्रुके भयसे राज्य छोड़कर इनका सिन्धुसंतर्जन-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ५८)।
तटपर निवास ( आदि० ९४ । ३९-४०)। इनके द्वारा
राज्य प्राप्ति के लिये पुरोहितके रूपमें वसिष्ठका वरण संतानिका-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६।५)।
(आदि० ५४ । ४२-४४ )। वसिष्ठकी सहायतासे संध्या-(१) एक नदी, जो वरुण-सभामें रहकर वरुण
इनको अपने राज्यकी प्राप्ति तथा इनके द्वारा विविध देवकी उपासना करती है (सभा०९। २३)।(२)
यशोंका सम्पादन ( आदि. ९४ । ४५-४७)। इनके सायंकालिक संध्याकी अधिष्ठात्री । ये महर्षि पुलस्त्यकी
द्वारा सूर्यकन्या तपतीके गर्भसे कुरु'का जन्म ( आदि० पत्नी थीं ( उद्योग० ११७ । १६)। (मूलगत नाम
९४ । ४८)। इनकी सूर्यदेवके प्रति भक्ति एवं आगधना 'प्रतीच्या')।
(आदि० १७० । १२-१४)। राजा संवरणके गुणसंनतेयु-पूरुके तीसरे पुत्र महामनस्वी रौद्राश्वके द्वारा रूपमें इस पृथ्वीपर इनके समान कोई नहीं था । ये
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संवर्त
संहाद (संहाद
कृतज्ञ और धर्मश थे। अपनी दिव्य कान्तिसे सूर्यकी ३०-३१)। इनका मरुत्तको अपना साथ छोड़ देनेके भाँति प्रकाशित होते थे। प्रजा इनकी उपासना करती लिये बाध्य करना (आश्व०६।३१-३३) । मरुत्तसे थी। उत्तम गुणसम्पन्न और श्रेष्ठ आचार-विचारसे युक्त थे अपने पक्षमें रहने की प्रतिज्ञा कराकर उन्हें उनका यज्ञ (आदि० १७०। १५---१९)। इनके साथ तपतीके कराने की स्वीकृति देना (आश्व० . । २४-२७)। विवाहके लिये सूर्यदेवका संकल्प (आदि. १७०।२०)। मरुत्तको सुवर्णकी प्राप्तिके लिये शिवजीकी नाममयी स्तुतिका एक दिन ये पर्वतके समीपवर्ती उपवनमें शिकार खेलने उपदेश करना (आश्व०८।१३-३२ तक दाक्षिणात्य के लिये गये। वहाँ थकावटके कारण इनके घोड़ेकी मृत्यु
पाठसहित)। अग्निदेवको जला डालनेकी धमकी देना हो गयी। फिर ये अकेले पैदल ही घूमने लगे। घूमते- (आश्व० ५। १९)। इन्द्रके वज्रका स्तम्भन करना घूमते उपवनमें इन्हें एक विशाललोचना दिव्य कन्या (आश्व० १०।७)। इन्द्रको मरुत्तकी यज्ञशालामें दिखायी दी (वह सूर्यकन्या तपती थी) (आदि. बुलाना (भाश्व० १०।२०)। इन्द्रको ही आवश्यक १७० । २५-२३)। तपतीके रूप-सौन्दर्यको देखकर
कार्यका उपदेश देने तथा देवोका भाग निश्चित करने के इनका मोह (भादि. १७०।२४-१४)। इनका उस लिये कहना (आश्व० १०।२५)। कन्यासे परिचय पूछना । उसका अदृश्य होना तथा संवर्तक-(१) कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न एक प्रमुख नाग उसके वियोगसे इनकी मूर्छा (आदि. १७० । ३६- (आदि. ३५।१०)। (२) माल्यवान् पर्वतपर ४४)। तपतीद्वारा इनको आश्वासन (आदि. १७१। सदा प्रज्वलित रहनेवाले अग्निदेवका नाम ( भीष्म । ४-५) । गान्धर्व विवाहद्वारा अपनी पत्नी बननेके २७-२८)। लिये इनकी तपतीसे प्रार्थना ( आदि० १७१ । - संवर्तवापी-एक दुर्लभ तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य १९)। तपतीकी प्राप्तिके लिये इनके द्वारा सूर्यकी
__ सुन्दर रूपका भागी होता है ( वन० ८५ । ३.)। आराधना और वसिष्ठजीका स्मरण ( भादि० १७२ ।
संवह-जो देवताओंके आकाशमार्गसे जानेवाले विमानोंको १२-१३) । वसिष्ठकी कृपा एवं प्रयत्नसे इनको तपती
स्वयं ही वहन करती है, वह पर्वतोंका मान मर्दन की प्राप्ति ( आदि. १७२ । १४-३२ )। तपतीके
करनेवाली चतुर्थ वायु संवह नामसे प्रसिद्ध है। इसका साथ इनका विधिपूर्वक विवाह ( आदि. १७२ ।
विशेष वर्णन (शान्ति० ३२८ । ४१-४३)।।। ३३)। तपतीके साथ इनका विहार (आदि. १७२ । ३७)। इनके राज्यमें बारह वर्षतक अनावृष्टि (आदि.
संवृत्त-एक कश्यपवंशी नाग (उद्योग.१०३।१४)। १७२ । ३८)। ये सायं-प्रातःस्मरणीय नरेश हैं संवृत्ति-ब्रह्माजीको सभामें रहकर उनकी उपासना करनेवाली (भनु० १६५ । ५४)।
एक देवी (सभा० ११ । ४३)। महाभारतमें आये हुए संवरणके नाम-आजमीढ, संवेद्य-एक तीर्थ, जहाँ प्रातः-संध्याके समय स्नान करनेसे आक्ष, पौरव, पौरवनन्दन, ऋक्षपुत्र आदि ।
विद्या प्राप्त होती है (वन० ८५।१)। संघर्त--महर्षि अङ्गिराके तृतीय पुत्र । शेष दोके नाम संशप्तकवधपर्व-द्रोणपर्वका एक अवान्तर पर्व (द्रोण. बृहस्पति और उतथ्य है (भादि. ६६। ५)। ये इन्द्र- अध्याय १७ से ३२ तक)। सभामें रहकर देवराजकी उपासना करते हैं (सभा० संश्रत्य-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु.।। ७ । १९)। ब्रह्म.जीकी सभामें उपस्थित हो उनकी उपासना करते हैं (सभा० ११ । १२ ) । इन्होंने
संस्थान-एक देश, जहाँके सैनिकोंको भीष्मकी रक्षाका पक्षावतरणतीर्थमें राजा मरुत्तका यज्ञ कराया था (वन०
__ आदेश दिया गया था (भीष्म० ५१।७)। १२९ । १३-१.)। बृहस्पतिजीके साथ स्पर्धा रखनेके कारण इन्होंने महाराज मरुत्तका यज्ञ कराया थाद्रोण संहतापन-ऐरावतकुलका एक नाग, जो जनमेजयके ५५ । ३०)। बृहस्पति जीके इनकार करनेपर इन्होंने सर्पसत्रमे जल मरा था (आदि. ५७। ११-१२)। भरुत्तका यश कराया ( शान्ति० २९ । २०-२१)। संहनन-राजा पूरुके प्रपौत्र एवं मनस्युके पुत्र । माताका ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये गये थे नाम सौवीरी । ये शूरवीर एवं महारथी थे (आदि०९४ । (शान्ति० ४७ । ९)। महाप्रयाणके समय भीष्मजीके ५-७)। पास गये थे ( अनु० २६ । ५ ) । ये अङ्गिराके आठ संवाद (संह्लाद )-हिरण्यकशिपुका द्वितीय पुत्र, प्रह्लादका पुत्रोंमेंसे एक थे, शेषके नाम थे-बृहस्पति, उतथ्य, पयस्य, छोटा भाई । इनके शेष भाइयोंके नाम----प्रहाद, अनुवाद, शान्ति, घार, विरूर और सुधन्वा (अनु० ८५।। शिवि तथा बाष्कलि थे ( आदि०६५। १-१८)।
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सद्ग्रह
( ३६४ )
संजय
बाहोकदेशके सुप्रसिद्ध राजा शल्य इसीके अंशसे उत्पन्न ६३ । ९७)। धृतराष्ट्र के द्वारा इनको अपनी विजयहुए थे (आदि.६७।६)। यह वरुणकी सभामें विषयक निराशाका अनुभव सुनाना (भादि.१।१५०-- रहकर उनकी उपासना करता था (सभा०९।१२)। २१८)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रको आश्वासन (आदि. सकृदग्रह-एक दक्षिण भारतीय जनपद (भीष्म. ९।। १। २२२-२५१)। ये युधिष्ठिरके राजसूय यशमें ६६)।
गये थे। इन्हें राजाओंकी सेवा और सत्कारके कार्यमें सगर-एक प्राचीन नरेश (आदि० १ । २३४)। ये
नियुक्त किया गया था (सभा० ३५ । ६)। इनका
धृतराष्ट्रको फटकारना (सभा०८१।५-१८)। इनका यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं।
धृतराष्ट्र के आदेशसे विदुरको बुलाने के लिये काम्यकवनमें (सभा० ८। १९)। ये इक्ष्वाकुवंशके प्रतापी राजा
जाना और विदुरसे संदेश कहना (वन०६ । ५.थे । इनकी दो रानियाँ थों-वैदर्भी और शैव्या । इनकी
१७)। इनके द्वारा संताप करते हुए धृतराष्ट्रकी बातोंसंतान-प्राप्तिके लिये तपस्या और इन्हें एक पत्नीसे साठ
का समर्थन (वन० ४९ । १-१३)। इनका धृतराष्ट्रसे हजार तथा दूसरीसे एक ही वंशधर पुत्र होनका वरदान
दुर्योधनके वधके लिये श्रीकृष्णादिके द्वारा काम्यकवनमें (वन०४७ । १९, वन० १०६ । ७-१६)। इनकी
की हुई प्रतिज्ञाका वर्णन करना ( वन०५१।१५एक रानी वैदर्भीके गर्भसे एक तुम्बी उत्पन्न हुई । राजा
४४)। धृतराष्ट्रके भेजनेसे युधिष्ठिरके पास जाकर उनकी उसे फेंकना चाहते थे, किंतु आकाशवाणीके मना करनेपर
कुशल पूछना (उद्योग० २३ । ।-५)। युधिष्ठिरके रुक गये तथा उसके निर्देशके अनुसार इन्होंने उस
प्रश्नोंका उत्तर देना ( उद्योग० २४ अध्याय)। पाण्डवोंतुम्बीके एक-एक बीजको निकालकर साठ हजार घृतपूर्ण
__ की सभामें धृतराष्ट्रका संदेश सुनाना (उद्योग० २५ कलशोंमें रक्खा और उनकी रक्षाके लिये धायें नियुक्त
अध्याय)। युधिष्ठिरको युद्धमें दोषकी सम्भावना दिखाकर कर दी। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् इनके साठ हजार
शान्त रहनेके लिये कहना ( उद्योग० २७ अध्याय)। पुत्र उन घड़ोंमेंसे निकल आये ( वन० १०६ । १८ से
युधिष्ठिरके पाससे हस्तिनापुर लौटकर धृतराष्ट्रसे उनका बन० १.७।४ तक)। इनकी अश्वमेध यज्ञकी दीक्षा
कुशल-समाचार कहना और धृतराष्ट्र के कार्योंकी निन्दा (वन० १०७।१५)। इनके साठ हजार पुत्रोंका
करना (उद्योग. ३२ । ११-३०)। कौरव-सभामें कपिलकी क्रोधाग्निमें भस्म होना (वन० १०७ ॥ ३३)।
आगमन ( उद्योग० ४७ । १४)। कौरवसभामें अर्जुनइनके द्वारा अपने पुत्र असमंजसका त्याग (वन० १०॥
का संदेश सुनाना ( उद्योग० ४८ अध्याय)। धृतराष्ट्रसे ३९--४३, शान्ति० ५७ । ८)। इनका अंशुमान्को
युधिष्ठिरके प्रधान सहायकोंका वर्णन करना ( उद्योग. राज्य देकर स्वर्ग-गमन ( बन० १०७ । ६४)। ये
५. अध्याय)। धृतराष्ट्रको उनके दोष बताते हुए अर्जुन और कृपाचार्यका युद्ध देखनेके लिये इन्द्रके
दुर्योधनपर शासन करनेकी सलाह देना ( उद्योग० ५४ विमानपर बैठकर विराटनगरके पास आये थे (विराट.
अध्याय)। दुर्योधनसे पाण्डवोंके रथ और अश्वोंका वर्णन ५६ । १०)। श्रीकृष्णद्वारा इनके दान, यश आदिका
करना ( उद्योग० ५६ । ७-१७)। पाण्डवोंकी युद्धके वर्णन (शान्ति. २९ । १३०-१३६) । महर्षि
लिये तैयारीका वर्णन ( उद्योग० ५७ । २-२५)। अरिष्टनेमिसे इनका मोक्षविषयक प्रश्न (शान्ति. २८८।
धृष्टद्युम्नकी शक्ति एवं संदेशका कथन ( उद्योग० ५७ । ३)। इन्होंने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया था
४७-६२)। धृतराष्ट्र के पूछनेपर अन्तःपुरमें कहे हुए (अनु. ११५। ६६)। ये सायं-प्रातःस्मरणीय राजर्षि
श्रीकृष्ण और अर्जुनके संदेश सुनाना (उद्योग० ५९ हैं (अनु. १६५। ४९)।
अध्याय )।धृतराष्ट्रको अर्जुनका संदेश सुनाना ( उद्योग. सङ्कर-एक मिश्रित जाति । भिन्न-भिन्न वर्णके माता-पितासे
६६ । ३-१५)। धृतराष्ट्रसे श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन उत्पन्न होनेवाली संतानें संकरजातिके' अन्तर्गत मानी
करना ( उद्योग० अध्याय ६८ से ७० तक ) । गयी हैं। भारतवर्षमें इस जातिके लोग भी रहते हैं धृतराष्ट्रसे कर्ण और श्रीकृष्णके वार्तालापका वृत्तान्त बताना (भीष्म० ९ । १३-१४)।
(उद्योग. १४३ अध्याय) । धृतराष्ट्रको कुरुक्षेत्रमें सङ्कर्षण-बलदेव ( सभा० २२ । ३६ के बाद दा० सेनाका पड़ाव पड़नेके बादका समाचार सुनाना पाठ)। ( देखिये बलराम )। इनकी उत्पत्ति और आरम्भ करना ( उद्योग. १५९।)। व्यासजीकी महिमाका वर्णन (शान्ति. २०७ । १-१२)। कृपासे इन्हें दिव्यदृष्टिकी प्राप्ति ( भीष्म०२।१.)। सञ्जय-(१) गवल्गण नामक सूतके पुत्र, जो मुनियों के समान धृतराष्ट्रके पूछनेपर भूमिके गुणों का वर्णन करना (भीष्म. शानी और धर्मात्मा थे । ये धृतराष्ट्र के मन्त्री थे (आदि. ४।१• से भीष्म० ५। १२ तक)। सुदर्शन द्वीपका वर्णन
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संजय
( ३६५ )
सत्य
करना (भीष्म० ५। १३) । धृतराष्ट्रसे भीष्मजीकी एक दिन रणभूमिसे भागकर आनेपर माताने इसे कड़ी मृत्युका समाचार सुनाना ( भीष्म १३ अध्याय)। फटकार दी और युद्ध के लिये प्रोत्साहन दिया ( उद्योग ( यहाँसे सौप्तिकपर्वके ९ वें अध्यायतक संजयने धृतराष्ट्र- अध्याय १३३ से १३६ । १२ तक) | माताके से युद्धका समाचार सुनाया है। ) धृतराष्ट्र- उपदेशसे युद्धके लिये उद्यत हो उसकी आज्ञाका यथावत् को उपालम्भ देना (द्रोण० ८६ अध्याय)। धृतराष्ट्रसे रूपसे पालन किया (उद्योग० १३६ । १३-१६)।
छाड़ जानका कारण सञ्जयन्ती-दक्षिण भारतकी एक नगरी, जिसे सहदेवने बताना (द्रोण. १८२ अध्याय)। कौरवपक्षके मारे
दक्षिण-दिग्विजयके समय दुतोंद्वारा संदेश देकर ही अपने गये प्रमुख वीरों का परिचय देना (कर्ण०५ अध्याय)।
अधिकारमें करके वहाँसे कर वसूल किया था ( समा. पाण्डवपक्षके मारे गये प्रमुख वीरोंका परिचय देना (कर्ण
३१।०)। ६ अध्याय)। कौरवपक्षके जीवित योद्धाओंका वर्णन
सञ्जययानपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय (कर्ण० ७ अध्याय)। सात्यकिद्वारा जीते-जी इनका
२० से ३२ तक)। बंदी बनाया जाना (शल्य० २५ । ५७-५८) । व्यासजी
सञ्जीवनमणि-एक प्रकारकी मणि, जो नागोंके जीवनकी के अनुग्रहसे सात्यकिकी कैदसे छुटकारा पाना (पास्य.
आधारभूत है । बभ्रुवाहनद्वारा आहत अर्जुनके अचेत २९ । ३९)। इनकी दिव्यदृष्टिका चला जाना (सोप्तिक.
हो जानेपर उलूपीने इसका स्मरण करके हस्तगत किया ९। ६२)। धृतराष्ट्रको सान्त्वना देना (स्त्री० ।। २३
था। यह मणि सदा मरे हुए नागराजोंको जीवित किया ४३)। धृतराष्ट्रसे स्वजनोंका मृतक कर्म करनेको कहना (सी०९ । ५-७)। युधिष्ठिरद्वारा इन्हें कृताकृत
__करती थी। उलूपीकी आज्ञासे बभ्रुवाहनने इसे लेकर कार्योंकी जाँच तथा आय-व्ययक निरीक्षणका कार्य सौंपा अर्जुनकी छातीपर रखा, जिससे अर्जुन जीवित हो उठे जाना (शान्ति०४१।)। धृतराष्ट्र और गान्धारी- (भाश्व० ८०। ४२-५२)। के साथ इनका वनगमन (आश्रम०१५।८)। यात्रा- सञ्जीवनी-एक विद्या, जिसके द्वारा मृत व्यक्तिको भी के प्रथम दिन गङ्गातटपर धृतराष्ट्र के लिये शय्या बिछाना जीवन-दान दिया जा सकता है। शुक्राचार्यने इसी विद्याके (आश्रम० १८।१९)। वनवासी महर्षियोंसे पाण्डवों बलसे देवासुर संग्राममें मारे गये दानवोंको जिलाया था तथा उनकी पत्नियोंका परिचय देना (भाश्रम. २५ (आदि. ७६ । ८)। इसीके बलसे उन्होंने अध्याय)। ये वनमें छठे समय अर्थात् दो दिन उपवास दानवोंद्वारा मारे गये कचको तीन बार जिला दिया था। करके तीसरे दिन आहार ग्रहण करते थे (भाश्रम ३७। शुक्राचार्यने कचको भी इस विद्याका उपदेश दिया था १३)। ये सदा धृतराष्ट्र के पीछे चलते और ऊँची-नीची (आदि० ७६ । २८-६१)। भूमिमें उन्हें सहारा देकर ले चलते ये (आश्रम ३७। सणु-एक भारतीय जनपद (भीष्म ९ । ४३)। १६-१७ ) । वनमें दावानल प्रज्वलित हो जानेपर सतत-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक विष्णु-सम्बन्धी धृतराष्ट्रने सञ्जयको दूर भाग जानेके लिये कहा । सञ्जयने तीर्थ, जहाँ श्रीहरि सदा निवास करते हैं (वन० ८३ । इस तरह दावानलमें जलकर होनेवाली मृत्युको राजाके लिये १०)। वहाँ स्नान और भगवान् श्रीहरिको नमस्कार अनिष्ट बतायी, किंतु उससे बचानेका कोई उपाय न करनेसे मनुष्य अश्वमेध-यज्ञका फल पाता तथा भगवान् देखकर अपना कर्तव्य पूछ। । राजाने कहा कि गृहत्यागियों- विष्णुके लोकमें जाता है (वन० ८३ । १०.१.)। के लिये यह मृत्यु अनिष्टकारक नहीं, उत्तम है, तुम भाग सत्य-(१) एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते जाओ। तब सञ्जयने राजाकी परिक्रमा की और उन्हें थे ( सभा० ४।१०)। (२) एक अग्नि, जो ध्यान लगानेके लिये कहा । राजा धृतराष्ट्र, निश्च्यवन नामक अग्निके पुत्र हैं। वे निष्पाप तथा कालगान्धारी और कुन्ती तीनों दग्ध हो गये, किंतु ये दावा- धर्मके प्रवर्तक हैं। वेदनासे पीड़ित प्राणियोको कष्टसे नलसे मुक्त हो गये। फिर गङ्गातटपर तपस्वी जोंको निष्कृति (छुटकारा) दिलानेके कारण इनका दूसरा नाम राजाके दग्ध होनेका समाचार बताकर ये हिमालयको चले निष्कृति है। ये ही प्राणियोंद्वारा सेवित गृह और उद्यान गये (आश्रम. ३७ । १९-३४) । (२) सौवीर आदिमें शोभाकी सृष्टि करते हैं। इनके पुत्रका नाम देशका एक राजकुमार, जो हाथमें ध्वज लेकर जयद्रथके
स्वन है (वन० २१९ । १३-१५)। (३) कलिङ्गपीछे चलता था (वन० २६५।।.)। द्रौपदी-हरणके सेनाका एक योद्धा, जो कलिङ्गराज श्रुतायुका चक्ररक्षक समय अर्जुनद्वारा इसका वध (वन० २७१। २०)। (३) था। भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म० ५४ । .१)। सौवीर देशका एक राजकुमार, जिसकी माता विदुला थी। (४) विदर्भनिवासी एक धर्मात्मा तपस्वी ब्राह्मण
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सत्यक
( ३६६ )
सत्यवती
-
( शान्ति. २७२ । ६)। इनके अहिंसापूर्ण यज्ञका सत्यभामा-भगवान् श्रीकृष्णकी पटरानी, भगवान् श्रीकृष्णवर्णन (शान्ति. २७२ । १०-२०)। (५) ने नरकासुरको मारकर इनके साथ नरकासुरके घरका भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम और इसकी निरुक्ति निरीक्षण किया । फिर वे इन्हें साथ लेकर इन्द्रलोकमें (कान्ति० ३४२ । ७५-७६) । (६) वीतहव्यवंशी गये । वहाँ शचीदेवीने इन्हें देवमाता अदितिसे मिलाया । बितत्यके पुत्र । इनके पुत्रका नाम संत था ( अनु० था । माता अदितिने इन्हें यह वर दिया था कि ३० । ६२)।
'जबतक श्रीकृष्ण मानवशरीरमें रहेंगे तबतक तू भी सत्यक-एक यदुवंशी क्षत्रिय, जो सात्यकिके पिता थे वृद्धावस्थाको प्राप्त न होगी, दिव्य सुगन्ध एवं उत्तम (आदि. ६३ । १०५)। ये रैवतक पर्वतपर होनेवाले गुणोंसे सुशोभित होगी।' सत्यभामा शचीके साथ स्वर्गमें उत्सवमें सम्मिलित थे (आदि० २१८।१)। इनके घूम-फिरकर उनकी अनुमति ले भगवान् श्रीकृष्णके साथ द्वारा अभिमन्युका श्राद्ध किया गया (आश्व०६२।६)। पुनः द्वारका आ गयीं। द्वारकामें इन्हें रहने के लिये श्वेत सत्यकर्मा-त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई, जिसने अर्जुनको रंगका प्रासाद (महल) प्राप्त हुआ था, उसमें विचित्र मारनेके लिये प्रतिज्ञा की थी। यह एक संशप्तक योद्धा था
मणियोंके सोपान लगे थे, उसमें प्रवेश करनेपर ग्रीष्म ऋतु(द्रोण. १७ । १७.१८)। अर्जुनद्वारा इसका वध में भी शीतलताका अनुभव होता था । यह महल (पास्य. २७ । ३९-४०)।
एक सुन्दर उद्यानमें बनाया गया था। इसमें चारों ओर सत्यजित्-राजा द्रुपदके भाई, जिसे साथ ले द्रुपदने अर्जुन
ऊँची ध्वजाएँ फहराती थीं, ये सभाभवनमें भगवान्का
वैभव एवं नवागता रानियोंको देखने गयी थीं (सभा० पर धावा किया था (भादि० १३७ । ४२)। अर्जुनके साथ इनका युद्ध (आदि. १३ । ४६) । अर्जुनसे
३८ । २९ के बाद, दा. पाठ, पृष्ठ ८०८, ८११,
८१२, ८१५, ८२०)। इनका काम्यकवनमें श्रीकृष्णके पराजित होकर इनके द्वारा युद्ध-भूमिका त्याग (आदि.
साथ आकर द्रौपदीसे मिलना (वन०१८३।११)। १३७॥ ५३) । अर्जुनद्वारा इन्हें युधिष्ठिरकी रक्षाका भार सौंपा जाना (द्रोण. १७॥ ४४-४५)। द्रोणाचार्यद्वारा
इनका द्रौपदीसे पतिको अपने अनुकूल बनाये रखनेका
उपाय पूछना (वन.२३३ | ४-८)। इनका द्रौपदीइनका वध (द्रोण० २१ । २१)। इनके मारे जानेकी
को आश्वासन देकर द्वारकाको प्रस्थान करना ( वन. चर्चा (कर्ण० ६ । ४)।
२३५ । ४-१८)। ये सत्राजित्की पुत्री थीं, भगवान् सत्यदेव-कलिङ्गसेनाका एक योद्धा, जो कलिङ्गराज
श्रीकृष्णके परमधाम-गमनके पश्चात् जब अर्जुन द्वारकामें श्रुतायुका चक्ररक्षक था । भीमसेनद्वारा इसका वध
आये थे, उस समय उनके पास आकर रुक्मिणी आदि (भीष्म० ५४ । ७६)।
रानियोंके साथ इन्होंने विलाप किया था ( मौसल. ५। सत्यधर्मा-एक सोमकवंशी राजकुमार, जो युधिष्ठिरके
१३)। श्रीकृष्णप्रिया सत्यभामा तपस्याका निश्चय करके सहायक थे ( उद्योग० १४१ । २५)।
वनमें चली गयी थीं (मौसल० ७।७४)। सत्यधति-(१) पाण्डवपक्षके महारथी योद्धा, जिन्हें
__ सत्ययुग-चारों युगोंमें प्रथम युग (विशेष देखिये कृतयुग)। भीष्मजीने रथियोंमें श्रेष्ठ माना था ( उद्योग० १७१ । १४)। ये द्रौपदीके स्वयंवरमें भी पधारे थे (आदि सत्यरथ--त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई, जो अपने पाँच रथी १८५। १०)। ये सुचित्तके पुत्र थे । इन्होंने युद्धमें
बन्धुओंमें प्रधान था ( उद्योग. १६६।१)। इसने हिडिम्बाकुमार घटोत्कचकी सहायता की थी (भीष्म० अर्जुनको मारनेके लिये प्रतिज्ञा की थी (द्रोण. १७। ९३ । १३)। इनके घोड़ोंका रंग लाल था, परंतु १७-१८)। (यह एक संशप्तक योद्धा था ।) उनके पैर काले रंगके थे। ये सभी सुवर्णमय विचित्र सत्यवती-(१) उपरिचर वसुके वीर्यद्वारा ब्रह्माजीके कवचोंसे सुसजित थे। कुमार सत्यधृति अस्त्रोंके ज्ञान, शापसे मत्स्यभावको प्राप्त हुई 'अद्रिका' नामक अप्सराके धनुर्वेद तथा ब्राह्मवेदमें भी पारंगत थे (द्रोण.२३। गर्भसे उत्पन्न एक राजकन्या । मल्लाहोंने मछलीका पेट ३६, ३१)। द्रोणाचार्यद्वारा इनके मारे जानेकी चर्चा चीरकर एक कन्या और पुरुष निकाला, जब राजाको इस(कर्ण० ६ । ३४)।(२) राजा क्षेमका पुत्र पाण्डव- की सूचना दी गयी, तब राजाने उन दोनों बालकोंमेंसे पक्षका योद्धा, इसके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण. २३ । पुत्रको स्वयं ग्रहण कर लिया, वही मत्स्य' नामक धर्मात्मा ५४)।
राजा हुआ, उनमें जो कन्या थी, उसके शरीरसे मछलीसत्यपाल-एक ऋषि, जो राजा युधिष्ठिरकी सभामें विराजते की गन्ध आती थी, अतः राजाने उसे मल्लाहको सौंप ये (सभा०४।१४)।
दिया और कहा-यह तेरी पुत्री. होकर रहे । सत्त्व,
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सत्यवती
( ३६७ )
सत्यवान्
सत्य एवं सद्गुणसे सम्पन्न होनेके कारण वह 'सत्यवती' नामसे पाण्डुके शोकसे व्याकुल हुई माता सत्यवतीको आश्वासन प्रसिद्ध हई, मछेरोंके आश्रयमें रहने और मछलीकी सी देना तथा आनेवाले भयंकर समयका परिणाम बतलाकर गन्ध होनेके कारण वह कुछ काल मत्स्यगन्धा' कहलायी। तपोवनमें तपस्याके लिये जानेकी सम्मति प्रदान करना यह पिताकी सेवाके लिये यमुनाजीमें नाव चलाया करती (आदि. १२७ । ५-८)। अपने दोनों पुत्रवधुओं थी (आदि० ६३ । ५०-६९)। यह अतिशय रूप- (अम्बिका एवं अम्बालिका ) के साथ इसका तपोवनमें सौन्दर्यसे सुशोभित थी । एक दिन पराशर मुनिने इसे जाना और तपस्याद्वारा परमपद प्राप्त करना ( आदि. देखा और इसके साथ समागमकी इच्छा प्रकट की । इस- १२७ । १३)। की इच्छाके अनुसार अन्धकारके लिये उन्होंने कुहरेकी महाभारतमें आये हुए सत्यवतीके नाम-दाशेयी, सृष्टि कर दी। इसके कन्यात्वके अक्षुण्ण रहने और शरीर- गन्धकाली, गन्धवती, काली, सत्या, बासवी तथा योजनसे उत्तम सुगन्ध प्रकट होनेका भी महर्षिने इसे वर दे गन्धा आदि। दिया। फिर इसने महर्षिके साथ समागम किया । शरीरसे
( २ ) केकयकुलकी कन्या, इक्ष्वाकुवंशी महाराज उत्तम गन्ध निकलनेसे इसका गन्धवती' नाम प्रसिद्ध हुआ।
त्रिशङ्ककी पत्नी और राजा हरिश्चन्द्रकी माता (सभा. इस पृथ्वीपर एक योजन दूरके मनुष्य भी इसकी सुगन्ध
१२।१० के बाद दा० पाठ) । (३) महाराज का अनुभव करते थे, इस कारण इसका दूसरा नाम
गाधिकी पुत्री, जिसका विवाह राजाने एक हजार योजनगन्धा' हो गया ( आदि० ६३ । ७०-८३)।
श्यामकर्ण घोड़े लेकर ऋचीक मुनिके साथ किया था सत्यवतीने पराशरजीके सम्पर्कसे तत्काल ही एक शिशुको
(वन० ११५ । २६-२९ )। (४) नारदजीकी जन्म दिया। यमुनाजीके द्वीपमें अत्यन्त शक्तिशाली परा
भार्या ( उद्योग० ११७ । १५)। शरनन्दन व्यास प्रकट हुए । उन्होंने मातासे कहा-'आवश्यकता पड़नेपर तुम मेरा स्मरण करना, मैं अवश्य दर्शन
सत्यवर्मा-त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई ( संशप्तकयोद्धा ),
जिसने अर्जनको मारनेके लिये प्रतिज्ञा की थी (द्रोण. दूंगा।' इतना कहकर उन्होंने माताकी आज्ञासे तपस्या ही मन लगाया (आदि. ६३ । ८४-८५)। पिताके
१०। १७-१८)। पूछनेपर इसका अपने शरीरकी उत्तम गन्धमें महर्षि परा- सत्यवाक्-एक देवगन्धर्व, जो कश्यपकी पत्नी मुनि'का पुत्र शरकी कृपाको कारण बताना ( आदि. ६३ । ८६ के था (भादि० ६५ । ४३)। बाद दा. पाठ)। इसका एक नाम 'गन्धकाली' भी था। सत्यवान्-(१) शाल्वनरेश घुमत्सेनके पुत्र, जो नगरमें इसका शान्तनुके साथ विवाह और उनके द्वारा इसके जन्म लेकर भी तपोवनमें पालित, पोषित और संवर्धित गर्भसे चित्राङ्गद और विचित्रवीर्यका जन्म हुआ(आदि०९५।। हुए थे (वन० २९४ । १०)। मद्रराज अश्वपतिकी ४४-५०; आदि. १०१।३)। वंशकी रक्षाके लिये कन्या सावित्रीके साथ इनका विवाह (वन० २९५ । १५)। विवाह करने तथा अम्बिका आदिके गर्भसे पुत्रोत्पादनके __इनका समिधाके लिये वनमें जानेको उद्यत होना । लिये इसका भीष्मसे अनुरोध ( आदि. १०३ । १०- सावित्रीका इनसे अपनेको भी साथ ले चलनेका अनुरोध ।
१)। भीष्मके प्रति इसका अपने गर्भसे व्यासजीके इनका उसे माता-पिताकी आज्ञा लेकर चलनेके लिये स्वीकृति जन्मका वृत्तान्त सुनाना (आदि० १०४ । ५-१४)। देना (वन. २९६ । १४-२३)। इनका वनमें फल विचित्रवीर्यकी स्त्रियोंसे संतानोत्पादनके हेतु व्यासजीको बुलाने- चुनकर टोकरीमें रखना, फिर लकड़ी चीरना, श्रमसे इनके के सम्बन्धमें इसका भीष्मसे परामर्श ( आदि. १०४ । सिरमें दर्द होना, सावित्रीसे अपनी अस्वस्थता और १८-१९)। भीष्मकी अनुमति प्राप्त होनेपर कुरुवंशकी असमर्थताका वर्णन करना, यमराजका सावित्रीसे रक्षाके लिये इसके द्वारा व्यानजीका स्मरण (आदि. सत्यवान्की आयुके समाप्त होने और इन्हें बाँधकर ले १०४ । २३-२४) विचित्रवीर्यकी पत्नियोंसे पुत्रोत्पादन- जानेके लिये अपने आगमनकी बात बताना तथा सत्यवान्के के लिये इसके द्वारा व्यासको आदेश (आदि० १०४ । शरीरमें पाशमें बँधे हुए अङ्गुष्ठमात्र परिमाणवाले जीवको ३५-३८)। इसका रानी अम्बिकाको समझा-बुझाकर बलपूर्वक खींचकर निकालना (वन० २९६ । १-१७)। अनुकूल करके पुत्रोत्पादनके निमित्त व्यासकी प्रतीक्षा इनका पुनः जीवित होना और सावित्रीसे वार्तालाप करना, करनेके लिये आज्ञा देना (आदि. १०४ । ४९ से माता-पिताके दर्शनके लिये इनकी चिन्ता (बन० २९७ । आदि० १०५।२ तक)। इसका अम्बालिकाको तैयार
६४-१०२)। सावित्रीके साथ इनका आश्रमकी ओर करना और उसके गर्भसे पुत्रोत्पादनके लिये ब्यासजीको प्रस्थान (वन० २९७ । १०७-११)। इनका पत्नीके बुलाना ( आदि. १०५ । १३-१४ ) । व्यासजीका साथ आश्रममें पहुँचना ( वन० २९८ । २१)।
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सत्यवत
( ३६८ )
सनत्कुमार
इनका ऋषियोंके पूछनेपर विलम्बसे आश्रममें आनेका (२) शंयु नामक अग्निकी पत्नी । जिसके रूप और कारण बताना ( वन० २९८ । ३०-३२ )। गुणोकी कहीं तुलना नहीं थी । इसके गर्भसे एक भरद्वाज इनका युवराजपदपर अभिषेक (वन० २९९ । ११)। नामक पुत्र और तीन कन्याएँ हुई थी (वन० २१९ । पिताके साथ राज्यपालनके विषयमें वार्तालाप ( शान्ति० ४-५)। . २६७ अध्याय)। लोगोंके पूछनेपर कन्यादानके विषयमें सत्येयु-पूरुके तीसरे पुत्र । रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी नामक इनका निर्णय देना (अनु० ४४ । ५१-५६ )। अप्सराके गर्भसे उत्पन्न एक महा धनुर्धर पुत्र (आदि० (२) कौरव-पक्षके एक सेनापति, जो महारथी वीर थे ९४ । ८-१२)। (उद्योग० १६७ । ३०)।
सत्येषु-(१) त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई ( एक संशप्तक सत्यव्रत-(१) एक प्राचीन नरेश (आदि०१।२३६)। योद्धा)। इसका अर्जुनको मारनेके लिये प्रतिज्ञा करना (२) (सत्यसेन, सत्यसंध, संध)धृतराष्ट्रका एक महारथी और अर्जुनके द्वारा इसका वध (द्रोण. १७ । १७-१८ पुत्र ( आदि० ६३ । ११९-१२० ) । ( विशेष शल्य. २७ । ४०-४१)। (२) एक राक्षस, जो देस्त्रिये- सत्यसंध) (३) त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई
प्राचीन कालमें इस पृथ्वीका शासक था; किंतु कालसे (एक संशप्तक योद्धा ) । इसका अर्जुनको मारनेके
पीड़ित हो पृथ्वीको छोड़कर चला गया (शान्ति. २२७ । लिये प्रतिज्ञा करना (द्रोण. १७ । १७-१८)। सत्यश्रवा-कौरवपक्षका एक योद्धा, जो अभिमन्युद्वारा सत्राजित्-एक प्रमुख यादव । प्रसेनजित्के भाई । सत्राजित् मारा गया था (द्रोण० ४५ । ३)।
और प्रसेनजित्-ये दोनों जुड़वें बन्धु थे। इनके पास सत्यसंध ( सत्यवत, सत्यसेन अथवा संध)-(१) स्यमन्तकमणि थी, जिससे प्रचुर मात्रामे सुवर्ण झरता रहता धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक । यह ग्यारह महारथियोंमेंसे था (सभा०१४। ६० के बाद दा० पाठ)। कृतवर्माने एक था ( आदि०६३ । ११९-१२०, आदि०६७।१०० मणिके लोभसे सत्राजित्का वध करवाया था----इसका आदि. ११६ । ५)। यह अपने भाइयोंके साथ शल्यकी सात्यकिने श्रीकृष्णको स्मरण दिलाया था (मौसल. ३ । रक्षामें तत्पर था (भीष्म० ६२। १७)। अभिमन्युने २३)। इनकी पुत्रीका नाम सत्यभामा था (मौसका इसे बाण मारकर घायल कर दिया था (भीष्म ६२। ५। १३)। २८-२९)। अभिमन्युके साथ इसका युद्ध (भीष्म०७३। सदश्व-एक राजा, जो यमसभामै रहकर सूर्यपुत्र यमकी २४-२६)। सात्यकिने इसे बाण मारे थे (द्रोण० ११६। उपासना करते हैं (सभा० ८ । १२)। ७.८ )। इसका एक नाम सत्यसेन भी है। यह और
सदासुवाक् ( सहस्रवाक )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक सुषेण युद्धमें चित्रसेनके साथ खड़े थे। (कर्ण०७। (आदि०६७। १००, आदि. ११६ । ९)। १७)। भीमसेनद्वारा इसका वध (कर्ण०८४ । २-६)। (२) मित्रद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक, सदस्य
सदस्योर्मि-एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी
उपासना करते हैं (सभा० ८।११)। दूसरेका नाम 'सुव्रत' था (शल्य. ४५।१)। (३) 'एक महान् व्रतधारी प्राचीन नरेश । जिन्होंने अपने सदाकान्ता-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी प्राणोद्वारा एक ब्राह्मणके प्राणोंकी रक्षा की थी और ऐसा पीते हैं ( भीम. ९ । २५)।
करके वे स्वर्गमें गये थे (शान्ति० २३४ । १६)। सदानीरा-एक पवित्र नदी, जो वरुणकी सभामें रहकर सत्यसेन ( सत्यसंध या संध )-(१) धृतराष्ट्रका उनकी उपासना करती है ( सभा० १०।२०)। इसका
एक पुत्र (आदि०६७।१०० आदि० ११६।९) जल भारतवासी पीते हैं. (भीष्म ९।२४)।( कुछ ( विशेष देखिये---सत्यसंध) । (२) त्रिगर्तराज लोगोंका मत है कि करतोया नदीका ही नाम (सदानीरा' या सुशर्माका भाई, जिसका अर्जुनके साथ युद्ध और सदानीरवहा' है । करतोया जलपाईगुड़ीके जंगलोंसे निकलउनके द्वारा वध हुआ था (कर्ण० २७ । ३-२२)। कर रंगपुर होती हुई बोगड़ा जिलेके दक्षिण हलहलिया (३) कर्णका पुत्र, जो अपने पिताका चक्ररक्षक था नदीमें मिलती है । दूसरे मतके अनुसार सरयूकी सहायक ( कर्ण० ४८ । १८)।
नदी राप्ती' ही सदानीरा है। ग्रन्थान्तरों में इसके सत्या-(१)भगवान् श्रीकृष्णकी एक पटरानी । ये श्रीजीके
अचिरवती तथा इरावती नाम भी मिलते हैं। ) साथ श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये सभाभवनमें गयी थीं सनत्कुमार-एक ऋषि, जो भूतलपर प्रद्युम्नके रूपमें (सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ट ८२०)। अवतीर्ण हुए थे (आदि० ६७ । १५२ )। इन्होंने
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सनत्सुजात (या सनत्कुमार)
( ३६९ )
सम
D
ब्रह्मलोकसे आकर राजा पुरूरवाको समझाया था ( आदि० आते हैं । तीर्थसंघातसे युक्त होनेके कारण इसे सन्निहती ७५ । २१-२२ ) । महातपस्वी योगाचार्य भगवान् कहते हैं । यहाँ श्राद्ध करनेकी विशेष महिमा है (वन० सनत्कुमार ब्रह्मसभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं ८३ । १९०-१९९)। (सभा० ११ । २३) । कनखलके पास महानदी सन्निहित-एक अग्नि, जो देहधारियोंके प्राणोंका आश्रय लेकर गङ्गाके तटपर इन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी ( वन० ।
उनके शरीरको कार्यमें प्रवृत्त करते हैं । ये मनुके तीसरे १३५ । ५)। इनके द्वारा गौतम और अत्रिके
पुत्र हैं। इनके द्वारा शब्द और रूपको ग्रहण करनेमें विवादका निर्णय ( वन. १८५ । २७-३१)। सफलता मिलती है (वन० २२१ । १९)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीके पास उन्हें देखनेके
सप्तकृत-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३६ )। लिये आये थे (शान्ति०४७ । ८)। विभाण्डक आदि ऋषियोंको इनका उपदेश (शान्ति. २२२ अ० दा० पाठ)।
सप्तगह-एक प्राचीन तीर्थ । इसमें विधिपूर्वक देवता-पितरोंका वृत्रासुरको आध्यात्मिक उपदेश (शान्ति० २८० । ७
तर्पण करनेवाला मनुष्य पुण्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है ५६)। इन्होंने गन्धर्वराज विश्वावसुको किसी समय
(वन० ८४ । २९)। इस तीर्थमें पितरोंका तर्पण करनेउपदेश किया था (शान्ति० ३१८ । ६१)। इनका
वाला मनुष्य यदि जन्म लेता है तो अमृतभोजी देवता ऋषियोंको उपदेश(शान्ति० ३२९।५-७)। ये ब्रह्माजीके
होता है (अनु० २५ । १६)। मानसपुत्र हैं । इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्ति- सप्तगोदावर-शूर्पारक क्षेत्रके समीपवर्ती एक प्राचीन धर्ममें स्थित हैं। ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्यज्ञान-विशारद,
तीर्थ, जहाँ स्नान करके नियमपूर्वक नियमित भोजन धर्मशास्त्रोंके आचार्य तथा मोक्षधर्मके प्रवर्तक हैं (शान्ति० करनवाला पुरुष महान् पुण्य लाभ क
करनेवाला पुरुष महान् पुण्य लाभ करता और देवलोकमें ३४ । ७२-७४ ) । इन्होंने ब्रह्माजीसे सात्वतधर्मका . जाता है ( वन० ८५ । ५४)। उपदेश ग्रहण किया और इनसे वीरण प्रजापतिको इस सप्तचरु-यहाँ सभी देवताओं तथा प्राणियोंने भगवान् धर्मका उपदेश प्राप्त हुआ (शान्ति० ३४८ । ४०-४१)। केशवको प्रसन्न करनेके लिये ऋग्वेदकी सात-सात ऋचाओंसे प्रद्युम्न स्वर्गमें जानेपर इन्हींके स्वरूपमें प्रविष्ट हो गये थे। सात-सात आहुतियाँ दी थीं, इसीसे इसका नाम सप्तचर (स्वर्गा० ५। १३)।
पड़ा । वहाँ अग्निके लिये दिया हुआ चरु एक लाख सनत्सुजात (या सनत्कुमार )-एक सनातन ऋषि, गोदान, सौ राजसूय यज्ञ और सहस्र अश्वमेध यज्ञसे
जो विदुरजीके स्मरण करनेसे प्रकट हए थे (उद्योग भी अधिक कल्याणकारी है (वन० ८२ । ९६-९९)। ४१।८)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रको उपदेश (उद्योग. सप्तराव-गरुड़की प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग अध्याय ४२ से ४६ तक)।
१०१।११)। सनत्सुजातपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय सप्तर्षिकुण्ड-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत ब्रह्मोदुम्बर ४१ से ४६ तक)।
तीर्थमें स्थित एक कुण्ड । जिसमें स्नान करनेसे महान् सनातन-(१)एक महर्षि, जो राजा यधिष्ठिरकी सभा पुण्यकी प्राप्ति होती है (वन० ८३ । ७२)। विराजते थे ( सभा० ४ । १६)। (२)ब्रह्माजीके एक सप्तसारस्वत-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक प्राचीन मानसपुत्र (शान्ति० ३४० । ७२ )।
तीर्थ, जहाँ मंकणक मुनिको सिद्धि प्राप्त हुई थी (वन० सनीय-दक्षिण भारतका एक जनपद (भीष्म०९ । ६३)।
८३ । ११५-११६)।यह सरस्वती तीर्थमें सबसे श्रेष्ठ है।
यहाँ बलरामजी अपनी तीर्थयात्राके अवसरपर पधारे थे सन्त-वीतहव्यवंशी सत्यके पुत्र । इनके पुत्रका नाम श्रवा
(शल्य. ३७ । ६१)। इस तीर्थको उत्पत्ति और था ( अनु० ३० । ६२-६३)।
महिमाका विशेषरूपसे वर्णन (शल्य०३८।३-३२)। सन्नतेयु-पूरुके तीसरे पुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके सभापति-कौरवपक्षका एक राजकुमार, जिसका अर्जुनद्वारा
गर्भसे उत्पन्न एक महाधनुर्धर पुत्र (आदि० ९४।८-११)। वध हुआ था (कर्ण० ८९ । ६४) सन्निहती तीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक प्राचीन सभापर्व-महाभारतका एक प्रमुख पर्व ।। तीर्थ । जहाँ ब्रह्मा आदि देवताऔर तपोधन ब्रह्मर्षि प्रतिमास सम-धृतराष्ट्र के सौ पुर्मिसे एक (आदि०६७।१६, आदि. महान् पुण्यसे सम्पन्न होकर जाते हैं । सूर्यग्रहणके समय ११६। ५)। इसका भीमसेनके साथ युद्ध (भीष्म० ६४ । इसमें स्नान करनेसे सौ अश्वमेध यौका फल प्राप्त होता २९)। इसका भीमसेनके साथ युद्ध और उनके द्वारा है । इसमें पृथ्वी और आकाशके सम्पूर्ण तीर्थ अमावास्याको वध (कर्णः ५३ । ७-१६)।
मना०४७
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समझ
( ३७० )
सम्प्रिया
समङ्ग-(१) दुर्योधनका एक ग्वाला, जिसने धृतराष्ट्रको समीची-एक अप्सरा, जो वर्गाकी सखी थी ( आदि०
उनकी गौओंके समीप आनेकी सूचना दी थी (वन० २१५।२०)। ब्राह्मणके शापसे इसका ग्राह-योनिमें २३९ । २)। (२) एक दक्षिणभारतका जनपद जन्म (आदि० २१५ । २३)। अर्जुनद्वारा इसका (भीष्म०९ । ६०)। (३) एक प्राचीन ऋषि | ग्राहयोनिसे उद्धार ( आदि० २१६ । २१)। यह नारदजीके पूछनेपर इनका अपनी शोकरहित स्थितिका वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करती है वर्णन करना (शान्ति० २८६ । ५-२१)।
(सभा० १०।११)। समझा-एक नदी, जिसमें पिताकी आज्ञासे स्नान करनेके कारण समुद्रवेग-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६३ )। अष्टावक्रके अङ्ग सीधे हो गये थे। तभीसे यह नदी पुण्यमयी
-एक क्षत्रियनरेश, जो सातवें कालेयसंज्ञक दैत्यके हो गयी । इसमें स्नान करनेवाला मनुष्य सब पापोसे मुक्त अंशसे उत्पन्न हुए थे। ये धर्म और अर्थतत्त्वके ज्ञाता हो जाता है (वन. १३४ । ३९-४०)। इसका दूसरा थे । समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीपर इनकी ख्याति थी नाम मधुविला भी है (वन० १३५ । १-२)।
(आदि० ६७ । ५४ ) । भीमसेनने पूर्व-दिग्विजयके समन्तपञ्चक-एक क्षेत्र । यहाँ परशुरामजीने रक्तके पाँच समय चन्द्रसेनसहित इन्हें जीता था (सभा० ३० । सरोवर बना दिये थे और उन्हींमें रक्ताञ्जलिद्वारा २४)। ये पराक्रमी थे । पाण्डवोंकी ओरसे पुत्रसहित अपने पितरोंका तर्पण किया था ( आदि० २।४-५, इन्हें रण-निमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था वन० ११७ । ९-१०)। परशुरामजीके पितरोंके वरदानसे (उद्योग०४।२२)। इनके द्वारा चित्रसेनके वधकी यह प्रसिद्ध तीर्थ हो गया ( आदि० २।४-११)। चर्चा ( कर्ण० ६ । १५-१६)। द्वापर और कलियुगकी संधिमें कौरवों और पाण्डवोंका समुद्रोन्मादन-स्कन्दका एक सैनिक ( पाल्ब० ४५ । महाभारतयुद्ध यहीं हुआ था । इसी कारण, 'समेतानाम्
स्मन् तत् समन्तम्' इस व्युत्पत्तिक अनुसार समूह-एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३०)। इसका नाम समन्तपञ्चक पड़ गया (आदि० २ ।
समृद्ध-धृतराष्ट्रकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके १३-१५ ) । बलरामजीकी सलाहसे पाण्डव तथा
सर्पसत्रमें भस्म हो गया (आदि० ५७ । १८)। दुर्योधनका इस क्षेत्रमें युद्धके लिये जाना (शल्य. ५५ । ५-१८)। इसी क्षेत्रमें दुर्योधनका निधन (शल्य.
समेडी-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । १३)। ३९ । ४०)।
सम्पाति-(१) विनतानन्दन अरुणके प्रथम पुत्र । इनकी समन्तर-एक भारतीय जनपद (भीष्म ९ । ५०)।
माताका नाम श्येनी और इनके छोटे भाईका नाम जटायु समयपालनपर्व-विराटपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय था ( आदि० ६६ । ७०-७१)। इन्होंने हनुमानजी १३)।
आदि वानरोंको सीताके सम्बन्धमें यह समाचार दिया था समरथ-राजा विराटके भाई, जो पाण्डवोंके प्रधान सहायक
कि वे रावणपुरी लङ्कामें विद्यमान हैं (वन०१४८५)। थे (द्रोण० १५८ । ४२)।
इनका आमरण अनशनके लिये बैठकर बातचीतके
प्रसङ्गमें जटायुकी चर्चा करनेवाले वानरोसे जटायुका समवेगवश-एक दक्षिणभारतीय जनपद ( भीष्मः
समाचार पूछना, अपनेको उनका भाई बताना तथा ९।६१)।
जटायुके साथ सूर्यमण्डलके समीपतक उड़कर जानेसे समसौरभ-एक वेदविद्या के पारङ्गत ब्राह्मण, जो जनमेजयके
अपने पलोंके जलने और पर्वतशिखरपर गिरनेका सर्पसत्रके सदस्य बने थे (आदि० ५३ । ९)।
वृत्तान्त सुनाना, फिर वानरोंके मुखसे सीता-हरण एवं समा-पुष्करद्वीपके आगे बसी हुई लोगोंकी एक चौकोर
जटायु-मरणका समाचार सुनकर भाईके लिये दुखी होना बस्ती या आबादी, जिसमें तैंतीस मण्डल हैं। यहाँ वामन,
तथा लङ्कामे सीताजीके होनेकी निश्चित सम्भावना बताऐरावत, सुप्रतीक और अञ्जन-ये चार दिग्गज रहते हैं।
कर वानरोंको वहाँ जानेके लिये प्रेरित करना (बन. इनके मुखसे मुक्त होकर बहनेवाली वायुद्वारा वहाँकी प्रजा २८२ । १६-५७ ) । (२) कौरवपक्षीय योद्धा,
जीवन धारण करती है (भीष्म० १२ । ३२-३८)। जो द्रोणनिर्मित गरुडव्यूहके हृदय-स्थानमें विशाल समितिञ्जय-द्वारकावासी यादवोंके अन्तर्गत सात सेनाके साथ खड़े थे (द्रोण. २० । १२)। महारथियोंमेंसे एक (सभा० १४ । ५८)।
सम्प्रिया-मधुवंशकी कन्या तथा महाराज विदूरकी पत्नी । समीक-द्वारकावासी यादवोंके अन्तर्गत सात महारथियोंमेंसे इसके गर्भसे अनश्वाका जन्म हुआ था ( आदि.. एक (समा १४। ५८)।
९५ । ४.)।
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सम्भल
( ३७१)
सरखती
-
सम्भल-एक ग्राम, जहाँ युगान्तके समय कालकी प्रेरणासे सायं-प्रातःस्मरणीय नदियोमेसे है (अनु० १६५। २१)। किसी ब्राहाणके घरमें भगवानके अवतार विष्णुयशा (२) वीर नामक अमिकी पत्नी, जिससे उन्होंने सिद्धि कल्किका प्रादुर्भाव होगा ( बन० १९० । ९४)। नामक पुत्रको जन्म दिया था (वन० २१९ । ११)। (कुछ लोगोंकी धारणाके अनुसार मुरादाबाद जिलेका सरस्वती-(१) एक देवी, जिनकी प्रत्येक पर्वके आरम्भमें सम्भल नामक कसबा ही वह ग्राम है, जहां कल्किका वन्दना की गयी है (आदि०१४ मङ्गलाचरण)। ये अवतार होगा।)
इन्द्रसभामें विराजमान होती हैं (समा० ७ । १९)। सम्भवपर्व-आदिपर्वके एक अवान्तर पर्वका नाम (अध्याय इनके द्वारा ता_मुनिको उनके प्रश्नके अनुसार गोदान, ६५ से १३९ तक)।
अग्निहोत्र आदि विविध विषयोंका उपदेश किया गया सरकतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक
( वन० १८५ अध्याय)। ये त्रिपुरदाहके समय
शिवजीके रथके आगे बढ़नेका मार्ग थीं (कर्ण० ३४ । ३४)। लोकविख्यात तीर्थ, जहाँ कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको भगवान्
दण्डनीतिस्वरूपा सरस्वती ब्रह्माजीकी कन्या हैं (शान्ति. शङ्करका दर्शन करनेसे मनुष्य सब कामनाओंको प्राप्त कर लेता और स्वर्गलोकमें जाता है । वहाँ रुद्रकोटि, कूप और
१२१ । २४)। महर्षि याज्ञवल्क्यके चिन्तन करनेपर कुण्डोंमें कुल मिलाकर तीन करोड़ तीर्थ हैं । इसके
स्वर और व्यञ्जन वर्णोंसे विभूषित वाग्देवी सरस्वती पूर्वभागमें महात्मा नारदका अम्बाजन नामक विख्यात
ॐकारको आगे करके उनके सामने प्रकट हुई थीं तीर्थ है (वन० ८३ । ७५-८१)।
(शान्ति० ३१८ । १४ ) । ( २ ) एक
नदी, जिसके तटपर राजा मतिनारने यज्ञ किया था। सरमा-देवलोककी कुतिया, जो सारमेयोंकी जननी थी
यज्ञ समाप्त होनेपर नदीकी अधिष्ठात्री देवी सरस्वती( आदि० ३।।)। यह पीटे गये पुत्रके दुःखसे
ने उनके पास आकर उन्हें पतिरूपमें वरण किया। मतिनारदुखी हो सर्पसत्र में आयी थी (आदि. ३ । ७)। ने इसके गर्भसे तंसु नामक पुत्रको उत्पन्न किया ( आदि० इसके द्वारा जनमेजयको शाप (आदि० ३ ।९)।
९५ । २६-२७)। यह गङ्गाकी सात धाराओंमेंसे एक देवताओंकी कुतियाके शापसे जनमेजयको बड़ी घबराहट
है और प्लक्षकी जड़से प्रकट हुई है। इसका जल पीनेसे सारे हुई (आदि०३ । १०)। यह ब्रह्माजीकी सभामें रहकर
पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं (आदि०१६ । १९-२१)। उनकी उपासना करती है ( सभा० ११ । ४०)। यह वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करती है देवताओंकी कुतिया देवजातीय सरमा स्कन्दका एक (सभा० ५। १९) । पाण्डवोंका वनयात्राके समय इसे ग्रह है। अतः यह भी नारियोंके गर्भस्थ बालकोका अपहरण
पार करना (वन० ५।२) श्रीकृष्णद्वारा सरस्वतीतटकरती है (वन० २३० । ३४ )।
पर किये गये यज्ञानुष्ठानकी चर्चा (वन० १२ । १४)। सरयू-(१) हिमालयके स्वर्णशिखरसे निकली हुई काम्यकवनका भूभाग सरस्वतीके तटपर है (वन० ३६ ।
गङ्गाकी सात धाराओंमेंसे एक । जो इसका जल पीते १)। यह नदी तीर्थस्वरूपा है । उसमें जाकर देवताओं हैं, उनके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं (आदि० १६९ । और पितरोंका तर्पण करनेसे यात्री सारस्वत लोकोंमें जाता २०-२१)। यह वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना और आनन्दका भागी होता है (वन० ८४ । ६६)। करती है ( सभा० ८।२२)। इन्द्रप्रस्थसे गिरिव्रजको तीर्थोकी पंक्तिसे सुशोभित यह नदी बड़ी पुण्यदायिनी है जाते हुए श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनने मार्गमें इसे (वन० ९० । ३)। दधीचका आश्रम सरस्वती नदीपार किया था ( सभा० २० । २८) । गोप्रतार नामक के उस पार था (वन० १००।१३)। लोमशद्वारा इसतीर्थ सरयूके ही जलमें है, जहाँ गोता लगाकर भगवान्
के माहात्म्यका वर्णन (वन० १२९ । २०-२.)। यह श्रीरामने दलबलसहित परमधामको प्रस्थान किया था विनशनतीर्थमें लुप्त होकर चमसोद्भेदमें पुनः प्रकट हुई (वन०८४ । ७०-७१)। यह नदी अग्निकी उत्पत्ति- (वन० १३० । ३-५)। अग्निकी उत्पत्तिकी स्थानभूता का स्थान है (वन० २२२ । २२)। यह उन पवित्र नदियोंमें इसकी गणना है (वन० २२२ । २२)। ये नदियों से है, जिनका जल भारतवर्षकी प्रजा पीती है गङ्गाकी सात धाराओं में से एक हैं ( भीष्म० ६ । ४८)। (भीष्म० ९ । १९)। वसिष्ठजी कैलासकी ओर जाती सरस्वती उन पवित्र नदियोंमें है, जिसका जल भारतवासी हुई गङ्गाको मानसरोवरमें ले आये, वहाँ आते ही पीते हैं (भीष्म० ५। १४) । सरस्वती-तटवर्ती गङ्गाजीने उस सरोवरका बाँध तोड़ दिया । गङ्गासे तीथोंकी महिमाका विशेष वर्णन (शल्य. अध्याय ३५ से सरोवरका भेदन होनेपर जो स्रोत निकला, वही सरयूके ५४ तक)। यह ब्रह्मसरसे प्रकट हुई है। इसके नामसे प्रसिद्ध हुआ (अनु० १५५ । २३-२४) । यह द्वारा वशिष्ठका बहाया जाना (शल्य. ४२ । २९)।
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सरस्वती-अरुणा-सङ्गम
( ३७२ )
सवन
mance
विश्वामित्रद्वारा इसे शापकी प्राप्ति (शल्य० ४२।३८-३९)। सर्पिर्माली-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे ऋषियोंके प्रयत्नसे शाप-मुक्ति (शल्य० ४३ । १६)। (सभा० ४ । १०)। महर्षि दधीचके वीर्यको धारण करके पुत्र पैदा होनेपर सर्व भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम और उसकी निरुक्ति उन्हें सौंपना (शल्य. ५१ । १३-१४) । महर्षिद्वारा (उद्योग. ७०।१२)। इसे वरदान-प्राप्ति (शल्य. ५१।१७-२३)। बलराम
सर्वकर्मा-सौदासका एक पुत्र, जो परशुरामजीद्वारा किये गये जीद्वारा इसकी महिमाका वर्णन (शल्य० ५४ । ३८. .
क्षत्रिय संहारके समय पराशरमुनिद्वारा रक्षित हुआथा । पृथ्वी३९) । अर्जुनने सात्यकिके पुत्रको इसके तटवर्ती प्रदेश
द्वारा कश्यपजीको इसका पता दिया गया (शान्ति० ४९ । का अधिकारी बनाया (मौसल० ८ । ७१)। श्रीकृष्णकी
७६-७७)। सोलह हजार पत्नियोंने सरस्वती नदीमें कूदकर अपने प्राण दे दिये (स्वर्गा० ५। २५)।(३) मनुकी पत्नीका
सर्वकामदुघा-सुरभिकी धेनुस्वरूपा कन्या, जो उत्तरको नाम ( उद्योग० ११७ । १४)।
धारण करनेवाली है (उद्योग० १०२ । १०)। सरखती-अरुणा-सङ्गम-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक सर्वग-भीमसेनके द्वारा बलन्धराके गर्भसे उत्पन्न हुआ
लोकविख्यात पवित्र तीर्थ, जहाँ स्नान करके तीन रात उप- पुत्र ( आदि० ९५। ७७)। वास करनेपर ब्रह्महत्यासे छुटकारा मिल जाता है । वह सर्वतोभद्र–जलेश्वर वरुण देवताका समृद्धिशाली निवासअमिष्टोम और अतिरात्र यज्ञोंसे मिलनेवाले फलको भी स्थान ( उद्योग० ९८ । १०)। पा लेता और अपने कुलकी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर सर्वदमन-शकुन्तलाका वीर पुत्र भरत ( आदि० ७३ । देता है (वन० ८३ । १५१-१५३)।
)। (विशेष देखिये-भरत ) सरस्वतीसङ्गम-एक परम पुण्यमय लोकविख्यात तीर्थ, सर्वदेवतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक तीर्थ जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा तपोधन महर्षि भगवान् जिसमें स्नान करनेसे मानव सहस्र गोदानका फल पाता केशवकी उपासना करते हैं । वहाँ चैत्र शुक्ला चतुर्दशीको है (वन० ८३ । ८८-८९)। विशेष यात्रा होती है । वहाँ स्नानसे प्रचुर सुवर्णकी प्राप्ति सर्वदेववाद-एक तीर्थ, जिसमें लान करनेसे सहस्र गोदानहोती है और पापरहित शुद्धचित्त हुआ मनुष्य ब्रह्मलोकमें का फल मिलता है (वन० ८५ । ३९)। जाता है (वन० ८२ । १२५-१२७)।
सर्वपापप्रमोचन कृप-समस्त पापोको दूर करनेवाला एक सरखती-सागरसङ्गम-पश्चिम समुद्रके तटपर जहाँ कप, जो नारायणस्थानमें है। उसमें सदा चारों समुद्र
सरस्वती और समुद्रका संगम हुआ है, वह तीर्थ, वहाँ जाकर निवास करते हैं। उस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य कभी स्नान करके देवेश्वर महादेवजीकी आराधना करनेसे ।
दुर्गतिमें नहीं पड़ता (वन०८४ । १२६-१२७)। चन्द्रमाको अपनी खोयी हुई कान्ति पुनः प्राप्त हुई थी (शल्य. ३५। ७७)। (यहीं सोमनाथ एवं प्रभास. सर्वतुक-रैवतक पर्वतके समीप शोभा पानेवाला एक वन क्षेत्र है।)
(सभा० ३८।२९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८१३)। सरिद्वीप-गरुड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग. सर्वसारङ्ग-धृतराष्ट्र-कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय१०१।११)।
के सर्पसत्रमें जल मरा था ( आदि० ५७ । १८)। सर्प-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक, ब्रह्माजीके पौत्र एवं स्थाणुके पुत्र
सर्वसेन-काशीके एक राजा, जिनकी पुत्री सुनन्दाके साथ (आदि० ६६ । २)।
सम्राट भरतने विवाह किया था । सुनन्दाके गर्भसे जो सर्पदेवी-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक तीर्थ, जहाँ
इनका दौहित्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम भुमन्यु था जाकर उत्तम नागतीर्थका सेवन करनेसे मनुष्य अग्निष्टोमका
(आदि० ९५ । ३२)। फल पाता और नागलोकमें जाता है ( वन० ८३ ।
सर्वा-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं १४-१५)।
(भीष्म० ९ । ३६)। सर्पमाली- एक दिव्य महर्षि, जो हस्तिनापुर जाते समय श्रीकृष्णसे मार्गमें मिले थे ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद
सलिलहद-एक तीर्थ, जिसमें ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक गोतालगाने
से अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है (अनु० २५।१४)। दाक्षिणात्य पाठ)। सर्पान्त-गरुड़की प्रमुख संतानोंकी परम्परामें उत्पन्न एक सवन-महर्षि भृगुके सात पुत्रों से एक ( इनकी वारुण' पक्षी (उद्योग० १०१ । १२)।
संज्ञा है।) (अनु०८५ । १२९)।
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सबिता
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( ३७३ )
सविता - बारह आदित्योंमेंसे एक । इनकी माता अदिति और पिता कश्यप हैं ( आदि० ६५ । १५ ) ।
सव्यसाची - अर्जुनका एक नाम और इसकी निरुक्ति ( विराट० ४४ । १९ ) ।
सह - ( १ ) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि ० ११६ । २ ) । यह द्रौपदीके स्वयंवर में गया था ( आदि० १८५ । १ ) । इसके द्वारा भीमसेनपर आक्रमण ( कर्ण ० ५१ । ८ ) । (२) एक प्रभावशाली अग्नि, जो समुद्रमें छिप गये थे ( वन० २२२ । ७ ) । देवताओंके खोज करनेपर इनका अथर्वाको अभिके पदपर प्रतिष्ठित करके अन्यत्र गमन ( वन० २२२ । ८-१० ) । इनके द्वारा मछलियों को शाप और अपने शरीरका त्याग ( वन० २२२ । १०– १२ ) । इनके शरीर के अवयवोंसे विविध धातुओं की उत्पत्ति ( वन० २२२ । १४ – १६ ) । समुद्रमें छिपे हुए इनका अभिद्वारा पुनः प्राकट्य ( वन० २२२ । २० ) । सहज - चेदि तथा मत्स्यदेशका एक कुलाङ्गार नरेश ( उद्योग० ७४ । १६ )।
सहजन्या -छः श्रेष्ठ अप्सराओंमेंसे एक (आदि० ७४ । ६८ ) । यह दस विख्यात अप्सराओंमेंसे एक है । इसने अर्जुनके जन्म महोत्सव में पधारकर वहाँ गान किया था ( आदि० १२२ । ६४ ) | यह कुबेरकी सभा में उनकी सेवाके लिये उपस्थित होती है ( सभा० १० । ११ ) । इसने अर्जुनके स्वागतार्थ इन्द्र भवनकी सभामें नृत्य किया था ( वन० ४३ | ३० ) ।
सहदेव - ( १ ) पाण्डुके क्षेत्रज पुत्र, अश्विनीकुमारोंके द्वारा माद्रीके गर्भ से उत्पन्न दो पुत्रोंमेंसे एक । ये दोनों भाई जुड़वें उत्पन्न हुए थे। दोनों ही सुन्दर तथा गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर रहनेवाले थे । ( आदि० १ | ११४, आदि० ६३ | ११७ आदि० ९५ | ६३ ) । अनुपम रूपशाली तथा परम मनोहर नकुल सहदेव अश्विनीकुमारोंके अंश से उत्पन्न हुए थे ( आदि० ६७॥ १११-११२ ) । इनकी उत्पत्ति तथा शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंद्वारा इनका नामकरणसंस्कार ( आदि० १२३ । १७ - २१ ) । वसुदेव के पुरोहित काश्यपद्वारा इनके उपनयन आदि संस्कार तथा राजर्षि शुकद्वारा इनका अस्त्रविद्याका अध्ययन और ढाल-तलवार चलानेकी कला में निपुणता प्राप्त करना ( आदि० १२३ । ३१ के बाद दा० पाठ ) । पाण्डुकी मृत्युके पश्चात् माद्रीका अपने पुत्र ( नकुल-सहदेव ) को कुन्तीके हाथोंमें सौंपकर पति के साथ चितापर आरूढ़ होना ( आदि० १२४ अध्याय ) । शतशृङ्गनिवासी ऋषियोंका सहदेव आदि पाँचों पाण्डवोंको कुन्तीसहित हस्तिनापुर ले जाना और
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सहदेब
उन्हें भीष्म आदिके हाथ में सौंपना। द्रोणाचार्यका पाण्डवोंको नाना प्रकारके दिव्य एवं मानव अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देना ( आदि० १३१ । ९ ) । द्रुपदपर आक्रमण करते समय अर्जुनका माद्रीकुमार नकुल और सहदेवको अपना चक्ररक्षक बनाना ( आदि० १३७ । २७ ) । द्रोणद्वारा सुशिक्षित किये गये सहदेव अपने भाइयोंके अधीन ( अनुकूल ) रहते थे ( आदि० १३८ । १८ ) । धृतराष्ट्रके आदेश से कुन्तीसहित पाण्डवोंकी वारणावत- यात्रा, वहाँ उनका स्वागत और लाक्षागृह में निवास (आदि० अध्याय १४२ से १४५ तक ) । लाक्षागृहका दाह और पाण्डवोका सुरंगके रास्ते निकलना, भीमसेनका नकुल सहदेवको गोद में लेकर चलना ( आदि० १४७ अध्याय ) | पाण्saint व्यासजीका दर्शन और उनका एकचक्रानगरीमें प्रवेश ( आदि० १५५ अध्याय ) | पाण्डवों की पाञ्चाल-यात्रा ( आदि० १६९ अध्याय ) । इनका द्रुपदकी राजधानी में जाकर कुम्हारके यहाँ रहना (आदि० १८४ अध्याय ) । पाँचों पाण्डवोंका द्रौपदीके साथ विवाहका विचार ( आदि० १९० अध्याय ) । पाँचों पाण्डवोंका कुन्तीसहित द्रुपदके घर में जाकर सम्मानित होना ( आदि० १९३ अध्याय ) | द्रौपदीके साथ इनका विधिपूर्वक विवाह ( आदि० १९७ । १३ ) । विदुर के साथ पाण्डवोंका हस्तिनापुरमें आना और आधा राज्य पाकर 'इन्द्रप्रस्थ' नगरका निर्माण करना । पाँचों भाइयोंका द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण ( आदि० २११ अध्याय ) | सहदेवद्वारा द्रौपदीके गर्भ से श्रुतसेन ( श्रुतकर्मा) का जन्म ( आदि० २२० । ८०१ आदि० ९५ । ७५ ) । इनका मद्रराज द्युतिमान्की पुत्री विजयासे विवाह तथा इनके द्वारा उसके गर्भ से सुहोत्रका जन्म ( आदि० ९५ । ८० ) । इनके द्वारा दक्षिण दिशाके नरेशोंपर विजय ( सभा० ३१ अध्याय ) । इनके द्वारा मत्स्यनरेश विराट्की पराजय ( सभा० ३१ ।
) । दन्तवक्त्रकी पराजय ( सभा० ३१ । ३ I माहिष्मती नरेश नीलके साथ इनका घोर युद्ध ( सभा० ३१ । २१ ) । इनके द्वारा अभिकी स्तुति ( सभा० ३१ । ४१ ) | अग्निकी कृपासे इनको राजा नीलद्वारा करकी प्राप्ति (सभा० ३१ । ५९ ) । लङ्कासे कर लानेके लिये इनका घटोत्कचको दूत बनाकर राक्षसराज विभीषण के पास भेजना । घटोत्कचसे विभीषणकी बातचीत | विभीषणका बहुत-से सुवर्ण, मणि, रत्न आदि उपहार देकर दूतको विदा करना । उन भेंट-सामग्रियोंको पहुँचानेके लिये अठासी हजार राक्षस आये थे ( सभा० ३१ । ७२ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ७५९ से ७६४ तक ) । अन्य मन्त्रियों सहित सहदेवको यज्ञका आवश्यक उपकरण
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सहदेव
( ३७४ )
सहदेव
-
एवं खाद्यान्न जुटानेके लिये राजा युधिष्ठिरकी आज्ञा (समा० ३३ । २७-३१)। राजसूययज्ञके समय ये युधिष्ठिरके मन्त्री थे (सभा० ३३ । ४०)। इनके द्वारा राजसूय यज्ञमें श्रीकृष्णकी अग्रपूजा ( सभा० ३६ । ३०)। श्रीकृष्णकी अग्रपूजाके अवसरपर इनकी विरोधी राजाओंको चुनौती (सभा० ३९ । १-५)। राजसूय-यज्ञके बाद ये आचार्य द्रोण और अश्वत्थामाको पहुँचानेके लिये उनके साथ गये थे (सभा० ४५ । ४८)। युधिष्ठिरके द्वारा ये जुएके दाँवपर रखे और हारे गये थे (सभा० ६५ । १५)। इनकी शकुनिको मारनेकी प्रतिज्ञा (सभा० ७७ । २९-४२) । इस दुर्दिनमें कोई मुझे पहचान न ले यही सोचकर सहदेव अपने मुँहमें मिट्टी लपेटकर वनकी ओर गये थे (सभा० ८० । १७)। इनकी अर्जुनके लिये चिन्ता(वन०००।२७-३०)। इनका जटासुरकी पकड़से छूटकर भीमसेनको पुकारना (वन० १५७ । ११)। इनका शिष्योंसहित दुर्वासाको बुलानेके लिये नदीतटपर जाना और खोजना (वन० २६३ । ३७-३८) । द्रौपदीद्वारा जयद्रथसे इनके पराक्रम और ज्ञान आदि सद्गुणोंका वर्णन (धन० २७० । १५-१९)। द्रौपदी-हरणके समय अपने घोड़ोंके मारे जानेपर युधिष्ठिरका सहदेवके रथपर आना तथा धौम्य एवं द्रौपदीको भी सहदेवद्वारा उसी रथपर चढ़वाना (वन० २७१ । १५-३४) । द्वैतवनमें जल लानेके लिये जाना और सरोवरपर गिरना (वन० ३१२।१९)। इनका विराटनगरमें तन्तिपाल नामसे रहनेकी बात बताना (विराट. ३ । ९)। राजा विराटके यहाँ अरिष्टनेमि नामक वैश्यके रूपमें अपना परिचय देकर उनसे अपनेको रखनेके लिये प्रार्थना करना और उनके द्वारा गोशालाध्यक्षके पदपर नियुक्त होना (विराट. १०। ५-१६)। ये ग्वालेका वेष धारण करके पाण्डवोंको दूध, दही, घी दिया करते थे (विराट. १३।९)। द्रौपदीका भीमसेनसे सहदेवकी वर्तमान दुःखमयी परिस्थिति बताकर उनके लिये शोक प्रकट करना (विराट. १९ । ३३-४१)। विराटकी गौओंके अपहरणके समय इनका त्रिगतॊके साथ युद्ध (विराट० ३३ । ३४)। संजयद्वारा धृतराष्ट्रसे इनकी वीरताका वर्णन ( उद्योग० ५० । ३१-३३)। शान्तिदूत बनकर जानेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णसे युद्धकी ही योजना बनानेकी सम्मति देना (उद्योग० ८१। १-४)। इनका विराटको सेनापति बनानेका प्रस्ताव (उद्योग० १५१।१०)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका उत्तर देते हुए पुत्रसहित शकुनिको मार डालनेकी घोषणा करना (उद्योग० १६२।३१-३६)। उलूकसे दुर्योधनके संदेशका
उत्तर देना (उद्योग० १६३।३९-४०)। कवच उतारकर पैदल ही कौरवसेनाकी ओर जाते हुए युधिष्ठिरसे प्रश्न करना (भीष्म० ४३ । १९)। प्रथम दिनके संग्राममें दुर्मुखके साथ द्वन्द्व-युद्ध (भीष्म० ४५ । २५-२७)। विकर्णके साथ युद्ध (भीष्म ७१ । २१)। इनके द्वारा शल्यको पराजय (भीष्म० ८३ । ५३)। कौरवोंकी अश्वसेनाका संहार (भीष्म ८९ । ३२-३४)। इनके द्वारा घुड़सवारोंकी सेनाका संहार एवं पलायन (भीष्म० १०५।१६-२३)। इनका कृपाचार्यके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म०११०१२-१३भीष्म० ११११२८-३३)। धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १०। ३१-३२)। शकुनिके साथ इनका युद्ध (द्रोण. १४ । २२-२५)। इनके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण० २३। ९)। शकुनिके साथ युद्ध (द्रोण०९६ । २१-२५)। दुर्मुखके साथ युद्ध (द्रोण. १०६ । १३)। इनके द्वारा दुर्मुखकी पराजय (द्रोण० १०७।२१-२४)। त्रिगर्तराजकुमार निरमित्रका वध (द्रोण० १०७ । २५-२६)। कर्णके साथ युद्ध में इनकी पराजय (द्रोण० १६७ । १५)। दुःशासनके साथ युद्ध और उसे परास्त करना (द्रोण. १८८।२-९) । इनका धृष्टद्युम्नकी रक्षामें जाना (द्रोण. १८९७)। धृष्टद्युम्नको मारनेके लिये झपटते हुए सात्यकिको अनुनय-विनयसे शान्त करना (द्रोण. १९८ । ५३-५९) । इनके द्वारा पुण्ड्रराजकी पराजय (कर्ण० २२ । १४-१५ )। दुःशासनकी पराजय (कर्ण० २३ अध्याय)। दुर्योधनके साथ युद्धमें इनका घायल होना ( कर्ण० ५६ । ७-१८)। इनके द्वारा उलूकको पराजय (कर्ण०६१ । ४४ ) । कर्णद्वारा इनकी पराजय ( कर्ण० ६३ । ३३)। इनके द्वारा शल्यके पुत्रका वध (शल्य०११। ४३)। शल्यके साथ युद्ध (शल्य० १३ अध्यायः शल्य १५ अध्याय)। इनके द्वारा शकुनिपुत्र उलूकका वध (शल्य. २८ । ३२-३३)। इनके द्वारा शकुनिका वध (शल्य. २८ । ४६-६१)। युधिष्ठिरको ममता और आसक्तिसे रहित होकर राज्य करनेकी सलाह देना (शान्ति० १३ अध्याय) युधिष्ठिरद्वारा इन्हें सभी अवस्थाओंमें अपनी रक्षाका कार्य सौंपना (शान्ति०४१।१५)। युधिष्ठिरद्वारा इनके लिये दिये गये दुर्मुखके महलमें इनका प्रवेश (शान्ति० ४४ । १२-१३)। युधिष्ठिरके पूछनेपर इनका त्रिवर्गमें अर्थकी प्रधानता बताना (शान्ति० १६७ । २२-२७)। इनके द्वारा शकुनिके मारे जानेकी श्रीकृष्णद्वारा चर्चा (आश्व. ६० । २५)। अभिमन्युके बालककी रक्षासे युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेवके भी जीवनकी रक्षा होगी--ऐसा कुन्तीका श्रीकृष्णके प्रति कथन (आश्व.
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सहदेव
सहस्रजित्
६६ । १९)। अश्वमेध-यज्ञके अवसरपर व्यासजी और पुत्र, पाण्डुसुत, तन्तिपाल, यम, यमज, माद्रीसुत आदि । युधिष्ठिरके द्वारा इन्हें कुटुम्ब-पालन-सम्बन्धी समस्त कार्यों- (२) एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभामें विराजते थे की देखभालका काम सौंपा जाना। (आश्व० ७२।२०- ( सभा० ७ । १६ )। (३) एक प्राचीन राजा, २६)। वनको जाती हुई कुन्तीका इन्हें युधिष्ठिरको सौंपना जो यम-सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं और इनपर सदा प्रसन्न रहनेके लिये आदेश देना (सभा० ८।१७)। आचार्य नीलकण्ठके मतानुसार ( आश्रम १६ । १०)। नकुल और सहदेव ये सुप्रसिद्ध राजा सृञ्जयके पुत्र थे | इन्होंने यमुनाके गुरुजनोंकी आज्ञाके पालनमें लगे रहनेवाले थे, इन्हें अमिशिर नामक तीर्थमें एक लाख स्वर्ण-मुद्राओंकी दक्षिणा भूखका कष्ट न उठाना पड़े, इसके लिये कुन्तीने देकर विशाल यज्ञका अनुष्ठान किया था (वन० ९० । युधिष्ठिरको युद्धके निमित्त उत्साह दिलाया था ( आश्रम ५-७)। (४) जरासंधका पुत्र । इसके दो छोटी १७ । ८)। माताके दर्शनके लिये युधिष्ठिरके वन-गमन- बहिनें थीं, जो कंसको ब्याही गयी थीं। उनके नाम विषयक विचारको जानकर इनका हर्ष प्रकट करना और थे—अस्ति और प्राप्ति ( सभा० १४ । ३१)। यह स्वयं भी उनके साथ जानेकी उत्सुकता दिखाना (आश्रम द्रौपदीके स्वयंवरमें आया था (आदि० १८५।८)। २२ । ९-१३) । वनमें माताको दूरसे ही देखकर इनका जरासंधका इसके राज्याभिषेककी आज्ञा देना (सभा० दौड़ना और पास पहुँचकर उनके दोनों चरण पकड़कर २२ । ३.)। पिताके मारे जानेपर इसका भेंट लेकर फूट-फूटकर रोना, नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई कुन्तीका भी भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें जाना । श्रीकृष्णका इसे इन्हें हाथोंसे उठाकर छातीसे लगा लेना और गान्धारीको अभयदान देकर पिताके राज्यपर अभिषिक्त करना इनके आगमनकी सूचना देना (आश्रम०२४।८-१०)। और इसको अपना अभिन्न सुहृद बना लेना । भीम संजयका ऋषियोंसे सहदेव तथा इनकी पत्नीका परिचय देना और अर्जुनद्वारा भी इसका सत्कार होना ( सभा० (आश्रम० २५। ८-१३) । इनका अपने नेत्रोंमें आँसू भर- २४ । ४२-४३ दाक्षिणात्य पाठसहित ) । एक कर युधिष्ठिरके समक्ष वनमें रहनेकी इच्छा प्रकट करना, अक्षौहिणी सेनाके साथ इसका युधिष्ठिरकी सहायताके माताको छोड़कर घर जानेसे अरुचि दिखाना और माता- लिये आना (उद्योग० १९ । ८)। संजयद्वारा इसकी पिताकी सेवा करते हुए तपस्यासे शरीरको सुखा डालनेका वीरताका वर्णन ( उद्योग० ५० । ४८)। युधिष्ठिरकी विचार व्यक्त करना । इनकी बात सुनकर कुन्तीका इन्हें सेनाके सात सेनापतियोंमेंसे एक मगधराज सहदेव भी छातीसे लगा लेना और अपनी बात माननेके लिये कहकर था, जिसका युधिष्ठिरने उक्त पदपर अभिषेक किया था घर जानेकी आज्ञा देना (आश्रम ३६ । ३६-४३)। ( उद्योग० १५७ । ११-१४ )। इसके घोड़ोंका माद्रीकुमार सहदेव भी जोमाता कुन्तीको विशेष प्रिय रहे है, वर्णन (द्रोण. २३ । १८)। द्रोणाचार्यद्वारा इसका उन्हें आगमें जलनेसे बचा न सके-ऐसा कहकर युधिष्ठिरका वध (द्रोण० १२५ । ४५)। विलाप ( आश्रम० ३८ ॥ १८-१९)। युधिष्ठिर, भीमसेन,
महाभारतमें आये हुए सहदेवके नाम-जरासंधसुत, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी-ये छः व्यक्ति एक ही
___ जरासंधात्मज, जारसंधि और मागध । हृदयरखते थे (मौसल० १७ । ३)। इनका युधिष्ठिरके महाप्रस्थानविषयक निश्चयका अनुमोदन ( महाप्र० ।।५)।
सहभोजन-रुडकी प्रमुख संतानोंकी परम्परामें उत्पन्न इनकी भाइयोंके साथ महाप्रस्थान-यात्रा ( महाप्र. एक पक्षी ( उद्योग० १०१ । १२)। ।। २२-२५)। उस यात्रामे ये नकुलके पीछे और सहनचित्य-एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने एक ब्राह्मणके द्रौपदीके आगे चलते थे (महाप्र० ।।३१-३२)। लिये अपने प्राणोंका बलिदान करके स्वर्ग प्राप्त किया था महागिरि मेरुके पास द्रौपदीके पतनके पश्चात् मार्गमें (अनु० १३७ । २०)। ये तेजस्वी नरेश केकयदेशकी सहदेवका भी धराशायी होना और भीमसेनके पूछनेपर प्रजाका पालन करते थे तथा राजर्षि शतयूपके पितामह युधिष्ठिरका इनके पतनका कारण बताना (महाप. थे। ये अपने परम धर्मात्मा ज्येष्ठ पुत्रको राज्यका भार २।२-११)।
सौंपकर वनमें तपस्याके लिये चले गये और अपनी उद्दीप्त महाभारतमें आये हुए सहदेवके नाम-आश्विनेय, तपस्या पूरी करके इन्द्रलोकको प्राप्त हुए । तपस्यासे इनके
अश्विनीसुत, अश्विसुत, भरतशाल, भरतश्रेष्ठ, भरतर्षभ, सारे पाप भस्म हो गये थे (आश्रम० २० । ६-९)। भरतसत्तम, कौरव्य, कुरुनन्दन, माद्रीपुत्र, माद्रवतीसुत, सहस्रजित-एक महायशस्वी राजर्षि, जिन्होंने ब्राह्मणके माद्रेय, माद्रीनन्दन, माद्रीनन्दनक, माद्रीनन्दकर, लिये अपने प्यारे प्राणोंका त्याग करके उत्तम लोक प्राप्त माद्रीतनुज, नकुलानुज, पाण्डव, पाण्डुनन्दन, पाण्डु- किया था (शान्ति. २३४ । ३१)।
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सहस्रज्योति
( ३७६ )
सात्यकि
सहस्रज्योति-सुभ्राटके तीन पुत्रों से एक । इनके दस
लाख पुत्र थे ( आदि० १ । ४६)। सहस्रपाद-एक प्राचीन ऋषि, जो शापवश डुण्डुभ नामक सर्प हो गये थे । इनका रुरुसे अपना परिचय __ देना ( आदि० १० । ७)। इनकी आत्मकथा तथा इनके द्वारा रुरुको अहिंसाका उपदेश ( आदि. ११ अध्याय ) । रुरुद्वारा सर्पसत्रके विषयमें जिज्ञासा करनेपर 'तुम ब्राह्मणोंके मुखसे आस्तीकका चरित्र सुनोगे । ऐसा रुझसे कहकर इनका अन्तर्धान होना (आदि० १२ । ३)। ये युधिष्ठिरका विशेष सम्मान करते थे (वन० २६ । २२)। सहस्रबाहु-स्कन्धका एक सैनिक (शल्य. ४५ । ५९)। सहस्रवाक् (सदःसुवाक् )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक
(आदि. ६७ । १००% आदि. ११६ । ९)। सहा-एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके स्वागतमें इन्द्रभवनमें
नृत्य किया था (वन० ४३ । ३०)। सहोढ-एक प्रकारके पुत्र, जो अबन्धुदायाद कहलाते हैं (आदि. ११९ । ३४) । (जो कन्यावस्थामें ही गर्भवती होकर ब्याही गयी हो, उसके गर्भसे उत्पन्न हुआ
पुत्र सहोद कहलाता है।) सह्य-लवणसमुद्र-तटवर्ती एक पर्वत, जो सीताकी खोजमें गये हुए हनुमान् आदि वानरोंके मार्गमें दिखायी दिया था (वन० २८२ । ४३)। इस पर्वतपर देवराज नहुषने अप्सराओं तथा देवकन्याओंके साथ विहार किया था (उद्योग० ११ । १२-१३) । यह भारतवर्षके सात कुलपर्वतोंमें है (भीष्म० ९ । ११)। सांयमनि-सोमदत्तपुत्र शलका नामान्तर (भीष्म० ६१ ।
११)। सागरक-सागर' जनपदके निवासी क्षात्रिय नरेश, जो युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें भेंट लेकर आये थे ( सभा० ५२ । १८)। सागरोदक-समुद्रका तीर्थस्वरूप जल, जिसमें स्नान करके
मनुष्य विमानपर बैठकर स्वर्गमें जाता है (अनु०२५।९)। साङ्काश्य-एक प्राचीन नरेश, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र
यमकी उपासना करते हैं (सभा० ८।१०)। साङति-( एक राजा, जो यमसभामें रहकर सूर्य-
पुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा० ८।१०)। (२) अत्रिवंशमें उत्पन्न एक ऋषि, जिन्होंने शिष्योंको निर्गुण ब्रह्मका उपदेश देकर उत्तम लोकोंको प्राप्त किया था (शान्ति० २३४ । २२)।ये वानप्रस्थ धर्मका पालन एवं प्रसार करके स्वर्गको प्राप्त हुए (शान्ति० २४४ । १७)। सात्यकि-पृष्णिवंशी शिनिकुमार सत्यकके पुत्र (आदि.
६३ । १०५)। ये वृष्णिकुलभूषण, सत्यप्रतिज्ञ और शत्रुमर्दन वीर थे तथा मरुत् देवताओंके अंशसे उत्पन्न हुए थे (आदि०६७ । ७५ )। ये द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे (आदि. १८५ । १८)। अर्जुन और सुभद्राके लिये दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थमें आये थे (आदि० २२० । ३१)। सात्यकिका मुख्य नाम युयुधान था। ये युधिष्ठिरकी सभामें बैठते थे और इन्होंने वहीं अर्जुनसे धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की थी (सभा० ४ । ३४-३६)। वृष्णिवंशी यादवोंके सात अतिरथी वीरों में इनकी गणना की गयी है (सभा० १४ । ५७-५८)। युधिष्ठिरके अभिषेकके समय इन्होंने उनके ऊपर छत्र लगा रखा था (सभा० ५३ । १३)। प्रभासक्षेत्रमें पाण्डवोंका दुःख देखकर इनके शौर्यपूर्ण उद्गार (वन० १२० । १-२२)। ये उपप्लव्यनगरमें अभिमन्युके विवाहोत्सवमें सम्मिलित हुए थे (विराट० ७२।२१)। बलरामजीके कथनकी आलोचना करते हुए इनके वीरोचित उद्गार (उद्योग० ३ अध्याय)। इनका विशाल चतुरङ्गिणी सेनाके साथ युधिष्ठिरके पास आना (उद्योग० १९ । १)। संजयद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (उद्योग० ५०। ३९)। शान्तिदूत बनकर कौरवोंके यहाँ जानेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णसे इनका युद्धके लिये ही अपनी सम्मति प्रकट करना ( उद्योग. ८१ । ५-७) । श्रीकृष्णका सात्यकिको अपने रथपर अस्त्र-शस्त्र आदि रखनेको कहना तथा इन्हें रथपर बिठाकर साथ ले जाना (उद्योग० ८३। १२-२२)। दुर्योधनके षड्यन्त्रका भंडाफोड़ करना (उद्योग० १३० । १४-१७)। प्रथम दिनके संग्राममें कृतवर्मा के साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म०४५। १२.१३)। कलिङ्गसेनाको परास्त करनेके बाद भीमसेनका अभिनन्दन करना (भीष्म० ५४ । १२१-१२२)। भीष्मके बाणोंसे आच्छादित हुए अर्जुनकी सहायतामें पहुँचना (भीष्म ५९ । ७८)। भूरिश्रवाके साथ इनका युद्ध (भीष्म ६४ । १-२)। भीष्मद्वारा सारथिके मारे जानेपर इनके घोड़ोंका रथ लेकर भागना (भीष्म० ७३ । २८-२९)। भूरिश्रवाके साथ इनका युद्ध और उसके द्वारा इनके दस पुत्रोंका वध (भीष्म० ७४ । १-२७)। इनके द्वारा अलम्बुषकी पराजय (भीष्म० ८२। ४५)। अश्वत्थामाको मूर्छित कर देना ( भीष्म० १०१।४७)। भीष्मके साथ इनका युद्ध (भीष्म० १०४ । २९-३६)। दुर्योधनके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ११० । १४, भीष्म. १११ । १४-१८)। अलम्बुषके साथ युद्ध (भीष्म० १११।१-६)। इनका भगदत्तके साथ युद्ध ( भीष्म १११ । ७-१३)। अश्वत्थामाके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म ११६ । ९-१२)। धृतराष्ट्रद्वारा इनकी वीरताका वर्णन (द्रोण. १.३३-३९)। कृतवर्माके साथ युद्ध (द्रोण.
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खात्यकि
( ३७७ )
सात्यकि
110
१४ । ३५-३६; द्रोण० २५ । ८-९)। क्षेमधूर्ति और की पराजय (द्रोण० १५६ ॥ २९; द्रोण० १५७ । १०. बृहन्तके साथ युद्ध (द्रोण० २५ । ४७-४८)। भगदत्त- ११)। इनके द्वारा सोमदत्तका वध (द्रोण. १६२ । के हाथीद्वारा इनके रथका फेंका जाना (द्रोण० २६ । ४३- ३३ ) । भूरिका वध ( द्रोण. १६६ । १२ )। ४४) । कर्णके साथ युद्ध (द्रोण० ३२ । ६७-७०)। कर्ण और वृषसेनके साथ युद्ध और वृषसेनको परास्त श्रीकृष्ण और अर्जुनके साथ इनकी रणयात्रा (द्रोण. करना ( द्रोण० १७० । ३०-४३) । इनके द्वारा ८४ । २१)। अर्जुनके आदेशसे युधिष्ठिरकी रक्षामें जाना दुर्योधनकी पराजय (द्रोण० १७१ । २३)। श्रीकृष्ण(द्रोण० ८४ । ३५) । दुःशासनके साथ युद्ध (द्रोण. __ से कर्णके अर्जुनपर शक्ति न छोड़नेका कारण पूछना ९६ । १४-१७)। इनके द्वारा द्रोणाचार्यके प्रहारसे (द्रोण. १८२ । ३४) । दुर्योधनके साथ संवाद और धृष्टद्युम्नकी रक्षा (द्रोण० ९७ । ३२)। द्रोणाचार्य के युद्ध (द्रोण. १८९ । २२-४८)। अर्जुनद्वारा इनकी साथ अद्भुत संग्राम और उनके लगातार सौ धनुधोंको शूरवीरताकी प्रशंसा ( द्रोण. १९१ । ४५-५३)। काटना (द्रोण० ९८ अध्याय)। इनका व्याघ्रदत्तके साथ द्रोणाचार्यके बधरूपी धृष्टद्युम्नके कुकृत्यकी इनके द्वारा युद्ध (द्रोण. १०६ । १४)। इनके द्वारा व्याघ्रदत्तका वध निन्दा (द्रोण. १९८ । ८-२४)। धृष्टद्युम्नको मारनेके (द्रोण. १०७ । ३२)। द्रोणाचार्यद्वारा इनका घायल लिये गदा लेकर कूद पड़ना तथा भीमसेन और सहदेवहोना (द्रोण० ११०।२-१३)। युधिष्ठिर के द्वारा अर्जुन- द्वारा इनका ऐसा करनेसे रोका जाना (द्रोण. १९८ । की सहायताके लिये जानेका आदेश मिलनेपर उनको ४६-५९ ) । कौरवपक्षीय छ: महारथियोंको एक साथ उत्तर देना (द्रोण० १११ । ३-३९) । अर्जुनके पास भगाना (द्रोण. २०० । ५३)। अश्वत्थामाके साथ जानेकी तैयारी और प्रस्थान (द्रोण० ११२ । ४-५३)। युद्ध और मूर्छित होना (द्रोण० २०० । ५६-६९)। भीमसेनको युधिष्ठिरकी रक्षाके लिये लौटाना ( द्रोण इनके द्वारा केकयराजकुमार अनुविन्दका वध ( कर्ण. ११२ । ७१-७६) । इनके द्वारा कौरवसेनाका संहार
१३ । ११) । विन्दका वध (कर्ण० १३ । ३५)। (द्रोण० ११३ । ६-२०)। द्रोणाचार्यसे युद्ध करके उन्हें बंगराजका बध (कर्ण० २२ । १३)। कर्गके साथ युद्ध छोड़कर आगे बढ़ना (द्रोण. ११३ । २१-३४)। (कर्ण० ३० अध्याय ) । वृषसेनके साथ युद्ध और कृतवर्मा के साथ युद्ध और उसे घायल करके आगे बढ़ना
उसे परास्त करना ( कर्ण० ४८ । ४० के बादसे दा. (द्रोण. ११३ । ४६-६०)। इनके द्वारा कृतवर्माकी पा० ४५ श्लोकतक ) । शकुनिको पराजित करना पराजय (द्रोण. ११५ । १०-११) । जलसंधका वध (कर्ण० ६१ । ४८-४९ ) । इनके द्वारा कर्णपुत्र (द्रोण. ११५ । ५२-५३ ) । दुर्योधनकी पराजय प्रसेनका वध (कर्ण० ८२।६)। इनका शल्यके साथ (द्रोण. ११६ । २४.२५)। इनके द्वारा कृतवर्माकी युद्ध (शल्य० १३ अध्यायः शल्य. १५ अध्याय)। इनके पराजय (द्रोण० ११६ । ४१)। द्रोणाचार्यकी पराजय द्वारा कृतवर्माकी पराजय (शल्य१७ । ७७-७८)। (द्रोण० ११७ । ३०)। सुदर्शनका वध (द्रोण० ११८ ।। म्लेच्छराज शाल्वका वध (शल्य० २० । २६)। १५)। सारथिके साथ संवाद और कौरवसेनाको खदेड़ना
क्षेमधूतिका वध (शल्य०२१।८)। कृतवर्माकी (द्रोण० ११९ अध्याय)। भाइयोसहित दुर्योधनको पराजय (शल्य०२११२९-३०)। संजयका जीवित पकड़ा परास्त करना (द्रोण० १२० । ४२-४४)। इनके द्वारा जाना (शल्य० २५ । ५७-५८)।इनका संजयको मारनेके म्लेच्छसेनासहित दुःशासनकी पराजय (द्रोण० १२१ । लिये उद्यत होना और व्यासजीकी आज्ञासे उसे छोड २९-४६) । दुःशासनकी पराजय ( द्रोण० १२३। देना (शल्य. २९ । ३८-३९)। श्रीकृष्णकी आज्ञासे ३१-३४)। राजा अलम्बुषका वध (द्रोण. १४०। युधिष्ठिरके पास जाना और उनका संदेश सुनाना १८)। अद्भत पराक्रम प्रकट करते हुए अर्जुनके पास (शान्ति० ५३ । १२-१३)। श्रीकृष्णके साथ हस्तिनाइनका पहुँचना (द्रोण. १४१ । ११)। भूरिश्रवाके पुरसे द्वारकाको प्रस्थान (आश्व० ५२ । ५७-५८)। साथ युद्ध में पराजित होकर उसके द्वारा इनकी चुटिया- श्रीकृष्णके साथ रैवतक पर्वतपर होनेवाले महोत्सवमें का पकड़ा जाना ( द्रोण. १४२ । ५१-६३ )। सम्मिलित होना ( आश्व० ५९ । ३-४ ) । महोत्सवसे इनके द्वारा आमरण अनशन करके बैठे हुए भूरिश्रवाका लौटकर अपने भवनमें जाना (आश्व० ५९ । १७)। वध (द्रोण. १४३। ५४)। इनका कौरवोंको उनके इनके द्वारा अभिमन्युका श्राद्ध (आश्व० ६२।६)। आक्षेपका उत्तर देना (द्रोण. १४३ । ६०-६८)। युधिष्ठिरके अश्वमेधयज्ञमें हस्तिनापुर आना (आश्व०६६ । कर्णके साथ युद्ध में उसे पराजित करना (द्रोण. १४७। ३)। इनके द्वारा सुरापान करके मदमत्त होकर कृतवर्मा६४-६५) । इनका सोमदत्तके साथ युद्ध और सोमदत्त- का सोते हुए बालकोंके वधकी चर्चा करते हुए उपहास
म. ना०४८
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सात्वत
सामुद्रकताथ
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( मौसल० ३ । १६-१८)। प्रद्युम्नद्वारा इनके कथनका स्वयंवर देखनेके लिये ये लोग विमानोंद्वारा द्रुपदनगरके अनुमोदन तथा कृतवर्माद्वारा भूरिश्रवाके वधकी बात आकाशमें स्थित थे (आदि० १८६ । ६)। नैमिषाकहकर इनका तिरस्कार (मौसल. ३। १९-२१)। रण्यक्षेत्रमें देवताओंद्वारा आयोजित यज्ञमें ये सब लोग इनका भगवान् श्रीकृष्णको कृतवर्माद्वारा स्यमन्तकमणिके पधारे थे (आदि० १९६ । ३)। खाण्डवदाहके समय अपहरण और सत्राजित्के वधका स्मरण दिलाना और श्रीकृष्ण और अर्जुनके साथ युद्ध के लिये ये नाना सत्यभामाको रोती देख क्रोधपूर्वक उठकर तलवारसे प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर आये थे (आदि० २२६ । कृतवर्माका सिर काट लेना (मौसल० ३ । २२-२८)। ३८)। साध्यगण इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं इन्हें दूसरे लोगोंका भी वध करते देख श्रीकृष्णका इन्हें (सभा० ७।२२)। ये ब्रह्माजीकी सभामें भी उनकी रोकने के लिये दौड़ना, भोजों और अन्धकोंका एक मत आराधनाके लिये उपस्थित होते हैं (सभा० १११४४)। होकर इन्हें चारों ओरसे घेरकर जूठे बर्तनोंसे मारना । स्कन्द और तारकासुरके युद्ध के समय इन्होंने भी दानवोंके इन्हें बचानेके लिये प्रद्युम्नका बीचमें कूद पड़ना । प्रद्युम्न- साथ युद्ध किया था (वन० २३१ । ७३) । दत्तात्रेयजीसहित सात्यकिका भोजों और अन्धकोंके साथ जूझना से उनकी उदार वाणी सुननेके लिये इनकी प्रार्थना और श्रीकृष्णके देखते-देखते बहुसंख्यक विपक्षियोंद्वारा (उद्योग०३६ । ३)। कर्ण और अर्जुनके युद्ध में मारा जाना (मौसल. ३ । २९-३३)। अर्जुनने इनके इन्होंने अर्जुनकी ही विजयका समर्थन किया था (कर्ण. प्रिय पुत्र यौयुधानिको सरस्वतीके तटवर्ती देशका अधिकारी ८७ । ४६)। स्कन्दके जन्मकालमें ये लोग उन्हें एवं निवासी बनाया तथा वृद्धों और बालकोंको उसके देखने के लिये आये थे (शल्य.४४ । २९)। स्कन्दके साथ कर दिया ( मौसल० ७ । ७१) । स्वर्गमें पहुँचकर अभिषेकके समय भी इनकी उपस्थिति थी (शल्य.
इनका मरुद्गणोंमें प्रवेश (स्वर्गा० ४।१७-१८)। ४५। ६)। इन्होंने स्कन्दको सेनापति अर्पित किये थे महाभारतमें आये हुए सात्यकिके नाम-आनर्त, शैनेय,
(शल्य० ४५। ५३)। ये लोग राजा मरुत्तके यशमें
रसोई परोसनेका काम करते थे (शान्ति० २९ । शैनेयनन्दन, शौरि, शिनिपौत्र, शिनिपुत्र, शिनिसुत, शिनिनप्ता, शिनिप्रवर, शिनिप्रवीर, शिनिपुङ्गव, शिनिवीर,
२२)। साध्यगण धर्मके पुत्र कहे गये हैं (शान्ति. शिनिवृषभ, दाशार्ह, माधव, माधवाग्र्य, माधवसिंह,
२०७ । २३)। हंसरूपधारी ब्रह्मासे मोक्षविषयक इनका
प्रश्न करना (शान्ति. २९९ अध्याय)। ये लोग माधबोत्तम, मधूदह, सात्वत, सात्वतश्रेष्ठ, सात्वताग्य,
मुञ्जवान् पर्वतपर भगवान् शिवकी आराधना करते हैं सात्वतमुख्यः सात्वतप्रवर, सात्वतर्षभ, सात्यक, वार्ष्णेय, वृष्णि, वृष्णिशार्दूल, वृष्णिकुलोद्वह, वृष्णिप्रवीर, वृष्णि
(आश्व० ८ 1 1-४)। पुङ्गव, वृष्णिसिंह, वृष्णिवर, वृष्णिवीर, वृष्ण्यन्धकप्रवीर, सान्दीपनि-भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके विद्यागुरु, वृष्ण्यन्धकव्याघ्र, यादव, यदूद्वह, यदूत्तम, यदुवीर, जिनके यहाँ वे दोनों भाई अध्ययन के लिये गये थे। यदुव्याघ्र और युयुधान आदि।
इन्होंने उन्हें छहों अङ्गोसहित सम्पूर्ण वेद, चित्रकला, सात्वत-(१) यदुकुलमें उत्पन्न एक श्रेष्ठ महापुरुष, गणित, गान्धर्ववेद तथा वैद्यक भी पढ़ाये थे । गजशिक्षा जिनके वंशमें उत्पन्न मनुष्य सात्वत कहे गये हैं।। तथा अश्वशिक्षाका भी ज्ञान कराया था। ये धनुर्वेदके सात्यकि भी सात्वतकुलके ही एक रत्न थे (सभा० २।
श्रेष्ठ आचार्य थे। इन्होंने श्रीकृष्ण-बलरामको दस अङ्गो. ३०)। (२) भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम सहित सुप्रतिष्ठित एवं रहस्यसहित सम्पूर्ण धनुर्वेदका तथा इसकी निरुक्ति (शान्ति० ३४२ । ७७-७८)।
ज्ञान प्राप्त कराया । इसके बाद सान्दीपनिजीने गुरु
दक्षिणाके रूपमें इन दोनों भाइयोंसे अपने मरे हुए साद्यस्क-एक प्रकारका राजर्षि-यज्ञ, जो एक ही दिनमें समात होनेवाला होता है (वन० २४० । १६)।
पुत्रको माँगा और उसे जीवित करके ला देनेकी आज्ञा
दी । तब उन दोनों भाइयोंने गुरुदक्षिणाके रूपमें इन्हें साध्य-एक गणदेवता, विराट-अण्डसे इनके प्रकट होनेका
बहुत-सा धन ऐश्वर्य देकर इनके मरे हुए पुत्रको भी कथन (आदि० १ । ३५) । अमृतके लिये
जीवित करके दे दिया (सभा०३८ । २९ के बाद गड और देवताओंमें युद्ध होते समय ये लोग पक्षि
दा० पाठ, पृष्ठ ८०२)। राजसे पराजित हो भाग गये थे ( आदि० ३२ । १६)। विश्वामित्रके प्रभावसे इनके भयभीत रहने की चर्चा सामुद्रकतीर्थ-एक पवित्र तीर्थ, जो अरुन्धतीवटके समीप ( आदि०७१ । ३९) । अर्जुनके जन्म-समयमें साध्यगण है । इसमें स्नान करके ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त वहाँ पधारे थे (आदि. १२२ । ७.)। द्रौपदीका हो तीन रात उपवास करनेसे अश्वमेधयश तथा सहस्त्र
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सामुद्रनिष्कुट
( ३७९ )
सार्वभौम
गोदानका फल मिलता है और मनुष्य अपने कुलका थे (सभा० ४ । ३०)। ये राजसूययज्ञमें सम्मिलित उद्धार कर देता है (वन० ८४ । ४१-४२)। हुए थे (सभा० ३४ । १५)। युधिष्ठिरके अश्वमेधसामुद्रनिष्कुट-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९।
यज्ञमें भी श्रीकृष्णके साथ आये थे (आश्व० ६६ । ४)। साम्बको स्त्री बनाकर ऋषियोंके सम्मुख ले जानेवाले यदु
कुमारोंमें ये प्रधान थे (मौसल० १ । १५)। (२) साम्ब-(१) भगवान् श्रीकृष्णद्वारा जाम्बवतीके गर्भसे
रावणका मन्त्री, जो वानररूपमें श्रीरामकी सेनामें घुस आनेउत्पन्न एक यादव वीर । ये द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे
पर विभीषणद्वारा बन्दी बना लिया गया था । श्रीरामद्वारा थे (आदि० १८५ । १७)। अर्जुन और सुभद्राके लिये
इसका छुटकारा (वन० २८३ । ५२-५३)। दहेज लेकर आये थे (आदि० २२० । ३१)। इन्होंने अर्जुनसे धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की थी और ये यधिधिरकी सारमेय-कश्यपपत्नी सरमाका पुत्र सारमेय (कुत्ता) सभामें विराजते थे (सभा० ४ । ३४-३५)। द्वारकाके (आदि० ३।१ )। जनमेजयके भाइयोंके पीटनेपर सात अतिरथी वीरोंमें एक ये भी थे (सभा०१४ ।
माताके आगे इसका रोना (आदि०३।४)। ५७)। युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें भी उपस्थित थे (सभा० सारस-गरुडकी प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग० १०१ । ३५ । १६) । इनका शाल्वके सेनापति एवं मन्त्री क्षेम- ११)। वृद्धिके साथ युद्ध और इनके द्वारा उसकी पराजय
सारस्वत-(१) एक प्राचीन ऋषि, जो अलम्बुषा अप्सरा(वन. १६ । ९-१६)। वेगवान् नामक दैत्यके साथ
को देखकर स्खलित हुए दधीचके वीर्य और सरस्वती युद्ध और इनके द्वारा उसका वध (वन० १६।१७
नदीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे (शल्य. ५१ । ७२०)। प्रभासक्षेत्रमें इकट्ठे हुए वृष्णिवंशियों तथा
")। इनका स्थान सारस्वततीर्थके नामसे प्रसिद्ध पाण्डवोंके बीच सात्यकिद्वारा बलरामके प्रति इनके
हुआ। कहीं-कहीं इनके स्थानका 'तुङ्गकारण्य' नामसे पराक्रमका वर्णन ( बन० १३. । १३-१५)। ये
उल्लेख मिलता है (वन० ८५। ४६)। बारह वर्षके उपप्लव्यनगरमें अभिमन्युके विवाहोत्सवमें आये थे
अवर्षणके बाद इन्होंने ऋषियोंको शिष्य बनाकर वेद (विराट०७२ । २२)। इनका युधिष्ठिरके अश्वमेधयश
पढ़ाया था (शल्य. ५१।३)। (२) एक महर्षि, के अवसरपर श्रीकृष्णके साथ हस्तिनापुरमें आगमन
जो अत्रिके पुत्र हैं और पश्चिम दिशामें निवास करते हैं (आश्व० ६६ । ३)। सारण आदि वीरोंका साम्बको स्त्रीवेषमें विभूषित करके ऋषियोंके पास ले जाना और
(शान्ति० २०८ । ३.)। उनसे पूछना कि यह बभ्रकी पत्नी है, आपलोग बताइये सारिक-युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होनेवाले एक ऋषि कि इसके गर्भसे क्या उत्पन्न होगा ? (मौसल.। (सभा० ४।१३)। १६-१७)। ऋषियोंने कहा-भगवान् श्रीकृष्णका यह सारिमेजय-एक राजा, जो द्रौपदी-स्वयंवरमें पधारे थे पुत्र साम्ब एक भयंकर लोहेका मूसल उत्पन्न करेगा, जो (आदि. १८५ । १९)। वृष्णि और अन्धकवंशके विनाशका कारण होगा (मौसल० । । १९)। दूसरे दिन सबेरा होते ही इनके
सारिसक-एक शाङ्गिक, जो पक्षिरूपधारी मन्दपाल ऋषिके
द्वारा जरिताके गर्भसे उत्पन्न हुआ था (आदि. २२८ । पेटसे मूसलकी उत्पत्ति (मौसल० १।२५)। मौसल-युद्ध
१७)। अपने बड़े भाई जारितारिसे अपनी रक्षाके लिये में इनका मारा जाना (मौसल० ३ । ४४)। मृत्युके पश्चात् ये विश्वेदेवोंमें प्रविष्ट हो गये (स्वर्गा०५।१६
कहना ( आदि० २३१ । ३)। इसके द्वारा अग्निकी
स्तुति (आदि० २३१ । ९-११)। अग्निदेवकी कृपासे १८)। (२) एक सदाचारी तथा अर्थशानमें निपुण
खाण्डवबनमें अग्निदाहसे इसकी रक्षा (आदि० २३१ । ब्राह्मण, जिन्होंने धृतराष्ट्रके वनगमनके लिये आशा माँगने
२१)। पर प्रजाकी ओरसे उन्हें सान्त्वनापूर्ण उत्तर दिया था (आश्रम०१०।१३-५.)।
सार्थ-व्यापारियोंका एक दल (वन० ६४।१११)।
जंगली हाथियोंद्वारा इसका विनाश (वन. ६५ । सारण-(१) एक यदुवंशी क्षत्रिय, जो वसुदेवके द्वारा देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण और । सुभद्राके भ्राता थे (आदि० २१८ । १७)। ये सार्वभौम-(१) सोमवंशी राजा अहंयातिके द्वारा कृतवीर्यअर्जुन और सुभद्राके लिये दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थ आये थे कुमारी भानुमतीके गर्भसे उत्पन्न ( आदि० ९५। १५)। (आदि० २२० । ३२)। युधिष्ठिरकी सभामें विराजते इनकी भार्याका नाम सुनन्दा था, जो केकयदेशकी कन्या
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सालकटकटी
थी। उसके गर्भ से जयत्सेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ( आदि० ९५ । १६) । ( २ ) दिग्गजकुल में उत्पन्न एक हाथी ( द्रोण० १२१ । २६ ) । सालकटकटी-राक्षसी हिडिम्बाका नामान्तर ( आदि० १५४ । १० के बाद दा० पाठ ) | ( विशेष देखिये हिडिम्बा )
( ३८० )
सालङ्कायन - विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५२ ) । सावर्ण - ( १ ) एक महर्षि, जो राजा युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १५ ) । ( २ ) एक भावी मनु, जिनके मन्वन्तरकालमें पराशरपुत्र व्यासजी सप्तर्षिके पदपर प्रतिष्ठित होंगे (अनु० १८ । ४२-४३ ) । सावर्णि - ( १ ) एक ऋषि जो इन्द्रसभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । १० - १२ ) । सत्ययुगमें इन्होंने छः हजार वर्षो तक तपस्या की थी, तब भगवान् शंकरने प्रत्यक्ष दर्शन देकर इन्हें विख्यात ग्रन्थकार और अजर-अमर होनेका वर दिया ( अनु० १४ । १०३-१०४ ) । (२) एक भावी मनु, जिनके द्वारा बाँधी गयी मर्यादाका भगवान् सूर्य उल्लङ्घन नहीं करते हैं (उद्योग० १०९ । ११) ।
सावित्र - (१) ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक ( शान्ति० २०८ । २०) । ( २ ) सुमेरुपर्वतका एक शिखर, जिसका दूसरा नाम ज्योतिष्क था। यह सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित, अप्रमेय, समस्त लोकोंके लिये अगम्य और तीनों लोकोंद्वारा पूजित था । यहाँ पहले भगवान् शंकर और देवी उमा विराजमान होती थीं, बहुत-से देवता और ऋषि उनकी उपासना करते थे । गङ्गाजी दिव्यरूप धारण करके यहाँ महादेवजी की आराधना करती थीं ( शान्ति० २८३ । ५- १८ ) । ( ३ ) आठ वसुओं में से एक (अनु० १५० १६-१७ ) ।
सावित्री - (१) सूर्यदेवता की पुत्री एवं ब्रह्माजीकी पत्नी । ये तपतीकी बड़ी बहिन हैं ( आदि० १७० । ७ )। ब्रह्माजीकी सभा में विराजमान होती हैं ( सभा० ११ । ३४) । ये गायत्री मन्त्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्होंने अग्निहोत्रसे प्रकट होकर अपने आराधक राजा अश्वपतिको प्रत्यक्ष दर्शन एवं वर दिया था ( वन० २९३ । ८- १८ ) । त्रिपुरदाह के लिये यात्रा करते हुए भगवान् शंकरने इन्हें अपने रथ के घोड़ोंकी बागडोर बनाया था ( द्रोण० २०२ । ७५ ) । उनके संवत्सरमय धनुषकी प्रत्यञ्चा भी ये ही बनी थीं ( कर्ण० ३४ | ३६ ) । एक जापक ब्राह्मणद्वारा किये गये गायत्री जपसे संतुष्ट होकर इन्होंने उसे प्रत्यक्ष दर्शन एवं इच्छानुसार वर दिया ( शान्ति० १९९ ।
सिंहकेतु
५ - १६ ) | विदर्भनिवासी धर्मात्मा तपस्वी सत्यनामक ब्राह्मण यज्ञमें इनका पदार्पण और पुनः यज्ञाग्निमें प्रवेश ( शान्ति० २७२ । ११-१२ ) । इनके द्वारा अन्नदानकी महिमाका कथन ( अनु० ६७ । ८-९ ) । ( २ ) उमादेवीकी अनुगामिनी एक सहचरी ( वन० २३१ । ४९) । ( ३ ) मद्रनरेश अश्वपतिकी कन्या, जो सावित्री देवीके दिये हुए वरदान के अनुसार उन्हें प्राप्त हुई थी ( वन० २९३ | २३-२४ ) । इसके अद्भुत रूप-सौन्दर्य और तेज आदिका वर्णन ( वन० २९३ । २५ - २७ )। इसका पिताकी आज्ञा से स्वयं ही अपना पति चुननेके लिये प्रस्थान ( वन० २९३ । ३२ -- ३८ ) । इसका पिताके घर लौटना और उनके पूछनेपर शाल्वनरेश के वनवासी पुत्र सत्यवान्को पतिरूपमें वरण करनेकी बात बताना । नारदजीद्वारा उसके अल्पायु होनेकी बात सुनकर भी इसका सत्यवान् के साथ ही विवाह करनेका दृढ निश्चय
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वन० २९४ । २-२७ ) । सावित्रीका सत्यवान् के साथ विवाह तथा इसका अपनी सेवाओंद्वारा सबको संतुष्ट करना ( वन० २९५ अध्याय ) । सावित्रीकी व्रतचर्या तथा सत्यवान् के साथ इसका वनमें जाना ( वन० २९६ अध्याय ) | यमराज के साथ इसका वार्तालाप और उनसे इसको वर एवं मरे हुए पतिको पुनर्जीवन की प्राप्ति ( वन० २९७ | ११–६० ) । सत्यवान् के साथ इसका वार्तालाप ( वन० २९७ । ६५ – १०२ ) । पतिको साथ लेकर इसका आश्रम की ओर प्रस्थान वन० २९७ । १०७ ) आश्रम में पहुँचकर इसका ऋषियोंके समक्ष वनका सारा वृत्तान्त बतलाना ( वन० २९८ । ३७ - ४२ ) । इसके श्वशुरको राज्यकी प्राप्ति तथा पतिका युवराजपदपर अभिषेक | इसको सौ पुत्रों तथा सौ भाइयोंकी प्राप्ति ( वन० २९९ अध्याय ) । इसके पातिव्रत्यकी प्रशंसा ( विराट० २१ । १५) । ( ४ ) एक धर्मपरायणा राजपत्नी, जिसने दो दिव्य कुण्डलोंका दान करके उत्तम लोक प्राप्त किया था (शान्ति० २३४ । २४ ) | ( सम्भव है यह सत्यवान् की पत्नी रही हो । )
साश्व - एक प्राचीन नरेश, जो यम सभा में रहकर सूर्यपुत्र
यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८ । १७ ) । साहस्रक - कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक लोकविख्यात तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है और वहाँ किये हुए दान तथा उपवासका महत्त्व अन्यत्र से सहस्रगुना अधिक होता है ( वन० ८३ । १५८-१५९)।
सिंहकेतु - पाण्डवपक्षका एक योद्धा, जो कर्णद्वारा मारा गया ( कर्ण ० ५६ । ४९ ) ।
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सिंहचन्द्र
( ३८१ )
सिन्धु
सिंहचन्द्र-युधिष्ठिरका सम्बन्धी और सहायक राजा (द्रोण शापसे यदि पागलपन आदि दोष प्राप्त हों तो उन्हें सिद्ध१५८ । ४.)।
रूपी ग्रहकी बाधा' समझना चाहिये (वन० २३० । सिंहपुर-उत्तरभारतका एक प्राचीन पर्वतीय नगर, जो ४९)।
राजा चित्रायुधक द्वारा सुराक्षत एव सुरम्य था। इस सिद्धपात्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५। ६६)। अर्जुनने उत्तरदिग्विज के समय जीतकर अपने अधिकारमें
सिद्धार्थ-(१) एक राजा, जो क्रोधवश' संज्ञक दैत्यके कर लिया था ( सभा० २७ । २०)। सिंहल-एक देश और जाति । नन्दिनीके पार्श्वभागसे
___ अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६०)। (२)
स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ६४)। सिंहलनामक म्लेच्छ जातियोंकी सृष्टि हुई थी (आदि.
सिद्धि-(१) एक देवी, जो कुन्तीके रूपमें इस भूतलपर १७४ । ३७) । सिंहलदेशके नरेश युधिष्ठिरके राजसूय
प्रकट हुई थीं (आदि०६७ । १६०)। ये दैत्योंके यज्ञमें पधारे थे (सभा० ३४ । १२)। इस देशके
साथ युद्ध के लिये जाते हुए स्कन्दके सैनिकोंके आगे-आगे चलती क्षत्रियोंने राजा युधिष्ठिरको समुद्रका सारभूत वैदूर्य, मोतियों के ढेर तथा हाथियों के सैकड़ों झूल अर्पित किये। सिंहल
थी (शल्य०४६ । ६४)। (२) वीर नामक अग्निक
पुत्र, इनकी माताका नाम सरयू था। इन्होंने अपनी प्रभासे देशीय वीर मणियुक्त वस्त्र पहने हुए थे । इनके शरीरका
सूर्यको भी आच्छादित कर लिया । सूर्य के आच्छादित हो रंग काला और आँखोंके कोने लाल दिखायी देते थे
जानेपर इन्होंने अग्निदेवतासम्बन्धी यज्ञका अनुष्ठान किया (सभा० ५२ । ३५-३६) । सिंहलदेशके सैनिक
था। आह्वान-मन्त्रमें इन्हींकी स्तुति की जाती है (वन. द्रोणद्वारा निर्मित गरुडव्यूह के भीतर उसके ग्रीवाभागमें
२१८ । ११)। खड़े थे (द्रोण.२०।६)। सिंहसेन-(१) एक पाञ्चालदेशीय पाण्डवपक्षका योद्धा,
सिनीवाक्-एक महर्षि, जो राजा युधिष्ठिरकी सभामें विराजते
थे ( सभा० ४ । १४)। इसका द्रोणाचार्यके साथ युद्ध और उनके द्वारा मारा जाना (द्रोण. १६ । ३२-३७)।(२) एक पाण्डव
सिनीवाली-महर्षि अङ्गिराकी तृतीय पुत्री ( चतुर्दशीयुक्ता पक्षीय पाञ्चाल योद्धा । इसके रथके घोड़ोंका वर्गन
अमावस्या), इनका दूसरा नाम है-दृश्यादृश्या'; (द्रोण.२३ । ५०)। इसका कर्ण के साथ युद्ध और
क्योंकि ये अत्यन्त कृश होनेके कारण कभी दिखायी देती
हैं, कभी नहीं। भगवान् रुद्र इन्हें अपने ललाटपर धारण उसके द्वारा घायल होना ( कर्ण० ५६ । ४४-४८)।
करते हैं। अतः इनको रुद्रसुता भी कहते हैं (वन. सिंहिका-दक्ष प्रजापतिकी पुत्री और कश्यप ऋषिकी पत्नी
२१८ । ५) । त्रिपुरदाइके समय भगवान् शंकरने इन्हें (आदि० ६५ । १२)। इसके गर्भसे चार पुत्र उत्पन्न
अपने रथके घोड़ोंके लिये जोता बनाया था (कर्ण० ३४ । हुए थे, जिनके नाम हैं-राहु, चन्द्र, चन्द्रहर्ता और
३२-३३)। ये स्कन्दके जन्म-समयमें उन्हें देखने के चन्द्रप्रमर्दन ( आदि० ६५ । ३१)।
लिये आयी थीं (शल्य.४५। १३)। सिकत-एक प्राचीन महर्षि, जिन्होंने द्रोणाचार्यके पास
सिन्धु-(१) एक महानद, जिसके तटवर्ती निकुञ्जमें जाकर उनसे युद्ध बंद करनेको कहा था (द्रोण.
शत्रुओंसे पराजित राजा संवरणने आश्रय लिया था १९० । ३५-४०)। इन्हें स्वाध्यायद्वारा स्वर्गकी प्राप्ति
(आदि० ९४ । ४०)। (यह पंजाबके पश्चिम भागमें हुई थी (शान्ति. २६ । ७)।
है।) यह वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करता सिकताक्ष-एक तीर्थ, जिसका दर्शन युधिष्ठिरने किया था
है (सभा० ९ । १९)। इसे मार्कण्डेयजीने भगवान् (वन० १२५ । १२)।
बालमुकुन्दके उदरमें देखा था (वन०१८८ । १०३)। सित-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५। ६९)।
यह अग्निकी उत्पत्तिका स्थान है ( वन० २२२ । २२)। सिद्ध-(१) एक देवगन्धर्व, जो कश्यपके द्वारा प्राधा'से गङ्गाकी सात धाराओंमेंसे एक है ( भीष्म०६ । ४८)।
उत्पन्न हुआ था (आदि. ६५ । ४६)।(२) एक इस पवित्र नदका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म०९। प्रकारके देवगण, जो हिमालय पर्वतपर कण्वके आश्रमके २१)। इस महानदमें स्नान करके शीलवान् पुरुष निकटवर्ती तपोवनमें विचरते थे (आदि०७०।१५)। मृत्युके पश्चात् स्वर्गमें जाता है ( अनु० २५८)। ये यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं स्त्रीधर्मका वर्णन करते समय अन्य नदियोंके साथ इसका (सभा०८ । २९)। (३) एक भारतीय जनपद भी शिव-पार्वतीके समीप आगमन हुआ था (अनु० १४६ । (भीष्म०९। ५७)।
१८)। यह सायं-प्रातः स्मरणीय नद है (अनु. १६५ । सिद्धग्रह-सिद्धरूपी ग्रह, तिरस्कृत किये हुए सिद्ध पुरुषोंके १९)। (२) एक जनपद, जिसका स्वामी जयद्रथ
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सिन्धुद्वीप
( ३८२ )
सुकन्या
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था, यह द्रौपदीके स्वयंवरमें आया था (भादि. १८५। रावणद्वारा अपहरण (वन० २७८ । ४३)। अशोक२१)। एक बार सिन्धुदेशका राजा जयद्रथ शाल्व वाटिकामें त्रिजटाद्वारा इन्हें आश्वासन (वन० २८० । देशमें विवाहकी इच्छासे जाते समय काम्यक वनमें ५५-७२)। इनका रावणके साथ संवाद (वन० २८१ पाण्डवोंके आश्रमके पास जा पहुँचा था (वन०२६४ । अध्याय) । इनका हनुमान्जीको पहिचानके लिये ६-७ वन० २६७ । १७-१९)। १७-१९)।
चूड़ामणि देना (वन० २८२ । ६८-६९)। रावणसिन्धुद्वीप-एक प्राचीन राजर्षि, जिन्होंने पृथूदक तीर्थमें वधके पश्चात् अविन्ध्य और विभीषणने सीताजीको श्रीरामके तपस्या करके ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था (शल्य. ३९ ।
पास ले आकर समर्पित किया। श्रीरामने इनके चरित्र३७)। ये राजा जह्नके पुत्र थे, इनके पुत्रका नाम
पर संदेह करके इन्हें त्याग दिया। सीताको इससे बड़ी वलाकाश्व था (अनु० ४।४)।
व्यथा हुई। इन्होंने अपनी शुद्धिके लिये शपथ खायी
और देवताओंद्वारा भी इनकी शुद्धिका समर्थन किया सिन्धुपुलिंद एक भारतीय जनपद (भीष्म० १ । ४०)।
गया है। इससे श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नतापूर्वक साताजीसे सिन्धुप्रभव-एक तीर्थ, जो सिन्धुनदका उद्गमस्थान है।
मिले। सीताको आगे करके पुष्पक विमानपर आरूढ़ यह सिद्धों और गन्धर्वोद्वारा सेवित है। यहाँ जाकर
हो ऊपर-ही ऊपर समुद्र के पार गये। सीताको वनकी पाँच रात उपवास करनेसे प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती
शोभा दिखाते और किष्किन्धा होते हुए अयोध्यापुरीमें है (वन०८४ । १६)।
गये। इनका दर्शन करके भरत-शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष प्राप्त सिन्धुसौवीर-पश्चिमोत्तर भारतका एक जनपद ( भीष्म.
हुआ (वन. २९ । ३९-६५)। इनके पातिव्रत्यकी ९।५३)। सिन्धुसौवीरदेशके लोग धर्मको नहीं जानते
प्रशंसा (विराट. २१।१२-१३) । (२) एक हैं (क...। १२-१३)।
नदी, जिसे मार्कण्डेयजीने भगवान् बालमुकुन्दके सिन्धूतम-वसुधारामें एक प्रसिद्ध तीर्थ, जो तब पापोंका उदरमें देखा था (वन. १८८।१.२)। यह गङ्गानाश करनेवाला है। इसमें स्नान करनेसे प्रचुर सुवर्णराशि
की सात धाराओंमेंसे एक है (भीष्म० ६ । ४७-४८)। की प्राप्ति होती है (वन.४३।.)।
इसमें प्रायः नाव भी डूब जाती है (शान्ति• ८२ । ४५)। सीतवन-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक वन, जहाँ
सुकक्ष-द्वारकाके पश्चिम भागमें विद्यमान एक रजतमय महान् तीर्थ है । एक बार यहाँ जाने या उसका दर्शन
पर्वत (सभा० ३८॥ २९ के बाद दा. पाठ पृष्ठ, ८१३, करनेमात्रसे ही यह तीर्थ पवित्र कर देता है। वहाँ
कालम)। केशोंको धो लेनेमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है (घन. ८३ । ५९-६.)।
सुकन्दक-एक भारतीय जनाद ( भीम. ९।५३)। सीता-(१) महाराज जनककी पुत्री। राजा जनकके यहाँ सुकन्या-(१) राजा शर्यातिकी सुन्दरी पुत्री (धन. धनुषयज्ञमें शिवजीके धनुषको तोड़नेपर श्रीरामजीके साथ १२२।६)। इसका वनमें एकान्तभ्रमण । च्यवनको श्रीसीताका ग्विाह हुआ। इनको साथ लेकर श्रीराम इसके दर्शनसे प्रसन्नता। इसके द्वारा बाँचीके देरमें छिपे अयोध्यापुरीमें गये और वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगे। हुए मुनिवर च्यवनकी आँखोंका फोड़ा जाना (वन. श्रीरामके वनवासके समय परम रूपवती धर्मपत्नी सीता १२२॥६-१४)। मुनिके कोपसे सेना और पिताको भी उनके साथ गयी थी। अवतारके पूर्व विष्णुरूपमें पीड़ित देख इसका अपनेद्वारा दो चमकीली वस्तुओंके रहते समय उनके साथ जो लक्ष्मी रहा करती हैं, वे ही बेधे जानेकी बात बताना (वन० १२२ । २०.२१)। अवतारकालमें सीताके रूपमें अवतीर्ण हो पतिदेवका मुनिके माँगनेपर पिताद्वारा इसका उन्हें समर्पण (वन. भनुसरण करती थीं। रावणद्वारा इनका हरण होनेपर १२२ । २४-२६)। इसके द्वारा पतिकी परिचर्या एवं भीरामने रावणको मारकर इन्हें प्राप्त किया और इनके आराधना (वन० १२२ । २८.२९ )। मोहित साथ अयोध्यामें आकर धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने अश्विनीकुमारोंकी बातोंका इसके द्वारा विरोध (बन. लगे ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७९४- १२३ । २-१४)। इसका पतिसे सलाह लेकर अश्विनी७९५)। ( वनपवमें पनः इनकी कथा आयी है यथा-) कमारोंसे उन्हें रूपयौवनसम्पन्न बनानेकी प्रार्थना करना जनकनन्दिनी सीताका रामके साथ वनगमन (वन. (वन० १२३।१४-१६)। इसका अश्विनीकुमारों के २७७ । २९)। इनका श्रीरामको कपटमृग वधके लिये बीच अपने पतिको पहचानकर इन्हें ही स्वीकार करना कहना (वन० २७८ । १८)। इनका लक्ष्मणके प्रति (वन० १२३ । २१)। हमके पातिव्रत्यकी प्रशंसा संदेहपूर्ण कोर पवन (म. २४८ ॥१७-२९)। (विराट० २।।.)। (२) मालरिचाकी पनी
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सुकर्मा
( ३८३ )
सुचार
--
जिसके गर्भसे मङ्कणक मुनिका जन्म हुआ था (शल्य० (२) अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्रके ३८ । ५९)।
स्वागत-समारोहमें कुबेर-भवन में नृत्य किया था (मनु. सुकर्मा-विधाताद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक, १९ । ४५)। दूसरेका नाम सुवत था (शल्य० ४५ । ४२ )।
सुक्रतु-एक प्राचीन नरेश, जिनके नामका उल्लेख संजयने सुकुट-एक भारतीय जनपद तथा वहाँके निवासी (सभा०
प्राचीन राजाओंकी गणनामें किया है (आदि०१ । २३५)। १४ । १६)।
सुक्षत्र-पाण्डवपक्षके एक योद्धा, जो कोसलनरेशके पुत्र थे । सुकुण्डल-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक (आदि०
___ इनके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण० २३ । ५७)। ६७। ९८)।
सुखदा-स्कन्द की अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६।२८)। कुमार-१) तक्षककुलमें उत्पन्न एक नागः जो सर्पसत्रमें सुगणा-स्कन्दका अनुचरी एकमातृका (शल्य०४ दग्ध हो गया था (आदि०५७।१)। (२) पलिन्दोंके सुगन्धा-(१) एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्ममहान् नगर (या राजधानी) के शासक एक राजकुमार महोत्सवमें नृत्य किया था (आदि. १२२ । ६३)। या नरेश, जो सम्भवतः राजा सुमित्रके पुत्र थे। सकमार (२) एक तीर्थ, जहाँ जाकर मानव स्वर्गलोकमें
और सुमित्र दोनोंको भीमसेनने पर्व-दिग्विजयके समय प्रतिष्ठित होता है और सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें जीत लिया था (सभा० २९ । १०)। द्रौपदीस्वयंवरमें पूजित होता है ( वन० ८४ । १० ८४ । ३६)। भी पुलिन्दराज सुकुमार अपने पिता सुमित्र (या सुचित्र) सुगोता-एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३७)। के साथ पधारे थे (आदि. १८५।१०)। पुलिन्द सग्रीव-(२) वानरोंके एक राजा, जो भगवान् सूर्यके पुत्र नगरके राजा सुकुमार और सुमित्रको सहदेवने भी थे। पर्वकालमें सभी वानरयूथपति इनकी सेवामें रहते थे दक्षिण-दिग्विजयके समय जीता था (सभा० ३१ । ४)। (वन १४७।२८-२९)। श्रीरामकी इनके साथ मित्रता ये युधिष्ठिरकी सेनाके एक उदार रथी थे ( उद्योग
और इनके भाई वालीके वधका संक्षिप्त वृत्तान्त ( सभा. १७१।१५)। (३) शाकद्वीपके जलधारगिरिक पासका
३८ । २९ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ७९४.)। भगवान् एक वर्ष (भीष्म ११।१५)।
श्रीरामका इनके पास जाना, इनके साथ उनकी मैत्री। सुकुमारी-(१) शाकद्वीपकी एक पवित्र जलवाली नदी इनका श्रीरामको सीताजीके वस्त्र दिखाना, श्रीरामका इन्हें (भीष्म ११।३२)। (२) राजा सृञ्जयकी पुत्री वानरसम्राट के पदपर अभिषिक्त करना तथा सुग्रीवका और नारदकी पत्नी (द्रोण. ५५। ७-१३, शान्ति. सीताजीकी खोजके लिये प्रतिज्ञा करना (वन० २८. । ३०।१४-३०)।
९-१४)। इनका अपने भाई वालीके साथ युद्ध (धन. सुकुसुमा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य ४६। २८० । ३०-३६ )। श्रीरामसे सीताकी खोजके विषयमें २४)।
इनका अपना कार्य बताना (वन. २८२ । २२)। सुकेत-(१) एक राजा, जो अपने पुत्र सुनामा एवं
कुम्भकर्णद्वारा इनका अपहरण ( वन० २८७ । ११)। सुवर्चाके साथ द्रौपदीके स्वयंवर में आये थे (आदि०
श्रीरामके साथ पुष्पक विमानद्वारा इनका अयोध्याको १८५।९)। (२) शिशुपालका एक पुत्र, जो
आना ( वन० २९१ । ६० )। राज्याभिषेकके बाद द्रोणाचार्यके हाथसे मारा गया था, इसकी चर्चा (कर्ण
श्रीरामका इन्हें कर्तव्यकी शिक्षा दे बड़े दुःखसे विदा
करना ( वन० २९२ । ६७-६८)। (२) भगवान् ६।३३)। (३) पाण्डवपक्षका एक महाबली राजा,
श्रीकृष्णके रथके एक अश्वका नाम (द्रोण१४७।४७)। जो चित्रकेतुका पुत्र था। इसका कृपाचार्य के साथ युद्ध और उनके द्वारा वध हुआ था (कर्ण० ५४ । २१-२९)। सुघोष-नकुलके शङ्खका नाम (भीष्म० २५ । १६)। सुकेशी-(१) गान्धारराजकी कुलीन कन्या, जो सुचक्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ५९)।
भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी थीं। भगवानने उन्हें द्वारका सुचन्द्र-(१) एक असुर, जो सिंहिकाके गर्भसे उत्पन्न • उस महलमें ठहराया था, जिसका दरवाजा जाम्बनद हुआ था ( आदि० ६५ । ३१ )। (२) एक
सुवर्णके समान उद्दीत होता था, जो देखनेमें प्रज्वलित देवगन्धर्व, जो कश्यपद्वारा प्राधाके गर्भसे उत्पन्न हुआ था अग्नि-सा जान पड़ता था, विशालतामें जिसकी उपमा (आदि० ६६ । ४६-४८)। यह अर्जुनके जन्मकालिक समुद्रसे दी जाती थी और जो मेरु नामसे विख्यात या महोत्सबमें सम्मिलित हुआ था ( आदि० १२२ । ५८ )। (सभा० ३८ ! २९ के बाद दा• पाठ, पृष्ठ ८१५)। सुचारु-(१) धृतराष्ट्रका एक पुत्र । इसने अन्य सात
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सुचित्र
( ३८४ )
सुदर्शन ( चक्र)
भाइयोंके साथ होकर अभिमन्युपर आक्रमण किया था (भीष्म० ७९ । २२-२३) । (विशेष देखिये चारु, चारुचित्र)। (२) श्रीकृष्णके द्वारा रुक्मिणीदेवीके गर्भसे उत्पन्न एक पुत्र (अनु.१४ । ३३)। सचित्र-(१) धृतराष्ट्र कलमें उत्पन्न एक नाग, जो
जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था (आदि. ५७। १८)। (२) द्रौपदी-स्वयंवरमें गया हुआ एक राजा इसके साथ सुकुमारका भी नाम आया है । अतः यह पुलिन्दराज सुकुमारका पिता सुमित्र जान पड़ता है (सम्भव है सुमित्रकी जगह सुचित्र पाठ हो गया हो। अथवा सुमित्रका ही दूसरा नाम सुचित्र हो) (आदि. १८५। १०)। (३) धृतराष्ट्रका एक पुत्र, जिसने अपने भाइयो- के साथ रहकर अभिमन्युपर आक्रमण किया था (भीष्म ७९ । २२-२३) ( विशेष देखिये चित्र )। (४) पाण्डवपक्षका एक महावीर महारथी, जो चित्रवर्माका पिता था । रणभूमिमें विचरते हुए इन दोनों वीरोंको द्रोणाचार्यने मारा था, इसकी चर्चा (कर्ण. ६ ।
२७-२८)। सुचेता-वीतहव्यवंशी गृत्समदके पुत्र, इनके पुत्रका नाम
वर्चा था (अनु. ३० । ६१)। सुजात-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे एक, जिसने भाइयोंके साथ भीमसेनपर आक्रमण किया और उनके द्वारा युद्ध में
मारा गया (शल्य० २६ । ५-१८)। सुजाता-महर्षि उद्दालककी पुत्री, जिसका कहोड ऋषिके
साथ विवाह हुआ था (वन० १३२ । ९)। इसका पतिसे धनके लिये आग्रह करना (वन० १३२ । १४)। अपने पुत्र अष्टावक्रसे पतिकी मृत्युका वृत्तान्त बताना
(वन० १३२ । २०)। सुजानु-एक दिव्य महर्षि, जो हस्तिनापुर जाते समय मार्गमें
श्रीकृष्णसे मिले थे ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दा. पाठ)। सुतनु-आहुक ( उग्रसेन) की पुत्री । इसका विवाह भगवान् श्रीकृष्णने अक्रूरके साथ कराया था ( सभा०
१४ । ३३)। सुतसोम-द्रौपदोके गर्भसे भीमसेनद्वारा उत्पन्न पुत्र ( आदि०६३ । १२३, आदि० ९५। ७५)। इसकी उत्पत्ति विश्वेदेवोंके अंशसे हुई थी (आदि० ६७ । १२७१२८)। इसका सुतसोम नाम पड़ने का कारण (आदि० २२० । ७९, ८२, द्रोण० २३ । २८-२९)। प्रथम दिनके संग्राममें विकर्णके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ४५ । ५८-५९) । दुर्मुखसे श्रुतकर्माकी रक्षा करना (भीष्म ७९ । ३९)। इसके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण
२३ । २८)। विविंशतिके साथ युद्ध (द्रोण. २५ । २४-२५)। शकुनि के साथ युद्ध और पराजय (कर्ण. २५।१८-४०) अश्वत्थामाके साथ युद्ध (कर्ण० ५५ । १४-१६)।रातमें अश्वत्थामाद्वारा इसका वध (सौप्तिक.
८। ५५.५६ )। सुतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ देवतालोग पितरों के साथ सदा विद्यमान रहते हैं। वहाँ देवता-पितरोंके पूजनमें तत्पर हो स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है और यात्री पितृलोकमें जाता है (वन० ८३ । ५४.५५)। सतेजन-युधिष्ठिरका एक सम्बन्धी और सहायक राजा
(द्रोण. १५८ । ४०)। सुदक्षिण-(१) काम्बोज देश ( काबुल ) के राजा या राजकुमार, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे ( आदि. १८५।१५)। ये एक अक्षौहिणी सेनाके साथ दुर्योधनकी सहायताके लिये आये थे ( उद्योग० १९ । २१)। इन्हें दुर्योधनके पक्षका एक रथी वीर माना गया था (उद्योग० १६६। १)। प्रथम दिनके संग्राममें श्रुतकर्माके साथ इनका द्वन्द्व युद्ध (भीष्म० ४५ । ६६-६८)। अभिमन्युके साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म०११०।१५) भीष्म० १११। १८-२१)। अर्जुनके साथ युद्ध और उनके द्वारा इनका वध (द्रोण० ९२।६१-७१)। इनके छोटे भाईने भी अर्जुनपर धावा किया और यह उनके हाथसे मारा गया (कर्ण० ५६ । ११०-१११)। (२) पाण्डवपक्षका योद्धा, जिसे द्रोणाचार्यने आहत करके रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया था (द्रोण० २१ । ५६ )। सुदत्ता-भगवान् श्रीकृष्णकी एक पटरानी, द्वारकामें इन्हें रहनेके लिये केतुमान् नामक प्रासाद प्राप्त हुआ था। उसका विशेष वर्णन (सभा०३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८१५)। सुदर्शन (चक्र)-(१) भगवान् नारायण एवं
श्रीकृष्णके चक्रका नाम, इसके तेजस्वी एवं प्रभावशाली दिव्य रूपका वर्णन (आदि. १९।२०-२९)। अग्निदेवने भगवान् श्रीकृष्णको यह चक्र प्रदान किया और इसके प्रभावका स्वयं वर्गन किया (आदि०२२४ । २३-२७)। श्रीकृष्णने इस अस्त्रसे शिशुपालका मस्तक काटा था (सभा० ४५ । २१-२५)। इसके द्वारा सौभ विमानका विध्वंस और शाल्वका संहार (वन० २२ । २९-३७)। श्रीकृष्णका अर्जुनको अपने दिये हुए चक्रसे शत्रुका मस्तक काटने के लिये प्रेरित करना (कर्ण०८९ । ४५-४६)। (२) देवराज इन्द्र के रथका नाम ( या विशेषण) (विराट० ५६ । ३)। (३) देवताओंके लिये आदरणीय
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सुदर्शना
( ३८५ )
सुदेष्णा
एक नरेश, जो राजा नग्नजित्द्वारा बन्दी बनाये गये थे। सुदेव-(१) विदर्भनरेशद्वारा दमयन्तीकी खोजमें नियुक्त भगवान् श्रीकृष्णने नग्नजित्के समस्त पुत्रोंको पराजित करके किये गये ब्राह्मणोंमेसे एक, जिन्होंने चेदिराजके महलमें इन्हें बन्धनमुक्त किया था (उद्योग० ४८ । ७५)।(४) दमयन्तीको पहचानकर उससे वार्तालाप किया (वन. एक द्वीप ( जो जम्बूद्वीपका ही नामान्तर है ) संजयद्वारा ६८ । २-३०)। इनका चेदिनरेशकी माताको दमयन्तीधृतराष्ट्रसे इसका वर्णन (भीष्म० ५ । १३ से ६ का परिचय देना (वन० ६९ । १-९)। दमयन्तीको अध्यायतक)।(५) जम्बूद्वीपके जामुन वृक्षका नाम, देखकर प्रसन्न हुए राजा भीमद्वारा इन्हें पुरस्कार-प्राप्ति इस वृक्षकी ऊँचाई ग्यारह हजार योजन है । इसके फलोकी (वन० ६९।२७) । दमयन्तीका इन्हें अयोध्यानरेश लम्बाई ढाई हजार अरनि मानी गयी है (भीष्म० ७ । ऋतुपर्णके पास स्वयंवरका संदेश देकर भेजना और इनका १९-२२)।(६) कौरवपक्षका एक राजा, जो सात्यकि- अयोध्या जाकर राजा ऋतुपर्णसे स्वयंवरके लिये दमयन्तीद्वारा मारा गया था (द्रोण. ११८ | १४-१५)।(७) का संदेश कहना (बन० ७० । २२-२७) । (२) मालवनरेश, पाण्डवपक्षका एक योद्धा, अश्वत्थामाद्वारा महाराज अम्बरीषका एक शान्त स्वभाववाला सेनापति, इसका वध (द्रोण. २०० । ७३-८३)।(८)
जिसे राजासे पूर्व ही स्वर्गलोककी प्राप्ति हो चुकी थी। धृतराष्ट्रका एक पुत्र, जिसने भीमसेनपर आक्रमण किया
उसे इन्द्रके पास देखकर राजाका चकित होकर उसके और फिर उन्हीं के द्वारा मारा गया (शल्य. २७ । ३१- विषयमें इन्द्रसे पूछना (शान्ति० ९८ । ३-११)। ५०)। (९) अग्निदेवके पुत्र, इनकी माता इक्ष्वाकु
राजाकी आज्ञासे राक्षसोंसे लड़नेके लिये इसका प्रस्थान वंशी दुर्योधनकी पुत्री सुदर्शना थी(अनु०२।३५.३६)।
(शान्ति० ९८ । ११ के बाद दा. पाठ)। शत्रुको महाराज ओघवान्की पुत्री ओघवती के साथ इनका विवाह
प्रबल देखकर इसका शिवजीकी शरणमें जाना और उन्हें (अनु० २।३८-३९) । अतिथि-सत्कारद्वारा मृत्यु
प्रसन्न करना (शान्ति० ९८ । ११ के बाद दा० पाठ)। आदिपर इनकी विजय (अनु० २ । ४०-९८)।
शिवजीद्वारा हसे वरदान-प्राप्ति (शान्ति० ९८ । ११ के
बाद दा० पाठ)। इसके द्वारा राक्षसोका संहार और सुदर्शना-माहिष्मती-नरेश नील (या दुर्योधन) की अनुपम
स्वयं भी वियमद्वारा मारा जाना तथा मरते-मरते वियमको सुन्दरी पुत्री, जो प्रतिदिन पिताके अग्निहोत्र-गृहमें अग्नि
भी मार डालना (शान्ति० ९८ । ११ के बाद दा० को प्रज्वलित करनेके लिये उपस्थित होती थी (सभा.
पाठ)।(३) काशिराज हर्यश्वके पुत्र, जो देवताके समान ३१ । २८)। इसके ऊपर अग्निदेवकी आसक्ति (सभा०
तेजस्वी और दूसरे धर्मराजके समान न्यायप्रिय थे। पिताके ३१ । ३०-३१)। पिताद्वारा इसका अग्निदेवकी
पश्चात् ये काशिराजके पदपर अभिषिक्त हुए । इसी बीच सेवामें समर्पण (सभा० ३१॥३३)। यह राजा दुर्योधन (नील) द्वारा नर्मदा नदीके गर्भसे उत्पन्न हुई थी।
वीतहव्यके पुत्रोंने इनपर आक्रमण करके इन्हें धराशायी इसका अग्निदेवके साथ विवाह (अनु० २।३४)।
कर दिया। तत्पश्चात् इनके पुत्र दिवोदास पिताके राज्यपर अग्निके द्वारा इसे सुदर्शन नामक पुत्रकी प्राप्ति (अनु०
अभिषिक्त हुए (अनु. ३० । १३-१५)। २। ३६)।
सुदेवा-(१) अङ्गराजकी पुत्री, जो महाराज अरिहकी सुदामा-(१) दशार्णके एक महामना नरेश, जिनके दो पत्ना था। इसके गभस ऋक्षनामक पुत्रका जन्म हुआ पुत्रियाँ थीं, एकका विवाह विदर्भ-नरेश भीमसे और
था (आदि. ९५ । २४) । (२) दशार्हकुलकी दूसरीका चेदिराज वीरबाहुके साथ हुआ था (वन० ९६ ।
कन्या, जो पुरुवंशी महाराज विकुण्ठनकी पत्नी थी।
इसके गर्भसे अजमीढका जन्म हुआ था (आदि० ९५। १४-१५)। (२)उत्तरभारतका एक जनपद (भीष्म
३६)। ५। ५५) । इसे और यहाँके राजाको अर्जुनने जीता था (सभा० २७ । ११)। (३) पाण्डवपक्षका एक
सुदेष्ण-(१) देवराज इन्द्र द्वारकामें आकर जिन प्रधान-प्रधान योद्धा, हमके रथके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण.२३॥ ४९)।
यादवोंसे मिले थे, उनमेंसे एक ये भी थे (सभा० ३८१२९
के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८०६)। (२) एक (४) स्कन्दकीअनुचरी एक मातृका (शल्य०४६ । १०)।
भारतीय जनपद (भीष्म०९ । ४६)। सदास-कोसलदेशके एक राजा, जो सायं-प्रातः स्मरण
सुदेष्णा-मत्स्यराज विराटकी भार्या, केकयराजकी कन्या । कीर्तन करने के योग्य हैं (अनु० १६५ । ५७)।
इनका दूसरा नाम चित्रा भी था (विराट. १।६)। सुदिन-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक लोकविख्यात
इनके पास अज्ञातवासके लिये सैरन्ध्रीवेशमें द्रौपदीका तीर्थ, जिसमें स्नान करके मनुष्य सूर्यलोकमें जाता है।
आना और बातचीत करनेके बाद इनका द्रौपदीकी शोंको (वन० ८३ । १००)।
स्वीकार करते हुए उसे अपने यहाँ आश्रय देना (विराट. सुदिवा-एक वानप्रस्थी ऋषि, जो वानप्रस्थ-धर्मका पालन ९।८-३६)। सैरन्ध्रीके विषयमें इनसे कामासक्त करते हुए स्वर्गलोकको प्राप्त हुए (शान्ति० २४४ । कीचककी बातचीत और उसके प्रार्थना करनेपर इनका उसे १७-१८)।
अपनी सम्मति देना (विराट. १४।६-१०)। द्रौपदीको सुदृष्ट-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५१)। कीचकके घर भेजना (विराट. १५ अध्याय)। कीचक
म. ना०४९
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सुद्युम्न
( ३८६ )
सुनाम
के मारनेपर रोती हुई द्रौपदीका इनके पास आना और यशोदा, देवकी, रोहिणी आदि श्रीकृष्णकी आठों पटइनका उसके रोनेका कारण पूछना तथा आश्वासन देना रानियाँ और एकानङ्गा नामवाली यशोदापुत्री-ये सब (विराट. १६ । ४८-५०) । विराटका इनके द्वारा उस सभा आयीं (सभा० ३८ ॥ २९ के बाद दा. पाठ, द्रौपदीको चली जानेके लिये कहलवाना (विराट. २४ । पृष्ठ ८०६-८२०)। अर्जुनका इस सभामें प्रवेश ८-१०)। द्रौपदीको राजमहलसे चली जानेके लिये इनके (मौसल० ७ । ७)। (२) एक वृष्णिवंशी राजकुमार, द्वारा राजाका संदेश सुनाया जाना (विराट० २४ । २७- जो युधिष्ठिरकी सभामें बैठता था। इसने अर्जुनसे धनुर्वेद२८)। द्रौपदीके तेरह दिन और रहने के लिये प्रार्थना की शिक्षा ली थी (सभा० ४ । २८-३५)। (३) करनेपर सुदेष्णाका उसे इच्छानुसार रहनेकी आज्ञा देना दशार्णदेशके एक राजा, जिनके पराक्रमसे संतुष्ट हो और अपने पति-पुत्रकी रक्षाके लिये उसकी शरणमें जाना महाबली भीमसेनने उन्हें अपना सेनापति बना लिया था (विराट० २४ । २९-३० दा० पाठसहित)। उत्तराके (सभा० २९ । ५-६)। (४) इन्द्रसारथि मातलिकी विवाहोत्सवमें उपप्लव्यनगरमें इनका द्रौपदीके पास जाना पत्नी (उद्योग०९७ । १९)। (५) एक संशप्तक योद्धाः (विराट० ७२ । ३०)।
जिसका अर्जुनके साथ युद्ध हुआ था (द्रोण. १८।२०)। सद्यम्र-एक प्राचीन राजर्षि, जो यम-सभामें रहकर सूर्यपुत्र सुधामा-कुशद्वीपका एक सुवर्णमय पर्वत, जो मूंगोंसे भरा यमकी उपासना करते हैं (सभा० ८। १६)। अपने हुआ और दुर्गम है (भीष्म १२।१०)। भाई महर्षि शङ्कके भेजनेसे न्यायके लिये लिखितका इनके
सुनक्षत्रा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य०४६।९)। पास आना और इनके द्वारा चोरीके दण्डरूपमें लिखितका
सुनन्दा-(१) केकयराजकुमारी, जो कुरुवंशी राजा हाथ कटवाया जाना (शान्ति०२३१ २९-३६) दण्डरूप
सार्वभौमकी पत्नी थीं । इनके गर्भसे जयत्सेनका जन्म धर्मके पालनसे इन्हें परम सिद्धिको प्राप्ति (शान्ति. २३ ।
हुआ था (आदि० ९५ । १६) । (२) काशिराज ४५)। महर्षि लिखितको धर्मतः दण्ड देनेसे इन्हें परम
सर्वसेनकी पुत्री, जो दुष्यन्तपुत्र सम्राट भरतकी पत्नी उत्तम लोकोंकी प्राप्ति ( अनु० १३७ । १९)।
थीं। इनके गर्भसे भुमन्यु नामक पुत्रका जन्म हुआ था सधन्या-(१) महर्षि अङ्गिराके पुत्र । केशिनीके लिये प्रह्लाद- (आदि० ९५ । ३२)। (३) शिबिदेशकी राजकन्या,
पुत्र विरोचनके साथ इनका संवाद होनेपर प्रह्लादके पास जो महाराज प्रतीपकी पत्नी थीं । इनके गर्भसे देवापि, निर्णयके लिये जाना तथा उनका निर्णय देना (सभा० शान्तनु तथा बाह्रीकका जन्म हुआ था (आदि० ९५ । ६८। ६५-८७; उद्योग. ३५। १४-३६)। इनका ४४)। (४) चेदिनरेश सुबाहुकी बहिन । राजमाताने विरोचनको जीवनदान देना (उद्योग० ३५ । ३७-३८)। दमयन्तीको इसीके साथ रहनेके लिये आज्ञा दी थी (वन० शर-शय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये जाना (अनु. ६५। ७३-७६) । विदर्भ-निवासी सुदेव ब्राहाणके साथ २६ । ७)। ये महर्षि अङ्गिराके आठवें पुत्र थे (अनु० एकान्तमें दमयन्तीको बात करते देखकर इसका राज८५ । ३०-३१)। इन्होंने स्कन्दको एक शकट और माताको इसकी सूचना देना (वन० ६८ । ३३-३४ )। विशाल कुबरसे युक्त रथ प्रदान किया था (अनु० ८६ ।। ब्राह्मण सुदेवके कहने से इसके द्वारा दमयन्तीके ललाटमें २४)। (२) एक संशप्तक योद्धा, जो अर्जुनद्वारा स्थित प्राकृतिक टीकेकी मैलका धोया जाना और पहचाननेमारा गया (द्रोण०१८ । ४२)। (३) पाण्डवपक्षका के बाद रोना तथा दमयन्तीको हृदयसे लगाना (वन. एक पाञ्चाल योद्धा, जो द्रुपदका पुत्र था, इसके घोड़ोंका ६९। १०-१२) । इसके पिताका नाम वीरबाहु था वर्णन (द्रोण० २३ । ५५) । यह वीरकेतुका भाई और यह दमयन्तीकी मौसेरी बहिन थी (वन० ६९ । था । वीरकेतुके मारे जानेपर दुखी हो भाइयोसहित इसने आचार्य द्रोणपर आक्रमण किया था (द्रोण. १२२ । सुनय-एक दक्षिण भारतीय जनपद (भीष्म०९।६४)। १४)। द्रोणाचार्यने इसे रथहीन करके मार गिराया सनसा-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (द्रोण. १२२१४५-४९)। (४) एक प्राचीन नरेश, (भीष्म०९।३१)। जिन्हें मान्धाताने जीत लिया था (द्रोण०६२।१०-११)। .
सुनाभ-(पद्मनाभ )-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक सुधर्मा-(१) एक यादवोंकी सभा, जहाँ जाकर सैनिकोंने (आदि. ११६ । ५)। भीमसेनके साथ इसका युद्ध सुभद्राहरणका समाचार सुनाया था (आदि० २१९ । और उनके द्वारा वध (भीष्म० ८८ । १२ के बाद १०)। इस सभाको दाशाहीं कहते थे। इसकी लंबाई. दा. पाठसहित १३)। (२) वरुणका मन्त्री, जो चौड़ाई एक-एक योजन थी। इसमें बैठे हुए भगवान् अपने पुत्रों और पौत्रोंसहित गौ और पुष्कर नामक श्रीकृष्णके पास देवराज इन्द्र आये और भौमासुरको तीर्थों के साथ वरुणदेवकी उपासना करता है (सभा०९। मारकर अदितिके कुण्डल लानेके लिये उनसे प्रार्थना की। २८-२९)। (३) एक दिव्य पर्वत, जो धनाधीश इस कार्यको सम्पन्न करके भगवान् जब स्वर्गसे लौटे, तब कुबेरकी सभा रहकर उनकी सेवा करता है (सभा० उनको और उनकी नवागत रानियोंको देखनेके लिये १०। ३२-३३)।
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सुनामा
( ३८७ )
सुप्रभा
सुनामा-(१) राजा सुकेतुका एक पुत्र, जो द्रौपदीके गन्धर्व, जो कश्यपद्वारा प्राधाके गर्भसे उत्पन्न हुआ था स्वयंवरमें अपने पिता और भाईके साथ आया था (आदि. (आदि०६५। ४७)। (३) मयूर नामक असुरका १८५।९) । (३) उग्रसेनका पुत्र, कंसका भाई। छोटा भाई, जो राजा कालकीर्तिके रूपमें पृथ्वीपर उत्पन्न इसे श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मारा था ( सभा० १४।। हुआ था (आदि० ६७ । ३६-३७ )। (४) गरुड़का ३४) । यह कंसका सेनापति भी था, कंसके समान ही एक नाम (उद्योग०१०११)।(विशेष देखिये गरुड़)। बलवान् था और उसके घुड़सवारोंकी सेनाका सरदार (५) एक ऋषि, जिन्होंने इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह. बनाया गया था (सभा० ३८ । २९ के बाद दा. पाठ,
पूर्वक भलीभाँति तपस्या करके भगवान् पुरुषोत्तमसे पृष्ठ ८०१-८०३)। (३) अपने वंशका विस्तार करने
सात्वतधर्मको प्राप्त किया और इनसे वायुदेवने इस वाला गरुड़का एक पुत्र ( उद्योग. १०१।२।(४) धर्मका उपदेश ग्रहण किया (शान्ति० ३४८।२०-२२)। स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ५९)।
(६) भगवान् विष्णुका एक नाम (अनु० १४९।३४)। सुनीथ-(१) एक मन्त्र, जिसका दिन अथवा रातमें सुपर्वा-राजा भगदत्तका नामान्तर (द्रोण० २६ । ५२
स्मरण करनेपर सपोंसे भय नहीं होता ( आदि०५८। ५३) (विशेष देखिये भगदत्त)। २३-२६) । (२) एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभामें सुपार्श्व-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो कुपट नामक असुरविराजते हैं (सभा० ७।१६)।(३) दो भिन्न-भिन्न के अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । २८-२९)। प्राचीन राजा, जो यमकी सभामें रहकर सूर्य-पुत्र यमकी पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण-निमन्त्रण भेजनेका निश्चय उपासना करते हैं (सभा०८।११, १५)। (४) हुआ था ( उद्योग०४।१४)। (२) एक देश शिशुपालका दूसरा नाम (सभा० ३९ । ११)। (विशेष जिसके राजा क्रथको भीमसेनने पूर्वदिग्विजयके समय देखिये शिशुपाल)। (५) एक जनपद और वहाँके जीता था (सभा० ३० । ७-८)। नरेश, जो यह चाहते थे कि युधिष्ठिरके अभिषेक और सुपुण्या-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल यहाँके श्रीकृष्णकी अग्रपूजाके कार्यमें बाधा पड़ जाय (सभा० निवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । ३६)। ३९ । १४-१५)। (६) एक वृष्णिवंशी कुमार, सुप्रजा-भानु नामक अग्निकी दो पत्नियोंमेंसे एक । दूसरीका जिसे प्रद्युम्नद्वारा धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त हुई थी (वन.
नाम बृहद्भासा था । इन दोनोंने छः पुत्रोंको जन्म दिया । १८३ । २८)।
____ था (वन० २२१ । ९)। सुनीथा-मृत्युकी मानसी कन्या, जो अपने रूप और गुणके सुप्रतर्दन-एक प्राचीन नरेश, जो अर्जुन और कृपाचार्यका लिये तीनों लोकोंमें विख्यात थी। इसीने ( राजर्षि अङ्गके युद्ध देखनेके लिये इन्द्र के विमानमें बैठकर आये थे
द्वारा) वेनको जन्म दिया था (शान्ति० ५९ । ९३)। (विराट० ५६ । ९-१०)। सुनेत्र-(१) सोमवंशी महाराज कुरुके वंशज धृतराष्ट्रके सुप्रतिम-एक प्राचीन नरेश, जिनकी गणना संजयने प्राचीन बारह पुत्रों से एक, जो लोकविख्यात था (आदि० नरेशीमें की है (आदि. १ । २३५)। ९४ । ५९-६०)। (२) अपने वंशका विस्तार करनेवाला सुप्रतिष्ठा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य. गरुड़का एक पुत्र (उद्योग. १०१२)।
४६ । २९)। सुन्द-निकुम्भ दैत्यका पुत्र और उपसुन्दका भाई । ये दोनों सुप्रतीक-(१) एक प्राचीन नरेश (आदि० १।२३५)। भाई भयङ्कर और क्रूर हृदयके थे (आदि० २०८।२-३)। (२) एक महर्षि, जो विभावसुके भाई और बड़े तपस्वी इन दोनों भाइयोंके पारस्परिक प्रेमका वर्णन (आदि० २०८। थे। ये भाईसे धन बाँटनेका आग्रह करते थे। इन्हें भाईसे ४-६) । त्रिभुवनपर विजय पानेके लिये विन्ध्यपर्वतपर हाथीकी योनिमें जन्म लेनेका शाप प्राप्त होना तथा इनका इन दोनोंकी उग्र तपस्या (आदि० २०८।७)। इनकी भी भाईको कछुआ होनेका शाप देना (आदि० २९।१६तपस्या देवताका विघ्न डालना (आदि० २०८1११)। २४)।(३) एक दिग्गज, जिसके वंशमें नागराज ऐरावत, इन दोनोंको अपने भाईके अतिरिक्त किसी दूसरेसे न मरने- वामन, कुमुद और अञ्जनकी उत्पत्ति हुई है (उद्योग का ब्रह्माजीद्वारा वरदान (आदि० २०८ । २४-२५)। ९९ । १५) । इसके अप्रमेय रूपका विशेष वर्णन त्रिभुवनमें इन दोनोंके अत्याचार ( आदि० २०९ (भीष्म० १२१३३-३५)।(४) भगदत्तके गजराजअध्याय)। तिलोत्तमाके कारण इन दोनों भाइयोंकी एक का नाम । इसका अद्भुत पराक्रम (भीष्म०९५ । २४दूसरेके हाथसे गदा-युद्धमें मृत्यु (आदि० २११ । १९)। ८६, द्रोण. २६ । १९-६८)। अर्जुनद्वारा इसका सुन्दरिका-एक तीर्थ, जहाँ जानेसे मनुष्य सुन्दर रूपका भागी वध (द्रोण० २९ । ४३)। होता है । सुन्दरिकाकुण्डमें स्नान करनेसे रूप और तेजकी सप्रभा-(१) भगवान् श्रीकृष्णकी एक पटरानी। द्वारकामें
प्राति होती है (वन० ८४ । ५६, अनु० २५ । २१)। इनके रहनेके लिये पद्मकूट नामक प्रासाद प्राप्त हुआ सुपर्ण-(१) एक देवगन्धर्व, जो कश्यपकी पत्नी मुनिका था। इसका विशेष वर्णन ( सभा० ३८ । २९ के बाद
पुत्र था ( आदि० ६५ । ४२)। (२) एक देव- दा. पाठ, पृष्ठ ८१५)। (२) पुष्करमें बहनेवाली
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सुप्रयोगा
( ३८८ )
सुभद्रा
सरस्वतीका नाम, जो ब्रह्माजीके आवाहन करनेसे प्रकट १२२ । ६३)। (३) एक क्षत्रिय राजा, जो हर नामक हुई थी ( शल्य० ३० । १३-१४ ) । (३) दानवके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । २३स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६।१०)। २४)। पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण-निमन्त्रण भेजनेका (४) वदान्य ऋषिकी कन्या (अनु० १९ । १२)। निश्चय हुआ था ( उद्योग० ४।१४)। (४) एक इसका अष्टावक्रके साथ विवाह (अनु०२१ । १८)। राजा, जो क्रोधवश संज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था सुप्रयोगा-एक पवित्र नदो, जो अग्निको उत्पत्तिका स्थान
(आदि०६७।६०)। (५) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंमेंसे है (वन० २२२ । २५)। इसका जल भारतवासी पीते
एक ( आदि० ६७ । ९४, आदि. ११६ । ३)। हैं (भीष्म० ९।२१)।
भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म ९६ । २६-२७)। सुप्रवृद्ध-सौवीरदेशका एक राजकुमार, जो हाथमें ध्वज
(६) काशीके एक राजा, जो युद्ध में पीठ दिखानेवाले लेकर जयद्रथके पीछे चलता था (वन० २६५ । १०)।
नहीं थे। भीमसेनने पूर्व-दिग्विजयके समय इन्हें बलपूर्वक
परास्त कर दिया ( सभा० ३० । ६-७ ) । 'सुचित्र' अर्जुनद्वारा इसका वध (वन० २७१ । २७)।
नामसे इनके द्रौपदीके स्वयंवरमें जानेका भी उल्लेख हुआ है। सुप्रसाद-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य०४५।७१)।
वहाँ इनके साथ इनका पुत्र सुकुमार भी था (आदि०१८५। सुप्रसादा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य.
१०)। (७) एक राक्षस, जो ताटका नामक राक्षसीका पुत्र ४६ । १३)।
तथा मारीचका भाई था। भगवान् श्रीरामद्वारा इसका वध सुप्रिया-एक अप्सरा, जो दक्ष-कन्या प्राधाके गर्भसे महर्षि (सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७९४)। " कश्यपद्वारा उत्पन्न हुई थी (आदि. ६५। ५१) । (८)चेदिदेशके एक राजा, जो वीरबाहके पुत्र और इसने अर्जुनके जन्ममहोत्सवमें जाकर नृत्य किया था सुनन्दाके भाई थे (ये दमयन्तीके मौसेरे भाई थे)(वन० (आदि० १२२ । ६३)।
६५। ४५) । (९) कुलिन्दोका एक राजा, इसका सुबल-(१) एक प्राचीन नरेश ( आदि०१।२३६)।
राज्य और नगर हिमालयके बहुत निकट था । वहाँ अनेक (२) गान्धार देशके एक राजा, जो प्रह्लादशिष्य नग्नजित्के
प्रकारकी आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखायी देती थीं। वहाँ हाथीअंशसे उत्पन्न हुए थे । इनकी संतति देवताओंके धर्मका
घोड़ोंकी बहुतायत थी। किरात, तङ्गण एवं कुलिन्द आदि नाश करनेवाली हुई । इनका पुत्र शकुनि सौबल' नामसे
जातियोंके लोग वहाँ निवास करते थे। वह प्रदेश देवताओंसे विख्यात हुआ। इनकी पुत्री गान्धारी नामसे प्रसिद्ध थी,
भी सेवित था। सुबाहुने राज्यकी सीमापर जाकर पाण्डवोंको जो दुर्योधनकी माता थी । ये दोनों भाई-बहन अर्थशास्त्र
बड़े आदर-सत्कारके साथ अपनाया, इससे पूजित हो के ज्ञानमें निपुण थे (आदि० ६३ । १११-११२)।
वे सब लोग वहाँ सुखसे रहे । दूसरे दिन पाण्डवोंने इसके भीष्मने जब धृतराष्ट्र के लिये गान्धारीका वरण करनेके
यहाँ अपने सेवकों तथा द्रौपदीके सामानोंको सौंपकर
आगेको प्रस्थान किया था (वन० १४०।२४-२८)। निमित्त गान्धारराजके पास अपना दूत भेजा था, तब 'धृतराष्ट्र अंधे हैं। इस बातको लेकर राजा सुबलके मनमें
यह महाभारतयुद्ध में पाण्डवपक्षकी ओरसे आया था । बड़ा विचार हुआ था, परंतु उनके कुलप्रसिद्धि तथा
जयद्रथ-वधकी प्रतिज्ञाको सफल बनानेके लिये श्रीकृष्णसे आचार-विचारके विषयमें बुद्धिपूर्वक सोच-समझकर इन्होंने
युधिष्ठिरने जब प्रार्थना की थी, उस दिन उनके शिबिरमें अपनी कन्या गान्धारीका वाग्दान कर दिया (आदि.
सुबाहु भी उपस्थित था (द्रोण. ८३ । ४-६)।
(१०) एक संशप्तक योद्धा। अर्जुनके साथ इसका युद्ध १०९ । ११-१२) । युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें गान्धार
(द्रोण. १८ । १७-२०) । युयुत्सुके
और राज सुबल अपने महाबली पुत्र शकुनि, अचल
साथ वृषकके साथ पधारे थे (सभा० ३४ । ६-७)।राजसूय
युद्ध और उनके द्वारा इसकी दोनों भुजाओंका यज्ञकी समाप्तिके बाद जब पुत्रोंसहित सुबल अपने राज्यको
काटा जाना (द्रोण. २५ । १३-१४) । पधारने लगे, तब नकुलने साथ जाकर इन्हें अपने राज्यकी
(११) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७३)। सीमातक पहुँचाया था ( सभा० ४५ । ४९ ) ।
(१२) एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने अपने जीवनमें कभी (३) एक इक्ष्वाकुवंशी राजा, जिनका पुत्र जयद्रथका
मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५। ६६)। साथी था (वन० २६५ । ८-९) । (४) अपने
ल-लङ्कापुरीके पासका एक पर्वत (वन० २८४ । २१) वंशका विस्तार करनेवाला गरुड़का एक पुत्र ( उद्योग सुभग-शकुनिका भाई, जो भीमसेनद्वारा मारा गया (द्रोण. १०१ । ३)।
१५७ । २६)। सुबाहु-(१) कश्यप और कद्र की परम्परामें उत्पन्न एक सुभगा-(१) प्राधा' नामवाली कश्यपकी पत्नीसे उत्पन्न प्रमुख नाग (आदि० ३५।१४ उद्योग०१०३।१६)। एक कन्या (आदि० ६५। ४६)। (२) स्कन्दकी (२) एक अप्सरा, जो दक्षकन्या प्राधाके गर्भसे अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । १८)। महर्षि कश्यपद्वारा उत्पन्न हुई थी ( आदि०६५।५०)। सुभद्रा-(१) वसुदेवजीकी पुत्री (आदि० २१८ । यह अर्जुनके जन्मकालमें नृत्य करने आयी थी ( आदि०१४-१८)। भगवान् श्रीकृष्ण और सारणकी सगी बहन
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सुभद्राहरणपर्व
( ३८९ )
सुमह
( आदि० २१८ । १७-१८)। ये अपने पिताकी बड़ी यज्ञमें विघ्न डालनेवाले पंद्रह उत्तर देवों (विनायकों) लाड़ली थीं ( आदि० २१८ । १७) । अर्जुनका इनके मेंसे एक हैं (वन० २२० । ११)। प्रति अनुराग और श्रीकृष्णके समक्ष इन्हें अपनी रानी सुभूमिक-सरस्वती-तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ, इसका बनानेका मनोभाव प्रकट करना (आदि० २१८ । १९)। विशेष वर्णन (शल्य० ३७ । २-८)। श्रीकृष्णकी सलाहसे रैवतक पर्वतके उत्सवपर परिक्रमाके
सुभ्राज-सूर्यद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । समय अर्जुनद्वारा इनका अपहरण ( आदि० २१९। दुसरेका नाम भास्वर था (शल्य. ४५।३१)। ६-८) । अर्जुनके साथ इनका विधिपूर्वक विवाह
सुभ्र-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । ८)। (आदि० २२० । १३)। अर्जुनकी प्रेरणासे गोपीवेशमें 3 इनका द्रौपदीके पास आगमन तथा इनके लिये द्वारकासे सुमङ्गला-वन्दकीअनुचरी एक मातृका(शल्य०४६।१२)। दहेजका आना ( आदि० २२० अध्याय)। इनके गर्भ- सुमणि-चन्द्रमाद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे से अभिमन्युका जन्म ( आदि० २२० । ६५-६६, एक । दूसरेका नाम मणि था (शल्य०४५।३२)। आदि० ९५ । ७८) । पाण्डवोंके वनवास होनेपर सुमण्डल-एक राजा, जिसे अर्जुनने उत्तर-दिग्विजयके वनसे अभिमन्युसहित ये श्रीकृष्णके साथ द्वारका चली समय सेनासहित जीत लिया था (सभा० २६ । ४)। गयी थीं (वन० २२ । ३-४)। उपप्लव्यनगरमें सुमति-(१) एक राक्षस, जो वरुणकी सभामें रहकर अभिमन्युके विवाहोत्सवमें इनका आना (विराट०७२। उनकी उपासना करता है (सभा०९।१३)। (२) २२) । पुत्रशोकसे दुखी होनेपर इन्हें श्रीकृष्णद्वारा एक दिव्य महर्षि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको आश्वासन (द्रोण० ७७ । १२-२६ )। श्रीकृष्णके देखनेके लिये आये थे ( अनु० २६ । ४)। समक्ष अभिमन्युके लिये इनका विलाप (द्रोण० ७८ । सुमन-इन्द्रकी सभामें विराजमान होनेवाले एक देवता २-३५)। श्रीकृष्णके साथ हस्तिनापुरसे द्वारकाको प्रस्थान (सभा० ७ । २२)। (आश्व० ५२ । ५५)। वसुदेवजीके सामने श्रीकृष्णसे
सुमना-(१) एक किरातोंका राजा जो युधिष्ठिरकी सभामें अभिमन्यु-वधका वृत्तान्त कहनेके लिये कहकर मूर्छित बैठा करता था ( सभा० ४ । २५) । (२) एक होना (आश्व० ६१।४) । युधिष्ठिरके अश्वमेधयज्ञमें
प्राचीन नरेश, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी सम्मिलित होनेके लिये द्वारकासे हस्तिनापुर आना (आश्व०
उपासना करते हैं (सभा० ८।१२)। (३) एक ६६ । ४)। उत्तराके मृत पुत्रको जिलानेके लिये इनकी
असुर, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना श्रीकृष्णसे प्रार्थना (आश्व० ६७ अध्याय) । परीक्षित्के करता है (सभा. ९ । १३)। (४)। देवलोकजीवित होनेसे इनकी प्रसन्नता ( आश्व०७० । ६-७)।। निवासिनी केकयराजकी पुत्री, जिसने शाण्डिलीदेवीसे इनका उलूपी और चित्राङ्गदासे मिलना तथा उन दोनोंको उनकी साधनाके विषयमें प्रश्न किया था ( अनु० उपहार देना (आश्व० ८८। ३-४)। ये कुन्ती और १२३ । ३-६)। गान्धारी दोनों सासुओंकी समान भावसे सेवा करती थीं सुमनाख्य-कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न एक प्रमुख नाग (आश्रम० ११९)।ये अभिमन्युके लिये चिन्तित रहनेके (आदि० ३५। ८)। कारण सदा अप्रसन्न एवं हर्षशून्य रहा करती थीं । केवल सुमनामुख-एक कश्यपवंशी नाग (उद्योग० १०३ । १२)। परीक्षितको देखकर जीवन धारण करती थीं ( आश्रम सुमन्तु-एक ऋषि, जो महर्षि व्यासके शिष्य थे। २१ । १५.१६) । संजयका ऋषियोंके समक्ष इनका
व्यासजीने इन्हें सम्पूर्ण वेदों तथा महाभारतका परिचय देना (आश्रम० २५ । १०)। गान्धारीका
अध्ययन कराया था ( आदि. ६३ । ८९ )। ये व्यासजीके समक्ष इन्हें पुत्रशोकसे संतप्त बताना (आश्रम०
युधिष्ठिरकी सभामें विराजते थे (सभा०४।११)। २९ । ४२)। युधिष्ठिरका दुःखसे आर्त होकर सुभद्राको ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीको देखनेके लिये गये थे। परीक्षित् एवं वज्रका पालन करनेके लिये कहना (शान्ति० ४७ । ५)। ( महाप्रस्था० १ । ७-९)। (२) रभिकी सुमन्त्र-अयोध्यानरेश महाराज दशरथके सारथि ( विराट एक धेनुरूपा पुत्री, जो पश्चिमदिशाको धारण करनेवाली १२ । ८ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। है (उद्योग. १०२।९)।
सुमन्यु-एक प्राचीन नरेश, जिन्होंने मुनिवर शाण्डिल्यको सभटाहरणपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( आदि०
__ भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंकी कितनी ही पर्वतोपम राशियाँ दानमें
दी थीं ( अनु० १३७ । २२) (किसी-किसी प्रतिके अध्याय २१८ से २१९ तक)।
अनुसार ये राजा भुमन्यु थे)। सुभा-महर्षि अङ्गिराकी पत्नी । इनके गर्भसे बृहत्कीर्ति आदि
सुमल्लिक-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ५। ५५)। सात पुत्र हुए थे (वन० २१८ । १-२)।
सुमह-परशुरामजीके सारथि (विराट. १२।८ के बाद सुभीम-तप नामधारी पाञ्जजन्य नामक अग्निके पुत्र, जो दा० पाठ)।
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सुमित्र
सुमित्र - ( १ ) एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३६ ) । ( २ ) एक राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६३ ) | यह सौवीर देशका राजा था। इसे लोग दत्तामित्रके नामसे भी जानते थे | अर्जुनने अपने बाणोंद्वारा इसका दमन किया था ।
आदि० १३८ । २३ ) । यह युधिष्ठिरकी सभा में विराजता था ( सभा० ४ । २५) । ( ३ ) एक ऋषि जो युधिष्ठिरकी सभा में विराजते थे ( सभा० ४ । १० ) । ( ४ ) कुलिन्दनगर के शासक राजा सुमित्र, जिसका पुत्र सुकुमार था । इसे भीमसेनने पूर्व दिग्विजयके समय जीता था ( सभा० २९ । १० ) । सहदेवने भी सुमित्र और सुकुमारपर विजय पायी (सभा० ३१ । ४) । (५) तप नामधारी पाञ्चजन्यनामक अभिके पुत्र, जो यज्ञमें विघ्न डालनेवाले पंद्रह उत्तरदेव ( विनायकों) मेंसे एक हैं ( वन० २२० | १२ ) | ( ६ ) अभिमन्युका सारथि (ब्रोण० ३५ । ३ १ ) । इसकी अभिमन्यु के साथ युद्धसम्बन्धी कर्तव्यपर विचार करनेकी प्रार्थना (द्रोण० ३६ । ३-४ ) । अभिमन्युके आदेशसे इसने द्रोणाचार्यकी ओर ( चक्रव्यूहके लिये ) रथ बढ़ाया था ( द्रोण० ३६ । ९-१० ) । ( ७ ) एक हैहयवंशी नरेश, इनका एक मृगके पीछे दौड़ना ( शान्ति० १२५ । ९-१९ ) । मृगको खोजते हुए इनका ऋषियोंके आश्रमपर पहुँचना और उनसे आशाके विषय में प्रश्न करना (शान्ति० १२६ । ८-१९ ) । ऋषभका इन्हें वीरद्युम्न और तनु नामक मुनिका वृत्तान्त सुनाना ( शान्ति० १२७ अध्याय ) । ऋषभ ऋषिके उपदेशसे इनके द्वारा आशाका परित्याग ( शान्ति० १२८ । २५ ) ।
सुमित्रा - ( १ ) भगवान् श्रीकृष्णकी एक रानी ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८२० ) । ( २ ) महाराज दशरथकी एक पटरानी । लक्ष्मण और शत्रुघ्नकी माता ( वन० २७४ । ८ ) । ये भरतजीके साथ श्रीरामको लौटा लानेके लिये चित्रकूट गयी थीं ( वन० २७७१३६) । सुमीढ - महाराज सुहोत्रद्वारा ऐक्ष्वाकीके गर्भ से उत्पन्न तीन पुत्रोंमेंसे एक । इनके शेष दो भाई अजमीढ और पुरुमीढ थे ( आदि० ९४ । ३० ) ।
( ३९० )
सुमुख - ( १ ) कश्यप और कद्रूकी परम्परामें उत्पन्न एक प्रमुख नाग ( आदि० ३५ । १४ ) | यह ऐरावतकुलमें उत्पन्न आर्यकका पौत्र, वामनका दौहित्र और चिकुरका पुत्र था ( उद्योग० १०३ । २४-२५ ) । मातलिकन्या गुणकेशीके साथ इसके विवाहका प्रस्ताव । भगवान् विष्णुके आदेश से इन्द्रका इसे दीर्घायु बनाना । गुणकेशीसे विवाह करके इसका घरको जाना ( उद्योग० १०४ । २७-२९ ) । भगवान् विष्णुने इसे पैर के अँगूठेसे उठा कर गरुड़की छातीपर रख दिया था, तभीसे गरुड़ इसे सदा साथ लिये रहते हैं (उद्योग० १०५ । ३१ ) । ( २ ) एक राजा, जिसने राजा युधिष्ठिरके पास भेंटकी प्रमुख वस्तुएँ भेजी थीं ( सभा० ५१ । ७ के बाद
दा० पाठ) । ( ३ ) अपने वंशका विस्तार करनेवाला गरुड़का एक पुत्र ( उद्योग० १०१।२) । ( ४ ) गरुड़की प्रमुख संतानोंकी परम्परामें उत्पन्न एक पक्षी ( उद्योग० १०१ । १२ ) ।
सुमुखी - (१) कर्णके सर्पमुख बाणमें प्रविष्ट अश्वसेन नामक नागकी माता । मुखसे पुत्रकी रक्षा करनेके कारण इसे सुमुखी कहते हैं ( कर्ण० ९० । ४२) । ( २ ) अलकापुरीकी अप्सरा, जिसने अष्टावक्र के स्वागत समारोहमें कुबेर भवनमें नृत्य किया था ( अनु० १९ । ४५ ) | सुमेरु - एक पर्वत ( देखिये मेरु ) ।
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सुयजु -सम्राट् भरतके पौत्र एवं भुमन्युके पुत्र, इनकी माताका नाम 'पुष्करिणी' था ( आदि० ९४ । २४ ) । सुयज्ञा - प्रसेनजितकी पुत्री, पुरुवंशीय महाराज महाभौम
की पत्नी तथा अयुतनायकी माता ( आदि० ९५ । २० ) । सुयशा — बाहुदराजकी पुत्री, जिसके साथ अनश्वाके पुत्र
परीक्षितने विवाह किया था। इसके गर्भ से भीमसेनका जन्म हुआ (आदि० ९५ । ४१-४२ ) । सुयम- राक्षस शतशृङ्गका तीसरा पुत्र, जो अम्बरीषके सेनापति सुदेवद्वारा मारा गया था ( शान्ति० ९८ । ११ के बाद दा० पाठ ) |
सुरकृत् — विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५७ ) ।
सुरथ
सुरजा - एक अप्सरा, जो दक्षकन्या 'प्राधा' के गर्भसे कश्यपद्वारा उत्पन्न हुई थी ( आदि० ६५ । ५० ) । यह अर्जुनके जन्मकाल में नृत्य करने आयी थी ( आदि ० १२२ । ६३ ) ।
सुरता - एक अप्सरा, जो दक्षकन्या 'प्राधा' के गर्भसे कश्यपद्वारा उत्पन्न हुई थी ( आदि० ६५ । ५० ) । यह अर्जुनके जन्मकाल में नृत्य करने आयी थी ( आदि० १२२ । ६३ ) । सुरथ - ( १ ) एक राजा, जो क्रोधवशसंशक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ६२) । ( २ ) एक प्राचीन नरेश, जो यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा० ८ । ११) । ( ३ ) एक राजा, जो शिविदेशके राजकुमार कोटिकास्य के पिता थे ( वन० २६५ । ६) । ( ४ ) त्रिगर्तदेशका एक राजा, जो जयद्रथका अनुगामी था । द्रौपदीहरणके समय इसका नकुलके साथ युद्ध और उनके द्वारा वध ( वन० २७१ । १८(२२) । (५) एक संशतक योद्धा, जिसका अर्जुनके साथ युद्ध हुआ था ( द्रोण० १८ । २० - २३) । (६) द्रुपदका पुत्र, जो अश्वत्थामाद्वारा निहत हुआ था ( द्रोण०
१५६ । १८०
१ ) । ।
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पाण्डवपक्षका एक पाञ्चाल
महारथी, जो अश्वत्थामाके साथ युद्ध करते समय उसके हाथों मारा गया ( शल्य० १४ । ३७ - ४३ ) | ( ८ ) जयद्रथका पुत्र, जो दुःशलाके गर्भ से उत्पन्न हुआ था । इसने अश्वमेधीय अश्वके साथ अर्जुनके सिन्धुदेशमें पहुँचने
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सुरथा
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( ३९१ )
का समाचार सुनकर पिताकी मृत्युका स्मरण करके भयभीत हो प्राण त्याग दिया ( आश्व० ७८ । २८-३०)। सुरथा - राजा शिविकी माता ( वन० १९७ । २५ ) । सुरथाकार - कुशद्वीपका तीसरा वर्ष ( भीष्म ० १२ । १३ ) । सुरप्रवीर - तपनामधारी पाञ्चजन्य नामक अनिके पुत्र, जो
यज्ञमें विघ्न डालनेवाले पंद्रह उत्तरदेवों ( विनायकों ) मैंसे एक हैं (वन० २२० | १३ ) ।
सुरभि (सुरभी) - ( १ ) कामधेनु नामक गौ । इनका समुद्रसे प्राकट्य हुआ (आदि० १८ । ३६ के बाद दा० पाठ ) । इन्हें दक्षकी कन्या माना गया है। देवी सुरभिने कश्यपजी के सहवाससे एक गौको जन्म दिया, जिसका नाम नन्दन था । महर्षि नन्दिनीको अपनी होमधेनु के रूपमें प्राप्त किया था ( आदि० ९८ । ८-९ ) । ये ब्रह्माजीकी सभा में रहकर उनकी उपासना करती हैं ( सभा० ११ । ४० ) । इनका अपने पुत्र बैलके लिये इन्द्रसेदुःख प्रकट करना ( वन० ९ । ९-१४ ) । नारदजीद्वारा मातलिसे इनकी तथा इनकी संतानोंका वर्णन ( उद्योग० १०२ अध्याय ) । इनके फेनसे बकराज राजधर्माको जीवनकी प्राप्ति ( शान्ति० १७२ । ३-५ ) । प्रजापतिके सुरभि - गन्धयुक्त श्वाससे इनकी उत्पत्तिका वर्णन ( अनु० ७७ । १७ ) । इनकी तपस्या और ब्रह्माजीसे इन्हें अमरत्व एवं गोलोकमें निवासकी प्राप्ति ( अनु० ८३ । २९-३९ ) । इनके निवासभूत गोलोककी दिव्यताका वर्णन ( अनु० ८३ । ३७–४४) । इनका कार्तिकेय को एक लाख गौओंकी भेंट देना ( अनु० ८६ । २३ ) । अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर इनका शपथ खाना
( अनु० ९४ । ४१ )। ( २ ) क्रोधवशाकी क्रोधजनित
कन्या, इसने दो कन्याओंको उत्पन्न किया । जिनके नाम थे— रोहिणी तथा गन्धर्वी ( आदि० ६६ । ६१, ६७ ) । सुरभिमानू - एक अमि, जिनके लिये मृत्युसूचक विलाप
सुनायी देने अथवा कुक्कुर आदिके द्वारा अग्निहोत्रकी
अग्निका स्पर्श हो जानेपर ‘अष्टाकपाल' पुरोडाश देनेका
विधान है ( चन० २२१ । २८ ) । सुरभीपत्तन — एक दक्षिणभारतीय जनपद, जिसे सहदेवने दक्षिण दिग्विजयके अवसरपर दूतोंद्वारा ही अपने अधीन कर लिया ( सभा० ३१ । ६८ ) । सुरवीथी - इन्द्रलोक में प्रसिद्ध नक्षत्रमार्ग ( बन० ४३ ।
१२ I
सुरस - एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ | १६)। सुरसा - (१) क्रोधवशाकी क्रोधजनित कन्या, नाग तथा
पन्नग जातिके सर्पोंकी माता । इनकी तीन पुत्रियाँ थीं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- अनला, रुहा एवं वीरुधा ( आदि० ६६ । ६१, ७० ) । ये ब्रह्माजीकी सभा में उपस्थित होकर उनकी उपासना करती हैं ( सभा० ११ | ३९) । ( २ ) एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्ममहोत्सव में नृत्य किया था ( आदि० १२२ । ६३ ) ।
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सुलभा
सुरहन्ता - तप नामधारी पाञ्चजन्य नामक अनिके पुत्र, जो यज्ञमें विघ्न डालनेवाले पंद्रह उत्तरदेवों (विनायकों ) मेंसे एक हैं (वन० २२० । १३ ) ।
सुरा - एक देवी, जो समुद्र ( वरुणालय) से प्रकट हुई ( आदि० १८ । ३५ ) । ये वरुणके द्वारा उनकी ज्येष्ठ पत्नी 'देवी' के गर्भ से उत्पन्न हुई थीं और देवताओंको आनन्दित करनेवाली थीं ( इनको वारुणी भी कहते हैं ) ( आदि० ६६ । ५२ ) । ये ब्रह्माजी की सभामें रहकर उनकी उपासना करती हैं ( सभा० ११ । ४२ ) । सुरारि - एक राजा, जिसे पाण्डर्वोकी ओरसे रण-निमन्त्रण भेजने का विचार किया गया था उद्योग० ४ । १५ ) । सुराव- इल्वलद्वारा अगस्त्यजीको दिये गये रथके एक घोड़ेका नाम ( वन० ९९ । १७ ) ।
सुराष्ट्र - ( १ ) दक्षिण-पश्चिम भारतका एक जनपद, जहाँके राजा कौशिकाचार्य आकृतिको माद्रीकुमार सहदेवने पराजित किया था सभा० ३१ । ६१) । दक्षिण दिशाके तीर्थोंके वर्णन-प्रसंग में सुराष्ट्र देशके अन्तर्गत चमसोद्भेद, प्रभासक्षेत्र, पिण्डारक एवं उज्जयन्त ( रैवतक ) पर्वत आदि पुण्य स्थानोंका उल्लेख हुआ है ( वन०८८ । १९ - २१) । ( २ ) एक क्षत्रियवंश, जिसमें रुषर्धिक नामक कुलाङ्गार राजा प्रकट हुआ था ( उद्योग० ७४ । १४ ) । सुरूच - अपने वंशका विस्तार करनेवाला गरुड़का एक पुत्र ( उद्योग० १०१ । ३)।
सुरूपा - सुरभिकी एक धेनुस्वरूपा पुत्री, जो पूर्वदिशाको धारण करनेवाली है ( उद्योग० १०२ । ८ ) । सुरेणु - ऋषभद्वीप में बहनेवाली सरस्वती नदीका नाम
( शल्य० ३८ | २६ I
सुरेश - (१) तप नामधारी पाञ्चजन्य नामक अग्निके पुत्र, जो यज्ञमें विघ्न डालनेवाले पंद्रह उत्तरदेवों (विनायकों ) मेसे एक हैं (वन० २२० । १३) । ( २ ) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३५ ) ।
सुरेश्वर- ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक ( शान्ति० २०८ । १९ ) । सुरोचना - स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य० ४६ । २९ ) ।
सुरोद - सुराका समुद्र, जो दधिमण्डोदसागरके बाद पड़ता है ( भीष्म० १२ । २ )।
सुरोमा - तक्षककुलोत्पन्न एक सर्प, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था ( आदि० ५७ । १० ) । सुलभा - एक संन्यासिनी कुमारी, जो योगधर्मके अनुष्ठानद्वारा सिद्धि प्राप्त करके अकेली ही इस पृथ्वीपर विचरण करती थी ( शान्ति० ३२० । ७) । इसने त्रिदण्डी संन्यासियोंके मुखसे मोक्ष-तत्त्व की जानकारीके विषयमें मिथिलापति राजा जनककी प्रशंसा सुनी । सुनकर इसके मनमें उनके दर्शनका संकल्प हुआ । इसने योगशक्तिसे अपना पहला शरीर छोड़कर दूसरा परम सुन्दर
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सुलोचन
( ३९२ )
सुवामा
रूप धारण कर लिया । फिर यह पलभरमें विदेह देशकी इनके पिता खनीनेत्रको हटाकर इनका राजपदपर अभिषेक राजधानी मिथिलामें जा पहूँची। वहाँ इसने भिक्षा लेनेके (आश्व० ४ । ९)। इनका करन्धम नाम पड़नेका बहाने मिथिलेश्वरका दर्शन किया । राजाने इसका स्वागत- कारण ( आश्व० । १५-१६)। इनके त्रेतायुगके पूजन करके अन्न देकर संतुष्ट किया । तदनन्तर यह योग- आरम्भमें एक कान्तिमान् पुत्र हुआ, जो कारन्धम' शक्तिसे उनकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो गयी और उनके मनको कहलाया। इसीका नाम अविक्षित् था (आश्व०४।१८)। बाँध लिया। फिर एक ही शरीरमें रहकर राजा और सवर्ण-(१) एक ब्रह्मचारी तथा विख्यात गुणवान् सुलभाका परस्पर संवाद आरम्भ हुआ। राजाद्वारा अयोग्य देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें आया था (आदि. एवं असङ्गत वचनोंद्वारा इसका तिरस्कार (शान्ति० ३२०
१२२ । ५८)। (२) एक तपस्वी ब्राह्मण, जिनकी ८-७५)। राजाके वचनोंसे विचलित न होकर इसने कान्ति सुवर्णके समान थी । इन्होंने मनुसे पुष्पादिविद्वत्तापूर्ण भाषणद्वारा उन्हें उत्तर दिया और अपना
दानके विषयमें प्रश्न किया था ( अनु० ९८ । ३-९)। परिचय देते हुए कहा-मैं राजर्षिप्रधानके कुलमें
सुवर्णचूड-गरुडकी प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग० उत्पन्न हुई हूँ। क्षत्रियकन्या हूँ। मैंने अखण्ड ब्रह्मचर्यका
१०१।९)। पालन किया है। मेरा नाम सुलभा है । मैं सदा स्वधर्ममें
सुवर्णतीर्थ-एक पुण्यमय तीर्थ, जहाँ पूर्वकालमें भगवान् स्थित रहती हूँ (शान्ति० ३२० । ७६-१९२)। विष्णुने रुद्रदेवकी प्रसन्नताके लिये उनकी आराधना की सुलोचन-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ६७।९४; और उनसे अनेक देवदुर्लभ उत्तम वर प्राप्त किये।
आदि० ११६ । ४)। इसने दुर्योधनके साथ रहकर इस तीर्थमें जाकर भगवान् शङ्करकी पूजा करनेसे राजा द्रुपदपर आक्रमण किया था (आदि० १३७ । ६)। अश्वमेधयज्ञके फल और गणपतिपदकी प्राप्ति होती है
भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म० ६४ । ३७-३८)। (वन० ८४ । १८-२२)। सुवक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य४५। ७३)। सुवर्णवर्मा-काशीके राजा, जो वपुष्टमाके पिता थे। जनमेजयके सुवर्चला-(१) महर्षि देवलकी पुत्री । इसका पितासे
मन्त्रियोंने इनके पास जाकर उनके लिये राजकुमारी अपने लिये वरका लक्षण कहना । स्वयंवरमें इसके द्वारा
वपुष्टमाका वरण किया था ( आदि. ४४ । ८)। इनके ऋषिकुमारोंका प्रत्याख्यान । श्वेतकेतु और इसकी बात
द्वारा अपनी पुत्रीका राजा जनमेजयके साथ विवाह चीत तथा इसके द्वारा श्वेतकेतुका वरण । श्वेतकेतुके साथ
(आदि० ४४।९)। इसका विवाह । पतिके साथ इसके अध्यात्मसम्बन्धी सुवर्णाशरा-पश्चिम दिशामें रहकर सामगान करनेवाले एक प्रश्नोत्तर | गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए इसे परमगतिकी महर्षि । इनके केश पिङ्गलवर्णके हैं। इनका प्रभाव अप्रमेय प्राप्ति (शान्ति० २२० । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ४९८८ से. और मूर्ति अदृश्य है ( उद्योग. ११०।१२)। ४९९५ तक )। ( २ ) सूर्यकी पत्नी ( अनु० सुवणेष्ठीवी-राजा सुंजयका पुत्र । इसका सुवर्णष्ठीवी नाम १४६ । ५)।
पड़नेका कारण (द्रोण. ५५ । २३ के बाद दा० पाठसुवर्चा-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक ( आदि०
सहित २४)। लुटेरोंद्वारा इसका हरण और वध (द्रोण० ६७ । १०२, आदि०११६ । १०) । यह द्रौपदीके
५५ । ३०-३१)। नारदजीके वरदानसे पुनरुज्जीवन स्वयंवरमें गया था ( आदि. १८५। ३)। भीमसेन
(द्रोण० ७१ । ८-९)। इनके जन्म, मरण और पुनरुद्वारा इसका वध ( कर्ण० ८४ । ५-६)। (२) राजा
जीवनके वृत्तान्त का पुनर्वर्गन (शान्ति० ३१ अध्याय)। सुकेतुका एक पुत्र, जो अपने पिता तथा भाई सुनामाके सुवणों-इक्ष्वाकुकुलकी कन्या । पूरुवंशीय महाराज महोत्रकी साथ द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था ( आदि. १८५।१)। पत्नी । हस्ती नामक राजाकी माता (आदि० ९५। ३४)। (३) तप नामधारी पाञ्चजन्य नामक अग्निके सुवर्णाभ-स्वारोचिष मनुके पौत्र एवं शङ्खपदके पुत्र, जो पुत्र, जो यज्ञमें विघ्न डालनेवाले पंद्रह उत्तरदेवों दिक्पाल थे । इन्हें पिताने सात्वतधर्मका उपदेश दिया (विनायकों) मेंसे एक हैं ( वन० २२० । १३)। (शान्ति० ३४८ । ३८)। (३) एक सत्यवादी ब्राह्मण ऋषि, जिन्होंने रातके समय सुवर्मा-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक ( आदि० ६७ । ९७ सत्यवान् और सावित्रीके न लौटनेसे चिन्तित हुए महाराज आदि० ११६ । ६)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. द्युमत्सेनको आश्वासन दिया था (वन० २९८ । १०)। १२७ । ६६)। (४) अपने वंशका विस्तार करनेवाला गरुड़का एक पुत्र सुवस्त्रा-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (उद्योग० १०१।२)। (५) कौरवपक्षका एक योद्धा (भीष्म० ९ । २५)। जो अभिमन्युद्वारा मारा गया था (द्रोण०४८।१५-१६)। सुवाक-एक ऋषि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका बहुत आदर (६) हिमवान्द्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे करते थे (वन० २६ । २४)। एक । दूसरेका नाम अतिवर्चा था (शल्य०४५। ४६)। सुवामा-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (७) सूर्यवंशी राजा खनीनेत्रके पुत्र । प्रजाओद्वारा (भीष्म० ९ । २८)।
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सुवास्तुक
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( ३९३ )
सुवास्तुक - एक राजा, जिसे पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजने का निश्चय किया गया था ( उद्योग ० ४ । १३ ) । सुवाह - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६६ ) । सुविशाला - स्कन्द की अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६ । २८ ) । सुवीर - ( १ ) एक राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ६०) । ( २ ) एक क्षत्रियकुल, जिसमें अजविन्दु नामक कुलाङ्गार राजा उत्पन्न हुआ था (उद्योग०७४ । १४) । ( ३ ) राजा द्युतिमान्के धर्मात्मा जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात थे । ये इन्द्रके समान पराक्रमी थे । इनके पुत्रका नाम दुर्जय था अनु० २ । १०-१२ )।
पुत्र,
सुवेणा - एक नदी, जिसे मार्कण्डेयजीने बालमुकुन्दके उदरमें देखा था ( वन० १८८ । १०४ ) । सुव्रत - ( १ ) एक अनन्तकीर्ति अमित तेजस्वी महात्मा, जिनका पवित्र आश्रम उत्तराखण्ड में है ( वन० ९० । १२ - १३ ) | ( २ ) मित्रद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । दूसरेका नाम सत्यसंध था ( शल्य० ४५ । ४१ ) । ( ३ ) विधाताद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक । दूसरेका नाम सुकर्मा था ( शल्य० ४५ । ४२ ) ।
सुशर्मा - ( १ ) वृद्धक्षेमका पुत्र एवं त्रिगर्तदेशका राजा : जो द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था ( आदि० १८५ । ९) । इसका दुर्योधनको मत्स्यदेशपर आक्रमण करनेकी सलाह देना ( विराट० ३० । १ - १३ ) । इसके द्वारा विराटनगरपर चढ़ाई ( विराट० ३० । २६ ) । गोहरणके समय इसका युद्धमें राजा विराटको बंदी बनाना ( विराट० ३३ । ७-९ ) । भीमसेनद्वारा जीते-जी इसका पकड़ा जाना ( विराट० ३३ । २५-४८ ) । युधिष्ठिरकी कृपासे इसका ( दासभावसे ) छुटकारा ( विराट० ३३ । ५८६१) । पाण्डवों की ओरसे इसे रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था ( उद्योग० ४। २० ) । प्रथम दिनके संग्राममें चेकितानके साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध (भीष्म० ४५ | ६०-६२ ) । अर्जुनद्वारा पराजित होकर युद्धसे हट जाना ( भीष्म० ८२ । १ ) । अर्जुनके साथ युद्ध ( भीष्म० ८४ । ५३३ भीष्म० १०२ । १० - १८ ) । अर्जुन और भीमसेनके साथ युद्ध ( भीष्म० ११४ अध्याय ) । धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध ( द्रोण० १४ । ३७-३९ ) । अर्जुनको मारनेके लिये भाइयोसहित इसकी प्रतिज्ञा ( द्रोण० १७ । ११-१८ ) । भाइयों और संशप्तकसेनासहित इसका शपथ खाना (द्रोण० १७ । २९-३६ ) । द्रोणाचार्य के मारे जानेपर युद्धस्थलसे भागना ( द्रोण० १९३ । १८ ) । अर्जुनके साथ युद्ध करते समय संशप्तकद्वारा इसका अर्जुनको रथ और सारथिसहित पकड़वा लेना ( कर्ण० ५३ । १३ - १६ ) । अर्जुनद्वारा इसका मारा जाना (शय० २७ । ४६ ) । महाभारतमें आये हुए सुशर्मा के नाम - प्रस्थलाधिप,
म० ना० ५०
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सुसामा
प्रस्थलाधिपति, रुक्मरथ, त्रैगर्त, त्रिगर्त, त्रिगर्ताधिपति, त्रिगर्तराष्ट्र और त्रिगर्तराज आदि ।
(२) पाण्डवपक्षका एक पाञ्चालयोद्धा । चित्रसेनके साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ११६ । २७ - २९ ) । इसका भीष्मद्वारा पीड़ित होना तथा अर्जुनद्वारा इसकी रक्षा ( भीष्म० ११८ । ४१-४२ ) । कर्णके साथ इसका युद्ध और उसके द्वारा वध ( कर्ण० ५६ । ४४-४८ ) । सुशोभना - मण्डूकराजकी कन्या । इसका इक्ष्वाकुवंशी राजा परीक्षित के साथ मिलन और विवाह ( शल्य० १९२ । ९-१२ ) । इसका अपनी शर्तके अनुसार बावलीमें लुप्त होना ( शल्य० १९२ । २२ ) । पुनः इसकी राजासे भेंट
शल्य० १९२ । ३५ ) । इसके गर्भ से शल, दल, बल नामक तीन पुत्रकी उत्पत्ति ( शल्य० १९२ । ३८ ) । सुश्रवा-विदर्भराजकुमारी, पूरुवंशीय राजा जयत्सेनकी पत्नी, चीनकी माता ( आदि० ९५ । १७ ) । सुश्रुत विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५५ ) । सुषेण - ( १ ) धृतराष्ट्रके कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्प सत्र में दग्ध हो गया था ( आदि० ५७ । १६) । ( २ ) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ । ९७; आदि० ११६ । ७) । भीमसेनद्वारा इसका बध ( भीष्म० ६४ । ३४ द्रोण० १२७ । ६० ) । ( धृतराष्ट्रपुत्र 'सुषेण' का वध दो स्थलोंमें आया है; अतः अनुमान होता है कि उनके दो पुत्र इस एक ही नामसे प्रसिद्ध थे । उनका पृथक-पृथक और भी नाम रहा होगा, पर उस नामसे उनकी प्रसिद्धि नहीं थी । ) (३) पूरुवंशीय महाराज अविक्षित्के पौत्र एवं परीक्षित्के
पुत्र ( आदि० ९४ । ५२ - ५५ ) | ( ४ ) जमदग्निपुत्र । माता रेणुका । मातृ-वधकी आशा न मानने से इन्हें पिताका शाप ( बन० ११६ । १२ ) । परशुरामद्वारा शापसे इनका उद्धार ( वन० ११६ । १७ ) । (५) वानरराज वालीके श्वसुर । ताराके पिता । इनका सहस्रकोटि ( दस अरब ) वानर सेनाके साथ श्रीरामके पास उपस्थित होना ( वन० २८३ । २) । ( ६ ) कर्णका पुत्र तथा चक्ररक्षक । नकुलके साथ इसका युद्ध ( कर्ण० ४८ । १८, ३४ - ४० ) । उत्तमौजाद्वारा इसका वध ( कर्ण० ७५ । १३) । ( ७ ) कर्णका पुत्र । नकुलद्वारा इसका वध ( शल्य० १० । ४९-५० ) | ( कर्णपुत्र 'सुषेण का वध दो स्थानोंपर आया है; अतः यह अनुमान होता है कि कर्णके दो पुत्र इसी नाम से प्रसिद्ध थे । )
सुसंकुल - उत्तरभारतका एक जनपद इसे और यहाँके राजाको अर्जुनने जीता था ( सभा० २७ । ११ ) । सुसामा - धनञ्जयगोत्रीय एक श्रेष्ठ ब्राह्मण, जो युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें सामगान करते थे ( सभा० १३ । ३४ ) ।
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सुस्थल
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( ३९४
सुस्थल - एक भारतीय जनपद और वहाँ के निवासी ( सभा० १४ । १६) ।
सुखर - गरुड़की प्रमुख संतानोंकी परम्परामें उत्पन्न एक पक्षी (उद्योग० १०१ । १४) ।
सूर्य
सूक्ष्म - एक विख्यात दानव, जो कश्यपद्वारा दनुके गर्भ से उत्पन्न हुआ था (आदि० ६५ । २५ ) । यही इस भूतलपर राजा बृहद्रथके रूपमें उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । १८-१९) ।
सुहोत्र - (१) एक प्राचीन नरेश ( आदि ० १ । २२६ ) । सम्राट भरत पौत्र एवं भुमन्युके ज्येष्ठ पुत्र थे । इनकी माताका नाम 'पुष्करिणी' था ( आदि० ९४ । २४ ) । इन्हें ही भूमण्डलका राज्य प्राप्त हुआ और इन्होंने राजसूय तथा अश्वमेध आदि अनेक यज्ञ किये थे । इनके राज्यकी विशेषता ( आदि० ९४ । २५-२९ । इनके द्वारा इक्ष्वाकुकुलनन्दिनी सुवर्णाके गर्भ से अजमीढ़, सुमीढ़ तथा पुरुमीढ़की उत्पत्ति ( आदि० ९४ । ३० ) । इनकी दानशीलता और पराक्रम आदि गुणोंका विशेष वर्णन ( द्रोण ० ५६ अध्याय ) । ये अतिथि सत्कारके प्रेमी थे । इनके राज्यमें इन्द्रने एक वर्षतक सुवर्णकी वर्षा की थी । नदियाँ अपने जलके साथ सुवर्ण बहाया करती थीं । इन्द्रने बहुत-से सोनेके कछुए, केकड़े, नाकेँ, मगर और सूँस आदि उन नदियों में गिराये थे । राजाने सारी सुवर्ण-राशि ब्राह्मणोंमें बाँट दी थी ( शान्ति० २९ । २५ - २९ ) । ( २ ) मद्रराज द्युतिमान्की पुत्री विजयाके गर्भसे पाण्डुकुमार सहदेवद्वारा उत्पन्न ( आदि० ९५ । ८० ) । ( ३ ) एक ऋषि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका आदर करते थे ( वन० २६ । २४ ) । ( ४ ) एक कुरुवंशी नरेश, इनका राजा उशीनरवंशी शिविके मार्गको रोकना । नारदजीके कहनेपर इनका शिविको मार्ग देना ( वन० १९४ । २,७ ) | ( ५ ) एक राक्षस, जो प्राचीनकालमें इस भूतलका शासक था, पंरतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा (शान्ति० २२७/५१) । सुहोता - सम्राट् भरतके पौत्र एवं भुमन्युके पुत्र । इनकी माताका नाम 'पुष्करिणी' था ( आदि० ९४ । २४ ) । सुझ - ( १ ) पूर्व- भारतका एक प्राचीन जनपद, जिसपर महाराज पाण्डुने विजय पायी थी (आदि ०११२ । २९ ) । भीमसेनने भी पूर्व-दिग्विजयके समय इस जनपदको जीता था ( सभा० ३० । १६ ) । ( २ ) उत्तरभारतका एक पर्वतीय प्रदेश, जिसे अर्जुनने उत्तर- दिग्विजयके समय जीता था सभा० २७।२१ ) ।
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I
सुहनु-एक दानव, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना सूचीवक्त्र - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७२ ) । करता है (सभा० ९ | १३) । सुहवि-सम्राट् भरतके पौत्र एवं भुमन्युके पुत्र । इनकी माताका नाम 'पुष्करिणी' था ( आदि० ९४ । २४ )। सुहस्त - धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ६७ । १०२; आदि० ११६ । १० ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( द्रोण० १५७ । १९ ) ।
सूत - एक ऋषि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मंजीको देखनेके लिये आये थे ( शान्ति० ४७ । १२ ) । ये विश्वामित्रके ब्रावादी पुत्र ( अनु० ४ । ५७ ) । सूपकर्ता - भाँति-भाँतिके व्यञ्जन बनानेवाला रसोइया (विराट० २ । ९ ) ।
सूर्य - ( १ ) भगवान् सूर्य या सविता । दिवःपुत्र आदि बारह नाम विवस्वान् (सूर्य) के ही बोधक माने गये हैं । इनमें अन्तिम नाम रवि है । रविको 'मा' कहा गया है । उनके पुत्र देवभ्राट् हैं ( आदि० १ । ४२-४३ ) । छलसे अमृतपान करते हुए राहुके गुप्त भेदका इनके द्वारा उद्घाटन हुआ (आदि० १९ । ५ ) । इसीसे इनके प्रति राहुकी शत्रुता हो गयी ( आदि० १९ ।९ ) । राहुसे पीड़ित हो इनका जगत्के विनाशके लिये संकल्प हुआ ( आदि ० २४ । १० ) । फिर देवताओंकी प्रेरणासे अरुणने इनका सारथ्य ग्रहण किया ( आदि० २४ २० ) । कश्यपके द्वारा अदिति के गर्भसे प्रकट बारह आदित्य इन्हींके स्वरूप हैं ( आदि० ६५ | १४-१५ ) । इनकी भार्या त्वष्टाकी परम सौभाग्यवती पुत्री "संज्ञा' देवी हैं ( आदि० ६६ । ३५) । इनके द्वारा कुन्तीके गर्भ से कर्णका जन्म ( आदि० ११० । १८ ) । वसिष्ठजीद्वारा इनकी स्तुति ( आदि ० १७२ । १८ के बाद दा० पाठ ) । वसिष्ठकी प्रार्थनापर इनके द्वारा अपनी पुत्री तपतीका संवरणके लिये समर्पण ( आदि० १७२ । २६ । धौम्यद्वारा युधिष्ठिरको सूर्यदेवके एक सौ आठ नामोंका उपदेश, युधिष्ठिरद्वारा इनकी पूजा, उपासना और पूर्वोक्त नामोंका जप एवं स्तुति, इससे संतुष्ट होकर इनका उन्हें दर्शन एवं अन्नपात्र देना तथा चौदहवें वर्ष में राज्य प्राप्त होनेका आशीर्वाद प्रदान करना ( वन० ३ । १५ – ७४ ) । धौम्यद्वारा इनकी गतिका वर्णन ( वन० १६३ । २८-४२ ) । कर्णको स्वप्न में दर्शन देकर इनका इन्द्रको कवच - कुण्डल न देनेका आदेश देना ( वन० ३०० । १०–२०; वन० ३०१ अध्याय ) । कर्णसे इन्द्रकी शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देनेकी सम्मति देना ( वन० ३०२ । ११ - १७ ) । कुन्तीके आवाहनपर प्रकट होना और उनके साथ वार्तालाप करना ३०६ । ८-२८ ) । कुन्तीके उदरमें इनके द्वारा गर्भस्थापन ( वन० ३०७ । २८ ) | द्रौपदीद्वारा भगवान् सूर्यकी उपासना और इनका द्रौपदीकी रक्षाके लिये अदृश्यरूपसे एक राक्षसको नियुक्त कर देना ( विराट०
वन०
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सूर्यतीर्थ
( ३९५ )
संजय
१५ । १९-२०)। जिधर सूर्यका उदय हो वही पूर्व दिशा त्रिगतॊको मारकर ये उनकी सेनामें घुस गये थे । है। पूर्व दिशा ही सूर्यमार्गका द्वार है ( उद्योग. १००। (विराट. ३२ । १९-२१)। ये उदार : ३-५)। ये दूसरोका अहित करनेवाले कृतघ्न असुरोंका (उद्योग० १७१ । १५-१६)। द्रोणद्वारा इनके मारे क्रोधपूर्वक विनाश करते हैं ( उद्योग० १०८ । १६)। जानेकी चर्चा ( कर्ण० ६ । ३४ )। पूर्वकालमें भगवान् सूर्यने वेदोक्त विधिसे यज्ञ करके आचार्य सूर्यध्वज-एक राजा, जो द्रौपदी-स्वयंवरमें उपस्थित था कश्यपको दक्षिणारूपमें जिस दिशाका दान किया था, उसे (आदि० १८५ । १०)। दक्षिण दिशा कहते हैं ( उद्योग० १०९ । १)। जिसमें सूर्यनेत्र-गरुड़की प्रमुख संतानों की परम्परामें उत्पन्न एक दिनके पश्चात् सूर्यदेव अपनी किरणोंका विसर्जन करते हैं,
पक्षी ( उद्योग० १०१ । १३)। वही पश्चिम दिशा है ( उद्योग० ११० । २)। कर्णके प्रति कुन्तीके कथनका सर्यद्वारा समर्थन । उद्योग सूर्यमास-कोरवपक्षका योद्धा, जो अभिमन्युद्वारा मारा गया १४६ । १-२)। इनके विस्तार आदिका वर्णन (भीष्मः था (द्रोण० ४८ । १५-१६)। १२ । ४४-४५)। कर्ण और अर्जुनके द्वैरथयुद्ध में कर्णकी सूर्यवर्चा-एक देवगन्धर्व, जो कश्यपद्वारा मुनिके गर्भसे उत्पन्न विजयके लिये इन्द्रसे इनका विवाद (कर्ण० ८७।५७-५९)। हुआ था (आदि० ६५ । ४२)। यह अर्जुनके जन्मोत्सवइनके द्वारा स्कन्दको पार्षद प्रदान (शल्य० ४५।३१)। में आया था (आदि० १२२ । ५५)। महादेवजीने इन्हें तेजस्वी ग्रहोंका अधिपति बनाया सूर्यवर्मा-त्रिगर्तदेशका राजा, जो अश्वमेधीय अश्वके पीछे (शान्ति. ११२।३१) । इन्होंने याज्ञवल्क्यको वेद- गये हुए अर्जुनके साथ युद्ध में परास्त हुआ था (आश्व० ज्ञानका वरदान दिया (शान्ति० ३१८ । ६-१२)। ७४ । ९-१३)। इसके भाईका नाम केतुवर्मा था, जो महापद्मनामक नागसे इनका उञ्छ एवं शिलवृत्तिकी अर्जुनद्वारा मारा गया था (आश्व० ७४ । १४-१५)। महिमाका वर्णन करना ( शान्ति० ३६३ अध्याय)। सूर्यश्री-एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३३)। कार्तिकेयको सुन्दर कान्तिकी भेंट देना (अनु० ८६ । २३)। महर्षि जमदग्निसे क्षमा-प्रार्थना करके उनकी
- सूर्यसावित्र-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३४ )। शरणमें आना ( अनु० ९५ । २० से ९६ । ७ तक)। सूर्याक्ष-एक राजा, जो क्रथननामक असुरके अंशसे उत्पन्न जमदग्नि ऋषिको छाता और जूता देना (अनु० ९६। हुआ था (आदि० ६७ । ५७)। १४-१५)। देवासुर-संग्राममें राहुद्वारा सूर्य और चन्द्रमाके संजय-(१) एक प्राचीन नरेश (आदि० १ । २२५)। घायल होनेसे सब ओर अन्धकार छा गया । देवतालोग ये यमसभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं असुरोद्वारा मारे जाने लगे । उस समय देवताओंकी (सभा० ८।१५) । वितिके पुत्र, जिनके पर्वत और प्रार्थनासे अत्रिमुनिने चन्द्रमाका खरूप धारण किया और नारद ये दोनों ऋषि मित्र थे (द्रोण० ५५ । ५)। सूर्यदेवको तेजस्वी बनाया था (अनु० १५६ । २-१०)। इनका नारदको अपनी कन्या देना स्वीकार करना कुन्तीने व्यासजीके समक्ष अपने गर्भसे सूर्यदेवताद्वारा । (द्रोण. ५५ । १३ ) । पुत्रकी कामनासे कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग सुनाया था (आश्रम० ३० अध्याय)। ब्राह्मणोंकी आराधना करना (द्रोण० ५५। १८-१९)। (२) एक विख्यात दानव, जो कश्यपद्वारा कद्रूके गर्भसे नारदजीसे पुत्रप्राप्तिका वर माँगना ( द्रोण० ५५ । उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६५ । २६) । यह राजा २२-२३)। इन्हें सुवर्णष्ठीवी नामक पुत्रकी प्राप्ति दरदके रूपमें पृथ्वीपर पैदा हुआ था (आदि०६७।५८)। (द्रोण. ५५ । २४)। लुटेरोंद्वारा मारे जानेपर सूर्यतीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक प्राचीन तीर्थ,
इनका पुत्रके शोकसे विलाप करना ( द्रोण० ५५ । जहाँ स्नान और देवता-पितरोंका अर्चन करके उपवास
३३-३४ )। इन्हें नारदजीका षोडशराजकीयोपाख्यान
सुनाकर समझाना (द्रोण० ५५। ३६ से द्रोण ७१ । ३ करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और सूर्यलोकमें
तक )। नारदजीके समझानेसे इनका शोकरहित होना जाता है ( वन० ८३ । ४८-४९)।
(द्रोण०७१ । ४-५) । नारदजीके प्रभावसे इनके सूर्यदत्त-विराटके भाई ( उद्योग० ५७ । ६) । इनका पुत्रका जीवित प्रकट होना (द्रोण. ७१ । ८)।
एक नाम शतानीक भी था (विराट० ३१ । ११-१२)। भगवान् श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको समझानेके लिये नारदइन्होंने गोहरणके समय कवच धारण करके युद्धके लिये सुंजय-संवादको प्रस्तुत करके षोडशराजकीयोपाख्यान प्रस्थान किया था (विराट० ३१ । १५)। इन्होंने सुनाना (शान्ति. २९ अध्याय ) । संजयका पर्वत त्रिगोंकी सेनापर आगेसे आक्रमण किया था और सौ मुनिसे पुत्र-प्राप्तिके लिये वर माँगना (शान्ति०३१ । १५)।
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सृष्टि
( ३९६ )
सोमक
इन्हें सुवर्णष्ठीवी नामक पुत्र की प्राप्ति (शान्ति०३१ । २३)। सेनोद्योगपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय पुत्रकी मृत्युपर इनका विलाप (शान्ति. ३१ । ३७)। १ से १९ तक)। नारदजीकी कृपासे पुनः इनके पुत्रका जीवित होना सेयन-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ( शान्ति० ३१ । ४२)। इन्होंने जीवनमें कभी ४।५८)। मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५ । ६३)। (२) सैन्धव-सिन्धदेशके निवासी या स्वामी (वन० ५१ । एक दक्षिणभारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६३)। २५)। सृष्टि-एक देवी, जो ब्रह्माकी सभामें रहकर उनकी उपासना सैन्धवायन-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० करती हैं ( सभा० ११ । ४७)।
४। ५१)। सेक-एक देश, जिसे दक्षिण-दिग्विजयके अवसरपर सहदेवने सैन्धवारण्य-एक प्राचीन तीर्थ ( वन० ८९ । १५)। जीता था ( सभा० ३१ । ९)।
सैन्यनिर्याणपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय सेदक-एक प्राचीन नरेश, जो नीतिके मार्गपर चलनेवाले।
१५१ से १५९ तक)। तथा अस्त्र और उपास्त्रोंकी विद्यामें निपुण थे ( वन०
सैरन्ध्री-विराटनगरमें अज्ञातवासके समय द्रौपदीका गुप्त १९६ । २)। इन्होंने अपने पास आये हुए गुरुदक्षिणा
नाम तथा सैरन्ध्रीके कार्य एवं स्वरूपका वर्णन (विराट. याचक ब्राह्मणको राजा वृषदर्भके पास भेज दिया था
३ । १८-१९) (विशेष देखिये द्रौपदी)। (वन. १९६ । ४-६)।
सैसिरिन्ध्र-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५७)। सेनजित-(१) एक राजा, जिसे पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था ( उद्योग
सोदर्यवान्-जरासंधका ध्वजा-पताकासे मण्डित दिव्य
रथ, जिसे इन्द्रने उसके मारे जानेके बाद जोतकर अपने ४ । १३.)। (२) एक प्राचीन राजा । व्यासजीद्वारा इनके
अधिकारमें कर लिया था। उसमें दो महारथी योद्धा एक शोकयुक्त उद्गारोंका वर्णन ( शान्ति० २५ । १४-२८)।
साथ बैठकर युद्ध कर सकते थे । इसमें बारंबार पुत्रशोकसे दुखी हुए सेनजित्का एक ब्राह्मणके साथ संवाद (शान्ति. १७४ अध्याय)।
शत्रुओंपर आघात करनेकी सुविधा थी। यह दर्शनीय तथा
दुर्जय था । इसी रथपर आरूढ़ होकर इन्द्रने निन्यानबे सेनानी ( सेनापति )-धृतराष्ट्रका एक पुत्र ( देखिये
दानवोंका वध किया था । इसके ध्वज आदिकी विशेषतासेनापति)।
का वर्णन (समा० २४ । १२-२२)। यह रथ इन्द्रसे सेनापति ( सेनानी )-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक
उपरिचर वसुको, वसुसे राजा बृहद्रथको और बृहद्रथसे (आदि० ६७ । ९७, आदि. ११६ । ९)।
जरासंधको प्राप्त हुआ था ( सभा० २४ । ४८)। भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म०६४ । ३२)। सेनामुख-सेनाविशेष । पत्तिकी तिगुनी संख्याको सेनामुख साम
सोम-(१) चन्द्रमा । इनके सत्ताईस स्त्रियाँ थीं
)
(आदि. ६६ । १६)। सप्तर्षियोंद्वारा पृथ्वी-दोहनके कहते हैं (आदि० २ । २०)।
समय ये बछड़ा बने थे (द्रोण० ६९ । २३)। (विशेष सेनाविन्दु-(१) एक क्षत्रिय राजा, जो 'तुहुण्ड' नामक
देखिये चन्द्रमा ।) (२) भानु नामक अनिकी तीसरी पत्नी दैत्यके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । १९-२०)।
निशाके गर्भसे उत्पन्न दो पुत्रों से एक । इनके दूसरे भाईका यह द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था (आदि०१८५ । ९)।
नाम अग्नि है । इनकी बहिनका नाम रोहिणी है । इनके अर्जुनने उत्तर-दिग्विजयके अवसरपर उलूकराजके
वैश्वानर आदि पाँच भाई और हैं (वन० २२१ । १५)। साथ इसपर आक्रमण करके इसे राज्यच्युत किया था (सभा० २७ । १०)। पाण्डवोंकी ओरसे इसे रण
सोमक-(१) सोमकवंशी क्षत्रियोंका समुदाय (आदि० निमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था ( उद्योग.
१२२ । ४०)। (२) एक प्राचीन राजा, जो यम४ । १३)। इसका दूसरा नाम क्रोधहन्ता था। यह
सभामें रहकर सूर्यपुत्र यमकी उपासना करते हैं (सभा० श्रीकृष्ण एवं भीमसेनके समान पराक्रमी माना जाता
८।८)। ये पाञ्चालदेशके प्रसिद्ध दानी राजा थे। था (उद्योग० १७१। २०-२१)। इसके रथके घोड़ोंका
इनके पिताका नाम सहदेव था (वन० १२५ । २६)। वर्णन (द्रोण. २३ । २५-२६)। इसके मरनेकी
सौ पुत्रोंकी प्राप्तिके लिये, अपने इकलौते पुत्रकी बलि चर्चा (कर्ण०६ । ३२) । (२) पाण्डवदलका देकर, इनके द्वारा यज्ञका सम्पादन और पुत्रोकी प्राप्ति एक पाञ्चाल योद्धा । कर्णद्वारा इसका वध (कर्णः (वन० १२८ । २-७)। इनका अपने पुरोहितके साथ ४८ । १५)।
समान रूपसे नरक और पुण्य लोर्कोका भोग भोगकर
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सोमकीर्ति
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( ३९७ )
छूटना ( वन० १२८ । ११ - १८ ) । इन्होंने गोदान करके स्वर्ग प्राप्त किया था (अनु० ७६ । २५-२७ ) । इन्होंने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५ । ६३) ।
सौभद्र
गणना है । इनके तृप्त होनेसे सोम देवताकी तृप्ति होती है ( सभा० ११ । ४७-४८ ) । ये सभी पितर ब्रह्माजीकी सभामें उपस्थित हो प्रसन्नतापूर्वक उनकी उपासना करते हैं ( सभा० ११ । ४९ ) ।
सोमतीर्थ - ( १ ) कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक प्राचीन तीर्थ, जो जयन्तीमें है । वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यको राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है ( वन० ८३ । १९ ) । ( २ ) कुरुक्षेत्रकी सीमा के अन्तर्गत एक प्राचीन तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे सोमलोककी प्राप्ति होती है ( वन० ८३ । ११४-११५, १८५ ) । सोमदत्त - कुरुवंशी महाराज प्रतीपके पौत्र एवं वाह्रीकके पुत्र । इनके भूरि, भूरिश्रवा तथा शल नामके तीन पुत्र थे । ये अपने तीनों पुत्रोंके साथ द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे ( आदि० १८५ । १४-१५) । युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें भी इनका शुभागमन हुआ था ( सभा० ३४ । ८ ) | देवकी के स्वयंवर के समय शिनिके साथ इनका बाहुयुद्ध तथा शिनिका इन्हें पटककर लात मारना एवं इनकी चुटिया पकड़ना ( द्रोण० १४४ । ११ - १३ ) । शिनिके छोड़ देनेपर इनकी तपस्या और बदला लेनेके लिये वर एवं पुत्र की प्राप्ति ( द्रोण० १४४ । १५-१९ ) । सात्यकिके साथ युद्धमें इनका पराजित होना ( द्रोण ० १५६ । २१-२९ )। सात्यकि एवं भीमसेन के प्रहार से मूर्छित होना ( द्रोण० १५७ । १०-११ ) । सात्यकिद्वारा इनका वध ( द्रोण० १६२ । ३३ ) । इनके शरीरका दाह-संस्कार ( स्त्री० २६ । ३३ ) । धृतराष्ट्रद्वारा इनका श्राद्ध ( आश्रम ० ११ । १७ ) । व्यासजीके आवाहन करनेपर कुरुक्षेत्र में मरे हुए कौरव वीरोंके साथ ये भी गङ्गाजलसे प्रकट हुए थे ( आश्रम ० ३२ । १२ ) । महाभारतमें आये हुए सोमदत्त के नाम-बाहीक बाह्रकात्मज, कौरव, कौरवेय, कौरव्य, कुरुपुङ्गव आदि । सोमधेय - एक पूर्वभारतीय जनपद, जहाँके निवासियों को भीमसेनने पराजित किया था ( सभा० ३० । १० ) । सोमप- ( १ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७०)।
( २ ) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३४ ) | सोमपद - एक तीर्थ, जहाँ माहेश्वर पदमें स्नान करनेसे
अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है ( वन० ८४ । ११९ ) । सोमपा - सात पितरोंमेंसे एक । इनकी चार मूर्त पितरोंमें
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सोमकीर्ति - धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ६७ ।
९९; आदि० ११६ । ८ ) ।
है (अनु० १६५ । ३३ ) ।
सोमगिरि - एक पर्वत, जो सायं प्रातः स्मरण करने योग्य सोमश्रवा - एक तपस्यापरायण ऋषि, जो श्रुतश्रवाके पुत्र थे । इनको पुरोहित बनानेके लिये जनमेजयकी इनके पितासे प्रार्थना ( आदि० ३ । १३-१५ ) । ये सर्पिणीके गर्भ से उत्पन्न, तपस्वी और स्वाध्यायशील थे । ब्राह्मणको अभीष्ट वस्तु देनेका इनका गुप्त नियम था । जनमेजय इनके नियमको स्वीकार करके इन्हें अपने साथ ले गये (आदि० ३ | १६-२० ) । सोमा - एक अप्सरा, जिसने अर्जुनके जन्मोत्सवमें आकर नृत्य किया था ( आदि० १२२ । ६१ ) । सोमाश्रम - एक तीर्थ, जिसकी यात्रा करनेसे मनुष्य इस भूतलपर पूजित होता है ( वन० ८४ । १५७ ) । सोमाश्रयायण - गङ्गातटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ । एकचक्रासे पाञ्चाल जाते समय यहाँ पाण्डवोंका आगमन हुआ था । यहाँ स्त्रियोंके साथ चित्ररथ ( गन्धर्व ) जलक्रीड़ा करता था, जो अर्जुनसे पराजित हुआ ( आदि० १६९ । ३-३३)।
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सौगन्धिक- कुबेरका एक कानन, जिसकी सुगन्धका भार लेकर समीरण कुबेरसभामें धनाध्यक्षकी सेवा करता है ( सभा० १० । ७ ) । सौगन्धिकवन - एक तीर्थभूत वन, ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, किन्नर और बड़ेबड़े नाग निवास करते हैं । वहाँ प्रवेश करते ही मानव सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ( वन० ८४ । ४-६ )। सौति - रोमहर्षण - पुत्र उग्रश्रवा, जिन्होंने नैमिषारण्यवासी शौनक आदि ऋषियोंको महाभारत श्रवण कराया था ( आदि० १।५ ) ।
सोमवर्चा - ( १ ) एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३३) । (२) एक सनातन विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३६ ) ।
सौदास - एक - एक इक्ष्वाकुवंशी राजा ( देखिये कल्माषपाद सौप्तिक - महाभारतका एक प्रमुख पर्व ।
सौभ - राजा शाल्वका आकाशचारी विमान, जिसे सौभनगर भी कहा जाता था । भगवान् श्रीकृष्णने चक्रद्वारा इसका विध्वंस किया था ( वन० २२ । ३३-३४ ) । सौभद्र - दक्षिण समुद्रके निकटका एक तीर्थ । पाँच नारीतीर्थोंमेंसे एक (आदि० २१५ । १ - ३ ) । वहाँ तीर्थयात्राके लिये अर्जुनका आगमन और शापवश ग्राह बनकर रहनेवाली वर्गा ( अप्सरा ) का उनके द्वारा उद्धार ( आदि०
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सौभपति
( ३९८ )
स्तम्बमित्र
पाह
२१५ । ८-१४ ) । युधिष्ठिरका यहाँ आगमन और माता स्वीकार करना (वन० २३० । १५)। माताअर्जुनके पराक्रमको सुनकर प्रसन्नताका अनुभव करना ओंको पीडाकारक ग्रह बननेका आदेश (वन० २३० । (वन० ११८ । ४-७)।
२२) । इनके द्वारा स्वाहा देवीका सत्कार (वन० सौभपति-शाल्वराज ( आदि० १०२ । ६१ ) ।
२३१ । ५-६)। रुद्रदेवके साथ इनकी भद्रवट-यात्रा ( देखिये शाल्व)
(वन० २३११५४)। मारुतका स्कन्दकी रक्षाका भार सौभर-पाञ्चजन्य नामक पितरोंके लिये उत्पन्न किये हुए पाँच
स्वीकार करना ( वन० २३१ । ५६ ) । इनके द्वारा पुत्रों से एक । इनकी उत्पत्ति वर्चाके अंशसे हुई थी
महिषासुरका वध ( वन० २३१ । ९६ )। इनके (वन० २२० । ६-९)।
प्रसिद्ध नामोंका वर्णन (वन० २३२ । ३-९)। इनकी
उत्पत्तिकी कथा (शल्य० ४४ अध्याय )। इनका सौमदत्ति-सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा ( विशेष देखिये
अभिषेक और इनके महापार्षदोंके नाम-रूप आदिका भूरिश्रवा)।
वर्णन (शल्य० ४५ अध्याय)। इनके द्वारा तारकासुर, सौम्याक्षद्वीप-एक द्वीपका नाम ( सभा० ३८ । २९ के
महिषासुर, त्रिपाद और हृदोदरका वध ( शल्य. बाद दा० पाठ)।
४६ । ७३-७५)। इनके द्वारा बाणासुरकी पराजय और सौरभेयी-एक अप्सरा, जो वर्गाकी सखी है (आदि० क्रौञ्च-पर्वतका विदारण ( शल्य. ४६ । ८३-८४ )।
२१५ । २०)। यह ब्राह्मणके शापसे ग्राह' भावको इनके द्वारा तारकके पुत्र और उसके छोटे भाईका वध प्राप्त हुई थी (आदि० २१५ । २३ )। अर्जुनद्वारा (शल्य. ४६ । ९०-९१ )। भगवान् शंकरने इन्हें इसका ग्राह-योनिसे उद्धार हुआ (आदि० २१६ । २१)। भूतोका श्रेष्ठ राजा बनाया (शान्ति. १२२ । ३२)। यह कुबेरकी सभामें उनकी सेवाके लिये उपस्थित होती है हिमालयपर शक्ति गाड़ना और उसे उखाड़नेकी घोषणा (सभा० १० । ११)।
करना (शान्ति० ३२७ । ९-११)। इनकी उत्पत्तिका सौवीर-सिन्धु अथवा उससे लगा हुआ देश, जहाँका
वर्णन तथा इनके विभिन्न नामोंका कारण ( अनु० ८५ । राजा विपुल अर्जुनके हाथसे मारा गया था (आदि. ६८-८२ ) । इनके द्वारा तारकासुरके वधका पुनर्वर्णन १३८ । २०-२२)।
( अनु. ८५ । १६४ )। इनकी उत्पत्तिके प्रसङ्गका सौवीरी-राजा पूरुके पौत्र एवं प्रवीरके पत्र मनस्यकी पुनः उल्लेख (अनु० ८६ । ५-१४) । इनके देवपत्नी ( आदि० ९४ । ५-७)।
सेनापति-पदपर अभिषेकका दुबारा वर्णन ( अनु० ८६ । सौशल्य-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४०)।
२८ )। इनके द्वारा तारकासुरके वधकी पुनः चर्चा
( अनु० ८६ । २९ )। इनका धर्म-सम्बन्धी रहस्य सौश्रुति-त्रिगर्तराज सुशर्माका भाई, जिसका अर्जुनके साथ ।
(अनु० १३४ । ३-७)। युद्ध और उनके द्वारा इसका वध (कर्ण०२७।३-२२)।
स्कन्दग्रह-मातृकागण और पुरुषग्रहोंका समुदाय ( वन० सौहृद-एक दक्षिणभारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५९)।
२३० । ४३-४४)। स्कन्द-देव-सेनापति कुमार कार्तिकेय, जो खाण्डव-वनके युद्ध में
स्कन्दापस्मार-स्कन्दके शरीरसे उत्पन्न हुआ प्रसव-ग्रह शक्ति लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुनसे युद्ध करनेके लिये आये
(वन० २३० । २६)। थे (आदि० २२६ । ३३)। इनका प्राकट्य और
स्कन्ध-धृतराष्ट्र के कुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके स्कन्द नाम पड़नेका कारण (वन० २२५ । १६-१८)।
सर्पसत्रमें दग्ध हो गया ( आदि० ५७ । १८)। इनका क्रौञ्च पर्वतको विदीर्ण करना ( वन० २२५।। ३३) । इनका मातृकाओंको माता स्वीकार करना स्कन्धाक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५। ६०)। ( वन० २२६ । २४ ) । इनके शरीरसे विशाखकी स्तनकुण्ड-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे वाजपेययज्ञका उत्पत्ति ( वन० २२७ । १६-१७ )। पराजित हुए फल मिलता है (वन० ८४ । १५२)। देवताओंसहित इन्द्रको इनका अभयदान देना (वन०
स्तनपोषिक-एक दक्षिणभारतीय जनपद ( भीष्म
न २२७ । १८)। इनके पार्षदोंका वर्णन (वन० २२८ अध्याय )। इनका इन्द्रके साथ वार्तालाप, इन्द्रद्वारा देव-सेनापति-पदपर अभिषेका देव-सेनाके साथ इनका
स्तनवाल-एक दक्षिणभारतीय जनपद (भीष्म०९।६३)। विवाह ( वन० २२९ अध्याय)। कृत्तिकाओंको माता स्तम्बमित्र-एक शार्ङ्गक, जो मन्दपाल ऋषिके द्वारा स्वीकार करना ( वन० २३० । ६ )। मातृगणोंको जरिता ( पक्षिणी ) के गर्भसे उत्पन्न हुआ था ( आदि०
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स्तुभ
स्वन
२२८ । १७)। अपने बड़े भाई जरितारिसे अपनी रक्षा- शिखण्डिनीको पुरुषत्वका दान ( उद्योग. १९२।९)। के लिये कहना ( आदि० २३९ । ४)। इसके द्वारा इसके लिये स्त्री ही बने रहनेके निमित्त कुबेरका शाप अग्निकी स्तुति ( आदि० २३१ । १२-१४)। अग्नि- (उद्योग. १९२ । ४५-४७)। कुबेरद्वारा शापका देवकी कृपासे खाण्डववनदाहके समय इसकी रक्षा अन्त बतलाया जाना ( उद्योग० १९२ । ५०)। (आदि० २३१ । २१)।
स्थूलकेश-एक प्राचीन ऋषि, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्तुभ-भानु नामक अग्निके छः पुत्रोंमेंसे एक (वन० लगे रहते थे (आदि० ८ । ५)। इनके द्वारा जंगलमें २२१ । १५)।
अनाथ पड़ी हुई प्रमद्वरा' का पालन-पोषण, नामकरण स्त्रीपर्व-महाभारतका एक प्रधान पर्व ।
एवं महर्षि रुरुको वाग्दान (आदि.८।९-१६)। स्त्रीराज्य-प्राचीन कालका एक राज्य, जहाँके नरेश युधिष्ठिर- स्थूलवालुका-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी
के राजसूय-यज्ञमें आये थे ( वन० ५१ । २५)। पीते हैं (भीष्म० ९ । १५)। स्त्रीविलापपर्व-स्त्रीपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय स्थूलशिरा-एक ऋषि, जो राजा युधिष्ठिरकी सभामें १६ से २५ तक)।
विराजते थे ( समा० ४। ११) । राजा युधिष्ठिरका
इनके रमणीय आश्रमपर जाना (वन० १५५।८)। स्थण्डिलेयु-पूरुके तीसरे पुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी
इनका हस्तिनापुरमें दूत बनकर जाते हुए श्रीकृष्णसे मार्गमें नामक अप्सराके गर्भसे उत्पन्न एक महाधनुर्धर पुत्र
भेंट करना ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दा० पाठ)। (आदि० ९४ । ८-१०)।
ये पूर्वकालमें मेरुके पूर्वोत्तर भागमें तपस्या करते थे। स्थाणु-(१)ब्रह्माजीके मानसपुत्र, जो मरीचि आदि छः पुत्रों
इनकी वायुपर प्रसन्नता और वृक्षोंपर रुष्ट होकर उन्हें से भिन्न थे। ग्यारहों रुद्र इन्हींके पुत्र थे (आदि०
शाप देना (शान्ति. ३४२ । ५९)। ये शरशय्यापर ६६ । १-३)। (२) ब्रह्माजीके पौत्र एवं स्थाणुके
पड़े हुए भीष्मजीको देखने के लिये आये थे (अनु. पुत्र, जो ग्यारह रुद्रों से एक हैं (आदि०६६ । ३)। २६ । ५)। (३) एक महर्षि, जो इन्द्रकी सभामें विराजते थे (सभा० ७ । १७)।
स्थूलाक्ष-एक दिव्य महर्षि, जो शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मस्थाणुवट-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक प्राचीन तीर्थ,
जीको देखनेके लिये आये थे (अनु. २६।७)। वहाँ स्नान करके रातभर निवास करनेवाला मनुष्य रुद्र- स्मृति-स्मरणकी अधिष्ठात्री देवी, जो कुमार महासेनकी लोकमें जाता है (वन० ८३ । १७८-१७९)।
सेनाके आगे-आगे चलती थीं (शल्य. ४६ । ६४)। स्थाणुस्थान-महात्मा स्थाणुका मुञ्जवट नामक स्थान, जहाँ स्यमन्तक-एक दिव्य मणि, जो भगवान् सूर्यन सत्राजितको एक रात रहनेसे गणपति-पदकी प्राप्ति होती है (वन०
दी थी। सत्राजित् और प्रसेनजित्के यहाँ जो स्यमन्तक८३ । २२ )। सरस्वतीके पूर्वतटपर जो वसिष्ठजीका मणि थी, उससे प्रचुरमात्रामें सुवर्ण झरता रहता था आश्रम है, यहीं भगवान् स्थाणुने तप, सरस्वतीका (समा० १४ । ६० के बाद दा० पाठ)। (कृतवर्माके पूजन और यज्ञ करके तीर्थकी स्थापना की थी,
षडयन्त्रसे यह मणि चुरायी गयी और सत्राजित् मार डाले इसलिये यह स्थान स्थाणुतीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ।
गये) सात्यकिने इस घटनाका भगवान् श्रीकृष्णको स्मरण यही देवताओंने स्कन्दका सेनापतिके पदपर अभिषेक कराया था (मौसक० ३।२१)। किया था (शल्यः ४२ । ४-७)।
स्यूमरश्मि-एक प्राचीन ऋषि, जो गायके भीतर प्रविष्ट स्थिर-मेरुद्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे एक। हुए थे । इनका कपिलके साथ संवाद तथा इनके द्वारा दूसरेका नाम अतिस्थिर था (शल्य० ४५।४८)।
यज्ञकी अवश्यकर्तव्यताका निरूपण (शान्ति. २६८
अध्याय ) । प्रवृत्ति-निवृत्ति मार्गके विषयमें स्यूमरश्मि स्थूण-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेसे एक (अनु० ।।
और कपिलका संवाद (शान्ति. २६९ अध्याय)।
इनके संवादमें-चारों आश्रमोंमें उत्तम साधनोंके द्वारा स्थूणकर्ण-एक ऋषि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका आदर
ब्रह्मकी प्रासिका कथन (शान्ति० २.. अध्याय)। करते थे (वन० २६ । २३)। स्थूणाकर्ण एक यक्ष, जिसने शिखण्डीको अपना पुरुषत्व सज-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३३)। दिया था। इसका शिखण्डिनीका मनोरथ पूर्ण करनेकी स्वक्ष-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ४५)। प्रतिज्ञा करना (उद्योग० १९१ । २४-२५)। इसके द्वारा खन-सत्यके पुत्र । ये रोगकारक अग्नि हैं । इनसे पीड़ित
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स्वयंजात
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( ४०० )
होकर लोग वेदनासे स्वयं कराह उठते हैं । स्वन ( चीत्कार ) करने में कारण होनेसे इनका नाम हुआ (वन० २१९ | १५ ) ।
'स्वन'
स्वयंजात- विवाहिता पत्नीसे अपने द्वारा उत्पन्न पुत्र (बन्धुदायाद ) ( आदि० ११९ । ३३ ) ।
स्वयंप्रभा - एक अप्सरा, जिन्होंने अर्जुनके स्वागतमें इन्द्रभवनमें नृत्य किया था ( वन० ४३ । २९ ) ।
स्वयंवर - (१) आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
१८३ से १९१ तक ) | ( २ ) राजाओंकी एक सभा, जिसमें राजकन्याएँ स्वयं अपने लिये वरका वरण करती हैं ( वन० ५४ । ८ ) ।
स्वराष्ट्र - एक भारतीय जनपद ( भीम० ९ । ४८ ) । स्वरूप - एक दैत्य, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० ९ । १४ ) । स्वर्ग-पुण्य कर्मों से प्राप्त होनेवाला देवलोक, जिसमें इन्द्रलोक प्रधान है। राजा ययाति स्वर्गलोकमें जाकर देवभवनमें निवास करते थे । वहाँ देवताओं, साध्यगणों, मरुद्गणों तथा वसुओंने उनका बड़ा सत्कार किया था। वहाँ इन्द्रके साथ बातचीत करनेका उन्हें अवसर मिला था ( आदि० ८७ । १-३ ) । स्वर्गलोकमें जो रमणीय इन्द्रपुरी है, वह सौ योजन विस्तृत और एक हजार दरबाजसे सुशोभित है । वहाँ ययातिने एक हजार वर्षोंतक निवास किया था। वहीं नन्दनवन है, जहाँ इच्छानुसार रूप धारण करके अप्सराओंके साथ विहार करते हुए वे दस लाख वर्षोंतक रहे ( आदि० ८९ । १६,१९ ) । साधु पुरुष स्वर्गलोकके सात बड़े दरवाजे बतलाते हैं, जिनके द्वारा प्राणी इसमें प्रवेश करते हैं-तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और समस्त प्राणियोंके प्रति दया ( आदि० ९० । २२ ) । स्वर्ग में जो इन्द्रकी सभा है, उसकी लंबाई डेढ़ सौ और चौड़ाई सौ योजनकी है ! वह आकाश में विचरनेवाली और इच्छा के अनुसार मन्द या तीव्र गति से चलनेवाली । उसकी ऊँचाई भी पाँच योजन है । उसमें बुढ़ापा, शोक और थकावटका प्रवेश नहीं है । वहाँ भय नहीं है। वह मङ्गलमयी और दिव्य शोभासे सम्पन्न है । उसमें ठहरनेके लिये सुन्दर-सुन्दर महल और बैठने के लिये उत्तमोत्तम सिंहासन बने हुए हैं। वह रमणीय सभा दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित है । वहाँ इन्द्राणी शची और स्वर्गलोककी लक्ष्मी के साथ देवराज इन्द्र सर्वश्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान होते हैं । गन्धर्व और अप्सराएँ नृत्य, वाद्य एवं गीतोंद्वारा उनका मनोरञ्जन करती हैं ( सभा० ७ अध्याय ) । स्वर्गमें राजसूय के प्रभावसे राजा हरिश्चन्द्रको सर्वोत्तम सम्पत्ति प्राप्त
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स्वर्ग
हुई थी। उसे देखकर राजा पाण्डु चकित हो गये थे और उन्होंने नारदजीके द्वारा युधिष्ठिर के पास राजसूय यश करने के लिये संदेश भेजा था ( सभा० १२ । २३२६ ) । सत्यभामाने श्रीकृष्णके साथ स्वर्गमें जाकर वहाँका वैभव देखा था और वहाँ उन्हें देवमाता अदितिका आशीर्वाद प्राप्त हुआ था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८११-८१२ ) । अर्जुनने स्वर्गलोकको जाते समय ऊपर जाकर सहस्रों अद्भुत विमान देखे । वहाँ न सूर्य प्रकाशित होते हैं न चन्द्रमा । अग्निकी प्रभा भी वहाँ काम नहीं देती है । स्वर्गके निवासी अपने पुण्य कर्मोंसे प्राप्त हुई अपनी ही प्रभासे प्रकाशित होते हैं । स्वर्गद्वारपर अर्जुनको सुन्दर विजयी गजराज ऐरावत खड़ा दिखायी दिया, जिसके चार दाँत बाहर निकले थे ( वन ० ४२ । ४० ) । सिद्धों और चारणोंसे सेवित रमणीय अमरावतीपुरी सभी ऋतुओंके फूलों और पुण्यमय वृक्षोंसे सुशोभित है । अप्सराओंसे सेवित नन्दनवनकी शोभा अद्भुत है, जो तपस्या और अग्निहोत्र से दूर रहे हैं, जिन्होंने युद्धमें पीठ दिखा दी है, वैसे लोग पुण्यात्माओंके उस लोकका दर्शन नहीं कर सकते हैं । जो यज्ञ, व्रत, वेदाध्ययन, तीर्थस्नान और दान आदि सत्कर्मों से वञ्चित हैं, शराबी, गुरुपत्नीगामी, मांसाहारी तथा दुरात्मा हैं, वे भी उस दिव्यलोकका दर्शन नहीं पा सकते ! देवताओं, सिद्धों और महर्षियोंने वहाँ अर्जुनका स्वागत-सत्कार किया । अप्सराओंने नृत्य और गीतोंद्वारा उनका मनोरञ्जन किया ( वन० ४३ अध्याय ) । जिसे स्वर्लोक कहते हैं, वह यहाँसे बहुत ऊपर है । वहाँ पहुँचने के लिये ऊपरको जाया जाता है; इसलिये उसका एक नाम ऊर्ध्वग भी है। वहाँ जानेके लिये जो मार्ग है, वह बहुत उत्तम है। वहाँके लोग सदा विमानोंपर विचरा करते हैं । जिन्होंने तपस्या नहीं की है, बड़े-बड़े यज्ञद्वारा यजन नहीं किया है तथा जो असत्यवादी एवं नास्तिक हैं, वे उस लोकमें नहीं जा पाते हैं । धर्मात्मा, मनको वशमें रखनेवाले, शम-दमसे सम्पन्न, ईर्ष्यारहित, दान-धर्मपरायण तथा युद्धकला में प्रसिद्ध शूरवीर मनुष्य ही वहाँ सब धर्मो में श्रेष्ठ इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहरूपी योगको अपनाकर सत्पुरुषद्वारा सेवित पुण्यवानोंके लोकोंमें जाते हैं । वहाँ देवता, साध्य, विश्वेदेव, महर्षिगण, याम, धाम, गन्धर्व तथा अप्सरा- इन सब देवसमूहों के अलग-अलग अनेक प्रकाशमान लोक हैं, जो इच्छानुसार प्राप्त होनेवाले भोगों से सम्पन्न, तेजस्वी तथा मङ्गलकारी हैं। स्वर्गमें तैंतीस हजार योजनका सुवर्णमय एक बहुत ऊँचा पर्वत है, जो मेरुगिरिके नामसे विख्यात है। वहीं देवताओंके
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स्वर्गतीर्थ
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( ४०१ )
नन्दन आदि पवित्र उद्यान तथा पुण्यात्मा पुरुषोंके विहारस्थल हैं। वहाँ किसीको भूख-प्यास नहीं लगती, मनमें कभी ग्लानि नहीं होती, गर्मी और जाड़ेका कष्ट भी नहीं होता और न कोई भय ही होता है । वहाँ कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जो घृणा करनेयोग्य एवं अशुभ हो । वहाँ सब ओर मनोरम सुगन्ध, सुखदायक स्पर्श तथा कानों और मनको प्रिय लगनेवाले मधुर शब्द सुननेमें आते हैं। स्वर्गलोक में न शोक होता है, न बुढ़ापा । वहाँ थकावट तथा करुणाजनक विलाप भी श्रवणगोचर नहीं होते । स्वर्गलोक ऐसा ही है। अपने सत्कर्मों के फलरूप ही उसकी प्राप्ति होती है । मनुष्य वहाँ अपने किये हुए पुण्यकर्मोंसे ही रह पाते हैं। स्वर्गवासियोंके शरीर में तैजस तत्वकी प्रधानता होती है । वे शरीर पुण्यकर्मोंसे ही उपलब्ध होते हैं। माता-पिता के रजोवीर्यं से उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। उन शरीरोंमें कभी पसीना नहीं निकलता, दुर्गन्ध नहीं आती तथा मल-मूत्रका भी अभाव होता है । उनके कपड़ोंमें कभी मैल नहीं बैठती है । स्वर्गवासियोंकी जो दिव्य ( दिव्य कुसुमकी ) मालाएँ होती हैं, वे कभी कुम्हलाती नहीं हैं। उनसे निरन्तर दिव्य सुगन्ध फैलती रहती है तथा वे देखने में भी बड़ी मनोरम होती हैं। स्वर्गके सभी निवासी ऐसे ही विमानोंसे सम्पन्न होते हैं । जो अपने सत्कमद्वारा स्वर्गलोकपर विजय पा चुके हैं, वे वहाँ बड़े सुख से जीवन बिताते हैं । उनमें किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं होती, वे कभी शोक तथा थकावटका अनुभव नहीं करते एवं मोह तथा मात्सर्य ( द्वेषभाव ) से सदा दूर रहते हैं। अपने किये हुए सत्कर्मों का जो फल होता है, वही स्वर्ग में भोगा जाता है। वहाँ कोई नवीन कर्म नहीं किया जाता । अपना पुण्यरूप मूलधन गँवानेसे ही वहाँके भोग प्राप्त होते हैं ( वन० २६१ । २ - १६२८ ) । युधिष्ठिरके द्वारा स्वर्गलोकका दर्शन (स्वर्गा० ४ अध्याय) । स्वर्गतीर्थ - एक तीर्थ, जो नैमिषारण्य में है । यहाँ एक मासतक पितरोंको जलाञ्जलि देनेसे पुरुषमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है (अनु० २५ । ३३)। स्वर्गद्वार-कुरुक्षेत्र की सीमामें स्थित एक प्राचीन तीर्थ, जिसके सेवन से मनुष्य स्वर्गलोक पाता और ब्रह्मलोक में जाता है ( वन० ८३ | १६७ ) । स्वर्गमार्गतीर्थ - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य
ब्रह्मलोक में जाता है (अनु० २५ । ६१ ) । स्वर्गारोहणपर्व - महाभारतका एक प्रमुख पर्व । स्वर्णग्रीव - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७५ ) । स्वर्णविन्दु - एक तीर्थ, जिसमें स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्ग में • जाता है ( अनु० २५ । ९)।
स्वर्भानवी स्वर्भानु की पुत्री, पुरूरवाके पुत्र आयुकी पत्नी । नहुष आदि पाँच पुत्रों की माता (आदि० ७५ | २६ स्वर्भानु-एक विख्यात दानक, जो दनुके गर्भ से कश्यपद्वारा उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६५ | २४ ) | यह महान्
म० ना० ५१
स्विष्टकृत्
अमर उग्रसेन के रूप में पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था (आदि ० ६७ । १२-१३ ) । यह प्राचीनकालमें पृथ्वीका शासक था; परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा ( शान्ति० २२७ । ५० ) । स्वस्तिक
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१
गिरिव्रजनिवासी एक नाग ( सभा०
२१ । ९ ) । यह वरुण सभामें रहकर उनकी उपासना करता है ( सभा० ९ । ९ ) | ( २ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६५ ) । स्वस्तिपुर तीर्थ कुरुक्षेत्र की सीमा में स्थित एक प्राचीन तीर्थ, जिसकी परिक्रमा करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ( वन० ८३ | १७४ )। स्वस्तिमती - स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य ०४६ । १२ ) । स्वस्त्यात्रेय - एक प्राचीन महर्षि, जो इन्द्रकी सभा में विराजते
हैं ( सभा० ७ । १० के बाद दा० पाठ ) । ये दक्षिण दिशामें निवास करनेवाले ऋषि हैं (शान्ति० २०८ | २८ ) । स्वाती सत्ताईस नक्षत्रोंमेंसे एक, जो इस नक्षत्रमें अपनी
अधिक-से-अधिक प्रिय वस्तुका दान करता है, वह मनुष्य शुभलोकोंमें जाता है तथा महान् यशका भागी होता है ( अनु० ६४ । १८ ) । इस नक्षत्र के योग में पितरोंकी पूजा करनेवाला वाणिज्य से जीवन निर्वाह करता है ( अनु० ८९ । ७ ) । चान्द्रव्रतमें स्वाती नक्षत्र में चन्द्रमाके दाँतोंकी भावना करके उनकी पूजा करनेका विधान है ( अनु० ११० । ७ ) । स्वायम्भुवमनु - इनके द्वारा ऋषियोंको धर्मका उपदेश ( शान्ति० ३६ अध्याय ) । प्रजाओंका इन्हें राजा स्वीकार करना ( शान्ति० ६८ । २३ – २९ ) । इनका राजा होकर शत्रुओंका दमन करना ( शान्ति० ६८ । ३१-३२ ) ।
स्वारोचिष - एक मनु, जिन्हें ब्रह्माजीने सात्वत-धर्मका उपदेश दिया था । इन्होंने अपने पुत्र शङ्खपदको इस धर्मकी शिक्षा दी थी ( शान्ति० ३४८ । ३६-३७ ) । स्वाहा - ( १ ) अग्निकी पत्नी ( आदि० १९८ । ५ ) । ये ब्रह्माजी की सभा में उनकी सेवा के लिये उपस्थित होती हैं ( सभा० ११ । ४२ ) । इनका मुनि-पत्नियोंके रूपमें अग्निके साथ समागम ( वन० २२५ । ७ ) । गरुडीरूप धारण करना ( वन० २२५ । ९ ) । इनका छः बार समागम करके अग्निके वीर्यको सरकंडों में गिराना ( वन० २२५ | १५ ) । इनका अग्निदेवके साथ सदा रहने के लिये स्कन्दके सम्मुख अपना अभिप्राय प्रकट करना ( वन० २३१ । ३-४ ) । स्कन्दके अभिषेकके समय स्वाहा देवी भी उपस्थित थीं ( शल्य० ४५ । १३ ) । ( २ ) बृहस्पतिकी पुत्री, जो अधिक क्रोधवाली है । यह सम्पूर्ण भूर्तों में निवास करती है । इसका पुत्र 'काम' नामक अग्नि है ( बन० २१९ । २२-२३ ) । स्विष्टकृत् - ( १ ) प्रत्येक गृह्य कर्म में अग्निके लिये सदा घीकी ऐसी धारा दी जाती है, जिसका प्रवाह उत्तराभि
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( ४०२ )
हंस
होती है, अतएव
मुख हो; इसीलिये वह अभीष्ट साधक इस उत्कृष्ट अग्निका नाम 'स्विष्टकृत् ' । इसे बृहस्पतिका छठा पुत्र समझना चाहिये ( वन० २१९ । २१ ) । ( २ ) मनुके द्वितीय पुत्र विश्वपति नामक अग्नि, मनुकी कन्या रोहिणी भी स्विष्टकृत् मानी गयी है । इन्हींके प्रभाव से हविष्य की सुन्दरतासे आहुति - क्रिया सम्पन्न होती है; अतः वे 'स्विष्टकृत् ' कहलाते हैं (वन० २२१ । १७-१८ ) ।
( ह )
हंस - ( १ ) एक श्रेष्ठ पक्षी, कश्यपपत्नी ताम्रा देवीकी पुत्री धृतराष्ट्र से हंस उत्पन्न हुए थे ( आदि ० ६६ । ५६-५८ ) । सुवर्णमय पंख भूषित एक हंसने नल और दमयन्ती के पास एक दूसरेके संदेशको पहुँचाकर उनमें अनुराग उत्पन्न किया था ( वन० ५३ । १९ - ३२ ) । सप्तर्षियोंने हंसरूप धारण करके भीष्मके निकट आकर उन्हें दक्षिणायनमें प्राणत्याग करनेसे रोका था ( भीष्म० ११९ । १०२ ) । एक हंस और काकका उपाख्यान ( कर्ण० ४१ । १४ – ७० ) । ( २ ) जरासंधका एक मन्त्री, जो डिम्भकका भाई था । इसे किसी भी अस्त्र-शस्त्रसे मारे न जानेका देवताओं द्वारा वर प्राप्त था ( सभा० १४ । ३७ ) । यह अपने भाई डिम्भककी मृत्युका समाचार सुनकर यमुनाजी में कूद पड़ा और मर गया ( सभा० १४ । ४२ ) । जरासंघको सलाह देनेके लिये ये ही दोनों भाई नीतिनिपुण मन्त्री थे ( सभा० १९ । २६ ) । भीमसेनके साथ युद्धका निश्चय हो जानेपर इसने अपने इन दोनों स्वर्गीय मन्त्रियों-कौशिक और चित्रसेनका - हंस और डिम्भकका स्मरण किया था ( सभा० २२ । ३२ ) । (३) जरासंध की सेनाका एक राजा, जो सत्रहवीं बारके युद्धमें बलरामजीद्वारा मारा गया था ( सभा० १४ । ४० ) । हंसकायन-क्षत्रियोंकी एक जाति, इस जातिके उत्तम कुलोत्पन्न क्षत्रिय भेंट लेकर युधिष्ठिर के राजसूययज्ञमें आये थे ( सभा० ५२ । १४ )।
हंसकूट - एक पर्वत, यहाँ पत्नियों सहित पाण्डुका आगमन हुआ था। इसे लाँघकर शतशृङ्ग पर्वतपर पहुँचे थे ( आदि० ११८ | ५० ) । इस पर्वतका शिखर श्रीकृष्णने द्वारकापुर में स्थापित किया था, जो साठ ताड़के बराबर ऊँचा और आधा योजन चौड़ा था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पा०, पृष्ठ ८१६ ) ।
हंसचूड़ - एक यक्ष, जो कुबेरकी सेवाके लिये उनकी सभा में उपस्थित रहता है ( सभा० १० । १७ ) । हंसज - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६८ ) । हंसपथ - एक देश, जहाँ के निवासी सैनिक द्रोणनिर्मित
गरुड़-व्यूहके ग्रीवाभागमें खड़े थे ( द्रोण० २० । ७ )। हंसप्रपतन तीर्थ- प्रयाग में स्थित एक त्रिलोकविख्यात तीर्थ,
जो गङ्गा तटपर अवस्थित है ( वन० ८५ । ८७ ) । हंसवक्त्र - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७५ ) ।
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हर
हंसिका - सुरभिकी पुत्री, जो दक्षिण दिशाको धारण करनेवाली है ( उद्योग० १०२ । ७-८ ) ।
हंसी - राजर्षि भगीरथकी एक यशस्विनी कन्या, जिसका हाथ उन्होंने कौत्स ऋषिके हाथमें दिया था ( अनु० १३७ । २६)।
हनुमान - ( केसरीकी पत्नी अञ्जना देवीके गर्भसे वायुद्वारा उत्पन्न महावीर मारुति ) इनका कदलीवनमें भीमसेनका मार्ग रोककर लेटना ( वन० १४६ । ६६-६७ ) । इनका भीमसेनके साथ संवाद ( वन० अध्याय १४७ से १५० तक ) । इनका भीमसेनको संक्षितमें श्रीरामचरित्र सुनाना ( वन० १४८ अध्याय ) । इनके द्वारा चारों युगों धर्मोका वर्णन ( वन० १४९ अध्याय ) । इनका भीमसेनको अपना विशाल रूप दिखाना ( वन० १५० । ३-४ ) । इनके द्वारा चारों वर्णोंके धर्मका प्रतिपादन ( वन० १५० । ३० - ३६ ) । इनके द्वारा राजधर्म
वर्णन ( वन० १५० । ३७-४९ ) । इनका भीमसेनके सिंहनादको अपनी गर्जनासे बढ़ाने तथा अर्जुनकी ध्वजापर स्थित होकर अपनी भीषण गर्जनाद्वारा शत्रुओंको डराने की बात कहकर भीमसेनको आश्वासन दे अन्तर्धान होना ( वन० १५१ ।१६ - १९ ) । इनका लंकासे लौटकर श्रीरामसे सीताका समाचार बताना ( वन० २८२ । १७५७) | इनके द्वारा धूम्राक्षका वध ( वन० २८६ । १४) । इनके द्वारा वज्रवेगका वध ( वन० २८७ । २६ ) । इनका दूत बनकर भरत के पास जाना और लौटकर श्रीरामको इसकी सूचना देना ( वन० २९१ । ६१-६२ ) । हन्यमान - एक दक्षिणभारतीय जनपद ( भीष्म० ९/६९ ) । हयग्रीव - ( १ ) नरकासुरके राज्यकी रक्षा करनेवाले चार असुरोंमेंसे एक, श्रीकृष्णद्वारा ही इसका वध होनेवाला था (सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ट ८०५ ) । श्रीकृष्णद्वारा हयग्रीवके मारे जाने की चर्चा ( उद्योग० १३० | ५० ) । ( २ ) विदेह वंशका एक कुलाङ्गार राजा ( उद्योग० ७४ । १५) । ( ३ ) एक प्राचीन राजर्षि, जो शत्रुओं पर विजय पा चुके थे, किंतु पीछे असहाय होने के कारण मारे गये । इन्होंने युद्धसे उत्तम कीर्ति पायी और अब स्वर्ग में आनन्द भोगते । इनका विशेष वर्णन (शान्ति० २४ । २३ – ३४ ) । हयज्ञान - अश्वसंचालनकी एक विद्या, जिससे घोड़ोंकी गति बहुत अधिक बढ़ जाती है तथा उनके गुण-दोष भी जाने जाते हैं (वन० ७७ । १७ ) । हयशिरा ( हयग्रीव ) भगवान्का एक अवतार | इनका विशेष वर्णन ( शान्ति० ३४७ अध्याय ) । हर - ( १ ) एक विख्यात दानव, जो दनुके गर्भसे कश्यपद्वारा उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६५ | २५ ) | यह राजा सुबाहुके रूपमें पृथ्वीपर पैदा हुआ था ( आदि ० ६७ । २३-२४ ) । ( २ ) महादेवजी, ये स्कन्दके अभिषेक में पधारे थे ( शल्य० ४५ । १० ) । 'हर'
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हरणाहरणपर्व
( ४०३ )
हलिक
ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक हैं ( शान्ति० २०८ । १९)। हरिश्चन्द्र-इक्ष्वाकुवंशी राजा त्रिशङ्खके पुत्र । इनकी माताका हरणाहरणपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय नाम सत्यवतो था (सभा० १२ । १० के बाद दा०
पाठ)। ये इन्द्रसभामें सम्मानपूर्वक विराजते हैं ( सभा० हरि-(१) रावणकी सेवामें रहनेवाले पिशाच तथा अधम
७ । १३)। ये बड़े बलवान् और समस्त भूपालोके राक्षसोका एक दल, जिसने वानरोंकी सेनापर धावा किया था
सम्राट थे । भूमण्डलके सभी नरेश इनकी आज्ञाका पालन (वन० २८५ । १-२) । (२) गरुड़के महाबली करनेके लिये सिर झुकाये खड़े रहते थे। इन्होंने अपने तथा यशस्वी वंशजों से एक (उद्योग० १०१ । १३)। एकमात्र जैत्र नामक रथपर चढकर अपने शस्त्रोंके प्रतापसे (३) घोड़ोंका एक भेद, जिसके गर्दनके बड़े-बड़े बाल
सातों द्वीपोंपर विजय प्राप्त कर ली थी। इन्होंने राजसूय और शरीरके रोयें सुनहरे रंगके हों, जो रंगमें रेशमी नामक यज्ञका अनुष्ठान किया था। इन्होंने याचकों के पीताम्बरके समान जान पड़ता हो, वह घोड़ा हरि कहलाता माँगनेपर उनकी माँगसे पाँचगुना अधिक धन दान किया है (द्रोण. २३ । १३)। (४) राजा अकम्पनका था । ब्राह्मणोंको धन-रत्न देकर संतुष्ट किया था। इसीलिये पुत्र, जो बलमें भगवान् नारायणके समान, अस्त्रविद्यामें ये अन्य राजाओंकी अपेक्षा अधिक तेजस्वी और यशस्वी पारङ्गत, मेधावी, श्रीसम्पन्न तथा युद्ध, इन्द्रके तुल्य हुए हैं तथा अधिक सम्मानपूर्वक इन्द्रसभामें विराजमान पराक्रमी था । यह युद्धक्षेत्रमें शत्रुओंके हाथ मारा गया होते हैं (सभा० १२ । ११-१८)। इनकी सम्पत्तिको था (द्रोण० ५२ । २७-२९) । इसकी मृत्युका वर्णन देखकर चकित हो स्वर्गीय राजा पाण्डुने नारदजीद्वारा ( शान्ति. २५६ । ८) । (५) एक असुर, जो युधिष्ठिरके पास राजसूययज्ञ करनेका संदेश भेजा था तारकाक्षका महाबली वीर पुत्र था। इसने तपस्याद्वारा (सभा० १२ । २३-२६)।इनके द्वारा मांस-भक्षणका ब्रह्माको प्रसन्न करके उनसे वरदान पाकर तीनों पुरोंमें निषेध (अनु० ११५। ६१)। ये सायं-प्रातःस्मरणीय मृत-संजीवनी बावलीका निर्माण किया था (कर्ण नरेश हैं ( अनु० १६५ । ५२)। ३३ । २७-३०)। (६) पाण्डवपक्षका एक योद्धा, जो हरिश्रावा-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी कर्णद्वारा मारा गया था (कर्ण० ५६ । ४९-५०)। पीते हैं (भीष्म०९।२८)। (७) स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५ । ६१)।
हरी-क्रोधवशाकी पुत्री, जिसने वेगवान् घोड़ों एवं वानरोंको (८) श्रीकृष्णका एक नाम तथा इस नामकी निरुक्ति
____ जन्म दिया तथा गायके समान पूँछवाले लंगूर भी इसी(शान्ति० ३४२ । ६८)।
के पुत्र कहे गये हैं (आदि०६६ । ६०, ६४)। हरिण-(१) ऐरावतकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्रमें दग्ध हो गया था (आदि० ५७ । ११-१२)।
हर्यश्व-(१) अयोध्याके राजा, जो महापराक्रमी, चतुर
ङ्गिणी सेनासे सम्पन्न, कोष-धन-धान्य तथा सैनिक शक्तिसे (२) बिडालोपाख्यानमें आये हुए नेवले का नाम (शान्ति० १३८ । ३१)।
समृद्ध थे। प्रजा इन्हें बहुत प्रिय थी । ब्राह्मणोंपर इनका
प्रेम था। ये प्रजावर्गके हित एवं संतानकी कामना रखते हरिणाश्व-एक प्राचीन नरेश, जिन्हें महाराज रघुसे खडकी प्राप्ति हुई थी और उन्होंने वह खड्ग शुनकको प्रदान
थे और शान्तभावसे तपस्यामें संलग्न रहते थे ( उद्योग किया था (शान्ति० १६६ । ७८-७९)।
११५ । १८-१९)। इनके पास ययातिकन्यासहित
गालवका आगमन (उद्योग० ११५ । २०-२१)। हरिताल-एक पर्वतीय धातु, जो संध्याकालीन बादलोंके
गालवको शुल्करूपमें दो सौ श्यामकर्ण घोड़े देकर इनका समान लाल रंगकी होती है (वन० १५८ । ९४)।
ययातिकन्या माधवीको एक संतान पैदा करनेके लिये पत्नी हरिद्रक-कश्यपवंशमें उत्पन्न एक प्रमुख नागराज
बनाना तथा माधवीके गर्भसे वसुमना नामक पुत्रकी प्राप्ति (आदि० ३५। १२)।
(उद्योग० ११६ । १६-१७)। पुत्रोत्पत्तिके बाद पुनः हरिपिण्डा-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका ( शल्य०४६ ।
माधवीको गालव मुनिको वापस देना ( उद्योग० ११६ । २४)।
२०)। इन्होंने जीवनमें कभी मांस नहीं खाया था हरिमेधा-एक प्राचीन राजर्षि, जिनके यज्ञके समान जनमेजयका यज्ञ बताया गया है ( आदि० ५५ । ३)।
(अनु० ११५ । ६७) । (२) काशिराज सुदेवके
पिता, जो वीतहव्यके पुत्रोंद्वारा मारे गये थे (अनु० इनकी कन्याका नाम ध्वजबन्ती था, जो पश्चिम दिशामें निवास करती थी ( उद्योग० ११० १३)।
३० । १०-११)। हरिबभ्र-एक जितात्मा एवं जितेन्द्रिय मनि, जो यजिकिर हर्ष-धमेके तीन श्रेष्ठ पुत्रों से एक, शेष दोके नाम शम और ___ सभामें विराजते थे (सभा०४।१६)।
काम हैं । हर्षकी पत्नीका नाम नन्दा है ( आदि. ६६ । हरिवर्ष-हेमकूटपर्वतके उत्तरमें विद्यमान एक वर्ष, जहाँ ३२-३३)।
उत्तरदिग्विजयके अवसरपर अर्जुन गये थे और उसे अपने हलधर-बलरामजीका एक नाम ( देखिये बलदेव)। अधीन करके बहुत-सा रत्न प्राप्त किये थे (सभा० २८। हलिक-कश्यपवंशमें उत्पन्न एक प्रमुख नागराज (आदि. ६ के बाद दा० पाठ)।
३५ । १५)।
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हलिमा
हलिमा शिशुकी सप्त मातृकाओंमेंसे एक ( वन० २२८ । १० ) ।
हलीमक - वासुकिकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था (आदि० ५७ । ५) । हवन-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक ( अनु० १५० | १३ )। हविध - एक प्राचीन नरेश, जिनका नाम सायं प्रातः स्मरणीय है (अनु० १६५ । ५८ ) ।
( ४०४ )
विर्घामा - मनुवंशी अन्तर्धामाके पुत्र । इनका पुत्र प्राचीनबर्हिके नामसे उत्पन्न होगा ( अनु० १४७ । २४ ) । हविःश्रवा - सोमवंशीय महाराज कुरुके वंशज धृतराष्ट्रके पुत्र ( आदि० ९४ । ५९ ) ।
हविष्मती - महर्षि अङ्गिराकी पाँचवीं कन्या, जिसके सान्निध्यमें हविष्यद्वारा देवताओंका यजन किया जाता है ( वन० २१८ । ६ ) ।
हविष्मान् - एक प्राचीन महर्षि, जो इन्द्रसभामें रहकर इन्द्रकी उपासना करते हैं ( सभा० ७ । १३ ) | हसन - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६७ ) । हस्तिकश्यप - एक प्राचीन ऋषि, जो पर्वतपर तप करते समय श्रीकृष्णके पास गये थे ( अनु० १३९ | ११ ) | ये उत्तर दिशाके निवासी हैं ( अनु० १६५ । ४६ ) । हस्तिपद - कश्यपवंश में उत्पन्न एक प्रमुख नागराज ( आदि० ३५ । ९ ) ।
हस्तिपिण्ड - कश्यप वंश में उत्पन्न एक प्रमुख नागराज ( आदि० ३५ | १४ )।
हस्तिभद्र - कश्यपवंश में उत्पन्न एक नाग उद्योग ० १०३ । १३ ) ।
हस्तिसोमा - भारतवर्ष की एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं ( भीष्म० ९ । १९ ) ।
हस्ती - ( १ ) सोमवंशीय महाराज कुरुके वंशज धृतराष्ट्रके पुत्र ( आदि ० ९४ । ५८ ) । ( २ ) चन्द्रवंशी राजा सुहोत्रके पुत्र । इनकी माता इक्ष्वाकुकुलकी कन्या सुवर्णा थी । इनकी भार्या त्रिगर्तराज की पुत्री यशोधरा थी, जिसके गर्भ से विकुण्ठन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । हस्तिनापुर नगर इन्होंने ही बसाया था ( आदि० ९५ । ३४-३५ ) ।
हाटक - हिमालय के उत्तरभागवर्ती एक देश, जो गुह्यकों का निवासस्थान है । उत्तरदिग्विजय के अवसरपर अर्जुन यहाँ गये और गुह्यकोंको समझा-बुझाकर अपने अधीन कर लिया ( सभा० २८ । ३-४ )।
हार - एक देश, यहाँके नरेशको नकुलने पश्चिम-दिग्विजयके समय आज्ञामात्रसे ही अपने अधीन कर लिया था ( सभा ० ३२ । १२-१३ ) । इस देशके नरेश युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें भेंट लेकर आये थे ( सभा० ५१ । ५४ ) । हारीत - एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरका विशेष सम्मान
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हिडिम्बवन
करते थे ( वन० २६ । २३ ) । ये शरशय्या पर पड़े हुए भीष्मको देखने के लिये आये थे ( शान्ति० ४७ । ७ )। इनके द्वारा संन्यास आश्रमका वर्णन ( शान्ति० २७८ अध्याय ) | हार्दिक्य - ( १ अश्वपति नामक दैत्यके अंश से उत्पन्न एक क्षत्रिय नरेश ( आदि० ६७ । १५ ) । इसे पाण्डवोंकी ओरसे रणनिमन्त्रण भेजनेका निश्चय किया गया था ( उद्योग ० ४ । १२ ) । ( २ ) यदुकुलमें उत्पन्न हृदिकका पुत्र कृतवर्मा, जो रैवतक पर्वतपर होनेवाले उत्सव में विद्यमान था ( आदि० २१८ । ११-१२ ) । हासिनी - अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्र
ऋषिके स्वागत के अवसरपर कुबेरभवनमें नृत्य किया था (अनु० १९ । ४५ ) | हास्तिनपुर ( हस्तिनापुर ) - गङ्गातटपर बसी हुई एक नगरी, जिसे सुहोत्रके पुत्र राजा हस्तीने बसाया था इसीलिये इसका नाम ' हास्तिनपुर' हुआ ( आदि० ९५ । ३४ ) | यह कौरवोंकी रमणीय राजधानी थी । यहाँ किसी समय राजा शान्तनु राज्य करते थे ( आदि० १०० | १२ ) । अभिमन्यु -पुत्र परीक्षित्को यहींका राजा बनाया गया था ( महाप्र० १ । ८ ) । ( आधुनिक मत अनुसार मेरठ से २२ मील उत्तर-पूर्व और बिजनौर से दक्षिण-पश्चिम गङ्गाके दाहिने तटपर इसकी स्थिति मानी गयी है | )
हाहा - एक श्रेष्ठ गन्धर्व, जो महर्षि कश्यपद्वारा प्राधाके गर्भ से उत्पन्न हुए थे (आदि० ६५ । ५११ वन० ४३ | १४ ) । ये अर्जुनके जन्म महोत्सवमें पधारे थे ( आदि० १२२ । ५९ ) । ये कुबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं ( सभा० १० । २५-२७ ) । इन्होंने इन्द्रलोककी सभा में अर्जुनका स्वागत किया था ( वन० ४३ । १४ )।
हिंगुल - एक पर्वतीय धातु, जो संध्याकालीन बादलोंके समान लाल रंगकी होती है (वन० १५८ । ९४ ) । हिडिम्ब - शाल के वृक्षपर रहनेवाला एक क्रूर नर-मांसभक्षी राक्षस, जिसका मुख बड़ा विकराल था ( आदि० १५१ । १–३ )। सोये हुए पाण्डवोंको देखकर इसका हर्ष तथा अपनी बहिन हिडिम्बाको उनका पता लगाने और उन्हें मार लानेके लिये इसका आदेश ( आदि० १५१ । ७१४ ) । हिडिम्बापर इसका क्रोध (आदि० १५२ । १६१९ ) । वधकी इच्छा से इसका पाण्डवों तथा हिडिम्बापर आक्रमण ( आदि० १५२ । २० । भीमसेनके साथ इसका विवाद और युद्ध ( आदि० १५२ । २२ - ४२ ) । भीमसेनद्वारा इसका वध ( आदि० १५३ | ३०-३२ ) । हिडिम्बबधपर्व - आदिपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय १५१ से १५५ तक ) ।
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हिडिम्बवन - एक वन, जिसमें हिडिम्ब नामक राक्षस निवास करता था ( वन० १२ । ९३ ) ।
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हिडिम्बा
( ४०५ )
हिमवान्
हिडिम्बा-राक्षसराज हिडिम्बकी बहिन, भीमसेनकी पत्नी तथा
घटोत्कचकी माता ( आदि०६३ । २५)। सोये हुए पाण्डवोंको मारकर लानेके लिये इसको हिडिम्बका आदेश (आदि०१५११७-१४)। भीमसेनके रूपसे मोहित होकर उनसे अपना पति होनेके लिये इसकी प्रार्थना ( आदि० १५१ । १७-२९)। इसपर हिडिम्बका क्रोध तथा इसका भय (आदि० १५२ । १६-१९) । वधकी इच्छासे इसपर हिडिम्बका आक्रमण ( आदि. १५२। २०)। इसका कुन्ती आदिसे अपना मनोभाव प्रकट करना (आदि० १५३ । ५-१२)। भीमसेनको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये इसकी कुन्तीसे प्रार्थना (आदि० १५४ । ४-१५ के बादतक)। युधिष्ठिरका शर्तके साथ हिडिम्बाको भीमसेनकी सेवामें रहने के लिये आदेश देना (आदि. १५४ । १६-१८ के बादतक)। भीमसेनका एक शर्तके साथ उसके साथ जानेके लिये उद्यत होना ( आदि. १५४ । १९-२०)। इसका भीमसेनको साथ लेकर आकाशमें उड़ जाना और परम सुन्दर रूप धारणकर रमणीय प्रदेशोंमें उनके साथ विहार करना ( आदि. १५४ । २१३०)। इसके गर्भसे भीमसेनद्वारा घटोत्कचका जन्म (आदि. १५४ । ३१)। इसका पाण्डवोंसे मिलकर
अपने अभीष्ट स्थानको जाना ( आदि० १५४ । ४०)। हिमवान-भारतकी उत्तर-सीमापर स्थित एक विशाल पर्वत
राज, जो शरीरसे पर्वत होते हुए भी 'आत्मा' से देवता है । यहाँ हिमवान्का अर्थ हिमालय पर्वत और उसके अधिष्ठाता देवता समझना चाहिये । वालखिल्य मुनि यहाँ तपस्या करनेके लिये आये थे ( आदि०३०।१८)। शेषनाग संयम-नियम तथा एकान्तवासके लिये हिमालय पर्वतपर आये थे (आदि. ३६ । ३-४ ) । व्यासजी गान्धारीके बालकोंकी रक्षाको व्यवस्था करके हिमालयपर तपस्याके लिये चले गये थे (आदि०११४ । २४)। राजा पाण्डु कालकूट और हिमालयपर्वतको लाँघते हुए गन्धमादनपर्वतपर चले गये थे (आदि० ११८ । ४८)। क्षत्रियलोग भृगुवंशी ब्राह्मणोंके गर्भस्थ बालकोंकी भी हत्या करते हुए सारी पृथ्वीपर विचरने लगे। यह देख भयके मारे भृगुवंशियोंकी पत्नियोंने दुर्गम हिमालयपर्वतका आश्रय लिया (आदि० १७७ । २०-२१)। पराशरने समस्त राक्षसोंके विनाशके उद्देश्यसे किये जानेवाले सत्रके लिये जो अग्नि संचित की थी, उसे उत्तर-दिशामें हिमालयके आसपास एक विशाल वनमें छोड़ दिया (आदि. १८० । २२)। इन्द्रपुत्र अर्जुनने भी हिमालयकी यात्रा की थी (आदि० २१४।१)। हिमवान् कुबेर-सभामें रहकर धनके स्वामी महामना भगवान् कुबेरकी उपासना करते हैं (सभा० १० । ३१-३४)। देवर्षि नारदजीने ब्रह्माजीकी सभाका दर्शन पानेके उद्देश्यसे सूर्यके बताये अनुसार हिमालयके शिखरपर एक हजार वर्षों में पूर्ण होनेवाले महान् व्रतका अनुष्ठान किया था (सभा० ११॥ ८-९) । अर्जुनने
संग्राममें हिमवान्को जीतकर धवलगिरिपर आकर वहीं अपनी सेनाका पड़ाव डाला (सभा० २७ । २९)। भीमसेनने हिमालयके पास जाकर सारे जलोद्भव देशपर थोड़े ही समयमें अधिकार प्राप्त कर लिया। (सभा० ३०। ४)। हिमालयपर्वतपर मेरु-सावर्णिने युधिष्ठिरको धर्म और ज्ञानका उपदेश किया था (सभा० ७८ । १४)। राजा भगीरथने तपस्याके लिये हिमालयपर्वतको प्रस्थान किया। गिरिराज हिमालय विविध वस्तुओंसे विभूषित तथा नाना प्रकारके शिखरोंसे अलंकृत है। इसकी रमणीय शोभाका विस्तृत वर्णन ( वन० १०८ । ३-११)। कुलिन्दराज सुबाहुका विशाल राज्य हिमालयपर्वतके निकट था । पाण्डवोंने रातमें वहाँ रहकर दूसरे दिन सबेरे हिमालयकी ओर प्रस्थान किया ( वन० १४० । २४-२७ ) । पाण्डवलोग सत्रहवें दिन हिमालयके एक पावन पृष्ठभागपर जा पहँचे । हिमालयके उस पावन प्रदेशमें वृषपर्वाका पवित्र आश्रम था। वहाँ जाकर उन्होंने वृषपर्वाको प्रणाम किया (वन० १५८ ॥ १८-२१)। भीमसेन हिमालयपर्वतके सुन्दर प्रदेशोंका अवलोकन करते हुए वनमें शिकार खेलने लगे। इसी अवस्थामें उन्हें एक अजगरने पकड़ लिया (वन० १७८ अध्याय)। मार्कण्डेय जीने भगवान् बालमुकुन्दके उदरमें हिमवान् तथा हेमकूट आदि पर्वतोंको देखा था (वन. १८८।११२)। हिमवान् पर्वतपर प्रावारकर्ण नामसे प्रसिद्ध एक उल्लू निवास करता है, जो मार्कण्डेयजीसे भी पहलेका उत्पन्न हुआ है (वन० १९९ । ४) । कर्णने हिमालयपर्वतपर आरूढ़ हो हिमवत्पदेशके समस्त भूपालोंको जीतकर उन सबसे कर वसूल किया (वन० २५४ । ४-६)। उत्तरमें हिमवान्के शिखरपर भगवान् महेश्वर भगवती उमाके साथ नित्य निवास करते हैं (उद्योग० १११।५)। हिमवान् पूर्वसे पश्चिम दिशाकी ओर फैले हुए छः वर्षपर्वतों से एक है (भीष्म० ६ । ३-५)। अर्जुनने स्वप्नमें भगवान् श्रीकृष्णके साथ कैलासकी यात्रा करते समय पवित्र हिमवान् पर्वतका शिखर देखा था (द्रोण० ८० । २३. २४)। त्रिपुरदाहके समय हिमवान् और विन्ध्य भगवान् रुद्रके रथमें आधारकाष्ठ बने थे (कर्ण०३४।२२)। गङ्गाने अपने गर्भको देवपूजित हिमवान् पर्वतके सुरम्य शिवरपर छोड़ दिया था, जिससे स्कन्द प्रकट हुए थे (कर्ण०४४।९)। कुमारकार्तिकेयका अभिषेक करनेके लिये गिरिराज हिमालयके अधिष्ठाता देवता हिमवान् भी पधारे थे (शल्य० ४५। १४-१८)। इन्होंने कुमारको सुवचों और अतिवर्चा नामक दो पार्षद प्रदान किये ये (शल्य० ४५। ४६-४७)। भगवान् श्रीकृष्णने हिमालयको घाटीमें रहकर बड़ी भारी तपस्याके द्वारा रुक्मिणीदेवीके गर्भसे प्रद्युम्नको जन्म दिया (सौप्तिक. १२ । ३०-३१) । पर्वतोंमें श्रेष्ठ हिमवान्ने राजा पृथुको अक्षय धन समर्पित किया था (शान्ति० ५९ । ११८)।
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( ४०६ )
हिमालय के सुरम्य शिखरपर, जिसका विस्तार सौ योजन - का है, भगवान् ब्रह्माजीने एक यज्ञ किया था ( शान्ति० १६६ । ३२ - ३७ ) । पूर्वकालमें प्रजापति दक्षने हिमालय के पार्श्ववर्ती गङ्गाद्वारके शुभ प्रदेशमें एक यज्ञका आयोजन किया था ( शान्ति० २८४ । ३ ) । राजा जनकका उपदेश सुनकर शुकदेवजीने हिमालयपर्वतको प्रस्थान किया । इस पर्वतपर सिद्ध और चारण निवास करते हैं। एक समय देवर्षि नारदजी इसका दर्शन करने के लिये वहाँ पधारे थे । वहाँ सब ओर अप्सराएँ विचरती हैं। विविध प्राणियोंकी शान्त मधुर ध्वनिसे वहाँका सारा प्रान्त व्याप्त रहता है । सहस्रों किन्नर, भ्रमर, खञ्जरीट, चकोर, मोर और कोकिल अपना कलरव फैलाते रहते हैं । पक्षिराज गरुड़ हिमवान् पर नित्य निवास करते हैं। चारों लोकपाल, देवता और ऋषि जगत् के हितकी कामनासे वहाँ सदा आते रहते हैं । भगवान् श्रीकृष्णने पुत्रके लिये यहीं तप किया था । यहीं कुमार कार्तिकेयने बाल्यावस्थामें देवताओंपर आक्षेप किया और तीनों लोकोंका अपमान करके अपनी शक्ति गाड़ दी और यह बात कही -- जो मुझसे भी अधिक बलवान् ब्राह्मणभक्त और पराक्रमी हो, वह इस शक्तिको उखाड़ दे अथवा हिला दे । भगवान् विष्णुने कुमारके सम्मानकी रक्षाके लिये उस शक्तिको केवल हिला दिया, उखाड़ा नहीं । हिरण्यकशिपुके पुत्र प्रह्लादने उसे उखाड़नेकी चेष्टा की; किंतु वे चीत्कार करके मूर्च्छित हो हिमालयके शिखरपर गिर पड़े । गिरिराज हिमालयके पार्श्वभाग में उत्तर दिशा की ओर भगवान् शिवने दुर्धर्ष तपस्या की है । भगवान् शङ्करके उस आश्रमको प्रज्वलित अग्निने चारों ओर से घेर रक्खा है । उस पर्वतशिखरका नाम आदित्यगिरि है । उसपर अजितात्मा पुरुष नहीं चढ़ सकते। उसका विस्तार दस योजन है। वह आगकी लपटोंसे घिरा हुआ है । शक्तिशाली भगवान् अग्निदेव वहाँ स्वयं विराजमान हैं । गिरिराज हिमवान्की पूर्वदिशाका आश्रय लेकर पर्वत के एकान्त तटप्रान्त में किसी समय महर्षि व्यास अपने शिष्य महाभाग सुमन्तु, जैमिनि, पैल तथा वैशम्पायनको वेद पढ़ाया करते थे ( शान्ति० ३२७ । २ – २७ ) । शुकदेवजीके ऊर्ध्वलोक गमन करते समय गिरिराज हिमालय विदीर्ण होता-सा प्रतीत होता था । उन्होंने अपने मार्ग में पर्वतके दो दिव्य शिखर देखे, जो एक दूसरे से हुए थे। उनमेंसे एक हिमालयका शिखर था और दूसरा मेरुका | शुकदेवजी उन्हें देखकर भी रुके नहीं | उनके निकट आते ही वे दोनों पर्वतशिखर सहसा विदीर्ण होकर दो भागों में बँट गये ( शान्ति० ३३३ । ५ – १० ) हिमवान् की पुत्रीका नाम उमा है । उसे रुद्रदेवने पत्नीरूपमें प्राप्त करने की इच्छा की। इसी बीचमें महर्षि भृगुने आकर हिमवान्से उस कन्याको अपने लिये माँगा । हिमवान् ने कहा, 'इसके लिये देख-सुनकर रुद्रदेवको वर
हिरण्यगर्भ
निश्चित कर लिया गया है।' यह सुनकर भृगुने हिमवान्को शाप दे दिया कि तुम रत्नोंके भण्डार नहीं रहोगे ( शान्ति० ३४२ । ६२ ) । भगवान् नारायण और शङ्करके युद्ध से हिमालयपर्वत विदीर्ण होने लगा था ( शान्ति० ३४२ । १२२ ) । हिमवान् पर्वतपर देवि नारदका अपना आश्रम है ( शान्ति० ३४६ । ३ )। भगवान् श्रीकृष्णने हिमालयपर्वतपर पहुँचकर महात्मा उपमन्युका दिव्य आश्रम देखा था ( अनु० १४ । ४३ - ४५ ) | हिमालयपर्वतपर महात्मा राजा मरुत्तके यज्ञमें ब्राह्मणोंने बहुत सा धन वहीं छोड़ दिया था ( आश्व० ३ । २०-२१ ) । धृतराष्ट्र और गान्धारीके दावानलमें दग्ध हो जानेके पश्चात् संजय हिमालयपर चले गये ( आश्रम० ३७ । ३३ - ३४ ) | महाप्रस्थान के समय योगयुक्त पाण्डवोंने मार्ग में महापर्वत हिमालयका दर्शन किया और उसे लाँघकर जब वे आगे बढ़े तब उन्हें बालूका समुद्र दिखायी दिया ( महाप्र० २ । १-२ ) । हिरण्मय - ( १ ) एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रसभा में विराजते हैं ( सभा० ७ । १८ ) । ( २ ) सुदर्शन या जम्बूद्वीपका एक वर्ष, जो नीलपर्वतसे दक्षिण और निधपर्वतसे उत्तर है ( भीष्म० ८ । ५–६ :) 1 हिरण्यकवर्ष - जम्बूद्वीपका एक खण्ड, जो श्वेतपर्वतसे आगे है ( सभा० २८ । ६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७४९)। हिरण्यकशिपु - ( १ ) दितिका एक विख्यात पुत्र, जो महामनस्वी था । इसके पाँच पुत्र थे ( आदि० ६५ । (१७-१८) । यही इस भूतलार राजा शिशुपालके रूप में प्रकट हुआ था (आदि० ६७ । ५) । यह देवताओंका शत्रु तथा समस्त दैत्योंका राजा था । इसे अपने बलका बड़ा घमंड था । यह तीनों लोकोंके लिये कण्टकरूपमें था । दैत्यकुलका आदि पुरुष यही था । इसने वनमें जाकर बड़ी तपस्या की, इससे ब्रह्माजी बहुत संतुष्ट हुए ( आदि० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८५ ) । इसके माँगनेपर ब्रह्माजीका इसे अस्त्र-शस्त्रादिसे अवध्य होनेका वरदान देना । त्रिभुवनमें इसके उत्पात तथा भगवान् नृसिंहद्वारा इसका वध ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ७८५ से ७८९ तक ) । प्राचीन कालमें यह समस्त भूतलका शासक था ( शान्ति० २२७ । ५३ ) । ( २ ) एक दानव, जिसने पूर्वकालमें मेरुपर्वतको हिला दिया था । भगवान् शङ्करसे एक अर्बुद वर्षोंके लिये सम्पूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य प्राप्त किया । इसके पुत्र का नाम मन्दार था ( अनु० १४ । ७३-७४ ) । हिरण्यगर्भ - भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम और इसकी निरुक्ति ( शान्ति० ३४२ । ९६ ) ।
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हिरण्यधनु
( ४०७ )
हेमकूट
हिरण्यधनु-एक निषादराज, जो एकलव्यका पिता था हिरण्यहस्त-एक प्राचीन ऋषि, जिन्हें राजा मदिराश्वसे (आदि० १३१ । ३१)।
उनकी सुन्दरी कन्याका दान प्राप्त हुआ था (शान्तिक हिरण्यनाभ-संजयपुत्र सुवर्णष्ठीवी जब मृत्युके पश्चात् ____२३४ । ३५)।
नारदजोकी कृपासे जीवित हुआ, तब उसका यही नाम हिरण्याक्ष-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंसे एक (अनु० रक्खा गया था । इसकी आयु एक हजार वर्षों की थी ४ । ५७)। (शान्ति० १२९ । १४९)।
हिरण्यवती-कुरुक्षेत्रमें बहनेवाली एक पवित्र नदी, जो हिरण्यपर-पलोमा और कालकाकी प्रार्थनासे उनके पत्रों के स्वच्छ एवं विशुद्ध जलसे भरी रहती है, इसमें कंकड़-पत्थर लिये ब्रह्माजीद्वारा निर्मित एक विमानोपम आकाशचारी
और कीचड़का नामतक नहीं है । इसीके तटपर भगवान् दिव्य नगर, जो पौलोम और कालकेय नामक दानवोंका
श्रीकृष्णने पाण्डव सेनाका पड़ाव डाला था ( उद्योग. निवासस्थान था एवं उन्हींके द्वारा सुरक्षित था (वन.
१५२ । ७-८)। यह भारतवर्षकी प्रमुख नदियों में है। १७३ । ९-१३)। अर्जुनद्वारा इसका संहार (वन० जिसका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म० ९ । २५)। १७३ । ३०)। नारदजीद्वारा मातलिको इस नगरका हीक-विपाशामें रहनेवाला एक राक्षस, जो बहि नामक परिचय ( उद्योग० १०० अध्याय)।
निशाचरका साथी था। इन्हीं दोनोंकी संतानें वाहीक हिरण्यवाह-वासकि-वंशोद्धव एक नाग, जो जनमेजयके कहलाती हैं ( कर्ण० ४४ । ४१-४२)। ___ सर्पसत्र में दग्ध हो गया था ( आदि० ५७।६)। हुण्ड-एक जनपद, जहाँके सैनिकोंके साथ नकल-सहदेव हिरण्यबिन्दु-हिमालयके निकटका एक तीर्थ, जहाँ तीर्थ- क्रौञ्चारुणन्यूहके बायें पंखके स्थानमें स्थित थे (भीष्म०
यात्राके अवसरपर अर्जुनका आगमन हुआ था ( आदि. २१४।४)। जो मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हतहव्यवह-धर' नामक वसुके दो पुत्रोंमेंसे एक, दूसरेका हुए हिरण्यबिन्दुतीर्थमें स्नान करके वहाँके प्रमुख देवता नाम द्रविण था (आदि० ६६ । २१)। • भगवान् कुशेशयको प्रणाम करता है, उसके सारे पाप धुल हूण-एक जाति, जिसकी उत्पत्ति नन्दिनी गौ' के फेनसे हुई
जाते हैं ( अनु० २५ । १०-११)। कालिञ्जर पर्वतार (आदि. १७४ । ३८)। हूणोंका जहाँ निवास है, उस स्थित एक महान् तीर्थ (वन० ८७ । २१)। भूभागको हूण देश कहा गया है । इस देश और जातिके हिरण्यरेता-अग्निका नाम (आदि० ५५। १०)।
जो पश्चिमदेशीय राजा थे, उन सबको नकुलने दूतोंद्वारा हिरण्यरोमा-दाक्षिणात्य देशोंके अधिपति विदर्भराज
ही वशमें कर लिया था (सभा० ३२ । १२)। हूण भीष्मकका दूसरा नाम ( उद्योग० १५८।१)।
देश और जातिके भूपाल युधिष्ठिरके राजसूय-यशमें भेंट हिरण्यवर्मा-दशाणदेशके राजा, जिन्होंने अपनी कन्याका ।
लेकर आये थे (सभा० ५१ । २४)। विवाह शिखण्डीके साथ किया था (उद्योग० १८९।१०)। हूहू-एक श्रेष्ठ गन्धर्व, जो महर्षि कश्यपद्वारा प्राधाके गर्भसे शिखण्डोके स्त्रोत्वकी जानकारीसे कुपित होकर इनका उत्पन्न हुए थे (आदि० ६५ । ५१; वन. ४३ । द्रुपदको संदेश ( उद्योग० १८९ । २१-२३)। मित्र
१४)। ये अर्जुनके जन्म-महोत्सवमें पधारे थे ( आदि० राजाओंकी मन्त्रणासे इनका द्रुपदपर चढ़ाई करनेका १२२ । ५९)।ये कुबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना निश्चय एवं संदेश ( उद्योग० १९० । ९-१०)। राजा करते हैं (सभा० १० । २५-२७)। इन्होंने इन्द्रलोककी द्रुपदकी राजधानीके पास आकर इनका पुरोहितद्वारा सभामें अर्जुनका स्वागत किया था (वन० ४३ । १४)। संदेश देना (उद्योग० १९२ । २०-२१)। युवतियों- हदिक-एक भोजवंशी यादव, जो कृतवर्माके पिता थे द्वारा शिखण्डीकी परीक्षा कराकर प्रसन्न होना और द्रुपद (आदि०६३ । १०५)। तथा शिखण्डीका सम्मान करके घर लौटना ( उद्योग० हृद्य-एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रसभामें विराजते हैं १९२ । २८-३२)।
(सभा० ७ । १३)। हिरण्यशृंग-कैलासपर्वतसे उत्तर मैनाकपर्वतके समीपस्थ हृषीकेश-भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम और इसकी
एक मणिमय विशाल पर्वत ( सभा० ३ । १०; भीष्म० . निरुक्ति (शान्ति० ३४२।६७)। ६ । ४२)।
हेमकूट-(१) उत्तर दिशाका एक पर्वत, जहाँ अर्जुनने हिरण्यसर-पश्चिमदिशाका एक प्राचीन तीर्थ, यहाँ चन्द्रमाने अपनी सेनाका पड़ाव डाला था और वहाँसे वे हरिवर्षमें
स्नान करके पापसे छुटकारा पाया था, तभीसे इसका नाम गये थे (सभा० २८ । ६ के बाद दा. पाठ)। प्रभास' हुआ (शान्ति० ३४२ । ५७)। . .. . .(२) नन्दाके तटपर दुर्गम पर्वत, जहाँ राजा युधिष्ठिर
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हेमगुह
( ४०८ )
हीमान्
भी आये थे, इसे ऋषभकूट भी कहते हैं । उन्होंने वहाँ जीवित दिखाकर यह बताया कि सद्धर्माचरणके प्रभावसे बहुत-सी अद्भुत बातें देखीं । यहाँ बिना वायुके ही बादल हमलोगोंपर मृत्युका वश नहीं चलता (वन० १८४ । ३उत्पन्न होते और ओले बरसाते थे । वेदोंके स्वाध्यायकी २२)। इस वंशमें मुदावर्त नामका एक कुलाङ्गार नरेश ध्वनि सुनायी देती, पर कोई दिखायी नहीं देता था हुआ था ( उद्योग० ७४ । १३)। ब्राह्मणोंने अपनी
इत्यादि । इसके कारणका वर्णन (वन०११०।२-१८)। कुशमयी ध्वजा फहराते हुए किसी समय हैहयवंशी हेमगुह-कश्यपवंशमें उत्पन्न एक प्रमुख नागराज ( आदि. क्षत्रियोंपर आक्रमण किया था ( उद्योग० १५६ । ४)। ३५।९)।
गुणावतीसे उत्तर और खाण्डव-वनसे दक्षिण पर्वतके हेमनेत्र-एक यक्ष, जो कबेरकी सभामें रहकर उनकी उपासना
निकटवर्ती प्रदेशमें लाखों हैहयवंशी क्षत्रिय वीर परशुरामकरता है (सभा० १०।१७)।
जीके द्वारा रणभूमिमें मारे गये थे (द्रोण ७०1८-९)।
कृतवीर्यका बलवान् पुत्र अर्जुन हैहयवंशका राजा हुआ हेममाली-द्रुपदका एक पुत्र, जो अश्वत्थामाद्वारा मारा गया
(शान्ति० ४९ । ३५)। राजा सुमित्र हैह्यवंशी नरेश था (द्रोण० १५६ । १८२)।
था (शान्ति० १२६ । ८)। (२) शर्यातिके वंशमें हेमवर्ण-राजा रोचमानके पुत्र, जो पाण्डवपक्षके योद्धा थे । उत्पन्न एक राजा, जिसके नामपर हैहयवंशकी परम्परा
इनके घोड़ोंका वर्णन (द्रोण० २३ । ६७)। प्रचलित हुई । हैहय वत्सके पुत्र थे। इनका दूसरा नाम हेमा-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल यहाँके निवासी वीतहव्य था। इनके दस स्त्रियाँ थीं । उनसे सौ वीर पुत्र पीते हैं (भीष्म० ९ । २३)।
उत्पन्न हुए थे (अनु. ३० । ७-८ )। (विशेष
देखिये वीतहव्य)। हेरम्बक-एक दक्षिणभारतीय जनपद तथा वहाँके निवासी, इनको सहदेवने दक्षिण-दिग्विजयके अवसरपर परास्त किया होत्रवाहन-एक प्राचीन राजर्षि, जो युधिष्ठिरका विशेष था (सभा० ३१ । १३)।
सम्मान करते थे ( वन० २६ । २४-२५)। ये काशि
राजकी पुत्री अम्बाके नाना थे, इनका अम्बाको परशुरामहैमवत-एक वर्षका नाम, जो हिमवान् (हिमालय) से उत्तर है ( भीष्म० ६ । ७)। मेरुसे मिथिला जाते समय ।
जीके पास जानेकी सम्मति देना ( उद्योग० १७६ । २८
३४)। इन्होंने अकृतव्रणसे अम्बाका परिचय दिया था श्रीशुकदेवजीने इस वर्षको पार किया था और फिर वे ... भारतवर्ष में आये थे (शान्ति. ३२५ । १३)।
(उद्योग. १७६ । ४४-५६)। हैमवती-(१) हिमालयसे निकली हुई एक नदी। शतद'के हृदप्रवेशपर्व-शल्यपर्वका एक अवान्तर पर्व (अध्याय
लिये हैमवती' शब्दका प्रयोग हुआ है ( आदि. १७६। २९)। . ८-९)। (२) विश्वामित्रकी प्यारी पत्नी ( उद्योग० हृदोदर-एक राक्षस, जिसका स्कन्दद्वारा वध हुआ था
११७ । १३)।(३) भगवान् श्रीकृष्णकी एक पत्नी (शल्य० ४६ । ७५)। जिन्होंने पतिके दाह संस्कारके समय चितारोहण किया था हाद-एक नाग, जो बलरामजीके परमधामगमनके समय ( मौसल० ७ । ७३)।
स्वागतमें आये थे ( मौसल. ४ । १६)। औरण्यवती-हिरण्मय वर्षकी एक नदी (भीष्म ८।
ही-एक देवी, जो ब्रह्माकी सभामें रहकर उनकी उपासना शाही
,
करती हैं (सभा० ११ । ४२)। अर्जुनके इन्द्रलोक हैहय-(१)क्षत्रियोंका एक कुल, जिसका संहार परशुराम- जाते समय उनकी मङ्गल-कामनाके लिये द्रौपदीने ही
जीने किया था। कार्तवीर्य अर्जुन हैहयवंशी क्षत्रियोंका देवीका स्मरण किया था (वन० ३७ । ३३)। स्कन्द. अधिपति था, जो परशुरामजीके हाथसे मारा गया के अभिषेकमें ये भी पधारी थीं (शल्य. ४५। १३)। (सभा० ३८। २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७९२)।
हीनिषेव-एक दैत्य या राजर्षि, जो प्राचीन कालमें पृथिवी...राजा सगरने इस वंशके क्षत्रियोंको जीता था (वन०१०६।
का शासक था; परंतु कालवश उसे छोड़कर चल बसा ८)। राजा परपुरञ्जय हैहयवंशी क्षत्रियोंकी वंश-परम्परा
(शान्ति० २२७।५१)। को बढ़ानेवाला था; इसने अनजानमें एक मुनिको बाण मार दिया । फिर कुछ हैहय उसे साथ ले मुनिवर कश्यप- हीमान्-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ११ । नन्दन अरिष्टनेमाके पास गये । उन्होंने उस मुनिको ३१)।
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गीताप्रेसद्वारा प्रकाशित 'महाभारत' के विभिन्न संस्करण
'महाभारत' के लिये माँग देनेवाले सज्जन कभी-कभी अपनी आवश्यकता स्पष्ट नहीं लिखते जिसके कारण या तो उनकी मँगायी हुई वस्तु देरसे पहुँचती है या गलत वस्तु चली जाती है, जिससे बड़ी कठिनाई उपस्थित हो जाती है। गीताप्रेसके द्वारा अबतक 'महाभारत' के निम्नलिखित ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, जिनकी माँग देते समय सम्बन्धित विभागको स्पष्ट पत्र लिखना चाहिये ।
-व्यवस्थापक
( १ ) 'कल्याण' विभागद्वारा प्रकाशित
'कल्याण' के १७ वे वर्षका संक्षिप्त महाभारताङ्क पूरी फाइल ( बारह महीनोंके अङ्क ), दो जिल्दोंमें, सजिल्द, पृष्ठ- संख्या १९१८, तिरंगे चित्र १२, इकरंगे लाइन ९७५, मूल्य दोनों जिल्दोंका डासहित १० ) ।
इसमें मूल श्लोक नहीं है । केवल हिंदीभाषा में संक्षिप्त महाभारत है ।
इसका आर्डर व्यवस्थापक – 'कल्याण' पो० गीताप्रेस ( गोरखपुर ) को देना चाहिये ।
( २ ) 'मासिक महाभारत' विभागद्वारा प्रकाशित
१- नवम्बर १९५५ से अक्टूबर १९५८ तक लगातार तीन सालतक छत्तीस अङ्कोंमें लगभग एक ora लोकका सम्पूर्ण महाभारत ग्रन्थ, मूल और उसकी हिंदी टीकासहित तथा महाभारत सम्बन्धी अनेक खोजपूर्ण लेख एवं महाभारतमें आये हुए नामकी वर्णानुक्रमणिका ( संक्षिप्त परिचयसहित ) प्रकाशित की गयी है। कुल छत्तीस अङ्कोंकी पृष्ठ संख्या ७५९०, चित्र-संख्या तिरंगे ८५, सादे २४३, लाइन ५६४, कुल ८९२ । मूल्य तीनों वर्षके फाइलोंका प्रतिवर्षके २०) की दरसे कुल ६०) डाकखर्चसहित । सजिल्द- एक-एक वर्षके तीन-तीन जिल्द - कुल नौ जिल्दोंका ११ ) जोड़कर ७१ | ) डाक खर्चसहित ।
२ - जनवरी १९५९ से दिसम्बर १९५९ तक 'मासिक महाभारत' का चौथा वर्ष चल रहा है जिसमें हरिवंशपुराण तथा जैमिनीय अश्वमेध - पूरा हिंदी- टीकासहित देनेकी बात है । प्रतिमास १४४ पृष्ठ १ तिरंगा तथा ४ सादे चित्र, वार्षिक चन्दा १५) डाकखर्चसहित |
इनका आर्डर व्यवस्थापक- 'मासिक महाभारत' पो० गीताप्रेस ( गोरखपुर ) को देना चाहिये ।
(३) गीताप्रेस, पुस्तक - विभागद्वारा प्रकाशित
१ - सचित्र महाभारत ( सरल हिंदी अनुवादसहित ) सम्पूर्ण ग्रन्थ छः खण्डों में सजिल्द, पृष्ठसंख्या ६६२०, चित्र बहुरंगे ७९, सादे २२५, लाइन ५६४, कुल ८६८, मूल्य ६५) । इसके प्रत्येक खण्ड सजिल्द अलग-अलग भी मिलते हैं। इसमें कमीशन पंद्रह प्रतिशत काटकर नेट दाम ५५|), रेल - खर्च ग्राहकका लगता है। आर्डर देते समय अपना रेलवे स्टेशन साफ-साफ लिखना चाहिये ।
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२ - महाभारत - मूलमात्र, सम्पूर्ण ग्रन्थ चार भागोंमें, सजिल्द, कुल पृष्ठ संख्या २७७६, चित्र बहुरंगे १४, सादे ४, कुल १८, मूल्य २२ || ) | इसमें केवल मूल संस्कृत श्लोक हैं। ठीका नहीं। इसका भी रेल - खर्च ग्राहकका लगता है ।
इनका भार्डस् व्यवस्थापक - गीताप्रेस, पो० गीताप्रेस ( गोरखपुर ) को देना चाहिये ।
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