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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्रह्मचारी ( २२१ ) ब्रह्मा -nnnn.maemraormanAPAN आज्ञासे पुनः अपनी राजधानीको लौटना ( वन० ९९। ब्रह्मसर-(१) धर्मारण्यसे सुशोभित एक तीर्थ, जहाँ एक रात निवास करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता है। यहाँ ब्रह्मचारी-कश्यपद्वारा प्राधाके गर्भसे उत्खन्न एक देव- ब्रह्माद्वारा स्थापित यूपकी परिक्रमा करनेसे वाजपेय यज्ञका फल गन्धर्व (आदि.६५। ४७)। ये अर्जुनके जन्मकालिक मिलता है (वन० ८४ । ८५)। इसके जलमें अवगाहन महोत्सबमें पधारे थे ( आदि. १२२ । ५८)। करनेसे पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त होता है (अनु. ब्रह्मतार्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, यहाँ स्नान- २५ । ५०)। (२) गयाके अन्तर्गत एक कल्याणमय करनेसे ब्राह्मणेतर मानव ब्राह्मणत्व लाभ करता है और तीर्थ, जिसका देवर्षिगण सेवन करते हैं (धन. ८७1८)। ब्राह्मण शुद्धचित्त होकर परम गति प्राप्त करता है (वन यहाँ भगवान् अगस्त्य वैवस्वत यमसे मिलनेके लिये पधारे ८३ । ११३)। थे ( वन० ९५। ११)। (३) यहाँकी यात्रा करके ब्रह्मतङ्ग-एक पर्वत, जो स्वप्नमें श्रीकृष्णसहित शिवजीके पान भागीरथीमें स्नान, तर्पण आदि करने और एक मासतक जाते हुए अर्जुनको मागमें मिला था (द्रोण. निराहार रहनेसे मनुष्यको चन्द्रलोककी प्राप्ति होती है ८० । ३१)। (अनु० २५ । ३९-४०)। ब्रह्मदत्त-पाञ्चालदेशीय काम्पिल्य नगरके एक प्राचीन राजा ब्रह्मस्थान-यहा ब्रह्माजीके समीप जानेसे मानव गजसूय और (शान्ति० १३९ । ५)। इनका पूजनीनामक चिड़िया अश्वमेध यज्ञका फल पाता है (वन० ८४ । १०३)। के साथ संवाद (शान्ति० १३९ । २४-१११)। यहाँ तीन रात उपवःससे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता इन पाञ्चालरा जने ब्राह्मणों को शसनिधि देकर ब्रह्मलोक है ( वन० ८५ । ३५, उद्योग० १८६ । २६ )। यहाँ प्राप्त किया था ( शान्ति. २३४ । २५, अनु. कमल उखाड़नेपर अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होना १३७ । १७)। ये कण्डरीक कुलमें उत्पन्न हुए थे, इन्होंने (अनु. ९४ । ८)। सात जन्मोके जन्म मृत्युसम्बन्धी दाखों का प्रारंबार स्मरण ब्रह्मा-सृष्टिके प्रारम्भमें जब सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार था, करके योगजनित ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया था ( शान्ति. किसी भी वस्तु या नाम-रूपका भान नहीं होता था, उस समय ३४२ । १०५.१०६)। ये अब यमसभामै रहकर सूर्य एक विशाल अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओंका पुत्र यमकी उपासना करते हैं ( सभा० ८।२०)। अविनाशी बीज था, उस दिव्य एवं महान् अण्डमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुआ । उस ब्रह्मदेव-पाण्डवपक्षके एक वीर योद्धा, जो सेनाकी रक्षाके अण्डसे ही प्रथम देहधारी प्रजापालक देवगुरु पितामह ब्रह्माका लिये पीछे-पीछे क्षत्रदेवके साथ चल रहे थे ( उद्योग आविर्भाव हुआ (आदि.१।२९-३२)। महाभारतका १९६ । २५)। निर्माण करके उनके अध्ययन और प्रचारके विषयमें विचार ब्रह्ममेध्या-भारतवर्षकी एक प्रधान नदी, जिसका जल यहाँ करते हुए कृष्णद्वैपायन व्यासके आश्रमपर इनका आगमन के निवासी पीते हैं ( भीष्म०९। ३२)। (आदि. १।५५-५७)। व्यास जीसे सत्कृत होकर इनका ब्रह्मयोनि-कुरुक्षेत्रकी सीमामें स्थित एक तीर्थ, यहाँ स्नान आसनपर विराजमान होना (आदि. १ । ५८-५९)। करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता और अपनी सात व्यासजीका अपने ग्रन्थका परिचय देते हुए उसका कोई योग्य पीढ़ियोंको तार देता है (वन० ८३ । १४०)। लेखक न होने के विषयमें चिन्ता प्रकट करना ( आदि. इसकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग (शल्य० ४७ । २२-२४)। । ६५-६७)। इनका महाभारतको काव्य' की संज्ञा ब्रह्मवेध्या-भारतवर्षकी एक प्रधान नदी, जिसका जल यहाँके देना और उसकी प्रशंसा करके उसके लेखनके लिये निवासी पीते हैं ( भीष्म० ५। ३०)। गणेशजी का स्मरण करने की सलाह देना ( आदि. ब्रह्मशाला-एक उत्तम तीर्थ, जहाँ गङ्गाजी सरोवर में स्थित १।७१-७४)। इन्होंने वरुणके यज्ञमें महर्षि भृगुको थीं। इसका दर्शनमात्र पुण्यमय बताया गया है (वन. अग्निसे उत्पन्न किया (आदि० ५। ८) । भृगुद्वारा ८७ । २३)। प्राप्त अग्निके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना ब्रह्मशिर-ब्रह्मास्त्र, यह अस्त्र द्रोणाचार्यने प्रसन्न होकर ( आदि. ७ । १५-२५) । इनके द्वारा प्रजाके हितकी अर्जुन को दिया था ( आदि० १३२ । १८ ) । इसके कामनासे सपाको दिये गये कद्रके शापका अनुमोदन प्रयोगका नियम (आदि. १३२ । १९-२१) । महर्षि (आदि० २०।१०)। इनसे मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, अगस्त्यसे अग्निवेशको; अग्निवेशसे द्रोणको और द्रोणसे पुलल्य, पुलह और ऋतु-इन छ: मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति अर्जुनको इस अस्त्रकी प्रानि हुई थी (आदि. १३८ । ९- हुई (आदि. ६५।१०,आदि०६६।४)। ब्रह्माजीके १२)। दाहिने अँगूठेसे दक्षका और बायेंसे दक्ष-पत्नीका For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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