________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
बृहन्नला
www.kobatirth.org
( २२० )
१८५ । ७) । पाण्डवोंकी ओरसे इनको रणनिमन्त्रण भेजने का निश्चय हुआ था ( उद्योग ० ४ । १३ ) । ये युधिष्ठिर के प्रति भक्तिभाव के कारण उनके पक्षमें चले आये थे। इनके रथके घोड़ोंका वर्णन ( द्रोण० २३ । ७६-७७ )। इनके मारे जाने की चर्चा ( कर्ण ० ६ । १२-१३ ) । (२) क्षेमधूर्तिका भाई | कौरवपक्षका योद्धा । सात्यकिके साथ इसका युद्ध ( द्रोण० २५ । ४७-४८ ) । इसके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ५ । ४२ ) । बृहन्नला - विराटनगर में अज्ञातवास के समय रखा हुआ अर्जुनका नाम ( विराट० २ । २७ ) | ( विशेष देखि अर्जुन )
बृहन्मना - महर्षि अङ्गिराद्वारा सुभाके गर्भ से उत्पन्न सात पुत्रोंमेंसे एक ( वन० २१८ | २ ) ।
बृहन्मन्त्र - महर्षि अङ्गिराद्वारा सुभाके गर्भ से उत्पन्न सात पुत्रों में से एक ( वन० २१८ । २ ) । बृहस्पति - ( १ ) महर्षि अङ्गिराके पुत्र । उतथ्य और संवर्तके भाई ( आदि० ६६ । ५ ) । बृहस्पतिजीकी ब्रह्मवादिनी बहिन योगपरायण हो अनासक्त भावसे सम्पूर्ण जगत् में विचरती है । वह प्रभास नामक वसुकी पत्नी हुई ( आदि० ६६ । २६-२७ ) । इनके अंशसे द्रोणाचार्यकी उत्पत्ति हुई थी ( आदि० ६७ । ६९ ) । देवताओं द्वारा इनका पुरोहितके पदपर वरण ( आदि० ७६ । ६ ) । शुक्राचार्य के साथ इनकी स्पर्धा ( आदि० ७६ । ७)। इनके पुत्रका नाम 'कच' था ( आदि० ७६ । ११ ) | इन्होंने भरद्वाज मुनिको आग्नेयास्त्र प्रदान किया था ( आदि० १६९ । २९ ) । ये इन्द्रकी सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ७ । २८ ) । ब्रह्माजीकी सभा में भी उपस्थित होते हैं ( सभा० ११ । २९ ) । इनके द्वारा चान्द्रमसी ( तारा ) नामक पत्नीसे छः अग्निस्वरूप पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें शंयु सबसे बड़ा था । इनके सिवा, एक कन्या भी हुई थी ( वन० २१९ अध्याय ) | नहुषके
भयसे भीत शचीको इनका आश्वासन देना (उद्योग० ११ । २३-२५) । नहुष से अवधि माँगनेके लिये शचीको सलाइ देना ( उद्योग० १२ । २५ ) | अग्निके साथ संवाद ( उद्योग० १५ । २८ - ३४ ) । इनके द्वारा अग्निका स्तवन ( उद्योग० १६ । १–८ ) । इनका इन्द्रकी स्तुति करना ( उद्योग ० १६ । १४ - १८ ) । इन्द्रके प्रति नहुषकेबलका वर्णन ( उद्योग० १६ । २३-२४ ) । पृथ्वीदोहन के समय ये दोग्धा बने थे ( द्रोण० ६९ । २३ ) । इनके द्वारा स्कन्दको दण्डका दान ( शल्य० ४६ । ५० ) । कोसलनरेश वसुमनासे राजाकी आवश्यकताका प्रतिपादन ( शान्ति० ६८ । ८- ६० १) । इन्द्रको सान्त्वनापूर्ण मधुर
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वनश्व
वचन बोलनेका उपदेश ( शान्ति ० ८४ अध्याय ) । इनका इन्द्रको विजय प्राप्ति के उपाय और दुष्टका लक्षण बताना ( शान्ति० १०३ । ७-५२ ) । इन्द्रको शुक्राचार्यके पास श्रेयः प्राप्ति के लिये भेजना ( शान्ति० १२४ । २४ ) । मनसे ज्ञानविषयक विविध प्रश्न करना ( शान्ति० २०१ अध्यायसे २०६ अध्यायतक । उपरिचर के यज्ञमें भगवान्पर कुपित होना ( शान्ति ० ३३६ । १४ ) । मुनियोंके समझानेसे क्रोध शान्त करके यज्ञको पूर्ण करना ( शान्ति ० ३३६ । ६०-६१ ) । इनके द्वारा जलाभिमानी देवताको शाप (शान्ति० ३४२ । २७ ) । इनके द्वारा इन्द्रसे भूमिदान के महत्त्वका वर्णन ( अनु० ६२ । ५५ -- ९२ ) । राजा मान्धाता के पूछने पर उनको गोदानके विषय में उपदेश ( अनु० ७६ । ५--२३ ) । युधिष्ठिर के प्रति इनका प्राणियोंके जन्म-मृत्युका और नानाविध पापके फलस्वरूप नाना योनियोंमें जन्म लेनेका वर्णन ( अनु० १११ अध्याय ) | युधिष्ठिरको अन्नदानकी महिमा बताना ( अनु० ११२ अध्याय ) | युधिष्ठिरको अहिंसा एवं धर्मकी महिमाका उपदेश देकर इनका स्वर्गगमन ( अनु० ११३ अध्याय ) । इनके द्वारा इन्द्रको धर्मोपदेश (अनु० १२५ । ६०-६८ ) । इन्द्रके कहने से मनुष्यका यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करना ( आश्व० ५ । २५ - २७ ) । मरुत्तसे उनका यज्ञ कराने से इनकार करना ( आश्व० ६ । ८-९) । मरुत्तको धन प्राप्त होनेसे इनका चिन्तित होना ( आश्व० ८ । ३६-३७ ) । इन्द्रके पूछनेपर उनसे अपनी चिन्ताका कारण बताते हुए मरुत्त और संवर्तको कैद करनेके लिये कहना ( आश्व० ९ । ७) । ये और सोम ब्राह्मणों के राजा बताये गये हैं ( आश्व० ९ । ८-१० ) ।
बोध - ( १ ) एक राजा जो जरासंधके भयसे अपने भाइयों और सेवकों सहित दक्षिण दिशा में भाग गये थे ( सभा० १४ । २६ ) । ( २ ) एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९। ३९)।
वोध्य - एक प्राचीन ऋषि, जिन्होंने राजा ययातिके शान्ति
विषयक प्रश्न करनेपर उन्हें उपदेश दिया था, इनका वह उपदेश बोध्यगीताके नामसे प्रसिद्ध हुआ ( शान्ति० १७८ अध्याय ) ।
For Private And Personal Use Only
ब्रघ्नश्व - एक राजा, इनके पास महाराज श्रुतर्वाको साथ लिये हुए अगस्त्यजीका आगमन और राजाद्वारा उन दोनोंका स्वागत-सत्कार करके आनेका प्रयोजन पूछा जाना ( वन० ९८ । ७-८ ) । अगस्त्यजीके धन माँगनेपर उनके सामने इनके द्वारा अपने आय-व्ययका विवरण रखा जाना ( वन० ९८ । १० ) । अगस्त्य जी के साथ धनकी याचना के लिये जाना ( वन० ९८ । १२ ) | महर्षि अगस्त्यजीकी