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सुलोचन
( ३९२ )
सुवामा
रूप धारण कर लिया । फिर यह पलभरमें विदेह देशकी इनके पिता खनीनेत्रको हटाकर इनका राजपदपर अभिषेक राजधानी मिथिलामें जा पहूँची। वहाँ इसने भिक्षा लेनेके (आश्व० ४ । ९)। इनका करन्धम नाम पड़नेका बहाने मिथिलेश्वरका दर्शन किया । राजाने इसका स्वागत- कारण ( आश्व० । १५-१६)। इनके त्रेतायुगके पूजन करके अन्न देकर संतुष्ट किया । तदनन्तर यह योग- आरम्भमें एक कान्तिमान् पुत्र हुआ, जो कारन्धम' शक्तिसे उनकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो गयी और उनके मनको कहलाया। इसीका नाम अविक्षित् था (आश्व०४।१८)। बाँध लिया। फिर एक ही शरीरमें रहकर राजा और सवर्ण-(१) एक ब्रह्मचारी तथा विख्यात गुणवान् सुलभाका परस्पर संवाद आरम्भ हुआ। राजाद्वारा अयोग्य देवगन्धर्व, जो अर्जुनके जन्मोत्सवमें आया था (आदि. एवं असङ्गत वचनोंद्वारा इसका तिरस्कार (शान्ति० ३२०
१२२ । ५८)। (२) एक तपस्वी ब्राह्मण, जिनकी ८-७५)। राजाके वचनोंसे विचलित न होकर इसने कान्ति सुवर्णके समान थी । इन्होंने मनुसे पुष्पादिविद्वत्तापूर्ण भाषणद्वारा उन्हें उत्तर दिया और अपना
दानके विषयमें प्रश्न किया था ( अनु० ९८ । ३-९)। परिचय देते हुए कहा-मैं राजर्षिप्रधानके कुलमें
सुवर्णचूड-गरुडकी प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग० उत्पन्न हुई हूँ। क्षत्रियकन्या हूँ। मैंने अखण्ड ब्रह्मचर्यका
१०१।९)। पालन किया है। मेरा नाम सुलभा है । मैं सदा स्वधर्ममें
सुवर्णतीर्थ-एक पुण्यमय तीर्थ, जहाँ पूर्वकालमें भगवान् स्थित रहती हूँ (शान्ति० ३२० । ७६-१९२)। विष्णुने रुद्रदेवकी प्रसन्नताके लिये उनकी आराधना की सुलोचन-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ६७।९४; और उनसे अनेक देवदुर्लभ उत्तम वर प्राप्त किये।
आदि० ११६ । ४)। इसने दुर्योधनके साथ रहकर इस तीर्थमें जाकर भगवान् शङ्करकी पूजा करनेसे राजा द्रुपदपर आक्रमण किया था (आदि० १३७ । ६)। अश्वमेधयज्ञके फल और गणपतिपदकी प्राप्ति होती है
भीमसेनद्वारा इसका वध (भीष्म० ६४ । ३७-३८)। (वन० ८४ । १८-२२)। सुवक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य४५। ७३)। सुवर्णवर्मा-काशीके राजा, जो वपुष्टमाके पिता थे। जनमेजयके सुवर्चला-(१) महर्षि देवलकी पुत्री । इसका पितासे
मन्त्रियोंने इनके पास जाकर उनके लिये राजकुमारी अपने लिये वरका लक्षण कहना । स्वयंवरमें इसके द्वारा
वपुष्टमाका वरण किया था ( आदि. ४४ । ८)। इनके ऋषिकुमारोंका प्रत्याख्यान । श्वेतकेतु और इसकी बात
द्वारा अपनी पुत्रीका राजा जनमेजयके साथ विवाह चीत तथा इसके द्वारा श्वेतकेतुका वरण । श्वेतकेतुके साथ
(आदि० ४४।९)। इसका विवाह । पतिके साथ इसके अध्यात्मसम्बन्धी सुवर्णाशरा-पश्चिम दिशामें रहकर सामगान करनेवाले एक प्रश्नोत्तर | गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए इसे परमगतिकी महर्षि । इनके केश पिङ्गलवर्णके हैं। इनका प्रभाव अप्रमेय प्राप्ति (शान्ति० २२० । दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ४९८८ से. और मूर्ति अदृश्य है ( उद्योग. ११०।१२)। ४९९५ तक )। ( २ ) सूर्यकी पत्नी ( अनु० सुवणेष्ठीवी-राजा सुंजयका पुत्र । इसका सुवर्णष्ठीवी नाम १४६ । ५)।
पड़नेका कारण (द्रोण. ५५ । २३ के बाद दा० पाठसुवर्चा-(१) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से एक ( आदि०
सहित २४)। लुटेरोंद्वारा इसका हरण और वध (द्रोण० ६७ । १०२, आदि०११६ । १०) । यह द्रौपदीके
५५ । ३०-३१)। नारदजीके वरदानसे पुनरुज्जीवन स्वयंवरमें गया था ( आदि. १८५। ३)। भीमसेन
(द्रोण० ७१ । ८-९)। इनके जन्म, मरण और पुनरुद्वारा इसका वध ( कर्ण० ८४ । ५-६)। (२) राजा
जीवनके वृत्तान्त का पुनर्वर्गन (शान्ति० ३१ अध्याय)। सुकेतुका एक पुत्र, जो अपने पिता तथा भाई सुनामाके सुवणों-इक्ष्वाकुकुलकी कन्या । पूरुवंशीय महाराज महोत्रकी साथ द्रौपदीके स्वयंवरमें गया था ( आदि. १८५।१)। पत्नी । हस्ती नामक राजाकी माता (आदि० ९५। ३४)। (३) तप नामधारी पाञ्चजन्य नामक अग्निके सुवर्णाभ-स्वारोचिष मनुके पौत्र एवं शङ्खपदके पुत्र, जो पुत्र, जो यज्ञमें विघ्न डालनेवाले पंद्रह उत्तरदेवों दिक्पाल थे । इन्हें पिताने सात्वतधर्मका उपदेश दिया (विनायकों) मेंसे एक हैं ( वन० २२० । १३)। (शान्ति० ३४८ । ३८)। (३) एक सत्यवादी ब्राह्मण ऋषि, जिन्होंने रातके समय सुवर्मा-धृतराष्ट्रके सौ पुत्रों से एक ( आदि० ६७ । ९७ सत्यवान् और सावित्रीके न लौटनेसे चिन्तित हुए महाराज आदि० ११६ । ६)। भीमसेनद्वारा इसका वध (द्रोण. द्युमत्सेनको आश्वासन दिया था (वन० २९८ । १०)। १२७ । ६६)। (४) अपने वंशका विस्तार करनेवाला गरुड़का एक पुत्र सुवस्त्रा-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (उद्योग० १०१।२)। (५) कौरवपक्षका एक योद्धा (भीष्म० ९ । २५)। जो अभिमन्युद्वारा मारा गया था (द्रोण०४८।१५-१६)। सुवाक-एक ऋषि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका बहुत आदर (६) हिमवान्द्वारा स्कन्दको दिये गये दो पार्षदोंमेंसे करते थे (वन० २६ । २४)। एक । दूसरेका नाम अतिवर्चा था (शल्य०४५। ४६)। सुवामा-एक पवित्र नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं (७) सूर्यवंशी राजा खनीनेत्रके पुत्र । प्रजाओद्वारा (भीष्म० ९ । २८)।
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