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भूमिका महाभारतकी शतसाहस्री संहिता भारतीय ज्ञान, स्थान जानना चाहिये । इस महान् ग्रन्थमें धर्म, अर्थ, चर्म और संस्कृतिकी अक्षय्य निधि है । भगवान् कृष्ण- काम और मोक्ष-इस प्रकार कहे गये हैं कि वे एक
पाचन व्यासने कुरु-पाण्डवोंके चरितको निमित्त बनाकर दूसरेसे संतुलित रहें और परस्पर सहायक हों। यह जिस भारताख्यानकी रचना की थी, वही नाना शास्त्रोंके महाभारत ऐसा ग्रन्थ है, जिसे श्रेष्ठ धर्मशास्त्र, परम अर्थसमुच्चयसे महाभारत के रूपमें इस समय उपलब्ध है, शास्त्र, अग्रणी कामशास्त्र और उत्तम मोक्षशास्त्र मानकर उनजैसा मार्कण्डेयपुराणमें कहा है--
उन अर्थों का दोहन किया जा सकता है । वेदव्यासके इस भगवन् भारताख्यानं व्यासेनोक्तं महात्मना।
वाङ्मयमें चारो आश्रमोंके धोका वर्णन पाया जाता है, पूर्णमस्तमलैः शुभैर्नानाशास्त्रसमुच्चयैः ॥
जिसके द्वारा उनके शिष्ट सदाचार और उनकी दृढ़ जातिशुद्धिसमायुक्तं साधशब्दोपशोभितम्। सामाजिक स्थितिका साधन किया जा सकता है । व्यासपूर्वपक्षोक्तिसिद्धान्तपरिनिष्ठासमन्वितम् ॥ का चिन्तनकर्म अत्यन्त उदार था। उससे यह महाशास्त्र त्रिदशानां यथा विष्णुद्धिपदां ब्राह्मणो यथा । भरा हुआ है । इसमें विरोधकी कहीं सम्भावना नहीं है। भूषणानां च सर्वेषां यथा चूडामणिर्वरः॥ यथाऽऽयुधानां कुलिशमिन्द्रियाणां यथा मनः ।
व्यासके वाक्योंकी यह महती जलधारा वैदिक ज्ञानतथेह सर्वशास्त्राणां महाभारतमत्तमम ॥ विज्ञानरूपी पर्वतोंके ऊँचे शिखरोंसे बहकर आयी है और अत्रार्थश्चैव धर्मश्च कामो मोक्षश्च वर्ण्यते। इसने समस्त त्रिलोकीमें रजोगुणसे उत्पन्न दोगोंका परस्परानुवन्धाश्च सानुबन्धाश्च ते पृथक् ॥ प्रक्षालन किया है । इसके प्रभावशाली प्रवचनके सामने धर्मशास्त्रमिदं श्रेष्ठमर्थशास्त्रमिदं परम्। कुतर्करूप वृक्ष नहीं ठहर पाते । भगवान् वेदव्यासने कामशास्त्रमिदं चायं मोक्षशास्त्रं तथोत्तमम् ॥ चतुगश्रमधर्माणामाचारस्थितिसाधनम्
इतिहास-पुराणकी पाँचवीं संहिताके रूपमें वेदोंका ही
। प्रेक्तमेतन्महाभाग वेदव्यासेन धीमता ॥
एक महागम्भीर सरोवर महाभारतके रूपमें विरचित किया तथा तात कृतं होतद् व्यासेनोदारकर्मणा । है, कुरु-पाण्डवोंकी विस्तीर्ण कथाका जल इसमें भरा यथा व्याप्तं महाशास्त्रं विरोधैर्नाभिभूयते ॥ है । उस खच्छ जलमें वैदिक और लौकिक आख्यानोंके व्यासवाक्यजलौघेन कुतर्कतरुहारिणा।
अनेक शतदल और सहस्रदल कमल खिले हैं। इसकी वेदशैलावतीर्णन नीरजस्का मही कृता ॥
सुन्दर शब्दावली उस जलमें क्रीडा करनेवाले हंसोंकी कलशब्दमहाहंसं महाख्यानपराम्बुजम् । कथाविस्तीर्णसलिलं काणं वेदमहाह्रदम् ॥
मधुर ध्वनि है । ऐसा यह बह्वर्थशाली एवं श्रुतियोंसे
( १ । २-११ ) विस्तार प्राप्त हुआ महाभारतशास्त्र है । अर्थात् इस महाभारतमें अनेक ऐसे शास्त्र संग्रहीत वेदनिधि द्वैपायन कृष्णने महाभारतके द्वारा अपना हैं, जो सब दोपोंसे रहित हैं और जिनका तेज शुभ्र लोकपावन रूप प्रकट किया है । व्यासकी महिमाका है। इसके जन्मका स्रोत शुद्ध है एवं इसमें लोक और पूरा वर्णन दुष्कर है । भगवान् विष्णु एक ऐसे महान् वेदके असंख्य उदात्त शब्द यथास्थान पिरोये गये हैं। कल्पवृक्षके समान हैं, धर्म जिसकी जड़ है, वेद इसमें पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके क्रमसे सिद्धान्तोंकी जिसका तना है, पुराण जिसकी शाखाएँ हैं, यज्ञ जिसके प्रतिष्ठा की गयी है। देवोंमें जैसे महासामर्थ्यवान् पुष्प हैं और मोक्ष जिसका फल है । ऐसे उन नारायणके भगवान् नारायण हैं, मनुष्योंमें जैसे तास्त्री ब्राह्मण हैं, एक अंशसे ही श्रीकृष्ण द्वैपायनका जन्म हुआ है। आभूषणोंमें जैसे चूड़ामणि शोभाशालिनी होती है, निस्संदेह महाभारत अत्यन्त महिमाशाली शास्त्र आयुधोंमें जैसे वज्र दुर्धर्ष है और सब इन्द्रियोंमें महिमाशाली है। वह भारतकी पुरातन राष्ट्रिय संहिता है। प्राचीन जैसे मन है, वैसे ही सब शास्त्रोंके ऊपर महाभारतका ऋषियों के ज्ञानचक्षुओंमें जिस अर्थका आविर्भाव हुआ था,
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