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वही महाभारतमें पाया जाता है । इस प्रकारके महनीय वह उतना ही गम्भीर अर्थ महाभारतमें ढूँद पानेमें ग्रन्थका व्यवस्थित प्रकाशन समाज और राष्ट्रकी महती सफल होगा । राष्ट्रीय अभ्युत्थानके इस क्षणमें, जब सब सेवा माननी चाहिये । इस दृष्टि से गीताप्रेसद्वारा ओरसे भारतीय संस्कृतिके पुनः उत्थान, व्याख्या और प्रकाशित हिंदी-अनुवादसहित मूल महाभारतका नूतन प्रचारका आन्दोलन सशक्त बन रहा है, इस बातकी संस्करण सार्वजनिक अभिनन्दनके योग्य है। नितान्त आवश्यकता है कि महाभारतसम्बन्धी सब
प्रकाशकोंने इस संस्करणके अन्तमें व्यक्तिनाम प्रकारके साहित्यका अधिकाधिक प्रकाशन हो और और स्थाननामोंकी एक अनुक्रमणिका प्रकाशित की विशेषतः ऐसे साहित्यका, जिससे महाभारतके पाण्डित्यहै, जिसमें उस-उस व्यक्ति या स्थानका संक्षिप्त परिचय पूर्ण अनुशीलनको नयी दिशा और प्रोत्साहन प्राप्त हो भी दिया गया है। प्रत्येक नामके आगे पर्व, अध्याय सके । इस दृष्टिसे गीताप्रेसके अभिनव महाभारत
और श्लोकका संकेत देते हुए महाभारतमें उसके प्रकाशन और इस नामानुक्रमणीकी इलाघा करते हुए हम उल्लेखों का पूरा पता दिया गया है। हिंदी अथवा यह आशा करते हैं कि महाभारतकी प्राचीन व्याख्याओंकिसी अन्य भारतीय भाषामें महाभारतके विषयमें इस के प्रकाशनको और
के प्रकाशनकी ओर भी ध्यान दिया जायगा । देवबोध, प्रकारकी उपयोगी अनुक्रमणी पहले नहीं छपी थी।
ही विमलबोध, सर्वज्ञनारायण, अर्जुनमिश्र, रत्नगर्भ, नीलकण्ठ चार सौ पृष्ठोंकी यह बड़ी सूची महाभारत
- और वादिराज आदि आचार्योंने महाभारतविषयक जो सम्बन्धी शोधकार्य करनेवालोंके लिये कल्पलताका टीकात्मक विवेचन किया है, उसका उचित मुद्रण काम देगी । अंग्रेजी भापाके माध्यमसे डेन्मार्क देशके होना चाहिये । अभी कोई ऐसा एक केन्द्र नहीं है, जो विद्वान् श्री डॉ० सोरेन्सेनने १९०२ ई० में ऍन इस ज्ञानराशिका प्रकाशन करे । अवश्य ही संस्कृतके इण्डेक्स टू दी नेम्स ऑव दी महाभारत? इस नामसे वद्धेमान नवजागरणमें इस प्रकारके प्रकाशन युगकी एक बड़े ग्रन्थका निर्माण किया था, जो १९०४ में आवश्यकताकी पूर्ति करेंगे । महाभारतकी बहुत-सी लंदनसे प्रकाशित हुआ । इसमें लगभग आठ सौ शब्दावली उस युगकी देन है, जो आजसे कई सहस्र पृष्ठोंमें महाभारतमें आये हुए समस्त स्थान-नाम और वर्ष पूर्व विद्यमान था। उस समय अनेक आचार्योने मनुष्य-नार्मोका बहुत ही सुन्दर विवरण पाया जाता है दर्शन और अध्यात्मके अनेक दृष्टिकोण रखे थेऔर यह ग्रन्थ भारतीय विद्याके शोधकर्ताओंके लिये जैसे कालवाद, खभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, आज भी कामधेनु के समान है। जैसा स्वाभाविक था. भूतवाद और योनिवाद आदि । महाभारतके ओजायमान इस नामानुक्रमणीके निर्माणमें कुछ अंशतक उस बहुत प्रवाहमें अनेक स्थलोपर, विशेषतः शान्तिपर्वमें इन महाभारतकोशकी शैलीका आश्रय लिया गया है। दार्शनिक मतों या दृष्टियोंका उल्लेख आया है- जैसे सोरेन्सेनका ग्रन्थ इस समय सर्वथा दुर्लभ और दुष्प्राप्य मा
मङ्कि ऋषिके दिष्टिवाद या नियतिवादका अत्यन्त प्रौढ़ हो गया है और उसका मूल्य भी साधारण पहुँचके विचर
मल्य भी माघार विवेचन शान्तिपर्वके अध्याय १७७ में उपलब्ध है, बाहर है । इसलिये भी गीताप्रेसका यह सुलभ प्रकाशन
जिसे महाभारतमें मङ्किगीता कहा गया है। ये आचार्य विशेष स्वागतके योग्य है।
मङ्कि वही हैं, जिन्हें श्रमणपरम्परामें 'मङ्खलिगोसाल'
कहा जाता है, और जो कर्मापवाद-सिद्धान्तका या जैसा ऊपर कहा गया है, महाभारत एक आकर परुपकारके विरोधमें दैववादका प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थ है। उसमें भारतीय भूगोल, इतिहास, संस्कृति, थे गाथाशास्त्र, आख्यान, लोकधर्म, दर्शन और अध्यात्मकी अतुलित सामग्री भरी हुई है । इस ग्रन्थका जो जितना शुद्धं हि देवमेवेदं हठे नैवास्ति पौरुषम् । पारायण करेगा, वह उतना ही लाभान्वित हो सकेगा। अर्थात् केवल दैव ही बलवान् है; कितनी भी हठ जिसके मानसचक्षुओंमें जितनी देखनेकी शक्ति होगी, करो, पुरुषार्थ काम नहीं देता—इस प्रकार महाभारतमें
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