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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (सभा० अध्याय ३८, दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ट ८०४, कालम मेंसे एक (सभा० १४ । ५९)। यह द्रौपदीके १)। (२)एकः असुर, जो श्रीकृष्णद्वारा मारा गया। यह स्वयंवरमें आया था (आदि० १८५। १९)। युधिष्ठिरउग्रसेनके पुत्र कंससे भिन्न था (सभा० ३८, पृष्ठ ८२५)। के राजसूय यज्ञमें भी इसका आना हुआ था (सभा०३४ । क-(१) प्रजापति (आदि० १ । ३२)। (२) दक्ष- १५)। (४) एक जनपद: जहाँके लोग युधिष्ठिरके प्रजापतिका एक नाम ( शान्ति० २०८ । ७)। (३) लिये भेंट लाये थे (सभा० ५५ । ३०; शान्ति० ६५ । भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । ९१)। १३)। (५) छद्मवेषी ब्राहाणा, अज्ञातवासके समय ककुत्स्थ-इक्ष्वाकुवंशी महाराज शशादके पुत्र, जो अनेनाके युधिष्ठिरका बदला हुआ नाम (विराट. १।२४; विराट. पिता थे (वन० २०२ । १-२)। १८ । २५, विराट० ३१ । २१ विराट०७० । ४)। फङ्कणा-स्कन्दकी अनुचरी मातृका (शल्य० ४६ । १६)। कक्ष-एक भारतीय जनपद ( भीष्म०९। ४९)। कच-देवगुरु बृहस्पतिके ज्येष्ठ पुत्र ( आदि०७६ । ११)। कक्षक-वासुक्कुिलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके देवताओंके आग्रह करनेपर इनका संजीवनीविद्या सर्पसत्र में जल मरा था (आदि० ५७ । ६)। सीखनेके लिये शुक्राचार्यके समीप जाना (आदि. ७६ । कक्षसेन-(१) राजा अविक्षित्के पौत्र तथा परीक्षित्के १२-१८) । शुक्राचार्यको अपना परिचय देकर एक प्रथम पुत्र (आदि. ९४ । ५४) । ये यम-सभाके सहस्र वर्षोंतक ब्रहाचर्य पालनके लिये इनका उनसे सदस्य और सूर्यपुत्र यमके उपासक बताये गये हैं (सभा० अनुमति माँगना (आदि. ७६ । २०)। शुक्राचार्यके ८।१८) । इनका वसिष्ठको सर्वस्व समर्पण करके द्वारा इनका स्वागत ( आदि० ७६ । २१) । इनके स्वर्गलोकगमन (अनु० १३७ । १५)। सायं प्रातः स्मरण द्वारा गुरुकुलमें शुक्राचार्य एवं आचार्यपुत्री देवयानीकी करनेयोग्य पुण्यात्मा नरेशोभेसे एक (अनु. १६५।५९)। आराधना (आदि० ७६ । २२-२५) । इनकी देवयानी ये न्यायोपार्जित धनके दान और गत्य-भाषणके द्वारा परम द्वारा एकान्त-परिचर्या (आदि० ७६ । २६) । इनके सिद्धिको प्राप्त हुए ( आश्व० ९१ । ३५-३६ )। द्वारा गुरुकी गौओंकी सेवा ( आदि० ७६ । २७)। (२) राजा युधिष्ठिरकी सभामै बैठकर उनकी उपासना दानवोंका इन्हें मारकर कुत्तों और सियारोंको खिला देना करनेवाले एक नरेश (सभा० ४ । २२)। (आदि० ७६ । २९)। इनके वियोगमें देवयानीकी कक्षसेन-आश्रम-असित नामक पर्वतपर स्थित एक पुण्य चिन्ता ( आदि० ७६ । ३१-३२)। शुक्राचार्यकी दायक आश्रम (वन० ८९ । १२)। संजीवनीके प्रभावसे इनका कुत्तोंके पेट फाड़कर प्रकट कक्षीवान-(१) एक प्राचीन राजा, जो व्युषिताश्व-पत्नी होना (आदि० ७६ । ३४)। दानवोंका इन्हें पीसकर भद्राके पिता थे (आदि० १२० । १७)। (२) एक समुद्रके जलमें मिला देना ( आदि० ७६ । ४१)। ऋषि, जो अङ्गिराके पुत्र हैं और पूर्व दिशामें निवास करते हैं। देवयानीके पुनः चिन्तित होनेपर शुक्राचार्यके द्वारा (शान्ति० २०८ । २७-२८, अनु० १६५।३७-३८)। इनका पुनः संजीवन ( आदि० ७६ । ४२ )। दानवोंका इन्होंने एकाग्रचित्त हो वेदकी ऋचाओंद्वारा भगवान् इन्हें जलाकर इनकी राखको मदिरामें मिला शुक्राचार्यको विष्णुकी स्तुति करके उनकी कृपा एवं तपस्यासे सिद्धि पिला देना (आदि० ७६ । ४३)। गुरुके पेटमें मृतप्राप्त की (शान्ति० २९२ । १५-१७)। ये तपस्यासे संजीवनी विद्या सीखकर इनका शुक्राचार्यको जीवित करना अपनी प्रकृतिको प्राप्त हुए (शान्ति० २९६ । १४- (आदि. ७६ । ५८-६२)। इनके द्वारा गुरुकी १६)। ये महेन्द्र के गुरु, ब्रह्मतेजसे सम्पन्न और लोक- महिमा एवं उनके अनादरसे हानिका वर्णन ( आदि. स्रष्टा बताये गये हैं। इनका तेज रुद्र, अग्नि और वसुओं- ७६ । ६३-६४)। देवयानीके आग्रह करनेपर भी इनका के समान है। ये पृथ्वीपर शुभ कर्म करके देवताओंके साथ उसके साथ विवाह स्वीकार न करना ( आदि० ७७ । आनन्द भोगते हैं। इनका कीर्तन करनेसे इन्द्रलोककी ६-१५)। इनको देवयानीके द्वारा संजीवनी विद्या प्राप्ति होती है ( अनु० १५० । ३०-३३)। सिद्ध न होनेका शाप (आदि० ७७ । १६)। इनके कक्षेयु-पूरुपुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे द्वारा देवयानीको ब्राह्मण-जातीय पति न मिलनेका शाप उत्पन्न पुत्र (आदि० ९४ । १०)। ये सायं-प्रातः (आदि.७७ । १९)। स्वर्ग जानेपर इनको देवताओं स्मरणीय राजाओंमेंसे एक हैं (अनु. १६५।६)। द्वारा वरदान (आदि० ७७ । २३) । इनसे संजीवनीकड़-(१) एक प्राचीन राजा ( आदि. ११२३३)। विद्या पढ़कर देवताओंका कृतार्थ होना (आदि० ७८ । (२) एक पक्षी, जो सुरसाकी संतान है (भादि. १)। बाण-शय्यापर पड़े हुए भीष्मके पास ये भी गये थे ६६ । ६९)। (३) वृष्णिकुलके सात महारथी वीरों- (शान्ति० ४७ । ९; अनु० २६ । ८)। For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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