SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हिमवान् www.kobatirth.org ( ४०६ ) हिमालय के सुरम्य शिखरपर, जिसका विस्तार सौ योजन - का है, भगवान् ब्रह्माजीने एक यज्ञ किया था ( शान्ति० १६६ । ३२ - ३७ ) । पूर्वकालमें प्रजापति दक्षने हिमालय के पार्श्ववर्ती गङ्गाद्वारके शुभ प्रदेशमें एक यज्ञका आयोजन किया था ( शान्ति० २८४ । ३ ) । राजा जनकका उपदेश सुनकर शुकदेवजीने हिमालयपर्वतको प्रस्थान किया । इस पर्वतपर सिद्ध और चारण निवास करते हैं। एक समय देवर्षि नारदजी इसका दर्शन करने के लिये वहाँ पधारे थे । वहाँ सब ओर अप्सराएँ विचरती हैं। विविध प्राणियोंकी शान्त मधुर ध्वनिसे वहाँका सारा प्रान्त व्याप्त रहता है । सहस्रों किन्नर, भ्रमर, खञ्जरीट, चकोर, मोर और कोकिल अपना कलरव फैलाते रहते हैं । पक्षिराज गरुड़ हिमवान् पर नित्य निवास करते हैं। चारों लोकपाल, देवता और ऋषि जगत् के हितकी कामनासे वहाँ सदा आते रहते हैं । भगवान् श्रीकृष्णने पुत्रके लिये यहीं तप किया था । यहीं कुमार कार्तिकेयने बाल्यावस्थामें देवताओंपर आक्षेप किया और तीनों लोकोंका अपमान करके अपनी शक्ति गाड़ दी और यह बात कही -- जो मुझसे भी अधिक बलवान् ब्राह्मणभक्त और पराक्रमी हो, वह इस शक्तिको उखाड़ दे अथवा हिला दे । भगवान् विष्णुने कुमारके सम्मानकी रक्षाके लिये उस शक्तिको केवल हिला दिया, उखाड़ा नहीं । हिरण्यकशिपुके पुत्र प्रह्लादने उसे उखाड़नेकी चेष्टा की; किंतु वे चीत्कार करके मूर्च्छित हो हिमालयके शिखरपर गिर पड़े । गिरिराज हिमालयके पार्श्वभाग में उत्तर दिशा की ओर भगवान् शिवने दुर्धर्ष तपस्या की है । भगवान् शङ्करके उस आश्रमको प्रज्वलित अग्निने चारों ओर से घेर रक्खा है । उस पर्वतशिखरका नाम आदित्यगिरि है । उसपर अजितात्मा पुरुष नहीं चढ़ सकते। उसका विस्तार दस योजन है। वह आगकी लपटोंसे घिरा हुआ है । शक्तिशाली भगवान् अग्निदेव वहाँ स्वयं विराजमान हैं । गिरिराज हिमवान्की पूर्वदिशाका आश्रय लेकर पर्वत के एकान्त तटप्रान्त में किसी समय महर्षि व्यास अपने शिष्य महाभाग सुमन्तु, जैमिनि, पैल तथा वैशम्पायनको वेद पढ़ाया करते थे ( शान्ति० ३२७ । २ – २७ ) । शुकदेवजीके ऊर्ध्वलोक गमन करते समय गिरिराज हिमालय विदीर्ण होता-सा प्रतीत होता था । उन्होंने अपने मार्ग में पर्वतके दो दिव्य शिखर देखे, जो एक दूसरे से हुए थे। उनमेंसे एक हिमालयका शिखर था और दूसरा मेरुका | शुकदेवजी उन्हें देखकर भी रुके नहीं | उनके निकट आते ही वे दोनों पर्वतशिखर सहसा विदीर्ण होकर दो भागों में बँट गये ( शान्ति० ३३३ । ५ – १० ) हिमवान् की पुत्रीका नाम उमा है । उसे रुद्रदेवने पत्नीरूपमें प्राप्त करने की इच्छा की। इसी बीचमें महर्षि भृगुने आकर हिमवान्से उस कन्याको अपने लिये माँगा । हिमवान् ने कहा, 'इसके लिये देख-सुनकर रुद्रदेवको वर हिरण्यगर्भ निश्चित कर लिया गया है।' यह सुनकर भृगुने हिमवान्को शाप दे दिया कि तुम रत्नोंके भण्डार नहीं रहोगे ( शान्ति० ३४२ । ६२ ) । भगवान् नारायण और शङ्करके युद्ध से हिमालयपर्वत विदीर्ण होने लगा था ( शान्ति० ३४२ । १२२ ) । हिमवान् पर्वतपर देवि नारदका अपना आश्रम है ( शान्ति० ३४६ । ३ )। भगवान् श्रीकृष्णने हिमालयपर्वतपर पहुँचकर महात्मा उपमन्युका दिव्य आश्रम देखा था ( अनु० १४ । ४३ - ४५ ) | हिमालयपर्वतपर महात्मा राजा मरुत्तके यज्ञमें ब्राह्मणोंने बहुत सा धन वहीं छोड़ दिया था ( आश्व० ३ । २०-२१ ) । धृतराष्ट्र और गान्धारीके दावानलमें दग्ध हो जानेके पश्चात् संजय हिमालयपर चले गये ( आश्रम० ३७ । ३३ - ३४ ) | महाप्रस्थान के समय योगयुक्त पाण्डवोंने मार्ग में महापर्वत हिमालयका दर्शन किया और उसे लाँघकर जब वे आगे बढ़े तब उन्हें बालूका समुद्र दिखायी दिया ( महाप्र० २ । १-२ ) । हिरण्मय - ( १ ) एक प्राचीन ऋषि, जो इन्द्रसभा में विराजते हैं ( सभा० ७ । १८ ) । ( २ ) सुदर्शन या जम्बूद्वीपका एक वर्ष, जो नीलपर्वतसे दक्षिण और निधपर्वतसे उत्तर है ( भीष्म० ८ । ५–६ :) 1 हिरण्यकवर्ष - जम्बूद्वीपका एक खण्ड, जो श्वेतपर्वतसे आगे है ( सभा० २८ । ६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७४९)। हिरण्यकशिपु - ( १ ) दितिका एक विख्यात पुत्र, जो महामनस्वी था । इसके पाँच पुत्र थे ( आदि० ६५ । (१७-१८) । यही इस भूतलार राजा शिशुपालके रूप में प्रकट हुआ था (आदि० ६७ । ५) । यह देवताओंका शत्रु तथा समस्त दैत्योंका राजा था । इसे अपने बलका बड़ा घमंड था । यह तीनों लोकोंके लिये कण्टकरूपमें था । दैत्यकुलका आदि पुरुष यही था । इसने वनमें जाकर बड़ी तपस्या की, इससे ब्रह्माजी बहुत संतुष्ट हुए ( आदि० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८५ ) । इसके माँगनेपर ब्रह्माजीका इसे अस्त्र-शस्त्रादिसे अवध्य होनेका वरदान देना । त्रिभुवनमें इसके उत्पात तथा भगवान् नृसिंहद्वारा इसका वध ( सभा० ३८ | २९ के बाद दा० पाठ पृष्ठ ७८५ से ७८९ तक ) । प्राचीन कालमें यह समस्त भूतलका शासक था ( शान्ति० २२७ । ५३ ) । ( २ ) एक दानव, जिसने पूर्वकालमें मेरुपर्वतको हिला दिया था । भगवान् शङ्करसे एक अर्बुद वर्षोंके लिये सम्पूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य प्राप्त किया । इसके पुत्र का नाम मन्दार था ( अनु० १४ । ७३-७४ ) । हिरण्यगर्भ - भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम और इसकी निरुक्ति ( शान्ति० ३४२ । ९६ ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy