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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तमाश्व उत्तर दिशा पुनः इनकी बातचीत (आश्व० ५८ । ४-१६)। इनके पूछना ( विराट० ४५ । १२ ) । घायल होनेसे तृक्षपर चढ़कर बेल तोड़कर गिराते समय कुण्डलों की चोरी हतोत्साह होकर अर्जुनसे सारथ्यके लिये अपनी असमर्थता ( आश्व० ५८ । २४-२६)। इनका डंडेसे साँपकी बाँबी प्रकट करना (विराट. ६१ । ४-१२)। अर्जुनके खोदना (आश्व० ५८ । २७-२८)। इन्द्र की सहायता आदेशसे कौरव महारथियोंके वस्त्र उतार लेना (विराट. से नागलोकमें पहुँचना (आश्व०५८ । ३६-३८)। ६६।१५)। बृहन्नलाको सारथि बनाकर इनका नगरअश्वरूप अग्निकी सहायतासे कुण्डल प्राप्त करना की ओर प्रस्थान ( विराट. ६७ । १४) । उत्तरका (आश्व० ५८ । ५६) । गुरुपत्नीको कुण्डल देना नगरमें प्रवेश करके पिता तथा ककके चरणोंमें अभिवादन ( आश्व० ५८ । ५८ )। इनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर (विराट०६८ । ५७ ) । विराटसे युद्धका समाचार भगवान् विष्णुका इन्हें वरदान देना (वन० २०१।३०)। बताना (विराट. ६९ । १-११)। पितासे पाण्डवोंका इनका अयोध्यानरेश बृहदश्वसे धुन्धुको मारनेके लिये परिचय देना (विराट०७१।१३-१७)। अर्जुनका आग्रह करना (वन० २०२ । २२)। विशेषरूपसे परिचय देना (विराट. ७१ । १८-२१)। प्रथम दिनके युद्ध में वीरबाहु के साथ द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म. उत्तमाश्व-भारतवर्षका एक जनपद (भीष्म. १४१)। ४५ । ७७ )। शल्यपर आक्रमण और उनके द्वारा उत्तमौजा-पाण्डवोंका सम्बन्धी । पाञ्चालदेशीय योद्धा इनका वध ( भीष्म० ४७ । ३६-३९ ) । स्वर्गमें ( उद्योग. ५७ । ३२ )। इनके द्वारा अर्जुनके रथके जाकर इनका विश्वेदेवोंमें प्रवेश (स्वर्गा० ५। १७-१८)। दाहिने पहियेकी रक्षा ( भीम. १५ । १९, भीम. (२) एक राजा, जो अपने बड़ेका अपमान करनेके १९ । २४; भीष्म• ९८ । ४३)। इनके रथ के घोड़ोंका कारण नष्ट हो गया ( सभा. २२ । २१ )। वर्णन (द्रोण• २३ । ८)। अङ्गदके साथ इनका युद्ध (३) एक अग्नि, तीन दिन अग्निहोत्र छूट जानेपर (द्रोण. २५ । ३८-३९ )। कृतवर्माके साथ युद्ध इन्हें अष्टाकपाल चरुकी आहुति देना कर्तव्य (बन. (द्रोण. ९२ । २७-३२)। दुर्योधनके साथ युद्ध २२१ । २९ )।(४) उत्तर भारतका एक जनपद करके इनका पराजित होना (द्रोण. १३० । ३०-४३)। (भीष्म० ९। ६५ )। कृतवर्मासे इनकी पराजय ( कर्ण० ६१ । ५९ )। । , उत्तर उलूक-उत्तर दिशामें स्थित उलूक देश, जिसे अर्जनइनके द्वारा कर्ण पुत्र सुषेणका वध (कर्ण० ७५ । १३)। ने जीता था (सभा० २७ । ११)। अश्वत्थामाद्वारा इनका वध (सौप्तिक० ८ । ३५-३६)। उत्तर कुरु-जम्बूद्वीपका एक वर्ष ( खण्ड ), जिसकी उत्तमौजा आदिका दाह (स्त्री० २६ । ३४)। सीमातक अर्जुन गये थे और वहाँसे करके रूपमें बहुत उत्तर-(१) राजा विराटके पुत्र । इनका विराट के साथ धन लाये थे । वह भूमि मनुष्योंके लिये अगम्य है द्रौपदी-स्वयंवरमें आना (आदि. १८५८)। इनका (सभा० २८ । ७-२० )। यह उत्तर कुरुवर्ष नीलदूसरा नाम 'भूमिजय' था (विराट० ३५ । ९)। गिरिसे दक्षिण तथा मेरुगिरिसे उत्तर है। वहाँ सिद्ध पुरुष इनके पास गोपाध्यक्षका आना और इन्हें युद्ध के लिये निवास करते हैं । वहाँके वृक्ष फल-फूलसे सम्पन्न हैं, उत्साहित करना (विराट. ३५ । ९)। इनके द्वारा फूल सुगन्धित फल मधुर और सरस हैं। क्षीरी' नामवाले अपने लिये सारथि ढूँढनेका प्रस्ताव (विराट०३६।२)। वृक्ष वहाँ षडरसयुक्त अमृतमय दूध देते हैं । कुछ वृक्ष बृहन्नला नामधारी अर्जुनको सारथि बनाकर इनका मनोवाच्छित फदेते हैं। क्षीर' के फलोंमें इच्छानुसार युद्ध के लिये प्रस्थान ( विराट० ३७ । २७)। कौरवोंकी वस्त्र और आभूषण भी प्रकट होते हैं। वहाँ मणिमवी भूमि सेना देखकर भयभीत हो रथसे कूदकर भागना (विराट और सोने की बाल का है । स्वर्गच्युत पुण्यात्मा वहाँ रहते हैं। ३८ । २८) । अर्जुनके समझानेपर इनका सारथि वहाँके निवासियोंकी आयु ग्यारह हजार वर्षकी होती है । बननेको राजी होना (विराट ० ३८ । ५१)। शमी वहाँ भारुण्ड नामक पक्षी होते हैं, जो मृतकोंकी लाशें वृक्षसे अर्जुनकी आज्ञाके अनुसार पाण्डवोंके दिव्य धनुष उठाकर कन्दराओंमें डालते हैं (भीष्म०७ । २-१३)। आदि उतारना (विराट० ४१ । ८)। बृहन्नलासे उत्तर कोसल-एक भारतीय जनपद, जिसे भीमसेनने पाण्डवोंके अस्त्रोंके विषयमें प्रश्न करना (विराट० ४२ । जीता था (सभा० ३० । ३)। अध्यायमें )। अर्जुनसे उनके दस नामोंके कारण पृथकपृथक् पूछना ( विराट. ४४।१०-१२)। अर्जनको उत्तर ज्योतिष-पश्चिमका एक प्राचीन नगर, जिसे नकलपहचानकर उनकी शरणमें जाना ( विराट. ४४ । ने जीता था (सभा० ३२ । ११)। २४-२५ ) । अर्जुनले उनके नपुंसक होने का कारण उत्तर दिशा-गरुडने गालबके समक्ष उत्तर दिशाका म० ना०६ For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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