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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूत्तक धृतराष्ट्र धूर्त्तक-कौरव्यकुलमें उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजयके सर्पसत्र में जल मरा था (आदि. ५७ । १३)। धृतराष्ट्र--(१)राजा विचित्रवीर्यके क्षेत्रज पुत्र, विचित्रवीर्यकी पत्नी अम्बिकाके गर्भसे व्यासद्वारा उत्पन्न, ये जन्मसे अन्धे थे ( आदि० १ । ९५, आदि०६३ । ११३, आदि० १०५ । १३)। भीष्मद्वारा इनका पुत्रवत् पालन एवं इनके उपनयनादि संस्कारोंका सम्पादन(आदि० १०८ । १७-१८)।इनकी शारीरिक शक्ति एवं शिक्षा (आदि० १०८ । १९.२१)। जन्मान्ध होनेके कारण इनका राज्य-प्राप्तिसे वञ्चित होना (आदि. १०८ । २५)। गान्धारीके साथ विवाह (आदि १०९ । १६)। इनके द्वारा सौ अश्वमेध यज्ञका सम्पादन तथा प्रतियज्ञ- में लाख-लाख स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणाका दान (आदि. ११३ । ५)। इनके द्वारा गान्धारीके गर्भसे सौ पुत्र होनेका वृत्तान्त (आदि. ११४१२-२५)। दुर्योधनके जन्मकालिक अमङ्गलसूचक लक्षणों या अपशकुनोंको देखकर उसे त्याग देनेके लिये इनको विदुरकी सलाह (आदि. ११४ । ३४-३९)। इनके द्वारा वैश्यजातीय स्त्रीके गर्भसे युयुत्सुका जन्म (आदि०११४ । ४३)। इनकी पुत्री दुःशलाके जन्मकी कथा ( आदि. ११५ अध्याय ) । इन्होंने अपने सभी पुत्रोंका विवाहसंस्कार कराया (आदि० ११६ । १७)। अपनी पुत्री दुःशलाका विवाह सिन्धुराज जयद्रथके साथ किया (आदि. ११६ । १८)। पाण्डुके शापग्रस्त होकर वानप्रस्थ लेनेपर इनका शोक (आदि० ११८ । ४५)। इनके द्वारा राजोचित ढंगसे पाण्डु तथा माद्रीके अन्त्येष्टि-संस्कार करानेके लिये विदुरको आदेश ( आदि० १२६ । १-३)। युधिष्ठिरका युवराज-पदपर अभिषेक ( आदि० १३८ । १-२ ) । पाण्डवोंकी उन्नति देखकर इनकी चिन्ता और इनके प्रति कणिकद्वारा कुटनीतिका उपदेश ( आदि. १३९ । ३-९२)। पाण्डवोंको वारणावत जानेके लिये इनका आदेश (आदि. १४२ । १०)। वारणावतनिवासियोंका इनको पाण्डवों एवं पुरोचनके जलनेका संदेश देना (आदि. १४९ । ९)। पाण्डवोंके लिये इनका मिथ्या विलाप ( आदि. १४९। १०)। इनके द्वारा पाण्डवोंको जलाञ्जलि-दान ( आदि. १४९ । १५)। इनका पाण्डवोंके प्रति प्रेमका दिखावा (आदि. १९९ । २२ के बादसे २५ तक)। इनका पाण्डवोंके विषयमें दुर्योधनसे वार्तालाप ( आदि० २०० । १-२०)। द्रुपदनगरसे बुलाकर पाण्डवोंको आधा राज्य देने के लिये इनसे भीष्मका आग्रह (आदि० २०२ अध्याय)। द्रौपदी एवं पाण्डवोंके लिये उपहार भेजने उनको आदरपूर्वक द्रुपदनगरसे बुलाने एवं पाण्डवोंका आधा राज्य दे देनेके लिये इनसे द्रोणाचार्यका अनुरोध (आदि० २०३।१-१२)। पाण्डवोंका पराक्रम बतला कर उन्हें द्रुपदनगरसे बुलाने एवं उनका आधा राज्य दे देनेके लिये इनसे विदुरकी सलाह ( आदि. २०४। १५-३०)। पाण्डवोंको उनकी माता तथा द्रौपदीके साथ ले आनेके लिये इनका विदुरको आदेश (आदि. २०५ । ४)। द्रुपदनगरसे आते हुए पाण्डवोंकी अगवानीके लिये इनका कौरवोंको आदेश (आदि. २०६ । १२)। इनके द्वारा युधिष्ठिरका आधे राज्यपर अभिषेक और उन्हें भाइयोसहित खाण्डवप्रस्थमें रहनेका आदेश (आदि० २०६ । २३ के बाद दा० पाठ)। ये युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें गये थे (सभा० ३४ । ५)। इनका दुर्योधनसे उसकी चिन्ताका कारण पूछना (सभा० ४९ । ६-११ के बाद दा० पाठ)। इनका युधिष्ठिरको बुलानेके लिये विदुरको भेजना (सभा. ४९ । ५५-५९)। इनका दुर्योधनको वैर-विरोध होनेके कारण जूआ न खेलनेकी सलाह देना (सभा० ५० । १२)। पाण्डवोंके साथ विरोध न करनेके लिये इनका दुर्योधनको समझाना (सभा० ५४ अध्याय)। इनके द्वारा तक्रीड़ाकी निन्दा(सभा० ५६ १२)। पाण्डवोंको धतक्रीड़ामें सम्मिलित होनेके लिये बुलानेके हेतु इनका विदुरको आदेश (सभा० ५६ । २१)। इनका विदुरके साथ वार्तालाप (सभा० ५७ अध्याय )। द्यूतक्रीड़ाके अवसरपर इनको विदुरकी चेतावनी (सभा० ६३ अध्याय)। इनका द्रौपदीको वरदान ( सभा० ७१ । ३१-३३)। इनके द्वारा युधिष्ठिरको सारा धन लौटाकर और आश्वासन दे उन्हें इन्द्रप्रस्थ लौट जानेका आदेश (समा० ७३ अध्याय)। इनकी पुनः जूएके लिये स्वीकृति (सभा० ७४ । २४)। इन्हें गान्धारीकी चेतावनी (सभा०७५ अध्याय)। प्रजाके शोकके विषयमें इनका विदुरसे संवाद (सभा०८० ३५के बाद । दा०पाठ) इनकी चिन्ता तथा संजयसे बातचीत (सभा०८१ अध्याय)। इनके द्वारा विदुरकी सलाहका विरोध (वन ४ । १८-२१)। विदुरको बुलानेके लिये इनका संजयको आदेश (वन०६।५-१०)। इनकी विदुरसे क्षमाप्रार्थना (वन०६।२१)। इनका पाण्डवोंके विषयमें मैत्रेयजीसे प्रश्न करना (वन०१०।९)। इनका संजय के सम्मुख पुत्रोंके लिये चिन्ता करना (वन० ४८ अध्याय)। इनका पाण्डवोंका पराक्रम सुनकर संतप्त होना ( बन० ४९ । १४-२३) । इनका पाण्डवोंके पराक्रम सुनकर भयभीत होना (वन० ५५ । ४५.४६)। पाण्डवोंका समाचार सुनकर इनके खेदयुक्त और चिन्तापूर्ण उद्गार (वन २३६ अध्याय)। इनका दुर्योधन For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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