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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सनत्सुजात (या सनत्कुमार) ( ३६९ ) सम D ब्रह्मलोकसे आकर राजा पुरूरवाको समझाया था ( आदि० आते हैं । तीर्थसंघातसे युक्त होनेके कारण इसे सन्निहती ७५ । २१-२२ ) । महातपस्वी योगाचार्य भगवान् कहते हैं । यहाँ श्राद्ध करनेकी विशेष महिमा है (वन० सनत्कुमार ब्रह्मसभामें रहकर उनकी उपासना करते हैं ८३ । १९०-१९९)। (सभा० ११ । २३) । कनखलके पास महानदी सन्निहित-एक अग्नि, जो देहधारियोंके प्राणोंका आश्रय लेकर गङ्गाके तटपर इन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी ( वन० । उनके शरीरको कार्यमें प्रवृत्त करते हैं । ये मनुके तीसरे १३५ । ५)। इनके द्वारा गौतम और अत्रिके पुत्र हैं। इनके द्वारा शब्द और रूपको ग्रहण करनेमें विवादका निर्णय ( वन. १८५ । २७-३१)। सफलता मिलती है (वन० २२१ । १९)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीके पास उन्हें देखनेके सप्तकृत-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३६ )। लिये आये थे (शान्ति०४७ । ८)। विभाण्डक आदि ऋषियोंको इनका उपदेश (शान्ति. २२२ अ० दा० पाठ)। सप्तगह-एक प्राचीन तीर्थ । इसमें विधिपूर्वक देवता-पितरोंका वृत्रासुरको आध्यात्मिक उपदेश (शान्ति० २८० । ७ तर्पण करनेवाला मनुष्य पुण्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है ५६)। इन्होंने गन्धर्वराज विश्वावसुको किसी समय (वन० ८४ । २९)। इस तीर्थमें पितरोंका तर्पण करनेउपदेश किया था (शान्ति० ३१८ । ६१)। इनका वाला मनुष्य यदि जन्म लेता है तो अमृतभोजी देवता ऋषियोंको उपदेश(शान्ति० ३२९।५-७)। ये ब्रह्माजीके होता है (अनु० २५ । १६)। मानसपुत्र हैं । इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्ति- सप्तगोदावर-शूर्पारक क्षेत्रके समीपवर्ती एक प्राचीन धर्ममें स्थित हैं। ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्यज्ञान-विशारद, तीर्थ, जहाँ स्नान करके नियमपूर्वक नियमित भोजन धर्मशास्त्रोंके आचार्य तथा मोक्षधर्मके प्रवर्तक हैं (शान्ति० करनवाला पुरुष महान् पुण्य लाभ क करनेवाला पुरुष महान् पुण्य लाभ करता और देवलोकमें ३४ । ७२-७४ ) । इन्होंने ब्रह्माजीसे सात्वतधर्मका . जाता है ( वन० ८५ । ५४)। उपदेश ग्रहण किया और इनसे वीरण प्रजापतिको इस सप्तचरु-यहाँ सभी देवताओं तथा प्राणियोंने भगवान् धर्मका उपदेश प्राप्त हुआ (शान्ति० ३४८ । ४०-४१)। केशवको प्रसन्न करनेके लिये ऋग्वेदकी सात-सात ऋचाओंसे प्रद्युम्न स्वर्गमें जानेपर इन्हींके स्वरूपमें प्रविष्ट हो गये थे। सात-सात आहुतियाँ दी थीं, इसीसे इसका नाम सप्तचर (स्वर्गा० ५। १३)। पड़ा । वहाँ अग्निके लिये दिया हुआ चरु एक लाख सनत्सुजात (या सनत्कुमार )-एक सनातन ऋषि, गोदान, सौ राजसूय यज्ञ और सहस्र अश्वमेध यज्ञसे जो विदुरजीके स्मरण करनेसे प्रकट हए थे (उद्योग भी अधिक कल्याणकारी है (वन० ८२ । ९६-९९)। ४१।८)। इनके द्वारा धृतराष्ट्रको उपदेश (उद्योग. सप्तराव-गरुड़की प्रमुख संतानों से एक ( उद्योग अध्याय ४२ से ४६ तक)। १०१।११)। सनत्सुजातपर्व-उद्योगपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय सप्तर्षिकुण्ड-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत ब्रह्मोदुम्बर ४१ से ४६ तक)। तीर्थमें स्थित एक कुण्ड । जिसमें स्नान करनेसे महान् सनातन-(१)एक महर्षि, जो राजा यधिष्ठिरकी सभा पुण्यकी प्राप्ति होती है (वन० ८३ । ७२)। विराजते थे ( सभा० ४ । १६)। (२)ब्रह्माजीके एक सप्तसारस्वत-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक प्राचीन मानसपुत्र (शान्ति० ३४० । ७२ )। तीर्थ, जहाँ मंकणक मुनिको सिद्धि प्राप्त हुई थी (वन० सनीय-दक्षिण भारतका एक जनपद (भीष्म०९ । ६३)। ८३ । ११५-११६)।यह सरस्वती तीर्थमें सबसे श्रेष्ठ है। यहाँ बलरामजी अपनी तीर्थयात्राके अवसरपर पधारे थे सन्त-वीतहव्यवंशी सत्यके पुत्र । इनके पुत्रका नाम श्रवा (शल्य. ३७ । ६१)। इस तीर्थको उत्पत्ति और था ( अनु० ३० । ६२-६३)। महिमाका विशेषरूपसे वर्णन (शल्य०३८।३-३२)। सन्नतेयु-पूरुके तीसरे पुत्र रौद्राश्वके द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके सभापति-कौरवपक्षका एक राजकुमार, जिसका अर्जुनद्वारा गर्भसे उत्पन्न एक महाधनुर्धर पुत्र (आदि० ९४।८-११)। वध हुआ था (कर्ण० ८९ । ६४) सन्निहती तीर्थ-कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत एक प्राचीन सभापर्व-महाभारतका एक प्रमुख पर्व ।। तीर्थ । जहाँ ब्रह्मा आदि देवताऔर तपोधन ब्रह्मर्षि प्रतिमास सम-धृतराष्ट्र के सौ पुर्मिसे एक (आदि०६७।१६, आदि. महान् पुण्यसे सम्पन्न होकर जाते हैं । सूर्यग्रहणके समय ११६। ५)। इसका भीमसेनके साथ युद्ध (भीष्म० ६४ । इसमें स्नान करनेसे सौ अश्वमेध यौका फल प्राप्त होता २९)। इसका भीमसेनके साथ युद्ध और उनके द्वारा है । इसमें पृथ्वी और आकाशके सम्पूर्ण तीर्थ अमावास्याको वध (कर्णः ५३ । ७-१६)। मना०४७ For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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