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ललितक
( २९१ )
लोपामुद्रा
ललितक-शान्तनुका उत्तम तीर्थ, यहाँ स्नान करनेसे मनुष्य लीलाढ्य-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु०
कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता (वन० ८४ । ३४ )। । ५३ )। ललित्थ-एक देश तथा वहाँके निवासी । यहाँके सैनिकोंने लोकपाल-इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण-इन्हें लोकपाल सुशर्मा के साथ अर्जुनका वध करने के लिये प्रतिज्ञा की थी कहा गया है । इनकी दमयन्ती-स्वयंवरमें आते समय (द्रोण. १७।२०)। ये अर्जुनद्वारा पीडित किये गये मार्गमें राजा नलसे भेंट और उनसे दत बनने के लिये ये (द्रोण. १९।१६) । यहाँके राजाने अभिमन्युपर कहना ( वन० ५४ । २८ से ५५ । ५ तक) । इनके बाण वर्षा की थी (द्रोण० ३७ । २६) । पूर्वकालमें द्वारा नलको वर-प्रदान (वन० ५७ । ३५-३८)। कर्णने इस देशपर विजय पायी थी ( द्रोण० ९१ । लोकपालसभाख्यानपर्व-सभापर्वका एक अवान्तर पर्व ४०)। अर्जुनद्वारा इनके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण.
(अध्याय ५ से १२ तक)। ५।४७)।
लोकोद्धार-एक लोकविख्यात प्राचीन तीर्थ, जहाँ भगवान् लवण-(१) रामणीयक द्वीपमें निवास करनेवाला एक
विष्णुने कितने ही लोकोंका उद्धार किया था । यहाँ स्नान असुर, जिसे नागोंने पहले-पहल इस द्वीपमें आनेपर देखा
करनेसे मनुष्य आत्मीय जनोंका उद्धार करता है (धन. या (आदि. २७ । २)। (२) मधु नामक राक्षसका पुत्र | श्रीरामकी आज्ञासे शत्रुघ्नद्वारा इसका वध (सभा०
८३ । ४४-४५)। ३८ । २९ के बाद दा०पाठ, पृष्ठ ७९५)।चक्रवर्ती राजा लोपामुद्रा-महर्षि अगस्त्यने अपनी पत्नी बनानेके लिये मान्धाता लवणासुरके द्वारा प्रयुक्त हुए शिवजीके त्रिशूलसे एक सुन्दरी कन्याका निर्माण किया और पुत्रके लिये सेनासहित नष्ट हो गये। अभी वह शूल असुरके हाथमें ही
तपस्या करनेवाले विदर्भराजके हाथमें उसे दे दिया। उस था कि राजाका सर्वनाश हो गया (अनु. १४ । २६७
कन्याका उस राजभवन में बिजलीके समान प्रादुर्भाव २६८)।
हुआ । उसे पाकर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने
ब्राह्मणोंको यह शुभ संवाद सुनाया । ब्राह्मणोंने उस लवणाश्व-एक ब्रह्मर्षि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका विशेष सम्मान करते थे (वन० २६ । २३)।
कन्याका नाम लोपामुद्रा' रख दिया । धारे-धारे वह
युवावस्थामें प्रविष्ट हुई। सौ दासियाँ और सौ कन्याएँ लाक्षा-गृह-दुष्ट दुर्योधनकी प्रेरणासे महात्मा पाण्डवोके
उसकी सेवा में रहने लगी । महात्मा अगस्त्यके भयसे किसी विनाशके लिये वारणावतनगरमें लाह आदि आग
राजकुमारने उसका वरण नहीं किया। वह अपने शीलभड़कानेवाले पदार्थोद्वारा निर्मित गृह ( आदि. १४३ ।
सदाचारसे पिता तथा स्वजनोंको संतुष्ट रखती थी । उसे ८-१.)। पुरोचनद्वारा इस लाक्षागृहकी पाण्डवोंसे
युवती हुई देख पिता उसके विवाहके लिये चिन्तित हुए चर्चा । पाण्डवोंका इसमें प्रवेश । इसके निर्माणके सम्बन्ध
(वन० ९६ । १९-३०) । एक दिन महर्षि अगस्त्यने में युधिषिरका भीमसेनसे रहस्य-कथन ( भादि. १४५।
आकर विदर्भशजसे लोपमुद्राको माँगा । राजा अपनी ११-१९ ) । विदुरके भेजे हुए खनव द्वारा इसमें
पुत्रीका विवाह उनके साथ नहीं करना चाहते थे, परंतु सुरंगका निर्माण (आदि० १४६ । १६)। भीमसेनद्वारा
महर्षि के शापके डरसे वे उन्हें कन्या देनेसे इनकार भी इसका दाह (आदि. १४७ । १०)।
न कर सके । माता-पिताको संकट में पड़ा देख लोणमुद्रा लागली-एक श्रेष्ठ नदी, जो वरुणकी सभामें रहकर उनकी उनसे इस प्रकार बोली--आप मुझे महर्षिकी सेवामें दे दें उपासना करती है (सभा०९ । २२)।
और अपनी रक्षा करें।' तब उन राजदम्पतिने अपनी लाट-एक क्षत्रिय जाति, इस जातिके लोग ब्राह्मणों के साथ उस कन्याका ब्याह अगस्त्य मुनिके साथ कर दिया । ईर्ष्या रखनेके कारण नीच हो गये (अनु. ३५। १७- लोपामुद्राने पतिकी आशासे बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण १८)।
उतारकर वल्कल एवं मृगचर्म धारण कर लिये । वह लिखित-एक प्राचीन मुनि, जो इन्द्रके सभासद् हैं पतिके समान ही व्रत और आचारका पालन करने लगी।
(सभा०७।११)। ये शङ्खके भाई थे। इन्होंने महर्षि उसे लेकर गङ्गाद्वारमें आये और घोर तपस्यामें भाईकी आज्ञासे राजा सुद्युम्नके पास जाकर उनसे चोरीके संलग्न हो गये । लोपामुद्रा बड़ी प्रसन्नता और विशेष अपराधका दण्ड माँगा और अपने दोनों हाथ कटवा आदरके साथ पतिकी सेवा करने लगी। दीर्घकालके दिये (शान्ति० २३ । १८-३६) । भाई शङ्खके
पश्चात् प्रसन्न हो महर्षि ने उसे समागमके लिये अपने समीप तपोबलसे पुनः इनके नये हाथ निकल आये ( शान्ति. बुलाया, लोपामुद्राने पिताके घर के समान राजमहलमें उनके २३ । ४१-४२)।
साथ समागमकी इच्छा प्रकट की। तब महर्षि ने लोपा
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