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द्वारपालपुर
( १६२ )
धनुर्वेद
क्षेत्र परम पावन तीर्थ हैं । इन तीर्थोकी यात्रा करने- इसलिये द्वैपायन नामसे प्रसिद्ध हुए (आदि. ६३ । वालोंको नियमसे रहना और नियमित भोजन करना ८६)। (देखिये व्यास)। (२) कुरुक्षेत्रका एक चाहिये । यहाँके पिण्डारक-तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सरोवर, जिसमें दुर्योधन भागकर छिपा था (शल्य. अधिकाधिक सुवर्णकी प्राप्ति होती है (वन० ८२ । ३०। ४७)। ६५)। यहीं राजा नृगका गिरगिटकी योनिसे उद्धार हुआ था (अनु. ७०।७)। यही यदुवंशके विनाशके
धनंजय-(१) एक प्रमुख नाग, जो कश्यप और कद्रकी लिये साम्बके पेटसे मूसल पैदा होनेका शाप ऋषियोंद्वारा
संतान है ( आदि० ३५ । ५)। यह वरुणकी सभामें प्राप्त हुआ था (मौसल.। १९-२१)। श्रीकृष्णके
उपस्थित हो भगवान् वरुणकी उपासना करता है (सभा० परमधाम पधारनेपर द्वारकावासी स्त्री-पुरुषोंके द्वारा इस
९।९)। यह त्रिपुर-दाहके समय भगवान् शिवके रथमें पुरीके खाली कर दिये जानेपर समुद्र ने इसे डुबो दिया
घोड़ोंके केसर बाँधनेकी रस्सी बनाया गया था (कर्ण. (मौसल. ७ । ४१-४२)।
३४ । २९-३०)। (२) अर्जुनका एक नाम, सम्पूर्ण द्वारपालपुर-एक प्राचीन नगर, जिसे नकुलने अपने अधि
देशोंको जीतकर कररूपमें धन लेकर धनके ही बीचमें कारमें कर लिया था (सभा० ३२ । ११-१२)।
स्थित होनेके कारण अर्जुनका नाम धनंजय हुआ था द्वित-एक प्राचीन महर्षि, जो गौतमके पुत्र तथा एकत और (विराट० ४४ । १३)। ( देखिये अर्जुन ) । (३) त्रितके भाई थे । इनका लोभवश अपने भाई त्रितको शिवजीद्वारा स्कन्दको दी हुई असुर-सेनाका नाम (शल्य.
कूपमें गिरा छोड़कर एकतके साथ घरको जाना और ४६ । ४७)। त्रितके शापसे भेड़िया होकर लंगूरों, रीछों और वानरोंको
धनद-कुबेरकी सभाका एक यक्ष, जो भगवान् कुबेरकी उत्पन्न करना ( शल्य. ३७ अध्याय )। ये पश्चिम
सेवामें संलग्न रहता है (सभा०१०।१५)। दिशाका आश्रय लेकर रहनेवाले ऋषि हैं ( शान्ति. २०८ । ३१)। ये प्रजापतिके पुत्र माने गये हैं । इन्हें धनदा
धनदा-स्कन्द की अनुचरी मातृका (शल्य. ४६ । १३)। उपरिचरवसुके यज्ञका सदस्य बनाया गया था (शान्ति० धनी-कप नामक दानवोंका दूत, इसके द्वारा ब्राह्मणोंके ३३६ । ६)।
पास जाकर कपोंके सदाचारका वर्णन (अनु० १५७ । द्विमूर्धा-एक राक्षस, जो असुरोंके पृथ्वीदोहनके समय दोग्धा ८-१४)।
(दुहनेवाला ) बना था ( दोण० ६९ । २०)। धनुर्ग्रह (धनुग्रह या धनुधर )-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों से द्विविद-किष्किन्धानिवासी एक वानर, जिसके साथ सहदेवने एक (आदि० ६७ । १०३, आदि. ११६ । ११)। सात दिनोंतक युद्ध किया था तो भी वे उसे हरा न सके
भीमसेनद्वारा इसका वध ( कर्ण० ८४ । २-६)। (सभा० ३१ । १८-१९) । इसने सहदेवको नाना धनुर्वक्त्र-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्यः ४५ । ६२)। प्रकारके रत्नोंकी भेंट दी थी (सभा० ३१ । २०)।
धनुर्वेद-वह शास्त्र, जिसमें धनुष आदि अस्त्र-शस्त्रोंको यह सुग्रीवका मन्त्री था (वन० २८० । २३) । इसके
चलानेकी विद्याका निरूपण हो, चार पादोंसे युक्त अस्त्र-शस्त्र संरक्षणमें रहकर श्रीरामका कार्य करनेके लिये वानर सेनाने कूच
विद्या । [ भारतवर्षमें इस विद्याके बड़े-बड़े ग्रन्थ थे, जिन्हें किया था (वन० २८३ । १९)। इसने कभी श्रीकृष्णको
क्षत्रियकुमार अभ्यासपूर्वक पढ़ते थे। मधुसूदन सरस्वतीने पकड़नेकी इच्छा रखकर सौभ विमानके द्वारसे इनपर
अपने प्रस्थानभेद नामक ग्रन्थमें धनुर्वेदको यजुर्वेदका उपवेद पत्थरोंकी वर्षा का था ( उद्योग० १३० । ४१-४२)।
लिखा है। आजकल इस विद्याका वर्णन कुछ ग्रन्थों में थोड़ा बहुत दीपक-गसड़की प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग० १०१।। मिलता है। जैसे----शुक्रनाति, कामन्दकी नोति, अग्निपुराण,
वीर-चिन्तामणि, वृद्धशार्ङ्गधर, युद्धजयार्णव, युक्ति-कल्पतरु, देतवन-एक वन और सरोवर, यहाँ वनवासके समय
नीतिमयूष इत्यादि । 'धनुर्वेद संहिता' नामक एक पाण्डवोंने निवास किया था ( वन० २४ । १३)। यह अलग पुस्तक भी मिलती है, परंतु उसकी प्राचीनता सरस्वतीके तटपर अवस्थित था ( वन० २४ । २०)। और प्रामाणिकतामें संदेह है । अग्निपुराणमें ब्रह्मा और तीर्थयात्राके समय बलरामजीने यहाँ पदार्पण किया था
महेश्वर इस वेदके आदि प्रकटकर्ता कहे गये हैं। परंतु (शल्य० ३७ । २७)।
मधुसूदन सरस्वती लिखते हैं कि विश्वामित्रने जिस वैपायन(१)-महर्षि पराशरके द्वारा सत्यवतीके गर्भसे उत्पन्न धनुर्वेदका प्रकाश किया था, यजुर्वेदका उपवेद वही है।' मनिवर वेदव्यास, जो यमुनाके द्वीपमें छोड़ दिये गये, उन्होंने अपने प्रस्थानभेदमें विश्वामित्रकृत इस उपवेदका
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