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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्वाविलोमापह ( उद्योग० १७१ । २७ )। इनके रथके घोड़ोंका वर्णन ( द्रोण० २३ । ३७ ) । इनके मारे जानेकी चर्चा ( कर्ण० ६ । १५ ) । ( ३६१ ) श्वासा- दक्ष प्रजापतिकी पुत्री और धर्मकी पत्नी । इनके गर्भसे अनिलनामक वसुका जन्म हुआ था। भादि० ६६ । १७–१९) । श्वेत - ( १ ) एक प्राचीन धर्मनिष्ठ राजर्षि ( आदि० १ । २३३ )। इन्होंने अपने मरे हुए पुत्रको पुनः जीवित कर दिया था ( शान्ति० १५३ | ६८ ) । इन्होंने कभी मांस नहीं खाया (अनु० ११५ । ६६) । ये सायं प्रातःस्मरणीय राजर्षि हैं (अनु० १५० । ५२) । ( २ ) एक राजा, जिसकी गणना भगवान् श्रीकृष्णने भारतवर्षके प्रमुख वीरोंमें की है ( सभा० १४ । ६१ के बाद दा० पाठ) । (३) उत्तराखण्डका एक पर्वत, जिसे लाँघकर पाण्डवलोग आगे गये थे ( वन० १३९ । १ ) । ( ४ ) विराट के पुत्र, जो उनकी बड़ी रानी कोसलराजकुमारी सुरथाके गर्भ से उत्पन्न हुए थे ( विराट० १६ | ५१ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ १८९३, कालम (२) । ये राजा युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें आये थे और शिशुपालने इनके नामका उल्लेख किया था ( सभा० ४४ । २० ) । इनका विचित्र पराक्रम ( भीष्म० ४७ । ४४-६२ ) । भीष्म के साथ इनका अद्भुत युद्ध और उनके द्वारा इनका वध ( भीष्म० ४८ अध्याय ) । ( ५ ) एक वर्षका नाम । नीलपर्वतसे उत्तर श्वेत वर्ष है और उससे उत्तर हिरण्यक वर्ष है ( भीष्म ० ६ । ३७ ) | ( ६ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६४ ) । बन० ८३ । ६१ ) । श्वाविल्लोमापह - कुरुक्षेत्र की सीमा के अन्तर्गत एक तीर्थ श्वेतकेतु एक ऋषि, जो जनमेजय के सर्पसत्र के सदस्य बने थे ( आदि० ५३ । ७ ) : ये गौतमकुलमें उत्पन्न महर्षि उद्दालकके पुत्र हैं । इन्द्रकी सभा में रहकर उनकी उपा सना करते हैं ( सभा० ७ । १२ ) । ये अष्टावक्रके मामा थे। इनका अष्टावक्रको अपने पिताकी गोदसे खींचना ( वन० १३२ । १८ ) । अष्टावक्र के साथ राजा जनकके यज्ञमें जाना ( वन० १३२ । २३ ) । हस्तिनापुर जाते समय श्रीकृष्णसे मार्गमें इनकी भेंट ( उद्योग० ८३ । ६४ के बाद दा० पाठ ) । कपटव्यवहार के कारण पिताद्वारा इनका परित्याग ( शान्ति० ५७ । १०) । महर्षि देवलके पास उनकी कन्या के लिये जाना, सुवर्चला के साथ इनका विवाह, पत्नी के साथ इनके विभिन्न आध्यात्मिक प्रश्नो तर, गृहस्थधर्मका पालन करते हुए इन्हें परमगतिकी प्राप्ति ( शान्ति० २२० । दाक्षिणात्य पाठ ) । उत्तर दिशाके ऋषि हैं (अनु० १६५ | ४५ ) । श्वेतद्वीप - भगवान् नारायणका अनिर्वचनीय धाम-क्षीर सागरके उत्तर भागका श्वेत नाममे विख्यात विशाल द्वीप, जिसकी ऊँचाई मेरुपर्वतसे बत्तीस हजार योजन है। वहाँके निवासी इन्द्रियोंसे रहित, निराहार तथा ज्ञानसम्पन्न होते हैं। उनके अङ्गोंसे उत्तम सुगन्ध निकलती रहती है। व निष्पाप एवं श्वेतवर्णके होते । उनका शरीर और उसकी हड्डियाँ वज्रके समान सुदृढ़ होती हैं। वे मानअपमान से परे तथा दिव्यरूप और चलते सम्पन्न होते हैं। मस्तक छत्रकी भाँति एवं स्वर मेघगर्जन- जैसा गम्भीर होता है । उनके बराबर-बराबर चार भुजाएँ, मुँहमें साठ सफेद दाँत और आठ दाढ़ें होती हैं। वे दिव्यकान्तिमान् होते हैं तथा कालको भी चाट जाते हैं। वे अनन्त गुणोंके भंडार परमेश्वरको अपने हृदय में धारण किये रहते हैं। ( शान्ति० ३३५ । ८-१२ दा० पाठसहित ) । श्वेतद्वीप प्रभावका विशेष वर्णन ( शान्ति० ३३६ । २७-५९ ) । श्वेतक - सदा यज्ञमें निरत रहनेवाले एक भूपाल ( आदि० २२२ । १७ ) । इनके द्वारा विविध यशका अनुष्ठान ( आदि ० २२२ । १९ ) । दीर्घकालतक इनके यश में आहुति देनेके कारण खिन्न हुए ऋत्विजोंद्वारा इनका परित्याग एवं दूसरे ऋत्विजोंको बुलाकर अपने चालू किये गये यशको पूरा करना ( आदि० २२२ । २१-२३ ) । यज्ञ-सम्पादनके लिये इनके द्वारा घोर तपस्या और भगवान् शिवकी आराधना ( आदि ० २२२ । ३६-३९ ) । बारह वर्षोंतक अग्निमें निरन्तर आहुति देने के लिये इनको शिव - का आदेश (आदि० २२२ । ४७ ) । भगवान् शिवका प्रसन्न होकर अपने ही अंशभूत दुर्वासाको इनका यश सम्पादित करनेके लिये आदेश ( आदि० २२२ । ५८ ) | दुर्वासाद्वारा इनके शतवर्षीय यशका सम्पादन ( आदि० म० ना० ४६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ता २२२ । ५९ ) । इनके यज्ञमें बारह वर्षोंतक निरन्तर घृतपान करनेसे अग्निदेवको अजीर्णताका कष्ट होना ( आदि० २२२ । ६३-६७ ) । For Private And Personal Use Only श्वेतभद्र - एक गुह्यक, जो कुबेरकी सभा में आकर उनकी सेवामें उपस्थित होता है ( सभा० १० । १५ ) । श्वेतवक्त्र - स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ७३ ) । श्वेतवाहन - अर्जुनका एक नाम ( आदि० १९९ । १० ) । ( विशेष देखिये - अर्जुन ) । श्वेतसिद्ध-स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ । ६८ ) । श्वेता - (१) क्रोधवशाकी पुत्री, इसने शीघ्रगामी दिग्गज
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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