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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधवा-आश्रम ( ३२० ) विश्वाची दूसरा द्विज प्रकट हुआ, उसका नाम विश्रवा' हुआ विश्वजित-(१) बृहस्पतिके तृतीय पुत्र । ये समस्त (वन० २७४ । १३-१४)। कुबेरने पिता विश्रवाकी विश्वको बुद्धिको अपने वशमें करके स्थित हैं। इसीलिये सेवाके लिये तीन सुन्दरी राक्षस-कन्याओंको नियुक्त अध्यात्मशास्त्र के विद्वानोंने इन्हें विश्वजित् कहा है (वन. किया था, जिनके नाम थे-पुष्पोत्कटा, राका तथा मालिनी २१९ । १६)। (२) एक दैत्य, दानव या राक्षस (वन० २७५ । ३-५)। इनके द्वारा पुष्पोत्कटासे रावण जो पूर्वकालमें पृथ्वीका शासक था, परंतु कालवश इसे और कुम्भकर्णकाः राकासे खर और शूर्पणखाका तथा छोड़कर चल बसा (शान्ति० २२७ । ५३)। मालिनीसे विभीषणका जन्म हुआ (वन० २७५। ७-८)। विश्वदंष्ट-एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो पूर्वकालमें पृथ्वीविश्रवा-आश्रम-आनर्तदेशकी सीमाके अन्तर्गत स्थित का शासक था, परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा (शान्ति. २२७ । ५२)। एक तीर्थ, यहाँ नरवाहन कुबेरका जन्म हुआ था (वन. ८९।५)। विश्वपति-मनु नामक अग्निके द्वितीय पुत्र । ये वेदोंमें विश्व-एक क्षत्रिय राजा, जो मयूर नामक असुरके अंशसे सम्पूर्ण विश्वके पति कहे गये हैं। इनके प्रभावसे हविष्यकी आहुतिक्रिया सम्पन्न होती है; अतः ये स्विष्टकृन् उत्पन्न हुए थे (आदि०६७ । ३६)। ( उत्तम अभीष्टकी पूर्ति करनेवाले ) कहे जाते हैं (बम० विश्वकर्मा (त्वष्टा )-देवताओंके शिल्पी । आठ वसु २२१ । १७-१८)। प्रभासके पुत्र । वृहस्पतिकी ब्रह्मवादिनी बहिन, जो योगमै विभक-(१) पाण्डवोके रूपमें उत्पन्न होनेवाले पाँच तत्पर हो सम्पूर्ण जगत्में अनासक्तभावसे विचरती रही, इन्द्रों से एक, शेष चारके नाम भूतधामा, शिबि, शान्ति इनकी माता थी (भादि.६६ | २६-२८)। इन्द्र- और तेजस्वी था (भावि० १९६ । २९)। (२) प्रस्थ नगरके निर्माणके लिये इनको इन्द्रका आदेश वृहस्पतिके चौथे पुत्र । ये समस्त प्राणियोंके उदरमें तथा इनके द्वारा उस नगरका निर्माण ( आदि० २०६। स्थित हो उनके खाये हुए पदार्थों को पचाते हैं। पाक२५ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ५९३.५९४ )। यज्ञोंमें इन्हींकी पूजा होती है । इनकी पत्नी गोमती नदी है (वम. २१९१७-१९)। ब्रह्माजीके आदेशसे इनके द्वारा तिलोत्तमाका निर्माण (आदि० २१० ११-१८)। ये एक महर्षिके रूपमें विश्वरुचि-एक गन्धर्वराज, जो पृथ्वीदोहनके समय दोग्धा इन्द्रकी सभामें विराजमान होते हैं (सभा०७।१४)। बने थे (द्रोण० ६९ । २५)। इन्होंने यमसभाका निर्माण किया है ( सभा०८ । विश्वरूप-(१) एक राक्षस, जो वरुणकी सभामें रहकर ३४)। इन्होंने वरुणसभाको जलके भीतर रहकर बनाया उनकी उपासना करता है (सभा०९।१४)। (२) है (सभा०९।२)। ये ब्रह्माजीकी सभामें रहकर त्रिशिरा, जो त्वष्टाके पुत्र तथा देवताओंके पुरोहित थे। उनकी सेवा करते हैं (सभा० ११।३१)। इन्होंने ये असुरोंके भानजे लगते थे, अतः देवताओंको प्रत्यक्ष ब्रह्माजीके वनमें यश किया था ( वन० ११४।१७)। और असुरोंको परोक्षरूपसे यशोंका भाग दिया करते थे इनके द्वारा ही पुष्पक विमानका निर्माण हुआ है (बन० (उच्चोग०९। ३-४ शान्ति० ३४२ । २८)। इनको १६१ । ३७)। नल नामक वानर इनका पुत्र था लुभानेके लिये अप्सराओंका आना, इनका उनके प्रति आसक्त होना और अप्सराको इन्द्र में अनुरक्त जान इन्द्र (वन.२८३ । ४१)। अर्जुनके रथका ध्वज क्या था, आदि देवताओंके अभावके लिये संकल्प करके मन्त्रोंका जप विश्वकर्माकी बनायी हुई दिव्य माया थी (विराट करना (शान्ति० ३४२ । ३२-३४)। ये अपने एक मुख४६ । ३-४) । इन्द्रके प्रति द्रोहबुद्धि होनेसे इन्होंने से संसारके सारे क्रियानिष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा यशोंमें होमे गये तीन शिरवाले एक पुत्रको उत्पन्न किया, जिसका नाम सोमरसको पी लेते थे, दूसरेसे अन्न खाते और तीसरेसे था विश्वरूप (उद्योग० ९।३-४)। विश्वरूपके मारे इन्द्रादि देवताओंके तेजको पी लेते थे (शान्ति. जानेपर इन्द्रसे बदला लेने के लिये इन्होंने वृत्रासुरको ३४२।३४) । इन्द्रद्वारा इनका वध (शान्ति. उत्पन्न किया ( उद्योग०,९ । ४५-४८ )। इन्होंने ३४२ । ११)।(विशेष देखिये त्रिशिरा) इन्द्र के लिये विजयनामक धनुष बनाया था (कर्ण. विश्वा-दक्ष प्रजापतिकी एक पुत्री (आदि० ६५ । १२)। ३१ । ४२)। त्रिपुरदाहके समय भगवान् शिवके लिये दिव्य रथका निर्माण इन्होंने ही किया था (कर्ण०३४। विश्वाची-एक अप्सरा, जिसकी गणना छः प्रधान अप्सराओं१६-१७) । ( विशेष देखिये त्वष्टा ) में है (आदि०७४ । ६०)। इसके साथ राजा ययाति का विहार (आदि.७५। ४८ आदि० ८५।९)। विश्वकृत्-एक सनातन विश्वेदेव (भनु० ९१ ॥३६)। इसने अर्जुनके जन्मकालिक महोत्सवमें गान किया था For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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