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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विश्वामित्र ( ३२१ ) विश्वावसु (आदि. १२२ । १५)। यह कुबेरकी सभामें आकर सौ श्यामकर्ण घोड़े माँगे ( उद्योग० १०६ । २७)। उनकी सेवामें उपस्थित रहती है ( सभा० १०।। गालवसे गुरु-दक्षिणाके लिये तकाजा किया ( उद्योग. ११३ । २०-२१)। गालबसे छ: सौ घोड़े और माधवीविश्वामित्र-(१) एक तपस्वी महर्षि, जिन्होंने अपनी को गुरुदक्षिणारूपमें ग्रहण करना ( उद्योग १६९ तपस्यासे इन्द्रको संतप्त कर दिया था (आदि.७१। १७)। माधवीके गर्भसे अष्टक नामक पुत्रकी प्राप्ति २०)। इन्होंने मतङ्ग ऋषिका यज्ञ कराया तथा महर्षि (उद्योग० ११९ । १८)। इनका द्रोणाचार्यके पास वसिष्ठका उनके प्यारे पुत्रोंसे सदाके लिये वियोग करा आकर युद्ध बंद करने को कहना (द्रोण० १९० । ३५दिया और क्षत्रिय होकर भी ये तपोबलसे ब्राह्मणभाव- ४.)। इनकी ब्राह्मणत्व-प्राप्तिकी कथाका वर्णन को प्राम हो गये। अपने शौच-स्नानकी सुविधाके (शल्य. ४० । १२-३०) । इनके द्वारा सरस्वती लिये इनके द्वारा कौशिकी नदीका निर्माण किया नदीको शाप (शल्य. ४२ । ३८-३९)। इनके गया और इन्हींके द्वारा त्रिशङ्कको स्वर्गलाभ हुआ (आदि० जन्मका प्रसङ्ग (शान्ति०४९ । ३०)। भूखसे व्याकुल १। २७-३९)। इन्होंने मेनकाके गर्भसे शकुन्तला- होकर इनका एक चाण्डालके घरमें कुत्तेकी जाँघकी चोरीको जन्म दिया (आदि० ७२ । १-९)। ये अर्जुनके के लिये घुसना (शान्ति० १४१ । १३) । चाण्डालके जन्म-समयमें पधारे थे (आदि० १२२।५१)। ये कान्य- साथ संवाद (शान्ति० १४१ । ४५-९१) । मांस कुब्ज देशके अधिपति कुशिककुमार महाराज गाधिके पुत्र पकाकर देवताओं और पितरोंको संतुष्ट करनेपर उन्हींकी थे (आदि० १७४ । ३-४)। वसिष्ठके आश्रमपर इनका कृपासे इन्हें पवित्र भोजनकी प्राप्ति (शान्ति. १४१ । आगमन (आदि. १७४।१)। नन्दिनी (धेनु) ९९)।ये उत्तर दिशाके ऋषि हैं (शान्ति० २०८ । के प्रतापसे मुनिवर वसिष्ठद्वारा इनका भव्य स्वागत ३३-३४)। युधिष्ठिरद्वारा इनके प्रभावका वर्णन (अनु. (आदि. १७४।४-१२)। नन्दिनीके लिये इनकी ३ अध्याय)। इनके जन्मकी कथा तथा इनके पुत्रोंके वसिष्ठसे याचना (आदि. १७४।१६) । इनके नाम ( अनु. ४ अध्याय )। शिव-महिमाके विषयमें द्वाग वसिष्ठकी कामधेनुका अपहरण (आदि. १७४। इनका युधिष्ठिरसे अपना अनुभव बताना (भनु०१८ । २२)। नन्दिनीद्वारा इनकी समस्त सेनाओंकी पराजय १६)। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये ( आदि० १७४ । ३२-४३ )। इनके द्वारा वसिष्ठपर गये थे ( अनु० २६ । ५)। वृषादर्भिसे प्रतिग्रहके दोष विभिन्न अस्त्रोंका प्रहार ( आदि. १७४ । ४३ के बाद बताना (अनु० ९३ । ४३)।अरुन्धतीसे अपनी दुर्बलताका दा० पाठ )। वसिष्ठके ब्रह्मतेजसे पराजित होकर इनके. कारण बताना (अनु०९३।६३) । यातुधानीसे अपने नामद्वारा क्षात्रबलको धिक्कार (आदि०१७४ । ४५-४५)। का अभिप्राय बताना (अनु० ९३ । ९२)। मृणालकी उग्र तपस्याके बलसे इनको ब्राह्मणत्वका लाभ (आदि० चोरीके विषयमें शपथ खाना (अनु० ९३ । १२४१७४ । ४८)। इनकी प्रेरणासे शापग्रस्त कल्माषपादके १२६) । अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर शपथ शरीरमें किङ्कर नामक राक्षसका आवेश (आदि० १७५। खाना (अनु. ९४ । ३३)। इनके द्वारा धर्मके रहस्य२१)। इनकी प्रेरणासे राक्षसभावापन्न कल्माषपादद्वारा का वर्णन (अनु. १२६ । ३५-३७)। साम्बके पेटसे वसिष्ठके समस्त पुत्रोंका संहार (आदि. १७५। ११)।ये वृष्णि-अन्धकवंशविनाशक मूसल पैदा होनेका शाप देनेवाले कौशिकीके तटपर ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए (वन०४७।१३)। ऋषियों में ये भी थे (मौसल..। १५-२१)। इनोंने उत्पलावनमें अपने पुत्रके साथ यज्ञ किया (वन. (२) कुरुक्षेत्रकी सीमाके अन्तर्गत स्थित एक तीर्थ, ८७।१५)। कान्यकुब्ज देशमें इन्द्रके साथ सोमपान जहाँ स्नान करनेसे ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति होती है (वन. किया। वहीं ये क्षत्रियत्वसे ऊपर उठ गये और अपनेको ८३ । १३९)। ब्रामण घोषित किया ( वन०८७ । १७)। इन्होंने विश्वामित्रा-भारतवर्षकी एक प्रमुख नदी, जिसका जल कौशिकीके तटपर तपस्या की थी (वन. ११.। भारतवासी पीते हैं (भीष्म १।२६)। २०)। इनके द्वारा स्कन्दके तेरह संस्कार सम्पन हुए विश्वामित्राश्रम-कौशिकी नदीके पटपर अवस्थित विश्वामित्र (वन० २२६ । ।३ )। इनका ऋषि-पत्नियोंको । मुनिका आश्रम (वन०११ । २२)। निरपराध घोषित करना (वन. २२६ । १६)। ये वसिष्ठरूपधारी धर्मका भोजन सिरपर रखकर सौ वर्षो- विश्वायु-एक सनातन विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३४)। तक उनकी प्रतीक्षामें खड़े रहे ( उद्योग० १०६।८- विश्वावसु-(१) गन्धर्वराज । इनके द्वारा मेनकाके गर्भसे २१)। इनोंने गालबके हठसे गुरु-दक्षिणामें उनसे आठ प्रमद्वराकी उत्पत्तिकी कथा (आदि० ८।६-१)। ये म. ना.४१ For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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