SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेरुप्रभ www.kobatirth.org ( २६१ ) रमणीय कर्णिकारवन है । वहाँ भगवान् शंकर कनेरकी दिव्य माला धारण करके भगवती उमाके साथ विहार करते हैं। इस पर्वतके शिखर से दुग्धके समान श्वेत धारवाली पुण्यमयी भागीरथी गङ्गा बड़े वेग से चन्द्रहृदमें गिरती हैं। मेरुके पश्चिम भागमें केतुमाल वर्ष है, जहाँ जम्बूखण्ड नामक प्रदेश है । वहाँ के निवासियोंकी आयु दस हजार वर्षोंकी होती है। वहाँके पुरुष सुवर्णके समान कान्तिमान् और स्त्रियाँ अप्सराओंके समान सुन्दरी होती । उन्हें कभी रोग-शोक नहीं होते । उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है ( भीम० ६ । १० - ३३ ) । पर्वतद्वारा पृथ्वीदोहन के समय यह मेरु पर्वत दोग्धा ( दुहनेवाला ) बना था ( द्रोण० ६९ । १८ ) । त्रिपुर दाइके लिये जाते हुए भगवान् शिवने मेरु पर्वतको अपने रथकी ध्वजाका दण्ड बनाया था ( द्रोण० २०२ । ७८ ) । मेरुने स्कन्दको काञ्चन और मेघमाली नामक दो पार्षद प्रदान किये ( शल्य० ४५ । ४८-४९ ) । इसने पृथुको सुवर्णराशि दी थी (शान्ति ० ५९ । १ - ९ ) । यह पर्वतोंका राजा बनाया गया था (शान्ति० २२२ । २८ ) | व्यासजी अपने शिष्योंके साथ मेरु पर्वतपर निवास करते हैं ( शान्ति० ३४१ । २२-२३ ) । स्थूलशिरा और बड़वामुखने यहाँ तपस्या की थी ( शान्ति० ३४२ । ५९६०) । मेरुप्रभ- द्वारकापुरीके दक्षिणवर्ती लतावेष्ट पर्वतको घेरकर सुशोभित होनेवाले तीन वनोंमेंसे एक। शेष दो तालवन और पुष्पकवन थे । यह महान् वन बड़ी शोभा पाता था ( सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८१३, कालम १ ) । भूत - एक भारतीय जनपद ( भीष्म ० ९ । ४८ ) । मेरुवज - एक नगरी, जो राक्षसराज विरूपाक्षकी राजधानी थी ( शान्ति० १७० | १९ ) । मेरुसावर्णि (मेरुसावर्ण ) - एक ऋषि, जिन्होंने हिमालय पर्वत पर युधिष्ठिरको धर्म और ज्ञानका उपदेश दिया था ( सभा० ७८ । १४ ) । ये अत्यन्त तपस्वी, जितेन्द्रिय और तीनों लोकोंमें विख्यात हैं ( अनु० १५० । ४४४५)। मेष - स्कन्दका एक सैनिक ( शख्य० ४५ । ६४ ) । मेष - गरुडकी प्रमुख संतानोंमेंसे एक ( उद्योग० १०१ । १२)। मैत्र - ( १ ) एक प्रकार के राक्षस, जिनका सामना करनेको तैयार रहने के लिये युधिष्ठिरके प्रति लोमश मुनिकी प्रेरणा हुई । ( २ ) एक मुहूर्त, जिसमें श्रीकृष्णने इस्तिनापुरकी यात्रा आरम्भ की ( उद्योग० ८३ । ६ ) । ( ३ ) मैन्द अनुराधा नक्षत्र, जिसमें कृतवर्माने दुर्योधनका पक्ष ग्रहण किया ( शल्य० ३५ । १४ ) । ( ४ ) कनक या सुवर्ण ( अनु० ८५ । ११३ ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैत्रेय - एक प्राचीन ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते थे ( सभा० ४ । १० ) । इनका धृतराष्ट्र तथा दुर्योधनसे पाण्डवोंके प्रति सद्भाव रखनेका अनुरोध ( वन० १० | ११-२७ ) । इनके द्वारा दुर्योधनको शाप ( वन० १० । ३४ ) । हस्तिनापुर जाते समय श्रीकृष्ण से इनकी भेंट (उद्योग० ८३ । ६७ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । शरशय्यापर पड़े हुए भीष्म के पास ये भी गये थे ( शान्ति० ४७ । ६) । व्यासजीके साथ इनके धर्मविषयक प्रश्नोत्तर ( अनु० अध्याय १२० से १२२ तक ) । मैनसिल - एक पर्वतीय धातु, जो लाल रंगकी होती है ( वन० १५८ । ९४ ) । मैनाक - ( १ ) कैलास पर्वतसे उत्तर दिशामें स्थित एक पर्वत । इसके समीप ही विन्दुसरोवर है, जहाँ राजा भगीरथने गङ्गावतरणके लिये बहुत वर्षोंतक तपस्या की थी ( सभा० ३ । ९-११) । पाण्डवोंने उत्तराखण्डकी यात्रा के समय इस पर्वतको लाँघकर आगे पदार्पण किया था ( वन० १३९ । १ ) । विन्दुसरोवर के समीपवर्ती मैनाक पर्वत सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित है ( वन० १४५ । ४४ ) । पाण्डर्वोद्वारा मैनाक आदिका दर्शन ( वन० १५८ । १७ ) । कैलाससे उत्तर इसकी स्थितिका वर्णन ( भीष्म ० ६ । ४२ ) । ( २ ) पश्चिम दिशाका एक तीर्थभूत पर्वत, जो वैदूर्यशिखर के पास नर्मदाके तटप्रान्त है ( वन० ८९ । ११) । यहाँका तीर्थफल ( अनु० २५ । ५९ ) । ( ३ ) क्रौञ्चद्वीपमें अन्धकारके बादका एक पर्वत ( भीष्म ० १२ । १८ ) । मैन्द - एक वानरराज, जो किष्किन्धा नामक गुफामें रहता था। जिसे दक्षिण दिग्विजयके समय सहदेव सात दिनोंतक युद्ध करनेपर भी परास्त न कर सके थे, तब मैन्दने स्वयं ही प्रसन्न होकर सब प्रकारके रत्नोंकी भेंट दी और कहा - 'जाओ, बुद्धिमान् युधिष्ठिर के कार्य में कोई विघ्न नहीं पड़ना चाहिये' ( सभा० ३१ । १८ ) । यह वानरराज सुग्रीवका मन्त्री था और महामनस्वी, बुद्धिमान् तथा बली था ( चन० २८० । २३ ) | श्रीरामचन्द्रजीका कार्य करने के लिये जाती हुई विशाल वानर सेनाके रक्षकोंमें एक यह भी था ( वन० २८३ । १९ ) । मायासे अदृश्य हुए प्राणियोंको भी प्रत्यक्ष दिखा देनेकी शक्तिवाले कुबेरके भेजे हुए जलसे इसने भी अपने नेत्र धोये थे ( वन० २८९ । १० - १३ ) | For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy