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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाल्वसेनि ( ३४७ ) शिखण्डी करने के लिये उसपर आक्रमण किया था (शल्य. २.। १)। इसका हाथी पर्वतके समान विशालकाय, मदकी धारा बहानेवाला, मदोन्मत्त तथा ऐरावतके समान शक्तिशाली था। वह महाभद्र नामक गजराजके कुलमें उत्पन्न हुआ था । धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने सदा ही उसका आदर किया था । गजशास्त्रके शाता पुरुषोंने उसे अच्छी तरह सजाया था । वह युद्धके अवसरोंपर सदा ही सवारीके उपयोगमें लाया जाता था (शल्य. २० । २-३) उस हाथीपर आरूढ़ हुए राजा शाल्वका पाण्डवोपर आक्रमण और अपने पराक्रमसे पाण्डवसेनाको खदेड़ना। इसके हाथीका धृष्टद्युम्नपर आक्रमण करके उनके रथको घोड़ों और सारथिसहित कुचल डालना तथा धृष्टद्युम्नद्वारा उस गजराजका वध और सात्यकिद्वारा शाल्वके सिरका उच्छेद (शल्य० २०। ४-२६)। शाल्वसेनि-एक दक्षिण भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ६१)। शाल्वायन-एक प्राचीन राजा, जो जरासंधके भयसे अपने भाइयों तथा सेवकोंके साथ दक्षिण दिशाको भाग गया था (सभा०१४ । २७)। शाल्वेय ( शाल्वेयक)-शाल्वदेश तथा वहाँके निवासी (वन० २६४ ॥६, विराट. ३० । २, उद्योग. ५४। १८ उद्योग० १६३ । १०)। शिंशुमा-गान्धारराजकी पुत्री, इसका दूसरा नाम सुकेधी भी था । भगवान् श्रीकृष्णकी रानी (सभा० ३८।२९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ, पृष्ठ ८२०)।( विशेष देखिये सुकेशी) शिक्षक-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य० ४५ । ७६)। शिखण्ड-छत्रक (भुइँफोड़), जो वृत्रासुरके रक्तसे उत्पन्न हुआ है। यह ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्योंके लिये अभक्ष्य है (शान्ति. २०२। ६०)। शिखण्डिनी-राजा द्रुपदकी कन्या, जो आगे चलकर पुरुषरूपमें परिणत हो गयी थी। पुरुषरूपमें इसका नाम 'शिखण्डी' था ( उद्योग० १८८ । ४-१४; उद्योग १९१ ।)। ( विशेष देखिये शिखण्डी) शिखण्डी-राजा द्रुपदका पुत्र, जो पहले शिखण्डिनी नामवाली कन्याके रूपमें उत्पन्न होकर पीछे पुत्ररूपमें परिणत हो गया था। स्थूणाकर्ण नामक यक्षने इसका प्रिय करनेकी इच्छासे इसे पुरुष बना दिया था ( आदि. १३ । १२५)। यह राक्षसके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि०६७। १२६)। उपप्लव्य नगरमें अभिमन्युके विवाहोत्सवमें सम्मिलित हुआ था (विराट०७२।१७)। इसने उलूकको दुर्योधनके संदेशका उत्तर दिया था ( उणेग. १६३ । ४३-४५) । इसका द्रुपदके यहाँ उनकी मनस्विनी रानीके गर्भसे पुत्रीरूपमें जन्म । माता-पिता द्वारा इसके पुत्रीभावको छिपाकर पुत्र होनेकी घोषणा तथा इसके पुत्रोचित संस्कारोंका सम्पादन (उद्योग. १८८।९--१९)। इसे लेखन और शिल्पकलाकी शिक्षाका प्राप्त होना । माता-पिताका परस्पर सलाह करके इसका दशार्णराजकी कन्याके साथ विवाह कर देना (उद्योग० १८९।१-१३)। दशार्णराजकी कन्याक शिखण्डीके स्त्रीत्वका पता लगनेपर अपनीधार्यों और सखियोंको इसकी सूचना देना और धार्योंका दशार्णराजतक यह समाचार पहुँचाना । दशार्णराजका कुपित होना । शिखण्डीका राजकुलमें पुरुषकी भाँति घूमना-फिरना तथा दशार्णराजका दूत भेजकर कन्याको पुत्र बताकर धोखा देनेके अपराध द्रुपदको जड़मूलसहित उखाड़ फेंकनेकी धमकी देना (उद्योग. १८९ । १५-२३ )। हिरण्यवर्मा के भयसे घबराये हुए द्रुपदका अपनी महारानीसे संकटसे बचनेका उपाय पूछना । द्रुपदपत्नीका कन्याको पुत्र घोषित करनेका उद्देश्य बताना । राजाके द्वारा नगरकी रक्षाकी व्यवस्था और देवाराधन । शिखण्डीका वनमें प्राण त्याग देनेकी इच्छासे वनमें जाना, स्थूणाकर्ण यक्षके भवनमें तपस्या करना, यक्षका इसे वर माँगनेके लिये प्रेरित करना तथा शिखण्डिनीका अपने माता-पितापर आये हुए संकटके निवारणके लिये पुरुषरूपमें परिणत हो जानेके लिये इच्छा प्रकट करना ( उद्योग. १९१ अध्याय)। स्थूणाकर्णका पुनः लौटानेकी शर्तपर कुछ कालके लिये इसे अपना पुरुषत्व प्रदान करना । शिखण्डीका नगरमें आकर पिता तथा राजा हिरण्यवर्माको अपने पुरुषत्वका विश्वास दिलाकर संतुष्ट करना (उद्योग० १९२ । १-३२)। शिखण्डीका पुरुषत्व लौटानेके लिये यक्षके पास जाना और यक्षका अपनेको स्त्रीरूपमें ही रहनेका शाप प्राप्त हुआ बताकर इसे लौटा देना (उद्योग. १९२ । ५३-५७)। द्रोणाचार्यसे अस्त्रशिक्षाकी प्राप्ति ( उद्योग. १९२।६०-६१)। प्रथम दिनके संग्राममें अश्वत्थामाके साथ द्वन्द्वयुद्ध (भीष्मः ४५। ४६-४८)। द्रोणाचार्यके भयसे इसका युद्धसे हट जाना (भीष्म०६९।३१)। अश्वत्थामाके साथ युद्ध और उनसे पराजित होना (भीष्म०८२ । २६-३०)। शल्यके अस्त्रको दिव्यास्त्रद्वारा विदीर्ण करना (भीष्म ८५। २९-३०)। भीष्मको उत्तर देना और उनको मारनेके लिये प्रयत्न करना (भीष्म. १००। ४५-५०)। अर्जुनके प्रोत्साहनसे इसका भीष्मपर आक्रमण (भीष्म ११०१-३)। भीष्मपर धावा (भीष्म० ११४। ४०)। अर्जुनके प्रोत्साहनसे भीष्मपर आक्रमण (भीष्म For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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