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अग्नि
( ३ )
दाह ( आदि ० २२४ । ३४-३७ ) । मन्दपालद्वारा इनकी स्तुति (आदि० २२८ । २३ ) । शार्ङ्गकोद्वारा इनकी स्तुति ( आदि ० २३१ में ) । इनके द्वारा सहदेव के विरुद्ध राजा नीलकी सहायता तथा सहदेवसैनिकोंका जलना ( सभा० ३१ । २३-२४ ) । माहिष्मतीनरेश नीलकी पुत्री सुदर्शनाकी ओर इनका आकृष्ट होना ( सभा० ३१ । २७ ) । इनका ब्राह्मणरूपसे जाकर सुदर्शना के प्रति कामभाव प्रकट करना और राजा नीलद्वारा इनपर शासन ( सभा० ३१ । ३१ ) । नीलद्वारा इनको अपनी कन्या सुदर्शनाका दान ( सभा० ३१ । ३३ ) । राजा नीलपर अमिकी कृपा । राजाको वर माँगने के लिये प्रेरित करना । राजाका अमिदेवसे अपनी सेनाके लिये अभयदान माँगना ( वन० ३१ । ३४-३५ ) । माहिष्मतीकी स्त्रियों को अग्निदेवका वरदान ( वन० ३१ । ३८ ) । सहदेवद्वारा अग्निदेवकी स्तुति ( सभा० ३१ । ४१-४९ ) । अग्निदेवकी आज्ञा से नीलद्वारा सहदेवका सत्कार ( सभा० ३१ । ५८-५९ ) । इन्होंने बाणासुरकी राजधानीकी रक्षा की ( सभा० ३८ | २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । दमयन्ती- स्वयंवर में राजा नलको वर प्रदान किया ( वन० ५७ । ३६३) । ये कबूतर बनकर राजा उशीनर - की गोदमें छिपे ( वन० १३० । २४ और १९७ । ३)। इन्होंने राजा उशीनरको अपना परिचय तथा वर दिया ( वन० १९७ । २५ - २८ ) । महर्षि अङ्गिराको अपना प्रथम पुत्र स्वीकार किया ( वन० २१७ । १८)। सहनामक अग्निसे अद्भुत नामक मिकी उत्पत्ति (वन० २२२ । १ ) । सप्तर्षियोंकी पनि पर मोहित होकर ये वनमें चले गये ( वन० २२४ । ३३ - ३८ ) । इन्होंने स्कन्दकी रक्षा की ( वन० २२६ । २९ ) । सीताजीकी शुद्धिका समर्थन किया (वन० २९१ । २८ ) । अर्जुनने अस्त्रप्राप्ति के लिये अग्निदेवका आश्रय लिया था ( विराट० ४५ । ४० ) । इन्द्रकी खोज के लिये बृहस्पति के साथ अग्निका संवाद (उद्योग ० १५ | २८ से ३४ तक ) । उन्होंने बृहस्पतिको इन्द्रका पता बताया ( उद्योग ० १६ । १२) । ब्रह्माजीके रोषसे प्रकट हुए, अग्निदेवके द्वारा चराचर जगत्का दाह ( द्रोण० ५२ । ४१ ) । स्कन्दको पार्षद प्रदान किया ( शल्य० ४५ । ३३ ) । कार्तवीर्य अर्जुन से भिक्षा माँगकर उसकी सहायता से अग्निने ग्राम, वन एवं पर्वतोंके साथ आपव मुनिका आश्रम भी जलाया ( शान्ति० ४९ । ३८ से ४१ तक ) । ब्रह्माके कहने से इन्द्रकी ब्रह्महत्याका एक चतुर्थांश स्वीकार किया ( शान्ति० २८२ । ३५ ) । इन्होंने मेढकों, हाथियों और तोतोंको शाप दिया (अनु० ८५ | २८, ३६,४० ) । देवताओंको आश्वासन दिया ( अनु० ८५ । ५० 2 ) । गङ्गाजीके गर्भ में शिवजीका वीर्य स्थापित किया ( अनु०
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अग्निशिरतीर्थ
१२६ । २९-३४;
८५ । ५६ ) | प्रजापतियोंको अपनी संतान माना ( अनु० ८५ । ११८ ) । कार्तिकेयको बकरा दिया ( अनु० ८६ । २४ ) |तिरों और देवोंके अजीर्ण-निवारणका उपाय बतलाया ( अनु० ९२ । १० ) । इन्द्रादि देवताओंके समक्ष धर्मके रहस्यका वर्णन किया ( अनु० १२७ । १-५ ) । वे इन्द्रका संदेश लेकर मरुत्त के पास गये ( आश्व० ९ १४-१५ ) । इन्होंने मरुत्तका उत्तर इन्द्रको सुनाया ( आश्व० ९ । २२ - २३ ) । ब्राहाबलकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन किया ( आश्व० ९ । ३१-३७ ) । कुण्डलोंका अपहरण हो जानेपर नागलोक में गये हुए उत्तङ्कको अवरूपधारी अग्निदेवने सहायता दी, नागोंको क्षुब्ध करके कुण्डल लौटानेको विवश कर दिया ( आश्व० ५८ । ४१ – १५ तथा आदि० ३ । १५१-१५४ ) | इन्होंने महाप्रस्थान के समय अर्जुनसे गाण्डीव धनुष वापस लिया ( महाप्रस्थान ० १ । ३५-४३ ) ।
अद्मिकन्यापुर- अग्निपुरतीर्थ में स्नान करनेसे मिलनेवाला पुण्यलोक ( किसी-किसीके मतमें यह भी एक तीर्थ है ) ( अनु० २५ । ४३ ) ।
अग्नितीर्थ- सरस्वती के तटका एक प्रसिद्ध तीर्थ, जिसमें अग्निदेव शमी के गर्भ में छिपे थे ( वन० ८३ । १३८ ), ( शल्य० ४७ । १९ - २१ )। अग्निधारातीर्थ - एक पवित्र तीर्थका नाम । ( कोई-कोई इस तीर्थको गौतमवन के समीप बताते हैं ) ( वन ० ८४ । १४६ ) ।
अग्निपुर - एक तीर्थका नाम ( किन्हीं के मतमें इन्दौर राज्यमें नर्मदा के दक्षिणतटपर स्थित महेश्वर नामक स्थान ) ( अनु० २५ । ४३ ) ।
अग्निमान् - अग्निविशेष ( सूतिकागृहको अनिका अग्निहोत्रकी असे स्पर्श हो जानेपर प्रायश्चित्तके लिये अष्टाकपाल पुरोडाशकी आहुति इसी अग्निमें दी जाती है । ) ( वन० २२१ । ३१ )।
अग्निवेश-ये अनिके पुत्र थे, इन्होंने भरद्वाजसे आग्नेयास्त्र प्राप्त किया था । ये द्रोणाचार्य एवं द्रुपद के अस्त्रविद्यागुरु थे ( आदि० १२९ । ३९-४० ) । अगस्त्यद्वारा इनको धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त हुई थी ( आदि० १३८ । ९ ) । अग्निवेश्य - (१) अनिवेशका ही दूसरा नाम अग्निवेश्य है । युधिष्ठिरका आदर करनेवाले ब्रह्मर्षियोंमें इनका भी नाम आया है ( वन० २६ । २३ ) | ( २ ) भारतका एक प्राचीन जनपद ( भीष्म० ५० । ५२ ) । अग्निशिरतीर्थ-यमुना तटवर्ती तीर्थविशेष, जहाँ संजयपुत्र सहदेवने यज्ञ किया था ( वन० ९० | ५-७ ) ।
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