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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्दराचल ( २४६ ) मेय स्वीकार कर ली ( आदि० २२८ अध्याय)। मन्दपालका २५।२९)। (२)(उत्तराखण्डमें गढ़वालकी केदारलपितासे अपने बच्चोंकी रक्षाके लिये चिन्ता प्रकट पर्वतमालासे निकलनेवालो मन्दाग्नि' या कालीगङ्गा' करना । लपिताके ईर्ष्यायुक्त वचन सुनकर मन्दपालका । नामवाली नदी) जिसका जल भारतवासी पीते हैं (भीष्म उससे अपने कथनकी यथार्थता बताना और अपने ९ । ३४ )। (३) यक्षराज कुबेरकी कमल-पुष्पोसे बच्चोंके पास जाना । बच्चोंद्वारा अभिनन्दित न होने- सुशोभित एक बावड़ी, जो गङ्गाजलसे पूर्ण होनेके कारण पर इनका जरितासे ज्येष्ठ आदि पुत्रोंका परिचय पूछना। 'मन्दाकिनी' कहलातो है (अनु० १९३२)। जरिताका उन्हें फटकारना । मन्दपालका स्त्रियोंके सौतिया मन्दार-हिरण्यकशिपुका ज्येष्ठ पुत्र, जो शिवजीके वरसे एक दादरूपी दोषका वर्णन करके उनकी अविश्वसनीयता अबंद वर्षोंतक इन्द्रसे युद्ध करता रहा । उसके अङ्गीपर बताना । तत्पश्चात् अपने पास आये हुए पुत्रौको इनका भगवान् विष्णुका वह भयंकर चक्र तथा इन्द्रका वज्र भी आश्वासन देना और उनको तथा जरिताको साथ लेकर पुराने तिनकेके समान जीर्ण-शीर्ण-सा हो गया था (अनु. देशान्तरको प्रस्थान करना ( आदि. २३२ । २ से १४ । ७१-७५)। आदि. २३३ । ४ तक)। मन्दोदरी-(१) रावणकी पत्नी (बन० २८१। १६)। मन्दराचल-एक पर्वत, जिसकी ऊँचाई ग्यारह हजार (२) स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य ४६ । योजन थी। वह पृथ्वीके भीतर भी उतनी ही गहराई तक धंसा हुआ था। इसका विशेष वर्णन ( आदि. मन्मथकर-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य.४५। ७२)। १८ | १-३) । भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे शेषनागके मन्युमान्-भानु (मनु) नामक अग्निके द्वितीय पुत्र द्वारा समुद्रमन्थनके लिये इसका उत्पाटन ( आदि. __ (वन० २२१ । ११)। १८।६-८) । समुद्रमन्थनके लिये इसे मथानी बनाया गया था ( आदि. १८ । १३)। समुद्रमन्थनके मय-एक दानव, जिसने कुछ कालनक खाण्डववनमें निवास समय इसके द्वारा जल-जन्तुओं एवं पातालवासी प्राणियोंका किया था। अर्जुनने इसे वहाँ जलनेसे बचाया था; अतः संहार (भादि० १८।१६-२१)। यह कुबेरकी सभामें इसने उनके लिये एक दिव्य सभाभवनका निर्माण किया। उपस्थित हो उनकी उपासना करता है (सभा० १० । जिसे दुर्योधन ले लेना चाहता था (आदि.६।। ४४. ३१)। कैलासके पास मन्दराचलकी स्थिति है, जिसके ४९) । यह खाण्डवदाहके समय तक्षकके निवासस्थानसे ऊपर माणिवर यक्ष और यक्षराज कुबेर निवास करते हैं। निकलकर भागा । श्रीकृष्णने इसे भागते देखा । अग्निवहाँ अहासी हजार गन्धर्व और उनसे चौगुने किन्नर एवं देव मूर्तिमान् होकर गर्जने और इस राक्षसको माँगने यक्ष रहते हैं (वन० १३९ । ५-६)। स्वप्नावस्थामें श्री- लगे। श्रीकृष्णने इसे मारने के लिये चक्र उठाया । तब कृष्णके साथ कैलास जाते हुए अर्जुनने मार्गमें महामन्दराचल- यह अर्जुनकी शरणमें गया और उन्होंने इसे अभय दे पर पदार्पण किया था, जो अप्सराओंसे व्याप्त और किन्नरों- दिया। यह देख न तो श्रीकृष्णने इसे मारा और न से सुशोभित था (द्रोण.८० । ३३)। भगवान् शंकरने अग्निदेवने जलाया ही (आदि० २२७ । ३९-४५)। त्रिपुरदाहके समय मन्दराचलको अपना धनुष एवं रथका यह दानवोंका श्रेष्ठ शिल्पी तथा नमुचिका भाई था धुररा बनाया था (द्रोण. २०२ । ७६; कर्ण. ३४ । (भादि० २२७।४१-४५) । मयासुरका श्रीकृष्ण और २.)। उत्तरदिशाकी यात्रा करते समय अष्टावक्र मुनि अग्निसे अपनी रक्षा हो जानेपर अर्जुनको इस उपकारके इस पर्वतपर गये थे (अनु० १९ । ५४)। बदलेमें अपनी ओरसे कुछ सेवा अर्पित करनेकी इच्छा प्रकट करना। अर्जुनका बदलेमें कोई सेवा लेनेसे इनकार मन्दवाहिनी-एक नदी, जिसका जल भारतवासी पोते हैं करनेपर मयासुरका अपनेको दानवोंका विश्वकर्मा बताना (भीष्म० ९ । ३३)। और उनके लिये प्रसन्नतापूर्वक किसी वस्तुका निर्माण मन्दाकिनी-(१) गिरिवर चित्रकूट के पास बहनेवाली एक करनेकी इच्छा प्रकट करना (सभा०1। ३-६)। सर्वपापनाशिनी नदी, जिसमें स्नानपूर्वक देवता-पितरोंकी अर्जुनका मयासुरसे श्रीकृष्णकी इच्छाके अनुसार कोई पूजा करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है (बन० कार्य करनेके लिये कहना और श्रीकृष्णका इसे धर्मराज .८५। ५८-५९)। इसकी गणना भारतकी उन प्रमुख युधिष्ठिरके लिये एक दिव्यसभाभवन का निर्माण करनेके नदियोंमें है, जिनका जल भारतीय प्रजा पीती है (भीष्म. लिये आदेश देना (सभा० १ -१३)। मयासुरका ५। ३६) । चित्रकूटमें मन्दाकिनीके जलमें स्नान करके प्रसन्नतापूर्वक उनकी आज्ञाको शिरोधार्य करना, युधिष्ठिरउपवास करनेसे मनुष्य राजलक्ष्मीसे सेवित होता है (अनु. द्वारा इसका सत्कार, इसका पाण्डवोको दैत्यों के For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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