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रुक्मी
रुद्रमार्ग
मनोहर प्रासादका निर्माण किया है, उसका विस्तार सब यह कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी कन्याके स्वयंवरम गया था
ओरसे एक-एक योजनका है, उसके ऊँचे शिखरपर सुवर्ण (शान्ति०४।.)। मढ़ा गया है, जिससे वह मेरु पर्वतके उत्तुङ्ग शृङ्गकी शोभा रुचि-(१) अलकापुरीकी एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्रके धारण कर रहा है । वह प्रासाद महात्मा विश्वकर्माने स्वागतके अवसरपर कुबेर-भवनमें नृत्य किया था (अनु. महारानी रुक्मिणीके रहनेके लिये बनाया है । यह इनका १९।४.)। (२) महर्षि देवशर्माकी पत्नी, जो सर्वोत्तम निवास है (सभा० ३८।२८ के बाद दा.
अनुपम सुन्दरी थी । इन्द्र इसपर आसक्त हो गये थे । पाठ, पृष्ठ ८१४, कालम २)।
(अनु. ४० । 10-1८)। इसकी रक्षाका भार अपने रुक्मी -एक श्रेष्ठ नरेश, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्यके अंशसे शिष्य विपुलको सौपकर देवशर्माका यज्ञके लिये बाहर जाना
उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६२)। (यह विदर्भदेशीय (अनु. ४० । २१-४१)। विपुलका योगद्वारा भोजकट नगरका राजा, भीष्मकका पुत्र और रुक्मिणीका
रुचिके शरीरमें प्रवेश करना (अनु०४०।५८-६०)। भाई था।) यह भोजकटका निवासी था, सहदेवके कामासक्त इन्द्रका रुचिके पास आना और अपना परिचय दिग्विजयके समय इसने प्रेमपूर्वक उनका शासन स्वीकार देना (अनु. ४१ ।२-८)। विपुलद्वारा इन्द्रसे किया था (सभा०३१ । ६२-६३)। कर्णकी दिग्विजय
रुचिकी रक्षा और देवशर्माके लौटनेपर रुचिको उन्हें के समय इसका उसे कर देना (वन० २५४।१४)।
सौंपना ( अनु० ४१ । २७-२१)। उसका अपनी पाण्डवोंकी ओरसे इसको रणनिमन्त्रण भेजनेका
बहिन प्रभावीके यहाँ, जो अङ्गराजकी पत्नी थी, जाते निश्चय किया गया था ( उद्योग. ४ । १६)। समय मार्गमें किसी देवसुन्दरीकी वेणीसे गिरे हुए इसके पिता दाक्षिणात्य देशके अधिपति और साक्षात् सुगन्धित पुष्पको अपनी वेणीमें गूंथकर जाना और उस इन्द्र के सखा महामना भीष्मक थे, जिन्हें हिरण्यरोमा भी पुष्पको देखकर प्रभावतीका वैसे ही पुष्प मँगवा देनेके कहते हैं । रुक्मी सम्पूर्ण दिशाओंमें विख्यात था । इसने
लिये इससे अनुरोध करना (अनु. ४२ । ५-१०)। गन्धमादननिवासी किंपुरुषप्रवर द्रुमका शिध्य होकर चारों इसका आश्रमपर लौटकर देवशर्मासे वैसे ही पुष्प मँगा पादोंसे युक्त सम्पूर्ण धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की थी। इसे
देनेके लिये आग्रह करना ( अनु. ४२।)। इन्द्रदेवताका तेजस्वी विजय नामक धनुष प्राप्त हुआ था
पतिके साथ इसका स्वर्गलोकमें जाना (अनु. ४३ । जो गाण्डीव और शाईधनुषके समान ही तेजस्वी था। १७)। यह धनुष उसे अपने गुरुदेव द्रुमसे ही प्राप्त हुआ था । रुचिपर्वा-राजा आकृतिका पुत्र, जिसने भीमसेनकी रक्षाके इसने पूर्वकालमें श्रीकृष्णद्वारा किये गये अपनी बहन लिये भगदत्तके हाथीपर आक्रमण किया और भगदत्तद्वारा रुक्मिणीके अपहरणको सहन न कर सकनेके कारण यह मारा गया (द्रोण. २६ । ५१-५३)। प्रतिज्ञा की थी कि मैं श्रीकृष्णको मारे बिना अपने नगरको नहीं लौटूंगा । परंतु भगवान् श्रीकृष्णके पास पहुँचकर ।
रुचिप्रभ-एक राक्षस, जो प्राचीनकालमें इस पृथ्वीका यह उनसे पराजित हो गया, अतः लजावश पुनः
शासक था, परंतु कालके वश होकर इसे छोड़ परलोककुण्डिनपुरको नहीं लौटा। जहाँ उसकी पराजय हुई,
__ वासी हो गया था (शान्ति० २२७ । ५२)। वहीं उसने भोजकट नामक नगर बसाया और उसी में वह रुद्र-महादेवजीका एक नाम (उद्योग० ११७।१०)। समस्त परिवारके साथ रहने लगा ( उद्योग० १५८ । ( विशेष देखिये शिव ) १-१६)। यह एक अक्षौहिणी सेनासे घिरा हुआ
रुद्रकोटि-यह वह स्थान है, जहाँ शिवजीके दर्शनकी पाण्डवोके पास आया । इसके मनमें श्रीकृष्णका प्रिय
अभिलाषासे करोड़ों मुनि एकत्र हुए थे और उनपर करने की इच्छा थी । पाण्डवोंको इसकी सूचना मिली और
प्रसन्न होकर शिवजीने करोड़ों शिवलिङ्गोंके रूपमें उन्हें युधिष्ठिरने आगे बढ़कर इसकी अगवानी की। आदर
दर्शन दिया था । यहाँ स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका सत्कारके पश्चात् इसने विश्राम किया । तदनन्तर इसने
फल मिलता है और कुलका उद्धार हो जाता है (वन० अर्जुनसे कहा-'यदि तुम डरे हुए हो तो मैं तुम्हारी
८२ । ११८-१२४; वन० ८३ । ७७)। सहायताके लिये आ पहुँचा हूँ ।' अर्जुनने हँसकर इसकी सहायता लेनेसे इनकार कर दिया । तब इसने दुर्योधनके
रुद्रपद-एक तीर्थ, जहाँ जाकर शिवजीकी पूजा करनेसे पास जाकर वहाँ भी यही बात कही । वीर मानी दुर्योधनने अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है (वन० ८२ । इसकी सहायताको ठुकरा दिया और यह सकुशल अपने .१००)। घरको लौट गया (उद्योग० १५८ । १७-३९)। रुद्रमार्ग-एक तीर्थ, यहाँ जाकर एक दिन-रात उपवास
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