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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युधिष्ठिर ( २७८ ) युधिष्ठिर ग किक अग्निमें दग्ध हो जानेका वर्णन करते हुए लिये कहना; परंतु इनका शरणागत कुत्ते को न त्यागने का विलाप करना (आश्रम० ३८ अध्याय)। राजा युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती-इन तीनोंकी अस्थिर्योको कुत्ते के रूपमें आये हुए धर्मके द्वारा युधिष्ठिरका अभिनन्दन गङ्गामें प्रवाहित कराना और उनके श्राद्धकर्म करना तथा इन्द्र और धर्मके साथ इनका सदेह स्वर्गमें जाना (आश्रम० ३९ अध्याय ) । युधिष्ठिरका अपशकुन ( महाप्रस्थान० ३।१७-२५)। देवर्षि नारदद्वारा देखना और यादवोंके विनाशका समाचार सुनकर भाइयों- इनकी प्रशंसा, इन्द्र के द्वारा उत्तम लोकमें रहने के लिये सहित दुःखशोकमें मग्न हो जाना ( मौसल० १।- प्रेरित होनेपर भी इनका अपने भाइयोंके बिना वहाँ रहनेसे ११)। युधिष्ठिरका भाइयोसहित कालपाशको स्वीकार इनकार करना और उनके साथ शुभ या अशुभ किसी भी करनेका निश्चय करके युयुत्सुको राज्यकी देख-भालका लोकमें रहने की इच्छा प्रकट करना (महाप्रस्थान. ३ । भार सौंपना और परीक्षितको अपने राज्यपर अभिषिक्त २६-३८)। स्वर्गमें दुर्योधनको श्रीसम्पन्न देख अमर्षमें करके सुभद्रासे हस्तिनापुरमें परीक्षित्को और इन्द्रप्रस्थमें भरे हुए युधिष्ठिरका सहसा पीछे लौटना और उसके साथ वज्रको रखकर इनकी रक्षाके लिये कहना (महाप्रस्थान रहनेसे अनिच्छा प्रकट करके अपने भाइयोंके स्थानमें १।३-९)। इनके द्वारा वसुदेव, भगवान् श्रीकृष्ण जानेकी उत्सुकता दिखाना (स्वर्गा.१-१०)। तथा बलराम आदिके लिये जलाञ्जलि-दान एवं श्राद्ध- हँसते हुए नारदजीका युधिष्ठिरको स्वर्गमें दुर्योधनकी सम्पादन (महाप्रस्थान.१।१०-18)। कृपाचार्यकी सम्मानपूर्ण स्थितिका परिचय देना और इन्हें उससे मिलनेपूजा करके उनके शिष्यत्वमें परीक्षितको सौंपना ( महा- के लिये कहना (स्वर्गा० ।।११-१८)। इनका प्रस्थान ।। १४-१५)। प्रजा, मन्त्री आदिको बुला- अपने भाइयों तथा सगे-सम्बन्धियोंको मिले हुए लोकोंके कर उनके सामने अपने महाप्रस्थानविषयक विचारको विषयमें जिज्ञासा प्रकट करना और उन सबसे मिलनेकी प्रकट करना और उनके मना करनेपर भी उनकी अनुमति अभिलाषा व्यक्त करना ( स्वर्गा.१।२०-२६)। ले भाइयोसहित महाप्रस्थानका ही निश्चय करना ( महा- देवदूतका युधिष्ठिरको मायामय नरकका दर्शन कराना प्रस्थान. १।१६-१९)। भाइयोसहित अपने आभूषण तथा भाइयोका करुण-क्रन्दन सुनकर इनका वहीं रहनेका उतारकर इनका उत्सर्गकालिक इष्ट करवाना और निश्चय करना (स्वर्गा.२ अध्याय)। इन्द्र और धर्मका अग्मियोंका जलमें विसर्जन करके महायात्राके लिये प्रस्थित युधिष्ठिरको सान्त्वना देना तथा इनका मन्दाकिनी में स्नान होना ( महाप्रस्थान. १ । १९-२२) । युधिष्ठिरकी करके मानवशरीरका त्याग कर दिव्यलोकमें जाना (स्वर्गा. इच्छा के अनुसार पाँचों भाई पाण्डव, द्रौपदी और एक ३ अध्याय)। युधिष्ठिरका दिव्यलोकमें श्रीकृष्ण-अर्जुन कुत्ता-इन सबका एक साथ हस्तिनापुरसे निकलना आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंका दर्शन करना (स्वर्गा. (महाप्रस्थान. ।२४-२५)। इन सबका पूर्व दिशा- अध्याय)। इनका धर्मके स्वरूपमें प्रवेश (स्वर्गा. की ओर प्रस्थान, युधिष्ठिरका सबसे आगे होकर चलना ५।२२)। (महाप्रस्थान. १।२९-३१) । अग्निदेवका लाल- महाभारतमें आये हुए युधिष्ठिरके नाम---आजमीढ, सागरके तटपर अर्जुनसे गाण्डीव धनुष और अक्षय तूणीर अजातशत्रु, भारत, भरतशार्दूल, भरतप्रवई, भरतर्षभ त्याग देनेके लिये कहना और भाइयोंकी प्रेरणासे अर्जुनका भरतसत्तम) भरतसिंह, भीमपूर्वज, धर्म, धर्मज, धर्मनन्दन, वह सब कुछ जलमें फेंक देना (महाप्रस्थान ।। ३३- धर्मप्रभव, धर्मपुत्र, धर्मराट, धर्मराज, धर्मसूनु, धर्मसुत, १२)। इनका पूर्वसे दक्षिण और पश्चिम दिशाकी ओर धर्मतनय, धर्मात्मज, कौन्तेय, कौरव, कौरवश्रेष्ठ, कौरवाजाना (महाप्रस्थान. १ । १३-४६)। मार्गमें द्रौपदी, ग्र्य, कौरवनन्दन, कौरवनाथ, कौरवर्षभ, कौरवसतम) सहदेव, नकुल, अर्जुन, भीमसेनका गिरना तथा युधिष्ठिर- कौरववंशवर्धन, कौरवेन्द्र) कौरव्य, कुन्तीनन्दन, युन्तीद्वारा प्रत्येकके गिरने का कारण ताया जाना (महा- पुत्र, कुन्तीसुत, कुरुशार्दूल, कुरुश्रेष्ठ, कुरुश्रेष्ठतम प्रस्थान. २ अध्याय)। इनके पास इन्द्रका रथ लेकर कुरूदह, कुरुकुलश्रेष्ठ, कुरुकुलोद्वह, कुरुमुख्य कुरुनन्दना आना और इन्हें उसपर बैठनेके लिये कहना (महा- कुरुपाण्डवाग्र्य, कुरुपति, कुरुप्रवीर, कुरुपुङ्गवः कुरुराज, प्रस्थान०३।१)। इनका इन्द्र के मुखसे भाइयों और कुरुसत्तम, कुरूत्तम, कुरुवर्धन, कुरुवीर, कुरुवृषभ, द्रौपदीके स्वर्गमें पहुँचनेका वृत्तान्त सुनकर अपने साथ मृदंगकेतु, पाण्डव, पाण्डवश्रेष्ठ, पाण्डवाय, पाण्डवमुख्य आये हुए कुचेको भी लेकर स्वर्गमें चलनेका निश्चय प्रकट पाण्डवनन्दन, पाण्डवर्षभ, पाण्डवेय, पाण्डुनन्दन, पाण्डुकरना (महाप्रस्थान. ३ । २-७)। इन्द्रका कुत्तेके । नृपात्मज, पाण्डुपुत्र, पाण्डुसूनु, पाण्डुसुत, पाण्डुवीर, लिये स्वर्गमें स्थान न बताकर इनसे अकेले ही चलनेके पार्थ, यादवीमातः, यादवीपुत्र आदि । For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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